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प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा....
द्वितीय अध्याय........{49} प्रयोग हुआ है, किन्तु यहाँ यही निर्देश किया गया है कि चिरकाल का दीक्षित मुनि यदि साधना में अस्थिर है, तो वह तप नियमों को करते हुए भी अपनी आत्मा को क्लेश ही देता है और सम्पराय अर्थात् कषायों से ऊपर नहीं उठ पाता है। इसप्रकार यहाँ सम्पराय शब्द सामान्यरूप से कषाय के लिए प्रयुक्त हुआ है, सूक्ष्मसंपराय गुणस्थान के लिए नहीं। इसी अध्ययन में अनाथी-मुनि की विशेषताओं का वर्णन करते हुए उन्हें गुणसमृद्ध, विगतमोह आदि कहा गया है, लेकिन ये शब्द भी गुणस्थान के वाचक प्रतीत नहीं होते। उत्तराध्ययनसूत्र के २६वें सम्यक्त्वपराक्रम नामक अध्ययन में भगवान से यह पूछा गया कि संवेग से क्या प्राप्त होता है? इसके उत्तर में भगवान ने यह कहा कि संवेग से अनुत्तर धर्मश्रद्धा प्राप्त होती है। अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया, लोभ का क्षय होता है। मिथ्यात्व की विशुद्धि होती है और दर्शन की आराधना होती है। इसप्रकार यहाँ संवेग को मिथ्यात्व की विशुद्धि एवं अनन्तानुबन्धी चतुष्क के क्षय की बात कही गई है। प्रथम दृष्टया यह अंश प्रथम गुणस्थान के अन्त और चतुर्थ गुणस्थान की उपलब्धि प्राप्त करने का निर्देश करता है, फिर भी इसे स्पष्टतया गुणस्थान का सूचक मानना कठिन ही है। इसी अध्ययन में यह पूछा गया है कि प्रत्याख्यान से क्या लाभ है? इसके उत्तर में यह कहा गया कि प्रत्याख्यान से जीव अयोगी अवस्था को प्राप्त होता है। वह नए कर्मों को नहीं बांधता है और पुराने कर्मों को निर्जरित कर देता है। इसी क्रम में यह भी पूछा गया कि एकाग्रता से क्या लाभ होता है ? इसके उत्तर में यह कहा गया कि मन की एकाग्रता से ज्ञानपर्याय उत्पन्न होती है। इससे मिथ्यात्व नष्ट होता है और सम्यक्त्व प्राप्त होता है। फिर भी यह चित्रण सामान्य स्थिति का सूचक है। इसके आधार पर यह कल्पना करना कि यहाँ सम्यक्त्व या अयोगी केवली गुणस्थान की चर्चा है, यह समुचित नहीं होगा। उत्तराध्ययनसत्र के २६वें सम्यक्त्वपराक्रम नामक अध्ययन के अन्त में यह प्रश्न उठाया गया है कि मिथ्यादर्शन और राग-द्वेष पर विजय प्राप्त करने से क्या होता है? इसके उत्तर में यह कहा गया कि मिथ्यादर्शन और राग-द्वेष आदि पर विजय प्राप्त करने से ज्ञान, दर्शन, चारित्र की आराधना होती है। उस आराधना के फलस्वरूप साधक आठ प्रकार की कर्मग्रंथियों का विमोचन करता है। उसमें भी सर्वप्रथम मोहनीयकर्म की अट्ठाईस प्रकृतियों का क्षय करता है। फिर पाँच प्रकार के ज्ञानावरण, नौ प्रकार के दर्शनावरण और पाँच प्रकार के अन्तराय का युगपत् रूप से क्षय करता है। तत्पश्चात् अनुत्तर, अनन्त, परिपूर्ण, निरावरण, लोकालोक प्रकाशक, विशुद्ध केवलज्ञान और केवलदर्शन प्राप्त करता है। जब तक वह सयोगी रहता है, तब तक दो समय की स्थितिवाले शातावेदनीय ईर्यापथिक कर्म का बन्ध करता है। प्रथम समय में वे कर्म बद्ध होते हैं, दूसरे समय में वेदित होते हैं और तीसरे समय में निर्जीर्ण हो जाते हैं। जो कर्म स्पष्ट और बद्ध थे, वे उदीरण और वेदित होकर निर्जरित हो जाते हैं। उसके पश्चात् वह अन्तर्मुहुर्त शेष रहने पर योगनिरोध करता है और शुक्लध्यान को ध्याता हुआ प्रथम मनोयोग का निरोध करता है, फिर वचनयोग का निरोध करता है और अन्त में श्वासोच्छ्वास का निरोध करके वह पाँच हृस्व अक्षरों के उच्चारण में लगनेवाले काल में ही, अनिवृत्तसमुच्छिन्नक्रिया नामक शुक्लध्यान को ध्याता हुआ आयुष्य, नाम, गोत्र और वेदनीय-इन चार कर्मों का एक ही साथ क्षय करता है। ऋजुश्रेणी को प्राप्त होकर अस्पर्शमान एवं अविग्रहगति से, एक समय में ही लोकांत को प्राप्त होकर, सर्व दुःखों का अन्त करके, सिद्ध अवस्था को प्राप्त करता है। उत्तराध्ययनसूत्र के २६ वें सम्यक्त्वपराक्रम नामक अध्ययन की इस चर्चा से बारहवें,तेरहवें और चौदहवें गुणस्थान की समस्त प्रक्रिया स्पष्ट हो जाती है। फिर भी यह प्रसंग गुणस्थानों की चर्चा करता है, ऐसा कहना समुचित नहीं होगा। यहाँ यह चर्चा मुख्यरूप से मिथ्यादर्शन एवं राग-द्वेष पर विजय प्राप्त करने से किस फल की प्राप्ति होती है, इस सन्दर्भ में आई है। इस समग्र चर्चा में गुणस्थान शब्द कहीं नहीं आया है। यहाँ केवल मिथ्यादर्शन एवं राग-द्वेष और उनके परिणामस्वरूप कर्मप्रकृतियों के क्षय की चर्चा है। चाहे विद्वद्जन इस बात को स्वीकार न करे कि यहाँ गुणस्थान की कोई चर्चा है, किन्तु हमें इतना तो मानना ही होगा कि यहाँ जो चर्चा प्रस्तुत की गई है वह बारहवें, तेरहवें और चौदहवें गुणस्थान की स्थिति को समझने के लिए आधारभूत है। उत्तराध्ययनसूत्र के ३१ वें चरणविधि नामक अध्ययन में यह कहा गया है कि मुनि को एक ओर से विरक्त होना चाहिए तथा एक ओर प्रवृत्त होना चाहिए। उसे असंयम से निवृत्त होकर संयम में प्रवृत्त होना चाहिए, किन्तु यह गाथा मात्र उपदेशात्मक है, गुणस्थान की स्थिति को स्पष्ट करने वाली नहीं है। इस अध्ययन में एक से लेकर तैंतीस बोलों की चर्चा है। इसमें चौदहवें बोल में चौदह प्रकार के भूतग्रामों (जीवों) का उल्लेख आया है, किन्तु चौदह गुणस्थानों का कोई उल्लेख नहीं है। उत्तराध्ययनसूत्र का ३३ वाँ कर्मप्रकृति नामक अध्ययन कर्मप्रकृतियों की चर्चा करता है। इस प्रसंग में वहाँ मिथ्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व और सम्यक्त्व-इसप्रकार मोहनीयकर्म की
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