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प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा......
सप्तम अध्याय........{443} गुणस्थानों का उल्लेख हुआ है ।४२४ ।
(२) समवायांग के पश्चात् श्वेताम्बर परम्परा में गुणस्थानों के चौदह नामों का उल्लेख आवश्यकनियुक्ति में प्राप्त होता है,४२५ किन्तु यहाँ पर इनकी गणना चौदह भूतग्रामों का वर्णन करते समय गुणस्थान शब्द का उल्लेख किए बिना ही की गई है, किन्तु डॉ सागरमल जैन ने इन्हें आवश्यकनियुक्ति में प्रक्षिप्त माना है, क्योंकि हरिभद्रसूरि (वीं शती) ने आवश्यकनियुक्ति की टीका में 'अधुनामुनैव गुणस्थान द्वारेण दर्शयानाह संग्रहणिकार' - कहकर इन गाथाओं को उद्धृत किया है । नियुक्तियों के गाथा क्रम में भी इन गाथाओं की गणना नहीं की जाती है। इससे यह सिद्ध होता है कि नियुक्ति में ये गाथाएं संग्रहणीसत्र से प्रक्षिप्त की गई है।
(३) प्राचीन प्रकीर्णको में भी गुणस्थान की अवधारणा का अभाव है।
(४) श्वेताम्बर परम्परा में इन चौदह अवस्थाओं के लिए गुणस्थान शब्द का सर्वप्रथम प्रयोग आवश्यकचूर्णि (सातवीं शती) में मिलता है । जिनदासगणि ने इनका तीन पृष्ठों में विवरण दिया है।४२६ तत्त्वार्थभाष्य पर सिद्धसेनगणि की वृत्ति४२७ एवं हरिभद्रसूरि की तत्त्वार्थसूत्र की टीका २८ में भी इस सिद्धान्त का संक्षिप्त विवेचन ही हुआ है।
(५) दिगम्बर परम्परा में कसायपाहुड को छोड़कर षट्खण्डागम४२६, मूलाचार ३०, भगवतीआराधना ३१ और कुन्दकुन्द के समयसार, नियमसार जैसे अध्यात्मप्रधान ग्रन्थों में तथा तत्त्वार्थसूत्र की सर्वार्थसिद्धि ३२, राजवार्तिक ३३, श्लोकवार्तिक ३४ आदि टीकाओं में गुणस्थान सिद्धान्त का विस्तृत विवेचन हुआ है। षट्खण्डागम के प्रारंभिक अंश को छोड़कर सभी उपर्युक्त ग्रन्थों में गुणस्थान शब्द का प्रयोग हुआ है । षट्खण्डागम के प्रारम्भ में भी इन्हें जीवसमास कहा गया है।
डॉ. धरमचंद जैन द्वारा प्रस्तुत यह विश्लेषण इस तथ्य को स्पष्ट करता है कि डॉ. सागरमल जैन के अनुसार गुणस्थान सिद्धान्त का विकास लगभग पांचवीं शताब्दी में ही हुआ है । उनके इस अभिमत से चाहे हम सहमत हों या न हों, किन्तु उनके तर्कों में बल अवश्य ही है । प्रस्तुत शोधग्रन्थ में हमने गुणस्थानों की इस चर्चा के प्रसंग में श्वेताम्बर और दिगम्बर साहित्य का आलेोडन किया है । इस आलोडन में हमने भी यह पाया है कि सम्पूर्ण श्वेताम्बर आगम साहित्य में कहीं भी गुणस्थान सम्बन्धी शब्द का उल्लेख नहीं है । यद्यपि गुणस्थान की अवधारणा में जिन चौदह अवस्थाओं का प्रतिपादन किया गया है, उनमें सास्वादन को छोड़कर शेष १३ का उल्लेख भगवतीसूत्र में उपलब्ध हो जाता है, फिर भी उन सब उल्लेखों को देखकर यह कहना कठिन ही है कि वे सब अवस्थाएं गुणस्थान सिद्धान्त से सम्बन्धित हैं, किन्तु डॉ. धरमचंद जैन ने डॉ. सागरमल जैन की उपर्युक्त मान्यता की समीक्षा करते हुए यह बताने का प्रयास किया है कि आगम साहित्य के बहुल अंश का विलोप हो जाने के कारण ही यह सम्भव है कि गुणस्थान सिद्धान्त की अवधारणा प्राचीन काल में रही है, किन्तु उन अंशों के विलुप्त हो जाने से वर्तमान में आगमों में
४२४ कम्मविसोहिमग्गणं पडुच्च चउदृश जीवद्वाणा पण्णता, तं जहा-मिच्छदिट्टि, सासायणसम्मदिट्ठि, सम्मामिच्छदिट्टि, अविरयसम्मादिट्ठि,
विरयाविरए, पमत्तसंजए, अप्पमत्तसंजए, निअट्टिषायरे, अनियट्टिबाथरे, सूक्ष्मसंपराए, उपसामए वा खवए वा उपसंतमोहे,
क्षीणमोहे, सजोगीकेवली, अयोगी केवली । - समयावांग (आगम प्रकाशन, ब्यावर) समवाय - १४ ४२५ मिच्छदिट्टि सासायणे य तह सम्ममिच्छदिट्ठि य । अविरयसम्मदिट्ठि विरयाविरए पमत्तेय । तत्तो ये अप्पमत्तो नियट्टिअनियट्टि बायरे सुहुमे । उवसंत
खीणमोहे होइ सजोगी अजोगीय - आवश्यकनियुक्ति, नियुक्तिसंग्रह, पृ.१४० ४२६ तत्थ इमातिं चौदस गुणट्ठाणाणि.....अजोगी केवली नाम
से लेखीपाडिवन्नओ, सो य तीहि जोगेहि....मुक्को सिद्ध भवति । - आवश्यकचूर्णि (जिनदासगणि) उत्तरभाग, रतलाम, १६२६, पृ. १३३-१३६ ४२७ तत्त्वार्थाधिगमसूत्र (सिद्धसेनगणिकृत भाष्यानुसारिणिका समलंकृत. सं हीरालाल रसीकलाल कापड़िया) ६३५ टीका । ४२८ तत्त्वार्थसूत्रम् (टीका-हरिभद्र) ऋषभदेव केशरीमल श्वेताम्बर संस्था, रतलाम सं. १६६२, पृ. ४६५ ४२६ षट्खण्डागम (सत्प्ररूपणा) प्रकाशन जैन संस्कृति रक्षक संघ, सोलापुर, पुस्तक - १, द्वितीय संस्करण, सन् १६७३, पृ. १५४ से २०१ ४३० मूलाचार, पृ. २७३-७६ माणिकचंद दिगम्बर जैन ग्रन्थमाला (२३) मुम्बई ईस्वी सन् १९३० ४३१ भगवतीआराधना, भाग-२ सम्पा. कैलाशचन्द्र शास्त्री, पृ.६८० ४३२ सर्वार्थसिद्धि (भारतीय ज्ञानपीठ) सूत्र -१-८ की टीका तथा ६-१२ की टीका ४३३ राजवार्तिक, ६, १० - ११ ४३४ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक (विद्यानन्द) सूत्र १०-३, ६-३६, ६-३७, ६-३३-४४
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