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________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा....... पंचम अध्याय........{371} उपशम श्रेणी से गिरकर पुनः क्षपक श्रेणी से आरोहण करता है वह निश्चय से वज्रऋषभनाराच संघयणवाला चरमशरीरी जीव होता I व्यक्ति अपने जीवन में कितनी बार उपशमश्रेणी से आरोहण कर सकता है ? इस प्रश्न के उत्तर के सम्बन्ध में आचार्यों में मतभेद देखा जाता है । कर्मग्रन्थकार आचार्य यह मानते हैं कि कोई भी जीव एक भव में अधिक से अधिक दो बार उपशम श्रेणी आरोहण कर सकता है, किन्तु आगमिक मान्यता इससे भिन्न है । आगमिक मान्यता के अनुसार कोई जीव एक भव में एक ही बार उपशमश्रेणी से आरोहण करता है । यद्यपि आगमकाकारों का इस बात से कोई विरोध नहीं है कि कोई जीव उसी भव में उपशमश्रेणी से पतित होकर पुनः क्षपकश्रेणी से यात्रा प्रारम्भ करके मुक्ति को प्राप्त करें । इस प्रकार आगमिक मान्यता के अनुसार एक भव 'एक बार उपशमश्रेणी और एक बार क्षपक श्रेणी की जा सकती है । कोई जीव अपने संसारचक्र की सम्पूर्ण यात्रा में कितनी बार उपशमश्रेणी कर सकता है । इस प्रश्न का उत्तर देते हुए यह कहा गया है कि कोई जीव इस संसार में परिभ्रमण करते हुए उन समस्त भवों में अधिक से अधिक चार बार उपशमश्रेणी कर सकता है, किन्तु एक भव में तो यह दो ही बार उपशमश्रेणी कर सकता है, उससे अधिक बार नहीं । यहाँ पर यह भी शर्त है कि जो जीव एक ही भव में दो बार उपशम श्रेणी करता है, वह उसी भव में क्षपकश्रेणी प्रारम्भ नहीं कर सकता क्योंकि उसके द्वारा मोहनीय कर्म का सम्पूर्ण क्षय सम्भव नहीं है । जहाँ तक उपशमश्रेणी के काल का प्रश्न है वह जघन्यतः एक समय और उत्कृष्टतः अन्तर्मुहूर्त होता है । जघन्य से एक समय इसीलिए कहा जाता है कि कोई जीव उपशमश्रेणी प्रारम्भ करके आठवें गुणस्थान में प्रवेश करके आयुष्य पूर्ण कर ले, तो वह कम से कम उसमें एक समय रहकर भी मृत्यु को प्राप्त होकर देवलोक में जन्म ले लेता है । उत्कृष्टतः अन्तर्मुहूर्त इसलिए कहा गया कि किसी भी श्रेणी का सम्पूर्ण काल अन्तर्मुहूर्त से अधिक नहीं होता है। सत्ता में रहे हुए कर्मों का क्षय करते हुए आध्यात्मिक विकास की जो यात्रा की जाती है उसे क्षपक श्रेणी कहते हैं । उपशमश्रेणी में कर्मों के उदय को रोका जाता है, किन्तु वे सत्ता में बने रहते हैं, जबकि क्षपकश्रेणी में कर्मों को क्षय कर दिया जाता है, अतः उनके पुनः उदय की संभावना ही समाप्त हो जाती है । उपशमश्रेणी से यात्रा करनेवाला साधक पुनः पतित होता ही है, जबकि क्षपकश्रेणी से यात्रा करने वाला साधक पतित नहीं होता है । वह अग्रिम विकास करता हुआ उसी भव में मोक्ष को प्राप्त करता है । क्षपकश्रेणी से आरोहण की प्रक्रिया भी सातवें गुणस्थान से ही प्रारम्भ होती है। जो साधक सातवें गुणस्थान अनन्तानुबन्धी कषाय चतुष्क की विसंयोजना करके तथा दर्शनमोह त्रिक का क्षय करके अग्रिम यात्रा करते हैं, वे ही क्षपकश्रेणी से आरोहण कर सकते हैं । जो इनका उपशम करके अग्रिम यात्रा करते हैं, उनमें क्षपकश्रेणी से आरोहण करने की पात्रता नहीं होती है । क्षपकश्रेणी से आरोहण करनेवाली आत्मा आठवें, नवें और दसवें गुणस्थानों में क्रमशः आरोहण करती हुई सीधी बारहवें गुणस्थान को प्राप्त होती है । वह ग्यारहवें गुणस्थान का स्पर्श नहीं करती है, क्योंकि ग्यारहवाँ गुणस्थान नियम से पतन का स्थान है । अतः क्षपकश्रेणी से आरोहण करनेवाली आत्मा सीधे बारहवें गुणस्थान को प्राप्त होती है और वहाँ से तेरहवें और चौदहवें गुणस्थान को प्राप्त करके अन्त में मोक्ष की प्राप्ति करती है । श्रेणी और क्षपकश्रेणी में मूलभूत अन्तर यह है कि उपशमश्रेणी वाला साधक कर्मों के उदय या विपाक को रोकता है या कुछ काल के लिए स्थगित होता है, उनका समूलरूप से नाश नहीं करता है । इसीलिए उसका पतन अवश्यम्भावी है । वह उस श्रेणी से आरोहण करते हुए मुक्ति को प्राप्त नहीं कर पाता है, अपितु ग्यारहवें गुणस्थान से पतित होकर निम्न सातवें गुणस्थान, चौथे गुणस्थान या प्रथम गुणस्थान का स्पर्श करता है, जबकि क्षनक श्रेणीवाला नियम से मुक्ति को प्राप्त करता है । काल की अपेक्षा से क्षपक श्रेणी का जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त ही माना गया है, क्योंकि आठवें से लेकर बारहवें गुणस्थान तक सभी गुणस्थानों का काल अलग-अलग रूप से और समुच्चय रूप से अन्तर्मुहूर्त से अधिक नहीं होता है । क्षपक श्रेणी वही जीव प्रारम्भ कर सकता है, जो चरमशरीरी होता है और वज्रऋषभनाराच संघयण से युक्त होता है । यहाँ यह भी ज्ञातव्य है कि जहाँ अपने सम्पूर्ण संसार परिभ्रमण काल में उपशमश्रेणीवाला जीव अधिक से अधिक चार बार श्रेणी आरोहण करता है, वहाँ क्षपकश्रेणी तो संसार के सम्पूर्ण परिभ्रमण काल में एक ही बार करता है । उपशमश्रेणीवाला जीव उपशमश्रेणी करते हुए आठवें से लेकर ग्यारहवें गुणस्थान तक कहीं भी मृत्यु को प्राप्त हो सकता है, किन्तु क्षपक श्रेणीवाला जीव श्रेणी प्रारम्भ करके Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001733
Book TitlePrakrit evam Sanskrit Sahitya me Gunsthan ki Avadharana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarshankalashreeji
PublisherRajrajendra Prakashan Trust Mohankheda MP
Publication Year2007
Total Pages566
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, Soul, & Spiritual
File Size20 MB
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