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________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा..... षष्टम अध्याय........{424} विभिन्न जीवस्थानों में गुणस्थानों का प्रतिपादन किया गया है । उसके पश्चात् विभिन्न मार्गणाओं में गुणस्थान की अपेक्षा से कर्मप्रकृतियों के बन्धस्वामित्व आदि के सम्बन्ध में विस्तृत चर्चा की गई है । उसके पश्चात् मोह से मोक्ष तक की चौदह मन्जिलों में गुणस्थानों के स्वरूप पर लगभग ४५ पृष्ठों में अति विस्तार से प्रकाश डाला गया है । इसी क्रम में गाढ़ बन्धन से पूर्ण मुक्ति तक के चौदह सोपान नामक अध्याय में लगभग ५० पृष्ठों में गुणस्थान सम्बन्धी चर्चा है । पुनः विविध दर्शनों में आत्मविकास की क्रमिक अवस्थाएं नामक अध्ययन में गुणस्थान की अवधारणा का अन्य परम्पराओं से तुलनात्मक अध्ययन को लेकर विस्तृत विवेचन प्रस्तुत किया गया है । वैसे यह तुलनात्मक अध्ययन पंडित सुखलालजी के चतुर्थ कर्मग्रन्थ की प्रस्तावना में तथा दर्शन और चिंतन नाम के उनके लेखसंग्रह में तथा डॉ. सागरमल जैन के 'गुणस्थान सिद्धान्त : एक विश्लेषण' में भी प्रकाशित है । प्रस्तुत शोधप्रबन्ध में भी हम अग्रिम अध्याय में तुलनात्मक अध्ययन प्रस्तुत करने जा रहे हैं । अतः इस सम्बन्ध में यहाँ विशेष चर्चा आवश्यक नहीं है । आचार्य देवेन्द्रमुनिजी के कर्मविज्ञान भाग-५ में गुणस्थानों में जीवस्थान तथा गुणस्थानों में बन्ध, उदय, उदीरणा, सत्ता प्ररूपणा नामक सोलहवें और सत्रहवें अध्याय में इन अध्यायों के नाम के अनुरूप ही विषयों का प्रतिपादन है, किन्तु यह समस्त चर्चा पंचसंग्रह और कर्मग्रन्थों के अनुरूप ही है । अतः इस सम्बन्ध में भी विस्तृत चर्चा यहाँ अपेक्षित नहीं है। इन दोनों अध्यायों के अन्त में आचार्यश्री ने क्रमशः गुणस्थानों में जीवस्थान, योग, उपयोग, मूल बन्धहेतु, उत्तर बन्धहेतु, मिथ्यात्व, कषाय, योग, मूल बन्धप्रकृति, मूल उदयप्रकृति, मूल उदीरणाप्रकृति, मूल सत्ताप्रकृति तथा अल्प-बहुत्व सम्बन्धी यंत्र तथा विभिन्न गुणस्थानों में मूल और उत्तर प्रकृतियों के बन्ध, उदय, उदीरणा और सत्ता सम्बन्धी यंत्र भी दिए हैं, किन्तु ये यंत्र कर्मग्रन्थ पंचसंग्रह आदि में भी पाए जाते हैं, अतः उनका निर्देश करके ही विराम लेना उचित होगा, क्योंकि उनका पुनः प्रस्तुतिकरण मात्र पिष्ट-पेषण ही है। उपशमश्रेणी और क्षपक श्रेणी सम्बन्धी विवेचन में क्षपक श्रेणी का प्रारम्भ किस गुणस्थान से होता है, इसको लेकर श्वेताम्बर और दिगम्बर परम्परा में मतभेद का निर्देश आचार्य देवेन्द्रमुनि ने कर्मविज्ञान भाग-५४०७ में किया है । जहाँ दिगम्बर परम्परा के अनुसार क्षपकश्रेणी का प्रारम्भ सातवें गुणस्थान के अन्त से होता है, वहीं श्वेताम्बर परम्परा के अनुसार क्षपकश्रेणी का प्रारम्भ चतुर्थ गुणस्थान से ही सम्भव माना गया है । वस्तुतः यह मतभेद अधिक महत्वपूर्ण नहीं है, क्योंकि दिगम्बर परम्परा में चारित्र मोहनीय के क्षपण से ही क्षपकश्रेणी मानी गई है और चारित्र मोहनीय का क्षपण सातवें गुणस्थान के अन्त में तथा आठवें गुणस्थान के प्रारम्भ से ही होता है, क्योंकि अनन्तानुबन्धी कषाय का विसंयोजन सातवें गुणस्थान में ही माना गया है । इसके विपरीत श्वेताम्बर परम्परा क्षपकश्रेणी में मिथ्यात्वमोह के क्षपण को भी क्षपक श्रेणी में सम्मिलित करती है, अतः उनके अनुसार क्षपकश्रेणी का प्रारम्भ चौथे गुणस्थान से ही सम्भव है, किन्तु वह क्षपण मिथ्यात्वमोह का ही है । इस दृष्टि से क्षपकश्रेणी को लेकर जो मतभेद रहा हुआ है, वह अधिक महत्वपूर्ण नहीं रह जाता है । चारित्र मोहनीय के क्षपण को ही यदि क्षपकश्रेणी माना जाए, तो उस दृष्टि से दिगम्बर परम्परा की मान्यता समुचित होगी, किन्तु यदि हम क्षपकश्रेणी में मिथ्यात्वमोह और चारित्र मोहनीय-दोनों के ही क्षय को स्वीकार करते हैं, तो श्वेताम्बर परम्परा की मान्यता ही समुचित प्रतीत होती है। ____ जहाँ तक आचार्यश्री के गुणस्थान सम्बन्धी इस प्रस्तुतिकरण के मूल्यांकन का प्रश्न है, उन्होंने गुणस्थान सम्बन्धी यह समस्त विवेचन अत्यन्त ही सरल और सहज रूप से प्रस्तुत किया है । दूसरा, उन्होंने अपने प्रस्तुतिकरण में इस बात का ध्यान रखा है कि गुणस्थान सम्बन्धी क्लिष्ट विषय भी सामान्य व्यक्ति को सहज रूप में समझ में आ सके । दूसरी उनकी विशेषता यह है कि उन्होंने अपने समक्ष गुणस्थान चिंतन सम्बन्धी जो भी ग्रन्थ रहे हैं, उनमें से क्लिष्ट विषयों को अलग करके सार रूप में इस चर्चा को प्रस्तुत किया है । यही उनके कर्मविज्ञान नामक पंचम भाग में गुणस्थान सम्बन्धी विवेचन का वैशिष्ट्य है । ४०७ कर्मविज्ञान भाग-५, आ. देवेन्द्रमुनि, पृ. ५२० और ५२१, श्री तारक गुरु जैन ग्रन्थालय, उदयपुर Jain Education Intemational nterational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001733
Book TitlePrakrit evam Sanskrit Sahitya me Gunsthan ki Avadharana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarshankalashreeji
PublisherRajrajendra Prakashan Trust Mohankheda MP
Publication Year2007
Total Pages566
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, Soul, & Spiritual
File Size20 MB
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