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प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा.....
चतुर्थ अध्याय........{229) इस गुणस्थान के अन्त में मन्द कषाय (सूक्ष्म लोभ) का भी अभाव हो जाने से उपर्युक्त १६ कर्मप्रकृतियों का संवर या बन्ध-विच्छेद हो जाता है । इसप्रकार नवें गुणस्थान की १०३ तथा इस गुणस्थान के अन्त में बन्ध-विच्छेद को प्राप्त हुई १६ कर्मप्रकृतियाँ-इस प्रकार कुल ११६ कर्मप्रकृतियों का संवर अथवा बन्ध-विच्छेद दसवें गुणस्थान के अन्तिम समय में हो जाता है ।
___ ग्यारहवें उपशान्तमोह, बारहवें क्षीणमोह और तेरहवें सयोगीकेवली गुणस्थान में योग के रहने से मात्र सातावेदनीय का बन्ध रहता है । शेष ११६ कर्मप्रकृतियों का संवर या बन्ध-विच्छेद इन गुणस्थानों में रहता है । चौदहवें अयोगी केवली गुणस्थान में योग का अभाव होने से साता वेदनीय के बन्ध का भी बन्ध-विच्छेद अर्थात् संवर हो जाता है । इस प्रकार अन्तिम चौदहवें गुणस्थान में १२० कर्मप्रकृतियों का संवर अर्थात् बन्ध-विच्छेद बताया गया है। सर्वार्थसिद्धि टीका के अनुसार विभिन्न गुणस्थानों में परिषहों की संख्या :
तत्त्वार्थसूत्र की सर्वार्थसिद्धि नामक टीका में पूज्यपाद देवनन्दी ने नवें अध्याय के ग्यारहवें से लेकर सत्रहवें सूत्र तक की टीका में गुणस्थानों के सन्दर्भ में परिषहों की चर्चा की है । सम्यग्दर्शन आदि रत्नत्रयी रूप मोक्षमार्ग से पतित न होने के लिए और कर्मों की निर्जरा के लिए सहन करने योग्य आपदाएँ परिषह कही गई हैं -
परिषह बाईस है - (१) क्षुधा (२) पिपासा (३) शीत (४) उष्ण (५) दंशमशक (६) नग्नत्व (७) अरति (८) स्त्री (६) चर्या (१०८) निषद्या (११) शय्या (१२) आक्रोश (१३) वध (१४) याचना (१५) अलाम (१६) रोग (१७) तृणस्पर्श (१८) मल (१६) सत्कार-पुरस्कार (२०) प्रज्ञा (२१) अज्ञान और (२२) अदर्शन।
चार कर्मों के उदय से बाईस परिषह होते हैं । ज्ञानावरणीय कर्म के उदय से प्रज्ञा और अज्ञान-दो परिषह होते हैं । वेदनीय कर्म के उदय से ग्यारह परिषह होते हैं । यथा - (१) क्षुधा (२) पिपासा (३) शीत (४) उष्ण (५) दंशमशक (६) चर्या (७) शय्या (८) वध (६) रोग (१०) तृणस्पर्श और (११) मल । मोहनीय कर्म के उदय से आठ परिषह होते हैं । दर्शन मोहनीय के उदय से अदर्शन परिषह और चारित्र मोहनीय के उदय से सात परिषह होते हैं - (१) नग्नत्व (२) अरति (३) स्त्री (४) निषद्या (५) आक्रोश (६) याचना और (७) सत्कार-पुरस्कार । अन्तराय कर्म में लाभान्तराय कर्म के उदय से अलाभ परिषह होता है ।
पहले गुणस्थान से लेकर नवें गुणस्थानवी जीवों को सभी बाईस परिषह होते हैं । दसवें, ग्यारहवें, बारहवें, गुणस्थान में चौदह परिषह होते हैं, यथा - (१) क्षुधा (२) पिपासा (३) शीत (४) उष्ण (५) दंशमशक (६) चर्या (७) प्रज्ञा (८) अज्ञान (६) अलाभ (१०) शय्या (११) वध (१२) रोग (१३) तृणस्पर्श और (१४) मल । तेरहवें और चौदहवें गुणस्थान में वेदनीय कर्म के उदय से होनेवाले ग्यारह परिषह होते हैं । एक साथ एक जीव को १६ परिषह होते हैं, क्योंकि जीव जब शीत परिषह का वेदन करता है, तब उष्ण का नहीं करता है तथा जब उष्ण का वेदन करता है, तब शीत का नहीं करता । इसी प्रकार निषद्या, शय्या और चर्या-इन तीनों परिषहों में से किसी एक परिषह का जीव एक समय में वेदन करता है। सर्वार्थसिद्धि टीका के अनुसार विभिन्न गुणस्थानों में बन्धहेतु :
तत्त्वार्थसूत्र की सर्वार्थसिद्धि नामक टीका में पूज्यपाद देवनन्दी ने आठवें अध्याय के पहले सूत्र की टीका में कर्म बन्ध के हेतु का वर्णन करते हुए, किन-किन गुणस्थानों में कौन-कौन से बन्धहेतु होते हैं, इस बात की चर्चा की गई है।
कर्मबन्ध के पांच हेतु हैं-मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग। मिथ्यात्व गुणस्थानवी जीवों को पांचों ही बन्द हेतुओं के द्वारा कर्मबन्ध होता है । सासादनसम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिध्यादृष्टि और अविरतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवी जीवों को कर्मबन्ध में अविरति आदि चार बन्धहेतु होते हैं । विरताविरत गुणस्थानवी जीवों को देश अविरति के साथ-साथ प्रमाद, कषाय और योग-ये चार बन्धहेतु होते हैं । अप्रमत्तसंयत, अपूर्वकरण, अनिवृत्तिकरण और सूक्ष्मसंपराय गुणस्थानवी जीवों को प्रमाद
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