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2. ACCO
की अनेकों प्रकृतियों का विवरण भी जैन शास्त्रों में मिलता है । सभी गुणस्थानों के निमित्त को गहन रूप से समझकर हम अपनी आत्मा को उत्तरोत्तर निर्मलता की ओर ले जा सकते हैं। प्रथम चार गुणस्थान दर्शन मोहनीय कर्म के निमित्त से होते हैं । शेष पाँचवे गुणस्थान से बारहवें तक चारित्र मोहनीय कर्म के निमित्त से हैं, तथा तेरहवाँ एवं चौदहवाँ गुणस्थान योग के निमित्त से होते हैं।
मिथ्यात्व का त्याग कर सच्चे धर्म पर श्रद्धा रखते हुए आत्मा पर रहे हुए समस्त आवरणों को एक-एक करके हटाते हुए सम्यक्दर्शन, सम्यक्ज्ञान, और सम्यक्चारित्र की पूर्णता को प्राप्त कर हम मोक्षगामी हो सकते हैं।
आज भले ही हमारा मूल धर्म से सम्बन्ध कम हो चुका है, भौतिक युग की चकाचौंध में हमारी आध्यात्मिक साधना गुम हो चुकी है । परन्तु परमात्म-पुरुषों की वाणी हमारे जीवन के अन्धकार को दूर कर सकती है । प्रकाश की एक किरण गहन से गहन अन्धेरे को हटा सकती है । आवश्यकता है ईश्वर के आलम्बन की, उनके सद्गुणों को अपने में उतारने की। जिस प्रकार एक छोटा सा कंकर तालाब को तरंगित कर सकता है, एक छोटी सी चिनगारी दावानल का रूप ले सकती है ठीक उसी प्रकार सद्गुणों का थोड़ा सा सानिध्य भी हमारे जीवन की दशा एवं दिशा दोनों बदल सकता है।
हमारी सबसे बड़ी विडम्बना यह है कि हम अपनी अंतरस्थिति को नहीं बदल पा रहे हैं । हमारी सामायिक, तपस्या, प्रतिक्रमण धर्म आराधना एक बाहरी दिखावा बनकर रह गयी है । हमारे अंतरमन का शुद्धिकरण नहीं हो पाया है । महावीर बनना है तो अपनी अंतरदशा को अप्रमत्त करना होगा।
हम हर पल यह सोचें कि हम भी अरिहंत बन सकते हैं, इस विचार को मन में प्रतिष्ठित होने दें तथा उसके अनुरूप हर कर्म करें । जन्म से कोई भी महान नहीं होता सभी अपने पुरुषार्थ एवं कर्म से महान बनते हैं । आदर्श पुरुषों की जीवन गाथा को हम अपने में आत्मसात् करें, तथा अपने आपमें यह विश्वास जगायें कि हम भी महावीर हो सकते हैं ।
जिस मोक्ष की कामना हम मृत्युपरांत करते हैं, उसका अनुभव हमें जीते जी हो तब तो कुछ बात बने । जीते जी मुक्ति प्राप्त करें इसका आनन्द कुछ ओर ही है । हमें वह मुक्ति चाहिये जिसका आनन्द और अहोभाव हम इस जीवन में प्राप्त कर सकें, अनुभव कर सकें । हम अपने आप से प्रश्न करें, मैं कौन हूँ, कहाँ से आया हूँ, मेरा स्वरूप क्या है, दुःख क्या है, उसके कारण क्या हैं, मेरा स्वभाव क्या है और मैं अनन्त सुख को कैसे प्राप्त कर सकता हूँ?
जैन दर्शन एवं महावीर के सिद्धान्त हमें सहिष्णुता एवं विश्व मैत्री का पाठ पढ़ाते हैं । अपने और दूसरों के कल्याण की भाषा सिखाते हैं। हठ धर्मिता के बजाय हमें अनेकांतवादी बनाते हैं सत्यानुरागी बनाकर नय-मत-पक्षों से रहित सम्यक दृष्टि प्रदान करते हैं। इन सबको अंगीकार करके हम भवभवांतर के अनेकों आवरण जो हमारी चेतना शक्ति को क्षीण कर रहे हैं, उन आवरणों को हटा सकते हैं। .
हमारी आत्मा उत्तरोत्तर ऊर्ध्वगामी बने अधोगति में उसका बार-बार का अभिगमन बंद हो तथा एक ऐसा चिरस्थायी स्थान प्राप्त हो जहाँ अनन्त आत्म सुख के अतिरिक्त कुछ भी न हो । 'जो आत्मा का सर्वोत्तम गुण स्थान हो ।'
परम पूज्य साध्वीजी डॉ. दर्शनकलाश्रीजी ने अपने अथक प्रयासों से जैन साहित्य के अथाह सागर में गौते लगाकर, गुणस्थानों की व्याख्या बौधगम्य भाषा में करते हुए इसे जन सामान्य के समझने योग्य बनाया है । स्वाध्याय समूहों के लिये आपका यह शोध प्रबन्ध निश्चय ही उपयोगी सिद्ध होगा। जैन दर्शन के ज्ञाता डॉ. सागरमलजी साहब जैन के दिशा दर्शन एवं मार्ग दर्शन में आपका यह अध्ययन सब के लिये हितकर है।
डॉ. एस. सी. मेहता
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