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प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा..
तृतीय अध्याय........{157} चार संघयण, तिर्यंचगतिप्रायोग्यानुपूर्वी, उद्योत नामकर्म, अप्रशस्तविहायोगति नामकर्म, दुर्भग नामकर्म, दुःस्वर नामकर्म, अनादेय नामकर्म और नीचगोत्र-इन पचीस प्रकृतियों के बन्ध का कारण है। अप्रत्याख्यानीयकषाय का उदय अप्रत्याख्यानीयकषाय चतुष्क, मनुष्यायु, मनुष्यगति नामकर्म, औदारिक शरीर नामकर्म, औदारिकशरीरांगोपांग नामकर्म, वज्रऋषभनाराचसंघयण नामकर्म और मनुष्यगतिप्रायोग्यानुपूर्वी नामकर्म-इन दस प्रकृतियों के बन्ध का कारण है । प्रत्याख्यानीय कषाय का उदय प्रत्याख्यानीयकषाय चतुष्क इन चार प्रकृतियों के बन्ध का कारण है। असातावेदनीय, अरति, शोक, अस्थिर नामकर्म, अशुभनामकर्म और अयशःकीर्ति नामकर्म-इन छः प्रकृतियों के बन्ध का कारण प्रमाद है। चार संज्वलनकषायों और नौ नोकषायों के तीव्र उदय का नाम प्रमाद है। प्रमाद का कषाय में अन्तर्भाव हो जाता है। देवायु (अप्रमत्त गुणस्थान तक), निद्रा, प्रचला (अपूर्वकरण के सप्तम भाग तक), देवगति, पंचेन्द्रिय जाति, वैक्रिय, आहार, तैजस, कार्मण शरीर, समचतुरस्रसंस्थान, वैक्रियशरीरांगोपांग, आहारकशरीरांगोपांग, वर्ण नामकर्म, गंध नामकर्म, रस नामकर्म, स्पर्श नामकर्म, देवगतिप्रायोग्यानुपूर्वी, अगुरुलघु नामकर्म, उपघात नामकर्म, पराघात नामकर्म, उच्छ्वास नामकर्म, प्रशस्तविहायोगति नामकर्म, स्थिर नामकर्म, शुभ नामकर्म, सुभग नामकर्म, सुस्वर नामकर्म, आदेय नामकर्म, निर्माण नामकर्म, तीर्थंकर नामकर्म अपूर्वकरण के सात भागों में से छः भाग तक; हास्य, रति, भय, जुगुप्सा (अपूर्वकरण के अन्तिम भाग तक) चार संज्वलन और पुरुषवेद अनिवृत्तिकरण गुणस्थान तक; इन प्रकृतियों के बन्ध का कारण भी कषाय का उदय है । पांच ज्ञानावरणीय, चार दर्शनावरणीय, यशः कीर्ति, उच्चगोत्र और पांच अन्तराय (सूक्ष्मसंपराय गुणस्थान तक) - इन सोलह प्रकृतियों के बन्ध का कारण भी कषाय का उदय है । सातावेदनीय के बन्ध का कारण एकमात्र योग है।
इन्द्रियमार्गणा में एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय जीव बन्धक हैं । पंचेन्द्रिय जीव बन्धक भी हैं और अबन्धक भी हैं। मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से लेकर सयोगीकेवली गुणस्थान तक के प्रत्येक गुणस्थानवी जीव बन्धक हैं, क्योंकि उनमें बन्ध के कारण पाए जाते हैं । अयोगीकेवली गुणस्थानवी जीव अबन्धक हैं, क्योंकि उनमें बन्ध के कारणों का अभाव है ।
___कायमार्गणा के अनुसार पृथ्वीकाय, अप्काय, तेजस्काय, वायुकाय, वनस्पतिकाय के जीव बन्धक हैं । त्रसकाय के जीव बन्धक भी है और अबन्धक भी हैं । क्योंकि प्रथम गुणस्थान से लेकर तेरह-वे गुणस्थान तक त्रसकाय के जीवों में बन्ध के कारण पाए जाते हैं, किन्तु चौदहवें गुणस्थानवर्ती त्रसकाय के जीवों में उनका अभाव होता है।
योगमार्गणा के अनुसार मनोयोगी, वचनयोगी और काययोगी जीव बन्धक हैं। अयोगी जीव अबन्धक हैं ।
वेदमार्गणा के अनुसार स्त्रीवेद, पुरुषवेद और नपुंसकवेदवाले जीव बन्धक हैं। अपगतवेदवाले जीव बन्धक भी हैं और अबन्धक भी हैं। अनिवृत्तिकरण गुणस्थान के अवेद भाग से लेकर सयोगीकेवली गुणस्थान तक के गुणस्थानवर्ती अपगतवेदवाले जीव बन्धक हैं तथा अयोगीकेवली गुणस्थानवर्ती अपगतवेदवाले जीव अबन्धक हैं।
कषायमार्गणा के अनुसार क्रोधकषाय, मानकषाय, मायाकषाय और लोभकषायवाले जीव बन्धक हैं। अकषायवाले जीव बन्धक भी हैं तथा अबन्धक भी हैं । उपशान्तमोह गुणस्थान से लेकर सयोगीकेवली गुणस्थान तक के प्रत्येक गुणस्थानवर्ती अकषायवाले जीव बन्धक हैं तथा अयोगीकेवली गुणस्थानवर्ती अकषायवाले जीव अबन्धक हैं।
__ ज्ञानमार्गणा के अनुसार मति-अज्ञानी, श्रुत-अज्ञानी, विभंगज्ञानी, आभिनिबोधिक ज्ञानी, श्रुतज्ञानी, अवधिज्ञानी, मनः पर्यवज्ञानी जीव बन्धक हैं। केवलज्ञानी जीव बन्धक भी हैं और अबन्धक भी हैं। सयोगीकेवली गुणस्थानवर्ती केवलज्ञानी जीव बन्धक हैं तथा अयोगीकेवली गुणस्थानवर्ती केवलज्ञानी जीव अबन्धक हैं।
संयममार्गणा के अनुसार असंयत और संयतासंयत जीव बन्धक हैं। संयत जीव बन्धक भी हैं और अबन्धक भी हैं। मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से लेकर अविरतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान तक के प्रत्येक गुणस्थानवर्ती असंयत जीव बन्धक हैं। देशविरति गुणस्थानवर्ती संयतासंयत जीव भी बन्धक हैं। प्रमत्तसंयत गुणस्थान से लेकर सयोगीकेवली गुणस्थानवर्ती संयत जीव भी बन्धक हैं। अयोगीकेवली गुणस्थानवर्ती संयत जीव अबन्धक हैं।
दर्शनमार्गणा के अनुसार चक्षुदर्शन, अचक्षुदर्शन और अवधिदर्शनवाले जीव अबन्धक हैं। केवलदर्शनवाले जीव बन्धक भी
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