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प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा......
सप्तम अध्याय........{437}
आचार्य नानेश कृत गुणस्थान स्वरूप एवं विश्लेषण २०k आचार्य नानेश स्थानकवासी परम्परा के हुकमगच्छ के अष्टम आचार्य थे । आपका जन्म वीरभूमि मेवाड़ के दाँता गाँव के पोखरणा परिवार में ज्येष्ठ शुक्ला द्वितीया विक्रम संवत् १६७७ तदनुसार ईस्वी सन् १६२० में हुआ था। आपके पिता का नाम मोतीलालजी और माता का नाम श्रृगांरबाई था । आप आचार्य गणेशलालजी के शिष्य थे । आपने आगम साहित्य का अध्ययन
आपका स्वर्गवास कार्तिक कृष्णा तृतीया विक्रम संवत् २०५६ तदनुसार ईस्वी सन् १९९६ में हुआ। आपने पिछड़ी जातियों मे धर्म संस्कार देकर उनके धर्मपाल के रूप में उन्हें संस्कारित कर जैन समाज से जोड़ा। आपने समता दर्शन, समीक्षण ध्यानविधि के सम्बन्ध में ग्रन्थों का प्रणयन भी किया। आपकी गुणस्थान सम्बन्धी प्रस्तुत कति आपके आगमिक और कर्मसाहित्य के ज्ञान की परिचायक है।
इस कृति में सर्वप्रथम गुणस्थानों के स्वरूपों का विवेचन किया गया है। गुणस्थानों के स्वरूप विवेचन की दृष्टि से इसमें मिथ्यात्व गुणस्थान के सम्बन्ध में अति विस्तार से विचार किया गया है । लगभग बारह पृष्ठों में मिथ्यात्व गुणस्थान का विवेचन है । इसके पश्चात् सास्वादन गुणस्थान के स्वरूप का विवेचन करते हुए वहाँ औपशमिक सम्यक्त्व की प्राप्ति के हेतु के रूप में यथाप्रवृत्तिकरण, अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण का विस्तृत निर्देश हुआ है । इसके पश्चात् क्रमशः मिश्रदृष्टि अविरतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान, देशविरति गुणस्थान, प्रमत्तसंयत गुणस्थान, निवृत्तिबादर गुणस्थान की चर्चा है । निवृत्तिबादर गुणस्थान की चर्चा के प्रसंग में स्थितिघात, रसघात, गुणश्रेणी, गुणसंक्रमण और अपूर्वबन्ध का इसमें विवेचन किया गया है । इसके पश्चात् अनिवृत्तिबादरसम्पराय और सूक्ष्मसम्पराय गुणस्थानों का संक्षिप्त रूप में ही विवेचन किया गया है। इसके पश्चात् उपशान्तकषायवीतरागछद्मस्थ गुणस्थान के स्वरूप का विवेचन करते हुए प्रकारान्तर से उपशमश्रेणी का विवेचन विस्तार से किया गया है और यह बताया गया है कि किस प्रकार से जीव सत्ता में रही हुई विभिन्न कर्मप्रकृतियों का किस क्रम से उपशमन करता है । इसी प्रसंग में अन्तःकरण और कृष्टियों की भी चर्चा की गई है । कृष्टिकरण किस प्रकार किया जाता है इसकी विस्तृत जानकारी हमें इस ग्रन्थ में उपलब्ध होती है । कृष्टिकरण के सम्बन्ध में इससे अधिक जानकारी सम्भवतः अन्यत्र उपलब्ध नहीं है । यद्यपि पंचसंग्रह, कम्मपयडी, गोम्मटसार में कृष्टियों का विस्तृत विवेचन है, फिर भी यहाँ जिस स्पष्टता से उसका विवेचन किया गया है, वह विशेष महत्वपूर्ण है। इसी प्रकार आगे क्षीणकषायवीतरागछद्मथ गणस्थान के स्वरूप क्षपकश्रेणी का विस्तृत विवेचन किया गया है । इसमें भी अन्तःकरण और कृष्टियों की चर्चा है । इसके पश्चात् सयोगीकेवली गुणस्थान और अयोगीकेवली गुणस्थान के स्वरूप का विवेचन है । इस चर्चा का वैशिष्ट्य यह भी है कि इस सम्बन्ध में क्षय और उपशम के सम्बन्ध में आचार्यों में जो मतभेद रहे हुए हैं, उनका भी निर्देश किया गया है । विशेष रूप से यह मतभेद क्षीणकषायवीतरागछद्मस्थ गुणस्थान और अयोगीकेवली गुणस्थान के स्वरूप की चर्चा में कर्मप्रकृतियों का किस प्रकार से अन्तःकरण एवं क्षय होता है, इस बात को लेकर है । इन मतभेदों को स्पष्ट करने के लिए गुणस्थानक्रमारोह तथा कर्मग्रन्थ छः की आचार्य मलयगिरि की टीका का निर्देश किया गया है । इस प्रकार प्रस्तुत कृति में लगभग ७२ पृष्ठों में गुणस्थानों के स्वरूप का विवेचन करने के पश्चात् द्वितीय अधिकार में कायस्थिति, तृतीय अधिकार में योग, चतुर्थ अधिकार में लेश्या, पंचम अधिकार में बन्ध के कारणों, षष्ठ अधिकार में बन्ध के उत्तर हेतुओं का, सप्तम अधिकार में बन्ध का, अष्टम अधिकार में सत्ता का, नवम अधिकार में उदय का, दशम अधिकार में उदीरणा का, एकादश अधिकार में निर्जरा का, द्वादश अधिकार में भावों का, त्रयोदश अधिकार में उपयोग का, चतुर्दश अधिकार में जीवयोनि का, पंचदश अधिकार में आत्मा का गुणस्थानों के सन्दर्भ में विवेचन किया गया है । आत्मा सम्बन्धी इस विवेचन में भगवती सूत्र में वर्णित आठ आत्माओं के सम्बन्ध में किस गुणस्थान में कितनी आत्माएं पाई जाती है, इसका निर्देश किया गया है ।
४२० गुणस्थान स्वरूप एवं विश्लेषणः आचार्य नानेश, सम्पादकः डॉ. सुरेश सिसोदिया,
प्रकाशनः अखिल भारतीयर्षीय साधुमार्गी जैन संघ समता भवन बीकानेर (राज.), प्रथम संस्करण : सन् १९६८
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