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प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा......
चतुर्थ अध्याय........{234} कर्म का अभाव दो प्रकार से होता है - यत्नसाध्य और अयत्नसाध्य । इनमें चरमशरीरी अर्थात् उसी भव में मोक्ष प्राप्त करनेवाले जीव को नारक, तिर्यंच और देव आयुष्य का अभाव अयत्न साध्य होता है, क्योंकि चरमशरीरी को उनकी सत्ता प्राप्त नहीं होती है । अब यत्नसाध्य अभाव (क्षय) बता रहे हैं। असंयतसम्यग्दृष्टि आदि चौथे से सातवें तक चार गुणस्थानों में से किसी एक गुणस्थान में सात प्रकृतियाँ (दर्शन सप्तक) का क्षय करता है । पुनः अग्रिम आठवें गुणस्थान में क्षपकश्रेणी में आरुढ़ हो नवम गुणस्थान में निद्रा-निद्रा, प्रचला-प्रचला, स्त्यानगृद्धि, नरकगति, तिर्यंचगति, जातिचतुष्क, नरकगतिप्रायोग्यानुपूर्वी, तिर्यंचगतिप्रायोग्यानुपूर्वी, आतपनामकर्म, उद्योतनामकर्म, स्थावरनामकर्म, सूक्ष्मनामकर्म और साधारणनामकर्म-इन सोलह कर्मप्रकृतियों का क्षय करता है । इसके पश्चात् उसी नवें अनिवृत्तिबादर गुणस्थान में सत्ता में रही हुई अप्रत्याख्यानावरण और प्रत्याख्यानावरण-इन आठ कषायों का क्षय कर, नपुंसकवेद, और स्त्रीवेद का क्रम से क्षय करता है, फिर छः नोकषायों का एक ही झटके में क्षय कर देता है । तदन्तर पुरुषवेद, संज्वलन क्रोध, संज्वलन मान और संज्वलन माया का क्रम से अत्यन्त क्षय करता है । संज्वलन लोभ का सूक्ष्मसंपराय नामक दसवें गुणस्थान के अन्त में क्षय करता है, इसके पश्चात् सीधा बारहवें गुणस्थान में प्रवेश करता है । निद्रा और प्रचला का क्षीणकषायवीतरागछद्मस्थ नामक बारहवें गुणस्थान के उपान्त्य समय में क्षय होता है । पाँच ज्ञानावरण, चार दर्शनावरण और पाँच अन्तराय कर्मों का भी बारहवें गुणस्थान के अन्तिम समय में क्षय हो जाता है । कोई एक वेदनीय, देवगति, औदारिकद्विक, वैक्रियद्विक, आहारकद्विक, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, पाँच बन्धन, पाँच संघातन, छः संस्थान, पाँच प्रशस्तवर्ण, पाँच अप्रशस्तवर्ण, दो गन्ध, पाँच प्रशस्त रस, पाँच अप्रशस्त रस, आठ स्पर्श, देवगतिप्रायोग्यानुपूर्वी, अगुरुलघुनामकर्म, उपघातनामकर्म, पराघातनामकर्म, उच्छ्वासनामकर्म, विहायोगतिद्विक, अपर्याप्तनामकर्म, प्रत्येकशरीरनामकर्म, स्थिरनामकर्म, अस्थिरनामकर्म, शुभनामकर्म, अशुभनामकर्म, दुर्भगनामकर्म, दुःस्वरनामकर्म, अनादेयनामकर्म, अयशःकीर्तिनामकर्म, निर्माणनामकर्म, और नीचगोत्र - इन बहत्तर कर्म प्रकृतियों का तेरहवें सयोगी केवली गुणस्थान के उपान्त्य समय में क्षय होता है । शेष कोई एक वेदनीय, मनुष्य आयुष्य, मनुष्यगति, पंचेन्द्रियजाति, मनुष्यगतिप्रायोग्यानुपूर्वी, त्रसनामकर्म, बादरनामकर्म, पर्याप्तनामकर्म, सुभगनामकर्म, आदेयनामकर्म, यशःकीर्तिनामकर्म, तीर्थंकर नामकर्म और उच्च गोत्र - इन तेरह कर्मप्रकृतियों का चौदहवें अयोगी केवली गुणस्थान के अन्तिम समय में क्षय होता है । ज्ञातव्य है कि पूज्यपाद देवनन्दी ने दसवें अध्याय में केवलज्ञान और मोक्ष की अपेक्षा से दो बार गुणस्थानों के सन्दर्भ में कर्मप्रकृतियों के क्षय की चर्चा की है । सर्वार्थसिद्धि की टीका में दस गुणश्रेणियाँ :
पूज्यपाद देवनन्दी ने सर्वार्थसिद्धि टीका में तत्त्वार्थसूत्र में प्रतिपादित कर्म निर्जरा के आधार पर आध्यात्मिक विकास की दस अवस्थाओं की चर्चा की है (१) सम्यग्दृष्टि (२) श्रावक (३) विरत (४) अनन्तानुबन्धी वियोजक (५) दर्शनमोह क्षपक (६) उपशमक (७) उपशान्तमोह (८) क्षपक (E) क्षीणमोह और (१०) जिन । डॉ. सागरमल जैन आदि कुछ विद्वान इन्हे गुणस्थान सिद्धान्त का मूल स्रोत मानते हैं। __अतः यह विचारणीय है कि इन दस अवस्थाओं का गुणस्थान सिद्धान्त से कहाँ तक सम्बन्ध है ? गुणस्थान सिद्धान्त की चौदह अवस्थाओं में से मिथ्यादृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि का यहाँ कोई उल्लेख नहीं है । प्रथम सम्यग्दृष्टि अवस्था औपशमिक सम्यग्दृष्टि के समान है । द्वितीय श्रावक अवस्था पांचवाँ देशविरति गुणस्थान और तृतीय विरत छठे संयत गुणस्थान के समान है, क्योंकि इस अवस्था में क्षायिक सम्यक्त्व की प्राप्ति के लिए यथाप्रवृत्तिकरण आदि तीन करण करता है, किन्तु इसकी पांचवीं अवस्था दर्शनमोह क्षपक की तुलना अपूर्वकरण नामक आठवें गुणस्थान से नहीं की जा सकती । क्षपक और क्षीणमोह-इन दो अवस्थाओं में क्षपक का गुणस्थान सिद्धान्त में कोई उल्लेख नहीं मिलता है । यद्यपि क्षीणमोह, बारहवें क्षीणमोह
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