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________________ समाभिनन्दनम्..... -आचार्य नयन्तसेन सूरि अनादि से संसार में अज्ञान दशा में भ्रमण करती आत्मा को निर्बन्ध स्थिति की प्राप्ति एक गहन एवं कठीन समस्या है | जहाँ समस्या वहाँ समाधान भी है। जब तक यह समस्या है यह ज्ञान नहीं होता तब तक अज्ञात स्वरूव में ही ईतस्तःअनादि जगत की दुःखार्त यात्रा करनी पड़ती है आत्मा को। इस समस्या का समाधान उपलब्ध है जैनागमों में, जिनवाणी में | जिस वाणी ने अनन्त जीवों की भ्रमणा का अन्त किया है, शाश्वत सुखद स्थिति को प्राप्त करवाया है । यावत् उसका समुचित ज्ञान नहीं होता एवं तदनुसार समाचरण नहीं होता तावत् सारा श्रम निरर्थक होता है। ज्ञान को सम्यग् ज्ञान में परिणत करने के लिये परम आवश्यक है सम्यग् दृष्टा बनें । सम्यग् दृष्टा अर्थात् यथार्थ को यथार्थ एवं अयथार्थ को अयथार्थ समझना । जीव है, शाश्वत है, कर्मबद्ध होता है, कर्म मुक्त हो सकता है, मुक्ति है, मुक्त होने का मार्ग है इत्यादि दृष्टियों का सम्यग् बोध ही सम्यग्दर्शन या सम्यग्दृष्टा स्वरूप की परिप्राप्ति है। सम्यग् दृष्टा की समस्त प्रवृत्तियां सार्थक एवं सफल होती हैं । इसीलिये यह दर्शन, ज्ञान, चारित्र समीचीन रुपेण, त्रिवेणी संगम रूप बनते हैं तब भवनिस्तारक बनते हैं। यह स्थिति स्वस्थिति में उपस्थित करती है।। यहीं से आत्मा की उत्क्रान्ति का शुभारम्भ होता है । सम्यग् दर्शन की प्राप्ति अर्थात् स्वयं को स्वाभिमुखी करना है। यहीं से अपने उत्थान क्रम की और गतिशील की ओर अग्रसर होती है आत्मा। जैनागमों में इसे गुणस्थान क्रमारोह के रूप में वर्णित किया गया है। चौदह गुणस्थान नाम को निर्देशित किया है परम ज्ञानियों ने, और प्रत्येक आत्मा को गुणस्थान क्रमारोह के अभाव में अनादि के अन्धकार से निर्मल शाश्वत प्रकाश की प्राप्ति असंभव है। मिथ्यात्व को भी प्रथम गुणस्थान का दर्जा दिया इसलिये कि लोगगत लौकिक स्थितियो को यथातथ्य के रूप में प्ररूपित करने का उस स्थान जीव का व्यवहार रहता है। इसी तरह क्रमशःदर्शन प्राप्ति अर्थात विभाव से स्वभाव स्थिति को पाना एवं प्रमादवश उस स्थिति से पुनः भटकजाना मात्र प्राप्ति का आस्वादन ही रह जाना । इसी प्रकार से मिश्र स्थिति में रहकर अनेक जन्मों को खो देना उत्क्रान्ति क्रम से भटक जाना । ज्ञानीजनों ने जो भी प्रतिबोध दिया वह अवश्य ही चिन्तनशील बनकर गहराई में जाने के लिये तद्भिमुख होने को प्रेरित करता है। स्वयं Jain Ediger e nelibrary org
SR No.001733
Book TitlePrakrit evam Sanskrit Sahitya me Gunsthan ki Avadharana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarshankalashreeji
PublisherRajrajendra Prakashan Trust Mohankheda MP
Publication Year2007
Total Pages566
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, Soul, & Spiritual
File Size20 MB
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