________________
प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा......
तृतीय अध्याय........{176} - है। एक अन्तर्मुहूर्त काल तक चतुर्थ शुक्लध्यान को ध्याकर चार अघातीकर्मों का क्षय कर मोक्ष को प्राप्त होता है। अयोगीकेवली गुणस्थान के उपान्त्य समय में बासठ और अन्तिम समय में तेरह प्रकृतियों का क्षय करती है। तत्पश्चात् आत्मा उर्ध्वगमन के स्वभाव के कारण एक ही समय में लोकान्त तक जाकर सिद्धालय में बिराजमान हो जाती है।
भगवती आराधना में १८८४ वीं गाथा की टीका में कहा है कि क्षपक अर्थात् साधक आत्मा एकाग्रचित्त से ध्यान कर उपशान्तकषायवीतरागछद्मस्थ आदि गुणस्थानों की श्रेणी पर आरूढ़ होकर विपुल कर्मनिर्जरा करती है। भगवतीआराधना की गाथा क्रमांक १६६३ में बताया गया है कि साधक क्षायिकसम्यग्दर्शन, यथाख्यातचारित्र और क्षायोपशमिकज्ञान की आराधना करके क्षीणमोह होता है और क्षीणमोह के बाद अरहंत होता है।
___ इस प्रकार भगवती आराधना के अध्ययन से यह तो ज्ञात होता है कि उसमें कुछ स्थलों पर गुणस्थानों के उल्लेख भी हैं, किन्तु सम्पूर्ण चौदह गुणस्थानों का सुव्यवस्थित उल्लेख भगवतीआराधना में प्राप्त नहीं होता है। भगवतीआराधना मूलतः संलेखना ग्रहण करने की विधि और उसकी साधना का विवेचन करती है, अतः उसके कर्ता के लिए गुणस्थानों का विवेचन अधिक महत्वपूर्ण नहीं रहा है। फिर भी उसमें यत्र-तत्र गुणस्थान सम्बन्धी विवरण उपलब्ध होते हैं। भगवतीआराधना में गुणस्थान सम्बन्धी यह चर्चा हमें दो रूपों में उपलब्ध होती हैं। प्रथम तो मूलगाथाओं में कहीं-कहीं गुणस्थान सम्बन्धी निर्देश मिलते हैं और कहीं-कहीं अपराजितसूरि की टीका में भी गुण स्थान सम्बन्धी विवरण प्राप्त होते हैं। यह सत्य है कि मूल ग्रन्थकार शिवार्य की अपेक्षा अपराजितसूरि ने गुणस्थानों का विशेष विवरण प्रस्तुत किया है । यहाँ हम इन दोनों को ही आधार बनाकर गुणस्थान की चर्चा करेंगे। भगवतीआराधना में प्रथम गाथा की टीका में अपराजितसूरि ने असंयतसम्यग्दृष्टि, संयतासंयत, प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयत-इन चार गुणस्थानों का उल्लेख करते हुए यह कहा है कि इन चारों गुणस्थानों के धारक, आराधक माने गए हैं। यहाँ यह ज्ञातव्य है कि चार गुणस्थानों का उल्लेख टीकाकार ने ही किया है । मूलगाथा में यह उल्लेख उपलब्ध नहीं होता हैं। भगवती आराधना की गाथा क्रमांक २६ में मरण के निम्न पांच प्रकार उल्लेखित हैं- (9) पण्डित-पण्डित मरण, (२) पण्डित मरण, (३) बालपण्डितमरण, (४) बालमरण और (५) बालबालमरण ।
इन पांच प्रकार के मरणों में गुणस्थानों का अवतरण करते हुए कहा गया है कि क्षीणकषाय गुणस्थानवी जीव और केवली पण्डित-पण्डित मरण को प्राप्त होते हैं। प्रमत्तसंयत गुणस्थान से लेकर उपशान्तमोह गुणस्थान तक के सभी गुणस्थानवी जीव पण्डितमरण को प्राप्त होते हैं। विरत अर्थात् पंचम गुणस्थानवी जीव बालपण्डितमरण को प्राप्त होते हैं। अविरतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवी जीव बालमरण को प्राप्त होते हैं और मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवी जीव बालबालमरण को प्राप्त होते हैं। यद्यपि यहाँ मूलगाथा में गुणस्थान शब्द का उल्लेख तो नहीं है, किन्तु केवली, क्षीणकषाय, विरताविरत, अविरतसम्यग्दृष्टि और मिथ्यादृष्टि जैसे गुणस्थानों से सम्बन्धित नाम अवश्य उपलब्ध होते हैं। यहाँ यह भी ज्ञातव्य है कि इन गाथाओं की टीका में अपराजितसूरि ने सयोगीकेवली और अयोगीकेवली का भी उल्लेख किया है । मात्र यही नहीं, उन्होंने यहाँ 'गुणस्थान अपेक्षायाम्' कहकर यह भी स्पष्ट किया है कि यह चर्चा गुणस्थानों की अपेक्षा से करते हैं। भगवतीआराधना की ४७ वीं गाथा में कहा गया है कि यदि सम्यग्दर्शन का आराधक और सुविशुद्ध तीव्र लेश्यावाला यदि मृत्यु के समय आराधक होता है, तो वह परित संसारी होता है, अर्थात् उसका संसार अत्यन्त अल्प रह जाता है । इसी क्रम में आगे अविरतसम्यग्दृष्टि को संक्लिष्ट भावों में रहने के कारण जघन्य आराधना होती है और केवली (अयोगीकेवली) को उत्कृष्ट आराधना होती है, जब कि अवशिष्ट सम्यग्दृष्टियों की आराधना मध्यम कही गई है। इसप्रकार यहाँ आराधना के तीन भेद करते हुए उनमें गुणस्थानों का अवतरण किया गया है । अतः भगवतीआराधना के प्रारंभ में चाहे मूलगाथाओं में स्पष्ट रूप से गुणस्थानों का उल्लेख न हुआ हो, किन्तु उनमें जिन अवस्थाओं का चित्रण मिलता है, उससे यह स्पष्ट हो जाता है कि भगवतीआराधना के रचयिता शिवार्य और उसके टीकाकार अपराजितसूरि गुणस्थान की अवधारणा से परिचित रहे हैं। इन प्रारंभिक गाथाओं के पश्चात् लगभग भगवतीआराधना की अठारह सौ गाथाओं में हमें गुणस्थान सम्बन्धी कोई चर्चा परिलक्षित नहीं होती है, किन्तु गाथाओं में क्षपक का उल्लेख अनेक बार हुआ है । (देखें -
Jain Education Interational
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org