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प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा......
द्वितीय अध्याय........{28} ..
२. सूत्रकृतांग और गुणस्थान :
अंग-आगमों में दूसरा स्थान सूत्रकृतांग का है। विद्वानों ने इसे भी प्राचीन स्तर का आगम माना है। आचारांग के समान ही सूत्रकृतांग भी दो श्रुतस्कन्धों में विभक्त है। इसके प्रथम श्रुतस्कन्ध में सोलह और द्वितीय श्रुतस्कन्ध में सात अध्ययन हैं। दिगम्बर परम्परा में प्रतिक्रमण ग्रन्थत्रयी नामक पुस्तक में इसके तेईस अध्ययनों के नाम उपलब्ध होते हैं, जिनके नगण्य अन्तर को छोड़कर वर्तमान में उपलब्ध सूत्रकृतांग में समरूपता पाई जाती है। जहाँ आचारांगसूत्र मूलतः आचार-प्रधान है, वहीं सूत्रकृतांगसूत्र मूलतः दर्शन प्रधान है। यद्यपि इसमें आचार सम्बन्धी अनेक अध्ययन भी है, फिर भी ग्रन्थ के प्रारम्भ में समय नामक अध्ययन में और ग्रन्थ के अन्तिम नालन्दीय अध्ययन में विविध दार्शनिक विचारणा का उल्लेख होने से इसे दर्शन सम्बन्धी ग्रन्थ भी माना जाता है। नन्दीसूत्र और समवायांग में इसकी विषयवस्तु का चित्रण करते हुए यह माना गया है कि इसमें जैन और जैनेत्तर ग्रन्थों का विवरण उपलब्ध होता है। जैसा कि हमने संकेत किया है, प्रथम समय नामक अध्ययन में और अन्तिम नालन्दीय नामक अध्ययन में भगवान महावीर के समय में प्रचलित विभिन्न दार्शनिक मान्यताओं का अच्छा चित्रण उपलब्ध होता है। इस ग्रन्थ का एक अन्य वैशिष्ट्य यह है कि जहाँ आचारांगसूत्र में अहिंसा की अवधारणा पर विशेष बल दिया गया है, वहीं सूत्रकृतांग में अपरिग्रह पर विशेष बल दिया गया है। यद्यपि दोनों ही ग्रन्थों में पंच महाव्रतों का उल्लेख है, फिर भी सूत्रकृतांग की यह विशेषता है कि हिंसा के कारणों का विश्लेषण करते हुए यह कहता है कि हिंसा का कारण परिग्रह है। यहाँ हम इन सब प्रश्नों पर विस्तार से चर्चा न करते हुए अपने शोधविषय के आधार पर मात्र यह देखने का प्रयत्न करेंगे कि क्या सूत्रकृतांग में गुणस्थान की अवधारणा के प्रसंग में कोई विचारणा या संकेत है या नहीं ? यदि वे उपलब्ध होते हैं तो किस रूप में ? आगे हम इसी सम्बन्ध में विशेष चर्चा करेंगे। ___जहाँ तक गुणस्थान सिद्धान्त से सम्बन्धित शब्दों या पदों की सूत्रकृतांग में उपस्थिति का प्रश्न है, सूत्रकृतांग में हमें अनिवृत्त (२/६/५३), अप्रमत्त (१/६/३०), अविरत (२/४/१), असंयत (१/७/८), उपशान्त (२/१/६०), मिथ्यादृष्टि (१/१/३७-४०, ५६), विरत (१/१०/६), विरताविरत (२/२/७५), संयत (१/१/३७) आदि अवस्थाओं के उल्लेख मिलते हैं। इन्हें भी संक्षिप्त रूप में सामान्य दृष्टि से देखें तो मिथ्यादृष्टि, अविरतसम्यग्दृष्टि, विरताविरतं, विरत, अनिवृत्त और उपशान्त अवस्थाएं सामान्यतया गुणस्थान सिद्धान्त से सम्बन्धित प्रतीत अवश्य होती है, किन्तु जिन सन्दर्भो में इन अवस्थाओं का उल्लेख हुआ है, वे गुणस्थान सिद्धान्त से सम्बन्धित है या नहीं, यह प्रश्न विचारणीय है। आगे हम इस पर चर्चा करेंगे। जहाँ तक मिथ्यादृष्टि शब्द का प्रश्न है, इस शब्द का उल्लेख गुणस्थानों के अतिरिक्त भी विविध प्रसंगों में हुआ है और अनेक आगमों में इसका उपयोग हुआ है। सूत्रकृतांग में भी हमें मिथ्यादृष्टि शब्द का प्रयोग तो देखने को मिला है, किन्तु वहाँ इस शब्द का प्रयोग अनार्य मिथ्यादृष्टि श्रमण के रूप में हुआ है। यहाँ यह गुणस्थान का सूचक नहीं है। इसी प्रकार अविरतसम्यग्दृष्टि शब्द भी, जो चतुर्थ गुणस्थान का सूचक है, सूत्रकृतांग में कहीं नहीं पाया जाता है। सूत्रकृतांग में अविरय, अविरइ, विरताविरत आदि शब्द मिलते हैं। इसमें अविरति को आरम्भस्थान,अनाहारीस्थान आदि के नाम से अभिहित किया गया है। प्रथम तो इन शब्दों के साथ न तो गुणस्थान शब्द का प्रयोग हुआ है और न ही उक्त प्रसंगों में उसकी कोई चर्चा है। अतः सूत्रकृतांग में प्रयुक्त अविरय, अविरई, विरयाविरई शब्द चाहे गुणस्थान की अवधारणा के निकट हैं, फिर भी सूत्रकृतांग में उनका गुणस्थान के रूप में कोई उल्लेख नहीं है। वे साधक की सामान्य अवधारणाओं के ही उल्लेख हैं। इसी प्रकार सूत्रकृतांग में प्रयुक्त संजय (संयत) शब्द अवस्था का ही सूचक है। सूत्रकृतांग में विशेष रूप से हमें अनिवृत्त शब्द का प्रयोग मिलता है, लेकिन यहाँ अनिवृत्त शब्द उन श्रमणों के लिए आया है, उन हस्तीतापसों के लिए आया है, जो दोषों से निवृत्त नहीं है। इस प्रकार यह अनिवृत्त शब्द सूत्रकृतांग में गुणस्थान के सन्दर्भ में प्रयुक्त नहीं है। इसी प्रकार आचारांग के साथ-साथ सूत्रकृतांग में भी हमें गुणस्थान सम्बन्धी कोई निर्देश प्राप्त नहीं हुआ है।
१ वही, सूयगडो.
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