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________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा.. सप्तम अध्याय........{432} होता है । ग्रन्थ की प्रस्तावित गाथा में ही यह कहा गया है कि इस ग्रन्थ में गुणस्थानों के सम्बन्ध में मूल एवं उत्तर कर्मप्रकृतियों के बन्ध, उदय, उदीरणा और सत्ता का विवेचन है । इसी गाथा की स्वोपज्ञ टीका में चौदह गुणस्थानों के स्वरूपों का विस्तृत विवेचन उपलब्ध होता है । साथ ही अग्रिम दो गाथाओं में संकेत रूप से और उनकी टीकाओं में विस्तृत रूप से यह बताया गया है कि गुणस्थानों में कर्मों के बन्ध, उदय, उदीरणा और सत्ता की अपेक्षा से कितने द्वार होते है । दूसरी और तीसरी गाथाओं की टीका में गुणस्थानों के सम्बन्ध में ६२ (द्विनवतिद्वाराणि) अनुयोगद्वारों का निर्देश हुआ है, किन्तु इन्हीं गाथाओं के टब्बार्थ में ६४ द्वारों का निर्देश हुआ है, जबकि प्रस्तावना में बुद्धिसागरजी ने ६६ द्वारों का निर्देश किया है । हमारी दृष्टि में स्वोपज्ञ टीका में उल्लेखित ६२ द्वारों में आश्रवद्वार, बन्धद्वार, संवरद्वार और निर्जराद्वार - ऐसे चार द्वारों के मिलाने पर ६६ द्वार हो जाते हैं। इन ६६ द्वारों का स्पष्टीकरण हम पूर्व में कर चुके हैं । अग्रिम गाथा में इन्हीं द्वारों का उल्लेख हुआ है। सर्वप्रथम गाथा क्रमांक ४ से लेकर १४ तक किन गुणस्थानों में किन कर्मप्रकृतियों का बन्ध होता है इसकी चर्चा है । गाथा क्रमांक १५ से लेकर २५ तक में यह बताया गया है कि विभिन्न गुणस्थानों में किन कर्मप्रकृतियों का उदय रहता है । उदय के साथ ही साथ उदीरणा का भी यथास्थान विवेचन हुआ है । गाथा क्रमांक २६ से लेकर ३३ तक विभिन्न गुणस्थानों में किन कर्मप्रकृतियों की सत्ता होती है, इसका विवचेन किया गया है । इसके पश्चात् गाथा क्रमांक ३४ में गुणस्थानों में जीवस्थानों का निर्देश किया गया है । गाथा क्रमांक ३५ में गुणस्थानों में गुणस्थानों का उल्लेख करते हुए यह बताया गया है कि प्रत्येक गुणस्थानों में उसी के नामवाला गुणस्थान होता है, किन्तु मिथ्यात्व गुणस्थान से लेकर सूक्ष्मसंपराय गुणस्थान तक कषायों की तीव्रता और मन्दता के आधार पर तरतमता होने से प्रत्येक गुणस्थानों में अध्यवसायों की भिन्नता रहती है और प्रति समय षट्स्थान हानि-वृद्धि देखी जाती है, किन्तु ग्यारहवें गुणस्थान से लेकर चौदहवें गुणस्थान तक चार गुणस्थानों में अध्यवसायों की तरतमता तो नहीं होती है, क्योंकि सभी में यथाख्यात चारित्र पाया जाता है, किन्तु कर्मों की निर्जरा की अपेक्षा से इनके भी अनेक भेद होते हैं । गाथा क्रमांक ३६ और ३७ में गुणस्थानों में योग सम्बन्धी तथा गाथा क्रमांक ३८ में गुणस्थानों में उपयोग सम्बन्धी निर्देश उपलब्ध होते हैं । गाथा क्रमांक ३६ में गुणस्थानों में लेश्या सम्बन्धी विवेचन है । गाथा क्रमांक ४० में गुणस्थानों में उत्तर बन्धहेतुओं की चर्चा है । इसके पश्चात् ४१ और ४२ में किस गुणस्थान में कितने उत्तर बन्धहेतु क्यों होते हैं, इसकी चर्चा की गई है । उसके पश्चात् गाथा क्रमांक ४३, ४४ एवं ४५ में विभिन्न गुणस्थानों में जीव के अल्प-बहुत्व सम्बन्धी विवेचन है । गाथा क्रमांक ४६ से ४८ में विभिन्न गुणस्थानों में कितने भाव होते हैं, इसका विवेचन किया गया है । भावों की इस चर्चा में विचारसार नामक इस ग्रन्थ का वैशिष्ट्य यह है कि गाथा क्रमांक ४६ में नवें और दसवें गुणस्थान में कुछ आचार्य क्षायिक भाव में क्षायिक सम्यक्त्व और क्षायिक चारित्र - ऐसे दो भाव मानते हैं, जबकि कुछ आचार्य क्षायिक भाव में केवल क्षायिक सम्यक्त्व को ही स्वीकार करते है । इस प्रकार भाव सम्बन्धी मतभेद का निर्देश किया गया है । आगे गाथा क्रमांक ५० से लेकर ५७ तक विभिन्न भावों के भेदों की चर्चा करते हुए विभिन्न गणस्थानों में उनके विकल्पों की भी चर्चा की गई है। Jain Education Interational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001733
Book TitlePrakrit evam Sanskrit Sahitya me Gunsthan ki Avadharana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarshankalashreeji
PublisherRajrajendra Prakashan Trust Mohankheda MP
Publication Year2007
Total Pages566
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, Soul, & Spiritual
File Size20 MB
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