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प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा......
तृतीय अध्याय........{177}
गाथा क्रमांक - १४७२, १४७५, १४८४, १४६७, १४६४, १४६८ और १४६६ आदि)क्षपक शब्द का सामान्य अर्थ है-जो कर्मों के क्षय करने के लिए तत्पर है, उसे क्षपक कहा जाता है । भगवतीआराधना के अनुसार जो आत्मा समाधिमरण की आराधना में लगी हुई है, वह वस्तुतः क्षपक ही है, किन्तु गुणस्थान सिद्धान्त के अनुसार क्षायिक शरीर से आरोहण करनेवाले आठवें गुणस्थान से लेकर दसवें गुणस्थानवर्ती आत्माओं को क्षपक कहा गया है, किन्तु भगवतीआराधना में सामान्यतया क्षपक शब्द का प्रयोग आठवें गुणस्थान से लेकर दसवें गुणस्थानवर्ती आत्माओं के लिए न होकर समाधिमरण के आराधक के लिए ही हुआ है। इसीलिए भगवतीआराधना में प्रयुक्त क्षपक शब्द को गुणस्थान का वाचक नहीं माना जा सकता है, किन्तु एकांत रूप से यह कथन भी उपयुक्त नहीं लगता है। गाथा क्रमांक १८७१ से १८८१ तक में शुक्लध्यान की चर्चा में यह बताया गया है कि क्षपक ही शुक्लध्यान का अधिकारी होता है। यहाँ क्षपक शब्द निश्चित ही गुणस्थानों का सूचक है। शुक्लध्यान के चारों प्रकार की चर्चा करते हुए भगवतीआराधना में स्पष्ट रूप से यह बताया गया है कि उपशान्तमोह गुणस्थानवर्ती आत्मा पृथक्त्वसवितर्कविचार नामक शुक्लध्यान के प्रथम चरण की स्वामी होती है। क्षीणकषाय गुणस्थानवर्ती आत्मा शुक्लध्यान के द्वितीय चरण की स्वामी होती है । सयोगीकेवली गुणस्थानवर्ती आत्मा शुक्लध्यान के तृतीय चरण की और अयोगीकेवली गुणस्थानवर्ती आत्मा शुक्लध्यान के चतुर्थ चरण की स्वामी होती है। इस प्रकार भगवतीआराधना में शुक्लध्यान के चारों चरणों के स्वामियों की चर्चा में गुणस्थान सिद्धान्त का अवतरण किया गया है । इसी क्रम में आगे गाथा क्रमांक १६६३ में यह बताया गया है कि क्षायिक सम्यक्त्व यथाख्यातचारित्र और क्षायोपशमिक ज्ञान की आराधना करके साधक क्षीणमोह अवस्था (गुणस्थान) को प्राप्त होता है और तदन्तर वह अरहन्त होता है । इसी प्रकार यहाँ भी हमें क्षीणमोह गुणस्थान और सयोगीकेवली गुणस्थान का निर्देश उपलब्ध होता
भगवतीआराधना की गाथा २०८२ से लेकर २११८ तक क्षपकश्रेणी का विवेचन हुआ है । इस चर्चा में भगवतीआराधनाकार ने गाथा क्रमांक २०८८ में स्पष्ट रूप से 'अणियट्टिकरणणामं णवमं गुणठाणमधिगम्म'-ऐसा उल्लेख किया है । इससे यह सिद्ध होता है कि भगवतीआराघनाकार शिवार्य गुणस्थान सिद्धान्त से सुपरिचित थे, क्योंकि इस सम्पूर्ण विवेचन में, वे न केवल क्षपकश्रेणी आरोहण की चर्चा करते हैं, अपितु यह भी बताते हैं कि क्षपकश्रेणी में अप्रमत्तसंयत गुणस्थान से प्रारंभ करके अयोगी केवली गुणस्थान तक आत्मा किन-किन कर्म प्रकृतियों का क्षय करती है । क्षपकश्रेणी के माध्यम से आरो विभिन्न स्थितियों की चर्चा करते हुए वे लिखते है कि क्षपकश्रेणी पर आरूढ़ होने की इच्छा से अप्रमत्तसंयत गुणस्थानवर्ती साधक धर्मध्यान में प्रवेश करता है। वह इस ध्यान के माध्यम से अनन्तानुबन्धी कषाय चतुष्क तथा मिथ्यात्व मोहनीय, मिश्रमोहनीय
और सम्यक्त्व मोहनीय-ऐसी सात कर्मप्रकृतियों का क्षय करके सप्तम गुणस्थान के अन्त में क्षायिक सम्यक्त्व को प्राप्त करके क्षपकश्रेणी पर आरोहण करता है। क्षपकश्रेणी पर आरोहण करते हुए प्रथम अपूर्वकरण (अष्टम गुणस्थान) को प्राप्त होता है । उसके पश्चात् अनिवृत्तिकरण नामक नवम गुणस्थान को प्राप्त करके निद्रा-निद्रा, प्रचला-प्रचला, स्त्यानगृद्धि, नरकगत्यानुपूर्वी, नरकगति, स्थावर नामकर्म, सूक्ष्म नामकर्म, साधारण नामकर्म, आतप नामकर्म, उद्योत नामकर्म, तिर्यंचानुपूर्वी, जाति चतुष्क, तिर्यंचगति, अप्रत्याख्यानावरण कषाय चतुष्क और प्रत्याख्यानावरण कषाय चतुष्क का क्षय करता है । फिर न गुणस्थान में ही नपुंसकवेद, स्त्रीवेद, हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, पुरुषवेद, संज्वलन क्रोध, संज्वलन मान और संज्वलन माया का क्षय करता है। अन्त में सूक्ष्मसंपराय नामक संयम को प्राप्त होता है । दसवें गुणस्थान के अन्त में सूक्ष्मलोभ की कृष्टि का क्षय करके क्षीणकषाय नामक बारहवें गुणस्थान को प्राप्त होता है । वहाँ यथाख्यातचारित्र और शुक्लध्यान के द्वितीय चरण को प्राप्त करता है । क्षीणकषाय नामक बारहवें गुणस्थान के उपान्त्य समय में सर्वप्रथम निद्रा और प्रचला का क्षय करता है । उसके बाद पांच ज्ञानावरण, चार दर्शनावरण और पांच अन्तराय का इस गुणस्थान में अन्तिम समय में क्षय करके केवलज्ञान को प्राप्त होता है। केवलज्ञान की प्राप्ति के अनन्तर तक अनुभूयमान मनुष्यायु की समाप्ति नहीं होती है, तब तक वह केवलज्ञानी होकर विहार करता है । अन्त में चारों अघाती कर्मों को क्षय करने के लिए काययोग का निग्रह करता है । आवश्यक होने पर कभी केवली
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