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प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा........
पंचम अध्याय.......{400} गुणस्थान में आश्रव के कितने मूल कारण होते हैं, इसकी चर्चा की गई है । यहाँ मूल में मिध्यात्व, अविरति, कषाय और योग - ये चार ही आश्रव के मूल कारण माने गए हैं । इसमें प्रमाद की चर्चा नहीं की गई है । सामान्य चर्चा के प्रसंग में यह कहा गया है कि मिथ्यादृष्टि गुणस्थान में चारों ही आश्रव होते हैं । सास्वादन और मिश्र गुणस्थान में मिथ्यात्व के अतिरिक्त अविरति, कषाय और योग ये तीन प्रकार के आश्रव होते हैं। पंचम गुणस्थान में आंशिक विरति अवश्य होती है, फिर भी आंशिक अविरति के कारण अविरति, कषाय और योग- ये तीन आश्रव प्रत्यय होते हैं । छठे गुणस्थान से लेकर दसवें गुणस्थान तक, इन पांच गुणस्थानों में योग और कषाय- ये दो ही आश्रव प्रत्यय होते हैं । उपशान्तकषाय, क्षीणकषाय और सयोगी केवली गुणस्थान में आश्रव का एकमात्र कारण योग होता है । अयोगी केवली गुणस्थान में इसका भी अभाव हो जाता है। इसप्रकार सर्वप्रथम आश्र रूप मूल कारणों की चर्चा विभिन्न गुणस्थानों के सन्दर्भ में की गई । उसके पश्चात् इन चार कारणों के उत्तर विभागों को लेकर चर्चा उपलब्ध होती है । साथ ही प्रत्येक गुणस्थान में उनके कितने स्थान और भंग होते है, इसकी विस्तृत चर्चा है, किन्तु यह चर्चा चतुर्थ कर्मग्रन्थ में की जा चुकी है, अतः उसका पुनरावर्तन उचित नहीं है । इस दृष्टि से गोम्मटसार और विशेष रूप से इसकी उपर्युक्त गाथाओं की कर्णाटवृत्ति में कूट रचना आदि का भी उल्लेख हुआ है, किन्तु यह विषय अत्यन्त सूक्ष्म और गहन है । उसको समझकर प्रस्तुत करना असम्भव तो नहीं है, किन्तु उसके लिए अति गहराई में जाना आवश्यक है । इस शोध ग्रन्थ में विस्तारभय से यह सब चर्चा करना सम्भव नहीं है । हम केवल इतना ही निर्देश करना चाहेंगे कि जो इस सम्बन्ध में अधिक गहराई से जानने की इच्छा रखते हैं, तो उन्हें गोम्मटसार की गाथा क्रमांक ७६० से ७६६ तक की गाथाओं की कर्णाटवृत्ति का अध्ययन करना चाहिए ।
गोम्मटसार के कर्मकाण्ड का सप्तम अधिकार भावचूलिकाधिकार है । भावचूलिका में मुख्य रूप से (१) औपशमिक (२) क्षायोपशमिक (३) क्षायिक (४) औदयिक और (५) परिमाणिक - इन पांच भावों और उनके लक्षणों का तथा उनके उत्तर भेदों का विवेचन हुआ है । उसके पश्चात् गाथा क्रमांक ८१६ से ८२० तक में, किस गुणस्थान में कौन-कौन से भाव होते हैं, इसकी चर्चा
है । उसमें कहा गया है कि मिथ्यादृष्टि, सास्वादनसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि - इन तीन गुणस्थानों में औदयिक, क्षायोपशमिक और पारिणामिक ये तीन भाव होते हैं । पुनः, अविरतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान से लेकर उपशान्तमोह तक, आठ गुणस्थानों में पांचों भाव होते हैं । क्षीणकषाय गुणस्थान में औपशमिक भाव को छोड़कर शेष चार भाव होते हैं । सयोगीकेवली और अयोगीकेवली गुणस्थान में औदयिक, पारिणामिक और क्षायिक- ये तीन भाव होते हैं । इसके पश्चात् प्रत्येक भाव के उत्तरभेदों की चर्चा करते हुए, किस गुणस्थान में कितने उत्तरभाव होते हैं, इसकी और इनके आधार पर होने वाले विभिन्न विकल्पों की विस्तृत चर्चा है । इस चर्चा में गुण्य, गुणक, क्षेपक और भंग आदि को लेकर भी सूक्ष्म चर्चा की गई है । प्रस्तुत शोध प्रबन्ध में हमारा उद्देश्य, किस ग्रन्थ में किस रूप में गुणस्थान की चर्चा है, यह निर्दिष्ट करना ही है । अतः इस सम्बन्ध में यहाँ अधिक सूक्ष्मता में जाना विस्तार भय से सम्भव नहीं है। इच्छुक व्यक्ति गोम्मटसार के कर्मकाण्ड की भावचूलिकाधिकार की उपर्युक्त गाथाओं की कर्णाटवृत्ति के आधार पर इन तथ्यों को गहराई से समझ सकते है । इस अधिकार में आगे गाथा क्रमांक ८७६ से ८८६ तक में क्रियावादी, अक्रियावादी, अज्ञानवादी और वैनयिकवादी तथा कालवाद, ईश्वरवाद, आत्मवाद, नियतिवाद आदि की भी चर्चा है, जो प्रस्तुत गवेषणा की दृष्टि से अपेक्षित नहीं है । इन चर्चाओं के माध्यम से विभिन्न एकान्तवादों की चर्चा की गई है, जिसका सम्बन्ध मिथ्यात्व गुणस्थान से है ।
गोम्मटसार के कर्मकाण्ड के अन्तिम अष्टम अधिकार में अधःप्रवृत्तकरण, अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण की चर्चा हुई है । सम्यकत्व की उपलब्धि आदि प्रसंगों में इन तीन करणों का महत्वपूर्ण स्थान है । इन करणों की चर्चा हम प्रथम अध्याय में कर चुके है, अतः इसकी पुनरावृत्ति करने का कोई लाभ नहीं है । इस अधिकार में गुणस्थानों को लेकर कोई विशेष चर्चा उपलब्ध नहीं होती है, अतः गोम्मटसार के जीवकाण्ड और कर्मकाण्ड में गुणस्थान की अवधारणा किस रूप में उपस्थित है, इसकी चर्चा को यहाँ विराम देना चाहेंगे । अन्त में केवल हमारा यही कहना है कि गुणस्थान सिद्धान्त को गहराई से समझने के लिए पंचसंग्रह के समान ही गोम्मटसार का अध्ययन भी अपेक्षित है, क्योंकि गुणस्थान सम्बन्धी इतनी सूक्ष्म चर्चा अन्यत्र उपलब्ध नहीं है ।
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