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________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा...... द्वितीय अध्याय........{52} | स्थानकवासी और तेरापंथी परम्पराएं इनमें से केवल प्रथम चार को ही स्वीकार करती है। इनमें प्रथम क्रम दशाश्रुतस्कंध या आचारदशा का है। इस ग्रन लए क्या आचरणीय है और क्या आचरणीय नहीं है, इसकी चर्चा है। इसके अतिरिक्त इस ग्रन्थ में उपासकों की ग्यारह प्रतिमाओं का भी वर्णन है। इसमें सामान्य रूप से विरत, संयत, अप्रमत्त आदि शब्दों का प्रयोग देखा जाता है, किन्तु इन सभी शब्दों का प्रयोग मूलतः मुनि के सन्दर्भ में ही हुआ है। इसीप्रकार इस ग्रन्थ के आठवें अध्याय के परिशिष्ट के रूप में, जो पर्युषणकल्प (कल्पसूत्र) है, उसमें भगवान महावीर का जीवन वर्णित है। उसमें उनके केवलज्ञान आदि का भी विवरण आता है, किन्तु इस समग्र विवेचन में हमें गुणस्थान सम्बन्धी कोई विवेचन उपलब्ध नहीं हुआ है। २. व्रतकल्प और गुणस्थान : इसी प्रकार द्वितीय छेदसूत्र व्रतकल्प भी मुनि-आचार और तत्सम्बन्धी प्रायश्चित से सम्बन्धित है। इसमें भी यद्यपि संयत, प्रमत्त और अप्रमत्त आदि पद देखे जाते हैं, किन्तु वे सभी मुनि आचार की व्यवस्थाओं के सन्दर्भ में ही प्रयुक्त हुए हैं, गुणस्थान सिद्धान्त से उनका कोई सम्बन्ध प्रतीत नहीं होता है। ३. व्यवहारसूत्र और गुणस्थान : इसी क्रम में तीसरा स्थान व्यवहारसूत्र का है। यह ग्रन्थ भी मुख्यरूप से मुनि जीवन में लगे हुए दोषों की परिशुद्धि के लिए विविध प्रकार के प्रायश्चितों का विधान करता है। इस सम्पूर्ण ग्रन्थ में भी हमें गुणस्थान सिद्धान्त से सम्बन्धित कोई चर्चा उपलब्ध नहीं होती है। केवल उपशान्त पद मिलते हैं, किन्तु उनका प्रयोग गुणस्थान के सन्दर्भ में नहीं हुआ है। ४. निशीथसूत्र और गुणस्थान : छेदसूत्रों में चौथा स्थान निशीथसूत्र का है। यद्यपि छेदसूत्रों में यह सबसे विस्तृत ग्रन्थ है, किन्तु इस ग्रन्थ में भी हमें गुणस्थान सम्बन्धी कोई चर्चा उपलब्ध नहीं होती है, क्योंकि इस सूत्र में मुख्यरूप से दो बातों का विचार किया गया है। एक तो यह कि मुनि जीवन के लिए निषिद्ध कार्य कौन-कौन से है और उन निषिद्ध कार्यों को करने पर किस प्रकार की प्रायश्चित-व्यवस्था है। निशीथसूत्र के सम्बन्ध में हमें यह भी जान लेना चाहिए कि पहले यह सूत्र आचारांग की चूला के रूप में निर्मित हुआ है, उसके पश्चात् वहाँ से इसे पृथक् करके एक स्वतन्त्र ग्रन्थ के रूप में यहाँ स्थान दिया गया है। आचारांग की चूला होने के कारण इसका सम्बन्ध मुनि-जीवन के लिए क्या कल्प्य है और क्या अकल्प्य है इसकी चर्चा से ही है, इसीलिए इसमें गुणस्थान सम्बन्धी कोई भी चर्चा उपलब्ध नहीं होती है। ५. जीतकल्प और गुणस्थान : छेद सूत्रों में पाँचवें छेदसूत्र के रूप में जीतकल्प का स्थान है। जीतकल्प प्रायश्चित सम्बन्धी ग्रन्थ है। इसमें विस्तार से इस बात की चर्चा उपलब्ध होती है कि मुनि जीवन में किस नियम का भंग करने पर कौन-सा और कितना प्रायश्चित लेना होगा। यह ग्रन्थ दस प्रकार के प्रायश्चितों का उल्लेख करते हुए यह बताता है कि किस अपराध के लिए इनमें से कौन-सा प्रायश्चित कितनी मात्रा में दिया जाता है। इस ग्रन्थ में भी हमें गुणस्थान सम्बन्धी कोई भी चर्चा उपलब्ध नहीं होती है। ६. महानिशीथ और गुणस्थान : छेदसूत्रों में महानिशीथ छठे छेदसूत्र के रूप में स्वीकार किया गया है। महानिशीथसूत्र मूलतः तो प्राचीन आचार्य द्वारा ११० वही, कल्प. १११ वही, व्यवहारो. ११२ वही, निसिहीआए. ११३ जीतकल्प-आगम सुत्ताणि सटीकं सं.दीपरत्न सागर, भाग २३, प्रकाशनः आगमश्रुत प्रकाशन अहमदाबाद ११४ महानिशीथ, प्रकाशक -दला. भारतीय संस्कृति विद्या मन्दिर, अहमदाबाद Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001733
Book TitlePrakrit evam Sanskrit Sahitya me Gunsthan ki Avadharana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarshankalashreeji
PublisherRajrajendra Prakashan Trust Mohankheda MP
Publication Year2007
Total Pages566
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, Soul, & Spiritual
File Size20 MB
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