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________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा....... अग आगम विभाग १. आचारांग और गुणस्थान : जैनधर्म में अंग-आगमों में प्रथम स्थान आचारांगसूत्र का है। जैसा कि नाम से ही स्पष्ट होता है, आचारांगसूत्र सामान्य रूप से जैनधर्म के आचार सम्बन्धी सिद्धान्तों का और विशेषरूप से मुनि आचार का वर्णन प्रस्तुत करता है। वर्तमान में आचारांगसूत्र में दो श्रुतस्कन्ध उपलब्ध हैं। इसमें दूसरा श्रुतस्कन्ध चूलिका के नाम से भी जाना जाता है। दूसरे श्रुतस्कन्ध का मुख्य प्रतिपाद्य मुनि आचार है। यद्यपि इसके अन्त भगवान महावीर का जीवन-चरित्र भी वर्णित है, फिर भी प्रथम अध्याय में प्रतिपादित विषयों की ही विस्तृत व्याख्या के रूप में विद्वानों ने आचारांगसूत्र के प्रथम श्रुतस्कन्ध को अति प्राचीन माना है। उनके अनुसार इस ग्रन्थ में भगवान महावीर के मूल वचन प्रामाणिक रूप से सुरक्षित और संकलित है। आचारांगसूत्र के प्रथम श्रुतस्कन्ध की शैली अन्य आगमों से भिन्न है। इसके अधिकांश वाक्य सूत्रात्मक हैं और एक-एक सूत्र में आध्यात्मिक और साधनात्मक जीवन का सार तत्व प्रस्तुत कर दिया गया है। इसके प्रथम श्रुतस्कन्ध में नौ अध्ययन हैं। उनमें महापरिज्ञा नामक अध्ययन वर्तमान में अनुपलब्ध है। उपधानश्रुत नामक नवम अध्ययन में भगवान महावीर की तपसाधना का सजीव चित्रण उपलब्ध होता है। इसके पूर्व अध्ययनों में मुख्यरूप से जैन साधना की मूलभूत जीवन-दृष्टि प्रतिपादित है, किन्तु इसके साथ ही मुनि आचार के विधि-निषेध सम्बन्धी सूत्र भी उपलब्ध होते हैं। आचारांगसूत्र की शैली उपनिषदों की शैली के समान ही सूत्रात्मक है। इसके एक-एक सूत्र में गम्भीर अर्थ निहित है। आचारांगसूत्र के अनेक सूत्र एवं विवरण उपनिषदों में भाषा सम्बन्धी अन्तर को छोड़कर यथावत् रूप में पाए जाते हैं। इस आधार पर इसे प्राचीनतम आगम ग्रन्थ माना जाता है। इसमें भगवान महावीर के मूल वचन सुरक्षित हैं । द्वितीय अध्याय.....{26} प्रस्तुत प्रसंग में हमारा उद्देश्य आचारांगसूत्र की विषयवस्तु का विवरण देना नहीं है, अपितु यह देखना है कि इस महत्वपूर्ण सूत्रग्रन्थ में आध्यात्मिक विकास की जिन ऊँचाईयों का चित्रण है, उनमें कहीं भी गुणस्थान सिद्धान्त सम्बन्धी अवधारणा और उससे सम्बन्धित विषयों का चित्रण उपलब्ध है या नहीं ? आगे हम इस सम्बन्ध में विचार करेंगे कि गुणस्थान सिद्धान्त सम्बन्धी उल्लेख कहाँ और कितना है। Jain Education International आचारांगसूत्र प्रथम श्रुतस्कन्ध के प्रथम अध्ययन के चतुर्थ उद्देशक में 'जे पमत्ते से गुणट्ठिए' ऐसा उल्लेख है। इसका तात्पर्य यह है कि जो प्रमत्त है वह गुणों में स्थित है, किन्तु यहाँ गुण शब्द इन्द्रियजन्य विषयों के सन्दर्भ में ही आया है। इसी प्रकार प्रथम अध्ययन के पंचम उद्देशक में उल्लेख है कि 'जे गुणे से आवट्टे जे आवट्टे से गुणे', अर्थात् जो गुण है वह आवर्त (संसार) है, जो आवर्त (संसार) है वह गुण है। यहाँ भी गुण शब्द का प्रयोग विषयासक्ति से ही है। इस प्रकार इन दोनों सूत्रों में गुण शब्द का उल्लेख है, किन्तु वह उल्लेख गुणस्थान से सम्बन्धित प्रतीत नहीं होता है। इसी क्रम में आचारांग के द्वितीय अध्ययन के प्रथम उद्देशक में वर्णित है कि 'जीविए इह जे पमत्ता', अर्थात् इस संसार में जो प्रमत्त हैं, वे जीवन के आकांक्षी हैं। यहाँ प्रमत्त शब्द का उल्लेख है और उसे विषयभोगों का आकांक्षी बताया गया है, किन्तु यहाँ भी प्रमत्त शब्द का सम्बन्ध प्रमत्तसंयत गुणस्थान से सम्बन्धित नहीं है। आचारांगसूत्र के तृतीय अध्ययन के द्वितीय उद्देशक में कहा गया है कि 'लोयंसी परमदंसी विवित्तजीवी उवसंते, समिते सहिते सया ए कालकंखी परिव्वए ।।' अर्थात् जो परमदृष्टा, एकान्तजीवी और उपशान्त है, वह समता से युक्त होता है। और सदा यत्नवान होता है। प्रस्तुत गाथा में जो उपशान्त पद है वह उपशान्तकषाय गुणस्थान का वाचक है, यह कहना कठिन है। यहाँ उसका प्रयोग सामान्य अर्थ में ही हुआ है। आचारांग सूत्र के चतुर्थ सम्यक्त्व अध्ययन के प्रथम उद्देशक में 'पत्ते बहिया पास, अपमत्ते सया परक्कमेज्जासि ।।' अर्थात् प्रमत्त बहिर्दृष्टा होता है और अप्रमत्त सदा आत्मोन्मुख हो पुरुषार्थ करता है। यहाँ प्रमत्त और अप्रमत्त के लक्षणों का स्पष्ट विवेचन हुआ है, किन्तु इसे गुणस्थान सिद्धान्त से सम्बन्धित कहना कठिन है। इसी क्रम में चतुर्थ अध्ययन के द्वितीय उद्देशक में कहा गया है कि 'अट्टा वि संता अदुआ पमत्ता ।' अर्थात् जो प्रमत्त है वह आर्तध्यान से ८० अंगसुत्ताणि, भाग -१, आयारो-वाचना प्रमुख आचार्य तुलसी; जैन विश्वभारती लाडनूं सं. २०३१ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001733
Book TitlePrakrit evam Sanskrit Sahitya me Gunsthan ki Avadharana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarshankalashreeji
PublisherRajrajendra Prakashan Trust Mohankheda MP
Publication Year2007
Total Pages566
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, Soul, & Spiritual
File Size20 MB
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