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प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा..
द्वितीय अध्याय........{29)
३. स्थानांगसूत्र और गुणस्थान :
अंग-आगमों में तृतीय स्थान स्थानांगसूत्र का है। स्थानांगसूत्र एक कोष शैली का ग्रन्थ है। इसमें संख्याओं के आधार पर जैनधर्म-दर्शन सम्बन्धी विविध विषयों का संकलन किया गया है। जैसे एक-एक तत्त्व कौन-से हैं?, दो-दो तत्त्व कौन-से हैं ? इस क्रम से, एक से लेकर दस तक की संख्याओं के आधार पर विभिन्न विषयों को संकलित किया गया है। इसकी शैली बौद्ध ग्रन्थ अंगुत्तरनिकाय से मिलती है। प्राचीनकाल में संख्याओं के आधार पर विषयों के संकलन करने की परम्परा रही है। वर्तमान में जैसे शब्दों के वर्णानुक्रम के आधार पर कोष बनते हैं, वैसे ही प्राचीनकाल में संख्याओं के आधार पर कोष-ग्रन्थ बनते थे। स्थानांगसूत्र भी उसी प्रकार का एक ग्रन्थ है। कोष-ग्रन्थ होने के कारण इसमें प्राचीन और परवर्तीकालीन सभी विषयों को संकलित करने का प्रयास किया गया है। यही कारण है कि विद्वानों ने इसे एक परवर्ती ग्रन्थ माना है। इसमें अनेक सूचनाएं ऐसी हैं, जो प्राचीन परम्परा का अनुसरण करती है। उदाहरण के रूप में इसमें दस दशाओं और उनकी विषयवस्तु का जो चित्रण है, वह प्राचीन स्तर का है, जबकि महावीर के नौ गणों सम्बन्धी जो उल्लेख है, वह परवर्तीकालीन है। इस ग्रन्थ में एक से लेकर दस तक की संख्याओं सम्बन्धी विषय संकलित किए गए हैं। इस सम्बन्ध में विस्तृत चर्चा में न जाकर यहाँ मात्र यही विचार करेंगे कि स्थानांगसूत्र में गुणस्थान सम्बन्धी विचारणा के कोई संकेत उपलब्ध है अथवा नहीं?
___ स्थानांगसूत्र में मिथ्यादृष्टि, अविरति, असंयत, संयतासंयत, संजय (संयत), सूक्ष्मसंपराय, उपशान्तकषाय, क्षीणमोह, सयोगीकेवली, अयोगीकेवली जैसे शब्दों का प्रयोग उपलब्ध होता है । इनमें विशेष रूप से अनिवृत्ति, सूक्ष्मसंपराय, उपशान्तकषाय, क्षीणमोह, सयोगी केवली, अयोगीकेवली-ऐसे शब्द हैं, जो सामान्य रूप से गुणस्थान से सम्बन्धित प्रतीत होते हैं। जहाँ तक सयोगीकेवली और अयोगीकेवली का प्रश्न है, भवस्थ केवलज्ञान की चर्चा के प्रसंग में यहाँ दो विभाग किए गए हैं- सयोगी भवस्थ केवलज्ञान और अयोगी भवस्थ केवलज्ञान। इसके पश्चात् पुनः सयोगी भवस्थ केवलज्ञान और अयोगी भवस्थ केवलज्ञान के लिए प्रथम समयवर्ती और अप्रथम समयवर्ती-ऐसे दो-दो विभाग किए गए हैं । इस प्रकार यहाँ सयोगी और अयोगी शब्दों का प्रयोग मात्र अवस्था विशेष के सन्दर्भ में ही है, गुणस्थान के सन्दर्भ में प्रतीत नहीं होता है। इसी प्रकार संयम पद की चर्चा के प्रसंग में संयम के दो विभाग किए गए हैं- सरागसंयम और वीतरागसंयम। पुनः सरागसंयम के दो भेद हैं- बादरसंपरायसंयम और सूक्ष्मसंपरायसंयम। वीतरागसंयम के भी दो भेद किए गए हैं- उपशान्तकषाय वीतरागसंयम और क्षीणकषाय वीतरागसंयम। इस प्रकार यहाँ भी ये अवस्थाएं मुख्य रूप से गुणस्थान से सम्बन्धित प्रतीत नहीं होती है, यद्यपि यह माना जा सकता है कि इन विविध अवस्थाओं को सुव्यवस्थित करके ही गुणस्थान सिद्धान्त का विकास हुआ है। यहाँ पर इन अवस्थाओं की चर्चा वस्तुतः संयम के भेद के रूप में ही हुई है। संयम के भेदों में सूक्ष्मसंपराय का उल्लेख है। सूक्ष्मसंपराय और बादरसंपराय के दो भेदों के आधार पर प्रथम समय बादरसंपराय और अप्रथम समय बादरसंपराय, प्रथम समय सूक्ष्मसंपराय और अप्रथम समय सूक्ष्मसंपराय- ऐसे चार भेद किए गए हैं। पुनः उपशान्तकषाय और क्षीणकषाय को लेकर भी चार भेद किए गए हैं- प्रथम समय उपशान्तकषाय और अप्रथम समय उपशान्तकषाय, प्रथम समय क्षीणकषाय और अप्रथम समय क्षीणकषाय। यहाँ संयम पद के जो आठ प्रकार बताए गए हैं, उनमें प्रथम समय और अप्रथम समय का जो आधार है, उसे देखकर सम्भवतः यह विचार हो सकता है कि प्रथम समय का तात्पर्य उस गुणस्थान में प्रवेश का समय और अप्रथम समय का तात्पर्य उस गुणस्थान में प्रवेश के बाद का समय हो । इस आधार पर ऐसा प्रतीत होता है कि इनका सम्बन्ध गुणस्थानों से है, लेकिन जैसा कि हमने पूर्व में कहा है कि इन अवस्थाओं की चर्चा आगमकाल में भी होती थी, अतः इनका सम्बन्ध गुणस्थानों से हो यह कहना कठिन है। क्योंकि आगम साहित्य में हमें कहीं भी गुणस्थान शब्द का उल्लेख नहीं मिलता है, इसीलिए इन अवस्थाओं को गुणस्थान सिद्धान्त की अवस्थाएं मानना सम्यक् प्रतीत नहीं होता है।
८२ वही, ठाणांग.
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