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प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा......
चतुर्थ अध्याय........{236} - गुणस्थान में कितने परिषह सम्भव होते हैं। आगे सूत्र संख्या ३४, ३५, ३६ एवं ३८ में क्रमशः आर्तध्यान, रौद्रध्यान, धर्मध्यान और शुक्लध्यान की चर्चा है, किन्तु ध्यान की इस चर्चा में यह भी उल्लेख किया गया है कि किस गुणस्थान में किन ध्यानों की सम्भावना होती है । नवें अध्याय के ४५ वें सूत्र में मुख्य रूप से निर्जरा की चर्चा की गई है । यद्यपि यहाँ गुणस्थानों का स्पष्ट उल्लेख न तो मूलसूत्र में है और न ही
है और न ही पूज्यपाद देवनन्दी की टीका में है, किन्तु निर्जरा की अपेक्षा से जिन दस अवस्थाओं की चर्चा है, उनमें अधिकांश अवस्थाएं गुणस्थान की अवधारणा के साथ मेल खाती है । विशेष रूप से सम्यग्दृष्टि, श्रावक, विरत, उपशान्तमोह, क्षीणमोह और जिन (सयोगीकेवली)-इन छः अवस्थाओं का यहाँ स्पष्ट निर्देश है। इसके अतिरिक्त अप्रमत्तसंयत के स्थान पर अनन्तवियोजक, ऐसा उल्लेख हुआ है। यद्यपि यह एक आश्चर्यजनक तथ्य है कि पूज्यपाद देवनन्दी ने इस सूत्र की व्याख्या में कहीं भी गुणस्थानों की चर्चा नहीं की है।
पुनः दसवें अध्याय के सूत्र एक और दो में अविरतसम्यग्दृष्टि, संयतासंयत (श्रावक), प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयत-ऐसे चार गुणस्थानों का स्पष्टतया उल्लेख किया है। मात्र इतना ही नहीं इसके आगे अपूर्वकरण, अनिवृत्तिबादरसम्पराय, सूक्ष्मसम्पराय, क्षीणकषाय और सयोगीकेवली अवस्थाओं का भी उल्लेख है और यह भी बताया है कि जीव किन गुणस्थानों में किन-किन कर्मप्रकृतियों का क्षय करता हुआ अपनी आत्मविशुद्धि करता है । पुनः इसी अध्याय के दूसरे सूत्र की टीका में किस गुणस्थान में कितनी कर्मप्रकृतियों का क्षय हो जाता है, इसका भी स्पष्ट विवरण हमें उपलब्ध होता है । इस प्रकार हम देखते हैं कि पूज्यपाद देवनन्दी ने अध्याय एक, दो, आठ, नौ और दस - ऐसे पांच अध्यायों की टीका में गुणस्थान सिद्धान्त का विवेचन प्रस्तुत किया है । अतः स्पष्ट रूप से यह माना जा सकता है कि सवार्थसिद्धि के कर्ता पूज्यपाद देवनन्दी के समक्ष चौदह गुणस्थानों की अवधारणा उपस्थित थी। तत्त्वार्थसूत्र की श्वेताम्बर, दिगम्बर जो भी उपलब्ध टीकाएं हैं, उसमें उमास्वाति के स्वोपज्ञभाष्य को छोड़कर सवार्थसिद्धि ही प्राचीन है। साथ ही यह भी स्पष्ट है कि गुणस्थान सिद्धान्त का एक संतुलित विवेचन सर्वप्रथम पूज्यपाद देवनन्दी की सर्वार्थसिद्धि टीका में ही मिलता है, किन्तु उनके द्वारा प्रस्तुत इस विवरण से यह भी ज्ञात होता है कि उनके समय में गुणस्थान सिद्धान्त अपने विकसित रूप में उपस्थित रहा है ।
पूज्यपाद देवनन्दी ने तत्त्वार्थसूत्र की सर्वार्थसिद्धि टीका में मार्गणाओं के सन्दर्भ में गुणस्थानों की चर्चा करते हुए यह कहा है कि प्रमत्तसंयत से लेकर अनिवृत्तिबादर गुणस्थान तक स्त्रीवेद और नपुंसकवेदवाले जीव संख्यात होते हैं । यहाँ यह प्रश्न स्वाभाविक रूप से उत्पन्न होता है कि क्या उस स्त्री पर्याय में प्रमत्तसंयत आदि गुणस्थानों की प्राप्ति सम्भव है, जो परम्परा स्त्री में यथार्थ रूप से पंच महाव्रतों की उपस्थापना को ही सम्भव न मानती हो और स्त्री को उपचार से महाव्रत मानती हो, उसमें स्त्री में प्रमत्तसंयत, अप्रमत्तसंयत, अपूर्वकरण और अनिवृत्तिबादरसम्पराय गुणस्थान कैसे सम्भव होंगे ? यदि हम स्त्री में इन चारों गुणस्थानों की सम्भावना को स्वीकार करें तो फिर उसकी मुक्ति मानने में कौन-सी बाधा आएगी ? यद्यपि इस प्रश्न के उत्तर में दिगम्बर परम्परा के द्वारा यह तर्क किया जा सकता है कि हम इन गुणस्थानों की स्त्रीवेद (स्त्रैण कामवासना) की संभावना मानते हैं, स्त्रीलिंग रूप स्त्री पर्याय की नहीं; तो अगला प्रश्न यह खड़ा होगा कि क्या पुरुष पर्याय में स्त्रीवेद और स्त्रीपर्याय में पुरुषवेद का उदय सम्भव है ? यदि उसकी संभावना को स्वीकार करते हैं, तो यह बात शरीर विज्ञान एवं मनोवैज्ञानिक दृष्टि से असंगत सिद्ध होती है। तब तो वेदोदय लिंग अर्थात् शरीर पर्याय के अभाव में सम्भव मानना होगा । ऐसा मानने पर एकेन्द्रिय और विकलेन्द्रिय जीवों में भी, जो स्वरूपतः नपुंसक माने गए हैं, पुरुषवेद और स्त्रीवेद का उदय मानना होगा, किन्तु यह बात सिद्धान्त के विरुद्ध जाती है । प्रमत्तसंयत गुणस्थान से लेकर अनिवृत्तिबादर गुणस्थान तक तीनों वेदों की सत्ता पाई जाती है, लेकिन यह बात उन लोगों के विरोध में जाती है, जो स्त्री मुक्ति (तद्जन्य वासना) स्वीकार नहीं करते हैं । लिंग और वेद अन्योन्याश्रित हैं,
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