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प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा.....
द्वितीय अध्याय........{38} वर्णित है, उसमें हिंसा-अहिंसा, सत्य-असत्य, स्तेय-अस्तेय, ब्रह्मचर्य-अब्रह्मचर्य, परिग्रह-अपरिग्रह को लेकर सूक्ष्म विवेचनाएँ उपलब्ध होती हैं। इस ग्रन्थ में इनके स्वरूप को जितनी गम्भीरता और विस्तार से समझाया गया है वह अत्यन्त महत्वपूर्ण है, किन्तु हमारा प्रयोजन तो केवल यह खोजना है कि गुणस्थान सिद्धान्त की अवधारणा या उसके बीज, आगम साहित्य में कहाँ और किस रूप में मिलते हैं? अतः आगे हम यह देखने का प्रयत्न करेंगे कि उपलब्ध प्रश्नव्याकरणसूत्र की विषयवस्तु में गुणस्थान की अवधारणा के कोई संकेत हैं या नहीं?
प्रश्नव्याकरणसूत्र में हमें मिथ्यादृष्टि, अविरत, विरत (संयत), प्रमत्त, अप्रमत्त ऐसे कुछ शब्द उपलब्ध होते हैं, किन्तु जिन संदर्भो में ये शब्द प्रयुक्त किए जाते हैं, वे सभी सन्दर्भ सामान्य रूप से इन अवस्थाओं के सूचक हैं। उनका सम्बन्ध गुणस्थानों से प्रतीत नहीं होता है। इस सम्पूर्ण ग्रन्थ में कहीं भी गुणस्थान शब्द या गुणस्थान से सम्बन्धित विवरण उपलब्ध नहीं है। अतः मिथ्यादृष्टि आदि जो शब्द यहाँ प्रयुक्त हुए हैं, वे गुणस्थान से सम्बन्धित नहीं माने जाते हैं। ११. विपाकसूत्र और गुणस्थान :
अंग-आगम में ग्यारहवाँ अंग आगम-विपाकसूत्र है। स्थानांगसूत्र में इसका जो परिचय मिलता है, उसके अनुसार इसमें दस अध्ययनों का उल्लेख है, किन्तु वर्तमान में जो विपाकसूत्र उपलब्ध है, उसमें दो श्रुतस्कंध है और दोनों में ही दस-दस अध्ययन उपलब्ध होते हैं। इसके नाम से ही स्पष्ट है कि यह आगम व्यक्ति के शुभाशुभ कर्मों के विपाक से सम्बन्धित है, किन्तु विपाक की इस चर्चा में प्रस्तुत ग्रन्थ में कुछ कथाएँ दी गई है। प्रथम श्रुतस्कंध में दुःखविपाक में जो दस अध्ययन मिलते हैं, वे यह बताते हैं कि व्यक्ति के द्वारा किए गए पापों का परिणाम किस प्रकार का होता है। दुःखविपाक श्रुतस्कंध में जो दस अध्ययन उपलब्ध होते हैं, उनमें स्थानांग के वर्णित दस अध्ययनों से, चाहे नामों के रूप में समानता न हो, किन्तु उनकी कथावस्तु में लगभग समानता प्रतीत होती है। दुःखविपाक के दस अध्ययनों में जो नामभेद हैं, उनका सम्बन्ध उन्हीं व्यक्तियों के पूर्वभव से रहा हुआ है। इस सम्बन्ध में आचार्य श्री जयन्तसेनसूरिजी लिखते हैं कि “स्थानांगसूत्र में वर्णित दस नामों में और वर्तमान में उपलब्ध नामों में जो नामभेद हैं, उसका कारण मात्र वाचना अन्तर है।" विपाकसूत्र के दूसरे श्रुतस्कंध में उन दस व्यक्तियों के जीवन का वर्णन है, जिन्होंने पूर्वजन्म में शुभ कार्य किए और फलस्वरूप उन्हें दूसरे जीवन में अनुकूल सुखद परिस्थितियाँ प्राप्त हुई। इसप्रकार प्रस्तुत आगम ग्रन्थ, पापकर्मों और पुण्यकर्मों का फल क्रमशः दुःखद और सुखद रूप में प्राप्त होता है, इसकी चर्चा करता है। इस आगम ग्रन्थ के प्रारम्भ में सुधर्मास्वामी और इनके शिष्य जम्बूस्वामी का भी विस्तृत परिचय उपलब्ध होता है, किन्तु ये सभी विवरण कथात्मक है, सैद्धान्तिक नहीं है। हमारा मुख्य उद्देश्य तो प्रस्तुत आगम में गुणस्थान सम्बन्धी अवधारणा की खोज करना है, इसीलिए हम इन कथाओं की विस्तृत चर्चा में न जाकर यह देखने का प्रयत्न करेंगे कि प्रस्तुत आगम में कहीं गुणस्थान सिद्धान्त से सम्बन्धित विवरण या संकेत उपलब्ध होते हैं या नहीं?
प्रश्नव्याकरणसूत्र के पश्चात् अंग-आगमों में अन्तिम विपाकसूत्र का क्रम आता है। विपाकसूत्र के प्रथम श्रुतस्कंध के तृतीय अभंगसेन नामक अध्ययन में प्रमत्त शब्द का उल्लेख है, किन्तु यहाँ केवल यह बताया गया है कि वह विपुल अशन, पान, खादिम और स्वादिम का भोग करते हुए प्रमत्त रूप में विचरण करता था। इससे स्पष्ट है कि यहाँ प्रमत्त शब्द का सम्बन्ध प्रमत्तसंयत गुणस्थान से नहीं है। इस प्रकार हम देखते हैं कि अंग-आगम साहित्य में गुणस्थानों से सम्बन्धित कुंछ शब्द तो अवश्य उपलब्ध होते हैं, किन्तु वे गुणस्थानों के सूचक न होकर मात्र उन सामान्य अवस्थाओं के सूचक हैं। अंग-आगम साहित्य में कहीं भी गुणस्थान शब्द उपलब्ध नहीं है, मात्र समवायांग ही एक ऐसा अपवाद है, जिसमें हमें जीवस्थान के रूप में यथाक्रम चौदह गुणस्थानों के नाम उल्लेख प्राप्त होते हैं ।
६० वही, भाग-३, विवागाओ.
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