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प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा......
तृतीय अध्याय........{156). देशविरतियों का विवेचन षट्खण्डागम में नहीं हैं।
जहाँ तक संख्यात वर्ष की आयुवाले मिथ्यादृष्टि मनुष्यों का प्रश्न है, संख्यात वर्ष की आयुष्यवाले मनुष्य पर्याय में आयुष्य पूर्ण करके चारों ही गतियों की सभी स्थिति में जन्म लेते है, किन्तु यदि वे मिथ्यादृष्टि है, तो नव ग्रैवेयक तक ही जन्म लेते हैं । संख्यात वर्ष की आयु वाले सासादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवी मनुष्य मृत्यु को प्राप्त करके तिर्यंच, मनुष्य और देव-इन तीन गतियों में जन्म लेते हैं। यदि तिर्यंच में जन्म लें, तो वे एकेन्द्रिय और पंचेन्द्रिय में ही जन्म लेते हैं, विकलेन्द्रियों में नहीं । एकेन्द्रिय में जन्म ले, तो बादर प्रत्येक शरीरी पर्याप्तो में ही जन्म लेते हैं। यदि पंचेन्द्रिय में जन्म ले, तो गर्भज पर्याप्त संज्ञी पंचेन्द्रिय संख्यात वर्ष की आयुवाले में ही जन्म लेते हैं। यदि देवों में जन्म ले, तो नव ग्रेवेयक देवों तक ही जन्म लेते हैं। सम्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवी मनुष्य इसी गुणस्थान में मृत्यु को प्राप्त नहीं करते हैं, अतः यहाँ इनकी गतियों का विचार नहीं किया गया है । असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवर्ती मनुष्य, मनुष्य पर्याय से मृत्यु को प्राप्त करके एक मात्र देव गति को ही प्राप्त होते हैं। देवगति में भी वे सौधर्म देवलोक से सर्वार्थसिद्ध विमानवासी देवों तक जन्म लेते हैं। इसी प्रकार असंख्यात वर्ष के आयुवाले मनुष्य, चाहे वे मिथ्यादष्टि गणस्थान में हो. चाहें वे सासादनसम्यग्दष्टि गणस्थान में अथवा अविरतसमयग्दृष्टि गुणस्थान में, वे मरकर नियम से देवगति को ही प्राप्त होते हैं।
मिथ्यादृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवर्ती देव इन गुणस्थानों में मृत्यु को प्राप्त करके तिर्यंच या मनुष्य गति को ही प्राप्त करते हैं। यदि तिर्यंच गति को प्राप्त करते हैं, तो वे एकेन्द्रिय और पंचेन्द्रिय ही होते हैं, विकलेन्द्रिय नहीं होते हैं। एकेन्द्रिय में बादर पर्याप्त पृथ्वीकाय, अप्काय और प्रत्येक वनस्पतिकाय में जन्म लेते हैं। यदि पंचेन्द्रिय तिर्यच होते हैं. तो संजी. गर्भज. पर्याप्त और संख्यात वर्ष की आयुवाले पंचेन्द्रिय तिर्यंच होते हैं। इसी प्रकार यदि वे मनुष्यगति में जन्म लेते हैं, तो वे गर्भज, पर्याप्त, संज्ञी एवं संख्यात वर्ष की आयुवाले ही होते हैं। सम्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवर्ती देव उसी गुणस्थान में देव पर्याय से च्युत नहीं होते हैं. अतः उनकी भावी गति का विचार अपेक्षित नहीं है। जहाँ तक अविरतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवर्ती देवों का प्रश्न है, वे नियम से ही मनुष्यगति मे जन्म लेते हैं। मनुष्यगति में वे नियम से ही गर्भज, पर्याप्त, संज्ञी तथा संख्यात वर्ष की आयुवाले होते हैं। यहाँ विशेष इतना समझना चाहिए कि आनतकल्प से लेकर नवें ग्रैवेयक तक के मिथ्यादृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि और अविरतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवर्ती देव, देव पर्याय से च्युत होकर मनुष्यगति में ही जन्म लेते हैं । षट्खण्डागम द्वितीय खण्ड में वर्णित गुणस्थानों में बन्ध हेतु :
षट्खण्डागम के क्षुद्रकबन्ध नामक द्वितीयखण्ड के सत्परूपणा में बताया गया है कि बन्ध दो प्रकार का है-साम्परायिकबन्ध और ईर्यापथबन्ध। साम्परायिक बन्ध भी दो प्रकार का हैं-सूक्ष्मसम्परायिक और बादरसाम्परायिक। ईर्यापथ बन्ध भी दो प्रकार का हैं - छद्मस्थ और केवली । चौदह मार्गणास्थान बन्धकों की प्ररूपणा के आधरभूत होने के कारण यहाँ उन्हें दर्शाया गया है - गति, इन्द्रिय, काय, योग, वेद, कषाय, ज्ञान, संयम, दर्शन, लेश्या, भव्यत्व, सम्यक्त्व, संज्ञी और आहार ।
चौदह मार्गणाओं में गतिमार्गणा में नारकी, तिर्यंच. देव नियम से बन्धक हैं तथा मनुष्य बन्धक भी है और अबन्धक भी है। मिथ्यात्व, अविरति, कषाय और योग-ये चार कर्मबन्ध के कारण हैं। अयोगी गुणस्थानवी जीवों में कर्मबन्ध के सभी कारण का अभाव होने से वे अबन्धक हैं और शेष सभी गुणस्थानवी मनुष्य बन्धक हैं, क्योंकि कर्मबन्ध के निमित्तभूत कारणों से युक्त हैं। बन्ध के चार कारणों में से मिथ्यात्व का उदय मिथ्यात्व मोहनीय, नपुंसकवेद, नरकायु, नरकगति, जाति चतुष्क, हुंडकसंस्थान, असंप्राप्तासृपाटिका संघयण, नरकागतिप्रायोग्यानुपूर्वी, आतप नामकर्म, स्थावर नामकर्म, सूक्ष्म नामकर्म, अपर्याप्त नामकर्म और साधारण नामकर्म-इन सोलह प्रकृतियों के बन्ध का कारण हैं। अनन्तानुबन्धी कषाय का उदय निद्रा-निद्रा, प्रचला-प्रचला, स्त्यानगृद्धि, अनन्ताबन्धीचतुष्क, स्त्रीवेद, तिर्यंचायु, तिर्यंचगति, न्यग्रोधपरिमण्डल आदि चार संस्थान, वज्रऋषभनाराच आदि
१८८ षट्खण्डागम, पृ. ३४५ से ४६४, प्रकाशनः श्री श्रुतभण्डार व ग्रन्थ प्रकाशन समिति, फलटण
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