________________
प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा......
पंचम अध्याय........{378} और जुगुप्सा - इन चार के बन्ध का अभाव होने से इस गुणस्थान के प्रथम भाग में संज्वलन चतुष्क और पुरुषवेद-इन पाँच प्रकृतियों का बन्ध सम्भव होता है। इस गुणस्थान के पाँच भाग है । प्रथम भाग में पुरुषवेद के बन्ध का अभाव होने से चार प्रकृतियों का बन्ध सम्भव होता है। द्वितीय भाग के अन्त में संज्वलन क्रोध का अभाव होने से तीन प्रकृतियों का बन्ध सम्भव होता है । तृतीय भाग के अन्त में संज्वलन मान का अभाव होने से दो प्रकृतियों का बन्ध सम्भव होता है । चतुर्थ भाग के अन्त में संज्वलन माया का अभाव होने से एक प्रकृति का बन्ध होता है। पंचम भाग के अन्त में संज्वलन लोभ का भी अभाव हो जाता है।
सप्ततिका नामक षष्ठम कर्मग्रन्थ की ४६ और ५० -इन दोनों गाथाओं में विभिन्न गुणस्थानों में मोहनीय कर्म के उदयस्थानों का उल्लेख करते हुए कहा गया है कि मिथ्यात्व गुणस्थान में मोहनीय कर्म के ७, ८, ६ और १० कर्मप्रकृतियों के चार उदयस्थान होते हैं। सास्वादन एवं मिश्र गुणस्थान में ७, ८ और ६ प्रकृतियों के तीन उदयस्थान होते हैं। अविरतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान में ६, ७, ८ और ६ - ऐसे चार उदयस्थान होते हैं । देशविरति गुणस्थान में ५, ६,७ और ८ - ऐसे चार उदयस्थानों में क्षायोपशमिक अवस्था में ४, ५, ६ और ७ - ऐसे चार उदयस्थान होते हैं । अपूर्वकरण गुणस्थान में ४, ५ और ६ - ऐसे तीन उदयस्थान होते हैं । अनिवृत्तिकरण गुणस्थान में २ और १ - ऐसे दो उदयस्थान होते हैं । सूक्ष्मसंपराय गुणस्थान में मात्र सूक्ष्म लोभ का उदय होने से मोहनीय कर्म का केवल एक ही उदयस्थान होता है । उपशान्तमोह गुणस्थान से लेकर, अयोगीकेवली गुणस्थान तक मोहनीय कर्म के उदय का अभाव होता है । अतः इन चारों गुणस्थानों में मोहनीय कर्म के उदयस्थान नहीं हैं ।
सप्ततिका नामक इस कर्मग्रन्थ में उदयस्थानों की चर्चा के पश्चात् प्रत्येक गुणस्थान की अपेक्षा से उदय चोवीशी उदय विकल्प, उदयपद चोवीशी और पदवृंद सम्बन्धी विकल्पों की चर्चा उपलब्ध होती है । विस्तार भय से वह समस्त चर्चा अपेक्षित नहीं है । इच्छुक व्यक्ति उसे सप्ततिका नामक छठे कर्मग्रन्थ में गाथा क्रमांक ४६ से लेकर ५६ तक देख सकते हैं ।
सप्ततिका नामक षष्ठम कर्मग्रन्थ की गाथा क्रमांक ५७ में विभिन्न गुणस्थानों में मोहनीय कर्म के कितने सत्तास्थान होते हैं, इसकी चर्चा की गई है । मिथ्यात्व गुणस्थान में २८, २७ और २६ - ऐसे तीन सत्तास्थान होते हैं । सास्वादन गुणस्थान में मोहनीय कर्म की २८ प्रकृतियों का एक सत्तास्थान होता है । मिश्र गुणस्थान में २८, २७ और २४ - ऐसे तीन सत्तास्थान होते हैं । अविरतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान से लेकर अप्रमत्तसंयत गुणस्थान तक २८, २४, २३, २२ और २१ - ऐसे पाँच सत्तास्थान होते हैं । अपूर्वकरण गुणस्थान में २८, २४ और २१ - ऐसे तीन सत्तास्थान होते हैं । अनिवृत्तिकरण गुणस्थान के विभिन्न भागों की अपेक्षा से २८, २४, २१, १३, १२, ११, ५, ४, ३, २ और १ - इसप्रकार ग्यारह सत्तास्थान होते हैं । (ये सभी विकल्प उपशमश्रेणी और क्षपकश्रेणी दोनों की अपेक्षा से समझना चाहिए) सूक्ष्मसंपराय गुणस्थान में २८, २४, २१ और १ - ऐसे चार सत्तास्थान होते हैं उपशान्तमोह गुणस्थान में २८, २४ और २१ - ऐसे तीन सत्तास्थान होते हैं । क्षीणमोह, सयोगीकेवली और अयोगीकेवली
का सत्ता का अभाव रहता है, इसीलिए इन तीन गुणस्थानो में मोहनीय कर्म के कोई भी सत्तास्थान नहीं होते हैं।
___ मोहनीय कर्म के विभिन्न गुणस्थानों में कितने बन्धस्थान, कितने उदयस्थान और कितने सत्तास्थान होते हैं, मोहनीय कर्म का सम्बन्ध निम्न तालिकाओं के माध्यम से समझा जा सकता है । इन तालिकाओं में मोहनीय कर्म की कितनी कर्मप्रकृतियों का बन्ध आदि होता है, इसका उल्लेख है और उसके समक्ष बन्धस्थान आदि कितने होते हैं, इसका उल्लेख है -
Jain Education Interational
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org