Book Title: Nirayavalika Sutra
Author(s): Atmaramji Maharaj, Swarnakantaji Maharaj
Publisher: 25th Mahavir Nirvan Shatabdi Sanyojika Samiti Punjab
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरयावलिका सूत्र भगवान महावीर अनुवादक व टीकाकार जैन धर्म दिवाकर, श्रमण संघ के प्रथम पदृधर श्री श्री 1008 पुज्यवर श्री आत्मा राम जी महाराज मुख्य सम्पादिका जिन शाषण प्रभाविका, साध्वी रत्न, जैन ज्योति उपप्रवर्तनी श्री स्वर्ण कान्ता जी महाराज साध्वी श्री स्मृति जी म. M.A. * श्री तिलकधर शास्त्री जी * श्री पुरूषोत्तम जैन,* श्री रवीन्द्र जैन प्रकाशक पच्चीसवीं महावीर निर्वाण शताब्दी संयोजिका समिति पंजाब-विमल कोल डिप्पु, पुराना बस स्टैण्ड, महावीर स्ट्रीट मालेरकोटला - 148023 जिला संगरूर Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य श्री आत्मा राम जी महाराज आप जैन श्वेताम्बर स्थानावासी श्रमण संघ के प्रथम पट्टाधीश थे । आप का जन्म पंजाब के एक छोटे से कस्बे राहो जिला जालंधर में हुआ । छोटी सी आयु में ही आपने स्थानवासी दीक्षा अंगीकार की । संस्कृत, प्राकृत, हिन्दी, गुजराती, धार्मिक साहित्य का तुलनात्मक अध्ययन किया । अपने जीवन काल में आप ने 80 के करीब ग्रंथ जैन हिन्दी साहित्य को प्रदान किये । आप ने 20 आगमों पर टीका हिंदी भाषा में लिखी । आप काफी आगम प्रकाशित हो चुके हैं । प्रस्तुत आगम उनका अप्रकाशित आगम था । उपप्रवर्तनी साध्वी श्री स्वर्ण कांता जी भी इस की मुख्य सम्पादिका हैं । सम्पादक मण्डल में हैं, धर्म भ्राता श्री पुरूषोत्तम जैन, श्री रवीन्द्र जैन (मलेरकोटला) साध्वी श्री सधा जी की शिष्या साध्वी श्री स्मति जी म. M.A.. श्री तिलकधर शास्त्री जी सम्पादक आत्म रश्मि लुधियाना Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ KXXXXXXXXXXXXXX. * *************** नमोत्थुणं समणस्स भगवओ महावीरस्स निरयावलिका सूत्रम् [कप्पिया, कम्पडिसिया, पुप्फिया, पृष्फचूलिया, वण्हिदसा ] (NERYAVALIKA SUTRA ). [Kappia, Kappavadinsia, Pupphia, Pupphachulia, Vahnidasa ] टीकाकार: जैन-धर्म-दिवाकर जैनागम-रत्नाकर आचार्य-सम्राट पूज्य श्री आत्माराम जी महाराज . मुख्य सम्पादक : जिन-शासन-प्रभाविका जैन-ज्योति उपप्रतिनी महाश्रमणी श्री स्वर्ण कान्ता जी महाराज सम्पादक-मण्डल : . साध्वी-रत्न श्री स्मति जी म. एम. ए. श्री पुरुषोत्तम जैन श्री तिलकधर शास्त्री, (सम्पादक आत्म-रश्मि) श्री रवीन्द्र जैन साहित्य-रत्न, साहित्यालंकार, विद्या-वाचस्पति (मालेर कोटला) प्रबन्ध सम्पादक : श्री पुरुषोत्तम जैन, श्री रवीन्द्रन प्रकाशक: पच्चीसवीं महावीर निर्वाण शताब्दी संयोजिका समिति (पंजाब) बिमल कोल डिपो, पुराना बस स्टैण्ड, महावीर स्ट्रीट, मालेर कोटला (संगरूर) 148023 Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरयावलिका-सूत्र आचार्य सम्राट् पूज्य श्री आत्माराम जी महाराज मुख्य सम्पादक - उपप्रवर्तिनी महाश्रमणी श्री स्वर्णकान्ता जी महाराज सम्पादक मण्डल - साध्वी रत्न श्री स्मृति जी महाराज एम. ए., श्री तिलकधर शास्त्री, लुधियाना पुस्तक टीकाकार प्रबन्ध सम्पादक - श्री पुरुषोत्तम जैन, श्री रवीन्द्र जैन (मालेर कोटला) प्रकाशक श्री पुरुषोत्तम जैन, श्री रवीन्द्र जैन (मालेर कोटला ) पच्चीसवीं महावीर निर्वाण-शताब्दी संयोजिका समिति ( पंजाब ) विमल कोल डिपो, पुराना बस स्टैंड, महावीर स्ट्रीट, मालेरकोटला (संगरूर) प्रकाशन-काल- आत्म- दीक्षा- शताब्दी वर्ष (१९६४) मुद्रक - वीर सम्वत् २५२०, विक्रम सम्वत् २०५० आत्म जैन प्रिंटिंग प्रेस, ३५० - इण्डस्ट्रियल एरिया 'ए', लुधियाना - १४१००३ मूल्य : दो सौ इक्कावन (२५१) रुपये केवल Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरयावलिका सूत्र के टीकाकार जैन-धर्म दिवाकर जैनगम-रत्नाकर आचार्य-सम्राट् पूज्य श्री आत्माराम जी महाराज पच्चीसवीं महावीर निर्वाण संयोजिका समिति (पंजाब) मलिरकोटला Page #6 --------------------------------------------------------------------------  Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन्होंने आगमों को हिन्दी टोकायें लिखने का मार्ग प्रशस्त किया जिन्होंने प्राकृत के साथ संस्कृत को भी इसलिये विशेष महत्त्व दिया जिससे अजन विद्वान् भी जैनागमों की पहन मान-राशि को प्राप्त कर सकें .... जिनकी लेखनी मे आगमों के गहन गम्भीर रहस्यों को उद्घाटित किया और . जैनागमों को सर्वजन-सुलभ बनाया जिनका समस्त जीवन भुत-सेवा के लिये समर्पित रहा .. उन्हीं श्रद्धेय श्रमग-भेष्ठ आचार्य-सम्राट् पूज्य श्री आत्माराम जी महाराज के कर-कमलों में "तुभ्यं वस्तु हे देव! तुभ्यमेव समर्पये" - की भावना के साथ सावर समर्पित साध्वी स्वर्ण कान्ता Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्हत् जैन संघ आचार्य श्री सुशील मुनि जी महाराज आशीर्वचन जैनागमों के चारों अनुयोगों में निरयावलिका सूत्र “धर्म कथानुयोग' के अन्तर्गत आता है। यह अन्तकृत का उपांग शास्त्र है। उस समय जैन धर्म, जैन समाज में धर्म-पालन कैसे होता था और उस समय लोगों में मोक्ष जाने की कितनी उत्कृष्ट आकांक्षा थी और किस प्रकार राजकुमारों-रानियों ने वैभव त्याग कर प्रव्रज्या ग्रहण कर अपने आत्म-लक्ष्य को प्राप्त किया इसके विस्तृत ऐतिहासिक विवरण इस सूत्र द्वारा प्रस्तुत किये गये हैं। ___ श्रमण-संघ के प्रथम पट्टधर आचार्य-प्रवर श्री प्रात्मा राम जी महाराज जैन आगमों के प्रसिद्ध टीकाकार थे। उनका नाम समस्त साहित्यिक, विशेषतः प्राकृत जगत में विख्यात है। उन की अप्रकाशित कृति श्री निरयावलिका सूत्र पच्चीसवीं महावीर निर्वाण शताब्दी संयोजिका समिति पंजाब मालेरकोटला प्रकाशित कर रही है। आज के समय में ऐसे धर्म - शास्त्र का सम्पादन व प्रकाशन बहुत ही सराहनीय एवं उपयोगी है। हमारे यह पंच सम्पादक-विदुषी महासाध्वी श्री स्वर्ण कान्ता जी और उनकी मेधावी शिष्या साध्वो स्मृति जी एवं जैन जगत के प्रसिद्ध विद्वान् महामान्य श्री तिलकधर जी शास्त्री, समाज-सेवी श्री पुरुषोत्तम जैन जी, श्री रवीन्द्र जैन जी के मार्गदर्शन में इस ग्रन्थ का सम्पादन हुआ है जिसके लिये ये सभी सम्पादक धन्यवाद के पात्र हैं। हमारा ऐसा दृढ़ विश्वास है कि हमारे यह पंच सम्पादक भविष्य में भी इसी प्रकार . भगवान महावीर की विलुप्त वाणी का अनुसंधान कर उसे सम्पादित व प्रकाशित कर जिन-शासन की सेवा करते रहेंगे। अनन्त मंगल कामनाओं के साथ 12 जनवरी 1994 भाचार्य सुशील कुमार Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन-धर्म-दिवाकर जैनागम-रत्नाकर परम श्रद्धेय आचार्य-सम्राट पूज्य श्री आत्मा राम जी महाराज जीवन-सागर की कुछ लहरियां जैन-धर्म-दिवाकर जैनागम-रत्नाकर आचार्य-सम्राट पूज्य श्री आत्माराम जी महाराज चतुर्विध संघ के अग्रगण्य यशस्वी अनुशास्ता थे। जिन महापुरुषों का जीवन संयम और संघ-सेवा की दृष्टि से आदर्श हो, ऐसे महापुरुष ही समाज के लिये अनुशासन के अधिकारी होते हैं। आचार्य श्री का संयममय जीवन कितना उच्च था-महान था ? उन्होंने कितने शान्ति-प्रिय रह कर समाज पर अनुशासन किया, इसे वे श्रद्धालु श्रावक ही जान सकते हैं जिन्हें उनके पावन सान्निध्य का सौभाग्य प्राप्त हुआ हो। यद्यपि विद्वत्ता उनका जन्म-सिद्ध स्वाभाविक गुण था, तथापि उनके उस गुण को उनके संयम और उनकी स्वाध्याय-निष्ठा रूप गुण ही प्रकाशित कर पाये हैं । साधु के जीवन में अन्य समस्त गुणों की अपेक्षा संयम का ही प्राधान्य रहता है। संयम का अर्थ है सम्यक् प्रकार से आत्मा को नियन्त्रित कर विकृतियों की ओर जाने से रोकना। आचार्य श्री जी स्वाध्याय तपस्वी होने के साथ-साथ महान संयमी श्रमण-श्रेष्ठ थे। आचार्य के आठ गुणों में एक गुण है शरीर-सम्पदा। प्राचार्य देव का शरीर रूपी पुष्प वहां द्रष्टव्य एवं सुन्दर था, वहां वह संयम की सुगन्ध से भी इतना परिपूर्ण था कि उनके पावन सानिध्य में आने वाला हर व्यक्ति संयम की सुगन्ध से परिपूर्ण हो जाता था। . । उनके दर्शन करते ही महान निर्ग्रन्थ अनाथी मूनि की स्मृतियां मस्तिष्क के पटल पर उभर भाती थीं। उनका शरीर-वैभव और संयम-वैभव दोनों मिलकर उन्हें पूर्ण-पुरुष के रूप में प्रत्यक्ष कर देते थे। ____ आचार्य देव बाह्य तप की अपेक्षा अन्तरंग तप को अधिक महत्व देते थे। अनुशास्ता होते हुए भी वे संघ-सेवा को महत्वपूर्ण मानते थे, अतः वे समाज के लिये हरमन - प्यारे हो गये थे। उनकी वाणी में माधुर्य का ऐसा गहन सागर था जिसमें सभी को प्रिय लगने वाले रत्न ही प्राप्त होते थे। आप जैन एकता के प्रतीक थे, जो भी उनके चरणों में बैठता, वह आगम-ज्ञान सबको बहर्ष प्रदान करते थे। [ एक! Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आप जिस समय शास्त्रों का मनन करते थे, उस समय ज्ञान-धारा में गहरी डुबकी लगाकर अनुप्रेक्षा के माध्यम से आगमधरों के गहन आशय को तुरन्त पकड़ लेते थे। आपका प्रत्येक विचार स्वतन्त्र नहीं आगम- सम्मत ही होता था। नम्रता एवं सहिष्णुता के आप मूर्त रूप थे, क्योंकि अभिमान और ममत्व आपसे सर्वदा दूर ही रहते थे। आचार्यत्व और विद्वत्ता का न अभिमान और न ही शरीर का कोई ममत्व ही। आपकी नम्रता नव-दीक्षित साधु को भी सम्बोधित करते हुए उसके नाम के साथ आदरार्थ 'जी' का प्रयोग अवश्य किया करते थे। भयंकर से भयंकर वेदना में भी उनकी दिन-चर्या और रात्रिचर्या का क्रम मुनित्व की सीमा का अतिक्रमण कभी नहीं कर पाता था। आप स्वयं प्रसन्न रहते थे और निकट में रहने वालों को भी प्रसन्न ही रखते थे। कटुता, कुटिलता और कठोरता न उनके मन में थी, न वाणी में और न ही व्यवहार में । स्वाध्याय-निष्ठा ____ स्वाध्याय उनके जीवन का विशेष अंग था, अध्ययन और अध्यापन ही उनके जीवन के उद्देश्य थे, इसीलिये आप आडम्बरों तथा जन-सम्पर्क से दूर ही रहने का प्रयास करते थे। स्वाध्याय के साथ समाधि, ध्यान और योगाभ्यास उनकी जीवनचर्या के अभिन्न अंग बन गये थे। उनकी लेखनी ने बीस आगमों की ऐसो हिन्दी टीकायें लिखों जो सर्वजनोपयोगी हैं । आगमों पर तो उनको इतनो दृढ़ पकड़ हो चुकी थी कि अन्तिम अवस्था में नेत्र-ज्योति के . मन्द पड़ जाने पर भी ग्रन्थ का वही पृष्ठ निकाल देते थे जिस पर वह विषय अंकित होता था। सम्वत् १९८६ के वर्ष में आपने दस ही दिनों में दिगम्बर सम्प्रदाय के मान्य ग्रन्थ "तत्वार्थसूत्र" के मूल पाठों के उद्धरण देकर यह सिद्ध कर दिया था कि तत्वार्थ-सूत्र उमा स्वाती जी ने आगमों से ही उद्धृत किया है । उसका मूलाधार आगम-साहित्य ही है। यह रहस्य सदियों से अज्ञात ही रहा था सर्व प्रथम आचार्य श्री जी की लेखनी ने ही उसे उद्घाटित किया। इस ग्रन्थ की महत्ता को ऐसा कोई जैन विद्वान नहीं है जिसने उसे स्वीकार न किया हो, वैसे तो उनकी लेखनी ने लगभम ६० ग्रन्थों का निर्माण किया था। ऐसे महापुरुष को जालन्धर प्रांत की राहों नामक नगरी की भूमि ने जन्म दिया था, सम्वत् १९३६ के भाद्रपद मास की शुक्ल पक्ष की द्वादशी के दिन । पिता श्री मनसा राम जी चोपड़ा एवं माता स्वनाम-धन्या परमेश्वरी देवी ने इस नवजात कुल-दीपक का नाम "आत्माराम" रखा था, क्योंकि उनकी आत्मा ने अन्तर्जगत में ही रमण करना था। सन्तों की ज्ञानाराधना के ये अनुभूत स्वर भी कभी-कभी सुनने में आ जाते हैं कि. आचार्य देव की आत्मा अनेक भवों से सन्तत्व की समाराधना करती आ रही थी । अतः इस जन्म में भी [दो] Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आपने केवल ग्यारह वर्ष की अवस्था में ही सन्तत्व के पावन मन्दिर में प्रवेश पा लिया था। सम्वत् १६५१ आषाढ़ शुक्ला पंचमी को श्री-संघ ने बड़े समारोह के साथ पटियाला से तीस पैंतीस किलोमीटर उत्तर दिशा में अवस्थित !'छत बनूड" में आपने सन्तत्व ग्रहण किया। श्री शालिग्राम जी महाराज आप के दीक्षा-गुरु बने और महामुनीश्वर पूज्य श्री मोती राम जी महाराज आपके विद्या-गुरु बन कर आगम-सागर के मोती प्रदान करते रहे। अलंकरण-माला से अलंकृत भगवती सरस्वती की आप पर अपार कृपा थी, वह सदैव आपके स्मृति-सागर में ही निवास करती थी, आपको आगमज्ञता को सन्मानित करने के लिये पूज्य श्री सोहनलाल जी महा राज एवं पंजाब प्रांतीय श्री संघ ने सम्वत् १९६८ में अमृतसर नगर में आपको उपाध्याय-पद से विभूषित किया, क्योंकि तत्कालीन उत्तरी भारत में आप जैसा कोई आगमज्ञ मुनिराज था ही नहीं। सम्वत् १९९१ में दिल्ली के श्री-संघ ने आपको जैन-धर्म-दिवाकर अलंकरण से सन्मानित किया और तपस्वीराज श्री लालचन्द जी महाराज के सान्निध्य में स्यालकोट के श्री-संघ ने सम्बत १९६३ में आपको "साहित्य-रत्न" के अलंकरण से अलंकृत कर आपके प्रति अपनी श्रद्धान्वित कृतज्ञता प्रकट की। पंजाब प्रांत के आचार्य ___सं० २००३ चैत्र शुक्ला त्रयोदशी को महावीर जयन्ती के शुभ अवसर पर उत्तरीभारत के प्रतिष्ठित मुनिवरों ने बड़े समारोह के साथ आपको पंजाब श्री-संघ के आचार्य-पद की श्वेत चादर बड़ी श्रद्धा से प्रोढ़ाई। प्रधानाचार्य पद का सम्मान .सम्वत २००६ में अक्षय-तृतीया के दिन राजस्थान के सादड़ी नगर में सम्पन्न हुए बृहत् साधुसम्मेलन ने एक मन और एक मत से आपको श्रमण-संघीय आचार्य-पद प्रदान किया, जब कि आप स्वयं वहां उपस्थित नहीं थे। देवलोकवासी . लगभग दस वर्षों तक इस पद पर रह कर आपने समस्त श्री संघ को संगठित किया, एक सूत्र में बांधा और समस्त श्री-संघ को गौरवान्वित किया। माघ कृष्णा नवमी सम्वत् २०१८ (३० जनवरी १९६२) के दिन इस महान विभूति को देवों ने हमसे छीन लिया और आप देवलोक में जा विराजे। उनकी अप्रकाशित रचना निरयावलिका को सम्पादित कर प्रकाशित करने का जो महानं सौभाग्य मुझे प्राप्त हुआ है उससे मेरी आत्मा अनन्त आनन्द की अनुभति कर रही है और करती पहेंगी। मेरा वही आनन्द "तुभ्यं वस्तु हे देव ! तुभ्यमेव समर्पये" के शब्दों में उनकी यह पावन कृति उन्हें ही समर्पित कर रहा है। साती स्वर्ण कान्ता (उपप्रवर्तनी) [ तीन] Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ टीकाकार की लेखनी से आत्मा के विकास के लिये श्रुत-ज्ञान अत्यन्त उपयोगी है। श्रुत-ज्ञान के द्वारा ही आत्मा स्व-कल्याण करने में समर्थ हो सकता है, यदि श्रुत-ज्ञान का अभाव हो तो आत्मा अपने कर्तव्य से पतित हो जाता है। श्रुत-ज्ञान के दो रूप हैं-द्रव्य-श्रुत और भाव-श्रुत। आज दोनों ही श्रुत विद्यमान हैं। अनुयोग द्वार सूत्र में पत्र और पुस्तकों के अक्षर-विन्यास को द्रव्य-श्रुत कहा गया है और आत्म ज्ञान के रूप में श्रुत को भाव-श्रु त कहा जाता है। ये दोनों श्रुत लौकिक और लोकोत्तर धर्म-मार्ग के साधन हैं। प्रस्तुत प्रकरण में भाव-श्रुत ही अभीष्ट है । भाव श्रु त के भी दो रूप हैं-अंग-प्रविष्ट और अनंग-प्रविष्ट (अंग बाह्म) गणधर देवों द्वारा रचित श्रुत अंग-प्रविष्ट कहलाता है और शेष श्रुत अंग-बाह्य के रूप में प्रसिद्ध हैं । अंग शास्त्रों के आधार पर निर्मितं श्रु त को उपांग भी कहते हैं। जो संख्या में बारह हैं। जिनके नाम इस प्रकार हैं - १. उववाइय (प्रौपपातिक) २. रायपसेणियं (राजप्रश्नीयम्) ३. जीवाभिगम ४. पण्णवणा (प्रज्ञापना) ५. सूरपण्णत्ति (सर्य-प्रज्ञप्ति) ६. जम्बू द्वीपपण्णत्ति (जम्बू द्वीप-प्रज्ञप्ति) ७. चंद पण्णत्ति (चन्द्र-प्रज्ञप्ति) ८. निरयावलियाओ (निरयावलिका) ६. कप्पवडिसियाओ (कल्पावंतसिका १०. पुप्फियाओ (पुष्पिका) ११. पुप्फ चूलाओ (पुष्प चूलिका) और १२. वहिदसाओ (वृष्णिदशा)। __नन्दी सूत्र में अंग प्रविष्ट और अनंग-प्रविष्ट श्रुत का वर्णन करते हुए वृत्तिकार ने समस्त आगमों का श्रुत-पुरुष के रूप में वर्णन प्रस्तुत करते हुए लिखा है कि ___ यत्पुनरेतस्यैव द्वादशाङ्गात्मकस्य श्रुतपुरुषस्य व्यतिरेकेण स्थितमङ्गबाह्यत्वेन व्यवस्थित तबनङ्ग-प्रविष्टम् । अथवा यद्गणधरदेव कृतं तदङ्ग प्रविष्टम्, मूलभूतमित्यर्थः । ___ गणधरदेवा हि मूलभूतमाचारादिकं धुतमुपरचयन्ति तेषामेव सर्गोत्कृष्ट श्रुतत्म-निध-सम्पन्नतया सवचयितुमीशत्गात् ।...'यापुनः श्रुतस्थगिरस्तदेकदेशमुपजीव्य विरचितं तबनङ्ग-प्रविष्टं । - उपर्युक्त समस्त विवरण का भाव यही है कि गणधर देवों द्वारा सूत्रबद्ध किया गया आगम साहित्य अङ्ग प्रविष्ट है और अन्य श्रुत-स्थविरों द्वारा आगमों के आधार पर विरचित- समस्त शास्त्रीय साहित्य अङ्ग-बाह्य अथवा अनङ्ग-प्रविष्ट साहित्य कहलाता है। [चार] Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - ( आचार्य श्री जी को आगमों की शोध करते हुए संवत् १८८० के माघ मास के कृष्णपक्ष की द्वितीया तिथि को रायकोट (पंजाब ] में किसी विद्वान् मुनीश्वर द्वारा निर्मित श्रुत-पुरुष का चित्र भी प्राप्त हुआ था जो इस विषय को बहुत ही सहजरीति से स्पष्ट कर देता है ) इनके अतिरिक्त कालिक र उत्कालिक श्रुत के रूप में भी आगम साहित्य का वर्गीकरण किया जाता है । निरावलिका सूत्र एक उपांग है यह जानने के अनन्तर यह परिज्ञान भी आवश्यक है कि इस सूत्र के पांचों वर्ग भी उपांग नाम से अलग-अलग प्रसिद्ध हैं जैसे कि स्वयं सूत्रकार लिखते हैं"उगाणं पंच जग्गा पण्णत्ता" - इस उपांग के पांच वर्ग भी उपांगों के नाम से प्रसिद्ध हैं । अतः इस सूत्र में पांच उपांग संकलित किए गए हैं । इस स्थान पर यह शका भी उत्पन्न हो सकती है कि कौन-कौन सा आगम उपांग है ? इस प्रश्न का समाधान सूत्र में न होने के कारण पूर्वाचार्यों ने जो कल्पना की है उसे ही विचारार्थं ग्रहण किया जा सकता है, क्योंकि औपपातिक आदि सूत्रों में किसी भी उपांग का उल्लेख नहीं है । कुछ विद्वानों की यह मान्यता भी गम्भीरता से विचारणीय है कि निरयावलिका सूत्र का विषय दृष्टिवाद नामक पूर्व से उद्धृत किया गया है, किन्तु सभी आगम-वेत्ता इस विषय से सहमत यह नहीं कहा जा सकता । निरावलिका सूत्र को पांच वर्गों में गठित किया गया है, किन्तु यदि निरयावलिका को पृथक् उपांग माना जाये तब ये छः शास्त्र सिद्ध होते हैं । नन्दी-सूत्र में कालिक सूत्रों के नामों के प्रकरण में निम्न लिखित पाठ है निरय वलियाओ, कप्पियाओ, कप्पवडसियाओ, पुष्फियाओ, पुप्फ चूलियाओ, बह्रिदसाओ । किन्तु यह विषय विद्वद्-वर्ग के लिये सर्वथा विचारणीय है, क्योंकि यदि षट् शास्त्र माने जायें तब "निरावलिका के पांच वर्ग हैं" यह कथन व्यर्थ सिद्ध हो जाता है । पांच वर्गों के विषय में निरयावलका में राजा श्रेणिक के दस पुत्रों का अधिकार दिया गया है "कल्प वडिसिया " महाराज श्रेणिक के दस कुमारों के पद्म आदि पुत्रों का अधिकार है जो दीक्षित होकर देवविमानों में उत्पन्न हुए थे । तृतीय वर्गं पुष्फिया में चन्द्र, सूर्य, शुक्र, बहुपुत्रिका आदि दस अध्ययनों का विस्तृत वर्णन किया गया है। चतुर्थ वर्ग पुप्फचूला में श्री, ह्री. धृति, कीर्ति आदि दस देवियों का वर्णन है। पंचम वर्ग वहि-दशा में निषिध कुमार आदि बारह कुमारों का विस्तृत वर्णन प्राप्त होता है। इस प्रकार पांच वर्गों में विभिन्न विषयों का वर्णन है। जैन धर्म प्रसारक सभा" भाव नगर से जो निरावलिका सूत्र प्रकाशित हुआ है उसकी प्रस्तावना में उपर्युक्त वर्णन के ही संकेत प्राप्त होते हैं जो विषयानुकूल हैं । [ पाँच ] Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इस सूत्र के अध्ययन अति प्राचीन और शिक्षाप्रद हैं, प्रत्येक धर्म-प्रिय व्यक्ति को इनका विधि-पूर्वक अध्ययन करना चाहिये, क्योंकि इस सूत्र का विषय विरक्ति-प्रधान आध्यात्मिक ज्ञान करते हुए भी गृहस्थोपयोगी ज्ञान भी प्रदान करता है। मैंने इस सूत्र के हिन्दी अनुवाद में निम्न लिखित कृतियों की सहायता ली है-हस्तलिखित तीन प्रतियां जो टब्बे के रूप में मेरे पास ही थीं, इनके अतिरिक्त जैन-धर्म-प्रसारक सभा, भाव नगर की ओर से इंग्लिश में मुद्रित एक प्रति भी मेरे लेखन का आधार रही है। अहमदाबाद से श्री आगमोदय समिति द्वारा मुद्रित श्री चन्द्र सूरि विरचित वृत्तियुक्त निरयावलिका सूत्र की प्रति भी मूल-सूत्र लिखने में सहायक रही है। उपर्युक्त विवरण तो केवल नाम मात्र ही है। संस्कृत-छाया अन्य सत्रों की टीकाओं तथा व्याकरण के आधार पर की गई है, यदि इसमें कोई अशुद्धि रह गई हो तो विद्वद्-वर्ग इसको सुधार कर पढ़े। इस सूत्र के मूल पाठ का आधार श्री प्रागमोदय समिति की प्रति ही रही है । श्री अमोलक ऋषि जी महाराज द्वारा लिखित प्रति से सूत्रों के अंक लगाते हुए भी कहीं-कहीं पर आवश्यकता के अनुसार सूत्रांकों में परिवतेन भी किया गया है। मकसूदाबाद से प्रकाशित प्रति भी मूल पाठ मिलाने के लिये प्रयोग में लाई गई है। इन समस्त प्रतियों के लेखकों के प्रति मैं अपनी कृतज्ञता व्यक्त करते हुए आशा करता हूं कि पाठक वर्ग इस सूत्र के स्वाध्याय से अपनी आत्मा को अलंकृत कर निर्वाण के अधिकारी बनेंगे। भवदीय प्रातमाराम - सम्वत् २००३, ज्येष्ठ कृष्णा अष्टमी, लुधियाना, Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्रकाशकीय # भारतीय धर्म दर्शन में जैन आगम साहित्य का महत्वपूर्ण स्थान है। जैन श्रागमों में आचारांग आदि द्वादश श्रंग और १२ उपांग हैं । उपांगों में निरयावलिका सूत्र का अपना महत्त्वपूर्ण स्थान है । निरावलिका के अतिरिक्त कल्पातंसिका पुष्पिता, पुष्पचूलिका में निरयावलिका सूत्र सूत्र और वृष्णिदशा नाम के अन्य उपांगों का भी समावेश है । उपगों का भारतीय इतिहास में महत्त्वपूर्ण स्थान है, क्योंकि इन उपांगों में भगवान महावीर, भगवान पार्श्वनाथ व भगवान अरिष्टनेमि के समय की घटनाओं का यथार्थं वर्णन उपलब्ध है । जैसे निरावलिका सूत्र में कोणिक जन्म, राजा श्रेणिक का पदच्युत होना, चेटक - कोणिक संग्राम का विस्तृत वर्णन है । कोणिक के १० भ्राताओं की युद्ध में मृत्यु होना, श्रेणिक की रानियों द्वारा भगवान महावीर के कर कमलों द्वारा साध्वी-जीवन ग्रहण करने का वर्णन है । बैशाली गणतन्त्र के विनाश का यह एक ऐतिहासिक प्रमाण है। दूसरे उपांग के १० अध्ययनों में राजा श्रेणिक के पौत्रों द्वारा भिक्षु जीवन ग्रहण करने का वर्णन है । तीसरे उपांग में भी १० अध्ययन हैं, जिसमें क्रमशः चन्द्र, सूर्य, शुक्र के भगवान महावीर के समोसरण में आने का वर्णन है साथ में इनके पूर्व भव का भी वर्णन उपलब्ध होता है। बहुपत्रिका नामक अध्ययन में साध्वियों को सांसारिक कार्यों से दूर रहने का निर्देश दिया गया है। इसी प्रकार पूर्ण, मणिभद्र दत्त, शिव, बल और अनिरुद्ध प्रादि के जीवन का संक्षिप्त वर्णन भी इसमें मिलता है । चतुर्थ उपांग पुष्पचूला के भी १० अध्ययन हैं । इनके नाम क्रमशः श्री देवी, ह्री, धी, कृति, बुद्धि, लक्ष्मी, इलादेवो, सुरादेवी, रसदेवी, गंधर्व देवी हैं । मुख्य रूप से श्रीदेवी का वर्णन करके अन्य देवियों के माता-पिता एवं जन्म स्थान आदि का संकेत • मात्र कर दिया गया है । इस अध्ययन में भूता साध्वी द्वारा साधना छोड़कर है जो साध्वाचार के विपरीत है। पांचवें वर्ग वृष्णि दशा के श्रृंगार की तरफ ध्यान देने का वर्णन १२ अध्ययनों के नाम क्रमश: इस प्रकार (४) बहे कुमार, (५) प्रगति कुमार, - (१) निषेध कुमार, (२) मातली कुमार, (३) वह कुमार, (६) ज्योति कुमार, (७) दशरथ कुमार, (८) दृढरथ कुमार, (६) महाधनु कुमार, (१०) सप्त धनु कुमार, (११) दश धनु कुमार और (१२) शतधनु कुमार । इन सभी अध्ययनों का समय की दृष्टि से २२ वें तीर्थङ्कर श्री अरिष्टनेमि जी से सम्बन्ध है । इस उपांग में प्रमुख वर्णन निषध कुमार के पूर्व भव का है । इस प्रकार समस्त निरयावलिका सूत्र के पांचों उपांगों में ५२ अध्ययन हैं । पच्चीसवीं महावीर निर्वाण शताब्दी संयोजिका समिति पंजाब तीन उद्देश्यों की पूर्ति के लिए हमेशा प्रयत्नशील रही है । (१) पंजाबी जैन साहित्य का निर्माण, (२) जैन (३) जैन चेयर की स्थापना। जहां तक पंजाबी जैन साहित्य का सम्बन्ध है, विद्वानों का हमारी [सात] Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवर्तिनी जैन-ज्योति, जिन-शासन प्रभाविका साध्वी श्री स्वर्ण कान्ता जी महाराज की प्रेरणा व दिशा-निर्देश में कार्यरत है। आज तक पंजाबी साहित्य के रूप में समिति द्वारा ४० पुस्तकें छप चुकी हैं। जिनमें अनुवाद, कथा-साहित्य व मौलिक रचनायें सम्मिलित हैं। इसी समिति के प्रयत्नों से जैन चेयर की स्थापना १९७६ में पंजाबी यूनिवर्सिटी पटियाला में हो चुकी है। इसी चेयर की देख-रेख में जैन लायब्ररी एवं आचार्य श्री आत्माराम जैन भाषण माला आदि कार्य काफी समय से चल रहे हैं । समिति द्वारा प्रकाशित भगवान महावीर का जीवन चरित्र पञ्जाबी विश्व विद्यालय पटियाला के बी. ए. (प्रथम वर्ष) में सिलेवस के रूप में मान्यता प्राप्त कर चुका है। इसके अतिरिक्त इण्टरनेशनल पार्वती जैन एवार्ड संस्था हर वर्ष एक विद्वान का सम्मान करती है। श्री साध्वी जी महाराज सरस्वती उपासना में निरन्तर लगी रहती हैं। काफी समय से उनकी यह भावना थी कि उस अप्रकाशित शास्त्र निरयावलिका का प्रकाशन होना चाहिये, जिसका अनुवाद श्रमण-संघ के प्रथम पट्टधर आचार्य-सम्राट पूज्य श्री आत्माराम जी महाराज ने किया है। जैन जगत में आचार्य श्री आत्माराम जी महाराज का नाम देश-विदेश में जाना-पहचाना नाम है, इस शताब्दी में जैन आगमों के प्रथम हिन्दी टीकाकार के रूप में उनका नाम प्रथम पंक्ति में आता है। उन्होंने अपना समस्त जीवन जैन साहित्य के निर्माण स्वाध्याय, प्रसार व प्रचार को समर्पित कर जन संस्कृति को गौरवान्वित किया है। हमारे आचार्य भगवान ने २० आगमों का अनुवाद किया है, जिनमें अधिकांश आगम लुधियाना में आचार्य श्री आत्माराम जैन प्रकाशन समति द्वारा प्रकाशित हो चुके हैं। आचार्य श्री ने इस उपांग का अनुवाद '४६ वर्ष पहले किया था। इसकी हस्तलिखित प्रतियां आत्म-कुल-कमल-दिवाकर विद्वद्-रत्न श्री रत्न मुनि जी महाराज के पास सुरक्षित थीं। जब हमारी समिति ने पूज्य श्री रतन मुनि जी महाराज से साध्वी-रत्न श्री स्वर्ण कान्ता जी महाराज की भावना प्रकट की तो गुरुदेव ने सहर्ष यह अमूल्य निधि समिति को छपवाने की आज्ञा प्रदान कर दी। इस आगम को प्रकाश में लाने का मुख्य श्रेय पूज्य श्री रत्न मनि जी महाराज को प्राप्त होता है। जिसके लिए हम उनके सदैव ऋणी रहेंगे। ' फिर यह कार्य उपप्रवर्तिनी साध्वी श्री स्वर्ण कान्ता जी महाराज के नेतृत्व में आरम्भ हुआ, काफी परिश्रम के बाद सम्पादक यह कार्य सम्पन्न कर सके हैं। __ मैं समिति की ओर से श्रद्धेय श्री रत्न मनि जी महाराज का विशेष आभारी हूं जिन्होंने अपने गुरुदेव की पवित्र निधि हमारी समिति को सहर्ष अर्पित की। उनका आशीर्वाद ही हमारी समिति का इतिहास है। दूसरा धन्यवाद सम्पादक मण्डल का है, जिनके श्रम से यह रचना प्रकाशित हो सकी। समस्त आचार्यों एवं साधु-साध्वियों को उनके आशीर्वादों के लिए कैसे प्राभार प्रकट करूं । आशीर्वाद का क्या उत्तर हो सकता है ? साथ ही साध्वी श्री राजकुमारी जी म., साध्वी श्री सुधा जी म., साध्वी श्री वीरकांता जी म. का विशेष आभार प्रकट करता हूं। साध्वी श्री स्वर्ण कान्ता जी महाराज इस ग्रन्थ की मुख्य सम्पादिका ही नहीं, दिशा [भाठ] Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निर्देशिका व प्रेरिका भी हैं । समिति के समस्त सदस्य उनके चरणों में सादर कृतज्ञता प्रकट करते हैं। इस ग्रन्थ के प्रकाशन में सहयोग देने वाले श्रावक-श्राविकाओं ने सहयोग देकर समिति के कार्यों में योगदान ही नहीं किया पुण्योपार्जन भी किया है । वे सब धन्यवाद के पात्र हैं। प्रस्तुत ग्रन्थ के प्रकाशन-कार्य में आरम्भ से ही पूर्ण सहयोगी बने रहने वाले श्री राजकुमार शर्मा (प्रबन्धक), श्री प्रीतमचन्द शर्मा (कम्पोजिग विभाग) एवं श्री हरिचन्द राणा (मशीन इन्चार्ज) एवं आत्म जैन प्रिंटिंग प्रेस के समस्त कर्मचारियों का मैं हृदय से आभारी हूं, क्योंकि इन सबका सहयोग ही प्रकाशन की पूर्णता में सहायक रहा है। • अतः मैं पुन: सम्पादक मण्डल, दानी सज्जनों का धन्यवाद करते हुए इस शास्त्र के अनुवादक व्याख्याकार श्रमण-संघ के प्रथम शास्ता आचार्य-सम्राट पूज्य श्री प्रात्माराम जी महाराज की पुण्य-स्मृति में प्रस्तुत शास्त्र उन्हीं के कर-कमलों में समर्पित करता हूं। इस प्रकाशन कार्य में यदि कोई त्रुटि जाने-अनजाने में रह गई हो तो उसके लिये मैं कर-बद्ध क्षमा चाहता हूं। -पुरुषोत्तम जैन जैन भवन संयोजक-पच्चीसवीं महावीर निर्वाण शताब्दी संयोजिका समिति पंजाब 20-1-1994 विमल कोल डिपो, पुराना बस स्टैण्ड, महावीर स्ट्रीट, मालेर कोटला (पंजाब) [ नौ ] Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आशीर्वचन श्री निरयावलिका सूत्र का जैन धर्म में बहुत महत्त्वपूर्ण स्थान है। इस सूत्र में वणित तीन तीर्थंकरों के शासन-काल के साधु-साध्वियों, राजा-रानियों के ऐतिहासिक वर्णन भारतीय संस्कृति व सभ्यता की धरोहर हैं। जैसे निरयावलिका सूत्र के नायक कोणिक राजा के जन्म, वैशाली विनाश का वर्णन, गणतन्त्र व राजतन्त्र की व्यवस्थाओं का वर्णन उस समय को सामाजिक एवं राजनैतिक व्यवस्था पर सुन्दर प्रकाश डालता है। द्वितीय उपाङ्ग में सोमिल ब्राह्मण का उपाख्यान प्राचीन तापसों व श्रमण-परम्परा का अच्छा परिचय प्रदान कर रहा है। इसी उपांग का बहुपुत्रिका नामक अध्ययन प्राचीन काल की भिक्षुणो-परम्परा का सुन्दर निदर्शन है। इसी प्रकार चतुर्थ उपाङ्ग में भूता साध्वी का वर्णन करते हुए श्रमण भगवान महावीर ने साधु-साध्वियों को शरीरिक विभूषा का त्याग कर भूता के माध्यम से संयम में स्थिर रहने का वर्णन किया है। पंचम उपाङ्ग में निषध कुमार का वर्णन है जो हमें २२वें तीर्थंकर भगवान श्री अरिष्टनेमि जी के समवसरण में ले जाता है। इस सूत्र ने तीन तीर्थंकरों को संघ-व्यवस्था पर अच्छा प्रकाश डाला है। श्री नंदी सूत्र में इस उपाङ्ग का भी वर्णन आया है। इस सूत्र पर प्राचीन काल से कम ही व्याख्यायें उपलब्ध होती हैं । संस्कृत को एक मात्र टीका श्रीचन्द्र विजय की है। मध्य काल में इस पर टब्बा भी उपलब्ध है। इस शास्त्र का मूल पाठ आगमोदय समिति द्वारा छपा, फिर आचार्य श्री अमोलक ऋषि जी ने इसका हिन्दी अनुवाद किया। विदेशी विद्वानों ने भी इस ग्रंय के अनुवाद जर्मन व अंग्रेजी आदि भाषाओं में किये हैं। गुजराती भाषा में भी इस का अनुवाद हो चुका है। हिन्दी में इस शास्त्र का अनुवाद डा० देवकुमार जी ने किया है जो कि स्वर्गीय युवाचार्य श्री मधुकर मुनि जी के निर्देशन में छपा है। हिन्दी के प्रथम आगम - टीकाकार पूज्य आचार्य Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री आत्माराम जी महाराज थे, जिन्होंने २० आगमों पर टीकायें लिखी हैं। इस शास्त्र की भी विस्तृत संस्कृत टीका पदार्थान्वय, मूलार्थ, हिन्दी टीका मेरे पितामह श्रमण-संघ के प्रथम पट्टधर आचार्य भगवान श्री श्री १००८ पूज्य श्री आत्माराम जी महाराज ने आज से ४५ वर्ष पहले लिखा था। कुछ विशिष्ट एवं अपरिहार्य परिस्थितियों के कारण यह शास्त्र तब प्रकाशित न हो सका। मुझे प्रसन्नता है कि श्रमण संघ की उपप्रवर्तिनी जिनशासन-प्रभाविका, आगम-वेत्ता, जैनज्योति, पंजाबी जैन साहित्य की प्रेरिका साध्वी श्री स्वर्ण कान्ता जी महाराज ने इस शास्त्र के सम्पादन का गुरुतर भार अपने ऊपर लिया है। उन्होंने परम श्रद्धेय आचार्य श्री के शिष्य गुरुतुल्य पूज्य श्री रत्न मुनि जी महाराज जी से यह अमूल्य निधि प्राप्त की। फिर अपने निर्देशन में एक सम्पादक-मण्डल का निर्माण किया। इस सम्पादक मण्डल के सभी नाम मेरे लिये नये नहीं । धर्म-भ्राता पुरुषोत्तम जैन, रविन्द्र जैन को पंजाबी जैन साहित्य के लेखक के रूप में कौन नहीं जानता ? पच्चीसवीं महावीर निर्वाण शताब्दो समिति पंजाब के वे संस्थापक हैं। जैन चेयर, आचार्य आत्माराम भाषण माला के संस्थापक हैं। मैं इन दोनों धर्म के प्रति समर्पित प्रात्मानों को अपने साधु-जीवन के आरम्भ से ही जानता हूं। पंजाबी विश्वविद्यालय में मेरी पी. एच -डी की हर समस्या इन्होंने स्वयं हल की थी। यह दोनों प्रिय श्रावक हैं जो देवगुरु धर्म के प्रति समर्पित हैं। तीसरा नाम श्री तिलकधर शास्त्री जी का है। इनका सारा जीवन जैन एकता, जैन धर्म एवं जैन साहित्य के लिये समर्पित है। पिछले २५ वर्षों से आत्म-रश्मि पत्रिका के सम्पादक के रूप में इन्हें हर जैन विद्वान जानता है, पहचानता है । मेरे पितामह आचार्य श्री आत्माराम जी के स्थानांग सूत्र के बृहत् सम्पादन का श्रेय पजाब-प्रवर्तक उपाध्याय श्रमण श्री फूलचन्द्र जी महाराज के निर्देशन में इन्हें ही प्राप्त हुआ है। आप कवि, श्रेष्ठ अनुवादक, संस्कृत प्राकृत, हिन्दी भाषा के ज्ञाता विद्वान् हैं । अनेकों पुस्तकों का सम्पादन आपके द्वारा सम्पन्न हो चुका है। चतुर्थ नाम है-साध्वी श्री स्मृति जी (एम. ए.) का है जो मुख्य सम्पादिका श्री स्वर्ण कान्ता जी. महाराज की पौत्री शिष्या हैं। इसी वर्ष आप कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय से एम. ए. को परीक्षा में सारे हरियाणा में प्रथम रही हैं । नव-दीक्षता यह श्रमणी आगे भी जिनशासन की इसी तरह प्रभावना करती रहे, मैं ऐसी अपनी मंगल कामनायें व साधुवाद इनको प्रेषित करता हूं। सम्पादक मण्डल हमारे आशीर्वाद का पात्र है। ____ अतः मैं अपनी ओर से इस महत्त्वपूर्ण कार्य के सम्पन्न होने के शुभ अवसर पर मुख्य सम्पादिका महाश्रमणी श्री स्वर्ण कान्ता जी महाराज व उनके समस्त सम्पादक-मण्डल को उनको इस कार्य के लिए साधुवाद देता हुआ मंगलमय शुभ कामनाएं प्रेषित करता हूं। इस प्रकाशन के लिये प्रकाशन संस्था के प्रमुख श्री पुरुषोत्तम जैन, श्री रवीन्द्र जैन व उनका सहयोगी वर्ग भी साधुवाद के पात्र हैं। २० दिसम्बर १९९३ -युवाचार्य डा० शिव मुनि, मद्रास [ ग्यारह ] .. Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्पादकीय जैन धर्म में आचार्य का बहुत महत्वपूर्ण स्थान है। आज जब तीर्थङ्कर भगवान भरत क्षेत्र में विचरण नहीं कर रहे हैं उस स्थिति में आचार्य भगवान ही उनका प्रतिनिधित्व करते हुए समस्त श्री-संघ को सम्भाल रहे हैं। उस युग के सर्वप्रथम आचार्य सुधर्मा स्वामी थे, जिनके नाम से समस्त जैन सम्प्रदायों को पट्टावलियां प्रारम्भ होतो हैं। आचार्य श्री सुधर्मा स्वामी जी के शिष्य अन्तिम केवली श्री जम्बू स्वामी थे। श्वेताम्बर जैन आगम साहित्य इन दो महापुरुषों द्वारा ही संकलित हो पाया है । आचार्य श्री सुधर्मा भगवान महावीर के ११ गणधरों में से एक थे। उनकी आयु भी पर्याप्त थी। उन्होंने जो अपने शास्ता अन्तिम तीर्थकर भगवान महावीर के श्री-मुख से सुना वह उसी प्रकार अपने अन्तेवासी आचार्य जम्बू स्वामी को सुनाया। प्राचीन काल से ही जैन धर्म में आगमों की श्रुत-परम्परा रही है। आगमों के सम्पादन के लिये जैन श्रमणों ने अनेक प्रयत्न भी किये, पर आगमों को अन्तिम बार लिखने का कार्य वी. नि. संवत् ६९८ में ही आचार्य क्षमा-श्रमण देदघि गणि के नेतृत्व में गुजरात के वल्लभी नगर में सम्पन्न हुआ। उस समय समस्त श्रो-संघ को उपस्थिति में समस्त श्रमणों ने आगमों को पुस्तकों का रूप दिया। श्री संघ ने अनुभव किया कि दुर्भिक्ष एवं राजनैतिक उथल-पुथल के कारण श्रुत-ज्ञान का अधिकतर भाग विच्छिन्न हो चुका है। इसलिए शास्त्रों की रक्षा के लिए इन्हें ताड़पत्रों पर लिपिबद्ध किया जाय । वर्तमान उपलब्ध आगम साहित्य उसी वाचना का परिणाम है। हमारे दिगम्बर भाई इस साहित्य को प्रामाणिक नहीं मानते । वे अपने आचार्य श्री कुन्दकुन्दाचार्य द्वारा रचित साहित्य को आगम की तरह स्वीकारते हैं। पर मूल रूप से जैन सिद्धान्तों में कोई मुख्य अन्तर दोनों परम्पराओं में नहीं है। श्वेताम्बर जैन संघ के तीन रूप हैं-(१) स्थानकवासी (२) तेरहपंथी (३) मूर्ति-पूजक । पहले दो सम्प्रदाय ३२ आगमों को प्रामाणिक मानते हैं। उस टीका, भाष्य टब्बा को भी प्रामाणिक स्वीकार करते हैं, जो मूल आगमों के अनुसार हो । मूर्ति-पूजक भाई ४५ आगमों को मानते हैं, पर ११ अङ्ग और उपाङ्ग तीनों सम्प्रदायों को ही मान्य हैं। दिगम्बर भाई भी इनके नामों को स्वीकार करते हैं, किन्तु उनकी दृष्टि में इन शास्त्रों का पूर्ण विच्छेद हो चुका है। अनुवाद-परम्परा वर्तमान में इस उपाडके अन्तर्गत पांच उपाङ्गों का समावेश है। इनके कुल अध्ययन ५२ हैं। भाषा उस समय की अर्ष मागधी है। तीन तीर्थङ्करों के साधु - साध्वियों, राजा, [बारह ] Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुख्य सम्पादिका जिन शाषण प्रभाविका, जैन ज्योति, उपप्रवत्तर्नी साध्वी रत्न श्री स्वर्ण कांता जी महाराज Page #22 --------------------------------------------------------------------------  Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रजा का इसमें वर्णन है। (ज्यादा वर्णन प्रस्तावना में देखना चाहिए)। जैन शास्त्रकार प्राचीन काल से ही ने टीका टब्बा, भाष्य, नियुक्ति ग्रन्थों की रचना करते आ रहे हैं । नियुक्ति के रूप में आचार्य श्री भद्र बाहु स्वामी जी का नाम विशेष प्रसिद्ध है। भाष्य के रूप में ग्रन्थ की संस्कृत व प्राकृत में मिली-जुली भाषा में व्याख्या होती है। टीकाकार के रूप में प्रमुख नाम हैं-श्री अभयदेव सूरि, श्री शीलांकाचार्य, श्री मलय-गिरि और श्री हेमचन्द्राचार्य। टब्बाकार के रूप में पूज्य आचार्य श्री पार्श्व चन्द्र जी सूरि का नाम प्रसिद्ध है। इसी प्रकार जैन आगमों के अनुवाद विभिन्न देशी-विदेशी भाषाओं में होते रहे हैं, जिनमें हिन्दी, पजाबी, बंगाली, गुजराती, राजस्थानी, मराठी, तमिल, कन्नड़ भाषायें प्रमुख हैं । इन भाषाओं में कविता-अनुवाद भी हुए हैं जो प्रमुख कवियों ने किये हैं। विदेशी भाषाओं में अंग्रेजी, जर्मन, फंच, स्पेनिश आदि भाषायें प्रमुख हैं जिनमें जैन आगमों के अनुवाद उपलब्ध हैं । भारतीय अनुवादकों में प्रमुख नाम आचार्य श्री अमोलक ऋषि जी म०, आचार्य श्री आत्माराम जी म०, आचार्य श्री घासी लाल जी म०, आचार्य श्री हस्तीमल जी म०, आचार्य श्री तुलसी जी महाराज, युवाचार्य श्री महाप्रज्ञ जी म०, पण्डित सुखलाल जी संघवी, पूज्य श्री पुष्फ भिक्खू जो म०, उपाध्याय श्री अमर मुनि जी म०, स्व० उपाध्याय श्रमण श्री फूलचन्द्र जी महाराज, साध्वी श्री चन्दना जी महाराज, श्रमण संघीय सलाहकार श्री ज्ञान मुनि जी म., पण्डित श्री हेमचन्द्र जी महाराज श्री अमर मुनि जी म०, साध्वी डा० श्री मुक्ति प्रभा जो म०, साध्वी डा० श्री दिव्य प्रभा जी म०, श्री कन्हैया लाल जी म० 'कमल' के नाम विशेष उल्लेखनीय हैं। .. अंग्रेजी भाषा में डा० हर्मन जैकोवी का नाम विश्व-प्रसिद्ध है। डा. गणेश ललवाणी आदि ने अंग्रेजी भाषा में भगवती सूत्र के अनुवाद में सहयोग दिया है। आगम प्रकाशन समिति व्यावर ने विभिन्न मुनियों, विद्वानों के सहयोग से ३२ आगमों का सुन्दर प्रकाशन कराया है। सभी एक दूसरे से बढ़ कर हैं। मैं क्षमा चाहती हूं कि बहुत सी भाषाओं के अनुवादकों के नाम इस समय मेरी स्मृति में नहीं हैं। पर हर ज्ञात व अज्ञात लेखक हमारे लिये साधुवाद के पात्र हैं। उनका यह कार्य अभिनन्दनीय है। प्रस्तुत अनुवाद व उसका इतिहास प्रत्येक रचना के पीछे कोई न कोई कारण तो होता ही है। ऐसे ही इस रचना के पीछे मेरी एक पुरानी मन की अभिलाषा थी, वह यह कि एक आगम का स्वयं संपादन करके प्रकाश में लाऊं, मेरा जन्म लाहौर में हुआ था। उस समय लाहौर में आचार्य श्री आत्माराम जी महाराज का प्रसिद्ध प्रचार-क्षेत्र था। मुझे बचपन में ही प्राचार्य श्री के सान्निध्य में बैठने सुनने का अवसर मिलता रहता था। आचार्य श्री के तीन आगम-१. उत्तराध्ययन सूत्र (३-भाग), दशवैकालिक (३), अनुत्तरोपपातिक और (४) दशाश्रुत-स्कन्ध । लाहौर में ही छपे थे। [ तेरह ] Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेरे सांसारिक पिता श्री खजान चन्द्र जी जैन का इन कार्यों में सहयोग बना रहता था। मैं तब से आचार्य श्री के चरणों में समर्पित थी। मेरा भी आगमसम्पादन का संकल्प, संयम लेने पर दृढ़तर होता गया। प्रागम-स्वाध्याय तो साधुजीवन का प्रथम कर्तव्य है। साधु की रात्रिचर्या को भगवान ने चार भागों में बांटा है-१. स्वाध्याय २. ध्यान ३. निद्रा एवं ४. स्वाध्याय । प्रकट है कि जैन धर्म में स्वाध्याय का विशेष महत्व है। भगवान महावीर ने स्पष्ट कहा है-"स्वाध्याय अन्तरंग तप है। भूत, वर्तमान व भविष्य में इसके समान न कोई तप था, न है, न होगा।' स्वाध्याय तप की पूर्ति के लिये साहित्य का निर्माण होता है । हां! तो मेरी इस भावना को साकार रूप दिया आचार्य भगवान के शिष्य पूज्य गुरुदेव श्री रत्न मुनि जी महाराज ने । रवीन्द्र जैन और पुरुषोत्तम जैन मेरी भावना लेकर जब पूज्यगुरुदेव के पास गये तो उन्होंने मुस्कराहट से अपने गुरुदेव की हाथों की लिखी पांच कापियां इन्हें सम्भाल दों। साथ में यह भी कहा--"आगम में मेरा कोई उल्लेख न हो।' धन्य है ऐसी महान् आत्मा सम्पादक-मण्डल का कण-कण श्री रत्न मुनि जी महाराज का ऋणी है और ऋणो रहेगा। उन्होंने अपने गुरुदेव की अमूल्य निधि हम अनजानों के हाथों में सुपुर्द कर दी। हम सभी अनुभव-होन थे पर गरुदेव के आशीर्वाद एवं साधना का बल था कि आज वह रचना प्रकाशित हो सकी है श्री रत्न मुनि जी महाराज ने हमारी लेखनो की भावनाओं को रोक दिया है। उनका नामोल्लेख न करना रूप आज्ञा भी हमारे लिये आशीर्वाद से कम नहीं है। श्री रल मुनि जो महाराज ऐसे सन्त हैं जो निस्पृह सन्त वीतरागता के अनुपम उदाहरण हैं। हमारे कार्य ने हमें मजब किया कि हम अपने उपकारी हापुरुष का वर्णन मात्र इस सम्पादकीय में अवश्य कर दें। भगवान कब कहते हैं हमारा नाम लिया जाय, पर नाम लेना ही भक्त के जीवन का आधार रहा है। वतुतः वे आत्म-कुल-कमल-दिवाकर हैं, मैं उनके चरणों में स्वयं सविधि चरण वन्दना करती हुई क्षमा चाहती हूं। किसी भी कार्य की सिद्धि के लिए कोई न कोई निमित्त तो होता ही है, अगर निमित्त अपने शिष्य हों तो इससे बड़ा अहोभाग्य क्या हो सकता है ? कार्य सरल हो जाता है। इस भागीरथ कार्य में मुझे जिन लोगों ने साथ दिया उनमें से एक मेरी पौत्री शिष्या साध्वी स्मृति जी हैं। जो नवदीक्षित एवं डबल एम. ए. हैं । शासनदेव की कृपा से इसो वर्ष वे कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय की संस्कृत एम. ए. में सर्व प्रथम रही हैं। मैं इस बालिका की प्रतिभा को स्वीकार करती हूं, क्योंकि उसने मुझे परीक्षा के साथ-साथ आगम-सम्पादन के कार्य में भी सहयोग दिया है। स्मृति जी मेरे आशीर्वादों की पात्र हैं। मेरी सहयोगिनी मेरी शिष्या साध्वी सुधा जी, साध्वी किरण जी एवं साध्वी वीर कान्ता जी, एवं साध्वी राजकुमारो जी आदि अनेक साध्वियों ने इस कार्य में मुझे सहयोग दिया है। अन्य शिष्याओं ने भी मेरा हर प्रकार से ध्यान रखा है, अत: वे सब मेरे आशीर्वादों की पात्र हैं। मैं अपना आभार जैन समाज के प्रसिद्ध विद्वान पंडित श्री तिलकधर जी शास्त्री जो कि स्वयं आचार्य श्री के अनन्य भक्त हैं उनका आभार प्रकट करती हूं, जिन्होंने अपने स्वास्थ्य की । चौदह ] Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चिन्ता न करते हुए सम्पादक-मण्डल में सम्मिलित होकर इस कार्य को सरल कर दिया । आप आत्म रश्मि मासिक पत्रिका के सम्पादक हैं कवि हैं, संस्कृत, प्राकृत के विद्वान् हैं। स्व० उपाध्याय श्रमण पंजाब प्रवर्तक श्रमण श्री फूलचन्द्र जी महाराज के सम्पादन में छपे स्थानांग सूत्र के प्रकाशन सहयोगी रह चुके हैं । श्री श्रमण जी द्वारा लिखित अन्य अनेक ग्रन्थों के भी आप सम्पादक हैं। इस समय आगमों का केवल हिन्दी सार आपके ही सम्पादत्व में छप रहा है । इसके अतिरिक्त आप अच्छे कवि हैं, चिन्तक हैं, समाज-सेवक हैं । मैं इन्हें साधुवाद देती हुई मंगल-कामना करती हूं कि वे इसी प्रकार जिन-शासन की सेवा करते रहें। अब दो नाम और हैं रवीन्द्र जैन व पुरुषोत्तम जैन। ये मेरे लघु शिष्य हैं। जैन-धर्म, साहित्य, एकता को समर्पित इनका जीवन मेरे दिशा-निर्देशन में चलता है। काम पच्चीसवीं महावीर निर्वाण शताब्दी का हो, इण्टरनेशनल पार्वती जैन अवार्ड का हो या भाषण-माला का। हमारे ये दोनों प्रतिनिधि हमारी हर आज्ञा को शिरोधार्य करते हैं। पिछले २५ वर्षों से ये पंजाबी में जैन साहित्य का निर्माण मेरी प्रेरणा से कर रहे हैं । संसार में बहुत कम लोग हैं जो इन जैसा स्वार्थ रहित जीवन जी सकें। ___ दोनों बन्धु एक दूसरे के पूरक हैं, धर्म-भ्राता हैं, श्रावक-शिरोमणि हैं, प्रागमों के ज्ञाता हैं। इन्होंने अपने हाथों से श्री उत्तराध्ययन मूत्र, श्री उपासक दशांग सूत्र, श्री सूत्र कृतांग सूत्र का पंजाबी अनुवाद करके समिति द्वारा छपवा चुके हैं। श्रमण सूत्र और निरयावलिका का पंजाबी अनुवाद भी कर चुके हैं। इस सूत्र के अधिकांश भाग का सम्पादन, प्रस्तावना कार्य इन दोनों ने मिल कर किया है। यह वर्ष इन दोनों के साहित्यिक जीवन का २५वां वर्ष है। आज तक ये प्रकाशित व अप्रकाशित लगभग चालीस रचनायें लिख चुके हैं। इनकी अनेक पुस्तकों के द्वितीय edition भी छप चके हैं। एक पुस्तक भगवान महावीर का तो इतना अभिनन्दन हुआ कि यह पंजाबी विश्वविद्यालय पटियाला के B.A. प्रथम वर्ष के पाठ्यक्रम में लगी हुई है। प्रस्तुत आगम के यह सम्पादक ही नहीं प्रबन्ध सम्पादक भी हैं। भारत के तत्कालीन राष्ट्रपति ज्ञानी जैल सिंह जी ने २७ फरवरी १९८७ को इन दोनों के शोध ग्रंथ पुरातन पंजाब में जैन-धर्म का विमोचन राष्ट्रपति भवन में किया था और दोनों को राष्ट्रपति ने 'श्रमणोपासक" पद से विभूषित किया था। उनका सम्मान केवल उनका ही नहीं, समस्त जैन समाज का सम्मान है। इस पागम में सभी का सहयोग एक सा है। पर मुख्य सम्पादिका होने के नाते मेरा कर्तव्य है कि मैं सम्पादक-मण्डल का साध्वी मर्यादा में रहकर उनके कार्य के लिए आशीर्वाद दूं । - मैं उन द्रव्य सहायकों के लिये भी मंगलकामनायें करती हूं, जिन्होंने द्रव्य-दान द्वारा प्रकाशन कार्य एवं श्री-संघ की प्रभावना की है। मैं उन समस्त आचार्यों, उपाध्यायों, साधुओं, साध्वियों, श्रावक-श्राविकाओं का आभार प्रकट करतो हूं जिन्होंने हमें प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से किसी भी प्रकार का सहयोग दिया है। [पन्द्रह] Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एक अन्तिम प्रार्थना पाठक वर्ग से है कि हम कोई सर्वज्ञ नहीं कि हमसे कोई त्रुटि न रहे त्रुटि रहना स्वाभाविक है, पर कोई त्रुटि हम से किसी भी तरह की प्रकाशन, सम्पादन में रह गई हो तो समस्त श्री-संघ से सम्पादक-मण्डल की ओर से मैं क्षमा चाहती हूं। श्री- संघ महान है, हमें एवं हमारी त्रुटियों को भुलाकर इस रचना की उपयोगिता पर ध्यान देना चाहिये । प्रस्तुत संस्करण ____आज तक निरयावलिका के जितने अनुवाद प्रकाशित हो चुके हैं उनकी अपेक्षा यह अनुवाद सब से विस्तृत है, क्योंकि श्रमण-संघ के प्रथम पट्टधर आचार्य श्री आत्माराम जी महाराज हिन्दी भाषा के प्रथम टीकाकार माने जाते हैं। उनकी भाषा सरल है जिसे मुनि वर्ग तो क्या हिन्दी जानने वाला सामान्य साधक भी समझ सकता है । इस अनुवाद में हम ने अनेक आगम प्रतियों से शुद्ध पाठ देख कर उद्धृत किये हैं। दो हस्तलिखित प्रतियों की सहायता भी ली गई है, क्योंकि आगमों में अनेक स्थानों पर जाव-पूर्ति हस्तलिखित प्रतियों से देखी जाती है । मूल प्रति संशोधन में आचार्य श्री तुलसी, श्री पुष्फ भिक्खू, श्री रत्नलाल डोशी, पूज्य श्री घासीराम जी और एक अंग्रेजी अनुवाद पुस्तक की सहायता से शुद्ध किया है । इस प्रति की विशेषता यह है कि इस में मूल पाठ के साथ संस्कृत छाया, पदार्थान्वय, मूलार्थ, हिन्दी टीका सम्मिलित हैं। सम्पादन के समय अनेक स्थानों पर सरलता के लिये हमें कभी कहीं शब्द परिवर्तन के लिए भी वाध्य होना पड़ा है, तदर्थ हमें देवलोकवासी आचार्यदेव क्षमा करेंगे ऐसी पूर्ण आशा है। आचार्य श्री ने कई स्थानों में अच्छा स्पष्टीकरण किया है जैसे 'कोटि' शब्द की व्याख्या उन्होंने करोड़ न करके संख्या विशेष कह दिया है और शास्त्र में चेलना के मांसाहार की प्रवृत्तियों का भी स्पष्टीकरण किया है। कई जगह उन्होंने उत्थानिका के माध्यम से वह बात भी कह दी है जिससे शास्त्र में हर सूत्र का अर्थ स्पष्ट हो सके। विशिष्ट धन्यवाद। इस सूत्र में प्रस्तावना हमारे शिष्य रवीन्द्र जैन व पुरुषोत्तम जैन ने लिखी है। इस पुस्तक पर अपना मन्तव्य भेजने के लिये फ्रांस की डा० नलिनी बलवीर एवं साध्वी डा० श्री मुक्ति प्रभा जी महाराज (एम. ए. पी-एच-डी.) को साधुवाद भेजती हूं। इस लेखिका ने सुन्दर शब्दों में इस रचना का अभिनन्दन किया है। समर्पण: ___अन्त में मैं साध्वी स्वर्ण अपने सम्पादक-मण्डल सहित यह रचना श्रमण भगवान महावीर के पाट पर विराजित इस सूत्र के अनुवादक, व्याख्याकार प्रथम पट्टधर श्री आत्माराम जी महाराज के कर कमलों में सादर समर्पित कर रही हैं। जैन स्थानक, अम्बाला शहर उपप्रतिनी साध्वी स्वर्णकान्ता ३१ दिसम्बर १९९३ [ सोलह] Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राक्कथन परमात्मा महावीर ने अर्थागमों के रूप में और गणधरों ने सुत्तागमों के रूप में शास्त्रों की प्ररूपणा को सूत्रबद्ध, लय-बद्ध और पद्य-बद्ध रूप में निरूपित किया है। इस प्रकार ग्यारह अंग और बारह उपांगों में निरयावलिका अष्टम अंग अन्तकृद्दशा का उपांग है । निरयावलिका श्रुत-स्कन्ध में पांच उपांग समाविष्ट हैं जो इस प्रकार हैं-[१] निरयावलि का या कल्पिका, [२] कल्पावंतसिका, [३] पुष्पिका, [४] पुष्प-चूलिका, और [५] वृष्णि-दशा। १. निरयांवलिका-यह शब्द निरय और आवलिका दो शब्दों से बना है। निरय अर्थात् नरक, और आवलिका अर्थात् आवृत । इस पागम में बार-बार नरक में जाने वाले जीवों का विस्तृत वर्णन प्राप्त होने से इस आगम का नाम निरयावलिका प्रसिद्ध हया है। इसके साथ ही परमात्मा महावीर के परम भक्त, भावी तीर्थकर समत्वयोगी मगध-सम्राट श्रेणिक की आत्मा को भी कारागृह में बन्दी होना पड़ा, सौ-सौ कोड़ों की मार खानी पड़ी और अन्त में कणिक के हाथों में परशु को देखकर अपनी मृत्यु क र-घातकी पुत्र के हाथ से न हो. इसलिए काल-कूट विष मुद्रा चूसकर प्राणों का अन्त करके नरक में उत्पन्न होना पडा । पंचेन्द्रिय प्राणियों की हत्या, पदार्थों का और अपनी राणी का अत्यधिक ममत्व एवं राज्य के प्रति अतृप्त वासना होने से कणिक भी नरक में गया। इसके साथ-साथ इस निरयावलिका उपांग में सम्राट घेणिक के २६ पत्रों में से ११ राजकुमार भौतिकता को आग में महायुद्ध की बलिवेदी पर पहुंच कर विनाश के विकराल गाल में समा गये और नरक में उत्पन्न हुए। इस उपांग में भौतिकवाद को अध्यात्मवाद के निकट लाने की चेष्टा की गई है । भौतिकवाद की पीड़ा ही अध्यात्मवाद की परिणति है. किन्तु भौतिकवाद ने सिर्फ शरीर को चुना और आत्मा को भुला दिया। भौतिकवाद को संस्कृति बाह्य संस्कृति के रूप में पनपती रही और अध्यात्मसंस्कृति आन्तरिक प्रकृति को बल देती रही। अध्यात्मवाद का अस्तित्व आत्मा के रूप में और भौतिकवाद का अस्तित्व शरीर के रूप में होने पर भी परमात्मा महावीर ने आत्मा और शरीर दोनों का मूल्यांकन किया है। उन्होंने जीने के लिए माध्यम शरीर को बताया है, किन्तु हम "शरीर ही आत्मा है," ऐसा भ्रम लिये बैठे हैं। फलत: आत्मा एक विशेष तत्व है ऐसा हमें पता न रहा। शरीर को हजारों बार संवारो फिर भी यह एक दिन धोखा ही देने वाला है, क्योंकि शरीर को खाना है. शरीर को पोना है, शरीर को आराम लेना है हम सब शरीर की रक्षा हेतु ही लड़ते हैं, युद्ध करते हैं। हमें ममत्व है शरीर का, हमें ममत्व है पदार्थों का और इसलिए कहीं प्रियता है तो कहों [सत्रह Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अति । कूणिक को प्रियता थी अपनी रानी पद्मावती के प्रति और अप्रियता थी अपने भाई वेहल्ल प्रति । वेल्ल को अपने पिता श्रेणिक द्वारा हार और हाथी भेंट में मिले थे। राजा कूणिक हार हाथी छीन लेगा इसी भय से बेहल्ल कुमार हार और हाथो को लेकर अपने नाना चेटक के पास वैशाली चला गया । पदार्थों के ममत्व में पला हुआ मानव भाई को भाई नहीं समझता। वह तो भाई को ही नहीं सारी वैशाली को ही मरघट बनाने को तैयार था। असल में वह वैशाली का नाश नहीं चाहता था, न ही उसका मन वैशाली का नाश स्वीकार करता था, किन्तु नदी जब समुद्र की ओर दौड़ती है न जाने कितने पत्थरों का नाश कर देती है। जब दावाग्नि प्रज्वलित हो जाती है। तो न जाने कितने जंगल भस्म कर देती है, मानव की चेतना को रोकने वाली लाखों दीवारें खड़ी होती हैं और बर्बाद हो जाती हैं। मानव में सृजनात्मक शक्ति है उससे भी अधिक उसमें विध्वंस की सामर्थ्य है । काल कुमार कूणिक का सेनापति होकर अपनी विनाश की शक्ति का प्रतीक बना हुआ था, किन्तु उसी विनाश-शक्ति में कालकुमार का काल समाहित था । केवल काल ही नहीं, सुकाल कुमार आदि ग्यारह कुमार भी युद्ध भूमि में सो गये । राजा चेटक ने अमोघ शक्ति का प्रयोग किया और विनाशात्मक शक्ति को विध्वंस की शक्ति में रूपान्तरित कर दिया । उसी क्षण मानो कूणिक के अहं की ग्यारह दीवारें सदा के लिए ध्वस्त हो गई । अहं की खूंटी से बंधी हुई कूणिक की जीवन नौका कहां तक पहुंच पायेगी ? वह यही देखना चाहता था, अतः वह वहीं खड़ा था जहां से उसने यात्रा प्रारम्भ की थी। विजय श्री को पाने के लिए उसने बहुत श्रम किया, शस्त्रों के प्रहार पर प्रहार किये। समय भो बहुत लगा, किन्तु नाव जहाँ थी वहीं रही एक कदम भी आगे नहीं बढ़ पाई, क्योंकि अहं को खूंटो से बन्धा हुआ मानव कोल्हू के बैल की तरह घूमता हो रहता है। एक कदम भी आगे नहीं बढ़ पाता, ग्रहं की मंजिल पर चलने वालों के जीवन का सूर्योदय कभी नहीं हो पाता । उन्हें जीने का आनन्द कभी नहीं मिलता । उसी मंजिल पर खड़ा कूणिक स्वच्छ परिधानों के पीछे छिपे दोषों का भार वहन करने पर भी अपनी दुर्बलता का अनुमान कभी लगा नहीं सका। सारी सृष्टि पर विजय पाने पर भी अहं का क्षुद्र बिन्दु उसे परास्त करने में सफल होगा, उससे वह अनभिज्ञ था । पराक्रम अद्भुत और असाधारण होने पर भी प्रत्येक रहस्य का उद्घाटन ही अहं के प्रयोजन से होता था। अहं के प्रचण्ड विकराल रूप ने उसे चैन नहीं लेने दिया। ऐसे मानव का जन्म हुआ तो भी क्या ? मर गया तो भी क्या ? दोनों के बीच केवल कुछ कदमों का ही तो फासला है। यात्रा में निकले हुए कूणिक को राज्य का आनन्द नहीं, धन-संपत्ति और सुन्दरो का आनन्द नहीं, उसका प्रानन्द तो हार और हाथी में था, इसलिए उसका अहं जाग उठा था। इसीलिए युद्ध प्रारम्भ हो गया था। इसीलिए खून की नदियां बह रही थीं। लाखों ललनाओं का सिन्दूर पुंछ गया था। हजारों माताओं की गोदियां सूनी हो गई थीं। कहीं खून था, कहीं हड्डियां थीं, कहीं सिर पड़े थे, कहीं हाथ और पैर कटे पड़े थे । कहीं कटे [अठारह ] Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हुए आधे शरीर पड़े थे । कहीं चीत्कार थी, तो कहीं आहें थीं और कहीं आंसू थे। चारों ओर युद्ध के नगाड़े बज रहे थे। पदार्थों के ममत्व में और व्यक्ति के प्यार में न जाने कणिक युद्ध की आग में . कितने मानवो की आहुतियां दे चुका था और दे रहा था। जिसके भीतर कोई मानवता, प्राणों की कोई ऊर्जा, प्राणियों के प्रति कोई करुणा नहीं है, प्यार की कोई वास्तविकता नहीं है, वह कम्प्यूटर मशीन हो सकता है मानव नहीं । कूणिक का अह चोट खाए क्रोधी विषेले सांप की भान्ति रह-रह कर फंकार उठता था। वह जोर-जोर से चिल्लाता था कि मुझे कौन नहीं जानता? मुझे देखकर कौन नहीं कांपता? मेरे सन्मुख आने की किसकी ताकत है ? राजा चेटक के साथ नौ मल्लवी और नौ लिच्छवी-अठारह देशों के राजा, सेना, हाथी, अश्व, रथ और पैदल होने पर भी वह युद्ध के मैदान में मेरा मुकाबला कैसे कर सकता है ? २. कल्पावतंसिका-कल्पावतंसिका उपांग में श्रेणिक के दस पौत्रों का विस्तृत वर्णन प्राप्त होता है। उसके पूर्वजों को दुष्कृत्यों के कारण नरक की यातनायें भोगनी पड़ी थीं, वैसे ही पौत्रों को सत्कृत्यों द्वारा स्वर्ग का.सुख प्राप्त हुआ। पिता का जीवन पतन की ओर होने से नरक की यातना और पौत्रों का जीवन उत्थान की ओर होने से भौतिक और आध्यात्मिक सुख प्राप्त होता है । इस उपांग की कथा द्वारा इसी का अनुभव करवाया गया है । ___३. पुष्पिका-इस तृतीय उपांग पुष्पिका में सर्व, चन्द्र, शुक्र आदि दस अध्ययन हैं। जिनमें सूर्य, चन्द्र, शुक्र आदि के नाटक, प्रश्न-उत्तर और गौतम को जिज्ञासाओं का विस्तृत वर्णन प्राप्त होता है तथा उन रोचक कथाओं में कौतूहल की प्रधानता होने से सांसारिक आकर्षण का भोग-विलास, वासना का दर्शन कराने में यह तृतीय उपांग बहुत ही सफल रहा है । इसके साथ-साथ इस उपांग में भगवान पार्श्वनाथ को सोमिल द्वारा किये गये प्रश्नों के उत्तर भी अत्यधिक मार्मिक एवं हृदयस्पर्शी प्राप्त होते हैं। प्रस्तुत कथानक में चालीस प्रकार के तापसों का विवरण एवं भगवान श्री पार्श्वनाथ द्वारा हठयोग-साधना का खण्डन किस प्रकार किया गया था? उसका निरूपण भी प्राप्त होता है। स्थानाङ्ग सूत्र में भी इन सूर्य, चन्द्र, शुक्र, बहुपुत्रिका आदि के उल्लेख प्राप्त होते हैं । आचार्य अभय देव सूरि ने स्थानांग में निरयावलिका के नाम साम्य वाले अध्यायों का संक्षिप्त विवरण प्रस्तुत किया है। ____४. पुष्पचूलाः-इस पुष्पचला नामक उपांग में भी देवलोक की देवियों का वर्णन दस अध्ययनों में प्राप्त होता है। वहायुग भगवान श्री पार्श्वनाथ के समय का युग था। उस युग की साध्वियों ने ऐसा कोन सा कार्य किया, जिससे उनको देवी बनना पड़ा, इसका विस्तृत वर्णन प्राप्त होता है । वहां वे कहां जायेंगी, इसका भी उल्लेख किया गया है । इस प्रकार सोधर्म कल्प की श्रीदेवी के पूर्वभव का सांगोपांग वर्णन किया गया है। शरीर के प्रति ममत्व होने से श्रमणाचार की विराधना होती है और विराधना से बाराधना करने पर भी भवभवान्तर बढ़ जाते हैं। जैन दर्शन आत्म-शुद्धि [ उन्नीस] Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ का दर्शन है शरीर शुद्धि का नहीं। जो साधक साधना-काल में आत्म-शुद्धि में समय व्यतीत करता है वही मोक्ष-तत्व को प्राप्त करता है। अन्यथा संयम की आराधना करने पर भी पुण्य कर्मों का उपार्जन होने से देव-जन्म तो लेना ही पड़ता है और पुण्य का उपभोग करना पड़ता है । इस विषय का बोध प्रस्तुत उपांग से प्राप्त होता है। इस प्रकार इस उपांग में पूर्वजन्म और पुनर्जन्म के सिद्धान्तों का विस्तृत वर्णन उपलब्ध है। ५. वृष्णिदशा-सस वृष्णिदशा उपांग में वृष्णिवंशीय बारह राजकुमारों का वर्णन बारह अध्ययनों में किया गया है। इस आगम में भगवान श्री अरिष्टनेमि के काल की घटनाओं में यदुवंशी राजाओं के इतिवृत्त का अंकन है तथा निषध कमार आदि के तप-त्याग और समाधि से निर्वाण की प्राप्ति का विस्तृत विवेचन है । भारतीय दर्शनों में सुर, असुर, इन्द्र, राक्षस, देवी, देवता, नरक आदि की मान्यतायें विशेष रूप में प्रचलित हैं, अतः निरयावलिका आदि पांचों ही उपांगों में स्वर्ग और नरक, सुख और द:ख के स्पष्ट चित्र अंकित होने से जैन, बौद्ध और वैदिक परम्परा का इतिहास हमारे सन्मुख उभरता है । भगवान महावीर और भगवान बद्ध दोनों श्रमण-परम्पराओं से सम्बद्ध हैं, दोनों में असमानता के तत्त्व होने पर भी समानता के तत्त्व भी स्थान-स्थान पर उपस्थित होते हैं, किन्तु स्वर्ग-नरक आदि के विषयों में तो तीनों परम्पराओं को मान्यता भिन्न-भिन्न रूपों में प्रचलित हैं। इसी प्रकार सभी दर्शनों की परम्पराओं में स्वर्ग - नरकों की संख्या, स्थान, नाम और प्रवृत्तियों का भी निरूपण है, सभी दर्शनों की मान्यताओं में नरक दारुण कष्टों को भोगने का क्षेत्र है, उसी प्रकार स्वर्ग अपार वैभव, सुख-भोगों का उपभोग करने का क्षेत्र है । इस प्रकार निरयावलिका सूत्र में नारकीय वेदनात्रों और स्वर्गीय सुखों, पुण्य और पाप, उत्थान और पतन तथा सुख और दुःख का दायित्व स्वयं के कर्मों पर आधारित है ऐसा स्पष्ट किया गया है । क्योंकि अपने ही राज्य में अपने ही पुत्र द्वारा कैदी होना कर्मों का ही फल हो सकता । राजसिंहासन की लालसा ने पिता के प्यार और माता की ममता को भी निगल लिया। अपने ही पिता के उदर का मांस खाने का दोहद पैदा होने पर भी उस पिता ने क्रूर और घातकी दोहद को पूर्ण किया। जो जीव गर्भ में ही पिता का मांस खाने की इच्छा करता हो वह जन्म लेने के पश्चात् क्या नहीं कर सकता है ? कूड़े - कचरे में मां द्वारा पुत्र को फैक देने का ज्ञान होते ही जिस बाप ने तत्क्षण उसको उठा लिया। कुक्कुट द्वारा अंगुली में चोंच मारने से अंगुली पक गई थी और बच्चा चिल्ला-चिल्ला कर रो रहा था, उसकी वेदना को सहन न कर सकने के कारण महाराजा ने मवाद निकलने पर भी अपने मुंह में अंगुली चूस कर जिस बेटे को शान्त किया था वहीं बेटा कैद में पिता को कोड़ों से पीट रहा था। जो सबके जीवन में घटित होता है वह सहज ही बुद्धिगम्य हो जाता है । जो कुछेक व्यक्तियों के जीवन में घटित होता है वह अहं-बुद्धि से होता है, किन्तु जो व्यक्तिगत जीवन में घटित होता है, [ बीस Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वह बुद्धि से परे होता है, अत: प्यार देने पर भी पीड़ा मिलती है, वहां कर्म सिद्धान्त स्पष्ट हो जाता है । कर्मोदय की वेला में पुण्य का फल पाप का परिणाम बन जाता है। प्रकाश अंधकार में, "सत असत में और जीवन मृत्यु में घसीटा जाता है । इस प्रकार निरयावलिका सूत्र राग और द्वेष के मायाजाल से उत्पन्न सुख और दुख के भ्रम जाल का स्पष्ट चित्रण प्रस्तुत करता है। सुख और दुःख द्वंद और दुविधा किसी के द्वारा थोपे नहीं जाते, किन्तु मानवीय हाथों से अपने ही लिए ये अपनी परिणति के विविध रूपांतरण है। देवी-देवता आदि के पूर्व जन्मों की व्यथाओं का जिज्ञासाओं और समाधानों के रूप में जो वर्णन इस ग्रन्थ में प्राप्त होता है वह मनोरंजन के साथ-साथ रोचकता और भावुकता के परिणामों का परिबोध कराता है । पुत्र जन्म की विरह वेदना से व्याकुल एवं व्यथित मातृ-हृदय की मानसिक परिस्थिति का चित्रण करने में जितनी सफलता इस ग्रन्थ ने पाई है उससे भी अधिक विशिष्टता परमात्मा महावीर द्वारा विश्व बात्सल्य के उपदेश और भक्तजनों के हृदय परिवर्तन के स्वरूप अभिव्यक्ति इसमें प्राप्त होता है । इस निरावलिका सूत्र के व्याख्याकार संस्कृत छाया, पदार्थन्वय, मूलार्थं हिन्दी टीकाकार करने वाले श्रमण-संघ के प्रथम आचार्य श्री आत्माराम जी महाराज जन-जन के तारक युगद्रष्टा क्रान्तिकारी विचारक तथा लाखों श्रद्धालुओं के जीवन-सर्जक थे। महापुरुषों का जीवन अपनी साधना के साथ-साथ समाज के उत्थान के लिए अर्पित होता है। वे अपने सुख को विसर्जित करके दूसरों की पीड़ा को स्वयं की पीड़ा समझते हैं । वे दूसरों को सहयोग देने के लिए स्वयं की कुर्बानी करते हैं। वैसे ही सन्त शिरोमणि आगम- साहित्य के सर्जक, साहित्य-कला के कुशल कलाकार राजनैतिक दार्शनिक और सामाजिक रहस्यों के उद्घाटक आचार्य श्री आत्माराम जी महाराज थे। उनकी देह के लिवास में छिपा हुआ परमात्मा सबसे अनोखा, असीम और निराला था । उनके भीतर से निकलने वाली हर किरण में एक चुम्बकीय विशिष्ट आकर्षण था । जो भी साधक उनके सान्निध्य में आता था वह उन किरणों का स्पर्श करके नयी चेतना पाता था । उनकी मूक भाषा में जिनको भी जो मिलता था उसे आत्मा द्वारा आत्मा ही अनुभव करती थी । भीतर की शान्ति, भीतर को समता और भीतर का आनन्द अशान्त मानव को शान्ति देता है और जन्म-जन्मान्तरों के पाप ताप और संताप को मिटाता है । इस प्रकार आचार्य श्री ने आगमों के माध्यम से गूढ़ और मार्मिक रहस्य सरल और सहज भाषा में सुलझाये हैं। आचार्य श्री ने अनेक आगमों की टीकायें अर्थ, भावार्थ और अनुवाद किये हैं- वैसे ही निरावलिका उपांग भी आचार्य भगवन्त की महती कृपा से अर्थ, भावार्थ और हिन्दी टीका का स्वरूप प्रस्तुत कर रहा है । इस उपांग की मुख्य सम्पादिका जिन शासन प्रभाविका, जैन ज्योति, उपप्रवर्तनी साध्वी [ इक्कीस ] ] Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रत्न श्री स्वर्णकान्ता जी महाराज ने अपनी लेखनी द्वारा एक महान् दायित्व उठाया और उसे पूर्ण किया है । पदयात्री विचरण शीला होने पर भी इस गुरुतर भार को उठाने का जो साहस उन्होंने किया है वह सर्वथा प्रशंसनीय है । जिनकी लेखनी में आकर्षण है, जो अपने दायित्व के निर्वाह में सफल हैं, "आगमों का कार्य पूर्ण करूंगी", ऐसे आत्म-विश्वास के साथ यह कार्य उन्होंने प्रारम्भ किया था। उनकी सफलता के अधिकारी सम्पादक मण्डल के सदस्य पुरुषोत्तम जैन एवं रवीन्द्र जैन जो स्वाध्याय में सर्वदा संलग्न रहते हैं और आराधना में आसीन रहते हैं, उनका प्रयास भी सराहनीय है । इनके साथ-साथ क्लिष्ट अर्थों के सरलतम भाव, भाषा की प्रांजलता, अन्य आगमों एवं ग्रन्थों के साथ तुलना, टीका, भाष्य, चूर्ण इत्यादि का गहनतम अध्ययन करके इस आगम का सरल भाषा में अनुवाद करने का श्रेय भी इन दोनों धर्म-बन्धुओं को प्राप्त होता है । साध्वी स्मृति जी ने भी इस आगम के सम्पादन में समय-समय पर सहयोग दिया है, अत: साध्वी जी का कार्य भी प्रशंसनीय है । सम्पादक मण्डल को महान परामर्श, विवेचन तथा सम्पादन आदि सम्बन्धी कार्यों की पूर्ति में अत्यधिक समय देकर इस आगम की अनेक समस्याओं को सुलझाने का कार्य श्री तिलकधर शास्त्री ( सम्पादक आत्म- रश्मि) ने किया है। अत: उनका श्रम भी सर्वथा अभिनन्दनीय है । इस प्रकार सम्पादक मण्डल ने आगमों का कार्य करने में उसके गुम्फन और विकास में जो भी श्रम उठाया है, एतदर्थ में मंगल कामना करती हूं कि ऐसा ही कार्य करने का दिव्य अवसर इन सबको विशेष रूप से प्राप्त होता रहे और इस संयोजिका समिति का विकास होता रहे, यही है मेरी शुभ-कामना । [ बाईस 1 - साध्वी मुक्ति प्रभा (एम. ए. पी. एच. डी . ) Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दो शब्द जैन शास्त्रों का वर्गीकरण अंगों और उपांगों के रूप में किया गया है । आजकल बारह उपांग माने जाते हैं, पर निरयावलिका सूत्र के एक वाक्य के आधार पर ऐसा लगता है कि पुरानी जैन परम्परा के अनुसार उपांग पांच ही थे। इस सूत्र के अतिरिक्त कल्पावतंसिका, पुष्पिका, पुष्पचूलिका और वृष्णिदशा को भी उपांग की संज्ञा दी जाती थी। कारण यह है कि विषय-वस्तु और पात्रों की दृष्टि से यह ग्रन्थ अन्तकृद्दशांग (८वां अंग), अनुत्तरोपपातिकदशा (हवां अंग) तथा विपाकश्रुत (११वां अंग).से काफी सम्बन्धित है और इन अंगों की सामग्री ये पांचों उपांग पूरी करते हैं । उनका संगठन भी मिलता-जुलता है। वष्णिदशा-उपांग के अतिरिक्त इन सब उपांगों के दस-दस अध्ययन हैं । नियम यह है कि प्रथम अध्याय को कथा सम्पूर्ण रूप से दी गयी है। दूसरे अध्ययनों की कथाएं मलग-अलग नहीं हैं । पावों और स्थानों के नाम ही बदले गये हैं और इन कथाओं के केबल संकेत मात्र दे दिये गये हैं। उपरोक्त उपांग की कथाओं में महावीर स्वामी, पार्श्व स्वामी या अरिष्टनेमि स्वामी के द्वारा विविध पात्रों के पूर्वभव या भविष्य जन्म बताए गए हैं। अपने-अपने कर्मों के कारण निरयाबलिका सूत्र के दस राजकुमार नरक गति में और कल्पावतंसिका के दस कुमार कल्प (स्वर्ग) में पैदा होते हैं। पुष्पिका में और पुष्पचूलिका में देवों और देवियों की ऋद्धि की उत्पत्ति स्पष्ट करने के लिए उनके पूर्वभवों की चर्चा की गई है। निरयावलिका सूत्र की कथा-वस्तु जैन साहित्य में विख्यात है। कूणिक कुमार का अपने पिता श्रेणिक राजा से द्वेष, वैशाली राजा के साथ कूणिक का युद्ध और उसकी विजय इत्यादि घटनाओं का जो उल्लेख किया गया है, वह आवश्यकचूणि, हेमचन्द्र के त्रिषष्टिशलाकापुरुष चरित्र जादि ग्रन्थों में भी आता है। बौद्ध ग्रन्थों में भी इन कथानकों से मिलती-जुलली कथायें हैं। ऐतिहासिक कथाओं के अतिरिक्त इन उपांगों में पात्रों की हृदय-स्पर्शी जीवन-कथाएं भी प्राप्त होती हैं जैसे निरयावलिका सूत्र में युद्ध में लगे हुए पुत्र की माता की चिन्ता और देहान्त के बाद उनके गम्भीर शोक को हम अनुभव कर सकते हैं। बहुपुत्तिय देव होने से पहले सुभद्रा का जीवन दुःख पूर्ण है [देखिये पुष्पिका ३ में] । । वास्तव में इन पांच उपांगों की कथायें श्रावक-श्राविकाओं के लिए विशेष रूप से रोचक तथा वैराग्य-वर्धक धर्म-कथायें हैं। जैन संघ को यह जानकर प्रसन्नता होगी कि पश्चिम योरुप के विद्वान शुरू से ही निरयावलिका [तेईस] Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र की ओर आकर्षित हुए थे। एक ही हस्तलिखित ग्रन्थ के आधार पर डा. वारेन ने इस शास्त्र के मूल का सर्वप्रथम सम्पादन १८७६ में किया था। लगभग सौ साल बाद बेल्जियम के प्रोफेसर दलो ने भारत में विविध उपलब्ध सम्पादनों के आधार पर मूल सूत्र का पुनः प्रकाशन किया था ? उनके महत्वपूर्ण शोध लेख में अनुवाद नहीं है, पर विस्तृत भूमिका तथा सूत्र का सार और अध्ययन प्रभावशाली भाषा में लिखे गए हैं । अन्त में संक्षिप्त विवरण अंग्रेजी में दिया गया है। प्रस्तुत प्रागम का हिन्दी अनुवाद लगभग ४५ साल पहले पूज्य आचार्य श्री आत्माराम जी महाराज ने तैयार किया था। पर वह अप्रकाशित रहा। वे आचार्य स्थानकवासी जैन संघ के प्रथम पट्टाधीश तथा संस्कृत व प्राकृत ग्रन्थों के प्रथम हिन्दी टोकाकार थे। महाराज जी को यह पता था कि हिन्दी भाषा के प्रयोग के बिना जैन आगमों का ठीक प्रचार नहीं हो सकेगा। अनुवाद के अतिरिक्त प्रस्तुत ग्रन्थ में सरल हिन्दी भाषा में लिखी हुई विस्तृत टीका भी मिलती है, जिसमें पाठकों के लिये मूल सूत्र के सब सन्दर्भो की पूरी व्याख्या प्राप्त हो जाती है। कठिन शब्दों के अर्थों को स्पष्ट करने के लिए चन्द्र सूरि की संस्कृत व्याख्याएं भी स्थान-स्थान पर उद्धृत की गई हैं और आगमोदय समिति के द्वारा प्रकाशित हुए सम्पादन के पाठ-भेद भी दिये गए हैं। . ___ अतः हमें विशेष प्रसन्नता है कि प्राचार्य महाराज जो को यह महत्वपूर्ण कृति आज प्रकाशित हो रही है। इस प्रशंसनीय कार्य को प्रेरिका साध्वो श्री स्वर्ण कान्ता जी महाराज हैं, जो प्रस्तुत ग्रन्थ की मुख्य सम्पादिका हैं। साध्वी श्री स्मृति जी महाराज M. A. और श्री पुरुषोत्तम जैन जी तथा श्री रविन्द्र जैन जी तथा श्री तिलकधर शास्त्री जी सम्पादक मण्डल में उनके सहयोगी हैं। पंजाबी जैन संघ इन महानुभावों से भली-भान्ति परिचित है । बड़े उत्साह से वे जैन धर्म का प्रसार करने के शुभ कार्य में तत्पर हैं। प्रस्तुत ग्रन्थ के प्रकाशन के लिए अपना समय देने वाले और परिश्रम करने वाले सब व्यक्तियों के हम अत्यधिक कृतज्ञ हैं। इस पुस्तक को नित्य पढ़ने से जन-धर्म प्रेमी भाइयों और बहिनों को लाभ हो तथा निरयावलिका सूत्र के पात्रों की तरह उनको अन्त में मोक्ष भी प्राप्त हो, यही है मेरी मंगल-कामना। . .. -Nalini Balbir (नालिनी बलवीर) University of Paris- 3 (FRANCE) 1. Dr. S. WARREN, Nirayavaliyasuttam, een Upanga der Jaina's. Met Inleiding, Aantee keningen en Glossar. Amsterdam, 1879. 2,, J. DELEU, Nirayavaliyasuyukkandha. Uvanga's 8-12 van de jaina Canon. Orientalia Gandensia IV. 2967 (Brill, 1969), pp. 77-150. [ चौबीस Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्पादक मण्डल परिचय निरयावलिका जैन वाङ्मय के उपांग साहित्य में निरयावलिका का आठवां महत्त्वपूर्ण स्थान है। इसका दूसरा "नाम कप्पिया व कल्पिका" भी है। पूर्व में उपांग पांच उपांगों का संग्रह था जो कि 'निरयावलियाओ' कहलाता है । वे पांच उपांग हैं १. निरयावलिया या कप्पिया २. कप्पडिसिया (कल्पावतंसिका) . ३. पुफिया (पुष्पिका) .४. पुफ्फचूलिया (पुष्पचूलिका) तथा ५. वहिदहा (वृष्णिदशा) कालान्तर में उपांग संख्या को द्वादश अंग ग्रन्थों (आगमों) के तुल्य बनाने के लिये उपर्युक्त श्रुतग्रन्थों को पृथक्-पृथक् उपांग ग्रन्थों के रूप में मान्यता दे दी गई। . आज निरयावलिका का अपना पूर्ण स्वतन्त्र अस्तित्व है। "निरयावलिका" पद का संस्कृत प्रतिरूप नरकावलिका बनता है जिसका अर्थ है-नरकों की पंक्तियां । ग्रन्थ के प्रारम्भ में जैसा कि वर्णन प्राप्त होता है कि गणधर आर्य सुधर्मा स्वामी अपने शिष्य आर्य जम्बू के प्रश्नों के समाधान स्वरूप प्राकृत "निरयावलिया" का उपदेश देते हुए लमझाते हैं कि अच्छे कर्मों का परिणाम अच्छा अर्थात् स्वर्ग-प्राप्ति और बुरे कर्मों का फल बुरा-असुरगति व नरक-गति की उपलब्धि है। अर्द्धमागधी प्राकृत भाषा में निबद्ध प्राकृत निरयावलिका कथा-ग्रन्थ में दस अध्ययन हैं जिनमें भगवान महावीर स्वामी के समकालीन मगध-सम्राट श्रेणिक-विम्बसार के पुत्र, जिन्हें इतिहास प्रशोकचन्द्र, विदेहपुत्र, वज्जिविदेह तथा अजातशत्रु भी बतलाता है, ऐसे चम्पानरेश कूणिक के काल, सुकाल, महाकाल, कण्ह, सुकण्ह, महाकण्ह, वीरकण्ह; रामकण्ह, पिउसेणकण्ह और महासेणकण्ह, ये दस भाई वैशाली नरेश चेट क के द्वारा युद्ध में मार डाले गए थे। इन दशों राजपुत्रों ने युद्ध में लड़ते हुए अशुभ भावों के कारण नरकगति पाई थी। यह निरयावलिका का मावृत्त निःसन्देह अर्थानुकूल परिलक्षित होता है। इस तरह निरयावलिका ज्ञाताधर्मकथा, पासकदशा, अन्तकृद्दशा और विपाकसूत्र आदि आगमकालीन कथा-साहित्य का मनोज्ञ शिक्षाप्रद (पच्चीस) Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनूठा ग्रन्थ है । शेष उपांगों का सारांश प्रस्तावना में सम्पादक दे चुके हैं इन पांचों उपांगों में तीर्थकर महावीर भगवान श्री पार्श्वनाथ; भगवान श्री अरिष्टनेमी के समय के आराधकों का पुण्यमय वर्णन हैआचार्य श्री आत्माराम जी महाराज ___मुझे अत्यन्त प्रसन्नता है कि उक्त निरयावलिका सूत्र अपने संशोधित मूल स्वरूप के साथ संस्कृत-छाया; टोका, हिन्दी अनुवाद, खोजपूर्ण विस्तृत भूमिका तथा पाद-टिप्पण सहित २५वीं महावीर निर्वाण शताब्दी संयोजिका समिति, मालेरकोटला (पंजाब) द्वारा प्रकाशित हो रहा है। प्रस्तुत सूत्र पर भारत में बहुत ही कम कार्य हुआ है। श्वेताम्बर स्थानक वासी जैन श्रमण संघ के आद्य आचार्य पूज्य श्री आत्मा राम जी महाराज ने इस कमो को अाज से ४७ वर्ष पूर्व हो पहचान लिया था। उन्होंने २० आगमों पर हिन्दी टोकायें लिखीं। जिनमें से आचारांग, उत्तराध्ययन, दशवकालिक, स्थानांग, अन्तकृद्दशांग के अनुवाद बहुत प्रसिद्ध हैं । समस्त जैन जंगत द्वारा मान्य तत्वार्थ सूत्र पर उनके शोध-कार्य की प्रशंसा विश्व स्तर पर हुई । आचार्य श्री का अप्रकाशित आगमों में से यही उपांग अप्रकाशित था जिसे पच्चीसवीं महावीर निर्वाण शताब्दी संयोजिका समिति पंजाब ने साध्वी श्री स्वर्णकान्ता जी महाराज की प्रेरणा से प्रकाशित करने का निर्णय किया है। इस उपांग पर आचार्य श्री ने संस्कृत-छाया, पदार्थान्वय, मूलार्थ औ हिन्दी टीका लिखी है । इस उपांग की हस्तलिखित प्रति आचार्य श्री के शिष्य पूज्य श्री रत्न मुनि जी महाराज के पास सुरक्षित थी। श्री रत्न मुनि जी महाराज स्वयं प्राकृत, संस्कृत, पाली, उर्दू, फारसी, पंजाबी, गुजराती, राजस्थानी के विद्वान संत हैं। आप हर समय स्वाध्याय मौन एवं तप में लीन रहते हैं । साध्वी जी की प्रार्थना पर आपने यह इस ग्रन्थ की पाण्डुलिपि समिति को प्रदान कर अनुग्रहीत किया है। साध्वी श्री स्वर्णकान्ता जी महाराज उक्त ग्रन्थ को प्रमुख सम्पादिका हैं-महाश्रमणी जिनशासन - प्रभाविका, जैन - ज्योति, समाज-सुधारिका, बहुभाषाविज्ञ, उपप्रवर्तिनी साध्वा-रत्ना श्री स्वर्णकान्ता. जी महाराज। आप प्रतिभा-सम्पन्न, विदुषोरत्ना होने के साथ हो साथ उग्रतपस्विनी एवं ध्यान-साधिका भी हैं। गुरुणी जी महाराज की ओजस्वी वाणी माधुर्यपूर्ण सशक्त एवं महान् प्रेरणास्पद है । इसका प्रमाण है-हरियाणा, पंजाब, हिमाचल, जम्मू-कश्मीर और उत्तर प्रदेश के गांवों में परिभ्रमण कर भगवान महावीर स्वामी के अनेकान्तमय अहिंसा और अपरिग्रह जैसे गम्भीर सिद्धान्तों पर तथ्यपूर्ण मार्मिक व्याख्यानों, प्रवचनों से लाभान्वित जैन जैनेतर हजारों लोगों का अहिंसा-पथ पर चलने का प्रणिधान करना, निश्चय ही यह सब गुरुणो जी महाराज के बहु-आयामी व्यक्तित्व को अभिव्यक्त करता है। उत्तरी भारत में विशेषकर पंजाब के लिये आपने जो सबसे महत्वपूर्ण कार्य किया है, वह है जैन साहित्य को पंजाबो भाषा में रूपान्तरित और अनवादित करवाना। गरुणो जी की प्रेरण से जैन तत्वावधान एवं इतिहास से सम्बद्ध लगभग ४० ग्रंथ पंजाबी भाषा में मूल एवं पंजाबी [छब्बीस] Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्पादकमण्डल साध्वी श्री स्मृति जी म. M.A. सम्मादक द्वय श्री तिलकधर शास्त्री जी लुधियाना श्री रवीन्द्र जैन, श्री पुरूषोत्तम जैन (मलेरकोटला) 27 फरवरी 1987 को भारत के तत्कालीन राष्ट्रपति ज्ञानी जैल सिंह राष्ट्रपति भवन में पुस्तक पुरातन पंजाब में जैन धर्म का विमोचन करते हुए । Page #38 --------------------------------------------------------------------------  Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुवाद सहित साथ ही अनेक मौलिक रचनाएं भी प्रकाशित कर देश-विदेश के विश्वविद्यालयीय पुस्तकालयों तथा विद्वानों तक पहुंचाई जा चुकी हैं। श्री गुरुणी जी महाराज को सद्प्रेरणा का दूसरा दृष्टांत है-पंजाबी विश्वविद्यालय, पटियाला (पंजाब) में संस्थापित भगवान् महावीर जैन चेयर । इस चेयर के संस्थापन में श्री गुरुणी जी महाराज का समस्त श्रमणी-जीवन समर्पित है, जो सदैव स्मरणीय रहेगा। आपने जैन चेयर के पुस्तकालय के लिये स्वकीय हस्तलिखित ग्रन्थों का अक्षय विपुल कोष शोधार्थ अर्पित कर दिया है । आप स्वयं विदुषी हैं, विद्वानों का सम्मान करती हैं। विद्वानों के सम्मानार्थ ही आपकी प्रेरणा से पंजाब-हरियाणा के जैन समाज ने आपको दादा गुरुणो महाश्रमणो प्रवर्तिनी साध्वी श्री पार्वती जी महाराज की स्मृति में इण्टरनेशनल पार्वती जैन एवार्ड और स्व० श्रावक श्री नाथूराम जो जैन को स्मृति में इण्टर नेशनल महावीर जैन वेजिटेरियन अवार्ड को स्थापना को है। __ ऐसी हैं हमारी पंजाबी में जैन साहित्य की प्रेरिका उदारमना गुरुणी साध्वी श्री स्वर्णकान्ता जी महाराज। गुरुणी महाराज की गुणगरिमा पर जितना अधिक लिखा जाय, वह सब सूर्य को दीपक दिखलाने जैसा है । मैं अपना परम सौभाग्य मानता हूं कि आप सदृश गुरुणी जी के मझे दर्शन एवं प्रवचन सुनने का अवसर मिला तथा आशीष प्राप्त हुए। मैं अपनी ओर से तथा जैन समाज की ओर से आप महानुभवो गुरुणी जी महाराज की दीर्घायु की हार्दिक मंगलकामना करता हूं। साध्वी श्री स्मृति जी एम. ए. निरयावलिका सूत्र के सम्पादक मण्डल में चार महान् व्यक्तियों के नाम आते हैं। इनमें प्रथम हैं गुरुणी जी महाराज की द्वितीय शिष्या साध्वी श्री सुधा जी महाराज की शिष्या अर्थात श्री स्वर्णकान्ता जी महाराज की प्रशिष्या नवदीक्षित साध्वी श्री स्मृति जी महाराज। साध्वी श्री स्मृति जो महाराज स्थानकवासी जैन श्रमणसंघ की विशेष रूप से उत्तरभारतीय श्रमणी संघ की उदीयमान विदुषी साध्वो-रत्न हैं। साध्वी जी बचपन से ही धार्मिक विचारवाली, विनयशील एवं प्रत्युत्पन्नमति रही हैं जिसका परिणाम है कि आप श्री ने अपनी समस्त उच्चपरीक्षायें प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण की हैं । सन् १९६० में पंजाब विश्वविद्यालय, चण्डीगढ़ से एम०ए० (हिन्दी)तथा कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय से सन् १९९३ में एम० ए० (संस्कृत) में सर्वाधिक अंक लेकर स्वर्णपदक प्राप्त किए हैं । सम्प्रति आपकी अभिरुचि कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय कुरुक्षेत्र से जनदर्शन में शोधकार्य करने की है। साध्वी श्री स्मृति जी का निरयावलिका श्रुतस्कन्ध के सम्पादन में सहज योगदान है। इसके लिए मैं इन नवोदित विदुषी साध्वो श्री का हार्दिक सम्मान करता हुआ उनके प्रति मैं अपना हार्दिक आभार व्यक्त करता हूं। श्री तिलकधर जो शास्त्री अग्रज विद्वद्वर पण्डित श्री तिलकधर जी शास्त्री को उक्त महान कार्य में स्मरण किए बिना मैं कैसे रह सकता हूं। शास्त्रो जो वेद, व्याकरण एवं साहित्य के अधिकारी विद्वान् हैं । आप पालि [सताईस ) Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत, गुजराती हिन्दी एवं पंजाबी भाषाओं के पूर्ण ज्ञाता हैं । मुझे स्थानांग सूत्र पर आपके द्वारा लिखी गई शोधपूर्ण प्रस्तावना पढ़ने का अवसर मिला जिसमें आपकी विद्वत्ता स्पष्ट झलकती है। आपने अनेकों ग्रन्थों की स्वतन्त्र रचना भी की है। आपने भक्तामर स्तोत्र व कल्याण-मन्दिर स्तोत्र के पद्यानुवाद भी किये हैं जिनके कैसट भी बन चुके हैं। आपका अधिकांश आगम ग्रंथों के सम्पादन में महत्त्वपूर्ण योगदान रहा है जिसमें निरयावलिका उपांग सूत्र भी एक है । वर्तमान में आपका निवास लुधियाना में है। लगभग २५ वर्षों से आपके सम्पादकत्व में "आत्यरश्मि" शोधपत्रिका का निरन्तर प्रकाशन हो रहा है। ऐसे सेवानिष्ठ, दृढ़ आस्थावान बहुज्ञ भाषाविद् विद्वान् पण्डितवर श्री तिलकधर जी शास्त्री का मैं बहुत आभारी हूं और सम्पादन में प्राप्त सहयोग के लिए आपका हार्दिक धन्यवाद करता हूं तथा भविष्य में भी ऐसे ही सहयोग की अपेक्षा भी करता हूं। धर्मभ्राता श्री पुरुषोत्तम जैन व श्री रवीन्द्र जैन मालेरकोटला इसके बाद आते हैं हमारे अनुजद्वय-भ्राता श्री पुरुषोत्तम जी जैन एवं श्री रवीन्द्र जी जैन । मध्यम जैन परिवारों में जन्मे, एक साथ पढ़े लिखे और जीवन में आगे बढ़े, ये दोनों भ्राता इन दिनों मालेरकोदला में निवास करते हुए जैन धर्म-दर्शन की महती सेवा कर रहे हैं । आप दोनों देवगुरु व धर्म के प्रति सहज समर्पित हैं। समाज आपके गुणों एवं कार्यों से भलिभांति परिचित है। आप दोनों ने देश-विदेशों में विशेष ख्याति अजित की है। सचमुच ही साध्वी-रत्ना, उपप्रवतिनी गुरुणी श्री स्वर्ण कान्ता जी महाराज की मूर्तिमान प्रेरणा हो हैं ये पंजाबी विद्वान बन्धुद्वय । मैंने तो जब भी पाया आप दोनों को एक साथ पाया है-ये द्विवदन एक प्राण हैं। श्री रवीन्द्र जैन उच्च राजकीय सेवारत हैं । अपने से बड़ों एवं पूज्यजनों, विद्वानों के प्रति आप दोनों का आदरभाव ही आपकी विनयशीलता और सदाचरण को दर्शाता है। दोनों बन्धु भारतीय प्राचीन संस्कृति, इतिहास और पुरातत्व विज्ञान के विशेषज्ञ हैं। जैन कला, साहित्य एवं इतिहास पर आपने बहुत कार्य किया है। पंजाबी, अंग्रेजी एवं देवनागरी पर आप दोनों का असाधारण अधिकार है। आप दोनों प्राचीन लिपियों के तो सुज्ञाता हैं ही, साश ही संस्कृत, प्राकृत, हिन्दी और गुजराती भाषाओं के ज्ञाता विद्वान् भी हैं। अब तक आप दोनों के द्वारा लगभग ४० ग्रन्थों की रचना की जा चुकी है जिनमें कुछ एक स्वतन्त्र रूप से लिखी हुई रचनायें भी मिलती हैं जो अधिकांश सम्मिलित रूप से सम्पादित ग्रंथ विशेष हैं। आप दोनों ने जो एक बड़ा उपयोगी कार्य अपने हाथ में लिया है वह है जैन साहित्य को पंजाबी में रूपान्तरित कर प्रकाशित करना और उनका पंजाबी भाषा में अनुवाद कर वितरित करना। अनेकों छात्र-छात्राएं और विद्वान् इन रचनाओं से अधिक से अधिक लाभ उठा रहे हैं। [ अट्ठाईस] Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - आप बन्धुद्वय अनेक जैन आचार्यों, साधु-सन्तों, गुरु-गुरुणियों के सम्पर्क में रहते हैं, सभी का आपको साधुवाद व आशीर्वाद प्राप्त है । आप दोनों अनेक जैन समितियों एवं संस्थाओं से सम्बद्ध हैं । कुछ एक समितियों के तो आप दोनों ही संचालक हैं। ऐसे धर्मनिष्ठ जैन इतिहासज्ञ विद्वानों के द्वारा निरयावलको सूत्र की प्रकाशन किया जा रहा है। मैं आप दोनों का हृदय से धन्यवाद करता हूं और चिरायु होने को मंगल कामना करता हूँ। साथ ही यह भी अपेक्षा करता हूँ कि आप दोनों बन्धुओं के द्वारा उत्तमोत्तम उपादेय सत्साहित्य का निरन्तरं प्रकाशन होता रहेगा जिससे जैन धर्म दर्शन एवं संस्कृति को विश्व व्यापी प्रचार-प्रसार हो सकेग मैं आप सभी का पुनः एक बार आभार व्यक्त करता हुआ विराम लेता हूँ । ओ३म् शान्तिः शुभचिन्तक डा धर्मचन्द्र जैन, (प्रोफेसर ) संस्कृत एवं प्राच्यविद्या संस्थान, कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय, कुरुक्षेत्र - १३२ ११६ (हरियाणा) [ उन्नतीस ] st - 115 विश्वविद्यालय परिसर कुरुक्षेत्र Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * द्रव्य-सहायक ** १. श्री सुरेश जैन जालन्धर २५. श्रीमती विमला देवी जैन मालेरकोटला २. श्री विवेक जैन होशियारपुर धर्मपत्नी श्री मोहनलाल जैन ३. श्री अभय कुमार होशियारपुर २६. साध्वी श्री स्वर्ण कांता जैन ४. श्री वरिन्द्र कुमार . दिल्ली सांलारिक माता श्रीमती दुर्गी ५. श्रीमती कमला जैन होशियारपुर देवी जैन लाहोर की पुण्य-स्मृति में . ६. श्री लक्ष्मण दास जैन ७. मास्टर तेजपाल जैन मानसा २७. श्रीमती विमला देवी जैन ने ८. श्री दुर्गा दास जैन अपने पति स्व. श्री जगदीशराय आलुपुर ६. श्री प्रदीप कुमार जैन होशियारपुर जैन लाहौर वालों की १०. श्री मदन लाल जैन जालन्धर पुण्य-स्मृति में ११. श्रीमती त्रिशला देवी जैन नियोडा २८. श्री अशोक जैन ने सुपुत्र श्री . ' १२. श्रीमती तरसेम जैन लुधियाना सतपाल जैन स्मृति में मालेरकोटला १३. श्री मदन लाल जैन लुधियाना . २६. श्री विनोद कुमार कालियावाली १४. श्रीमती निर्मला जैन पटियाला ३०. श्री पवन कुमार . हंसपर १५. श्री भूषण जैन अम्बाला ३१. श्री मास्टर तेजपाल जैन मानसा १६. श्री सुशील जैन होशियारपुर ३२. श्री मथुरा दास जैन संगरिया मण्डी १७. श्री अशोक जैन होशियारपुर ३३. बाबू राम संदीप कुमार संगरिया मण्डी १८. श्री मुकेश जैन दिल्ली ३४. श्री सुरेश जैन , जालन्धर १६. श्री एस. एस. कटारिया फरीदाबाद ३५. रमेश कुमार विवेक जैन जालन्धर २०. श्री रामकृष्ण किंगर मालेरकोटला ३६. श्रीमती विजय जैन सोनीपत सुपुत्र स्व० श्री गुरायाराम किंगर ३७. श्री रामकरण गोयल कुरुक्षेत्र सरदार रविन्द्र सिंह ३८. श्री जय भगवान सतीश कुमार कुरुक्षेत्र सुपुत्र स० झरमल सिंह गोबिन्दपुरा । ३६. श्री सतपाल जी पहेवा २२. श्री वेदप्रकाश जैन रामपुरिया ४०.. श्री रोशन लाल भठिण्डा सुपुत्र स्व. श्री भगतराम जैन मालेर कोटला ४१. श्री मदन लाल जैन . मानसा २३. मै. आत्म ह्वील (इण्डिया) ४२. श्री कश्मीरी लाल जैन मलोट ४४-ई फोकल प्वाईण्ट, लुधियाना ४३. श्री रविन्द्र कुमार जैन भठिण्डा २४. श्रीमती लक्ष्मी देवो जैन धरी ४४. श्री त्रिशला जैन दिल्ली धर्मपत्नी श्री स्वरूपचन्द जैन ४५. श्री अभय कुमार जैन मालेर कोटला मैं पच्चीसवीं महावीर निर्वाण शताब्दी संयोजिका समिति पंजाब की ओर से द्रव्य-सहायकों का आभारी हूं। जिन्होंने अपना सहयोग देकर देव-गुरु व धर्म के प्रति भक्ति का आदर्श उदाहरण प्रस्तुत किया है। .. शुभ-चिन्तक-पुरुषोत्तम जैन (संयोजक) Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महान तपस्वी सर्वगीय श्राविका विद्या देवी जैन धर्मपत्नी श्री बाबु राम जैन की समृति में श्री वेद प्रकाश जैन रामपुरीया (मलेरकोटला) सुश्रावक श्री जगदीश राम जैन सपुत्र श्री खजानचन्द जैन की 'समृति में श्री बिमला जैन वीर नगर (दिल्ली) साध्वी श्री सर्वण कान्ता जी महाराज की माता श्री मति दुर्गा देवी जी जैन धर्म पत्नी ला. खजानचन्द जैन (लाहौर वालों) की समृति में श्री मति रत्न देवी जैन पत्नी श्री तिलक राज जैन की समृति में माता सुश्रावक श्री विवेक जैन (जालन्धर वाले) Page #44 --------------------------------------------------------------------------  Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ OOOOOOOOOOOOOOODनननननननननननननननन शहीदों की चिताओं पर लगेंगे हर बरस मेले वतन पै मरने वालों का यही बाकी निशां होगा स्व. जोगिन्दर पाल जैन स्व. उदय चन्द जैन स्व० सुमति प्रकाश जैन प्रिय पुत्रो / प्रिय भ्राताओं! १० फरवरी १९९२ का दिन भूल जाने की कोशिश करने पर भी हम भूल नहीं पाते। ननर-संहारकारी आतंकवादियों की गोलियों ने हालत यह कर दी कि न हाथ थाम सके, न पकड़ सके दामन । बड़े करीब से ही उठ कर, तुम दूर चले गए ।। चले नहीं गए-तुम्हें दूर भेज दिया गया। उन हत्यारों द्वारा जिनका तुमने या हमने कभी कुछ बिगाड़ा न था। हमारा जोगिन्दर फिर जाग न पाया, हमारा उदय अस्त हो गया, सुमति कुमतियों द्वारा छीन लिया गया। __ आप तीनों प्यारे भाई पंजाब के लिये निछावर हो गए। आपकी पुण्य स्मृतियां बनी रहें, इसीलिये प्रस्तुत शास्त्र में आपकी स्मृतियों के सुमन सुरक्षित कर हमें सन्तोष करना पड़ रहा है । शासनेश प्रभु आपकी आत्माओं को चिर शान्ति प्रदान करें। शान्ति-प्रार्थी नगीन चन्द जैन (पिता) महेन्द्र पाल जैन (भाई) आत्म व्हील, लुधियाना ननननननननननननननननननननननननननननननन Page #46 --------------------------------------------------------------------------  Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री मति बिमला देवी जैन धर्म पत्नी श्री मोहन लाल जैन माता श्री रविन्द्र कुमार जैन (मलेरकोटला) जैन श्री अभय कुमार (होशियारपुर) एस. एस. जैन महिला संघ अम्बाला शहर साध्वी श्री सर्वण कान्ता जी महाराज के साथ श्री लक्ष्मी देवी जैन धर्मपत्नी श्री स्वरूप चन्द जैन माता श्री धर्म भ्राता पुरुषोतम जैन (धुरी वाले) श्री मति कमला देवी जैन के सपुत्रों श्री अशोक जैन, श्री रविन्द्र जैन, श्री प्रदीप जैन (होशियारपुर) Page #48 --------------------------------------------------------------------------  Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ নানা हमारा भारत एक धर्म प्रधान देश है । इस देश की दो संस्कृतियां बहुत प्राचीन है-वैदिक संस्कृति और श्रमण-संस्कृति । वैदिक संस्कृति वर्ण-व्यवस्था, याज्ञिक क्रिया-कांड प्रधान है । इस संस्कृति को ब्राह्मण-संस्कृति भी कहा जाता है, इस संस्कृति के आधार भूत ग्रंथ वेद, उपनिषद्, ब्राह्मणग्रंथ, पुराण, स्मृति, महाभारत व रामायण हैं । इसके विपरीत श्रमण संस्कृति आत्मवादी संस्कृति है। श्रमणों के कुछ प्राचीन सम्प्रदाय हैं(१) निर्ग्रन्थ, (२) शाक्य, (३) गेरुक, (४) आजीवक, (५) तापस आदि । आज कल श्रमणों के दो रूप ही उपलब्ध होते हैं-जन 'निर्ग्रन्थ' और बौद्ध 'शाक्य' । इन दोनों संस्कृतियों में एक बात निर्विवाद सिद्ध है कि दोनों संस्कृतियों में जैन संस्कृति-प्राचीनतम है, इस बात का समर्थन वैदिक बाङमय एवं बौद्ध साहित्य में आसानी से उपलब्ध होता है। बन-धर्म . जैन धर्म की मान्यता है कि जैनधर्म सृष्टि का आदि धर्म है। आत्मा, परमात्मा, सृष्टि, स्वर्ग, नरक और मोक्ष के विषय में जैनधर्म का अपना मौलिक चिंतन है । ऐसी मान्यता है कि जम्बू द्वीप के भरत क्षेत्र में तीसरे आरे की समाप्ति व चौथे आरे के आरम्भ में २४ तीर्थकर जन्म लेते हैं, तीर्थ कर कोई नया धर्म स्थापित नहीं करते, बल्कि अपने से पहले चली आ रही तीर्थङ्कर-परम्परा की पुनः स्थापना करते हैं। . . तीर्थङ्कर जैन धर्म का अपना पारिभाषिक शब्द है, धर्म रूपी जंगम तीर्थ की स्थापना करने वाला तीर्थङ्कर है। तीर्थ ङ्कर केवल ज्ञान के अनन्तर साधु-साध्वी, श्रावक (श्रमणोपासक) व श्राविका (श्रमणोपासिका) रूपी तीर्थ की स्थापना करते हैं। इस तीर्थ के कल्याण के लिये धर्म का उपदेश देते हैं जिसे उनके प्रमुख शिष्य अंग-आगमों का रूप प्रदान करते हैं । द्वादशांगी एवं १४ पूर्वी की परंपरा बहुत प्राचीन है। प्रथम तीर्थङ्कर भगवान ऋषभदेव से लेकर अंतिम तीर्थङ्कर भगवान महावीर ने इसी परम्परा का ही निर्वाह किया है। वर्तमान काल में जैन संस्कृति का जो-आगम साहित्य उपलब्ध है वह भगवान महावीर के प्रमुख शिष्य गणधर इन्द्रभूति गौतम एवं भगवान महावीर का सम्वाद रूप है । इस साहित्य का वर्तमान स्वरूप का प्रकट करने से पहले हम इस साहित्य के इतिहास का वर्णन करना पावश्यक समझते। (इकत्तीस) Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन साहित्य का संक्षिप्त इतिहास जैसा कि पहले वर्णन किया जा चुका है कि तीर्थङ्कर की वाणी को गणधर ग्रंथों का रूप देते हैं। तीर्थङ्कर परमात्मा तो आत्म-कल्याण एवं स्वकल्याण के लिये धर्म का उपदेश करते हैं। वीतराग की वाणी भगवान महावीर की प्रथम देशना से ११ वेद विद्वान व उनका शिष्य - परिवार प्रभावित हुआ। भगवान महावीर ने उन विद्वानों को ११ गणधरों का नाम दिया। इनमें इन्द्रभूति गौतम तथा सुधर्मा को छोड़कर सभी गणधर भगवान महावीर के जीवन-काल में ही मोक्ष गति को प्राप्त हो गए थे। .. ५६६ ई. पू. दीपावली की रात्रि को जब श्रमण भगवान महावीर का निर्वाण हुआ तो उसी रात्रि के मध्यकाल में गणधर गौतम इन्द्रभूति को केवल-ज्ञान प्राप्त हुआ। गणधर इन्द्रभूति गौतम भगवान महावीर के निर्वाण के बाद श्री-सघ के शास्ता बने ।। . जैन मान्यता है कि ११ गणधरों ने वाचना में बारह अंगों की रचना की थी। इसका अर्थ यह हुआ कि प्रत्येक गणधर ने द्वादशांगो को अलग-अलग रचनायें को होंगी। आठ वाचनाएं तो गणधर गौतम के जीवन-काल में ही समाप्त हो गई । पांचवें गणधर सुधर्मा स्वामी की वाचना ही बच पाई जो वर्तमान काल तक बड़े लम्वे संघर्षों के बाद आंशिक रूप से उपलब्ध है। जैन आचार्यों ने आगमों की प्राचीन श्रुत परम्परा को स्थिर रखते हुए श्रुत-साहित्य के सम्पादन के लिये अनेक प्रयत्न किये जिन्हें जैन इतिहास में वाचना का नाम दिया गया है । वाचना का महत्व जैन इतिहास में वही है जो बोद्ध साहित्य में संगीति का है। . .. • वर्तमान में उपलब्ध जैन आगम श्रुत को केवल श्वेताम्बर-परम्परा ही मानती है जबकि दिगम्बर-परम्परा इन अंगों को विलुप्त मानकर आचार्य श्री कुन्दकुन्द आदि आचार्यों द्वारा रचित ग्रन्थों को आगमों के समान स्वीकार करती है । प्रस्तुत इतिहास श्वेताम्बर आगम-परम्परा से सम्बन्धित है। दिगम्बर-परम्परा तो पूर्व ग्रन्थों और अंगों के नाम को ही मानती है। प्रथम वाचना - इस वाचना का समय मौर्य वंश के राजा सम्प्रति का समय है (वी. नि १६१)। उस समय मगध में भयंकर अकाल पड़ा अतः साधुओं को अनुकूल भिक्षा मिलनी कठिन हो गई। यह अकाल बड़ा भयंकर था। बारह वर्षों तक इसका प्रभाव रहा। इस समय श्रमण-संघ के पट्टाधीश आचार्य श्री भद्रबाहु स्वामी थे। समस्त साधुओं को कंठस्थ किए हुए अंग व पूर्व भूल चुके थे। ऐसे भयंकर समय में पाटलीपुत्र में वीर-निर्वाण संवत् १७६ को जैन श्रमणों की प्रथम वाचना पाटलीपुत्र में हुई। उसमें सब साधु इकट्ठे हुए। उनमें से जितना जिसकी स्मृति में था उस १. कई पट्टावलियों में प्रथम पट्ट पर गणधर सुधर्मा को लिखा जाता है। [बत्तीस] Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सबका सम्पादन कर ग्यारह अंग सम्पूर्ण कर दिये गये। परन्तु बारहवां दृष्टिवाद नामक विशाल अंग किसी को याद न था। उस समय आर्य आचार्य भद्रबाहु ही १४ पूर्वो के ज्ञाता थे जो नेपाल में महा'प्राण नामक साधना कर रहे थे। श्री-संघ ने श्रुत-रक्षा के लिये ५०० मुनियों का एक संघ आचार्य स्थूलिभद्र के नेतृत्व में नेपाल भेजा। भद्र बाहु जी के ध्यान-साधना में लीन रहने के कारण बहुत से साधु स्थूलिभद्र को छोड़कर वहां से वापिस मा गये। किन्तु स्थूलिभद्र अपनी धुन के पक्के थे, अतः उन्होंने अपने विनय भाव एवं लगन से १० पूर्वो का ज्ञान उनसे प्राप्त कर लिया। ४ पूर्वो का ज्ञान उन्हें मूल रूप में ही मिला अर्थ रूप में नहीं। पाटलीपुत्र वाचना का विस्तृत वर्णन (तित्थगली, पट्टण्णय), आवश्य चूर्णी, परिशिष्ट पर्व आदि में मिलता है। सूत्रार्थ के सम्बन्ध में कहा जाता है कि पहले तो भद्रबाहु जी ने वाचना देना अस्वीकार कर दिया। तब स्थूलिभद्र जी ने कहा-“हे स्वामी ! यह श्री-संघ की आज्ञा है। श्री संघ की आज्ञा सन्मान करते हुए उन्होंने वाचना देनी प्रारम्भ कर दी। जब पूर्वो का ज्ञान पूरा हो गया तो स्थूलिभद्र ने पूछा-"भंते ! एक प्रश्न पूछना चाहता हूं कि अब तक मैंने कितना ज्ञान प्राप्त कर सिया है और कितना शेष है ? भद्रबाहु ने कहा-"अभी तक तुम सरसों के दाने जितना सीख पाए हो मेरू जितना शेष है।" तब स्थलिभद्र ने कहा "भगवन् ! मैं अध्ययन से थका नहीं हूं, पर आयुष्य कर्म के कारण सोचता हूं कि इस जन्म में यह ज्ञान में पूर्ण रूप से कैसे सीख पाऊंगा। स्थूलिभद्र की बात सुन कर भद्रबाहु ने कहा है-"वत्स ! चिन्ता की कोई बात नहीं। मेरा ध्यान पूरा हो गया है, तुम बुद्धिमान हो, मैं दिन रात तुम्हें दृष्टिबाद की वाचना दूंगा। इस प्रकार जब १० पूर्व सम्पूर्ण हो गये। तब एक दिन स्थूलिभद्र ११वा पूर्व एकान्त में याद कर रहे थे। उसी समय स्थूलिभद्र की सात सांसारिक बहिनें साध्वी रूप में उनके दर्शनार्थ व वन्दन करने वहीं आ गई। सर्व प्रथम उन्होंने भद्रबाहु को प्रणाम किया फिर अपने भ्राता स्थूलिभद्र के बारे में पूछा। भद्रबाहु ने स्थूलिभद्र को गुफा बता दी। उस समय स्थलिभद्र इस पूर्व में वणित यंत्र - विद्या का परीक्षण कर रहे थे। जब वे अंदर गई तो उन्होंने स्थूलिभद्र की जगह एक शेर को बैठे देखा। सातों बहिनें भयभीत हुई और वापिस आकर भद्रबाह जी को बताया- "हे गुरुदेव ! वहां हमारा माई स्थूलिभद्र नहीं है, वहाँ तो शेर बैठा है।'' - भद्रबाहु ने जब यह सुना, तो उनके मन को ठेस लगी। उन्होंने साध्वियों से कहा यह शेर ही तुम्हारा भाई स्थूलिभद्र है जो यंत्र-विद्या का परीक्षण कर रहा है । साध्वियां फिर उसी स्थान पर पहुंची जहां उनका भाई बैठा था। [ तेंतीस). Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साध्वियों के चले जाने के बाद श्री भद्रबाहु ने कहा - "आर्य ! जो तुमने अब तक पढ़ा है बस वही काफी है, अब आगे पढ़ने की तुम्हें आवश्यकता नहीं है ।" स्थूलभद्र को अपनी गलती का अहसास हुआ। उन्होंने भद्रबाहु के चरणों में गिर कर क्षमा मांगी और आगे वाचना देने की प्रार्थना की। स्थूलिभद्र की बात सुन कर भद्रबाहु बोले - " वत्स ! मुझे श्री संघ का पूरा सम्मान है, पर वाचना न देने का मेरा एक कारण है वह यह कि जब स्थूलभद्र जैसा आचार्य अपने वचन को भंग कर सकता है और विद्या का दुरुपयोग कर सकता है, तो दूसरों की बात क्या है ? श्रमण श्रेष्ठ ! यह पंचम काल है, अब आध्यात्मिक व मानसिक शक्तियों का ह्रास हो रहा है। ऐसे में विद्या का दुरुपयोग अनर्थ को जन्म देकर श्री - संघ को कष्ट में डाल सकता है। स्थूलभद्र के विनीत स्वभाव से प्रभावित होकर भद्रबाहु ने कहा - "आर्य ! १० पूर्वों का ज्ञान तुम्हें प्राप्त हो चुका है। मैं तुम्हें ४ पूर्वो का ज्ञान अवश्य दूंगा, पर यह ज्ञान तुम्हें आगे न देने का प्रण करना होगा । इस प्रकार यह वाचना का कार्यक्रम सम्पूर्ण हुआ। वीर निर्वाण सम्वत् १९१ में आर्य सुहस्त के समय पुन: अकाल पड़ा और श्रुत ज्ञान विस्मृत होने लगा । माथुरी वाचना जैन आगमों की दूसरी वाचना वीर निर्वाण संवत् ८२७ ओर ८४० मथुरा में हुई । उस समय मथुरा जनपद में जैन धर्म जन-धर्म बन चुका था। मथुरा के कंकाली टीले से प्राप्त पुरातत्व सम्बन्धी अवशेष इस बात की साक्षी देते हैं । इस वाचना के संयोजक आचार्य स्कन्दिल थे । वे पादलिप्त सूरि के कुल में विद्याधर गच्छ के आचार्य थे । इनकी परम्परा का वर्णन युग-प्रधान पट्टावली में इस प्रकार मिलता है। । वज्र आयं रक्षित, पुष्पमित्र, वज्रसेन नागहस्ती, रेवती मित्र, ब्रह्मदीपक सिंह और स्कन्दिल | जैसे कि पहले बताया गया है कि भद्रबाहु स्वामी के बाद अकाल के कारण श्रुत-ज्ञान विच्छिन्न हो गया था । बहुत से श्रुत ज्ञानी समाधि मरण को प्राप्त हो गये थे । अतः उस समय मथुरा में श्रमण संघ एकत्रित हुआ । आगमों के संकलन का कार्य पुनः शुरू हुआ जिसको जितना पाठ याद था उतना लिखा गया। फिर प्राचार्य स्कदिल ने उसकी वाचना दी। यह वह समय था जब जैन धर्मं मगध की धरती को छोड़ कर मध्य देश में फैल चुका था। मथुरा ईस्वी पूर्व २०० शताब्दी से ग्यारवीं शताब्दी तक जैन संस्कृति का केन्द्र ही है । उस समय जैनों को उस ब्राह्मण राजा पुष्य मित्र के अत्याचारों का 'सामना करना पड़ रहा था जिसने अन्तिम मौर्य सम्राट से सिंहासन छीन लिया था । उस समय जैन व बौद्ध धर्म के लिये काला युग था, उस समय इन दोनों धर्मों को अपने मूल स्थान से हाथ धोना पड़ा । [ चौतीस ] Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माथुरी वाचना का वर्णन आचार्य मलयगिरि द्वारा लिखित नन्दी सूत्र टीका, ज्योतिष कण्ड टीका. भद्रेश्वर कथावली, हेमचन्द्र के योग-शास्त्र में उपलब्ध होता है। मान्यता है कि उस समय कालिक श्रुत और अवशिष्ट पूर्व श्रुत को संगठित किया गया । वल्लभो वाचना इस वाचना का समय वीर निर्वाण सं० ८३० के लगभग है। जिस समय मथुरा में आचार्य स्कन्द के सान्निध्य में वाचना हो रही थी, उसी समय सौराष्ट्र (गुजरात) के वल्लभी नगर में आचार्य नागार्जुन के सान्निध्य में श्रमण संघ एकत्रित हुआ । यद्यपि लिखने की परिपाटी श्रार्य स्कदिल के समय से आरम्भ हो गई थी, परन्तु उस परम्परा को सर्वाधिक प्रोत्साहन देवद्विगणि क्षमा श्रमण के समय मिला। इस प्रकार आगमों को स्थिररूप आचार्य देवर्द्धिगण के समय मिल सका। जैन श्रमण संघ ऐसे युग-प्रधान आचार्य का युग-युगान्तरों तक ऋणी रहेगा। इसी वाचना का महत्वपूर्ण अङ्ग था नन्दी सूत्र में आगमों का वर्गीकरण । इस आगम-वाचना का एक प्रयत्न कलिंग नरेश खारवेल ३ ई. पू. के समय खण्डगिरि गुफा में किया गया, जिसका उल्लेख राजा खारवेल के विस्तृत शिला लेख में उपलब्ध होता है । परन्तु इस वाचना का प्रारूप क्या था ? इसमें वहां विराजित श्रमणों को जो जो पाठ याद थे वह सुनाये । उनका संकलन किया गया। इस वाचना के वाचक आचार्य नागार्जुन थे । माथुरी व वल्लभी वाचना प्रायः एक ही समय में हुई पर दोनों आचार्यों के परस्पर मिलन का वर्णन नहीं मिलता। वैसे दोनों वाचनाओं का बहुत महत्त्व है क्योंकि ग्राज भी अनेक पाठ-भेद आगमों में मिलते हैं तो वहां टीकाकार नागार्जुनीय वाचना का उल्लेख अवश्य करते हैं वल्लभी वाचना में प्रकरण ग्रन्थों को श्रुत ज्ञान का स्थान मिल गया । वेद्धगणी वाचना (वी. नि. ६८०) श्वेताम्बर जैन परम्परा में इस वाचना का अपना महत्वपूर्ण स्थान है वीर वि. सं. ६८० या में वल्लभी में ही आचार्य देवद्विगणि के सान्निध्य में विराट् श्रमण संघ का सम्मेलन हुआ । 1. इस सम्मेलन में उपलब्ध सभी वाचनाओं का अध्ययन किया गया। आचार्य देवगण के नेतृत्व में सर्वप्रथम जैन ग्रंथों को भोज - पत्रों पर लिखने का निर्णय किया गया। क्योंकि उस समय अधिकतर धार्मिक ग्रंथ श्रुत- परम्परा द्वारा ही सुरक्षित होते थे। इस सम्मेलन में कुछ महत्वपूर्ण निर्णय हुए। जहां-जहां "पाठान्तर" भेद थे, उन्हें चूर्णि साहित्य में संग्रहीत किया गया कुछ प्रकीर्ण ग्रन्थों को ज्यों की त्यों मान्यता प्रदान की गई । माथुरी एवं नागार्जुनी वाचनाओं का समन्वय किया गया था, किन्तु उसका विशेष वर्णन • उपलब्ध नहीं होता । दिगम्बर मान्यता यहां हम दिगम्बर मान्यता की वह बात भी कहना चाहते हैं जो अत्यन्त महत्वपूर्ण है । [ पैंतीस ] Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दिगम्बर मान्यता के अनुसार दशपूर्व के ज्ञाता घर सेन आचार्य थे जो कि निर्वाण सं. २४५ में स्वर्ग सिधारे। दोनों परम्पराओं में अंतिम श्रुत केवली भद्रबाहु स्वामी थे। इनमें कुछ ही वर्षों का अन्तर है। दिगम्बर परम्परा के अनुसार भद्रबाहु के बाद दस पूर्वधरों की परम्परा १४३ वर्षों तक रही । श्वेताम्बर परम्परा के अनुसार यह परम्परा ४१४ वर्षों तक चलती रही । आर्य वज्र के पश्चात् आर्य रक्षित हुए वे साढ़े εपूर्वी के ज्ञाता थे। इनके शिष्य दुर्वलिका पुष्यमित्र थे जो पूर्वो के ज्ञाता थे। पर वे अपने जीवन काल में ही हवें पूर्व का ज्ञान भूल गये । वीर निर्वाण के अनन्तर १० वर्षों तक सभी पूर्व लुप्त हो गये । दिगम्बर परम्परा के अनुसार पूर्वी के लुप्त होने का समय वी. नि. ६८३ है । दिगम्बर परम्परा षट खण्ड आगम और कषाय प्राभृत ग्रन्थों का आधार पूर्वी को मानती है। दिगम्बर परम्परा के अनुसार पूर्वी के ज्ञाता गणधर सुधर्मा थे, उनसे २२० वर्ष पश्चात ११ अंग शास्त्रों का ज्ञान भी लुप्त हो गया। अंतिम अङ्ग शास्त्रों के ज्ञाता के कंसाचार्य माने जाते । मात्र आचारांग के ज्ञाता लोहिताचार्य थे जो ११८ वर्ष वाद हुए। इस प्रकार ६२+१०० + १८३+२२०+११८=६८३ अर्थात् वीर निर्वाण की सातवीं शताब्दी तक सारा आगम साहित्य लुप्त हो गया । उस समय मात्र दृष्टिवाद नामक बारहवें अंग के कुछ अंश आचार्य धरसेन को स्मरण थे । उन्होंने प्रथम शताब्दो में गिरनार पर्वत को चन्द्रगिरि गुफा में इन्हें लिपिबद्ध किया । उन्होंने इस काम में अपने दो विद्वान शिष्यों पुष्पदेव और भूतवृलि की सहायता ली। उन्होंने जिस विशाल ग्रंथ का सम्पादन किया उसका नाम महाबन्ध है जिसे षट खण्डागम भी कहते हैं । इसके अतिरिक्त दिगम्बर परम्परा तत्वार्थ सूत्र, कषाय पाहुड़, गोम्मटसार, प्रवचनसार, नियमसार, वासुनंदी श्रावकाचार तिलोयपणत्ति आदि ग्रंथों का आधार प्राचीन आगमों को मानती है । दिगम्बर सम्प्रदाय के प्रसिद्ध आचार्यों में उमास्वाती, अकलंक, विद्यानंदी कुन्दकुन्द सुमन्तभद्र, और वसुनन्दी के नाम उल्लेखनीय है । चौदह पूर्वो का परिचय भगवान महावीर के समय में अङ्ग और उपाङ्ग साहित्य के अतिरिक्त पूर्व साहित्य भी विद्यमान था जिसका विस्तृत वर्णन नंदी सूत्र में उपलब्ध है। वर्तमान में इस अनुपलब्ध साहित्य का संक्षिप्त परिचय इस प्रकार है । क्रमांक नाम पूर्व पद संख्या १. २. ३. उत्पाद अग्रायणीय वीर्य प्रवाद एक करोड़ पद छियानवे लाख पद सत्तर लाख पद विषय द्रव्य और पर्यायों की उत्पत्ति सब द्रव्यों और जीवों की पर्यायों का परिमाण । सुकर्म और अकर्म जीव तथ। पुद्गलों की शक्ति | [ छत्तीस ] Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४. अस्तिनास्ति प्रवाद साठ लाख पद धर्मास्तिकाय आदि वस्तुएं स्व-रूप से हैं पर-रूप से नहीं। इसमें स्यादवाद के सिद्धांत कार्भी विस्तृत विवेचन था। ५. ज्ञान प्रवाद एक करोड़ पद मति आदि पांच ज्ञानों का स्वरूप भेद प्रभेद ६. सत्य-प्रवाद एक करोड़ ६ पद सत्य, संयम और प्रतिपक्ष में असत्य का निरूपण । ७. आत्म प्रवाद छब्बीस करोड़ विविध नयों की अपेक्षा से जीवन का स्वरूप ८. कर्म प्रवाद या एक करोड़ कर्मों का स्वरूप, भेद प्रभेद आदि समय प्रवाद अस्सी लाख प्रत्याख्यानपद चौरासी लाख व्रत नियम आदि का स्वरूप १०. विद्यानु प्रवाद . एक करोड़ दस लाख विविध प्रकार की आध्यात्मिक सिद्धियां और उनके साधन की प्रक्रिया ११. अवन्ध्य . छब्बीस करोड़ ज्ञान, तप संयम आदि और शुभ कर्मों एवं अशुभ या कल्याण कर्मों का फल १२. प्राणायु एक करोड़ इन्द्रियों, श्वासोछ्वास, मन प्राणों और आयुष्य छप्पन लाख आदि का वर्णन १३. क्रिया विशाल नौ करोड़ का यिक, वाचिक आदि शुभ अशुभ क्रियाएं १४. लोक बिन्दुसार वारह करोड़ इस में लब्धियों का स्वरूप आदि का विवेचन । पचास लाख श्वेताम्बर व दिगम्बर ग्रंथों में पद संख्या लगभग एक समान है। पूर्वाश्रित साहित्य पूर्व साहित्य लुप्त होने के बावजूद ऐसी मान्यता है कि पूर्वो के कुछ अंशों से कुछ ग्रंथों का निर्माण हुआ। ऐसे साहित्य को नियू हित (णिज्जूहिय) कहा जाता है। डा० इन्द्र चन्द्र शास्त्री ने श्री उपासक दशाङ्ग सूत्र के पृष्ठ १० पर इस साहित्य की कुछ सूची प्रस्तुत की है। पाठकों की जानकारी के लिये इसका वर्णन करना जरूरी हैप्रन्थ का नाम पूर्व का नाम उपसर्गहर स्तोत्र अज्ञात ओह णिज्जुत्ति (ओघ नियुक्ति) | प्रत्याख्यान प्रवाद कम्म पयडी कर्म-प्रवाद (कर्म-प्रकृति) प्रतिष्ठा-कल्प विद्यानुप्रवाद स्थापना-कल्प अज्ञात । । । । । । - -- - - ..... (संतीस) Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । । । । । । । । । । । । । । । । सिद्ध प्राकृत अग्रायणीय पज्जोयकप्प अज्ञात धम्म पण्णत्ति - प्रात्म-प्रवाद वक्क शुद्धि सत्य-प्रवाद दशवकालिक का द्वितीय अध्ययन प्रत्याख्यान प्रवाद परीसह अज्झयण कर्म-प्रवाद पंच कप्प अज्ञात दशाश्रुत, कल्प, व्यवहार प्रत्याख्यान प्रवाद १४. महाकप्प प्रज्ञात निशीथ प्रत्याख्यान प्रवाद नयचक्र ज्ञान-प्रवाद सयग अज्ञात . पंचसंग्रह अज्ञात सत्तरिया (कर्मग्रन्थ) कर्म प्रवाद २०. महाकर्म प्रकृति प्राकृत कर्म प्रवाद कषाय प्राभूत अग्रायणीय २२. जीव समास अज्ञात यह माना जाता है कि चौदहवां पूर्व दृष्टिवाद १२ अंग का भाग था । आगम-साहित्य वर्तमान में जो आगम साहित्य उपलब्ध है, कुछ नन्दी सूत्र में वणित समस्त आगम साहित उस रूप में उपलब्ध नहीं होता जैसा किनन्दी सूत्र व अन्य ग्रन्थों में वर्णित है । जैन ग्रन्थों का वर्तमान संस्करण गणधरों द्वारा व उनके शिष्यों द्वारा संकलित है । जिसे गणि-पिटक भी कहते हैं । जैन परि भाषा में तीर्थङ्कर, गणधर तथाश्रत केवली प्रणीत शास्त्रों को आगम कहते हैं । जिस ज्ञान का मूल स्रोत तीर्थङ्कर भगवान हैं, आचार्य-परम्परा के अनुसार जो श्रुत-शान आया है अथवा आ रहा है वह आगम अथवा आप्त वचन कहलाता है । श्री नन्दी सूत्र में सम्यक् श्रुत के अन्तर्गत प्रागमों की गणना इस प्रकार की गई है १२ गणिपिटक-(१) आचारोग, (२) सूत्र कृतांग, (३) स्थानांग (४) समवायाङ्ग (५) व्याख्या - प्रज्ञप्ति, (६) ज्ञाता-धर्म कथांग, (७) उपासकदशांग, () अन्तकृद्दशांग, (६ अनुत्तरोपपातिक दशांग, (१०) प्रश्न व्याकरण, (११) विपाक सूत्र, (१२) दृष्टिवाद । आवश्यक व्यतिरिक्त श्रुत दो प्रकार का है-१. कालिक और २. उत्कालिक । (अठत्तीस) Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्कालिक भूत - १. दशवेकालिक, २. कल्पकल्प, ३. चुल्ल कल्पश्रुत, ४. महाकल्प श्रुत, ५. औपपातिक, ६. राजप्रश्नीय, ७ जीवाभिगम, ८ प्रज्ञापना, ६. महाप्रज्ञापना, १०. प्रमादाप्रमाद, ११. नन्दी, १२. अनुयोग द्वार, १३. देवेन्द्र स्तव, १४. तन्दुल वैचारिक, १५. चन्द्र विद्या, १६. सूर्य प्रज्ञप्ति, १७. पोरुषी मण्डल, १८. मण्डल प्रवेश, १६. विद्याचरण निश्चय, २०, गणि- विद्या, २१. ध्यान-विभक्ति, २२. मरण- विभक्ति, २३. आत्म-विशुद्धि, २४. वीतरागश्रुत, २५. संलेखना - श्रुत, २६. विहार-कल्प, २७, चरण-विधि, २८ आतुर प्रत्याख्यान, २६. महाप्रत्याख्यान | २. जिस श्रुत का रात्रि व दिन के प्रथम व अन्तिम प्रहर में स्वाध्याय किया जाता है वहा श्रुत है जो कालिक से भिन्न काल में पढ़ा जाए वह उत्कालिक श्रुत है । कालिक धुत - १. उत्तराध्ययन, २. दशाश्रु त-स्कन्ध, ३. कल्पबृहल्कल्प, ४. व्यवहार, ५. निशीथ, ६. महानिशीध ७ अभिभाषित, ८ जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति, ५. दीप सागर प्रज्ञप्ति, १०. चन्द्र प्रज्ञप्ति, ११. क्षुद्रिका विमान प्रविभक्ति, १२. महल्लिका विमान प्रविभक्ति, १३. अंग चूलिका १४. वर्ग चूलिका, १५. विवाह चूलिका, १६. अरुणोपपात, १७. वरुणोपपात, १८. गरुडोपयात १६, धरणोपपात २० वैश्रमणोपपात २१. वेलन्धरोपपात, २२. देवेन्द्रोपपात, २३. उत्थान - श्रुत, २४: समुत्थान श्रुत, २५ नाग परिज्ञापनिका, २६. निरयावलिका, २७. कल्पिका, २८. कल्पावर्तसिका, २६. पुष्पिता, ३० पुण्पचूलिका, ३१. वृष्णिदशा । इस विस्तृत सूची में उल्लिखित काफी आगम, कालिक, उत्कालिक ग्रन्थ अनुपलब्ध है । दृष्टिवाद तो पूरी तरह अनुपलब्ध है । नन्दी सूत्र में द्वादशांगी के विषय एवं आकार की विस्तृत चर्चा है। प्राचीन काल में द्वादश अङ्गों का श्वेताम्बर व दिगम्बर परम्परा में इस प्रकार का पद प्राकार माना जाता था १. आचारांग २. सूत्र कृतांग ३. स्थानांग ४. समयावयांक ५. भगवती सूत्र ६. ज्ञाता धर्म कथांग ७. उपासक दर्शाग च. अन्तकृद्दशांग ६. अनुत्तरोपपातिक श्वेताम्बर पद १८००० ३६००० ७२००० १४४००० २२२००० ५७६००० ११५२००० २३०४००० ४६०२००० (उनतालीस ) दिगम्बर पद १८००० ३६००० ४२००० १६४००० २२२००० ५५६००० ११७०००० २३२२००० ६२४४००० Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०. प्रश्न- व्याकरण ११. विपाक १२. दृष्टिवाद २१६००० १८४३२००० २४ पूर्वी की पद संख्या ६३१६००० १२४००००० आगमों का वर्गीकरण जैसे कि पहले बताया गया है कि उपलब्ध आगमों को श्वेताम्बर - परम्परा ही मानती है दिगम्बर नहीं । श्वेताम्बर परम्परा में तीन सम्प्रदाय हैं - १. श्वेताम्बर मूर्तिपूजक, २. श्वेताम्बर स्थानकवासी, ३. श्वेताम्बर तेरापन्थी । श्वेताम्बर मूर्तिपूजकों में श्रागमों की दो परम्परायें मिलती हैं, ८४ आगमों की परम्परा और ४५ आगमों की परम्परा । अधिकतर मुनिराज ४५ आगमों की परम्परा के पक्षधर हैं, शेष दोनों सम्प्रदायों को ३२ आगमों की परम्परा ही मान्य है । श्वेताम्बर परम्परा द्वारा मान्य आगम मान्य ११ अंग - १. आचारांग, २. सूत्र कृतांग, ३. स्थानांग, ४. समवायाङ्ग, ५. व्याख्याप्रज्ञप्ति, ६. ज्ञाता - धर्म - कथांग, ७. उपासक दशांग, ८. अन्तकृद्दशांग, ६ अनुत्तरौपपातिक दशा, १०. प्रश्न व्याकरण, ११. विपाक सूत्र, १२. दृष्टिवाद जो विलुप्त हो चुका है। १२ उपांग १. औपपातिक, २. राजप्रश्नीय, ५. जीवाभिगम, ४. प्रज्ञापना, ५. सूर्य - प्रज्ञप्ति, ६. जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति, ७. चन्द्र प्रज्ञप्ति ४-१२ निरयावलिका, ६. कल्पावतंसिका, १०. पुष्पिका, ११. पुष्पचूला, १२. वृष्णिदशा । १०. प्रकीर्णक १. चतु: शरण, २. आतुर प्रत्याख्यान, ३. भक्त-परिज्ञा, ४. संस्तार, ५. तंडुल वैचारिक, ६. चन्द्र वेधक, ७. देवेन्द्र स्तव, ८. गणिविद्या, ३. महाप्रत्याख्यान १०. वीरस्तव । ६. छेद १. आचार दशा, २. कल्प या बृहत्कल्प, ३. व्यवहार, ४. निशीथ, ५. महानिशीथ, ६. जीतकल्प । दो चूलिका सूत्र - १. नन्दी, २. अनुयोग द्वार । चार मूल सूत्र - १. उत्तराध्ययन, २. दशवेकालिक, ३. श्रावश्यक २, ४. पिण्ड निर्युक्त । १-२-३ इन्हें स्थानकवासी परम्परा स्वीकार नहीं करती । [ चालीस ] Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छेद सूत्रों के नामों में भी भेद उपलब्ध होता है कई स्थानों पर पिण्ड-नियुक्ति की जगह ओघनियुक्ति मिलता है इसी तरह छेद सूत्रों में पंच कल्प को इस वर्ग में रखा गया है। स्थानकवासी व तेरहपंथी परम्परा प्रकीर्णक महानिशीथ व जीतकल्प को नहीं मानती। श्वेताम्बर जैन आगमों की भाषा अर्धमागधी है जो उस समय जन सामान्य की भाषा रही है और भारत की अनेकों भाषाओं की जननी भी यही अर्धमागधी प्राकृत है। दिगम्बर ग्रंथों की भाषा महाराष्ट्री प्राकृत है जो दक्षिण भारतीय भाषाओं की जननी है। अपभ्रश साहित्य के जनक तो जैन आचार्य ही रहे हैं। प्राचीन जैन साहित्य कन्नड़ और तमिल, भाषाओं में भी उपलब्ध है। उत्तर व पश्चिम भारत में श्वेताम्बर जैन परम्परा फली फूली है, तो दक्षिण व मध्य भारत में दिगम्बर पर म्परा का प्रमुख स्थान रहा है। निरयावलिका सूत्र आगमों के लेखन-काल से ही आगमों पर आचार्यों ने टीका, नियुक्ति, भाष्य, व टब्बा ग्रन्थों की रचना की है, अकेले उत्तराध्ययन सूत्र पर अनेकों संस्कृत टीकायें टब्बा एवं गीत, उपलब्ध होते हैं । भद्रबाहु स्वामी रचित कल्प सूत्र पर सर्वाधिक टीकायें, भाष्य, टब्बे प्राप्त होते हैं। संस्कृत टीकाकारों में प्रमुख नाम हैं शीलांकाचार्य, अभयदेव सरि, मलयगिरि, हेमचन्द्राचार्य, आदि । भाष्यकारों में आचार्य जिनभद्र का नाम प्रमुख है। नियुक्ति कार के रूप में आचार्य भद्रबाहु स्वामी का नाम प्रसिद्ध है। निरयावलिका के प्रथम वर्ग का नाम निरयावलिका है। यहां इसे स्वतन्त्र उपाङ्ग नहीं बताया गया। इसके विपरीत नंदीसूत्र में उपाङ्गों को चर्चा में इन पांचों को स्वतन्त्र उपाङ्ग माना यया है । नन्दीसूत्र की सूचना काफी प्राचीन है। कोई कारण नहीं लगता कि नन्दीसूत्र की बात को न माना जाए। .. निरयावलिका का दूसरा नाम "कल्पिता" आया है। यह बात भी ध्यान देने योग्य है। निरयावलिका समेत सभी उपाङ्गों के ५२ अध्ययन हैं । डा. नलिनी वलवीर पैरिस विश्वविद्यालय लिखती हैं—नियम यह है कि प्रथम अध्याय की कथा सम्पूर्ण रूप से दी गई है। दूसरे पध्यायों की कथाएं अलग अलग नहीं हैं । पात्र और स्थान के नाम ही बदले गये हैं और इन कथाओं के केवल संकेत दिये गये हैं। _सभी उपाङ्गों का पहला अध्ययन ही तो विस्तृत है, शेष संक्षिप्त (सिवाय तृतीय वर्ग के वहाँ दो अध्ययन विस्तृत हैं) ये उपाङ्ग कथा-प्रधान श्रुत स्कन्ध हैं। हम इन उपाङ्गों का संक्षिप्त विवेचन करने का प्रयास करते हैं। [इकतालीस] Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम उपाङ्ग निरयावलिका सूत्र है। यह सभी उपाङ्गों से बड़ा है। पर इसमें एक ही अध्ययन है। कुल १० अध्ययन हैं। प्रस्तुत आगम का नाम निरयावलिका है । निरय का अर्थ नरक और आवलिका का अर्थ है पंक्तियां, अर्थात् नरक-पंक्तियों में गये प्राणियों का विवरण । परन्तु निरयावलिका अपने आप में स्वतन्त्र उपाङ्ग नहीं है, न ही इसमें वणित उपांगों के सभी प्राणो नरक में गये हैं। यह बात शोध का विषय है कि पांचों उपाङ्गों को निरयाकलिका के अन्तर्गत क्यों रखा गया? हो सकता है कि यह उपाङ्ग आकार में छोटे हों। किन्तु ये सभी स्वतंत्र ग्रन्य हैं, पर प्राचीन काल से इन्हें इकट्ठा लिखा जाता रहा है । निरयावलिका सूत्र के आरम्भ में जिन पाँच वर्गों के नाम आये हैं वह चिन्तनीय है। आचार्य सुधर्मा के शिष्य जंबू स्वामी जब निरयावलिका सूत्र का अर्थ पूछते हैं तो उन्हें उत्तर मिलता है कि निरयावलिका सूत्र में पांच वग हैं, प्रथम १० अध्ययनों में कोणिक और उसके भाइयों का वर्णन है। मगध-सम्राट श्रेणिक बिम्बसार का पुत्र अजात शत्रु कोणिक था जो, बहुत लालची वृत्ति का था। उसकी माता चेलना भगवान महावीर की श्राविका थी। प्रस्तुत सूत्र में कोणिक व उसके नाना राजा चेटक के मध्य वैशाली में हुए युद्ध का वर्णन है। भगवान महावीर चम्पा पधारते हैं तो श्रेणिक की रानी काली अपने पुत्र काल कुमार के विषय में पूछती है - "भगवन ! रथ मूसल संग्राम में मेरा पुत्र विजयी होगा या नहीं? वह जीवित लौटेगा या मर जाएगा?" सर्वज्ञ प्रभु महावीर ने उत्तर दिया ' 'महारानी ! तरा पुत्र अपने नाना चेटक से लड़ता हुआ उन्हीं के वाण से वीर-गति को प्राप्त हो चुका है।" .प्रभु के मुखारविंद से पुत्र की मृत्यु का वर्णन सुनकर रानी काली को घोर आघात पहुंचा। वह मूर्छित हुई और कुछ देर बाद वापिस लौट गई। - गौतम स्वामी ने काल कुमार आदि सभी राज कुमारों का भविष्य पूछा। भगवान महावीर ने उत्तर दिया कि वे काल कुमार आदि सभी राजकुमार मर कर चतुर्थ पंकप्रभा नरक में पैदा हुए हैं। प्रभु ने कोणिक के जन्म के बारे में और युद्ध का कारण बताते हुए कहा- "हे गौतम ! इसी राजगृही नगरी में राजा श्रेणिक राज्य करते थे। उनकी रानी नन्दा के यहां एक अभय कुमार नाम का राज कुमार था जो बुद्धिमान और राजा का प्रधान मन्त्री भी था। श्रेणिक की दूसरी रानी चेलना ने एक रात्रि गर्भ अवस्था में सिंह का स्वप्न देखा । स्वप्न पाठकों ने उसका फल पुत्र की प्राप्ति बताया। गर्भ के तीन मास व्यतीत होते ही रानी चेलना को दोहला (गर्भस्थ काल की इच्छा) उत्पन्न हुआ कि वे मातायें धन्य हैं और भाग्यशाली हैं जो अपने पति के कलेजे का मांस खाती हैं और साथ में मदिरा पान करती है । दोहला जैन साहित्य का परिभाषिक शब्द है जिसे 'दोहद' भी कहते हैं जिसका अर्थ है कि गर्भवती स्त्री को तीसरे मास में जो इच्छा उत्पन्न (वयालीस) Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ होती है वह उसकी नहीं होती, उसके गर्भस्थ जीव की होती है। उसी दोहद से गर्भस्थ जीव के गूण व अवगुणों का आकलन होता है। जैन ग्रन्थों में हजारों कथाओं में अनेक बिचित्र दोहदों का वर्णन है। मान्यता है कि अगर इस दोहद को पति पूर्ण न करे तो स्त्री अस्वस्थ्य रहनी शुरू हो जाती है। रानी चेलना का दोहला विचित्र ओर कभी पूरा न होने वाला था। कैसे राजा श्रेणिक ने अपने पुत्र मन्त्री अभय कुमार की सहायता से इसे पूर्ण किया ? इसका वणन इस अध्ययन में है। चेलना विशद्ध शाकाहारी और दयालु स्वभाव की स्त्री थी । चेलना ने गर्भस्थ जीव की इच्छा को तो जैसे तैसे पूरा किया गया। पर साथ में जो उसका प्रायश्चित्त किया गया, वह भी अभूत पूर्व था। उसने पहले तो गर्भ को नष्ट करने के अनेक प्रयत्न किये, पर वह असफल रही। चेलना के मन में अपने गर्भस्थ जीव के प्रति बहुत ग्लानि भरी हुई थी। वह हर समय सोचतो रहती थी कि यह कैसा जीव मेरे गर्भ में है जो पैदा होने से पहले ही पिता के कलेजे का मांस व शराब चाहता है। ___अतः कोणिक का जब जन्म हुआ तो रानी चेलना ने उसे गुप्त रूप से एक दासी के हाथों कूड़े के ढेर पर फिकवी दिया। यहां उसकी करुणा का पता चलता है । अगर चेलना हिंसक होती है तो इस बालक को पैदा होते ही मार सकती थी। गंदगी में पड़े बालक को राजा श्रेणिक ने देखा। उस बालक की अंगली मुर्गे ने काट खाई थी। श्रेणिक ने बालक को उठाया, अपने कलेजे से लगाया । फिर राजा श्रेणिक ने अपनी पत्नी का उपालम्भ भरे शब्दों प्रताड़ित किया । अंगुलि कटी होने के कारण बालक की अंगुली से मवाद बहने लगा। इस गन्दगी को श्रेणिक अपने मुख से चूसता और थूक देता ताकि बालक को पीड़ा से मुक्ति मिले । को णिक के सभी संस्कार किये गये । कोणिक युवा हुआ तो पिता ने आठ राज-कन्याओं के साथ उसका विवाह कर दिया। समय बीतता गया। एक रात्रि कोणिक के मन में अशुभ विचार उत्पन्न होते हैं कि मैं पिता के होते हुए राजश्री का सुख नहीं भोग सकता। मुझे राजा कोणिक को कारागार में डाल कर स्वयं गद्दी पर बैठ जाना चाहिये।'' इस साजिश में उसने अपने काल कुमार आदि भाइयों को भी सम्मिलित कर लिया। राजा श्रेणिक को कारागार में डाल दिया गया। राज्य को कोणिक ने ११ भागों में बांटने का निश्चय किया। एक दिन कोणिक वस्त्रालंकारों से विभूषित हो अपनी माता चेलना को वन्दन करने के लिये आया। उसकी माता अपने पुत्र को उपर्युक्त हरकत से दुखी थी। माता को दुखी देख कर कोणिक बोला-"माता! क्या आपको मेरा राजा बन जाना अच्छा नहीं लगता।" ___माता ने उत्तर दिया-"पुत्र ! मुझे तुम्हारा राज्य-सुख कैसे अच्छा लग लकता है । जब कि तूने अपने उस पिता को कारागार में डाल रखा है, जो तुझे बहुत प्यार करता है । तुम्हें पता नहीं, जब तू गर्भ में था तो मुझे तेरे पिता के उदर का मांस व मदिरा पोने की इच्छा हुई थी। मैं तेरे गर्भ में आने से अप्रसन्न थी, अतः मैंने गर्भ को नष्ट करने के प्रयत्न किये, पर सब व्यर्थ रहे। जब तुम्हारा जन्म हुआ तो मैंने तुझे कूड़े के ढेर पर फिकवा दिया जहां तेरी अंगुली को मुर्ग ने काट (ततालीस) Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लिया था। तुम्हारे पिता ने तुम्हें कुरड़ी से उठा कर राज महलों में रखा । तुम्हारी अंगुली की पीड़ा को कम करने के लिये तुम्हारे पिता तुम्हारी अंगुली के खून एवं मवाद को चुस कर थूक देते थे तुम्हारे पालन-पोषण में उन्होंने कोई कमी नहीं रखी। उस देवगुरु तुल्य पिता को तुमने कारागार में डाल दिया है, बताओ फिर तुम्हारी राजश्री का मुझे क्या सुख हो सकता है ?" माता की बात का कोणिक पर बहुत प्रभाव पड़ा, वह उसी समय एक परसा लेकर पिता के बन्धन तोड़ने दौड़ा। राजा श्रेणिक ने समझा की यह दुष्ट मुझे कागगार में रख कर मन नहीं भरा । अब यह मुझे परसे से मारना चाहता है। मेरे लिये अब यही श्रेस्कर है कि मैं ताल- कूट विष को खा लूं । कम से कम अपमान की मृत्य से तो बचा रहूंगा ।" श्रेणिक ने ताल -पुट विष चाट कर अपनी जीवन लीला समाप्त कर दी। कोणिक ने सम्मान सहित पिता का अग्नि संस्कार किया । पिता की मृत्यु का कोणिक को बहुत दुःख हुआ । वह पिता की मृत्यु का स्वयं को जिम्मेवार मान कर दुखी रहने लगा। राजगृही उसे काटने को दौड़ती थी । प्रत उसने अपनी राजधानी चम्पा को बनाने का निश्चय किया । श्रेणिक की मृत्यु के बाद राज्य को ११ भागों में बांटा गया। सभी भ्राता सुखपूर्वक रहने लगे । इसी नगरी में रानी चेलना का पुत्र बेहल्ल कुमार भी रहता था। राजा श्रेणिक ने अपने जीवन काल में उसे अठारह लड़ियों वाला एक बहुमूल्य हार और एक गन्धहस्ती प्रदान किया था । बेहल कुमार इस हार को पहन कर इस गन्धहस्ती पर विभिन्न मनोरंजन करता । यह हाथी गंगा नदी में उतर जाता । वेहल्ल कुमार की रानियों को सूंड से पकड़ कर पीठ पर बिठलाता, स्नान करवाता । इस तरह यह गन्धहस्ती अनेकों प्रकार की क्रीड़ायें करते हुए बेहल्ल कुमार एवं उसके परिजनों से क्रीड़ाये करता था । कोणिक की पत्नी पद्मावती को बेहल्ल कुमार का सुख अच्छा न लगा । वह सोचने लगी कि - "बेहल्ल कुमार साधारण राजकुमार होते हुए भी विपुल सुख भोग रहा है । मेरा पटरानी होना बेकार है, अगर मेरे पास यह दोनों वस्तुयें न हों। पद्मावती ने यह बात अपने पति कोणिक से कही। पहले तो कोणिक ने पत्नी की बात पर विशेष ध्यान न दिया। पर पत्नी के विशेष आग्रह के सामने वह झुक गया। उसने वेहल्ल कुमार से हाथो व अठारह लड़ियों वाले हार की मांग की । वेहल्ल कुमार ने कहा - " अगर आप मुझे आधा राज्य दे दें तो मैं आपको दोनों वस्तुएं दे सकता हूं।" कोणिक ने यह प्रस्ताव ठुकरा दिया। वेहल्ल कुमार ने चम्पा नगरी छोड़ने का निर्णम किया । वह अपने परिवार समेत अपने नाना वैशाली गणराज्य प्रमुख चेटक की शरण में चला गया। कोण की जिद्द बढ़ती गई, राजा चेटक श्रावक था । कोणिक ने अपने नाना चेटक के यहाँ दूत भेजा। उसने अपने नाना चेटक से वेहल्ल कुमार, गंध-हस्ती व अठारह लड़ियों वाले हार की वापसी की बात कही । राजा चेटक ने शरणागत वेहल्ल कुमार का पक्ष लिया। चेटक का संदेश दूत लेकर चम्पा ( चौबालीस) Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नगरी में पाया । कोणिक क्रोध से भर गया। उसने दूसरा दूत भेजा। दूत ने कहा-"चेटक राजा ! मेरे स्वामी का आदेश है कि या तो आप तोनों वस्तुयें उन्हें लोटा दें, नहीं तो युद्ध के लिए तैयार हो जायें।" शरणागत की रक्षा करने वाले राजा चेटक ने कोणिक के द्वारा दो गई यद्ध की चुनौती को स्वीकार कर लिया। उसने अठारह मल्ल, काशो, कौशल गणराज्यों से विचार-विर्मश किया सभी ने शरणागत की रक्षा करने का समर्थन किया। वैशाली के मैदान में घमासान युद्ध हुआ । कोणिक के १० भाई व राजा चेटक समेत अनेक योद्धा इस युद्ध में मारे गये। इस प्रथम वर्ग के १० अध्ययनों में इन राजकुमारों के युद्ध में मर कर नरक में जाने का वर्णन है । इस युद्ध का वर्णन भगवती सूत्र में भी मिलता है । अनुत्तरौपपालिक सूत्र में वेहल्ल कुमार और वेहायस कुमार को चेलना का पुत्र बताया गया है। हल्ल को धारिणी का पुत्र निरयावलिका वृत्ति और भगवती वत्ति में हल्ल और बेहल्ल को चेलना का पुत्र कहा गया है। लगता है कोणिक ने हल्ल-वेहल्ल को राज्य में से कोई हिस्सा नहीं दिया था, क्योंकि जैन आगमों में राजा श्रेणिक के ३६ पुत्रों का वर्णन उपलब्ध होता है, जिनमें से २३ ने दीक्षा ग्रहण की थी। निरयावलिका में श्रेणिक के १० पुत्रों के नरक में जाने का वर्णन है। आगमों में राजा श्रेणिक की २३ रानियों का वर्णन है जो श्रेणिक को मृत्यु के पश्चात् साध्वी बन गई थीं। ___ वर्तमान श्रमण संघीय आचार्य श्री देवेन्द्र मुनि जी शास्त्री ने वैशाली के विनाश का कारण बौद्ध साहित्य से भी उद्धृत किया है. परन्तु घटना - क्रम में काफी अन्तर है। बौद्ध साहित्य में कोणिक के दोहद की बात व पुत्र-प्रेम का तो वर्णन मिलता है। पर अजात शत्र कोणिक द्वारा अपने पिता को विभिन्न यातनायें देने का वर्णन नहीं है। बौद्ध साहित्य में अजात शत्रु का ऐसा बहुत कम वर्णन है। बौद्ध साहित्य में युद्ध का कारण रत्नराशि है। युद्ध कितने समय तक चला, इसके बारे में कुछ स्पष्ट नहीं है। कल्पावतंसिका कल्प शब्द का प्रयोग सौधर्म से अच्युत तक बारह स्वर्ग लोकों के लिये किया जात है। देवों में उत्पन्न होने वाले जीवों का जिस ग्रन्थ में वर्णन है वही कल्पावंतसिका है। निरयावलिका सूत्र में जिन १० काल कुमार आदि का वर्णन है उन्हीं के सूत्रों (श्रेणिक के पौत्रों) का इस उपाङ्ग में वर्णन है । सभी उग्र तप द्वारा पण्डित-मरण-समाधि-मरण को प्राप्त होते हैं। महाव्रत धारण करने का फल इस उपाङ्ग का सार है । इन राज कुमारों के नाम हैं। (१) पद्म, (२) महापद्म, (३) भद्र, (४) सुभद्र; (५) पद्मभद्र, (६) पद्मसेन, (७) पद्मगुल्म, (८) नलिनी गुल्म, (६) आनन्द, (१०) नंदन । पहले अध्ययन में बतलाया गया है कि भगवान महावीर के समय चम्पा नगरी में कोणिक नाम का राजा राज्य करता था। उसकी विमाता काली का पुत्र काल था। काल की पत्नी ( पैतालीस ) Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पद्मावती थी । वह रानी सुनग व सुकोमल थी। एक बार अर्ध रात्रि में उगने सिंह का स्वप्न देखा। स्वप्न-पाठकों से स्वप्न का फल जान कर वह बहुत प्रसन्न हुई। उसके यहां एक पुत्र-रत्न का जन्म हुआ जिसका नाम पद्म कुमार रखा गया। यौवन अवस्था में उसका आठ कन्याओं के साथ पाणि ग्रहण हुआ। एक बार श्रमण भगवान महावीर चम्पा नगरी में पधारे । प्रभु का उपदेश सुन कर वह मुनि बन गया। उत्कृष्टतम साधना के कारण उसका शरीर सूख गया। उसने विपुल गिरि पर समाधि-मरण प्राप्त किया। वह पद्म कुमार सुधर्म कल्प देवलोक में उत्पन्न हुआ। इस तरह का वर्णन शेष : राजकुमारों का भी है। इनके नाम इनको माताओं से मिलते थे। सभी विभिन्न देवलोकों की आयु पूर्ण कर महाविदेह क्षेत्र में उत्पन्न होकर सिद्ध, बुद्ध, मुक्त होंगे। तृतीय वर्ग पुष्पिका इस वर्ग के दस अध्ययन हैं जिनके नाम क्रमश: इस प्रकार हैं- .. (१) चन्द्र, (२) सूर्य, (३) शुक्र, (४) बहुपुत्रिका, (५) पूर्णभद्र, (६) मानभद्र, (७) शिव, (८) दत्त, (६) बल, (१०) अनादृत । प्रथम अध्ययन में चन्द्र देव के प्रभु महावीर के समवसरण में दर्शनार्थ आने का वर्णन है। यह चन्द्र अपनी देवऋद्धि प्रदर्शित करता है—नाटक करता है। गणधर गौतम चन्द्र के पूर्व भव का वर्णन पूछते हैं तो इस अध्ययन में चन्द्रदेव के पूर्व जन्म का वर्णन है। कैसे वह अंगति श्रावक के रूप में प्रभु पार्श्व के पास प्रवज्या ग्रहण करता है। दूसरे अध्ययन में सूर्य देव के दर्शन करने और नाट्य विधि दिखाने का वर्णन है। साथ में उसके पूर्वभव के रूप में बताया गया है कि वह श्रावस्ती नगरी का सुप्रतिष्ठ श्रावक था। उसने भी संयम ग्रहण किया। चन्द्र व सूर्य दोनों संयम की विराधना करते हैं। तीसरे अध्ययन में महाशुक्र ग्रह का वर्णन है । वह पूर्व जन्म में वाराणसी नगरी का सोमिल नाम का ब्राह्मण था। वह वेद-शास्त्रों में निष्णात था। एक बार भगवान श्री पार्श्वनाथ वहां पधारते हैं। वह भगवान श्री पार्श्वनाथ से उसी प्रकार के प्रश्न पूछता है जैसे भगवान महावीर के समय में सोमिल नाम के ब्राह्मण ने भगवती सूत्र १८ शतक के १० उद्देश्य में पूछे थे। शंकाओं का समाधान हो जाने पर वह श्रावक-धर्म ग्रहण कर लेता है । कुछ समय बीत जाने पर और महाव्रती साधुओं के दर्शन न होने कारण सोमिल फिर मिथ्यात्वी हो जाता है । उस रात्रि में उसके मन में एक संकल्प उत्पन्न होता है कि-"मैं वाराणसी का ब्राह्मण हूं। मैंने अनेको यज्ञ, हवन किये, विवाह किया। गृहस्थ के योग्य सभी कार्य किये। अब मुझे वाराणसी में आम, बिजौरा, बेल, कैथ, इमली और फूलों के बाग लगाने चाहिये । अपने विचारों को सोमिल ने क्रियान्वित किया। उसके बाग वाराणसी में प्रसिद्ध हो गये। . (छियालीस) Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अब सोमिल तापस बनने का संकल्प करता है वह बहुत से लोहे के कड़ाहे, कड़छियां और तापसों के तांबे के बर्तन बनवा कर तापस बन जाता । दीक्षा से पहले वह परिजनों को भोजन करवा कर उनका वस्त्र आदि से स्वागत करता है, फिर बड़े पुत्र को गृह-भार संभाल कर गंगा तट परतापस उपकरणों सहित आ जाता है। प्रस्तुत कथानक में अनेक प्रकार के तापसों का विवरण हमें प्राप्त होता है। उनमें से कुछ प्रमुख इस प्रकार हैं : 1 १. केवल एक कमण्डल धारण करने वाले, २. केवल फल खाने वाले, ३. एक वार जल में डुबकी लगाकर तत्काल बाहर निकलने वाले ४ बार-बार जल में डुबकियां लगाने वाले, ६. जल में भी गले तक डुबकी लगाने वाले, ६. वस्त्रों, पात्रों और देह को प्रक्षालित रखने वाले, ७. शंख-ध्वनि कर भोजन करने वाले, ८. सदा खड़े रहने वाले, ६. मद्य मांस भक्षण करने वाले, १०. हाथी का माँस खाकर जीने वाले, ११. सदा ऊंचा दण्ड किये रहने वाले, १२ बल्कल वस्त्र धारण करने वाले । १३. सदा पानी में रहने वाले १४. सदा वृक्ष के नीचे रहने वाले, १५. केवल जल पर निर्भर रहने वाले, १६: जल के ऊपर रहने वाली शैवाल खाकर जीवन चलाने वाले, १७. वायु-भक्षण करने वाले, १८. वृक्ष -मूल का अहार करने वाले, १६. वृक्ष की छाल का आहार करने वाले, २०. केवल कन्द का आहार करने वाले, २१. वृक्ष के पत्तों का आहार करने वाले ३१. पुष्पों का आहार करने वाले, २३. बीजों का आहार करने वाले, २४. स्वतः दूर रह कर गिरे हुए पत्रों, पुष्पों, फलों का आहार करने वाले, २५. फेंका हुआ आहार ग्रहण करने वाले, २६. सूर्य की आतापना लेने वाले, २७. कष्ट सहनकर शरीर को पत्थर सा कठोर वनाने वाले, २८. पंचाग्नि तप करने वाले, २६. गर्म बर्तन पर शरीर को परितप्त करने वाले आदि । श्रीपपातिक सूत्र ' में भी तापसों का वर्णन प्राप्त होता है । सोमिल ब्राह्मण भी दिक्प्रोक्षक तापस • बना और वह तापसों द्वारा किये जाने वाले विभिन्न प्रकार के तप करने लगा। उसने प्रतिज्ञा की कि जहां कहीं मैं गड्ढे में गिर जाऊंगा, मैं वहीं प्राण त्याग दूंगा। फिर उसने मुख पर काष्ठ- मुद्रा बांधी और उत्तर दिशा की ओर गया। पहले दिन अशोक वृक्ष के नीचे बैठकर होम किया। वहीं एक देवता ने प्रकट होकर वहा - "सोमिल ! तुम्हारी प्रवज्या दुष्प्रवज्या है ।" पांचों दिन उसे भिन्नस्थानों पर यही देव वाणी सुनाई देती रही। पांचवें दिन उसने देवता से पूछा मेरी प्रवज्या सुवज्या कैसे है ? देवता ने कहा - "तू ने अणुव्रत ग्रहण करके उनकी विराधना की है। अब भी समय है कि तुम मिथ्यात्व को त्याग कर पुन: अणुव्रत स्वीकार करो। देवता का कहना सोमिल ने माना और श्रावकत्व की साधना के कारण वह शुक्र देव बना । प्रस्तुत अध्ययन में भगवान श्री पार्श्वनाथ के समय की तापस-परम्परा का ऐतिहासक वर्णन किया गया है। तापस हठयोगी थे, वे हठयोग को ही मोक्ष का साधन मानते थे । भगवान पार्श्वनाथ हठ योग का खण्डन किया । उन्होंने कहा तप के साथ ज्ञान भी आवश्यक है। अज्ञानता में किया तप बाल तप है, वह मोक्ष का कारण नहीं हो सकता । (संतालीस) Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरयावलिका का चतुर्थ अध्ययन बहुत ही मनोरंजक, शिक्षाप्रद अध्ययन है। एक बार श्रमण भगवान महावीर राजगृह के गुणशील चैत्य में पधारते हैं वहां भगवान के समवसरण में बहुपुत्रिका नाम की देवी अपनी दिव्य शक्ति से अपनी दाहिनी भुजा से १०८ देवकुमार और बायीं भुजा १०८ देवकुमारियां उत्पन्न करती है, जैन परिभाषा में इसे विकुर्वणा कहा जाता है । फिर वह इस लीला को लमेट लेतो है वह भोनाट्य-विधि आदि द्वारा अपना ऋद्धि का प्रदर्शन करता है। गणधर गौतम के समक्ष भगवान महावीर ने बड़ रोचक ढंग से उसके भूत वर्तमान और भविष्य का कथन किया है। भगवान महावीर फरमाते हैं किसी समय एक भद्र नाम का सार्थवाह था, उसकी सुभद्रा नाम की पत्नी थी। वह वन्ध्या थी । सन्तान प्राप्ति के लिए वह हर समय भटकतो रहती थो। उसने उपलब्ध सभी उपचार करवाये, पर सन्तान प्राप्त न हो सकी 1 एक बार पंच महाव्रत धारिणी साध्वो सुब्रता जो महाराज उस नगर में पधारों । वे भिक्षार्थ भद्रा के घर गई । भद्रा ने उनका सत्कार, सन्मान कर सन्तान न होने की चिन्ता साध्वी जी के सम्मुख रखी वीतरागी श्रमणा ने जो उत्तर दिया वह सभी वर्तमान साधु-साध्वियों के ध्यान में रखने योग्य है। साध्वा सुत्रता ने कहा - "ऐसा उपाय बताना तो एक तरफ, जैन धर्म में सन्तानउत्पत्ति के बारे में चिन्तन-मनन करना भी पाप है, क्योंकि हर ब्रह्मचारिणो साध्वियां निर्ग्रन्थनी ( जैन साध्वी ) हैं । हम तो जीव, अजीव आदि तत्त्वों का ही धर्म-उपदेश करती हैं। सुभद्रा ब्राह्मणी सुव्रता आर्या से बहुत प्रभावित होती है । जैन साध्वी की चर्या से प्रभावित होकर वह स्वयं संयम अंगीकार कर लेती है, पर सन्तान के प्रति उसका मोह नहीं छूटता । वह बालकों को उबटन, शृंगार, भोजन, स्नान, क्रोड़ा आदि करवा कर मन की सन्तुष्टि करती है। पर यह सब कार्य श्रमणी - जीवनचर्या के प्रतिकूल थे। सुव्रता आर्या ने सुभद्रा श्रमणी को बहुत समझाया । पर वह बालक-बालिकों से अपना मन बहलाती रही। सुभद्रा श्रमणो अब अपनी गुरुणी की बात न मान कर अलग उपाश्रय में रहने लगी। गुरु के उपदेश का उस पर उल्टा प्रभाव पड़ा। वह सोचने लगी - "जब मैं घर पर थी तो स्वतन्त्र थी, अब पराधीन हो गई हूं। तब यह श्रमणियां मेरी बहुत ही इज्जत करती थीं । श्रमणी बनने के बाद तो यह मेरा अपमान कर रही हैं । मार्ग-भ्रष्ट व्यक्ति के लिए सच्चा उपदेश भी प्राण घातक प्रतीत होता है। , अन्त में बिना आलोचना किये वह मर कर सौधर्म कल्प में बहुपत्रिका देवी बनी । भविष्य में वह विभेल नामक सन्निवेश में सोमा ब्राह्मगी के रूप में उत्पन्न होगी। सोलह वर्षों तक विवाहित जीवन में ३२ युगल सन्तानों को जन्म देगी । यह बच्चे उसकी परेशानी का कारण बनेंगे, वह इन बच्चों से दुःखी हो कर पुनः साध्वी-जीवन ग्रहण करेगी। मृत्यु के पश्चात् पुन: देव बनेगी, फिर देव आयु पूर्ण कर महाविदेह क्षेत्र में जन्म लेकर सिद्ध-बुद्ध-मुक्त होगी । बहुपुत्रिका अध्ययन से पता चलता है कि सन्तान का न होना भी बुरा है और सन्तान का अधिक होना उससे भी ज्यादा बुरा [ अठतालीस ] Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है । इस अध्ययन में स्त्री की मनोवैज्ञानिक स्थिति का अच्छा चित्रण किया गया है। पञ्चम अध्ययन में पूर्णभद्र देव व उसके पूर्व भवों क तथा छठे अध्ययन में मणिभद्र व उसके पूर्वभवों का संक्षिप्त वर्णन है । सातवें से दसवें अध्ययनों में दत्त, शिव, बल, अनादृत देवों के पूर्व भवों का वर्णन है । पुष्पचूला इस उपांग में भी दस अध्ययन हैं - १. श्री देवी, २. ही देवी, ३. धृतिदेवी; ४. कीर्ति - देवी; ५. बुद्धि देवी, ६. लक्ष्मी देवी, ७. ईला देवी ८. सुरा देवी, ६. रस देवी और १०. गन्ध देवी । प्रथम अध्ययन में श्री देवी के सौधर्म कल्प देवलोक से आकर प्रभु महावीर को वन्दन करने, नाट्य विधि के प्रदर्शन का वर्णन है। भगवान ने उसका पूर्व भव बतलाते हुए बताया है कि "पूर्व भव में वह सुदर्शन सार्थवाह की भूता नामक कन्या थी जो योवन अवस्था में ही वृद्धा दिखाई देती थी । इसी कारण उसका विवाह कहीं नहीं हो सका । एक बार प्रभु पार्श्व धर्म प्रचार करते हुए, उस नगरी •में पधारे। भूता ने प्रभु का उपदेश सुना और वह साध्वी बन गई । वह पुष्प चूला आर्यिका की शिष्या बनी। भूता साध्वाचार के विपरीत शरीर का हार-शृङ्गार करने लगी। साधना की तरफ उसका कोई ध्यान नहीं था। उसकी गुरुणी ने भूता साध्वी को यह कार्य छोड़ कर आलोचना करने का परामर्श दिया। पर भूता साध्वी को यह अनुकूल परामर्श भी प्रतिकूल लगा । वह रात-दिन शरीर एवं स्थान की जल से शुद्धि करने में ही लगी रहती थी। साध्वाचार के विपरीत कार्य करने कारण वह मर कर सौधम देवलोक में पैदा हुई । शेष नौ देवियों का जीवन-वृत्त भी श्री देवी से बिल्कुल मिलता-जुलता है। सभी पूर्व भव में पुष्पचूला के पास साध्वियां बनीं। सभी को श्रृंगार आदि क्रियायें पसन्द थीं। सभी देवियां देव आयु क्षय कर महाविदेह क्षेत्र से सिद्ध-बुद्ध मुक्त हो गई । वृष्णि दशा इस उपांग के १२ अध्ययन हैं । नन्दी चूर्णि के अनुसार इस उपांग का नाम "अन्धकवृष्णि दशा" है । इस उपांग में वृष्णि वंशीय बारह राजकुमारों का वर्णन है जिनके नाम इस प्रकार हैं- १. निषध कुमार, २. मातली कुमार, ३. वह कुमार, ४. वेह कुमार, ५. प्रगति कुमार, ६. ज्योति कुमार, ७ दशरथ कुमार, ८ दृढ़रथ कुमार, ६, महाधनु कुमार, १०. सप्त धनु कुमार, ११. दशधनु कुमार और १२. शतधनु कुमार । वृष्णिवंश, यदु वंश का दूसरा नाम है । प्रथम अध्ययन में बताया गया है कि प्राचीन काल में २२ वें तीर्थङ्कर भगवान श्री अरिष्टनेमि द्वारिका [ उन्नचास ] Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पधारते हैं । उस द्वारिका के अधिपति श्री कृष्ण वासुदेव थे। उनके भ्राता बलदेव थे । बलदेव की महारानी रेवती के यहां निषध कुमार का जन्म होता है । निषध कुमार को हर प्रकार की शिक्षादीक्षा दी जाती है। एक बार निषध कुमार भी अपने परिजनों के साथ भगवान श्री अरिष्टनेमिं जो के उपदेश सुनता है । निषध कुमार के पूर्व भव के विषय में भगवान श्री अरिष्टनेमि के शिष्य वरदत्त पूछते हैं । भगवान उत्तर में फरमाते हैं - हे वरदत्त ! पूर्वभव में रोहितक नगर में महावल नाम का राजा राज्य करता था। उसकी रानी पद्मावती के वीरांग (वीरांगद) नाम का पुत्र हुआ। वह बहुत सुन्दर था। युवा होने पर वह मनुष्य सम्बन्धी काम भोगों का सेवन करने लगा । एक बार उस नगर में सिद्धार्थ नाम के आचार्य पधारे, उनके उपदेश से वह मुनि बन गया । ४५ वर्षों तक उसने संयम का पालन किया, अन्त समय समाधि-मरण द्वारा मर कर ब्रह्मलोक में देव बना । वहां से आयु पूर्ण करके वह निषध कुमार के रूप में पैदा हुआ है। पूर्व भव में पुण्योपार्जन के कारण वह इस ऋद्धि एवं रूप लावण्य का स्वामी है । कुछ समय बाद निषध कुमार भी भगवान अरिष्टनेमि का शिष्य बन गया । अन्तिम समय उसने जीवन का लक्ष्य निर्वाण प्राप्त किया । इस प्रकार शेष अध्ययनों का वर्णन भी निषध कुमार की तरह समझना चाहिये । इस प्रकार निरयावलिका श्रुत-स्कन्ध समाप्त हुआ । उपांग समाप्त हुए। निरयावलिका उपांग का एक श्रुत-स्कन्ध है, इसके पांच वर्ग हैं, यह पांच वर्ग पांच दिनों में उपदिष्ट करने का विधान है। पहले से चौथे तक वर्गों के १०-१० अध्ययन और पांचवें के १२ अध्ययन हैं । आचार्य श्री देवेन्द्र मुनि जी शास्त्री निश्यावलिका की भूमिका में लिखते हैं कि निरयावलिका के उपसंहार में निरयावलिका की समाप्ति की सूचना दी गई है। पुनः वृष्णि दशा के अन्त में भी निरावलिका के समाप्त होने की सूचना प्राप्त होती है। दो बार एक ही बात की सूचना कैसे दी गई ? इस सूचना में उपांग समाप्त हुए यह भी सूचित किया गया है। इससे यह तो स्पष्ट है कि वर्तमान में पृथक्-पृथक् कल्पिता, कल्पावतंसिका, पुष्पिका, पुष्पचूलिका और वृष्णि - दशा ये पांचों उपांग किसी समय एक ही उपांग के रूप में प्रतिष्ठित थे. । हमारी दृष्टि में यह विषय अभी शोध का विषय है, क्योंकि नन्दी सूत्र में इन पांच उपांगों को अलग परिगणित किया गया है। निरयावलिका के अनुवाद आचार्य श्री देवेन्द्र मुनि जी आगे लिखते हैं " कथा प्रधान होने के कारण निरयावलिका पर न नियुक्तियां लिखी गईं, न भाष्य व चूर्णियों का निर्माण हुआ । केवल श्री चन्द्र सूरि* ने # भूमिका श्री निरावलिका पृष्ठ २६ आचार्य श्री देवेन्द्र मुनि जी शास्त्री । [ पचास ) 4 Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साध्वी सुश्री सुधा जी महाराज Page #70 --------------------------------------------------------------------------  Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - संस्कृत भाषा में निरावलिका, कल्पावंतसिका, पुष्पिका, पुष्पचूला और वृष्णि दशा पर संक्षिप्त और शब्दार्थ स्पर्शी वृत्ति लिखी है । 1 श्री चन्द्रसूरि का ही अपर नाम पार्श्वदेव गणि था, जो शीलभद्र सूरि के शिष्य थे । उन्होंने विक्रम संवत् १९७४ में निशीथ चूर्णि पर दुर्गपद व्याख्या लिखी थी और श्रमणोपासक प्रतिक्रमण, नन्दी, जीत-कल्प, बृहच्चूर्णि आदि पर भी टीकाएं लिखी हैं । प्रस्तुत आगम के प्रारम्भ में आचार्य ने भगवान श्री पार्श्व को नमस्कार किया है। पार्श्वनाथं नमस्कृत्य प्रायोऽन्यग्रन्थस्थिता । निरावति-स्कन्ध व्याख्या काचित् प्रकाश्यते || वृत्ति के अन्त में वृत्तिकार ने न तो अपना नाम दिया है और न गुरु का निर्देश किया है। ग्रन्थ की जो मुद्रित प्रति है उसमें "इतिश्री चन्द्र सूरि विरचित निरयावलिका श्रुत स्कन्ध विवरण समाप्तेति, केवल" इतना ही उल्लेख है । वृत्ति का ग्रन्थ मान ६०० श्लोक प्रमाण है। बड़े लम्बे अन्तराल के पश्चात् आचार्य श्री घासी लाल जी महाराज ने इस पर संस्कृत टीका लिखी है। इस शास्त्र का आगमोदय समिति द्वारा संवत् १६२८ में चन्द्रसूरि की वृत्ति सहित प्रथम - प्रकाशन हुआ। इससे पूर्व सन् १८८४ में आगम संग्रह बनारस से इसका गुजराती विवेचन छपा । १९३२ में श्री पी. एल. वैद्य पूना द्वारा, सन् १६३० में ए. ए. एस. गोपानी और बी. जे. चौकसी का अंग्रेजी अनुवाद छपा था । १९३४ में इसका गुर्जर ग्रन्थ कार्यालय अहमदाबाद से भावानुवाद निकला । वि. सं० १९४५ में आचार्य श्री अमोलक ऋषि जी ने इसका हिन्दी अनुवाद किया । आचार्य श्री आत्माराम जो महाराज ने शुद्ध पाठ के लिये अंग्रेजी अनुवाद व अमोलक ऋषि जी वाले अनुवाद का अनुकरण किया है। ऐसा प्रापने अपनी भूमिका में लिखा है । श्री पुप्फभिक्खु ने १६५४ में ३२ आगमों का शुद्ध पाठ छपवाया । वाचना प्रमुख आचार्य श्री तुलसी जी ने इसका शुद्ध पाठ छपवाया था । अन्य कई स्थानों से इसके हिन्दी अनुवाद व गुजराती अनुवाद छप चुके हैं । इस उपांग का पंजाबी अनुवाद हमारे द्वारा हो चुका है, जो शीघ्र ही प्रकाशित होने वाला है । विदेशों में इस उपांग पर काफी कार्य हुआ है। इसकी सूचना हमें फ्रांस की प्रसिद्ध जैन विदुषी डा० नलिनी बलवीर ने अपने अभिनन्दन ग्रन्थ में दी है। डा० वारेन ने १८७८ में एक हस्तलिखित प्रति के आधार पर इस आगम का सम्पादन किया था। इसके सौ साल बाद बेल्जियम ..के प्रोफेसर दलो ने इसका पुनः प्रकाशन किया। इसमें चाहे मूल अनुवाद न हो पर उपांग की विस्तृत भूमिका है, जो डच भाषा में लिखी गई हैं। अब श्री मधुकर मुनि जी महाराज के निर्देशन में डा० देव कुमार का हिन्दी अनुवाद छपा है । इस उपांग का प्रथम उपांग भारतीय इतिहास की महत्वपूर्ण कड़ी है। इस उपांग की नई ( इक्यावन ) Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ घटनाएं भारतीय इतिहास की टूटी कड़ियां जोड़ती हैं। यह उपांग युद्ध के भयंकर खतरों से हमें सावधान करता है । प्रस्तुत अनुवाद के कर्ता व मुख्य सम्पादिका प्रस्तुत अनुवाद कैसा बन पड़ा है? इसका निर्णय विद्वद्वर्ग ही करेगा स्थानकवासी श्रमणसंघ के प्रथम शास्ता आचार्य श्री आत्माराम जो महाराज ने इस ग्रागम का अनुवाद आज से ४७ वर्ष पहले किया था । प्राचार्य श्री जी ने अपने जीवन में २० आगमों पर टीकायें लिखीं । आप हिन्दी भाषा के प्रथम आगमों के टीकाकार थे। राहों के एक क्षत्रिय परिवार में उत्पन्न हो उन्होंने अपने जीवन का अधिक भाग शास्त्रों की शोध में लगा दिया। उनकी बाहर की नेत्र ज्योति चली गई थी। पर आत्म-ज्योति का दीपक निरन्तर जलता रहा । हमारी गुरुणी जैन ज्योति, उपप्रवर्तिनी श्री स्वर्ण कान्ता जी महाराज के हम पर बहुत उपकार हैं । उनका प्रत्येक कार्य अद्वितीय होता है। कार्य निर्वाण शताब्दी का हो, चाहे किसी अवार्ड का आप हर कार्य में आगे हैं। हर समय तप, स्वाध्याय के लिये उनका जीवन समर्पित है। आप पंजाबी जैन साहित्य की प्रेरिका व लेखिका । उनकी प्रेरणा से ४० से ज्यादा पुस्तकें पच्चीसवीं महावीर निर्वाण शताब्दी संयोजिका समिति पंजाब द्वारा प्रकाशित हो चुकी हैं। अनेक पुस्तकों का राष्ट्रीय स्तर पर सम्मान हुआ है । भगवान महावीर नामक पुस्तक इस समय पटियाला विश्वविद्यालय के बी.ए. की पाठ्यक्रम में लगी हुई है। उनकी शिष्यानुशिष्या भी उनका अनुकरण करती हुई तप-स्वाध्याय में लगी रहती हैं। उनकी बलवती इच्छा थी कि आचार्य श्री के किसी आगम का प्रकाशन हमारी संस्था के माध्यम से हो। इस शुभ कार्य में प्रमुख सहयोग रहा आत्म-कुल- कमल दिवाकर श्री रत्न मुनि जी महाराज का जिन्होंने साध्वी जी की इच्छा का सम्मान करते हुए अपने गुरु की धरोहर हमें देने में कोई संकोच नहीं किया । पांच साल साध्वी श्री स्वर्णकान्ता जी महाराज के सान्निध्य में सम्पादक मण्डल कार्य करता रहा। हम जहां इस कार्य में साध्वी जी का उपकार मानते हैं वहां अनन्त उपकार श्री रल मुनि जी महाराज का मानते हैं। उनके इस उपकार का हम ऋण कभी नहीं चुका सकते । वर्तमान आचार्य सम्राट् श्री देवेन्द्र मुनि जी महाराज के आशीर्वाद एवं उत्तर भारतीय प्रवर्तक भण्डारी श्री पद्मचन्द्र जी महाराज की असीम अनुकम्पा से हमने यह प्रकाशन- कार्य आरम्भ कर दिया। शुभ कार्य में देरी तो होनी सहज है । हमारे परम श्रद्धेय श्री तिलकवर जो शास्त्री इस अन्तराल में काफी बीमार रहे, कुछ प्रेस की गड़बड़ी के कारण प्रकाशन में विलम्ब हुआ । सब कुछ 40001 ( वावन ) Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ होते हुए भी हमने कार्य सतत जारी रखा। साध्वी श्री जी मुख्य सम्पादिका बनीं । चार सम्पादक हमारे अतिरिक्त श्री तिलकधर जी शास्त्री व साध्वी श्री स्मृति जी महाराज एम. ए., साध्वी श्री स्वर्णकान्ता जी महाराज की शिष्या साध्वी श्री सुधा जी महाराज, साध्वी श्री राजकुमारी जी महाराज, साध्वी श्री संतोष जी महाराज, साध्वी श्री वीरकान्ता जी महाराज का सहयोग हम कैसे भुला सकते है ? प्रेस कापी तैयार करने में उनका प्रमुख हाथ रहा है। साध्वी श्री सुधा जी महाराज तो हमारी दिशा-निर्देशिका रही हैं । प्रस्तुत संस्करण हमारी दृष्टि में आज तक छपे सभी संस्करणों से इस ग्रंथ का आकार बड़ा है। इसमें उत्थानिका, मूल पाठ, संस्कृत-छाया, पदार्थान्वय, मूलार्थ, हिन्दी टीका बड़ी सरल व स्पष्ट है। कई जगह आचार्य श्री ने अपनी विद्वत्ता का प्रमाण देते हुए कुछ स्पष्टीकरण दिये हैं जैसे कि रानी चेलना द्वारा मांसाहार व सेना की गिनती में "कोटि" शब्द के अर्थ चिन्तनीय हैं । हमारी दृष्टि में पहले किसी अनुवाद में ऐसा नहीं हुआ। धन्यवाद ___हम इस ग्रन्थ के सम्पादक होने के साथ-साथ प्रबन्ध सम्पादक भी हैं। इस नाते हम साध्वी श्री की ओर से गुरुदेव विद्वद्-रत्न श्री रत्न मुनि जी महाराज के प्रति श्रद्धान्वित कृतज्ञता प्रकट करते हैं। श्रमण-संघीय सलाहकार श्री ज्ञान मुनि जी महाराज तो हमारे मार्ग-दर्शक हैं, उन्होंने हमारे मन में समय-समय पर उठो शंकाओं के समाधान देकर हमें कृनार्थ किया है। वे तो हमारी कृतज्ञता को स्वीकार करेंगे हो। अनेक बार पदार्थान्वय में भी उनकी विद्वत्ता का लाभ हमें मिला। : भविष्य में भी उनका सहयोग इसी प्रकार मिलता रहे, यही शासनदेव से प्रार्थना है । साधु-रत्न युवाचार्य डा० श्री शिव मुनि जी महाराज, प्राचार्य श्री सुशील कुमार जी महागज, आचार्य श्री विजयेन्द्र दिन सूरीश्वर जी महाराज एवं साध्वी डा० श्री मुक्तिप्रभा जी महाराज आदि के आशीर्वादों का ही फल है कि यह दुस्तर कार्य सम्पन्न हो पाया है। इसके साथ ही साध्वी डा० श्री साधना जी व दर्शनाचार्य श्री चन्दना जी महाराज (राजगृही) आदि के आशीर्वादों के लिए भी आभारी हैं । आभार-प्रदर्शन आदरणीय बहिन डा० नलिनी बलवीर पटियाला विश्वविद्यालय में जैन धर्म पढ़ाती हैं। प्राकृत, संस्कृत की विदुषी हैं। उन्होंने हमारी प्रार्थना को स्वीकार कर दो शब्द लिख कर भेजे हैं। ये शब्द उनको विद्वत्ता के जीते-जागते प्रमाण हैं। हम उनका भी आभार मानते हैं। श्री तिलकधर जो शास्त्री के प्रति हम पुन: आभार व्यक्त करते हैं, जिन्होने अपने स्वास्थ्य की परवाह न करते हुए इस कार्य की पूर्णता एवं व्यवस्था में अपेक्षा से अधिक सहयोग दिया है। (त्रेपन) Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शास्त्र-प्रकाशन के सम्पन्न होने की शुभ वेला में हम जैन साध्वी श्री सन्तोष जी महाराज के विशेष कृतज्ञ हैं जिन्होंने हमें सम्पादन - कार्य में सतत सहायता प्रदान की है। प्रस्तुत शास्त्र की प्रेस कापी भी प्रापके कर-कमलों से ही तैयार हुई। आप बड़ी प्रतिभाशाली साध्वी हैं । आप लम्बे समय से गुरुणी साध्वी श्री स्वर्णकान्ता जी महाराज के चरणों में दीक्षित होकर स्वाध्याय, आत्मचिन्तन एवं ध्यान में लीन रहती हैं। आपने शास्त्र का प्रेस कापो प्रस्तुत कर हम पर जो उपकार किया है उसे हम कैसे भुला सकते हैं ? आपने इस शास्त्र की प्रेस कापी ही तैयार नहीं की, बल्कि हमें समय-समय पर परामर्श व दिशा-निर्देश भी दिया है । भविष्य में भी आप श्री के आशीर्वाद हमें मिलते रहेंगे, ऐसी आशा है।। हम शास्त्र-प्रकाशन में आर्थिक सहयोग देने वाले दानियों को भी कैसे भूल सकते हैं जिन्होंने आचार्य श्री की भक्ति का प्रमाण देते हुए समिति को विपुल धन-राशि प्रदान की है, जिससे गुरुणी जी का स्वप्न साकार हो सका है। साध्वी श्री स्मृति जी महाराज एम० ए० का यह प्रथम सम्पादन है। आप भी वधाई की पात्र हैं। डा० श्री धर्मचन्द जी जैन जिन्होंने सम्पादक-परिचय लिखकर हमारा उत्साह बढ़ाया है हम समिति की ओर से उनके प्रति सादर आभार व्यक्त करते हैं। हम उन समस्त प्रकाशकों, लेखकों के भी आभारी हैं, जिनकी पुस्तकों से हमें सहायता प्राप्त हुई है। हम सम्पादक मण्डल की ओर से आचार्य-सम्राट् पूज्य श्री आत्माराम जी महाराज की दीक्षा शताब्दी पर और समिति के रजत-जयंती वर्ष पर आचार्य श्री की यह कृति उपप्रतिनी साध्वी-रत्न श्री स्वर्ण कान्ता जी महाराज के कर-कमलों में सादर समर्पित करते हैं । श्री-संघ के दास रवीना बैन, पुरुषोत्तम जैन (प्रबन्ध सम्पादक) जैन भवन, मालेर कोटला (संगरूर) - - (चौवन) Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रमण संघ के तृतीय पट्टधर आचार्य-समाद जैन-धर्म-दिवाकर पूज्य श्री देवेन्द्र मुनि जी महाराज आशीर्वचन जैन आगम साहित्य भारतीय ज्ञान-विज्ञान का अक्षय कोश है, आत्मा-परमात्मा, जीव-जगत, पुनर्जन्म, कर्म-प्रवृत्ति आदि विषयों पर जितना विशद रूप से जैनागमों का विश्लेषण हुआ है उतना विश्व के अन्य साहित्य में कहीं नहीं हुआ। चाहे आध्यात्मिक प्रश्न हो चाहे दार्शनिक प्रश्न हो, चाहे आचार का प्रश्न हो, चाहे विचार का, सभी प्रश्नों का सटीक समाधान जैन ग्रन्थों में मिलता है। पागम साहित्य अंग उपांग, मूल छेद आदि के रूप में विभक्त है। जिस अर्थ के प्ररूपक तीर्थकर हैं और सूत्र के रचयिता गणधर हैं वह अंग साहित्य है और जिसके अर्थ के प्ररूपक तोर्थङ्कर और सूत्र के रचयिता गणधर या स्थविर हैं, वह अंग-बाह्य आगम है । उपांग सूत्र अङ्ग बाह्य आगमों में है। निरियावलिका यह उपांग सत्र है। कप्पिया, कंप्पवडंसिया, पुफिया, पुप्फलिया, वह्नीदशा इन पाँचों का समवाय निरियावलिका के नाम से विश्रुत है। . प्रस्तुत आगम में भगवान महावीर के परम भक्त सम्राट् श्रेणिक और उसके पारिवारिक जनों का विस्तार से निरूपण है। अनेक ऐतिहासिक और सांस्कृतिक विषयों का इसमें निरूपण हुआ है । आगम साहित्य में प्रस्तुत आगम का अपना अनूठा स्थान है। ___ महामहिम जैन-धर्म-दिवाकर स्वर्गीय आचार्य-सम्राट श्री आत्माराम जी महाराज ने विक्रम सम्वत् २००३ में प्रस्तुत आगम पर विस्तार से विवेचन लिखा था। अन्य आगमों के साथ उस समय प्रस्तुत आगम का प्रकाशन किन्हीं कारणों से नहीं हो सका। परम आल्हाद का विषय है कि परम-विदुषी साध्वी-रत्न उपप्रवतिनी थी स्वर्णकान्ता जी म० के प्रधान सम्पादकत्व में सम्पादक मण्डल-श्री सुधा जी महाराज की शिष्या साध्वी श्री स्मति जी महाराज, श्री तिलकघर शास्त्री एवं एक प्राण दो देह के रूप में प्रसिद्ध रवीन्द्र जैन पुरुषोत्तम जैन ने प्रस्तत आगम का पुनः सम्पादन कर स्वर्गीय आचार्य-सम्राट पूज्य श्री आत्माराम जी महाराज के भो चरणों में अपनी अनन्त आस्थाएं व्यक्त की हैं और स्वर्गीय आचार्य-सम्राट के दीक्षा शताब्दी वर्ष पर मां भारती के भण्डार में एक और ग्रन्य-रत्न समर्पित कर शासन को गरिमा में चार-चांद लगाये हैं, एतदर्थ श्री स्वर्ण कान्ता जी महाराज एवं सम्पादक मण्डल साधुवाद के पात्र हैं। रोहतक दिनांक 20-3-94 • आचार्य देवेन्द्र मुनि शास्त्री Page #76 --------------------------------------------------------------------------  Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य-सम्राट् पूज्य श्री देवेन्द्र मुनि जी महाराज आप के शुभाशीर्वाद से प्रस्तुत ग्रन्थ निरयावलिका पूर्ण हो पाया है। * आप की ही कृपा-दृष्टि से उपप्रवर्तिनी जिन-शासन-प्रभाविका श्री स्वर्णकांता जी महाराज ने प्रस्तुत ग्रन्थ निरयावलिका का सम्पादन-कार्य पूर्ण किया है। Page #78 --------------------------------------------------------------------------  Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नमोऽन्थुणं समणस्स भगवओ महावीरस्स श्री निरयावलिकासूत्रम् संस्कृत छाया व हिन्दी भाषा टीका सहितम् . १. निरयावलियाओ मूल-तेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहणामं गयरे होत्या, रिद्ध० (उत्तर पुरिच्छिमे दिसीभाए) गुणसिलए चेइए, वण्णओ० । असोगवरपायवे पुढविसिलापट्टए, वण्णओ० ॥१॥ छाया-तस्मिन् काले तस्मिन् समये राजगृहं नाम नगरमभवत्, ऋद्ध (उत्तरपौरस्त्ये) दिग्भागे गुणशैलक: चैत्यम् (वर्णकः), अशोकवरपादपः, पृथ्वीशिलापट्टकः ॥१॥ ____ पदार्थान्वय:-तेणं कालेणं-अवसर्पिणी काल के चतुर्थ भाग में, तेणं समएणं-उस विशेष समय में, रायगिहे णाम-राजगृह नाम वाला, जयरे-नगर, होत्था-था, रिद्ध –ऋद्धि आदि से युक्त, (उत्तर पुरच्छिमे दिसोभाए)-उत्तर और पूर्व दिशा के विभाग में, गुणसिलए-गुणशैलक नाम वाला, चेइए -चैत्य व्यन्तरायतन, वण्णओ0- उसका विशेष वर्णन समझना, असोगवरपायवे - अशोक नाम वाला एक (औपपातिकवत्) वृक्ष, पुढवीसिला-पट्टए-उसके नीचे पृथ्वी शिला का सिंहासन रूप पट्टक था, चण्णओ-जैसा कि वर्णन किया गया है। .. मूलार्थ-उस काल उस समय में एक राजगृह नामक नगर था जो ऋद्धि आदि से युक्त था, उसके ईशान कोण की दिशा में, गुणशैल नाम वाला चैत्य था, उसका (औपगातिक-सूत्र जैसा) वर्णन समझना, उस चैत्य में एक अशोक वृक्ष के नीचे पृथ्वी-शिला का पट्टक था। टोका-इस सूत्र में राजगृह नगरी का संक्षेप में वर्णन किया गया है। जिस प्रकार औपपातिक सूत्र में चम्पा नाम की नगरी का विस्तृत वर्णन प्राप्त होता है, ठीक वैसा ही वर्णन राजगृह निरयावलिका सूत्रमृ] [वर्ग-प्रथम Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ निरयावलिका सूत्रम् वर्ग - प्रथम ] नगर का जानना चाहिए, किन्तु सूत्रकार ने नगर के स्वरूप का वर्णन अत्यन्त संक्षेप में किया है । काल शब्द से अवसर्पिणी काल के चतुर्थ भाग को समझना चाहिये और " तस्मिन् समये " शब्द से वह विशेष समय जानना चाहिये, जैसे कि उस समय मगध प्रान्त में राजगृह नाम का एक प्रसिद्ध नगर था, जिस पर श्रेणिक नाम के राजा का राज्य था, वहां श्री श्रमण भगवान महावीर स्वामी विराजमान थे, इत्यादि विषय जानने चाहिये । (२) मूल पाठ में 'रिद्ध' पद देकर विषय को पूर्ण किया गया है, किन्तु कुछ हस्त लिखित प्रतियों में "रिद्धित्थिमिव समिद्धे" इस प्रकार का पाठ प्राप्त होता है, जिसका भाव यह है कि वह नगर भवनादि से युक्त भय रहित और धन-धान्यादि से परिपूर्ण था । कुछ हस्तलिखित प्रतियों गुणशैलक पद से पूर्व तत्थणं' पद दिया गया है और कुछ हस्तलिखित प्रतियों में यह समग्र पाठ निम्न प्रकार से प्राप्त होता है - तेणं कालेनं तेणं समएणं रायगिहे नामं नयरे होत्था, रिद्धिस्थिमियसमय नाम नगरे बहिया उत्तर पुरस्थिमे दिसोभाए तत्थणं गुणसिलए नाम चेइए होत्था ।" इसका भाव यह है कि उस समय राजगृह नाम का एक नगर था, वह नगर अत्यन्त समृद्ध था, उस राजगृह नगर के बाहर उत्तर-पश्चिम भाग में एक गुण शैलक नाम का चेन्य था । 'aura • पद से औपपातिक सूत्र में जो नगरी का वर्णन किया गया है वह सब यहां पर समझ लेना चाहिये और साथ ही गुणशैल नामक चैत्य का वर्णन भो जान लेना चाहिये। जैसे कि- "वण्णओ' त्ति चैत्यवर्णको वाच्यः” । राजगृह नगर - यह नगर भवनादि वैभव से सम्पन्न सुशासित, सुरक्षित एवं धन-धान्य से समृद्ध था। वहां नगर-जन और जानपद प्रमोद के प्रचुर साधन होने से प्रमुदित रहते थे । निकटवर्ती कृषि भूमि अतीव रमणीय थी। उसके चारों और आस-पास ग्राम बसे हुए थे । सुन्दर स्थापत्य कला से सुशोभित चैत्यों और पण्य-तरुणियों के सन्निवेशों का वहां बाहुल्य था । तस्करों आदि का अभाव होने से वह नगर क्षेम रूप सुख-शांतिमय था । सुभिक्ष होने से भिक्षुओं को वहां सुगमता से भिक्षा मिल जाती थी । वह नट-नर्तक आदि मनोरंजन करने वालों से व्याप्त - सेवित था और उद्यानों आदि की अधिकता से नन्दनवन सा प्रतीत होता था। सुरक्षा की दृष्टि से वह नगर खात, परिखा एवं प्राकार से परिवेष्टित था। नगर में श्रृंगाटक- सिंघाड़े जसे आकर वाले त्रिकोणाकार चौराहे तथा राजमार्ग बने हुए थे। वह नगर अपनी सुन्दरता से दर्शनीय, मनोरम और मनोहर था । गुणशिलक चैत्य - वह चैत्य नगर के बाहर ईशान कोण में था । यह चैत्य अत्यन्त प्राचीन एवं विख्यात था। भेंट के रूप में प्रचुर धन-सम्पत्ति उसे प्राप्त होती थी। वह जनसमूह द्वारा प्रशंसित था । छत्र, ध्वजा, घंटा, पताका आदि से परिमंडित था । उसका आंगन लिपा-पुता था और दीवालों पर लम्बी-लम्बी मालाएं लटकी रहती थीं। वहां स्थान-स्थान पर गोरोचन, चंदन आदि के थापे लगे हुए थे। काले अगर आदि की धूप की मघमघाती महक से वहां का वातावरण गंध-वर्तिका जैसा प्रतीत होता था और नट, नर्तक, भोजक मागध चारण आदि यशोगायकों से व्याप्त रहता था। दूर-दूर तक Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरयावलिका सूत्रम् ] [ वर्ग-प्रथम * के देशवासियों में उसकी कीति बखानी जाती थी और बहुत से लोग वहां मनौती पूर्ण होने पर मनोतियां देने आया करते थे। वे उसे अर्चनीय, वंदनीय, नमस्करणीय, कल्याणकारक, मंगलरूप एवं दिव्य मान कर विशेष रूप से उपासनीय मानते थे। विशेष पर्व-त्यौहारों पर हजारों प्रकार की पूजाउपासना वहां की जाती थी। बहुत से लोग वहां आकर जय-जयकार करते हुए उसकी पूजा-अर्चना करते थे। वनखण्ड-वह गुणशिलक चैत्य चारों ओर से एक वनखण्ड से घिरा हुआ था। वृक्षों की सघनता से वह काली आभावाला, शीतल आभावाला, एवं सलौनी आभावाला दिखता था। वहां के सघन एवं विशाल वृक्षों की शाखाओं-प्रशाखाओं के परस्पर गुंथ जाने से ऐसा रमणीक दिखता था मानो सघन मेघ घटाएं घिरी हुई हों। ___ अशोक वृक्ष-उस वनखण्ड के बीचों-बीच एक विशाल एवं रमणीय अशोक वृक्ष था। वह उत्तम मूल, कंद, स्कन्ध, शाखाओं, प्रशाखाओं, प्रवालों, पत्तों, पुष्पों और फलों से सम्पन्न था । उसका सुघड़ और विशाल तना इतना विशाल था कि अनेक मनुष्यों द्वारा भुजाएं फैलाए जाने पर भी धरा नहीं जा सकता था। उसके पत्ते एक दूसरे से सटे हए, अधामख और निर्दोष थे। नवोन पतों, कोमल किसलयों आदि से उसका शिखर भाग सुशोभित था। तोता, मैना, तोतर, बटेर, कोयल, मयूर आदि पक्षियों के कलरव से गूंजता रहता था। वहां मधु-लोलुप भ्रमर-समूह मस्ती में गुनगुनाते रहते थे। उसके आस-पास में अन्यान्य वृक्ष, लताकुंज, मंडप आदि शोभायमान थे। वह अतोव तृप्तिप्रद विपुन सुगंध को फैला रहा था। अतिविशाल परिधिवाला होने से उस के नी वे अनेक रथ, डोलियां, पालकियां आदि ठहर सकती थीं। पृथ्वीशिलापट्टक-उस अशोक वृक्ष के नीचे स्कन्ध से सटा हुआ एक पृथ्वीशिलापट्टक रक्खा था। उसका वर्ण काला था और उसकी प्रभा अंजन, मेघमाला, नील कमल, केश-राशि, खंजन पक्षी, भैंसे के सींग के गर्भभाग, जामुन के फल अथवा अलसी के फूल जैसी थी। वह अत्यन्त चिकना था । वह अष्टकोण था और दर्पण के समान सम, सुरम्य एवं चमकदार था। उस पर ईहामृग, भेड़िया, वृषभ, अश्व, मगर, विहग (पक्षी), व्याल (सर्प), किन्नर, रुरु (हिरण विशेष) शरभ, कुंजर, वनलता, पद्मलता आदि के चित्र उकेरे हुए थे। उसका स्पर्श मृगछाला, रुई, मक्खन और अर्कतूल (आक की रुई) आदि के समान सुकोमल था। इस प्रकार का वह शिलापट्टक मनोरम, दर्शनोय मोहक और अतीव मनोहर था। ____ "तेणं कालेणं तेणं समएणं" ये दोनों ही पद सप्तमी के अर्थ में तृतीयान्त दिए गए हैं तथा यदि 'ण' वाक्यालङ्कार अर्थ में लिया जाए और मागधी का एकारान्त शब्द माना जाए तो फिर उस एकारान्त को छेद कर केवल "ते" शब्द का सप्तमी के अर्थ में प्रयोग होता है, अर्थात् "तस्मिन् काले तस्मिन् समये" इन शब्दों के द्वारा वह विशेष समय ग्रहण करना चाहिये। Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ग - प्रथम ] ( ४ ) [ निरयावलिका सूत्रम् आर्य सुधर्मा स्वामी का आगमन मूल - - तेणं कालेणं तेणं समएणं समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतेवासी अज्जसुहम्मे नामं अणगारे जाइसंपन्ने जहा केसी (जाव०) पंचहि अणगारसहि सद्धि संपरिवुडे पुव्वाणुपुव्विं चरमाणे जणव रायगिहे नयरे (जाव ) जहा पडिरूवं उग्गहं ओगिव्हित्ता संजमेणं (तवता अष्पाणं भावेमाणे ) जाव विहरइ । परिसा निगया। धम्मो कहिओ, परिसा पडिगया ||२|| छाया - तस्मिन् काले तस्मिन् समये श्रमणस्य भगवतो महावीरस्य अंतेवासी आर्यसुधर्म : नाम अनगारः जातिसम्पन्नः यथा केशो यावत् पंचभिः अनगारशतैः सार्द्धं सह संपरिवृतः पूर्वानुपूर्व्या चरमाणे यस्मिन्नेव देशे राजगृहं नगरं यावत् यथाप्रतिरूपं अवग्रहं अवगृह्य संघन यावत् विहरति । परिषद् निर्गता, धर्मः कथितः । परिषत् प्रतिगता ॥ २॥ पदार्थान्वय - तेणं कालेणं - उस काल, तेणं समएणं - उस समय में, समणस्स श्रमण, भगवओ - भगवान महावीरस्स - महावीर का, अंतेवासी - शिष्य, अज्जसुहम्मे –आर्य सुधर्मा भामं—नाम वाला, अणगारे - अनगार, जाइसंपन्ने जाति-सम्पन्न, जहा - जैसे, केसी - केशी कुमार श्रमण थे, जाव - यावत्, पंर्चाह अणगारसहि सद्धि - पांच सौ अणगारों के साथ, संपरिवुडे - संपरिवृत अर्थात् संयुक्त, पुत्राणुपुत्रि चरे माणे - पूर्वानुपूर्वी अनुक्रम पूर्वक विचरते हुए, जेणेव - जहां पर रायगिहे नगरे - राजगृह नगर, जाव - पावत्, जहापण्डिरूवं यथा प्रतिरूप मुनिजन के यथोचित उगाई - निवास, ओगिहिता - आज्ञा लेकर, संजपेणं - संयम से, जाव - यावत् विहरइ - विचरते हैं। परिसा परिषद्, निग्गया-नगर से निकली, धम्मो कहिओ - श्री भगवान् ने धर्म - कथा कथन की । परिसा पडिगया - परिषद् नगर की ओर चली गई । 1 --- मूलार्थ - - उस काल उस समय में श्रमण भगवान महावीर स्वामी के शिष्य आर्य सुधर्मा नाम वाले अनगार थे जो कि केशी कुमार श्रमण की भांति जाति सम्पन्न थे वे ५०० अनगारों के साथ,संपरिवृत होकर अनुक्रमता पूर्वक चलते हुए जहाँ पर राजगृह नगर था ( वहां पधारे) यावत् यथाप्रतिरूप मुनिजनों के उचित आवास की आज्ञा लेकर सयम और तप के द्वारा अपनी आत्मा को भावित करते हुए विचरते थे. वन्दनादि के लिए परिषद् आई, श्री भगवान ने धर्म - कथा वर्णन की । परिषद् धर्म-कथा सुनकर नगर की ओर चली गई । टीका-उस समय श्रमण भगवान महावीर स्वामी के शिष्य जाति सम्पन्न आर्य सुध Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरयावलिका सूत्रम् । (५) [वर्ग-प्रथम स्वामी वहां आये, उनका वर्णन जिस प्रकार राजप्रश्नीय सूत्र में श्रमण-केशी कुमार जी का किया गया है ठीक उसी प्रकार जान लेना चाहिये। वे गुणों से युक्त ५०० मुनियों के साथ अनुक्रमता पूर्वक विचरते हुए राजगृह नगर के बाहर गुणशैल नामक चैत्य में साधु के योग्य उपकरणों को आज्ञा लेकर संयम और तप के द्वारा अपनी आत्मा को विशुद्धि करते हुए विचरने लगे। ___ कुछ हस्तलिखित प्रतियों में "चरे माणे" के अनन्तर "गामाणुगाम दुइज्ज माणे” पाठ भी प्राप्त होता है जिसकी आचार्य श्री चन्द्र सूरि विरचित निरयावलिया सूत्रवृत्ति में इस प्रकार व्याख्या की गई है। जैसे कि “गामाणगाम दुइज्जमाणे" ति ग्रामानुग्रामश्च विवक्षितग्रामादनन्तरं ग्रामो ग्रामानुग्रामं तत् द्रवन् - गच्छन् एकस्माद् ग्रामादनन्तरं ग्राम मनुल्लंघ्यन्नित्यर्थः, अनेनाप्रतिबद्धं विहारमाह। तत्राप्यौत्सुक्याभावमाह सुहं सुहेणं विहरमाणे' सुखं सुखेन -शरीरखेदाभावेन संयमाऽऽवाधाभावेन च विहरन् प्रामादिषु वा तिष्ठन् ।” इसका अभिप्राय यह है कि जिस ग्राम से वे चलते थे उस ग्राम से दूसरे अभीष्ट ग्राम तक जो बीच में छोटे ग्राम पड़ते थे उनमें भी वे उपदेश देते हुए आगे बढ़ते थे, और वह भी बिना थकावट के सुख पूर्वक । इस कथन से यह भली-भान्ति सिद्ध हो जाता है कि विहार-क्रिया में प्रवृत्त होते हुए, विनय पूर्वक चलना चाहिए और प्रत्येक ग्राम में उपदेश करते हुए सफल विहार-चर्या करनी चाहिए । 'सहं सहेणं' इस पद से यह सिद्ध किया गया है कि जिस प्रकार शरीर और संयम में कोई वाधा न हो उस प्रकार विचरना चाहिए। सूत्र-कर्ता ने यहां सुधर्मा जी की केशी कुमार श्रमण से उपमा दी है जिसका भाव यह है कि प्रार्य सुधर्मा में समग्र साधूचित गुण तो थे ही, इसके साथ वे चतुर्दश पूर्वो के पाठी और चार ज्ञान से युक्त भी थे। जैसे कि वृत्तिकार का कथन है ... "चोद्दसपुवी-चउनाणोवगए' चतुर्ज्ञानोपयोगतः केवलवर्जज्ञानयुक्तः। (श्रमण श्रेष्ठ केशी कुमार का विस्तृत वर्णन राज प्रश्नीय सूत्र में विस्तार से किया गया है)। एक हस्तलिखित प्रति में निम्ननिखित पाठ भी प्राप्त हुआ है जेणेव रायगिहे नयरे जेणेव गुणसिलए नामं चेइय जेणेव असोगवरपायवे पुढविसिलापट्टए तेणेव उवागए, अहापडिरूबं उग्गहं उग्गिण्हित्ता संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणे जाव विहरइ।। ___ इस पाठ का भाव भी उपर्युक्त पक्तियों से मिलता-जुलता होने से हम उसकी पुनः व्याख्या नहीं कर रहे। तत्पश्चात् नगर को परिषद् श्रद्धालु जनता धर्म-कथा सुनने के लिए उस बाग में आई, फिर धर्म-कथा सुन कर अपने-अपने स्थानों पर चली गई। . इस विषय का विशद वर्णन विस्तार पूर्वक जानने के लिये जिज्ञासुओं को औपपातिक सूत्र का स्वाध्याय करना चाहिए। Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ग - प्रथम ] [ निरयावलिका सूत्रम् उत्थानका - तत्पश्चात् क्या हुआ ? अब सूत्रकार इसी विषय में कहते हैंमूल - तेणं कालेणं तेणं समएणं अज्जसुहम्मस्स अणगारस्स अंतेवासी जम्बूणामं अणगारे समच उरंसठाण पंठिए, जाव० संखित्त-विउलतेयलेस्से अज्जसुहम्मस्स अणगारस्स अदूरसामंते उड्ढजाणू जाय विहरई ॥३॥ ( ६ ) छाया - तस्मिन् काले तस्मिन् समये आर्यसुधर्मानगारस्य अन्तेवासी जम्बूनामानगारः समचतुरस्रसंस्थान - संस्थितः यावत् संक्षिप्तविपुलतेजोलेश्यः आर्य सुधर्मस्य अनगारस्य अदूरसामन्तम् उर्ध्वजानुः यावत् विहरति । पदार्थान्वयः -- तेणं कालेणं - उस काल - अवसर्पिणी काल के चतुर्थ विभाग, तेणं समए णं - उस समय वहां जिस समय श्री सुधर्मा स्वामी विराजमान थे, अज्जसुहम्मस्स - आर्यसुधर्मा स्वामी, अणगारस्स - अनगार के, अन्तेवासी - शिष्य, जम्बूनामं अणगारे - जम्बू नामक अनगार, (जो ) समचउरंस - सम चतुरस्र (चौरस), संठाणसंठिए - संस्थान से संस्थित थे, जाव - यावत् संखित्तविउलते उस्से - संक्षिप्त की हुई है विपुल तेजोलेश्या युक्त, अज्जतुहम्मस्स-आर्य सुधर्मा, अणगारस्स - अनगार के, अदर सामन्ते-न अति दूर न अति. समीप, मर्यादा - पूर्वक भूमि पर, उड्नुंजाणू – ऊर्ध्व जानु, जाव - यावत् विहरइ - विचरते हैं । मूलार्थ – उस काल उस समय में आर्य सुधर्मा अनगार के शिष्य जम्बू नाम के अनगार जो समचतुरस्र-संस्थान से युक्त (और) यावत् संक्षिप्त की हुई विपुल तेजोसे युक्त थे, आर्य सुधर्मा अनगार के समक्ष मर्यादा - पूर्वक भूमि पर स्थित हो, ऊंचे जानु कर यावत् जैसे कि विधान है वैसे विचरते अर्थात् आचरण करते हैं । टीका- - इस सूत्र में प्रार्य सुधर्मा स्वामी के शिष्य जम्बू स्वामी का वर्णन किया गया है। जैसे कि आर्य सुधर्मा स्वामी के सुशिष्य अनगार आर्य जम्बू जो समचतुरस्र - संस्थान से संस्थित थे जो " वज्जरि सहनारायसंघयणे कणगपुलगनिगसपम्हगोरे " अर्थात् वज्र ऋषभनाराच संहनन से युक्त तथा कनक-पट्ट रेखा लक्षण वाले थे, जैसे कि वृत्तिकार का कथन है । कनकस्य- सुवर्णस्य 'पुलग' इति यः पुलको - लवः तस्य यो निकष :- कणकपट्टरेखा लक्षणः तथा 'पम्हेति' पद्मगर्भः तद्वत् यो गौरः स तथा वृद्धव्याख्या तु कनकस्य न लोहादेर्यं पुलकः - सारो वर्गातिशयः तत्प्रधानो यो निकषो - रेखा तस्य यत् पक्ष्म - बहुलत्वं तद्वद्यो गौरः स कनकपुलक निकषपक्ष्मगौरः । अर्थात् जिस प्रकार कनकपट्ट (काली कसौटी) पर रेखा होती है, जिस प्रकार पद्मगर्भ होता है, तद्वत् उनका शरीर था तथा उग्र तप, तप्त तप, दीप्त तप, प्रधान परीषहों के जीतने वाले Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरयावलिका सूत्रम् ] [वर्ग-प्रथम कठिन व्रतों को धारण करने वाले इतना ही नहीं किन्तु वे घोर तप के करने वाले थे, अतः उनके शरीर में विपल तेजोलेश्या उत्पन्न हो रहा थो, किन्तु उन्होंने उस लेश्या को संक्षिप्त किया हआ था इसलिए वृतिकार ने निम्नलिखित पद दिया है “संखित विउल ते उलेस्से' संक्षिप्ता-शरीरान्तविलीना विपुला-अनेकयोजनप्रमाणक्षेत्राश्रितवस्तुदहनसमर्था तेजोलेश्या-विशिष्टतपोजन्यलब्धिविशेषप्रभावा तेजोलेश्या (यस्य सः)। ____ अर्थात् अनेक कोसों तक रहने वाली वस्तु को भी भस्म कर देने की शक्ति वाली तेजोलेश्या को उन्होंने तपोबल से अपने अन्तर में ही आत्मसात् कर रखा था। ___ इस कथन से यह भली भान्ति सिद्ध हो जाता है कि साधु में तपोजन्य शक्ति होने पर भी उस शक्ति का प्रयोग करने से बचते रहना चाहिये । वह जम्बू अनगार आर्य सुधर्मा अनगार के समीप ऊंचे जानु कर अर्थात् उत्तान आसन पर बैठकर मुख को नीचे झुकाए हुए ध्यान रूपी कोष्ठक में प्रविष्ट होकर आत्म-ध्यान में लीन रहते थे, इसलिए वृतिकार ने कहा है कि- "झाणकोट्टोवगए' ध्यानमेव कोष्ठो ध्यानकोष्ठस्तमुपगतो ध्यानकोष्ठोपगतो यथा हि कोष्ठक धान्यं प्रक्षिप्तमविप्रकीर्ण भवति एवं स भगवान् धर्मध्यानकोष्ठमनुप्रविश्य इन्द्रियमनांस्यधिकृत्य संवृतात्मा भवतीति भावः । ___ इस कथन का अभिप्राय यह है कि जैसे कोठे में डाला हुआ अन्न इधर-उधर फैलता नहीं है इसी प्रकार आर्य जम्बू स्वामो ने ध्यान रूपो कोठे में समस्त वृत्तियों को एकाग्र कर दिया था, अतः वे स्थिर-ध्यान थे। ___ इस कथन से यह भली भान्ति सिद्ध हो जाता है कि साधु-वृत्ति का मुख्य उद्देश्य ध्यानस्थ होना ही है । सूत्र कर्ता ने “अदूर-सामंते" पद दिया है, इसका भाव यह है कि गुरु की आशातना न हो इस बात को ध्यान में रखकर शिष्य गुरु के पास उचित स्थान पर बैठे। जैसे कि वृत्तिकार लिखते हैं - "प्रदूरसामंते' ति दूरं -विप्रकर्षः सामन्तं समीपमू, उभयोरभावोऽदूरसामन्तं (तस्मिन्) नातिदूरे नातिसमीपे उचिते देशे स्थित इत्यर्थः । अर्थात् अति दूरी और अति समीपता न रख कर यथोचित स्थान पर वे आकर बैठते थे। इस प्रकार गुणों से पूर्ण युक्त होते हुए श्री जम्बू अनगार विचरण किया करते थे। सूत्रकर्ता ने 'जाव' अर्थात् यावत् शब्द से उनमें सभी साधूचित गुणों की विद्यमानता प्रदर्शित की है। . साधु के योग्य समस्त गुणों का विस्तृत वर्णन “व्याख्या-प्रज्ञप्ति" आदि सूत्रों में वर्णित किया गया है। . जब आर्य सुधर्मा गुणशील चैत्य के उद्यान में पधारे तो परिषद् दर्शन करने आई। सभी पांच अभिगमपूर्वक आये। पांच अभिगम इस प्रकार हैं १. धर्म-स्थान में न पहिनने योग्य पुष्प-माला आदि सचित द्रव्यों का त्याग । २. वस्त्रआभूषण आदि अचित द्रव्यों का त्याग, ३. एक बिना सिला वस्त्र, ४. गुरु पर दृष्टि पड़ते ही दोनों हाथ जोड़ कर चलना, ५. मन को एकाग्र करना। Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ग-प्रथम] [निरयावलिका सूत्रम् उत्थानिका-अब सूत्रकार आगामी घटनाओं का वर्णन करते हैं मूल-तए णं से भगवं जंबू जायसड्ढे जाव० पज्जुवास माणे एवं वयासि, उवंगाणं भंते ! समणेणं जाव संपत्तेणं के अठे पण्णते ? एवं खलु जंबू! समणेणं भगवया जाव संपत्तेणं एवं उबंगाणं पंव वग्गा पण्णता, तं जहा-१. निरयावलियाओ, २. कप्पडिसियाओ, ३. पुफियाओ, ४. पुप्फचूलियाओ, वहिदसाओ ॥ ४ ॥ छाया-ततः सो भगवान् जम्बू जातश्रद्धः यावत् पर्युपासनां विदधान एवमवादीत् -उपाङ्गानां भदन्त ! श्रमणेन यावत् सम्प्राप्तेन कोऽर्थः प्रज्ञप्तः ? एवं खलु जम्बू ! श्रमणेन भगवता यावतसम्प्राप्तेन एवमुपाङ्गानां पञ्च वर्गा प्राप्ताः तद्यया१. निरयावलिका, २. कल्पावतंसिका, ३. पुष्पिका, ४. पुष्पचूलिका, ५. वृष्णिदशा ॥ ४ ॥ पदार्थान्वय.-तए-इसके अनन्तर, णं-वाक्यालङ्कारार्थ में, से-वह, भगवं-भगवान, जंबू -जम्बू नामक, जायसडढे-प्रश्न पूछने को श्रद्वा वाले, जाव -यावत्, पज्जुवासमाणेपर्यपासना करते हए, एवं वयासि -इस प्रकार बोले, उबंगाणं भंते-हे भगवन उपाङ्गों का, समणेणं-श्रमण भगवान महावीर ने, जाव-यावत, संपतेणं-मोक्ष को 'सम्प्राप्त हुए उन्होंने, के अट्ठ पण्णत्ते-क्या अर्थ प्रतिपादन किया है ? एवं खलु जंबू-इस प्रकार हे जम्बू ! समणेणं-श्रमण भगवान ने, भगवया-भगवान महावीर ने, जाव संपत्तेणं-यावत् मोक्ष को प्राप्त हुए उन्होंने, एवं उवंगाणं- इस प्रकार उपाङ्गों के, पंच-पांच, वग्गा-वर्ग, पण्णत्ता-कथन किये हैं, तं जहा-जैसे, १. निरयावलियाओ-निरयावलिका, २. कप्पडिसियाओ-कल्पावतंसिका, ३. पुफियाओ-पुष्पिका, ४. पुप्फचलियाओपुष्पचूलिका, ५. वहिदसाओ-वृष्णिदशा । मूलार्थ -उसके पश्चात् जिनके हृदय में श्रद्धा उत्पन्न हो चुकी है। यावत् वे जम्बू स्वामी भगवान् श्री सुधर्मा स्वामी की पर्युपासना करते हुए इस प्रकार कहने लगेहे भगवन् ! उपांगों का श्रमण भगवान् महावीर ने जो कि अब मोक्ष में पधार चुके हैं क्या अर्थ कथन किया है ? ___ तब श्री सुधर्मा स्वामी जी इस प्रकार बोले-हे जम्बू ! उन श्रमण भगवान महावीर ने जो अब मोक्ष में पधार चुके हैं उपाङ्गों के पांच वर्ग इस प्रकार कहे Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरयावलिका सूत्रम् ] (९) [वर्ग-प्रथम हैं-जैसे कि-१. निरयावलिका, २. कल्यावतंसिका, ३, पुष्पिका; ४. पुष्पचूलिका, ५. वृष्णिदशा ॥ ५॥ टीका-इस सूत्र में उपर्युक्त सूत्र के विषय का ही वर्णन किया गया है, जैसे कि जब आर्य जम्बू स्वामी के मन में श्रद्धा-पूर्वक कुछ पूछने की जिज्ञासा उत्पन्न हुई, तब वे उठ कर आर्य सुधर्मा स्वामी के पास जाकर विनय और भक्ति पूर्वक पर्युपासना करते हुए हाथ जोड़ कर पूछने लगे कि"भगवन् ! श्रमण भगवान महावीर स्वामी जो कि अब निर्वाण पद को प्राप्त कर चुके हैं, उन्होंने उपाङ्गों के विषय में क्या वर्णन किया है ?" इसके उत्तर में भगवान् सुधर्मा स्वामी कहने लगे कि- "हे जम्बू ! श्रमण भगवान महावीर स्वामी जो मोक्ष को प्राप्त कर चुके हैं, उन्होंने उपाङ्गों के पांच वर्ग कथन किये हैं, जैसे कि-१, निरयावलिका, २. कल्पावतंसिका, ३. पुष्पिका, ४. पुष्पचूलिका और ५. वृष्णिदशा । _ ये पांच वर्ग उपाङ्गों के कथन किए गए हैं, किन्तु इस स्थान पर यह उल्लेख नहीं किया गया कि प्रत्येक अङ्ग के भिन्न-भिन्न उपाङ्ग हैं । यद्यपि चूर्णी आदि ग्रन्थों में प्रत्येक अङ्ग के साथ प्रत्येक उपाङ्ग का वर्णन किया गया है. जैसे कि आचाराङ्ग का उपाङ्ग औपपातिक सूत्र है इत्यादि । किन्तु अङ्ग नामक उत्कालिक सूत्रों के संकेत नन्दी आदि आगमों में भी उपलब्ध होते हैं। छेद और मूल सूत्र आदि संज्ञायें आगमों में नहीं हैं, इससे प्रतीत होता है कि ये दोनों संज्ञाएं अर्वाचीन हैं। प्रस्तुत सूत्र के अतिरिक्त उपाङ्ग संज्ञा का कहीं पर भी उल्लेख देखने को प्राप्त नहीं हुआ। यह तो भली भांति सिद्ध होता है कि अङ्गों के उपाङ्ग होते ही हैं, अतः श्रुत रूपी पुरुष के १२ अंग और १२ ही उपाङ्ग-युक्ति सिद्ध हैं। ये उपाङ्ग पांच वर्गों के नामों से सुप्रसिद्ध हैं। आचार्य हेमचन्द्र . . जी भी अपने अभिधानचिन्तामणि कोष में लिखते हैं । जैसे कि-- आचारानं सूत्रकृतं स्थानाङ्ग समवाययुक् । पञ्चमं भगवत्यङ्गं ज्ञाताधर्मकथाऽपि च ॥ १५७ ॥ उपासकान्तकृदनुत्तरोपपातिकास्तथा । प्रश्नव्याकरणं चैव विपाकश्रुतमेव च ॥ १५८ ॥ इत्येकादश सोपाङ्गान्यङ्गानि। (देवकाण्ड, द्वितीय) इत्येकादश प्रवचनपुरुषस्य अङ्गानीवाऽङ्गानि सहोपाङ्गरोपपातिकादिभिर्वर्तन्ते सोपाङ्गानि ॥ उक्त सूत्र में जो सुधर्मा स्वामी और जम्ब स्वामी का संक्षिप्त वर्णन किया गया है, यह समग्र पाठ "व्याख्या प्रज्ञप्ति सूत्र" के प्रथम उद्देशक में प्राप्त होता है, उस सूत्र के प्रथम शतक के प्रथम उद्देशक में गौतम स्वामी विषयक वर्णन किया गया है। वह समग्र पाठ उक्त पाठ से सम्बन्ध रखता है, केवल नाम मात्र का ही अन्तर है। Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ग-प्रथन ] (१०) [ निरयावलिका सूत्रम् . उत्थानिका-अब सूत्रकार फिर उक्त विषय में ही कहते हैं मल-जइ णं भन्ते ! समणेणं जाव संपत्तेणं उबंगाणं पंच वग्गा पण्णता तं जहा-निरयावलियाओ जाव वहिदसाओ, पढमस्स णं भंते ! वग्गस्स उवंगाणं निरयावलियाणं समणेणं भगवया जाव संपत्तेणं कई अज्झयणा पण्णत्ता ? एवं खलु जंबू ! समणेणं जाव संपत्तेणं उवंगाणं पढमस्स वग्गस्त निरयावलियाणं दस अज्झयणा पण्णता, तं जहा काले सकाले महाकाले कण्हे सुकण्हे । तहा महाकण्हे वीरकण्हे य बोद्धव्वे । रामकण्हे, तहेव य पिउसेणकण्हे नवमे। दसमं महासेणकण्हे उ ॥५॥ छाया-यदि णं भदन्त ! श्रमणेण यावत् सम्प्राप्तेन उपाङ्गानां पञ्चवर्गाः प्रज्ञप्ता: तद्यथा निरयावलिकाः यावत् वृहिदशा, प्रममस्य णं भदन्त ! वर्गस्य उपाङ्गानां निरयावलिकानां श्रमेण भगवता यावत् सम्प्राप्तेन कति अध्ययनानि प्रज्ञप्तानि । एवं खलुं जम्बू ! श्रमणेनं यावत् सम्प्राप्तेन उपाङ्गानां प्रथमस्य वर्गस्य निरयावलिकानां दश अध्ययनानि प्रज्ञप्तानि तद्यथा कालः मुकलः महाकालः कृष्णः सुकृष्णःस्तथा । महाकृष्णः वीरकृष्णश्च बोधब्या । रामकृष्णःस्तथैव च पितृ सेन कृष्णः नवमः । दशमः महासेन कृष्णस्तु ॥५॥ पदार्थान्वय:-णं-वाक्यालङ्कार अर्थ में है, भन्ते -हे भगवन्, जई -यदि, समणेणंश्रमण, भगवया-भगवान्, महावीरेणं-महावीर स्वामी ने, जाव-यावत्, संपत्तेणं-मोक्ष प्राप्त करने वाले, उवगाणं-उपाङ्गों के, पंचवर्गा-पांच वर्ग, पग्णता-प्रतिपादित किए हैं, तं जहा-जैसे कि, निरयावलियाओ-निरयावलिका, जाव-यावत्, वण्हिदसाओ-वृष्णिदशा, णं-वाक्यालङ्कार अर्थ में है, भन्ते-तो हे भदन्त, पढमस्स-प्रथम, वग्गस्स-वर्ग के, उबंगाणंउपांग, निरयावलियाणं-निरयावलिका सूत्र का, समणेणं-श्रमण, भगवया-भगवान, जावयावत्, संपत्तेणं-मोक्ष को प्राप्त हुए ने, कइ अज्झयणा-कितने अध्ययन, पण्णता-प्रतिपादित किए हैं। एवं खलु जंबू-इस प्रकार हे जम्बू ! निश्चय से, समणेणं-श्रमण, जाव.-यावत् Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरपालिका सूत्रम् ] ( ११ ) [ वर्ग - प्रथम संपत्ते - मोक्ष सम्प्राप्तने, उबगाण पढमस्स बस - उपाङ्गों के प्रथम वर्ग के, निरावलियाणंनिरयावलका सूत्र के दस अन्यणा पण्णत्ता - दश अध्ययन प्रतिपादित किए हैं, तं जहा -जैसे कि, काले काल कुमार का, सुकाले-सुकाल कुमार का, महाकाले - महाकाल कुमार का, कण्हे— कृष्ण कुमार का, सुपर कृष्ण कुमार का, तहा— तथा, महाकण्हे - महाकृष्ण कुमार का, य-और, वीरकण्हे बोद्धब्वे - वीर कृष्ण कुमार का जानना चाहिए, य- पुनः, तहेव - उसी प्रकार रामकहे- राम कृष्ण का, नवमे - नवमा, पिउ सेणकण्हे - पितृसेन कृष्ण कुमार का और दस मे - दशवें महासेण कण्हे - महासेन कृष्ण का, उ--वितर्क अर्थ में है । मूलार्थ—हे भदन्त ! यदि श्रमण भगवान् महावीर स्वामी यावत् मोक्ष प्राप्त हुए ने उपाङ्गों के पांच वर्ग कथन किए हैं, जैसे कि निरयावलिका यावत् वृष्णिदशा तो हे भदन्त ! प्रथम वर्ग के उपाङ्ग निरयावलिका के श्रमण भगवान महावीर यावत् मोक्ष प्राप्त मे कितने अध्ययन प्रतिपादित किए हैं । इसके उत्तर में श्री सुधर्मा स्वामी कहने लगे इस प्रकार निश्चय ही हे जम्बू ! श्रमण भगवान महावीर यांवत् मोक्ष प्राप्त ने उपाङ्गों के प्रथम वर्ग निरयावलिका के दस अध्ययन प्रतिपादित किए हैं। जैसे कि - १ काल, २ सुकाल, ३ महाकाल, ४ कृष्ण, ५ सुकृष्ण, ६ महाकृष्ण, ७ वीरकृष्ण ८ रामकृष्ण, ९ पितृसेन कृष्ण और महासेन कृष्ण । प्रत्येक अध्ययन प्रत्येक कुमार के नाम पर कथन किया गया है । टीका --- इस सूत्र में प्रथम वर्ग के अध्ययनों के विषय का वर्णन किया गया है। यहां पर "वर्ग" शब्द अध्ययनों के समूह का नाम है । तो प्रथम वर्ग में दस अध्ययनों का विषय वर्णन किया गया है। इस विषय में वृत्तिकार निम्न प्रकार से लिखते हैं प्रथमवर्गोदशाध्ययनात्मकः प्रज्ञप्तः अध्ययनदशकमेवाह - 'काले सुकाले' इत्यादि । मातृनामभिस्तदपत्यानां - पत्राणां नामानि यथा काल्या अयमिति कालः कुमारः, एवं सुकाल्याः महाकाल्या: कृष्णायाः सकृष्णायाः मराकृष्णायाः वीरकृष्णायाः रामकृष्णायाः पितृसेनकृष्णाया: महासेनकृष्णाया: अयमित्येव पुत्रनाम वाच्यम् । इह काल्या अपत्यमित्याद्यर्थे प्रत्ययो नोत्पाद्यः, काल्यादिशब्देष्वपत्येऽर्थे एयण प्राप्तया कालसुकालादिनाम सिद्धेः एवं चाद्यः १ कालः, २ तदनुसुकालः ३ महाकाल:, ४ कृष्णः, ५ सुकृष्णः, ६. महाकृष्णः ७ वीरकृष्णः, ८ रामकृष्णः, ६ पितृसेन कृष्ण, १० महासेन कृष्णः, दशमः । इत्येवं दशाध्ययनानि निरयावलिकानाम के प्रथमवर्गे इति ॥ इस पाठ का भाव यह है कि महाराज श्रेणिक की काली आदि दस रानियां थीं । उनके काली कुमार आदि १० पुत्र हुए। प्रत्येक अध्ययन प्रत्येक पुत्र के नाम पर इस वर्ग में कथन किया गया है। १० कुमार नरक में गये थे, अतः इस वर्ग का नाम निरयावलिका है। किस प्रकार वे नरक में गए। ? Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ग-प्रथम ] (१२) [निरयावलिका सूत्रम् इस विषय का विस्तृत वर्णन इस अध्ययन में किया गया है जो ऐतिहासिक व्यक्तियों के लिए अत्यन्त उपयोगी है। सूत्र कर्ता ने 'समणेणं भगवया जाव संपतेणं' आदि जो पद दिए हैं इनका भाव यह है कि यह कथन श्रमण भगवान महावीर स्वामी का है, न कि अन्य किसी द्वारा यह विषय प्रतिपादित किया गया है। इस घटना के भगवान महावीर के सन्मुख होने से उस समय की परिस्थितियों का सम्पूर्ण ज्ञान प्राप्त होता है, इसलिए इस विषय का ध्यानपूर्वक पठन करना चाहिए। उत्थानिका-अव सूत्रकार प्रथम वर्ग के प्रथम अध्ययन के विषय का वर्णन करते हैं मूल-जइणं भंते ! समणेणं जाव संपत्तेणं उबंगाणं पढमस्स वग्गस्स निरयावलियाणं दस अज्झयणा पण्णत्ता, पढमस्स णं भंते ! अज्झयणस्स निरयावलियाणं समजेणं जाव संपत्तेणं के अढे पण्णत्ते ? एवं खलु जंबू । तेणं कालेणं तेणं समएणं इहेव जंबु होवे दीवे भारहे वासे चंपा नाम नयरी होत्था, रिद्ध० । पुन्नभद्दे चेइए ॥६॥ छाया-यदि णं भवन्त श्रमणेन यावत् सम्प्राप्तेन उपाङ्गानां प्रथमस्य निरयावलिकाणां दश अध्ययनानि प्रज्ञप्तानि, प्रथमस्य णं भवन्त ! अध्ययनस्य निरयावलिकाणां श्रमणेणं यावत् सम्प्राप्तेन कोऽर्थः प्रज्ञप्तः एवं जम्बू ! तस्मिन् काले तस्मिन् समये इहैव जम्बूद्वीपे द्वोपे भारतवर्षे पम्पा नाम्नी नगरी अभूत् । ऋद्ध० पूर्णभद्रं चैत्यं ॥ ६ ॥ पदार्थान्वय:-णं-वाक्यालंकार अर्थ में, भंते-हे भदन्त, जइ-यदि, समणेणं-श्रमण, जाव-यावत्, सम्पत्तेणं-मोक्ष प्राप्त ने, उवंगाणं-उपाङ्गों के, पढमस्स वग्गस्स-प्रथम वर्ग के, निरयावलियाणं-निरयावलिका सूत्र के, समणेणं-श्रमण भगवान महावीर ने, जाव-जो यावत्, संपत्तेणं-मोक्ष को प्राप्त हो गए हैं, के अट्ठपण्णते-क्या अर्थ प्रतिपादन किया है ? एवं खलु जम्बू-इस प्रकार निश्चय से हे जम्बू, तेणं कालेणं तेणं. समएणं-उस काल और उस समय में, इहेव-इसी, जंबुद्दीवे दोवे-जम्बूद्वीप नाम के द्वीप में, भारहे वासे- भारतवर्ष में, चंपा नाम नयरी होत्था-चम्पा नाम की नगरी थी, रिद्ध० -ऋद्धि यावत् धन-धान्य से युक्त थी, पुन भद्दे चेइए और उसके पूर्व और उत्तर दिशा के मध्य भाग में ईशान कोण में पूर्णभद्र नाम का चैत्य उद्यान था। ___ मूलार्थ-(आर्य जम्बू अपने गुरु गणधर गौतम से प्रश्न करते हैं) हे भगवन् ! यदि यावत् मोक्ष को प्राप्त हुए श्रमण भगवान महावीर स्वामी ने उपाङ्गों के प्रथम वर्ग निरयावलिका सूत्र के दस अध्ययन प्रतिपादित किए हैं, तो हे भगवन् । पहले अध्ययन Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरयायलिका सूत्रम् ] (१३) [ वर्ग-प्रथम निरयावलिका सूत्र के मोक्ष संप्राप्त श्रमण भगवन् महावार ने क्या अर्थ प्रतिपादन किया है ? इसके उत्तर में श्री सुधर्मा स्वामी जम्बू स्वामी के प्रति कहने लगे-हे जम्बू ! उस काल उस समय में इसी जम्बू द्वीप नाम के द्वीप में स्थित भारतवर्ष में चम्पा नाम की नगरी थी जो भवनादि से युक्त, भय से रहित, धन-धान्य से पूर्ण थी। इस नगरी के बाहर ईशान कोण में पूर्णभद्र नाम का एक उद्यान था, उस उद्यान में एक पूर्णभद्र यक्ष का आयतन था अर्थात् पूर्णभद्र यक्ष का मन्दिर था। टोका-इस सूत्र में पूर्णभद्र आदि स्थानों का वर्णन किया गया है । आर्य जम्बू ने प्रश्न किया कि हे भगवन ! यदि श्रमण भगवान महावीर स्वामी जो मोक्ष प्राप्त कर चुके हैं उन्होंने उपाङ्गों के प्रथम वर्ग निरयावलिका नामक सूत्र के दस अध्ययन प्रतिपादन किए हैं, तो हे भगवन ! प्रथम वर्ग के प्रथम अध्ययन का क्या अर्थ कथन किया है ? उत्तर- "हे शिष्य ! हे जम्बू ! वह काल जो अवसर्पिणो काल का चतुर्थ विभाग रूप था उस समय में अर्थात् जिस समय श्री भगवान महावीर विद्यमान थे, इसी जम्बू द्वीप नामक द्वीप में स्थित भारतवर्ष में चम्पा नाम की नगरी थी जो ऋद्धि आदि गुणों से युक्त तथा परम रमणीय थी और उसके बाहर ईशान कोण में पूर्णभद्र नाम का उद्यान था उसमें एक पूर्णभद्र नामक यक्ष का मन्दिर था। वह व्यन्तरायतन जनता की अभीष्ट इच्छाओं की पूर्ति करने में समर्थ था-इस का विस्तृत वर्णन औपपातिफ सूत्र से जानना चाहिये। चम्पा नाम की नगरी का वर्णन भी उसी सूत्र में विस्तार पूर्वक किया गया है, अतः जिज्ञासुओं को उक्त सूत्र का स्वाध्याय अवश्य करना चाहिए। उत्थानिका-अब सूत्रकार चम्पा नगरी का वर्णन करते हुए कहते हैं मूल-तत्थ णं चंपाए नयरीए सेणियस्स रन्नो पुत्ते चेल्लणाए देवीएअत्तए कूणिए नामं राया होत्था, महया० ॥ ७ ॥ छाया-तत्र णं चंपायाम् नगर्याम् श्रेणिकस्य राज्ञः पुत्रः चेलनायाः देव्याः आत्मजः कूणिकः नाम राजा अभवत् । महान्। पदार्थान्धयः-णं-वाक्यालङ्कार में, तत्थ-उस, चंपाए-चम्पा नाम वाली, नयरीएनगरी में, सेणियस्स रणो-राजा श्रेणिक का, पत्ते-पुत्र, चेल्लणाए-चेलना, देवीअत्तए-देवी का आत्मज, कूणिए णाम-कूणिक नाम का, महया-महान, राया होत्था-राजा था। Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ग-प्रथम ] (१४) [निरयावलिका सूत्रम् । मलार्थ उस चम्पा नाम की नगरी में राजा श्रेणिक का पूत्र चेलना देवी का आत्मज कोणिक नाम का एक महान राजा था। टीका--इस सूत्र में संक्षेप से कणिक राजा का वर्णन किया गया है, जैसे कि उा चम्पा नगरी में राजा श्रेणिक का पुत्र और चेलना देवी का आत्मज कोणिक नाम का राजा राज कर था। इसका सम्पूर्ण बर्णन औपपातिक सूत्र में किया गया है। यह राजा महा हिमवान पर्वत के समान अन्य राजाओं की अपेक्षा से महान था। उस का राज्य निष्कण्टक था । उस राजा ने बहुत से राजाओं पर विजय प्राप्त की थी और अनेक शत्रुओं का मान मर्दन किया था तथा न्यायशील था, किन्तु उपके पुण्य के प्रभाव से राज्य में विघ्न, ज्वर, मरी, दुभिक्ष तथा संग्राम आदि का सर्वथा अभाव था। प्रजा प्रसन्नता-पूर्वक जीवन व्यतीत कर रही थी। नगरी धन-धान्य से परिपूर्ण थी। चारों ओर . सर्व प्रकार से लक्ष्मी की वृद्धि ही रही थी। सर्वत्र लक्ष्मी का बोल-बाला था। नये से नये आविष्कारों का प्रादुर्भाव हो रहा था। राज्य में सर्वत्र शान्ति एवं उन्नति का साम्राज्य था। उत्थानिका—अब सूत्रकार राजा की रानी के विषय में कहते हैं मूल-तस्स णं कूगियस्स रन्नो पउमावई नाम देवी होत्था, सोमाल जाव विहरइ ॥ ८॥ छाया- तस्य णं कूणिकस्य राज्ञः पद्मावती नाम्नी देवी अभवत सुकुमाल यावत् विहरति । पदार्थान्वयः-णं - प्राग्वत्, तस्स-उस, कणियस्स रनो-राजा कोणिक की, पउमावईपद्मावती, नाम-नाम वाली, देवी-देवी (महारानी), होत्था थी। सोमाल-सुकुमार, जावयावत्, विहरइ-विचरती है। मूलार्थ- उस राजा कोगिक की पद्मावती नाम की देवी (महारानी) थी जो सुकुमार यावत् सुख भोगती हुई विचरती थी। टोका-इस सूत्र में रानी पद्मावती देवी का वर्णन किया गया है। राजा कोणिक की एक पदाबती नाम वाली रानी थी जिसके हस्त और पाद सुकोमल थे, वह पांचों इन्द्रियों से पूर्ण, शरीरलक्षणों व्यजनों और गुणों से युक्त थी। स्वस्तिक चक्रादि लक्षण होते हैं और मस्सा तिल का द व्यञ्जन होते हैं । वह स्त्रियोचित सभी गुणों से पूर्ण थी। मान और उन्मान से युक्त थी। इतना ही नहीं, उसका शरीर प्रतिपूर्ण था और वह सर्वाङ्ग सुन्दर थी। वृत्तिकार मान और उन्मान का वर्णन निम्न प्रकार से करते हैं तत्र मान-जलोणप्रमाणता कथं ? जलस्यातिभते कुण्डे पुरुषे निवेशिते यज्जलं निःसरति तहि द्रोणमान भवति, तदा स पुरुषो मानप्राप्त उच्यते, तथा उन्मानम् अर्धभार-प्रमाणता, कथं ? Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरयाबलिका सूत्रम् ] (१५) [वर्ग-प्रथम तुलारोपितः पुरुषो यद्यर्धभारं तुलयति तदा स तन्मानप्राप्त उच्यते । प्रमाणं तु स्वांगुलेनाष्टोत्तरशतोच्छायिता, ततश्च मानोन्मानप्रमाणः प्रतिपूर्णानि अन्यूनानि सुजातानि सर्वाणि अङ्गानि-शिरः प्रभूतानि यस्मिस्तत् तथाविधं सुन्दरम् अङ्ग-शरीरं यस्या सा तथा । ___ इस का भाव यह है कि किसी जल-कुण्ड में पुरुष के बैठने पर यदि एक द्रोण मात्र प्रमाण जल बाहर निकल जाता है तब वह पुरुष द्रोणमान प्रमाण कहा जाता है। तुला में आरोपण किया हुआ पुरुष वदि अर्ध भाग के तुल्य होता है तब उसको उन्मान-प्राप्त कहते हैं। अपनी अंगुलों से १०८ अंगुल ऊंचा हो तो उसे प्रमाण-युक्त कहते हैं। वह देवो उक्त गुणों से पूर्ण थी। उसका मुख चन्द्रवत् सौम्याकार था। इतना ही नहीं वह सरूपा थी-शरद पूर्णिमा के चन्द्र सदृश उसका मुख-मण्डल था। रानी के कर्ण-कुण्डलों की आभा से कपोलों की छवि द्विगुणित हो रही थी, मानो शृगार रस स्वयं अपना रूप धारण कर मुख पर आ बैठा हो । वह महाराजा कूणिक की हृदय-बल्लभा थी तथा अपूर्व सुखों का अनुभव करती हुई विचर रही थी। इसका विशेष वर्णन औपपातिक सूत्र में देखें। उत्थानिका :-अब सूत्रकार काली देवी का वर्णन करते हुए कहते हैं। ___ मूल-तत्थ णं चंगाए नयरीए सेणियस्स रन्नो भज्जा कूणियस्स रन्नो चुल्लमाउया काली नामं देवी होत्था, सोमाल जाव सुरूवा। तीसे णं कालीए देवीए पुत्ते काले नामं कुमारे होत्था, सोमाल नाम सुरूवे । ॥६॥ छाया-तत्र णं चम्पायां नगर्याम् श्रेणिकस्य राज्ञः भार्या कूणिकस्य राज्ञः लघु माता (चुलमाउया) काली नाम्नो देवी अभवत्, सुकुमाल यावत् सुरूया। तस्याः णं काल्याः देव्याः पुत्रः कालः नामा कुमारः अभवत्, सुकुमाल यावत् सुरूपः । ___पदार्थाम्वयः-तत्थ-उस, णं-वाक्यालङ्कार में, चंपाए नयरीए-चम्पा नगरी में, सेणियस्सश्रेणिक, रन्नो राजा श्रेणिक की, भज्जा-भार्या, कूणिपस्स - कोणिक, रन्नो--राजा की, चुल्लमाउया-लघु माता, कालो नामं-काली नाम वाली, देवी होत्था -देवी थी, सोमाल-सुकुमाल, जाव सुरूवा-यावत् सुरूपा थी, तोसे णं कालीए देवीए-उस काली देवो का, पुत्ते-पुत्र, काले नाम कुमारे होत्या-काल नाम वाला कुमार था। सोमाल जाव सुरूवे-सुकुमाल यावत् सुरूप था। ___ मूलार्थ-उस चम्पा नगरी में राजा श्रेणिक की भार्या कोणिक राजा की लघु माता काली नाम वाली देवी थी, जो सुकुमार और सुरूपवती थी। उस काली देवी Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ग-प्रथम ] (१६) [ निरयावलिका सूत्रम् का पुत्र “काल" नाम का कुमार था । वह भी सुकुमार और सुन्दर रूप वाला था। टीका-इस सूत्र में काली देवी और उसके पुत्र का वर्णन किया गया है । हस्तलिखित प्रतियों में पुत्र के विषय में “सुकुमाल-"सकमाल पाणीपाए जाव सुरूवे" इस प्रकार पाठ दिया गया है, महाराजा श्रेणिक की भार्या और कोणिक राजा की अपर माता काली नाम वालो देवी चम्पा नगरी में रहती थी। इस का पूर्ण वर्णन औपपातिक सूत्र से जानना चाहिए। उस सूत्र से एवं ज्ञाताधर्म-कथाङ्ग सूत्र से कुछ पद लेकर वृत्तिकार ने निम्न प्रकार से उस के विषय में वर्णन किया है ___ सा च काली “सेणियस्स रन्नो इट्ठा" वल्लभा कान्ता काम्यत्वात्, 'पिया' सदा प्रेमविषयत्वात, 'मणुना सुन्दरत्वात्, 'नामधिज्जा' प्रशस्तनामधेयवतीत्यर्थः नाम वा धार्य-हृदि धरणीयं यस्याः सा तथा 'वेसासिया' विश्वसनीयत्वात् 'सम्मया' तत्कृतकार्यस्य संमतत्वात्, ‘महुमतां' बहुशो बहुभ्यो वान्येभ्यः सकाशात् बहुमता बहुमान-प्राप्तं वा, 'अणुमया' प्रियकरणस्यापि पश्चान्मताऽनु पता 'भंडकरंउकसमाणा' आभरण-करण्डकसमाना उपादेयत्वात् सुरक्षितत्वाच्च । 'तेल्लकेला इव सुसंगोविया तैलकेला सौराष्ट्रप्रसिद्धो मण्मयस्तैलस्य भाजनविशेष, स च भङ्ग भयात् लोचनभयाच्च सुष्ठ संगोप्यते, एवं साऽपि संगोप्यते तथोचते । 'चेलापेडा इव सुसंपरिगहिया' वस्त्रमञ्ज षेवेत्यर्थः ‘सा काली देवी सेणिए ण रन्ना सद्धि विउलाई भोग भोगाइं भुंजमाणा विहरई'। कालनामा च तत्पुत्रः 'सोमाल पाणिपाए' इत्यादि प्रागुक्तवर्णकोपेतो वाच्यः, यावत् 'पासाइए दरिसणिज्जे अभिरूवे पडिरूवे' इति। ___इस पाठ का भाव यह है कि वह काली देवी महाराजा श्रेणिक. की वल्लभा, प्रिय विश्वसनीय सम्मत बहुमत आभरण करण्डक के समान, सुगन्धमय तेल के भाजन के समान, वस्त्रमञ्जूषा के समान अति प्रिय थी, अतः राजा श्रेणिक के साथ उसका परम स्नेह था और उसके हाथ, पांव बड़े ही सुकुमार थे। उस काली देवी का पुत्र काल नामा कुमार था जो सुकूमाल और सर्वाङ्ग पूर्ण (वा सुरूप) था। जिस प्रकार ज्ञाता-धर्म-कथाङ्ग सूत्र में मेघ कुमार का वर्णन किया गया है, उसी प्रकार इसके विषय में जानना चाहिए। उत्थानिका अब सूत्रकार काली कुमार के विषय में कहते हैं : मूल तए णं से काले कुमारे अन्नया कयाइ तिहिं दन्तिहसस्सेहि तिहिं रहसहस्सेहिं तिहिं आससहस्सेहिं तिहिं मणुयकोडोहिं गरुलवूहे । एक्कारसमेणं खंडेणं कूणिएणं रण्णा सद्धि रहमुसल संगामं ओयाए । ॥१०॥ छाया-ततः णं सः कालः कुमारः अन्यदा कदाचित् त्रिभिः दंतीसहस्रः त्रिभिः रथसहस्रः, त्रिभिः अश्वसहस्रः, त्रिभिः मनुज कोटिभिः गरुड-व्यू हे एकादशेन खण्डेन कूणिकेन राजा साधं रथमूशलं संग्रामं उपयातः। Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निश्यावलिका सूत्रम् [ वर्ग - प्रथम पदार्थान्त्रयः—तए णं से काले कुमारे- तत्पश्चात् वह काल कुमार, अन्नया कथाइ – किसी अन्य समय, तिहिं - तीन, दंति सहस्सेहि- हजार हाथियों, तिहि — तीन, रहसहस्सेहि- हजार रथों और तिहि आसस हस्सेह - तीन हजार घोड़ों के साथ, तिहि मणुयकोडीह - तीन करोड़ मनुष्यों के साथ, गरुजवू हे - गरुड़ व्यूह, एक्कारसमेणं खंडेणं - राज्य के एकादशवें भाग के भागीदार, कूणिएणं रन्ना सद्धि—कोणिक राजा के साथ, रहमुसलं - रथमूसल नाम वाले, संगामं - संग्राम में, ओयाएप्राप्त हुआ अर्थात्-रथमूसल संग्राम में गया । ( १७ ) मूलार्थ – तत्पश्चात् वह काल कुमार किसी अन्य समय तीन सहस्र हस्ती, तीन सहस्र रथ, तीन सहस्र अश्व और तीन करोड़ मनुष्यों को साथ लेकर राज्य के एकादशवें भाग के भागीदार राजा कोणिक के साथ गरुड़ व्यूह के आकार वाले रथ- मूसल संग्राम में प्रवृत्त हुआ । टीका - इस सूत्र में रथमूसल संग्राम का वर्णन किया गया है, इस स्थान पर जिज्ञासुओं जानने के लिए उक्त विषय का संक्षेप में वर्णन करते हैं । वृत्तिकार ने लिखा है कि श्रेणिक राजा के राज्य में दो रत्न उत्पन्न हुए - (१) अष्टादश व हार और ( २ ) सेचनक हस्ती । इनके कारण से ही संग्राम हुआ जैसे कि लिखा है सेस्सि रज्जे दुवे रयणा - १. अट्ठारसबंको हारो २. सेयणगे हत्थीए । तत्थ किर सेणियस्स रन्नो जावइयं रज्जस्स मुल्लं तावइयं देवदिन्नहारस्स सेयणगस्स य गन्धहत्थिस्स । तत्थ हारस्स उपपत्ती- पत्याचे कहिज्जिस्सइ । कूगिवत्स य एत्थेव उत्पत्ती वित्थरेण भणिस्सई । तथा कोणिक राजा के साथ कालादि दश कुमार चम्पा नगरी में राज्य करते थे । वे सब दोगुन्दु देवों के समान सांसारिक सुखों का अनुभव करते हुए विचरते थे । हल्ल, विहल्ल नामों वाले कोणिक राजा के दो भ्राता थे । अहार की उत्पत्ति के विषय में कहते हैं । शक्रेन्द्र द्वारा श्रेणिक राजा की भक्ति की प्रशंसा सुनकर एक देव उस भक्ति से प्रसन्न होगया। उसने राजा श्रेणिक को अष्टादशवक हार दिया ओर दो वृत्त गोलक दिए । राजा ने वह हार चेलना नाम वाली देवी को दे दिया और वृत्त - गोलक मंत्री अभय कुमार की माता सुनन्दा देवी को दिए। रानो ने उनको तोड़ कर उनमें से एक में से कुण्डल युगल और एक में से वस्त्र-युगल ग्रहण किए । एक बार मन्त्री अभय कुमार ने श्री श्रमण भगवान् महावीर स्वामी से पूछा - भगवन् ! आपके पश्चात् अन्तिम राजष कौन होगा ? भगवान महावीर ने उत्तर में कहा - 'राजा उद्दायिन राजर्षि होगा । तत्पश्चात् बद्धमुकुट राजा दीक्षित नहीं होंगे। तत्पश्चात् राजा श्रेणिक ने अभय कुमार को राज्य देने का निश्चय किया, किन्तु अभय कुमार ने राज्य लेना स्वीकार नहीं किया । तब राजा श्रेणिक Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१८) [ निश्यावलिका सूत्रम् कोणिक कुमार को राज्य देने का निश्चय कर हल्ल कुमार को सेचनक हस्ती दे दिया और विल्ल कुमार को देव का दिया हुआ हार दिया गया । वर्ग - प्रथम ] मंत्री अभयकुमार के दीक्षित होने पर सुनन्दा देवी ने क्षौम-युगल और कुण्डल-युगल हल्ल और विल्ल कुमार को दे दिये । तव बृहत् महोत्सव के साथ अभय कुमार और उनकी माता सुनन्दा देवी दीक्षित हो गए । राजा श्रेणिक की रानी चेलणा देवी के तीन पुत्र हुए - १. कोणिक, २ . हल्ल और ३. विहल्ल । अब कोणिक की उत्पत्ति के विषय में कहते हैं— काली महाकाली प्रमुख राजा श्रेणिक की रानियों से काल कुमार आदि बहुत से पुत्र थे। अभय कुमार के दीक्षित होने पर किसी अन्य समय कोणिक कुमार काल आदि दश कुमारों को आमन्त्रित कर कहने लगा - हे कुमारो ! राजा श्रेणिक के विघ्न के कारण हम राज्य का सुख प्राप्त नहीं कर सकते, अतः आओ हम पिता को कारागृह में डालकर राज्य के ११ भाग करें और राज्य के सुखों का अनुभव करें, उन दश कुमारों ने भाई की इस बात को स्वीकार कर लिया । तब कोणिक ने श्रेणिक को बांध कर कारागृह में डाल दिया। वहां पर कोणिक उसे अनेक प्रकार के कष्ट देने लगा वृत्तिकार ने प्राकृत में इस विषय में इस प्रकार लिखा है कि दोगुम्बुगदेवा इव कामभोग-परायणास्त्रयस्त्रिश या देवाः फुट्टमाणेहि मुइंगमन्थएहिं वरतरुणिसप्पिणिहिए बत्तीसपत्तनिबद्ध हि नाडरहि उवगिज्जमाना भोगभोमाई भुंजमाणा विहरति । हल्ल - विहल्लनामाणो कुणियस्स चिल्लणादेवी- अंग-जाया दो भायरा अन्नेऽवि अस्थि । अहुणा हारस्स उप्पत्ती भन्नइ - इत्थ सक्को सेणियस्स भगवंतं पर निच्चलभत्तिस्स पसं करेइ । तओ सेडुयस्स जीव देवो तब्भत्ति-रंजिओ सेणियस्स तुट्ठो सन्तो अट्ठारसबंक हारं देइ । दोन्निय वट्टगोलके देइ । सेणिएणं सो हारो चेलगाए दिन्नो पिय त्ति कांउं, वट्टदुगं सुनंदाए अभयमंति जगणीए । ताए रुट्ठाए कि अहं वेडरूत्रं त्ति काऊन अच्छोडिया भग्गा, तत्थ एगम्मि कुंडलजय एगम्मि वत्थ-जुयलं तुट्ठाए गहियाणि । अन्नया अभओ सामि पुच्छइ - " को अपच्छिमो रायरिसित्ति ?" सामिणा उद्दायिणो वारिओ, आओ परं वद्धमउडा न पव्वयंति । हे अभए रज्जं दिज्जमाणं न इच्छित्रं ति पच्छा सेणिओ चितेइ - "कोणिय स दिज्ज त्ति, हल्लस्य हरिथ दिन्नो, सेयणगो विहल्लस्स देवदिन्नो हारो अभएण वि पव्वयंतेण सुनंदाए खोमजु यलं कुंडलजुबलं च हल्ल-विहल्लाणं दिन्नाणि । महया विहवेण अभओ नियजणगीसमेओ पव्वइओ । सेणियस्स चलणादेवी - अंग-समुब्भूया तिन्नि पुत्ता कूणिओ हल- विहल्ला य । कूणियस्स उत्पत्ती एत्थेव भणिस्स । काली महाकाली पमुहदेवीणं अन्नासि तणया सेणियस्स बहवे पुत्ता काल Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरयावलिका सूत्रम् ] (१९) [ बर्ग-प्रथम - पमुहा संति । अभयम्मि गहियव्वए अन्नया कोणिओ कालाइहि दसहि कुमारेहि सम मंतेइ-"सेणियं सेच्छाविग्धकारयं बंधिता एक्क रसभाए रज्जं करेमो ति।" तेहि पडिस्सुयं, सेणिओ बद्वो ।पुरवन्हे अवरन्हें य कससयं दवावेइ सेणियस्य कूणिओ पुव्वभवे वेरियत्तणेण। चेल्लणाए कयाइ भोयं नदेइ, भत्तं वारियं पाणियं न देइ । ताहे चेल्लगा कह वि कुम्मासे वालेहिं बंधित्ता सयवारं सुरंपवेसेइ ।सा फिर घोव्वइ सयवारे सुरापाणियं सव्वं होइ। तीए पहावेग सो अयणं न वेएइ। इस समस्त पाठ का अर्थ ऊपर ही प्रकट कर दिया गया है। राजा कोणिक जब राज-सिंहासन पर स्वयं ही बैठ गया तब वह चेलना देवी माता जी के चरण-वन्दन करने के लिए गया। माता उसे देखकर प्रसन्नता प्रकट न कर सकी। तब उसने कहा-"हे माता ! मुझे राज्य की प्राप्ति हुई है, क्या तूं इस विषय में प्रसन्न नहीं हैं ?" माता ने उत्तर में कहा-'हे पुत्र ! देव-गुरु के समान पिता को तू ने कारागृह में बन्द कर दिया है, मुझे प्रसन्नता किस बात की हो।" तब इसके उत्तर में उसने कहा___माता-"राजा श्रेणिक मुझे मारना चाहता था।" माता ने कहा-"पुत्र ! तेरा यह विचार निराधार है। जब तू बाल्यावस्था में था तब तेरी अंगुलो में पोप और शोणित के कारण अत्यन्त वेदना हो रही थीं, तब आपके पूज्य पिता इस अंगुली को मुख में डाल कर तुम्हें शान्त करते थे।" तब कोणिक ने कहा "हे माता जी यदि मेरे पूज्य पिता जी मुझ से परम स्नेह रखते थे तो मैं अभी उनकी बेड़ी आदि को काट कर लाता हूं। फिर वह परशु हाथ में लेकर कारागृह में गया। महाराज श्रेणिक ने उसे प्राते हुए देखकर भयभीत होकर तालपुट विष के द्वारा प्राण त्याग दिए । जब कोणिक ने उनको मृत पाया तब उसने वियोग-जन्य-दुःख के साथ पिता का अन्त्येष्टि संस्कार किया। कुछ समय के पश्चात् जब उसका शोक दूर होगया तब उसने राजगृही नगरी को छोड़कर चम्पा नगरी को अपनी राजधानी बनाया। उक्त वर्णन निम्नलिखित वृत्ति पाठ से जिज्ञासु जन अवगत करें अन्नया तस्स पउमावईदेवीए पुत्तो एवं पिओ अस्थि । मायाए सो भणिओ-“दुरात्मन् ! तव अंगुली किमिए वसंतो पिया मुहे काऊग अस्थियाओ, इयरहा तुमं रोयंतो चेब चिट्ठसु।” ताहे चित्तं मणःगुवसंतं जायं । मए पिया एवं वसणं पाविओ, तस्स अधिई जाया। भुजंतओ चेव उट्ठाय परसुहत्यगओ, अन्ने भगति लोहदंडं गहाय, 'नियलाणि भंजामि' ति पहाविओ। रक्खवालगो नेहेण भणइएसो सो पावी। लोहदंडं परसु वा गहाय एइ' ति। सेणिएण चितियं 'न नज्जइ केण कुमारेण मारेहि ?" तउ तालपुडगं विसं खइयं । जाव एइ ताव मओ। सुठु यरं अधिई जाया। ताहे यमकिञ्चं काऊण घरमागओ, रज्जधुरामुक्कतत्तीओ तं चेव चितंतो अच्छइ । Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ग - प्रथम ] ( २० ) [ निश्यावलिका सूत्रम् एवं काले विसोगो जाओ । पुणरवि सयणआसणाईए पिइसंतिए दट्ठूण अधिई होई । तओ रायगिहाओ निग्गंतुं चंपं रायहाणि करेइ । एवं चंपाए कूणिओ राया रज्ज करेइ नियगभायपमुह सयणसंजोगओ । इह मिरयावलिया-सुयखन्धे कूणिक वक्तव्यता आदावुत्क्षिप्ता । इस पाठ का भाव ऊपर लिखा जा चुका है, उसकी सहायता करने वाले कालादि १० कुमार रथ- मूसल संग्राम में अनेक लोगों का साथ करने से नरक के योग्य कर्म एकत्र कर नरक में उत्पन्न हुए । इसलिए इस सूत्र का नाम निरयावलिका गुण निष्पन्न है । संग्राम का विषय निम्न प्रकार से जानना चाहिए । चम्पानगरी में कोणिक नाम वाला राजा राज्य करता था। वे दोनों भाई हल्ल और विल्ल नाम वाले पिता के दिए हुए सेचनक नाम वाले गन्ध हस्ती पर समारूढ़ होकर, दिव्य कुण्डल दिव्य वस्त्र, दिव्य हार से विभूषित तथा अपने अन्तःपुर के साथ गंगा नदी में विलास कर रहे थे । उन्हें देखकर पद्मावती नाम वाली देवी ने राजा कोणिक को हार और हस्ती पाने के लिए प्रेरित किया । तब राजा कोणिक ने विहल्ल कुमार को दोनों पदार्थ देने का आदेश दिया। वे राजा के भय से अपने मातामह (नाना) चेटक नाम वाले राजा के पास वैशाली नगरी में चले गए । कोणिक ने दूत भेज कर फिर आदेश दिया । चेटक राजा ने कहा तुल्य मातृक होने से उनको भी राज्य का भाग मिलना चाहिये । कोणिक ने इस बात को स्वीकार न किया । वह संग्राम के लिए उद्यत हो गया । कोणिक की प्राज्ञानुसार तीन-तीन हजार हस्ती, रथ और घोड़े लेकर, इतना ही नहीं प्रत्येक के साथ तीन-तीन करोड़ मनुष्य भी थे । इसी प्रकार कूणिक स्वयं भी तैयार हुआ। । सारी सेना में एकादश भाइयों की सेना ३३ हजार हस्ती, ३३ हजार रथ, ३३ हजार घोड़े और ३३ करोड़ मनुष्य गरूड़ व्यूह के संस्थान पर संस्थित की गई। इस वृत्तान्त को जान कर राजा चेटक ने भो अष्टादश गण राजाओं को एकत्र किया, उन राजाओं की सेना और राजा चेटक की सेना में इतने ही हस्ती आदि का प्रमाण था । तत्पश्चात् युद्ध में संलग्न हुए राजा चेटक ने एक ही बार धनुषवाण छोड़ने की प्रतिज्ञा कर लो थी । उसका वाण अमोघ होता था । इसी क्रम से १० दिनों में कालादि १० कुमार मृत्यु को प्राप्त हो गए । एकादशवें दिन राजा चेटक को जीतने के लिए कोणिक ने अष्टम भक्त के साथ देवाराधन किया। तब शक ेन्द्र और चमरेन्द्र दोनों इन्द्र आगए। शक ने कहा- चेटक श्रावक है, अतः उसके ऊपर मैं प्रहार नहीं कर सकता। किन्तु आप की रक्षा अवश्य करूंगा । तब उसकी रक्षा के लिए वज्र के समान अभेद्य कवच निर्माण किया । चमर ने दो संग्राम विकुर्वण किए महाशिला कंटक और रथ मूशल । उनमें महाशिला कण्टक संग्राम में शत्रु के प्रति तृणादि पदार्थ भी महाशिला के समान काम करते थे । रथ- मूशल संग्राम में एक रथ मूशल से युक्त बिना घोड़े और सारथी के चारों ओर सेनाओं का क्षय करता हुआ भागता था । उस रथ-मूसल संग्राम में काल कुमार मृत्यु को प्राप्त हुआ । उक्त विषय को वृत्तिका निम्न प्रकार से लिखते हैं । Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरयावलिका सूत्रम् ] (२१) [ वर्ग-प्रथम ततः शक्रो बभाषे-"चेटकः श्रावक इत्यहं न तं प्रति प्रहरामि, नवरं भवन्तं संरक्षामि"। ततोऽसौ तद्रक्षार्थ वज्रप्रतिरूपकमभेद्यकवचं कृतवान्। चमरस्तु द्वौ सङ्ग्रामौ विकुक्तिवान् महाशिलाकण्टकं रथमशलं चेते तत्र महाशिलेव कम्मको जीवित-भेदकत्वान्महाशिलाकण्टकः। ततश्च यत्र तृगशूकादिनाऽयहतस्याश्वहस्त्यादेमहाशिलाकण्टकेनेवास्याहतस्य देदना जायते, स सङ्ग्रामो महाशिलाकण्टक एवोच्यते । 'रहमुसले' त्ति यत्र रथो मुशलेन युक्तः परिधावन् अतो रथमुशलः। तथा जो सूत्र कर्ता ने "तिहि आससहस्सेहि तिहि मणयकोडोहिं गरुलवहे।" पद दिए हैं इस पर विचार किया जाता है कि सहस्रों का सम्बन्ध कोटि के साथ युक्तिपूर्वक संगत नहीं होता, अर्थात् तीन हजार घोड़े और तीन करोड़ मनुष्य, अतः कोटि शब्द कोई राजकीय संज्ञा विशेष प्रतीत होता है। जैसे कि स्थानाङ्ग-सूत्र में कथन किया गया है-साधु का ६ कोटि प्रत्याख्यान होता है । इस स्थान पर कोटि शब्द. एक कारिका का वाची है, अथवा कोड़ो २० का नाम भी है । आगमों में कोड़ी शब्द सीमा का वाचक भी माना गया है। इससे भली भान्ति सिद्ध हो जाता है कि इस स्थान पर कोटि शब्द सेना को किसी विशेष इकाई का नाम है, क्योंकि दोनों राजाओं की सर्व सेना देश के अर्थात् अंग देश और विदेह देश की सीमा पर स्थित है। ३३ करोड़ और ५७ करोड़ दोनों राजाओं की सेना थो। संग्राम का अन्तर केवल एक योजन प्रमाण है । इससे सिद्ध होता है कि कोटि शब्द से कोई संज्ञा विशेष जाननी चाहिए। आजकल सिख समाज में "सवा लाख" केवल एक व्यक्ति के लिये कहा जाता है, तत्व तो केवली-गम्य है। उत्थानिका-अब सूत्रकार उक्त विषय में फिर कहते हैं मूल-तए णं तीसे कालीए देवीए अन्नया कयाइ कुडुम्ब-जागरियं . ' जागरमाणीए अयमेयारूवे अज्झथिए (जाव०) समुप्पज्जित्था। एवं खलु ममं पुत्ते कालकुमारे तिहिं दन्तिसहस्सेहि (जाव०) ओयार। से मन्ने कि जइस्सइ ? नो जइस्सइ ? जीविस्सइ ? नो जीविस्सइ ? पराजिणिस्सइ ? नो पराजिणिस्सइ ? काले ण कुमारे अहं जीवमाणं पासिज्जा ? ओहयमण० (जाव०) झियाइ ॥११॥ छाया-ततः खलु तस्याः काल्या देव्या अन्यदा कदाचित् कुटुम्ब - जागरिकां जाग्रत्या अयमेतद्रूपः आध्यात्मिकः यावद् समुदपद्यत । एवं खलु मम पुत्रः कालकुमारः त्रिभिर्दन्ति-सहस्र: यावत उपयातस्तन्मन्ये कि जेष्यति ? न जेष्यति ? जीविष्यति ? न जीविष्यति ? पराजेध्यते ? न पराजेष्यते ? कालं खलु कुमारमहं जीवन्तं द्रक्ष्यामि ? अपहतमनः-संकल्पा यावत् ध्यायति ॥११॥ Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ निरावलिका सूत्रम् - पदार्थान्वयः - तए णं - तत्पश्चात्, तीसे उस कालीए देवीए - काली देवी के, अन्नया कमाइ — अन्य समय में एक बार, कुटुम्ब जागरिथं – कुटुम्ब की जागरिक अर्थात् कुटुम्ब सम्बन्धी विचार, अयमेवारूवे इस प्रकार के, अज्झत्थि - आध्यात्मिक विचार, जाव - यावत् समुप्पज्जित्था - उत्पन्न हुए, एवं खलु - निश्चय ही इस प्रकार, ममं - मेरा, पुत्ते कालकुमारे – पुत्र काल कुमार, तिहि दन्ति सहर सेहि- तीन हजार हाथी लेकर जाब- यावत्, ओयाए - (संग्राम - भूमि में) पहुंचा है, से - वह काल कुमार, मन्ने - मैं सोचती हूं, कि जइस्सइ - क्या जीतेगा ? नो जइस्सइ - नहीं जीतेगा? जीविस्सइ - जीवित रहेगा ?, नो जीविस्सइ - जीवित नहीं रहेगा ?, पराजिणिस्सइ - शत्रु को पराजित करेगा ?, नो परजिस्सइ - या पराजित नहीं करेगा ?, काले णं कुमारे - काल कुमार को, अहं - मैं, जीवमाणं - जीवित अवस्था में, पासिज्जा क्या देख सकूंगी ?, ओहयमण - उपहत मन होकर अर्थात् उदास होकर, जाव - यावत्, झियाइ - आर्त-ध्यान करने लगी ।। ११ ।। बर्ग - प्रथम ] ( २२ ) मूलार्थ-- तत् पश्चात् उस काली देवी के ( हृदय में) एक समय कुटुम्ब का विचार करती हुई के इस प्रकार के आध्यात्मिक (मानसिक) विचार उत्पन्न हुए। इस प्रकार निश्चय ही मेरा पुत्र काल कुमार तीन हजार हाथियों के साथ यावत संग्राम में गया है, मैं सोचती हूं कि क्या वह जीतेगा या नहीं जीतेगा ? क्या वह जीवित रहेगा, या जीवित नहीं रहेगा ? क्या वह हार जाएगा. या जीत जाएगा ? क्या मैं काल कुमार को जोते हुए को देख पाऊंगी, इस प्रकार के विचारों से वह अहत मन अर्थात् उदास होकर यावत् आर्तध्यान करने लगी । टीका - इस सूत्र में काली देवी के विषय में वर्णन किया गया है। एक समय की बात है कि काली देवी के हृदय में अर्द्धरात्रि के समय अपने कुटुम्ब के सम्बन्ध में विचार करते हुए ये संकल्प उत्पन्न हुए कि ये बात ठीक निश्चय है कि मेरा पुत्र काल कुमार ३ सहस्र हस्तो ३ सहस्र अश्व और ३ सहस्र रथ और ३ कोटि मनुष्यों के साथ रथ-मूसल नाम वाले संग्राम में गया है। यह मैं नहीं जान पा रही हूं कि क्या वह जोतेगा या नहीं ? जीवित रहेगा या नहीं ? वैरी को पराजित कर देगा या नहीं । काल कुमार को मैं जीवित अवस्था में देखूंगी या नहीं ? इस प्रकार के विचारों से उसका मन उपहत अर्थात् उदास हो गया और वह अपने दोनों हाथ कपोलों पर रख कर आर्तध्यान में डूबी अधोमुखी होकर भूमि की ओर देखने लगी। उसका कमल सा मुख और नयन विकसित न रह सके । - जैसे दीन व्यक्ति का मुख होता है, उसी प्रकार मानसिक दुख के कारण से उसका मुख भी दीन हो गया कारण कि अन्तरंग की वेदना से उस का शरीर तेज-हीन सा हो गया था । इसलिए सूत्रकर्ता ने 'जोहमण जाव शियाई' यह पाठ दिया है इस के विषय में वृत्तिकार लिखते हैं Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरयाव लिका सूत्रम् ] (२३) [ वर्ग-प्रथम - उपहतोमनः-संकल्यो युक्तायुक्तविवेचनं यस्याः सा उपहतमनः-संकल्पा। यावत्कारणात् "करयलपल्हत्थियमुही अट्टज्झाणोवगया ओमंथियवय गनयणकमला” ओमंथियं-अधोमुखीकृतं वदनं च नयनकमले च यथा सा तथा। 'दीणविवन्नवयणा' दीनस्येव विवर्ण वदनं यस्याः सा तथा। 'झियाई' त्ति आर्तध्यानं ध्यायति, मणोमाणसिएणं दुक्खे वचनेनाप्रकाशितत्वात् तन्मनो-मानसिकं तेन अबहिर्वतिनाऽभिभूता। ____ इस वृत्ति का भाव यह है कि वह देवी मानसिक दुख से व्याकुल हुई प्रार्त-ध्यान में लीन हो गई। उत्थानिका-तत्पश्चात् क्या हुआ ? अब सूत्रकार इसी विषय में कहते हैं मूल-तेणं कालेणं तेणं समएणं भगवं महावीरे समोसरिए, परिसा निग्गया ॥१२॥ छाया-तस्मिन् काले तस्मिन् समये श्रमणो भगवान् महावीरः समवसृत । परिषद् निर्गता। पदार्थान्य:-तेणं कालेणं-उस अवसर्पिणी काल के चतुर्थ भाग में, तेणं समएणं - उस समय जिस समय श्रमण भगवान महावीर विद्यमान थे, समणे-श्रमण, भगवं-भगवान, महावीरे-महावीर, सनोसरिए-पधारे, परिसा-परिषद्, निग्गया-नगर से निकली। मूलार्थ-उस काल उस समय में श्रमण भगवान महावीर स्वामी का समवसरण • हुआ, अर्थात् वे पधारे । तब नगर की परिषद् (जनता) भगवान महावीर के वचनामृन सुनने को आई। __टोका-इस सूत्र में श्रमण भगवान महावीर स्वामी के समवसरण विषयक वर्णन किया गया है. उस समय संग्राम हो रहा था और काल कमार आदि १० भ्राता उस संग्राम में गए हए थे। तब उस समय काली देवी स्वकीय कुटुम्ब विषयक चिन्ता में काल कुमार के जय पराजय विषय की चिन्ता में मग्न हो रही थी। उसी समय श्रमण भगवान महावीर स्वामी चम्पा नगरी के बाहर ईशान कोण में पूर्ण भद्र चैत्य में विराजमान हुए । नगर की परिषद् अर्थात् जनता भगवान महावीर के वचनामृत सुनने के लिए आई। Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बर्ग-प्रथम ] (२४) [ निरयावलिका सूत्रम् उत्थानिका-तत्पश्चात् इस विषय में क्या हुआ ? यही सूत्रकार-बतलाते हैं मूल-तए णं तोसे कालीए देवीए इमोसे कहाए लट्ठाए समाणी ए अयमेवारूवे अज्झथिए जावसमुप्पज्जित्था-एवं खलु समणे भगवं पुन्वाणुपुन्विं इहमागए जाव विहरइ । तं महाफलं खलु तहारूवाणं जाव विउलस्स अठुस्स गहणयाए । तं गच्छामि समणं जाव पज्जुवासामि, इमंच णं एयारू वं वागरणं पुच्छिस्सामि त्ति कट्ट एवं संपेहेइ, संपेहित्ता कोटम्बिय-पुरिसे सद्दावेइ, सहावित्ता एवं वयासी-खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया! धम्मियं जाणप्पवरं जुत्तमेव उवठ्ठवेह । उवटुवित्ता जाव पच्चप्पिणंति ॥ १३॥ छाया-ततः खलु तस्याः देव्याः एतस्याः कथायाः लब्धार्थायाः सत्याः अयमेतद्रूपः आध्यात्मिकः यावत् समुदपद्यत - एवं खलु श्रमणो भगवान् महावीरः पूर्वानुपूाः इहागतः यावद् विहरति तन्महाफलं खल तया रूपाणां यावत् विपुलस्यार्थस्य ग्रहणतया तद् गच्छामि खलु श्रमणं यावत् पर्युपासे, इदं च खलु एतद्रूपं व्याकरणं प्रक्ष्यामि, इतिकृत्वा एवं संप्रेक्षते, संप्रेक्ष्य कौटुम्बिक-पुरुषान् शब्दयति, शब्दयित्वा एव नवादीत् -क्षिप्रमेव भो देवानुप्रियाः ! धार्मिकं यान-प्रवरं युक्तमेवं उपस्थापयत । उपस्थाप्य यावत् प्रत्यर्पयन्ति । ॥१३॥ पदार्थान्वय:- तए णं, तत्पश्चात णं वाक्यालङ्कार के लिये प्रयुक्त है), तीसे कालीए देवीए-उस काली देवी के हृदय में, इमोसे - इस, कहाए-कथा के (वृत्तान्त के), लद्धद्वाए समाणीए-वह जो चाहती थी वह हो जाने पर, अयमेवारूवे-इस प्रकार का मानसिक भाव, जाव-यावत्, समुप्पज्जित्थाउत्पन्न हुआ, एवं खलु-यह निश्चित है कि, समणे श्रमण, भगवं-भगवान् महावीर, पुव्वाणु पुट्विं -ग्रामानुग्राम, इहमागए-यहां इस चम्पा नगरी के बाहर पूर्णभद्र चैत्य में पधारे हैं, यावत्-विहरइ-यावत् विहार करते हुए, तं महाफलं- यह महान् फलदायक है, खलु - निश्चय ही, तहारूवाणं - तथारूप अर्थात् शुभ परिणाम देने वाले, जाव-यावत् अर्थात् श्रमण भगवन्तों का नाम-स्मरण ही, (अतः) विउलस्स-विपुल अर्थात् बहुत, अठुस्स-अर्थ अर्थात् प्रयोजन को, गहणयाए-को ग्रहण करने के लिये अर्थात् प्रयोजन - सिद्धि के लिये, तं-इसलिये, गच्छामि-मैं जाती हूं, समणं-श्रमण भगवान महावीर की, जाव--यावत्, पज्जुवासामि--सेवा करूं, इम च णं - और अपने हृदय में पूर्व उठे हुए, एयारूवं -- और उसी प्रकार के अन्य, वागरणं-अनेक प्रश्न पुच्छिस्सामि - मैं पूछगी, त्ति कट्ट- यह कह कर, एवं संपेहेइ-इस प्रकार विचार करती है, संहिता-विचार करके, कोम्बियपुरुसे-पारिवारिक निजी दासों को, सहावेइ-बुलवाती है, Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निश्यावलिका सूत्रम् ] (२५) [ वर्ग - प्रथम सद्दावित्ता - बुलवा कर एवं क्यासी- और उनसे कहती है कि, भो देवाणुपिया - हे देवानुप्रियो खिप्पामेव- शीघ्र ही, धम्मियं - धार्मिक कार्यों में ही प्रयुक्त किये जाने वाले, जाणप्पवरं - सर्वश्रेष्ठ रथ, जुत्तामेव - अश्व - सारथी आदि से युक्त, उवठ्ठवेह - तैयार करो, उवठ्ठवित्ता- रथ को तैयार करके दास लोग, जाव - यावत् पच्चप्पिणंति - महारानी को अर्पित करते हैं - श्रर्थात् "श्थ तैयार है" यह निवेदन करते हैं । मूलार्थ - तत्पश्चात् काली देवी ( भगवान महावीर के आगमन सम्बन्धी) समाचार को सुनकर वह जो चाहती थी वही उसे प्राप्त हुआ था, अतः उसके हृदय में यह भाव उत्पन्न हुआ कि यह तो निश्चित ही है कि श्रमण भगवान महावीर इस चम्पा नगरी के बाहर पूर्णभद्र चैत्य में ग्रामानुग्राम विहार करते हुए पधारे हैं। उनका आगमन निश्चय ही शुभ फलदायक है, ऐसे श्रमण भगवन्तों का नाम स्मरण ही जबकि महाफलदायक होता है तो उनके दर्शनार्थ जाना, उन्हें नमस्कार करना, उनकी सेवा करना तो शुभ फलदायक होगा ही, अतः मैं उनके दर्शनार्थं जाती हूं, उनको बन्दन करती हूँ, उनकी उपासना करती हूं और अपने हृदय में जो पुत्र सम्बन्धी प्रश्न हैं वह उनसे पूछती हूँ | यह सोचकर उसने अपने पारिवारिक दासों को बुलवाया और उनसे कहादेवानुप्रियो ! धार्मिक कार्यों के लिये निश्चित मेरा अश्व - सारथी आदि से युक्त रथ शीघ्र लाओ । दास लोग रथ को तैयार करके " रथ तैयार है" महारानी से यह निवेदन करते हैं । टीका - इस सूत्र में काली देवी के विषय में वर्णन किया गया है, जैसे कि जब काली देवी ने श्रमण भगवान महावीर स्वामी के आगमन का समाचार प्राप्त किया, तब उसके हृदय में निम्न लिखित विचार उत्पन्न हुए। जैसे कि श्रमण भगवान् महावीर स्वामी अनुक्रम से ग्रामानुग्राम विचरते हुए इस चम्पा नगरी के बाहर पूर्णभद्र नामक चैत्य में (उद्यान में) विराजमान हो गए हैं। जो व्यक्ति महापुरुषों के धर्मोपदेश को धारण करता है, उसे महाफल प्राप्त होता है, इसलिए मैं भी भगवान महावीर की सेवा कर के यह प्रत्यक्ष प्रश्न पूछेंगी। तब वह स्वकीय दासों को ग्रामन्त्रित कर कहने लगी- "हे देवानुप्रियो ! मेरे जाने के लिए धार्मिक रथ को अश्वों से संयुक्त कर, मुझे शीघ्र ही सूचित करो। तब दासों ने उसी प्रकार करके काली देवी को सूचित कर दिया । कुछ प्रतियों में वृत्तिकार ने "अज्झत्थिए” के पश्चात् निम्न लिखित पाठ अधिक दिया हैचितिय पथिय मणोगए संप्पत्ते' अर्थात् चिन्तित स्मरण-रूप, प्रार्थितः आशंसा रूप:, मनोगतः Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ग-प्रथम ] (२६) [ निग्यावलिका स्वम् मनोगत रूपः संकल्प-विकल्प रूपः और “समणे भगवं" इस के आगे यह पाठ देखा जाता है। "पुव्वाणु पुद्वि चरमाणे जाव सुहं सुहेणं विहरमाणे" वृत्तिकार ने उक्त विषय को निम्न प्रकार से सम्पूर्ण किया है। वह सर्व पाठ औपपातिक सूत्र के आधार से लिखा गया है जैसे कि पुवाणुपुवि चरमाणे गामाणुगाम दुइज्जमाणे इहमागए इह सम्पत्ते इह समोसढे, इहेव चंपाए नयरीए पुण्णभद्दे चेइए अहापडिरूवं उग्गहं उम्गिण्हित्ता संजभेणं तवसा अप्पाणं भावमाणे विहरइ।" "तं महाफलं खलु" भो देवाणुप्पिया! “तहारूवाणं" अरहंताणं, भगवंताणं. नामगोयस्स वि सवणयाए, किमंग पुण अभिगमणवंदगनमसगपडिपुच्छणपज्जुवासणाए ? एगस्स वि अरियस्स धम्मियस्स वयणस्स सवणयाए, किमंग पुण 'विउलस्स अट्टस्स गहणयाए” 'गच्छामि गं' अहं 'समण' भगवं महावीरं वदामि नमसामि सकारेमि सम्मामि कल्लाणं मंगल देवयं चेइयं "पज्जुवा सामि," एवं नो पेच्चभवे हियाए सुहाए खमाए निस्सेयसाए आणगामियत्ताए भविस्सइ 'इमं च ण एयारवं वागरणं पुच्छिस्सामि त्ति कटु एवं संपेहेइ संप्रेक्षते-पर्यालोचयति । सुगमम् । नवरं "इहमागए" ति चम्पायां, 'इह संपत्ते' ति पूर्णभद्र चैत्ये, “इह समोसढे' त्ति साधूचितावग्रहे, एतदेवाह-इहेव चंपाए इत्यादि। 'अहापडिरूवं' ति यथाप्रतिरूपम् उचितमित्यर्थः । 'तं' इति तस्मात्, ‘महाफलं' ति महत्फलमायत्यां भवतीति गम्यं । 'तहारूवाणं' ति तत्प्रकारस्वभावानां - महाफलजननस्वभावानामित्यर्थः। नामगोयरस त्ति नाम्नो-याडच्छिकस्याभिधानस्य, गोत्रस्य-गणनिष्पन्नस्य. "सवणयाए"त्ति श्रवणेन. 'किमंग पण' त्ति किं पुनरिति पूर्वोक्तार्थस्य विशेषद्योतनार्थम् अङ्गत्यामन्त्रणे, यद्वा परिपूर्ण एवायं शब्दो विशेषणार्थः, अभिगमनं, वन्दनं-स्तुतिः, नमनं-प्रणमनं, प्रति पृच्छन-शरीरादिवार्ताप्रश्न, पर्युपासन-सेवा, तद्भावस्तत्तातया, एकस्यापि आर्यस्य आर्यप्रणेतृकत्वात्, धार्मिकस्य धर्म-प्रतिबद्धत्वात्, वन्दामि, वन्दे स्तौमि, नमस्यामि-प्रणमामि, सत्कारयामि-आदरं करोमि वस्त्राद्यर्चन वा, सन्मानयामि उचितप्रतिपत्येति । कल्याण-कल्याणहेतुं, मंगलं दुरितोपशमनहेतु , देवं चैत्यमिव चैत्य, पर्युपासयामिसेवे, एतत् नोऽस्माकं, प्रेत्यभवे-जन्मान्तरे, हिताय पथ्यान्नवत्, शर्मणे, क्षमाय-सङ्गतत्वाय, निःश्रेयसाय-मोक्षाय, आनुगामिकत्वाय-भवपरम्परासु सानुबन्धसुखाय, भविष्यति, इति कृत्वा इति हेतोः, संप्रेक्षते पर्यालोचयति संप्रेक्ष्य चैवमवादीत् शीघ्रमेव 'भो देवाणुप्पिया'। धर्माय नियुक्त धार्मिक, यानप्रवरं, 'चाउग्घट आसरह' ति चतम्रो घण्टाः पृष्टतोऽग्रतः पार्श्वतश्च लम्बमाना यस्य स चतुर्घण्टः, अश्वयुक्तो रथोऽश्वरथस्तमश्वप्परथं, युक्तमेवाश्वादिभिः, उपस्थापयत–प्रगुणीकुरुत, प्रगुणीकृत्य मम समर्पयत् । इस वृत्ति का भाव ऊपर लिखा जा चुका है तथा "धम्मियं यानप्पवरं" इस पद से यह निश्चित होता है कि धर्म के लिए वह रथ नियुक्त था, अर्थात् धार्मिक क्रियाय करते समय ही उसका उपयोग किया जाता था, तथा 'तं महाफलं' इत्यादि पदों से यह सिद्ध किया गया है कि तथारूप Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरयावलिका मूत्रम् ] (२७) [बर्ग-प्रथम अर्हत भगवन्तों के नाम सुनने मात्र से ही महाफल होता है, फिर जो उनके पास जाकर वन्दन नमस्कार करके प्रश्न का पूछना तथा उनकी पर्युपासना करना इतना, ही नहीं उन के मुख से निकले हा आर्योचित धार्मिक वचनों का श्रवण करना और विपुल अर्थों का धारण करना, उसका फल हम क्या कह सकते हैं, अथवा भगवत्-स्तुति इस लोक और परलोक में हित के लिए, सुख के लिए, क्षेन और मोक्ष के लिए होती है । इस सूत्र के आधार पर स्तुति वा स्तोत्रों की रचनाएं हुई हैं । जो सूत्र कर्ता ने 'कोडुबिय पुरिसे" पद दिया है इसका भाव सेवक पुरुष है। उत्थानिका-- तदनन्तर काली देवी ने क्या किया अब सूत्रकार इसी विषय में कहते हैं मूल-तए णं सा काली देवी हाया कयबलिकम्मा जाव अप्पमहग्घाभरणालंकियसरीरा बहहिं खुज्लाहिं जाव महत्तरगविंदपरिक्खित्ता अतेउराओ निगच्छइ, निग्गच्छित्ता जेणेव बाहिरिया उवट्ठाणसाला जेणेव धम्मिए जाणप्पवरे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता धम्मियं जाणप्पवरं दूरुहइ, दुरुहित्ता नियापरियालसंपरिबुडा चंपं नरि मज्झं-मज्झेणं निग्गच्छइ, निग्गच्छित्ता जेणेव पुन्नभद्दे चेइए तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता छत्ताईए जाव धम्मियं जाणप्पवरं ठवेइ, ठवित्ता धम्मियाओ जाणप्पवराओ पच्चोरुनाइ, पच्चोरुहित्ता बहूहि जाव खुज्जाहिं महत्त रगविंदपरिविकता जेणेव समण भगवं महावीरे तेणेव वागच्छइ, उवागच्छित्ता समणं भगवं महावीरं तिख ती वंदइ, वंदित्त । ठिया चेव सपरिवारा सुस्ततमःणा नमसमाणा अभिमहा विणएणं पंजलि उडा पज्जुवासइ ॥१४॥ छाया-ततः खलु सा काली देवी स्नाता कृतबलिकर्मा यावत् अल्पमहा_भरणालङ्कृतशरीरा वरूभिः यावन्महत्तरकवृन्दपरिक्षिप्ता अन्तःपुरान्निर्गच्छति, निर्गत्य यव धार्मिको यानप्रवरस्तत्रोपागच्छति, उपागत्य धार्मिक यानप्रवरं दुरोहति, दूरुह्य निजक परिवार सपरिवृता चम्पां नगरौं मध्य-मध्येन निर्गच्छति, निर्गत्य यत्रैव पूर्णभद्रश्चैत्यस्तत्रैवोपागच्छति, उपागत्य छत्रादिकं यावद धार्मिक यानप्रवरं स्थापयति, स्थापयित्वा धार्मिकाद् यानप्रवरात् प्रत्यवरोहति, प्रत्यवरा बह्वीभिः पन्जाभिः यावत् -महत्तरकवृन्दपरिक्षिप्ता यत्रैव श्रमणो भगवान् महावीरस्तत्रैवोपागच्छति, उपागत्य श्रमणं भगवन्तं त्रिःकृत्वा वन्दते, वन्दित्वा स्थिता चैव सपरिवारा शुश्रूषमाणा नम्र यन्ती अभिमुखी विनयेन प्राञ्जलिपुटा पर्युपासते ॥१४॥ Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ग-प्रथम ] (२८) [ निरयालिका सूत्रम् पदार्थान्वयः-तए णं- तदनन्तर, (णं वाक्यलंकार में), सा काली देवी -उस काली देवी ने, व्हाया-स्नान किया, कयबलिकम्मा-बलिकर्म किया, जाव-यावत्, अप्पमहग्घाभरणालंकियसरीरा--भार में हल्के किन्तु बहुमूल्य आभूषणों से अपने को अलंकृत किया, बहूहि-बहुत सी, खुज्जाहि-कुबड़ी दासियों, महत्तरगविन्द-परिक्खित्ता- और महत्तरकवृन्द (अन्तःपुर-रक्षिका दासियों) को साथ लेकर, अन्तेउराओ-अन्तःपुर से, निग्गच्छइ-निकली, निग्गच्छिता-वहां से निकलकर, जेणेव बाहिरिया-जहां बाहरी सभा-मण्डप था, (और) जेणेव-जहां पर, धार्मिक यान-प्रवरं-जहां पर धर्मयात्रा के लिए रथ खड़ा था, दूल्हइ -वहां आकर रथ में बैठ गई। दरूहित्ता-रथ पर बैठ कर, नियग-परियाल-संपरिण्डा-अपने परिवार से घिरी हुई, चंपं नार मझ-मझेणं-चम्पा नगरी के बीचों बोच के रास्ते से, निग्गच्छइ-निकली - आगे बढ़ी, निग्गच्छित्ता-वहां से आगे बढ़कर, जेणेव-जहां, पुण्णभद्दे-पूर्णभद्र, चेइए-चैत्य था, तेणेव उवागच्छइ-वहां आ पहुंची, उवागच्छिता-वहां पहुंच कर, छत्तईए-भगवान् महावीर के छत्रादि अतिशयों को देखकर. (उसने अपने) जाव यावत धम्मिय जाणप्पवर-धम-यात्रा में प्रयुक्त होने वाले रथ को रुकवा दिया । ठवित्ता-रथ को रुकवा कर, धम्मियाओ जाणप्पवराओ-उस धर्म-यात्रा रथ से, पच्चोल्हइ-नीचे उतर आई । पच्चोरुहिता-रथ से नीचे उतर कर, बहुहि खुज्जाहिसमस्त कुबड़ी दासियों, (और) जाव-यावत, महत्तरग-विद परिविखत्ता-यावत् महत्तरक वृन्द के साथ अर्थात् अन्तःपुर की रक्षिका दासियों के साथ, जेणेव-जहां पर, समणे भगवं महावीरे-श्रमण भगवान महावीर विराजमान थे, तेणेव-वहीं पर उवागच्छह-आ पहुंची, उवागच्छित्ता--वहां आ कर, समणं भगवं महावीरं-उसने श्रमण भगवान महावीर को, तिक्खुत्तो-तीन बार प्रदक्षिणा करके वंदइ-उन्हें वन्दना की, वंदित्ता-वन्दना करने के अनन्तर, ठिया चेव सपरिवारा-परिवार सहित वहां खड़ी हुई, सुस्ससमाणा-सेवा-भक्ति करती हुई, नमसमाणा-नमस्कार करती हुई, अभिमएभगवान के सामने, विणएणं-विनय-पूर्वक, पंजलिउडा-कर-बद्धा होकर, पज्जुवासइ-भगवान की सेवा-भक्ति करने लगी। मूलार्थ-तदनन्तर उस काली देवी ने स्नान किया, बलिकर्म किया, यावत् बहुत सी कुब्जा दासियों के वृन्द से घिरी हुई वह अन्तःपुर से निकली और निकल कर जहां बाहर की ओर उपस्थान-शाला थी, जहां धार्मिक प्रधान रथ तैयार खड़ा था, वहां आई । आकर धार्मिक प्रधान रथ पर आरूढ़ हुई। आरूढ़ होकर अपने परिवार से परिवृत हुई और चम्पा नगरी के बीचों-बीच के मार्ग से निकली। निकल कर जहां पूर्णभद्र चैत्य था, वहां आई। तीर्थङ्कर देव के छत्रादि अतिशयों को देख कर उसने धार्मिक प्रधान रथ को खड़ा किया । रथ खड़ा करके, धार्मिक प्रधान रथ से नीचे उतर आई, उतर कर उन बहुत सी कुब्जा दासियों के वृन्द से परिवृत हुई जहां श्रमण भगवान Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरयावलिका सूत्रम् ] (२९) [वर्ग-प्रथम महावीर अपनी उपदेश रूपी दृष्टि से भव्य जनों की अज्ञानता की धूल को शांत कर रहे थे, वहां पर आई । आकर श्रमग भगवान महावीर स्वामी की तीन बार प्रदक्षिणा की। वन्दना नमस्कार कर परिवार सहित खड़ो हुई । सेवा करती हुई नमस्कार करती हुई उनके सम्मुख विनय-पूर्वक हाथ जोड़कर सेवा करने लगी। टोका-इस सूत्र में काली देवो के विषय में वर्णन किया गया है। जब काली देवी ने रथ पर आरोहण किया तो उस से पूर्व पहले स्नान और बलि कर्म किया। इस के विषय में वृत्तिकार लिखते हैं - "कयबलिकम्मा" ति स्वगृहे देवतानां कृतबलिकर्मा" अर्थात् स्वगृह में देवताओं के पूजन आदि कृत्य को बलो - कर्म कहते हैं, किन्तु यह शब्द. अर्धमागधी गुजराती कोश के ५७४ पृष्ठ पर तीन अर्थों में ग्रहण किया गया है-जैसे कि बलिकम्म, १. बलि कर्म शरीर नी स्फूर्ति माटे तेलादि थी मर्दन करवू ते, २. देवताने निमित्ते अपायते और ३. गृहदेवता पूजन। इस स्थान पर शरीर की स्फूर्ति के लिए तेलादि मर्दन ही सिद्ध होता है ।' कारण यह कि प्रौपपातिक सूत्र में स्नान की पूर्ण विधि का विधान किया गया है जिस में उल्लेख है कि स्नान के पूर्व तेलादि के मर्दन का विधान है। उस स्थान पर इसका विस्तार सहित वर्णन किया गया है, किन्तु वहां पर "कयबलिकम्मा" का पाठ नहीं है। इससे सिद्ध हुआ जिस स्थान पर स्नान विधि का संक्षिप्त वर्णन किया गया हो वहां पर तो 'कयबलिकम्मा' का पाठ होता है और जिस स्थान पर स्नान की पूर्ण विधि का वर्णन होता है उस स्थान पर नहीं । इसलिये पूर्व अर्थ ही युक्ति-युक्त सिद्ध होता है तथा कौतुक मंगल क्रिया और दुःस्वप्नादि के फल को दूर करने के लिये, प्रायश्चित्त किया। कौतुक शब्द से मषी-पुण्ड आदि का ग्रहण है और मंगल शब्द से सिद्धार्थ दही, अक्षत, दूर्वादि (दुब) का ग्रहण है। जैसे कि-कौतुकानि मषोपुण्ण्डादीनि, मंगलादोनिसर्षपदध्यक्षतचन्दनर्वांकुरादोनि । इतना हो नहीं उसने अच्छे सुन्दर वस्त्रों को पहन कर जो भार में अल्प किन्तु मूल्य में कीमती थे इस प्रकार के आभूषणों से शरीर को अलंकृत किया। फिर बहत से देशों से आई हई दासियों के वन्द के साथ परिवत होती हुई भगवान महावीर के दर्शनों के लिये उत्सुक हो रही थी। सूत्रकर्ता ने 'बहूहिं खुज्जाहिं जाव' इन पदों से अनेक देशों की दासियों का वर्णन किया है। यावत् शब्द से अनेक देशों की सूचना दी गई है । वृत्तिकार ने उन देशों में उत्पन्न होने वाली दासियों के विषय में बहुत विस्तार से लिखा है। उत्थानिका-तदनन्तर क्या हुआ ? अब सूत्रकार इस विषय में कहते हैं - मूल-तए णं समणे भगवं जाव कालीए देवीए तीसे य महइमहालि. याए, धम्मकहा भाणियब्वा, जाव समणोवासए वा समणोवासिया वा १. स्नान के अनन्तर तैल-मर्द न तो लोक प्रसिद्ध नहीं है, सम्भवतः सुगन्धित तैलादि लगाना अर्थहो । Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बर्ग-प्रथम ] (३०) [ निरवलिका सूत्रम् विहरमाणा आणाए आराहए भवइ ।१५॥ छाया-ततः णं श्रमणो भगवान महावीरः यावत् काल्याः देव्याः तस्याः महातिमहत्याः (धर्मकथायाः नेतव्याः) भाणितव्या यावत् श्रमणोपासकः वा श्रमणोपासिका वा विहरमाणा आज्ञायाः आराधको भवति । पदार्थान्वयः-तए णं-तत्पश्चात्, सम्णे भगवं-श्रमण भगवान महावीर, जाव-यावत्अर्थात् मोक्षगामी, कालीए देवीए- महारानी काली देवी को लक्ष्य में रखकर, तीसे य-और उस महातिमहालयाए-अत्यन्त. विशाल परिषद् में, धम्मकहा- धर्म-कथा (धर्मोपदेश), भाणियव्वासुनाई, जाव-यावत् (प्रागार अनगार धर्म की शिक्षा में तत्पर), समणोवासएश्रमणोपासक (श्रावक), वा-अथवा, समणोवासिया-श्रमणोपासिका (श्राविका), विहरमाणाविचरते हुये, आणाए-आज्ञा के, आराहए-आराधक (प्राज्ञा का पालन करने वाले), भवइहोते हैं। . मूलार्थ-तत्पश्चात् मोक्षगामी भगवान् महावीर स्वामी ने महारानी काली देवी एवं उस विशाल धर्म-सभा को ऐसी धर्म-कथा सुनाई, जिसको श्रवण कर श्रावक एवं श्राविकायें धर्म में स्थिर रहकर जीवन-पथ पर चलते हुए (विहरमाणा) प्रभु की आज्ञा के आराधक-पालन करने वाले होते हैं। टीकाः- इस सूत्र में श्री भगवान महावीर की (धर्मोपदेठा) कथा के विषय में वर्णन किया गया है, जैसे कि जब काली देवी और विशाल धर्म-परिषद् उस उद्यान में एकत्र हुई, तब भगवान महावीर ने धर्म कथा-वर्णन की, यावत् साधु-धर्म वा श्रावक धर्म का वर्णन किया। अन्त में यह बतलाया जो इस धर्म की पूर्णतया अाराधना करता है, वह प्रभु की आज्ञा का आराधक हो जाता है। धर्मकथा का पूर्ण विवरण औपपातिक सूत्र से जानना चाहिये। इस स्थान पर तो केवल संक्षिप्त वर्णन किया गया है। उत्थानिका- अब सूत्रकार उक्त विषय में और वर्णन करते हैं :__मूलम्-तए णं सा काली देवी समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतिए धम्म सोच्चा निसम्मजावहियया समणं भगवं महावीरं तिक्ख़त्तो जाव एवं वयासी-एवं खलु भंते ! मम पुत्ते काले कुमारे तिहिं दंतिसहसेहि जाव रहमुसलसंगाम "ओयाए, से णं किं जइस्सइ ? नो जइस्सइ? जाव काले णं कुमारे अहं जीवमाणं पासिज्जा? । कालीत्ति समणे भगवं Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरयावलिका मूत्रम् ] ___ (३१) [वर्ग-प्रथम महावीरे कालि देवि वं वयासी-एवं खलु काली ! तव पुत्ते काले कुमारे तिहिं दंतिसहस्सेहिं जाव कूणिएणं रन्ना सद्धि रहमुसलं संगामं संगामेमाणे हामहिषप वरवीरघाइयणिवडियचिधज्झयपडाग निरालोयाओ दिसाओ करमाण चेडगस्स रन्नो सपक्वं सपडिदिसि रहेणं पडिरहं हव्वमागए। ____तए णं से चेडए राया कालं कुमारं एज्जमाणं पासइ, कालं एज्जमाणं पासित्ता आसुरुत्ते जाव मिसिमिसमाणे धणुं परामसइ, परामसत्ता उसुं परामुसइ, वइसाहं ठाणं ठाइ, ठाइत्ता आययकण्णाययं उसुं करेइ, करिता कालं कुमारं एगाहच्चं कूडाहच्चं जीवियाओ ववरोवेइ। तं कालगए णं काली ! काले कुमारे नो चव णं तुमं काल कुमारं जीवमाणं पासिहिसि । छाया-ततः खलु सा काली देवी श्रम गस्य भगवतो महावीरस्य अन्तिके धर्मां श्रुत्वा निशम्य यावत् हृदया श्रमणं भगवन्तं महावीरं त्रिः-कृत्वा यावदेवमवादीत्-एवं खलु भदन्त ! मम पुत्रः कालः कुमारः त्रिभिर्दन्तिसहस्त्रैः यावत्-रथमुसलसंग्रामम् उपगतः, स खलु भदन्त ! कि जेष्यति ? नो जेष्यति ? यावत् कालं खलु कुमारमहं जीवन्तं द्रक्ष्यामि ? कालि ! इति श्रमणो भगवान् महावीरः काली देवोमेवमवादीत् एवं खलु कालि ! तव पुत्रः कालः कुमारः त्रिभिर्दन्तिसहस्रर्यावत् कूणिकेन राज्ञा स द्ध रथमुशलं संग्राम समामयन् हतमथितप्रवरवीरघातितचिह्नध्वजपताकः निरालोका दिशा । कुर्वन् चेटकस्य र ज्ञः सरक्षं सप्रतिदिक् रथेन प्रतिरथं हव्यमागतः॥ ____ ततः खलु स चेटको राजा कालं कुमारम् एजमानं पश्यति । कालमेजमानं दृष्टा अशुरुप्तः यावत् मिस मिसन् धनुः परामृशति, परामृश्य इy परामशति, परामृश्य वैशाख स्थानं तिष्ठति, स्थित्वा आयतकयामधू करोति, कृत्वा कालं कुमारमेकाहत्यं कूटाहत्यं जीविताद् व्यपरोपयति । तत् कालातः खलु कालि ! कालः कुमारुः नो चैव खलु त्वं कालं कुमारं जीवन्तं द्रक्ष्यसि ॥ पदार्थान्वयः-तए णं-उसके अनन्तर (धर्म-कथा श्रवण के अनन्तर), "गं" वाक्यलंकार में, सा कालो देवी-वह महारानो कालो देवो, भगव-भगवान्, महावीरस्स -महावीर के, अंतियंग्मोप, धम्म-धर्म (धर्म-कथा), सोच्चा-सुनकर , निसम्म-उस पर विचार करके, हियया- अत्यन्त सन्न हृदय से, समणं-श्रमण, भगवं-भगवान् महावीर की, तिक्खुत्तो-तीन बार प्रदक्षिणा रके, जाव-यावत्-वन्दना-नमस्कार करके, एवं वयासी - इस प्रकार कहने लगी, एवं खलु इन्ते -भगवन इस प्रकार निश्चय से, मम पत्ते-मेरा पूत्र, काले कमारे - काल कुमार, तिहिगीन, दंति-सहस्सेहि-तीन हजार हाथियों को साथ लेकर, जाव-यावत् अर्थात् तीन हजार रथों तीन हजार घोड़ों और तीन करोड़ सैनिकों के साथ, रह-मुसल-संगाम-रथ-मुसल संग्राम में, Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ग-प्रथम ] (३२) [ निरयावलिका सूत्रम् ओयाए-गया है, से-वह काल कुमार, णं भन्ते-हे भगवन् ! खलु-निश्चय पूर्वक, जइस्सइ-क्या जीतेगा ? नो जइस्सइ-क्या नहीं जोतेगा ? जाव-यावत्-जीता रहेगा या नहीं और शत्रुओं को पराजित कर पाएगा या नहीं, काले णं कुमारे - काल कुमार को, अहं-मैं, जीवमाणं-जीवित ही, पासिज्जा-क्या देख पाऊंगी, कालीति-काली देवी के प्रश्न को सुनकर, समणे भगवं महावीरे-श्रमण भगवान महावीर, कालि देवि-काली देवी से, एवं वयासी-इस प्रकार कहने लगे, काली एवं खलु - काली निश्चय ही, तव पुत्ते-तुम्हारा पुत्र, काले कुमारेकाल कुमार, तिहिं दंति-सहस्सेहि-तीन हजार हाथियों, जाव-यावत् अर्थात् अन्य युद्ध-सामग्री के साथ, कूणिएणं रन्ना सद्धि - राजा कूणिक के साथ, रह-मुसलं संगाम-रथ-मुशल संग्राम में, संग्गामे माणे युद्ध करता हुआ, हय-महिय-पवर वोर घाइय णिवडिय, चिधज्झय-पडागो - उसका मान-मर्दन हो गया है, उसके प्रधान वीरों का घात हुआ है, उसके पताका आदि चिह्न गिर चुके हैं, (वह) दिसाओ-सभी दिशाओं को, निरालोयाओ-अन्धकारमय-निस्तेज करता हुआ, चेट यस्स रन्नो-राजा चेटक के, सपक्खं-सन्मुख, सपडिदिक-एक दूसरे के सामने, रहेणंरथ पर बैठ कर, पडिरहं- राजा चेटक के रथ के सामने, हवं-शीघ्र ही, आगए-आ गया। तए णं-तत्पश्चात्, से-वह, चेडए राया-राजा चेटक, कालं कुमारं-काल कुमार को, एज्जमाणं-आते हुए के, पासित्ता-देख कर, आसुरुत्ते-शीघ्र ही क्रोध में आकर, जावयावत् अर्थात् रुष्ट हो गए और क्रोध के कारण उनके होठ, (फड़फड़ाने लगे), मिसिमिसेमाणेक्रोध की ज्वालाओं से जलते हुए, धj-धनुष को, परामुसइ-सुसज्जित करने लगे, परामुसित्ताधनुष को सुसज्जित करके, उसुं-बाण को, परामुसइ-धनुष पर चढ़ाता है, वइसाहं ठाणं ठाईवैशाख स्थान, धनुष पर तीर चलाने की विशेष मुद्रा में बैठता है, ठाइत्ता-- और बैठ कर, आयय-कण्णाययं-कानों तक, उसुं-बाण को, करेइ-ले जाता है, करित्ता-और ले जाकर, कालं कमारं-काल कमार को. गावच्चं एक ही प्रहार से. कडाहच्चं-जैसे किसी यन्त्र विशेष से किसी पर्वत शिखर को गिराया जाता है उसी प्रकार बाण के एक ही प्रहार से पर्वत शिखर-जैसे काल कुमार को, जीवियाओ-जीवन से, ववरोवेइ- रहित कर देता है. अर्थात् मार देता है, तं कालगए णं काली - हे काली इस प्रकार कालधर्म को प्राप्त हुए, कालं कुमार-काल कुमार को, नो चेव णं-तू नहीं, जीवमाणं जीवित अवस्था में, पासिहिसिदेख पाएगी। मूलार्थ-तदनन्तर वह काली देवी श्रमण भगवान महावीर स्वामी के समीप धर्म को सुनकर और विचार कर. यावत् हृदय से प्रसन्न होकर श्रमण भगवान महावीर स्वामी की तीन बार आदक्षिणा-प्रदक्षिणा यावत् और वन्दना नमस्कार करके इस प्रकार कहने लगी-भगवन् ! मेरा पुत्र काल कुमार तीन सहस्र हस्तियों के साथ यावत् रथ-मूसल संग्राम में गया है । हे भदन्त ! क्या वह जीतेगा ? या नहीं जीतेगा! अपने Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरयावलिका सूत्रम् ] (३३) [बर्ग-प्रथम पुत्र काल कुमार को मैं जीवित देख पाऊंगी या नहीं ? भगवान कहने लगे-हे काली ! तेरे पुत्र काल कुमार का तीन सहस्र हस्तियों के साथ यावत् अर्थात् तीन हजार रथों, तीन हजार घोड़ों और तीन करोड़ सैनिकों को साथ लेकर राजा कूणिक के साथ रथमूसल संग्राम में संग्राम करते हुए मान-मर्दन हो गया है, उसके साथी वीरों का घात हुआ है, उसके (राज.) चिन्ह और पताका गिर चुके हैं, वह दिशाओं में अन्धकार करता हुआ. चेटक राजा के समक्ष और सम्प्रतिदिक् में अपने रथ से चेटक राजा के रथ के सन्मुख आ गया। तब चेटक राजा ने काल कुमार को सन्मुख आते हुए देख कर क्रोध में भर कर यावत् क्रोध से देदीप्यमान होते हुए धनुष को ऊंचा किया, उस पर बाण चढ़ा दिया। घनुष के चलाने के आसन पर बैठ कर कर्ण-पर्यन्त धनुष को खींच कर बाण छोड़ दिया। तब काल कुमार एक ही बाण से पर्वत-शिखर की भान्ति गिर कर जीवन से रहित हो मया, अर्थात् मारा गया। इसलिए हे काली ! तू कालगत कालकुमार को जीवित नहीं देख पाएगी, क्योंकि वह मारा गया है ॥१६॥ टोका-इस सूत्र में काल कुमार के विषय में वर्णन किया गया है। जैसे कि काली देवी ने भगवान महावीर से प्रश्न किया-“भगवन् ! मेरा पुत्र काल कुमार तीन सहस्र हस्ती आदि की सेना लेकर रथमुसल-संग्राम में गया है, "क्या वह जीतेगा ? या नहीं ? यावत् मैं काल कुमार - को जीते हुए को देख पाऊंगी या नहीं ?" तब भगवान महावीर ने उत्तर में कहा- "हे काली ! तेरा पुत्र काल कुमार तीन सहस्र हाथियों आदि को लेकर, यावत् कूणिक राजा के साथ रथ-मुसल-संग्राम में संग्राम करते हुए मारा गया है। जिसका वर्णन मूलार्थ में किया गया है, किन्तु निम्नलिखित शब्दों का भाव जान लेना चाहिए। जैसे कि – 'हयमहियपवरवीरघाइयणिवडियचिधज्झयपडागो', अर्थात् (हतः) सैन्यस्य हतत्वात्, मथितो मानस्य मन्थनात्. प्रवरवीराः-सुभटाः घातिताः-विनाशिताः यस्य, तथा निपातिताश्चिन्हध्वजाः-गरुडादि-चिन्हयुक्ताः केतवः पताकाश्च यस्य सः तथा, ततः पदचतुष्टयस्य कर्मधारयः। तथा 'मिसिमिसेमाणे' इस पद का यह भाव है कि वह क्रोध से देदीप्यमान हो गया। "सपखं सपडिदिसि रहेणं पडिरहं हव्वमागए। इन पदों का भाव यह है कि चेटक राजा के रथ की तरफ काल कुमार का रथ सामने आ गया, समान प्रतिदिक् से रथ सन्मुख हो गया। Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बर्ग-प्रथम ] [ निरयाव लि का सूत्रम् इसी प्रकार- 'आसुरत्ते' इस पद का भाव यह है कि शीघ्र ही रोष से भर गया। तथा जैसे कि आशु शीघ्र रुष्टः-क्रोधेन विमोहितो यः सः आशुरुष्टः, आसुरं वा आसुरसत्कं कोपेन दारुणत्वात् उक्तं भणितं यस्य स आसुरोक्तः, रुष्टो रोषवान् । 'एगाहच्चं' इस पद का भाव यह है कि एक हो बाण से जैसे यंत्र द्वारा कूट पर्वत-शिखर उड़ जाता है, उसी प्रकार काल कुमार का सिर धड़ से पृथक् हो गया। एगाहच्चं 'कूडाहच्चं' कूटस्येव पाषाणमयमहामारणयन्त्रस्येव आहत्या आहननं यत्र तत्कूटाहत्यं' इसका यह भाव है कि जिस प्रकार यन्त्र द्वारा (मशीन द्वारा) पर्वत का शिखर उड़ जाता है ठीक उसी प्रकार एक ही बाण से काल कुमार का सिर धड़ से पृथक् हो गया। सूत्र कर्ता ने जो 'वइसाहं ठाणं ठाइ' पद दिए हैं अर्थात् "विशाख स्थानेन तिष्ठति' धनुष के चलाने के आसन पर ठहरता है अर्थात् जिस मुद्रा में बैठ कर धनुष चलाया जाता है उसी मुद्रा में बैठ कर धनुष चलाया गया। कुछ हस्त लिखित प्रतियों में निम्नलिखित पाठ अधिक है 'तिहिं दंतिसहस्सेहि, तिहिं आस-सहस्सेहि तिहि रहसहस्सेहि तिहि मणुयकोडीहि, तथा कि जियसत्ति नो जियसत्ति जीवेस्सइ नो जोवेस्सइ, पराजिणस्सइ नो पराजिणस्सई"। इसी प्रकार भगवान के प्रतिवचन में तिहि दतिसहस्सेंहि इत्यादि सर्व पाठ दिया गया है। "निरालोयाओ दिसाओ करेमाणे'; इसका भाव यह है, चारों दिशाओं को निरालोक करता हना अर्थात् अन्धकारमय करता हुआ, राजा चेटक के रथ के सम्मुख अपना रथ लेकर आ गया भगवान महावीर ने तं काल गते णं काली ! काले कमारे नो चेव णं तमं कालं कमारं जीवमाणं पासिहिसि” जो यह कहा था उसका भाव यह है, भगवान महावीर ने यह कथन किया है कि हे काली ! तेरा पुत्र काल कुमार काल गत हो चुका है, अतः तू उसको जीते हुए को नहीं देख सकेगी। यह (आगम-विहारी) सर्वज्ञ का कथन है, इसलिए इसमें कोई भी दोषापत्ति नहीं है, क्योंकि आगम-विहारी जिस प्रकार अपने ज्ञान में देखते हैं, जिस प्रकार उस प्राणी का कल्या देखते हैं, उसी प्रकार द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव को देखकर वर्णन करते हैं। कालो देवी दीक्षा लेकर (अन्त समय) केवली हुई है, अत: भगवान महावीर ने इसी कारण से उक्त प्रकार का कथन किया है, क्योंकि दीक्षा का कारण यही था। उत्थानिका-तत्पश्चात् क्या हुआ ? अब सूत्रकार इसी विषय में कहते हैं मूल-तए णं सा कालीदेवी समणस्स भगवओ अन्तियं एयमढे सोच्चा निसम्म महया पुत्तसोएणं अप्फुन्ना समाणी परसुनियत्ताविव चम्पगलया धस त्ति धरणीयलंसि सव्वङ्गेहि संनिवडिया ॥१७॥ Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरयावलिका सूत्रम् ] (३५) [ वर्ग-प्रथम छाया-ततःणं सा काली देवी श्रमणस्य भगवतः अन्तिकं एतदर्थं श्रुत्वा निशम्य महता पुत्रशोकेन व्याप्ता सती परशु-निकृन्ते व चम्पकलता धस इति धरणीतले सर्वाङ्ग संनिपतिता ॥१७॥ ___ पदार्थान्धयः-तए- तदनन्तर, णं-वाक्यालङ्कार में, सा काली देवी–वह महारानी काली देवी, समणस्स भगवओ-श्रमण भगवान् महावीर के, अन्तियं -पास से (उनके मुखार-विन्द से), एयमलैं-इस अर्थ (पुत्र-मरण के समाचार) को, सोच्चा–सुन कर, निसम्म-उसके सम्बन्ध में विचार करके, महया-बहुत भारी, पुत्त-सोएणं-पुत्र-शोक से, अफुन्ना समाणी--व्याप्त हुई, परसु-नियत्ता-कुहाड़े से काटी हुई, चम्पकलया विव-चम्पक लता, धस त्ति-धम्म करके गिर पड़ती है, वैसे ही कालीदेवी भी, धरणीयलंसि-भूमि पर, सव्वंगेहि- सर्वाङ्ग से, संनिवडियागिर पड़ी।।१७।। मूलार्थ-तदनन्तर महारानी काली देवी श्रमण भगवान् महावीर के मुखारविन्द से पुत्र-मरण के समाचार को सुनकर एवं कुछ विचार कर बहुत भारी पुत्र-शोक से ब्याप्त हुई कुल्हाड़े से काटी गई चम्पक लता के समान धम्म करके अर्थात् पछाड़ खाकर धरती पर सभी अंगों सहित गिर पड़ी।।१७।। ___टोका-इस सूत्र में कालीदेवी के शोक-विषय का वर्णन किया गया है। जैसे कि जय काली देवी ने श्रमण भगवान महावीर स्वामी के मुख से उक्त समाचार को सुना तब वह पुत्र के शोक से व्याप्त होती हुई, इस प्रकार भूमि पर गिरी, जैसे परशु द्वारा छेदन की हुई चम्पक लता गिर पड़ती है। परशु की तीक्ष्णता और चम्पक लता की सुकोमलता को लक्ष्य में रखकर सूत्र कर्ता ने काली देवी को इस उपमा से उपमित किया है। जैसे पुत्र-स्नेह की सुकोमल लता पर पुत्र-वियोग की तीक्ष्ण "धारा गिरी, तब वह देवी जिस प्रकार छेदन की हुई चम्पक लता गिर पड़ती है, ठीक उसी प्रकार सर्वाङ्गों से भूमि पर गिर पड़ी। इस सूत्र से सूत्र-कर्ता ने माता का पुत्र के प्रति कैसा स्नेह होता है यह सूचित किया है। मूल--तए णं सा काली देवी महत्तन्तरेण आसत्था समाणी उट्ठाए उठेइ । उठित्ता समणं भगवं महावीरं वन्दइ, नमसइ । वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासी-"एवमेयं भन्ते! तहमेयं भन्ते ! अवितहमेयं भन्ते ! असंदिद्धमेयं भन्ते ! सच्चे णं भन्ते ! एयमढे, जहयं तुम्भे वयह" ति कटु समणं भगवं वन्दइ नमसइ। वंदित्ता नमंसित्ता तमेव धम्मियं जाणप्पवरं दुरूहइ दुरूहित्ता जामेव दिसि पाउन्भूया तामेव दिसि पडिगया ॥१८॥ Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ग-प्रथम ] (३६) [ निरयालिका सूत्रम् - छाया-ततः खलु सा काली देवी मुहूर्तान्तरेण आश्वस्ता सती उत्थाय उत्तिष्ठति, उत्थाय श्रमणं भगवन्तं महावीरं वन्दते नमस्यति वन्दित्वा नमस्यित्वा एवमवादीत्-एवमेतद् भदन्त ! तथ्यमेतद् भदन्त ! अवतिथ्यमेतद् भदन्त ! असंदिग्धमेतद् भदन्त ! सत्यः खलु भदन्त ! एषोऽर्थः तद् यथैतद् यूयं वदथ, इति कृत्वा श्रमणं भगवन्तं वन्दते नमस्यति, वन्दित्वा नमस्यित्वा तमेव धार्मिक यानप्रवरं आरोहति, आरुह्य यामेव दिशं प्रादुर्भूता तामेव दिशं प्रतिगता ॥१८॥ पदार्थान्धयः-तए णं-तत्पश्चात् (णं वाक्यालंकार में), सा काली देवी वह काली देवी, महत्तन्तरेणं-मुहूर्त मात्र के अन्तर से, आसत्था-आश्वस्त -सचेष्ट होकर, उढाए उटुइ-दासियों आदि'द्वारा उठाने पर उठी, उद्वित्ता-उठ कर, समणं भगवं महावीरं-श्रमण भगवान् महावीर को, वन्दइ-वन्दन करती है, नमसइ-नमन करती है, वंदित्ता-वन्दना करके, नमंसित्ता-नमस्कार करके, एवं-इस प्रकार, वयासी-बोली, एवमेयं भंते-भगवन् ! आप जैसा कहते हैं वैसा ही है, तहमेयं भंते-आपने यथार्थ ही कहा है, अवितहमेयं भंते -भगवन् ! आपके वचन यथार्थ हैं, असंदिद्धमेयं भंते-भगवन आपके वचन सन्देह से रहित हैं, सच्चेणं भन्ते एयम-भगवन् आपत्रे वचन बिल्कुल सत्य हैं, जहेयं-ठीक वैसा ही है, जहेयं तुब्भे वदह-जैसा आप कह रहे हैं, तिकटुऐसा करके-कह कर, समणं भगवं महावीर-श्रमण भगवान महावीर को, वन्दइ-वन्दना करती है नमंसइ-नमस्कार करती है, वंदित्ता नमंसित्ता-वन्दना-नमस्कार करके, तमेव -उसी, धम्मियंधर्म-कार्यों में ही प्रयुक्त होने वाले, जाणप्पवरं-उस श्रेष्ठ रथ पर, दुरूहित्ता-आरूढ़ होकर, जामेव दिसिं वाउब्भूया-जिस दिशा से आई थी, तामेव दिसिं-उसी दिशा में, पडिगया-लौट गई ॥१८॥ मूलार्थ-तत्पश्चात् वह काली देवी एक मुहूर्त के अनन्तर-अर्थात् कुछ क्षण बाद आश्वस्त होकर दासियों आदि के द्वारा उठाने पर उठ खड़ी हुई। उठ कर उसने श्रमण भगवान् महावीर को वन्दना-नमस्कार किया, वन्दना-नमस्कार करके वह इस प्रकार बोली-"भगवन् ! आप जैसा कह रहे हैं वैसा ही है, आपके वचन यथार्थ हैं भगवन् ! आपके वचन सन्देह से रहित हैं, बिल्कुल सत्य हैं, भगवन् ! आपके वचन, ठीक वैसे ही हैं जैसा आप कह रहे हैं। ऐसा कह कर वह श्रमण भगवान् महावीर को पुनः वन्दना-नमस्कार करती है और वन्दन नमस्कार करके (अपने साथ लाये हुए) उसी धार्मिक कार्यों में ही प्रयुक्त होने वाले श्रेष्ठ रथ पर आरूढ़ हो गई और आरूढ़ होकर जिस दिशा से आई थी उसी दिशा में लौट गई ॥१८॥ टीका-इस सूत्र में काली देवी के विश्वास के विषय में वर्णन किया गया है । जैसे कि जब काली देवी मुहूर्तान्तर के बाद सावधान हुई तब उठ कर भगवान् महावीर के प्रति कहने Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरावलिका सूत्रम् ] [ वर्ग - प्रथम लगी कि “हे भगवन् ! आपके वचन तथ्य, अवितथ्य और सन्देह - रहित हैं । आपका कथन सत्य है, जिस प्रकार आप कहते हैं, वह यथार्थ है ।" इस प्रकार कह कर वन्दना नमस्कार करके जिस रथ पर बैठ कर आई थी उसी रथ पर चढ़ कर अपने भवन की ओर चली गई । ( ३७ ) सूत्र-कर्ता ने यहां जो पांच पद दिए हैं वे काली देवी की उत्कृष्ट श्रद्धा के सूचक हैं । कारण कि उसकी भगवान महावीर के प्रति अनन्य श्रद्धा और भक्ति थी । वे पद निम्न प्रकार से हैं । " एवमेयं भंते! तहमेयं भंते ! अवितहमेयं भंते! असंदिद्धमेयं भंते ! सच्चे णं एयमट्ठे जहेयं तुम्भे वदह ।” तथा इन पदों में विशिष्ट - विशिष्टतर विशिष्टतम श्रद्धा देखी जा रही है । अन्तिम पद द्वारा यह सूचित किया गया है - "हे भगवन् ! जो आप कहते हैं वही बात सत्य है । इसी प्रकार प्रत्येक प्राणीको उचित है कि वह भगवान् महावीर के निर्ग्रन्थ प्रवचन पर दृढ़ विश्वास रखे । उत्थानिका :- तदनन्तर क्या हुआ अब सूत्रकार इसी विषय में कहते हैं मूल - भंतेत्ति भगवं गोयमे जाव वंदइ नमसइ, वंदित्ता नमसित्ता एवं वयासी-काणं भंते! कुमारे तिहि दंतिसहस्सेहिं जाव रहमुसलं संगामं संगामेमाणे चेडएणं रन्ना एगाहच्चं कूडाहच्चं जीवियाओ ववरोविए समाणे कालमासे कालं किच्चा कहि उववन्ने ? ॥ १६ ॥ छाया - भदन्त ! इति भगवन्तं गौतमो यावद् वन्दते नमस्यन्ते वन्दित्वा नमस्थित्वा एवम - वादीत् — कालः खलु भदन्त ! कुमारः त्रिभिर्दन्तिसहस्रैर्यावद् रथमुशलं संग्रामं संग्रामयन् चेटकेन राज्ञा एकहत्यं कूटात्यं जीविताद् व्यपरोपितः सन् कालमासे कालं कृत्वा क्व उत्पन्नः ? पदार्थान्वयः — भंतेति — भगवन् ! इस प्रकार कह कर, भगवं - भगवान् महावीर को, गोय गौतम, जाव — यावत् वदति - वन्दना करते हैं, नमसति- नमस्कार करते हैं, वंदित्ता - नमसित्ता - वन्दना ! नमस्कार करके, एवं वयासी - इस प्रकार पूछने लगे- कालेणं भंते —- भगवन् वह काल कुमार, तिहि दंतिसहस्सेहि- तीन हजार हाथियों के साथ, जाव - यावत् रहमुसलं संगामं संगामेमाणे - रथ- मूशल संग्राम में युद्ध करते हुए, चेडएणं रन्ना - राजा चेटक के द्वारा, गाह - एक ही बाण के प्रहार से, कूडाहच्चं कूट की भान्ति (वज्र जैसे ), जीवियाओ - जीवन से, ववरोविए समाणे - रहित होने पर अर्थात् मर कर, काल मासे कालं किच्चा - मृत्यु समय आने पर जब मर गया तो वह), कहि उववन्ने —- कहां उत्पन्न हुआ ? मूलार्थ - महारानी काली देवी के चले जाने के बाद गौतम स्वामी भगवान् से पूछते हैं - भगवन् ! वह काल कुमार तीन-तीन हजार हाथियों, घोड़ों, रथों और तीन Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ग-प्रथम] (३८) [ निरयावलिका सूत्रम् करोड़ सैनिकों को साथ लेकर रथ-मूशल संग्राम में युद्ध करते हुए राजा चेटक के कूट (वज्र) जैसे एक ही बाण से मारा गया। वह मृत्यु का समय आने पर मर कर कहां उत्पन्न हुआ ? टीका-इस सूत्र में काल कुमार की मृत्यु के अनन्तर की गति का वर्णन किया गया है। जैसे कि गणधर गौतम ने प्रश्न किया "हे भगवन् ! रथमूसल संग्राम में काल कुमार अपनी सर्व सेना के साथ जब उक्त संग्राम में गया तो वह संग्राम करता हुआ जब चेटक राजा के वाण से मारा गया तब वह मर कर कहां उत्पन्न हुआ ? मूल-गोयमाइ समणे भगवं गोयम एवं वयासी-एवं खलु गोयमा ! काले कुमारे लिहिं दंतिसहस्सेहिं जाव जीवियाओ ववरोविए समाणे काल. मासे कालं किच्चा च उत्थीए पंकप्पभाए पुडवीए हेमाभे नरगे दससागरोवमठिइएसु नेरइएसु ने इयत्ताए उववन्ने ॥२०॥ छाया-गोयमादि श्रमणो भगवान् गौतममेवमवादोत्-एवं खलु गौतम ! कालः कुमारस्त्रिभिर्दन्तिसहस्रर्यावद् जीविताद् व्यपरोपितः सन् कालमासे कालं कृत्वा चतुर्थ्यां पङ्कप्रभायां पृथिव्यां हेमाभे नरके दशसागरोपमस्थितिकेषु नैरयिकेषु नैरयिकतया उपपन्नः ॥२०॥ पदार्थान्वयः-गोयमाइं–गौतम आदि मुनि-वृन्द को पास बुलाकर, समणे भगवंश्रमण भगवान महावीर, गोयम एवं बयासी-गौतम से इस प्रकार कहने लगे- एवं खल गोयमाहे गौतम इस प्रकार निश्चय ही, काले कमारे-वह काल कुमार, तिहिं दन्तिसहस्सेहि-तीन न हजार हाथियों, जाव-यावत् अर्थात् तीन हजार घोड़ों, तीन हजार रथों और तीन करोड़ सैनिकों को साथ लेकर लड़ते हुए, जीवियाओ-(जब) जीवन से, ववरोविए समाणे -रहित कर दिया गया, (तब वह), कालमासे कालं किच्चा-मृत्यु वेला आते ही मर कर, चउत्थीए-चौथी, पंकप्पभाए पुढवीए-पंकप्रभा नामक पृथ्वी में, हेमाभे नरगे-हेमाभ नामक नरकावास में, दस सागरोवमठिइएसु-दस सागरोपम स्थितिवाले, नेरइएस-नरक में, नेरइयत्ताए-नारकी जीव के रूप में, उववन्ने-उत्पन्न हुआ ।।२०।! मूलार्थ-भगवान ने गौतमादि अन्य मुनियों को भी बुलाकर कहा कि-वह काल कुमार हाथियों, घोड़ों, रथों और सैनिकों आदि को साथ लेकर जब जीवन से रहित हो Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरयावलिका सूत्रम् ] ( ३९ ) [ वर्ग - प्रथम गया तो मृत्यु का समय आने पर मर कर चौथी पंकप्रभा नामक पृथ्वी पर स्थित उस हेमाभ नामक नरकावास में नारकी जीव के रूप में उत्पन्न हुआ जिसकी स्थिति सागरोपम की बतलाई गई है ॥२०॥ टीका - तब भगवान महावीर ने गौतमादि मुनियों को भी बुला कर कहा - " हे गौतम! काल कुमार अपनी सर्व सेना से युक्त होकर जब चेटक राजा द्वारा मारा गया, तब वह काल कर के चौथो पङ्कप्रभा नाम वाली पृथ्वी के हेमाभ नाम वाले नरकावास में दस सागरोपम कथ वाले नरक में नारकी के रूप में उत्पन्न हुआ । सारांश यह है कि वह चौथे नरक में दस सागरोपम स्थिति वाला नारकी बना । सूत्र कर्ता ने 'काल मासे कालं किच्चा कहि उववन्ने ?" यह सूत्र दिया है । इसका यह भाव है कि काल मास कहने पर उस मास के जितने पक्ष तिथियाँ तथा दिन और मुहूर्त व्यतीत 'चुके थे उन सबका भी ग्रहण कर लेना चाहिए । और "कहि उववन्ने” इस पद से जीव का अस्तित्व और कर्मों द्वारा गतियों में जाना सिद्ध किया गया है, कारण कि नरक तिर्यंच मनुष्य और देव इन चारों गतियों में जीव कृत-कर्मों के अनुसार ही जाते हैं, किन्तु कर्म-क्षय से सिद्ध-गति को प्राप्त होते हैं। इससे जीव का अनादि अस्तित्व भाव सिद्ध किया गया है । " चउथिए" इत्यादि पदों से नरकों और उनके आवासों की स्थिति बतलाई गई है । 'दस सागरोपम' इत्यादि पदों से नारकी जीवों की आयु सूचित की गई है। आयु के विषय में प्रज्ञापना सूत्र के स्थिति पद का अध्ययन करें। कुछ हस्त लिखित प्रतियों में सम्पूर्ण पाठ इस प्रकार दिया • गया है। "हिंद तिसहस्से हि तिहि रहसहस्सेहिं तिहि मणुय- कोडीह" इत्यादि उत्थानिका - तदनन्तर उसी विषय को आगे बढ़ाते हुए कहते हैं मूल-काले णं भन्ते ! कुमारे केरिसएहिं भोगेहि केरिसएहि आरम्भेहि केरिसएहिं समारम्भेहि केरिसएहि आरम्भ समारम्भेहि केरिसएहि संभोगेहि केरिसएहि भोग सम्भोगेहि केरिसएण वा असुभ कंड-कम्मपन्भारेणं कालमासे कालं किच्चा चउत्थीए पङ्कप्पभाए पुढवीए जाव नेरइयत्ताए उवधन्ने ? ॥२१॥ Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बर्ग-प्रथ- ] (४०) [ निरयावलिका सूत्रम् छाया.-काला खलु भदन्त ! कुमारः कीदृशै गैः कीदृशैरारम्भैः कीदृशैः समारम्भैः कीदृशैः आरम्भ-समारम्भः, कीदृशैः सम्भोगैः कीदृशैः भोग-सम्भोगैः, कीदृशेन वा अशुभ-कृतकर्मप्राग्भारेण कालमासे कालं कृत्वा चतुर्थ्यां पङ्कप्रभायां पृथिव्यां यावत् नैरिकतया उपपन्न। ॥२१॥ पदार्थान्धयः-भन्ते -भगवन् ! काले कुमारे-काल कुमार, गं - वाक्यालंकार में, के िसहि भोगेहिं-किस प्रकार के भोगों से, केरिसरहि आरम्भेहि-किस प्रकार के प्रारम्भों से, केरिसरहि समारम्भेहि-किस प्रकार के समारम्भों से, केरिसरहिं आरम्भ-समारम्भह-किस प्रकार के आरभ-समारम्भों से, केरिसएहि संभोगेहि-किस प्रकार के संभोगों से, केरिसएहि भोगसम्भोगेहिंकिस प्रकार के भोग-सम्भोगों से. केरिसएण वा और किस प्रकार के, असभकड कम्म पब्भारेणंकिए हुए अशुभ कर्मों के भार से या प्रभाव से, काल मासे कालं किच्चा-काल मास में काल करके, चउत्थोए-चौथी, पंकप्पभाए-पङ्कप्रभा नाम वाली, पुढवीए-पृथ्वी में, जाव-यावत्, नैर इयत्ताए-नारकी के रूप में, उववन्ने- उत्पन्न हुआ ॥२१॥ मूलार्थ-भगवन् ! वह काल कुमार हिंसा झूठ आदि सावद्य क्रिया रूप आरम्भ से, शस्त्रादि द्वारा प्राणियों के वध रूप समारम्भ से तथा किस प्रकार के आरम्भसमारम्भ से, किस प्रकार के भोगों (शब्दादि विषयों) से, किस प्रकार के संभोगों (तीत्र अभिलाषा-जनक विषय-विकारों) से और किस प्रकार के महारम्भ एवं परिग्रह रूप विषय-अभिलाषाओं के कारण और किस प्रकार के अशुभ कर्म समूह के कारण मृत्यु के समय मर कर चौथी पङ्कप्रभा नामक पृथ्वी पर स्थित नरक में उत्पन्न हुआ ॥२१॥ टोका- इस सूत्र में काल कुमार के नरक जाने के विषय में उल्लेख किया गया है। जैसे कि गणधर गौतम ने प्रश्न किया है- "हे भगवने ! किस प्रकार के आरम्भ समारम्भादि कर्मों से, वा किस प्रकार के भोग-संभोग से, किस प्रकार के अशुभ कर्मों के प्रभाव से वह काल कुमार मर कर चौथी पङ्कप्रभा नाम वाली पृथ्वी में स्थित नरक में उत्पन्न हुआ है ? । ___ इस प्रश्न से यह भली भान्ति सिद्ध हो जाता है कि हिंसा, कर्म और विषय-आसेवन तथा अशुभ कर्म ये तीनों ही नरक की उत्पत्ति के कारण हैं, क्योंकि हिंसा मैथुन और अशुभ कर्म के कथन में १८ ही पापों का समावेश हो जाता है। निष्कर्ष यह है कि अठारह पापों के आसेवन से जीव (भारी) गुरु होकर नरक में उत्पन्न होता है । इस स्थान पर आरम्भ से समारम्भ शब्द विशेष अर्थ का सूचक जानना चाहिए। इसी प्रकार भोग और संभोग के विषप में जानना चाहिए । अशुभ कृत कर्मों के भार से जीव अधोगति में चला जाता है ॥२१॥ Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निश्यावलिका ] [ वर्ग - प्रथम उत्थानका - क्या सभी अशुभ कर्मों के भार से दबे जीव अधोगति अर्थात् नरक में हो जाते हैं ? अब इस प्रश्न का उत्तर देते हुए शास्त्रकार कहते हैं ( ४१ ) मूल – एवं खलु गोयमा ! तेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहे नामं णयरे होत्था, रिद्धथिमिय समिद्धे । तत्थ णं रायगिहे नयरे सोणिए नाम राया होत्या महया० । तस्स णं सेणियस्स रन्नो नन्दा नामं देवी होत्या सोमाला जाव विहरइ ॥२२॥ छाया - एवं खलु गौतम ! तस्मिन् काले तस्मिन् समये राजगृहं नाम नगरो आसीत्, ऋद्धस्तिमित समृद्धम् । तत्र खलु श्र ेणिको नाम राजाभूत्, महा० । तस्य खलु श्र ेणिकस्य राज्ञो नन्दा नाम्नी देवी आसीत्, सुकुमारा यावत् विहरति ॥ २२ ॥ पदार्थान्वयः -- एवं खलु गोयमा - इस प्रकार निश्चय ही हे गौतम, तेणं कालेणं - उस समय (चौथे आरे में जिस समय भगवान् महावीर विद्यमान थे), रायगिहे नामं - राजगृह नाम का, णयरे होत्था- नगर था, रिद्धत्थिमिय- समिद्धे - विशाल भवनों से युक्त सब प्रकार के भयों से रहित और धन-धान्य से परिपूर्ण था, तस्थ णं रायगिहे नयरे - उस राजगृह नगर में, सेणिए नामश्रेणिक नाम का, राया-- राजा होत्या-था, महया - जो कि सभी दृष्टियों से महान् था, तस्स -उस, सेणियस्स रन्नो-श्रेणिक राजा की, मन्दा नाम-नन्दा नाम की महारानी, होत्था - थी (जो), सोमाला - सुकुमार, जाव - यावत् अर्थात् पूर्व जन्मार्जित पुण्यों से नाना सुखों का उपभोग करती हुई, विहरति-- विचरण करती थी ||२२|| मूलार्थ — गौतम ! उस काल - उस समय ( चौथे आरे में जब भगवान् महावीर विद्यमान थे ) तब एक राजगृह नामक नगर था जो कि विशाल भवनों से युक्त, धनधान्य से परिपूर्ण और सब प्रकार के भयों से रहित था । उस नगर में श्रेणिक नामक राजा राज्य करता था जो कि सभी दृष्टियों से महान् था । उस राजा श्रेणिक की नन्दा नाम की महारानी थी जो कि अत्यन्त सुकुमार थी और जो पूर्व जन्मार्जित पुण्यों के कारण सब प्रकार के सुखों का उपभोग करती हुई विचरती थी । टीका - इस सूत्र में गणधर गौतम जी के उत्तर के विषय में वर्णन किया गया है। जैसे किगणधर गौतम स्वामी ने श्रमण भगवान् महावीर से पहले प्रश्न किया था कि- "भगवन् ! कालकुमार किस कृत अशुभ कर्म के कारण नरक में उत्पन्न हुआ ?" इस प्रश्न के उत्तर में भगवान् महावीर ने कथन किया है कि - " हे गौतम! अवसर्पिणी काल के चतुर्थ विभाग में एक राजगृह Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ग-प्रथम | (४२) निरयावलिका नाम का नगर था जो सुन्दर भवनों से युक्त और सभी प्रकार के भयों से रहित एवं धन-धान्य से परिपूर्ण एवं समृद्धिशाली था। उस नगर में एक श्रेणिक नाम का राजा राज्य करता था जिसकी नन्दा नाम की महारानी थी जो अत्यन्त सुकुमार सभी इन्द्रियों के विषयों का सुख भोग रही थी। ____इस सूत्र में “होत्या”—“आसीत्” इस भूतकाल की क्रिया के द्वारा यह निर्दिष्ट किया गया है कि अवसर्पिणी काल में समय-समय पर सभी शुभ पदार्थ ह्रास को प्राप्त होते रहते हैं। "रिद्धस्थिमिय-समिद्धा”– इस पद से नगर की सुन्दरता प्रदर्शित की गई है और यह भी प्रदर्शित किया गया है कि भय-मुक्त नगर ही उन्नति के शिखरों पर पहुंच सकता है। "नंदा नामं देवी"-इस पद में नन्दा के साथ "देवी" विशेषण देकर सूत्रकार ने यह सिद्ध किया है कि महारानी नन्दा प्रमोद-क्रीड़ा आदि गुणों से भी सम्पन्न थी। "सोमाला" पद से यह सूचित किया गया है कि स्त्रियोचित सभी गुण उसमें पूर्ण रूप से विद्यमान थे। अराजकता ही विनाश का कारण है, इसलिये प्रजा को न्यायशील राजा की आवश्यकता रहती है, अतः "राज्ञः" एवं "सेणियस्स" इन शब्दों द्वारा यह निर्दिष्ट करने का प्रयत्न किया गया है कि राजा श्रेणिक एक न्यायशील शासक राजगृह पर राज्य कर रहा था। उत्थानिका--अब सूत्रकर्ता पुनः इसी विषय में कहते हैं मूल-तस्स णं सेणियस्स रन्नो नंदाए देवीए अत्तए अभए नामं कुमारे होत्था, सोमाले जाव सुरूवे साम-दाम-दण्ड-भेद-कुसले जहा चित्तो जाव रज्जधुराए चितए यावि होत्था ॥२३॥ छाया-तस्य खलु श्रेणिकस्य राज्ञः नन्दायाः देव्याः आत्मजः अभयो नाम कुमारोऽभवत् सुकुमारः यावत् सुरूपः साम-दाम-दण्ड-भेव-कुशलः, यावत् राज्य-धुरायाश्चिन्तकश्चापि अभवत् ॥२३॥ पदार्थान्वयः-तस्य णं-उस, सेणियस्स-श्रेणिक, रन्नो-राजा की, नंदा देवीए अत्तएनन्दा देवी का आत्मज अर्थात् पुत्र, अभय नाम कुमारे होत्था-अभय नामक कुमार था, सोमाले - (जो) सुकुमार, जाव-यावत्, सुरूवे-सुन्दर रूप वाला, (और) साम-दाम-दंड-भेद-कुसलेसाम-दाम-दण्ड-भेद नामक चारों नीतियों में कुशल था, जहा चित्तो-जैसे चित्त नामक सारथी थ वैसे ही वह, रज्जधुराए चितए-राज्य का शुभ-चिंतक, यावि-भी, होत्था—था ॥३३।। मूलार्थ-उस राजा श्रेणिक की महारानी नन्दा देवी का आत्मज अर्थात् पुत्र Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरयावलिका । ( ४३ ) [ वर्ग - प्रथम अभय नामक राजकुमार था जो साम दाम दण्ड भेद नामक चारों राजनीतियों में कुशल था और चित्त नामक सारथी के समान समस्त राज्य का शुभ चिन्तक भी था ॥ २३ ॥ टीका - इस सूत्र में राज कुमार अभय का वर्णन किया गया है कि वह राजा श्रेणिक की नन्दा नामक महारानी का पुत्र और कुशल राजनीतिज्ञ भी था । अभय कुमार का विशद परिचय “ज्ञाता धर्म कथाङ्ग सूत्र” में प्रथम अध्ययन के सातवें सूत्र में विस्तार से दिया गया है, जिसका भाव यह है कि उस राजा श्रेणिक की महारानी नन्दा का अभय कुमार नामक पुत्र था जो पांचों इन्द्रियों से परिपूर्ण तथा शुभ लक्षणों एवं व्यञ्जनों से युक्त था । उसका शरीर मान- उन्मान की दृष्टि से उपयुक्त एवं उसके सभी अङ्ग अत्यन्त सुन्दर थे । वह चन्द्र के समान सौम्याकार कान्त और प्रियदर्शी था । सुरूप एवं साम-दाम-दण्ड-भेद - इन चारों नीतियों के प्रयोग में कुशल था । ईहा, अपोह, अन्वय और व्यतिरेक आदि रूप विचार-शक्ति में निपुण था । उसकी बुद्धि अर्थ - शास्त्र में भी निपुणता प्राप्त किये हुए थी । औत्पातिकी, वैनेयकी, कार्मिकी और पारिणामिकी चार प्रकार की बुद्धि से युक्त था । राजा श्रेणिक समस्त राज्य कार्यों, पारिवारिक कार्यों, कौटुम्बिक मन्त्रणाओं, गुप्त कार्यों और रहस्यमयी वार्ताओं में उसकी सलाह अवश्य लेता था। वह राजा का आलम्बन-रूप, चक्षु-रूप, प्रमाण रूप और आधार रूप था । वह सभी कार्यों में विश्वसनीय माना जाता था । उसे सभी स्थानों पर जाने की खुली छूट थी । वह राज्य का शुभ चिन्तक था। वह राजा श्रेणिक के राज्य, राष्ट्र-कोष, कोष्ठागार, बल, वाहन, नगर और अन्तःपुर सब को स्वयमेव देखता हुआ विचरता था । उत्थानिका - अब सूत्रकार पुनः इसी विषय में कहते हैं मूल- तस्स णं सेणियस्स रन्नो चेल्लणा नामं देवी होत्या, सोमाला व- विहरइ ॥ २४ ॥ जाव छाया - तस्य खलु श्र ेणिकस्य राज्ञः चेलना नाम्नी देवी आसीत्, सुकुमारा यावत् विहरति ॥ २४ पदार्थाश्वय. ---तस्स णं—उस, सेणियस्स-श्रेणिक, रन्नो- राजा की चेलना नाम की, देवी होत्था - एक रानी थी, (जो) सोमाला - सुकुमारी, (नाना) यावत् - सुखों का अनुभव करती हुई, विहरइ - विचरती थी । मूलार्थ - -उस राजा श्रेणिक की एक रानी चेलना भी थी, जो सुकुमारता आदि नाना स्त्रियोचित गुणों से युक्त थी और सुखोपभोग करती हुई विचरती थी ॥ २४ ॥ टीका - इस सूत्र में महारानी बेलना का परिचय दिया गया है कि वह महाराजा चेटक Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ग - प्रथम ] ( ४४ ) [ निर्याबलिका की पुत्री थी और राजा श्रेणिक की रानी थी। वह अत्यन्त सुकुमार और स्त्रियोचित नाना गुणों से युक्त थी । वह नानाविध सुखोपभोग करती हुई विचरती थी । उत्थानिका - अब सूत्रकार पुनः इसी विषय को स्पष्ट करते हुए कहते हैं मूल - तए णं सा चेल्लणा देवी अन्नया कयाइं तंसि तारिसगंसी वासरंसि जाव सोहं सुमिणे पासित्ता णं पडिबुद्धा, जहा पभावई, जाव सुमिण पाढगा पडिविसज्जित्ता, जाव चेल्लणा से वयणं पडिच्छित्ता जेणेव सर भवणे तेणेव अणुपविठ्ठा ॥ २५ ॥ छाया - ततः खलु सा चेलणा देवी अन्यदा कदाचित् तस्मिन्तादृशके वासगृहे यावत् सिहं स्वप्ने दृष्ट्रा खलु प्रतिबद्धा यथा प्रभावती, यावत् स्वप्न- पाठकाः प्रतिविसर्जिताः, यावत् चेलना तस्य वचनं प्रतीष्य यत्रैव स्वकं भवनं तत्रैवानुप्रविष्टा ॥ २५ ॥ पदार्थान्वयः - तते णं- तत्पश्चात्, सा चेल्लणा देवी - वह महादेवी चेलना, अन्यदा कया - किसी और समय, तंसि तारिसगंसी - पुण्यात्माओं के शयन करने योग्य, वासघरं सनिवास स्थान (राज-महल) में, जाव - यावत्, सीहं - सिंह को, सुमिणे पासित्ता णं - स्वप्न में देखकर, पडिबुद्धा - जाग गई, जहा पभावती - जैसे प्रभावती जांगी थी, जाव- यावत्, सुमिण पाढगा - स्वप्न फल के विशेषज्ञों को, पढिविसज्जित्ता विसर्जित करके, पच्छिता - वह चेलना स्वप्न विशेषज्ञों द्वारा भवणे—जहां पर उसका अपना निवास स्थान था, प्रवेश किया ||२५|| जाव चेलणा से वयणं कथित वचनों पर विश्वास करके, जेणेव सए तेणेव – वहीं जाकर अणुपविट्ठा — उसमें उसने मूलार्थ-तत्पश्चात् महारानी चेलना देवी अन्य किसी समय पुण्यात्माओं के शयन करने योग्य अपने निवास स्थान में शय्या पर सोते हुए स्वप्न में सिंह को देख कर जागृत हुई - जैसे रानी प्रभावती जागी थी । यावत् - अर्थात् उसने राजा के पास जाकर स्वप्न की बात कही और राजा ने उसी समय स्वप्न फल के विशेषज्ञ विद्वानों को बुलवा कर उनसे स्वप्न फल जाना और उन्हें प्रीतिदान देकर विसर्जित किया और वेलना देवी उनके वचनों पर विश्वास करके अपने निवास स्थान में चली गई ||२५|| टीका - इस सूत्र में महारानी चेलना देवी के विषय में वर्णन किया गया है, जैसे कि वह बेलना देवी अपने राज-महल में जब शयन कर रही थी तो उसने स्वप्नावस्था में सिंह को देखा । Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरयावलिका ] (४५) [ वगै-प्रथम ] * स्वप्न देखते ही वह जागी और प्रसन्न होती हुई राजा श्रेणिक के शयन कक्ष में पहुंची और स्वप्न का वृत्तान्त उसे सुनाया। राजा ने कुछ स्वप्न-फल तो स्वयं ही बतला दिया, फिर प्रातःकाल होते ही राजा श्रेणिक ने स्वप्न-पाठकों अर्थात् स्वप्न-फल के विशेषज्ञों को राज-सभा में बुलवाया और उन्होंने स्वप्न-फल के रूप में पुत्र-प्राप्ति बतलाई । स्वप्न-पाठकों के फलादेश पर विश्वास करके महारानी चेलना अपने निवास स्थान पर चलो गई। स्वप्न-दर्शन विषयक सम्पूर्ण वर्णन भगवती सूत्र के ११वें शतक में और ज्ञाता-धर्म कथा ङ्गसूत्र के प्रथम अध्ययन में महारानी प्रभावती और महारानी धारिणी के प्रसंगों में विस्तार से प्राप्त होता है। इस सूत्र के कुछ विशेष शब्दों का भावार्थ इस प्रकार है तंसि तारिसगंसी-इन शब्दों से यह ध्वनित होता है कि जो जीव जैसा पुण्यवान होता है उसके लिये वैसे ही शयनादि स्थान उपलब्ध होते हैं। वास-घरंसि--इस शब्द से यह भाव प्रकट हो रहा है कि पुण्यात्माओं के शयन करने का गृह और शय्या आदि सुगन्धित पदार्थों से वासित किये हुए होते थे, जैसे कि वृत्तिकार का कथन है कि पुण्यात्माओं की शय्या बढ़िया पुष्पों और कर्पूर, लवंग, चन्दन आदि पदार्थों की घूप से सुगन्धित की हुई होती थी जो मन और हृदय को शान्त एवं प्रसन्न करती है। __ सीहं सुमणे-इन शब्दों द्वारा सूचित किया गया है कि पुण्यशील जीवों की गर्भवती मातायें "सिंह" आदि के दर्शन रूप शुभ स्वप्न देखती हैं ।।२५।। ___ मूल-तए णं तीसे चेल्लणाए देवीए अन्नया कयाई तिण्हं मासाणं बहुपडिपुण्णाणं अयमेवारूवे दोहले पाउन्भूए-धन्नाओ णं ताओ अम्मयाओ जाव जन्म-जीविय-फले जाओ णं णियस्स रन्नो उदरवली-मंसेहि सोहि य तलिएहि य भज्जिएहि य सुरं च जाव पसन्नं च आसाएमाणीओ जाव परिभाएमाणीओ दोहलं. पविणेति ॥२६॥ छाया-ततः खलु तस्याश्चेलनायाः देव्या अन्यदा कदाचित् त्रिषु मासेषु बहुप्रतिपूर्णेषु अयमेतपो दोहदः प्रादुर्भूतः-धन्याः खलु ताः अम्बाः यावत् (तासां) जन्म-जीवित-फलं यः खल निजस्य राज्ञः उदर-बलिमांसः शूलैश्च तलितैश्च भजितश्च सुरां च यावत् प्रसन्नां च आस्वादयन्त्यो यावत् परिभाजयन्स्यो दोहदं प्रविणयन्ति-पूरयन्ति ॥२६॥ ... पदार्थान्वयः-तए णं-तत्पश्चात्, तीसे चेलणाए देवीए-उस चेलना देवी के, अन्नया Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरयाबलिका (४७) [वर्ग-प्रथम वयणा पंडइय-मही ओमंथिय-नयण-वयण-कमला जहोचियं पप्फ-वत्थ-गंधमल्ला-लंकारं अपरि जमाणी करतलमलियन्व-कमल-माला ओहयमणसंकप्पा जाव झियाइ ॥२७॥ छाया-ततः खलु सा चेलना देवी तस्मिन् दोहदे अविनीयमाने शुष्का बुभुक्षिता निर्मासा अवरुग्णा अवरुग्ण-शरीरा निस्तेजाः दीन-विमनोवदना पाण्डुकितमुखी अवमन्थित-नयन-वदन-कमला यथोचितं पुष्प-वस्त्र-गन्ध-माल्यालङ्कारं अपरिभुञ्जन्ती करतल-मलितेव कमल-माला उपहतमनःसंकल्पा यावत् ध्यायति ॥२७॥ पदार्थान्वयः-तए णं-तत्पश्चात्, सा-वह, चेल्लणा देवी-चेलना देवी, तंसि दोहलंसिउस दोहद के, अविणिज्ज-माणंसि-पूर्ण न होने पर, सुक्का-सूख गई, भुक्खा-आहारादि न करने के कारण भूखी रहने लगी, निम्मंसा-शरीर पर मांस न रहने के कारण, (और) ओलुग्गाइच्छा-पूर्ति के अभाव में रुग्ण सी, ओलुग्ग-सरीरा-क्षीणकाय हो जाने के कारण, णित्तेया-निस्तेज, दोण-विमण-वयणा-दीन उत्साह-रहित एवं निस्तेज मुखवाली, पंडुइय मुही-फीके से मुख वाली चेलना, ओम थिय-नयण-वयण-कमला-नेत्र और मुख-कमल को नीचा किये, जहोचियं यथोचित, पुष्फ-वत्थ गंधमल्लालङ्कार-पुष्प वस्त्र सुगन्धित पदार्थों और प्राभूषणों का, अपरि जमाणीउपभोग न करती हुई, करतल-मलियव्व-हथेलियों से मसली हुई, कमल-माला-कमलों की माला के समान, ओहयमण-संकप्पा--मन का संकल्प-अभिलाषा पूर्ण न होने के कारण, जाव झियाइआर्त-ध्यान करने लगी॥२७॥ मूलार्थ-तत्पश्चात् महारानी चेलना दोहद की पूर्ति न होने के कारण सूखने लगी, रुचि का अभाव होने से भूखी रहने लगी, अतः क्षीण काय हो गई, मानसिक व्यथा के कारण रुग्ण रहने लगी और रुग्णता के कारण निस्तेज हो गई। दोन-हीन मानसिक उत्साह न रहने के कारण उसका सुख-कमल मुरझा सा गया-मुख फीका पड़ गया। अब वह आंखें और मुख नीचा किए हुए यथायोग्य पुष्प, वस्त्र सुगन्धित पदार्थों तथा आभूषणों का सेवन नहीं करती थी। वह हाथों से मसली हुई कमलों की माला के समान मुरझा सो गई और मानसिक संकल्प (दोहद-पूर्ति की अभिलाषा) पूर्ण न होने के कारण कर्तव्य-अकर्तव्य के विवेक से रहित होकर आत-ध्यान करतो रहती थीअर्थात् दुःख में पड़ी सोचती रहती थी। Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ग-प्रथम ] (४६) [ निरयावलिका कयाइं-कभी एक बार, तिण्हं मासाणं-तीन महीने, बहुपडिपुण्णाणं-प्रतिपूर्ण होने पर, अयमेवारूवे-इस प्रकार का, दोहले-दोहद, पाउन्भूए-उत्पन्न हुआ कि, धन्नाओ णं-निश्चित ही धन्य हैं, ताओ अम्मयाओ-वे मातायें, जाव-यावत्, जम्म-जीविय-फले-जन्म और जीवन सफल हैं, जाओ णं-जो कि, णियस्स रन्नो- अपने राजा अर्थात् पति के, उदरवलीमसेहिउदरवली अर्थात् कलेजे के मांस को, सोल्लेहि-शूलों अर्थात् सलाइयों पर पका कर, और तलिएहि-तले हुए मांस का, य भज्जिएहि-और भुने हुए मांस का, सुरं च–सुरा अर्थात् शराब का, जाव-यावत्, पसन्नं च--प्रसन्न करने वाली विशेष प्रकार की मदिरा का, आसाएमाणीओआस्वादन करती हुई, यावत्-परस्पर, परिभाएमाणीओ-प्रादान-प्रदान करती हुई, दोहलं-- दोहद को, पविणेति–पूरा करती हैं । मूलार्थ-तत्पश्चात् उस चेलना देवी के कभी एक बार (गर्भ) के तीन महीने पूरे होने पर (उसके हृदय में) इस प्रकार का दोहद उत्पन्न हुआ कि निश्चित ही धन्य हैं वे मातायें उन्हीं का जन्म और जीवन सफल है जो कि अपने राजा अर्थात् पति के कलेजे के मांस को शूलों अर्थात् सलाइयों पर पका कर और तले हुए या भुने हुए मांस का सुरा अर्थात् शराब का एवं प्रसन्न कर देनेवाली विशेष प्रकार की मदिरा परस्पर बांट कर आस्वादन करती हुई अपने दोहद को पूरा करती हैं। टोका-इस सूत्र में चेलना के दोहद का वर्णन किया गया है । गर्भ - धारण के तीन महीने पूरे होने पर उसके हृदय में अपने पति के कलेजे का मांस खाने का दोहद (गर्भिणी नारी के मन में उत्पन्न होनेवाली इच्छा) उत्पन्न हुआ । इस सूत्र के विशिष्ट पदों का जो अर्थ वृत्तिकार ने स्पष्ट किया है. वह जानने योग्य है । जैसे कि उदरवली-मंसेहि-इन शब्दों का अर्थ है कलेजे का मांस । सोल्लेहि य तलिएहि य भज्जिएहि-इन शब्दों द्वारा मांस के पकाने, तलने और भूनने का संकेत किया गया है। पसन्नं-इस पद का अर्थ मन को प्रसन्न करनेवाली विशेष प्रकार की मदिरा है। उत्थानिका-दोहद की पूर्ति के अभाव में चेलना को क्या दशा हुई ? अब इस विषय पर प्रकाश डालते हुए सूत्रकार कहते हैं : मूल-तए णं सा चेल्लणा देवी तंसि दोहलंसि अविणिज्जमाणंसि सुक्का भुक्खा निम्मंसा ओलुग्गा ओलुग्ग-सरोरा नित्तेया दोण-विमण Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ग-प्रथम ] (४८) । निरयावलिका टीका-इस सूत्र में दोहद को पूर्ति न होने के कारण महारानी चेलना की क्या दशा हुई इसका मनोवैज्ञानिक विश्लेषण किया गया है। सुक्का-इस पद का भाव यह है कि भोजन के अभाव में रुधिर-क्षीणता हो जानी स्वाभाविक है और रुधिर के अभाव में उसका शरीर सूव गया । भक्खा-इस पद का भाव यह है कि - गर्भावस्था में प्रायः भोजन में अरुचि हो जाती है, साथ ही दोहद - पूर्ति के अभाव के कारण भी वह भोजन नहीं करती थी, अतः वह भूखी-सी ही रहती थी। निम्मंसा-शब्द सूचित कर रहा है कि रुधिर-क्षीणता और भोजन के अभाव में उसके शरीर का मांस उतर गया, अतः वह दुर्बल एवं क्षीणकाय हो गई। चिन्ता अनेक दुःखों की माता है । महारानी चेलना चिन्तातुर रहने के कारण शारीरिक और मानसिक दोनों प्रकार से रुग्ण रहने लगी, अतः उसके चेहरे का तेज उड़ सा गया। दीन-हीन सी हो जाने के कारण वह सोचती रहती थी कि सब लोग क्या सोचेंगे, अतः वह मुंह नीचा करके गौर आंखें झुकाए बैठी रहती थी, अब फूलों की मालायें, सुन्दर वस्त्र आभूषण और इत्र-फुलेल आदि के प्रयोग में भी उसकी रुचि नहीं रही, अतः वह मुझाई हुई कमल-माला के समान पड़ी-पड़ी चिन्ता-निमग्न रहने लगी। इस प्रकार प्रस्तुत सूत्र में चिन्ता के दुष्परिणामों का बहुत सुन्दर विवेचन किया गया है ॥२७॥ उत्थानिका-उसकी सेविकाओं द्वारा राजा श्रोणिक को सूचना देना मूल--तए णं तीसे चेल्लणाए देवीए अंग-पडियारियाओ चेल्लणं देवि सुक्कं भुक्खं जाव झियायमाणीं पासंति, पासित्ता जेणेव सेणिए राया तेणेव उवागच्छन्ति, उवागच्छित्ता करतल-परिग्गहियं सिरसावत्तं मत्थए अंजलि कटु सेणियं रायं एवं वयासी-एवं खलु सामी ! चेल्लणा देवी न जाणामो केणइ कारणेणं सुक्का भुक्खा, जाव झियायइ ॥२८॥ छाया-ततः खलु तस्याश्चेलनायाः देव्याः अंगपरिचारिकाः चेलनां देवीं शुष्का बुभुक्षितां यावद् ध्यायन्ती पश्यन्ति । दृष्ट्वा यत्रैव श्रेणिको राजा तत्रैव उपागच्छन्ति, उपागत्य करतल-परिगृहीतं शिरसावतं मस्तकेऽञ्जलिं कृत्वा श्रोणिकं राजानं एवमवादिषुः-एवं खलु स्वामिन् ! चेल्लना देवी न जानामः केनापि कारणेन शुष्का बुभुक्षिता यावत् ध्यायति ॥२८॥ Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निश्वावलिका ] [ वर्ग - प्रथम पदार्थान्वयः - तएणं – तत्पश्चात्, तीसे चेल्लणाए देवीए - उस चेलना देवी की, अंगपडियारियाओ - महारानी की सेविकाओं ने, चेल्लणं देवीं - महारानी चेलना देवी को, सुबकं - दुर्बल - सूख सी गई, भुवखं - आहार का त्याग करने के कारण भूखी सी, क्षीण जाव - क्षीणकाय मानसिक एवं शारीरिक रूप से बीमार निस्तेज जैसी दशा को ( प्राप्त), झियायमाणी - आर्तध्यान करती हुई को, पासंति — देखा, पासित्ता - देखकर वे, जेणेव सेणिए राया- जहां राजा श्रेणिक थे, तेणेव - वहीं पर, उपागच्छन्ती - आ गईं, उवागच्छित्ता - और वहां आकर, करतल-परिग्गहियं - दोनों हाथ जोड़कर, सिरसावत्तं मत्थए अंजलि कट्टु - आवर्त - पूर्वक मस्तक पर जुड़े हुए हाथ रख कर, सेणिए रायं वयासी - राजा श्रेणिक से इस प्रकार कहने लगीं, एवं खलु स्वामी - स्वामिन् ! बात यह है कि, न जाणामो- हम नहीं जान पा रही हैं कि, चेल्लणा देवीमहारानी चेलना देवी, केणइ कारणेणं - किस कारण से, सुक्का - भुक्खा भूखी रहकर सूखती जा रही हैं, (और) जाव - यावत् झियायई - आर्त-ध्यान में डूबी रहती हैं ॥ २८ ॥ मूलार्थ - -तत्र चलना देवी की अंग - परिचारिकाओं अर्थात् उस की वैयक्तिक सेवा में नियुक्त दासियों ने चेलना देवी को सूखी - सी और भूख से ग्रस्त-सी तथा चिन्तालीन स्थिति में देखा तो वे देखते ही वे राजा श्रेणिक के पास पहुंचीं। उन्होंने दोनों हाथ जोड़ कर आवर्त - पूर्वक मस्तक पर दोनों जुड़े हुए हाथ रखकर राजा श्रेणिक से इस प्रकार निवेदन किया कि - "स्वामिन् ! न मालूम किस कारण से महारानी चेलना देवी क्षीणकाय एवं भूखी रहकर आर्तध्यान में लीन रहती हैं - चिन्ताग्रस्त रहती हैं । ( ४९ ) टीका - इस सूत्र द्वारा ज्ञात होता है कि राज-महलों में उस समय महारानियों की सेवा ' के लिये अनेक प्रकार की दासियां रहती थीं जिनमें अंग-परिचारिकायें भी होती थीं, जिन पर महारानी के स्वास्थ्य की देख-रेख और उसकी शारीरिक परिचर्या का दायित्व होता था । कोई ऐसी वैसी स्थिति उत्पन्न होने पर वे सारी स्थिति राजा को जाकर बतलाती थीं । * यह तत्कालीन राज-व्यवस्था थी ||२८|| मूल - तए णं से सेणि राया तासि अंग परियारियाणं अंतिए एयमट्ठे सोच्चा निसम्म तहेव संभंते सम्गणे जेणेव चेल्लणा देवी तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता चेल्लणं देवि सुक्कं भुक्खं जाव झियायमाणि पासिता एवं वयासी - किन्नं तुमं देवाणुप्पिये ! सुक्का भुक्खा जाव झियायसि ? ॥ २६ ॥ Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ग-प्रथम ] (५०) [निराबलिवा छाया-ततः खलु सः श्रोणिको राजा तासामङ्गपरिचारिकाणामन्तिके एतकथं श्रुत्वा, निशम्य तथैव सभ्रान्तः सन् यत्रैव चेल्लना देवी तत्रैवोपागच्छति, उपागत्य चेल्लनां देवीं शुष्कां बुभुक्षितां यावद् ध्यायन्तों दृष्ट्वा एवमवादोत्-किं खलु त्वं देवानुप्रिये ! शुष्का बुभुक्षिता यावद् ध्यायसि ? पदार्थान्वयः-ततः खलु-तत्पश्चात्, से सेणिए राया-वह राजा श्रेणिक, तासि अंगपरियारियाणं अंतिए-उन अंग-परिचारिकाओं के पास से, एयमलैं सोच्चा-इस बात को सुनकर, निसम्म-कुछ विचार कर, तहेव-उसी समय, संभंते समाणे-आश्चर्यचकित होते हुए, जेणेव चेल्लणा देवी-जहां पर रानी चेलना देवी थी, तेणेव-वहीं पर, उवागच्छइ-आ गया, (और) उवागच्छित्ता-वहां प्राकर, चेल्लणं देवि-चेलना देवी को, सुक्क भुक्खं-सूखी सी (क्षीणकाय) एवं भूख से पीड़ित हो कर, झियायमाणि-आर्तध्यान करती हुई को, पासित्ता-देखकर, एवं वयासो-इस प्रकार बोला-किन्नं तुम-क्यों तुम, देवाणुप्पिये! हे देवानुप्रिये !, सुक्का भुक्खा--- शरीर को सुखा कर और भूखी रह कर, जाव यावत्-पूर्व वर्णित प्रकार से, झियायसी-चिन्ताग्रस्त होकर कुछ सोच रही हो ? ।।२६।। मूलार्थ तत्पश्चात् वह राजा श्रेणिक उन अंग - परिचारिकाओं (दासियों) के मुख से रानी चेलणा की दशा सुनकर और कुछ विचार कर उसी समय कुछ आश्चर्यचकित होते हुए जहां पर महारानी चेलना देवी थी वहीं आ गया और वहां आकर चेलना देवी को कृशकाय और भूख से पीड़ित होकर आर्तध्यान करती हुई,अर्थात् चिन्ताग्रस्त होकर कुछ सोचती हुई देखा और उसे देख कर बोले-“हे देवानुप्रिये.! इस प्रकार अपने शरीर को सुखा कर और भूखी रह कर तुम क्यों चिन्तातुर होकर कुछ सोच रही हो ? ॥२९॥ टीका-प्रस्तुत सूत्र में गृहस्थावस्था में पति के कर्तव्य की ओर ध्यान दिलाया गया है कि अपनी पत्नी के कष्ट की बात सुनते ही उसे उसके पास जाकर उसकी चिन्तातुरता का कारण जानना चाहिये। "देवानुप्रिये !” इस सम्बोधन से राजा श्रेणिक की पत्नी के प्रति सहानुभूति व्यक्त की गई ।जो गृहस्थ जीवन में आवश्यक होती है ।।२६।। मूल-तएणं सा चेल्लणा देवी सेणियस्स रन्नो एयमढें को आढाइ, णो परिजागइ, तुसिकीया संचिठ्ठइ ॥३०॥ छाया-ततः खलु सा चेलना देवो श्रेणिकस्य राज्ञः एतमर्थ नो आद्रियते, नो परिजानाति तूष्णीका संतिष्ठति ॥३०॥ Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरयावलिका ] ( ५१ । [ वर्ग-प्रथम पदार्थान्वयः-ततः खलु-उसके बाद अर्थात् राजा श्रेणिक के पूछने पर, सा चेल्लणा देवीउस महारानी चेलना ने, सेगियरस रन्नो-राजा श्रेणिक के, एतमर्थ-किए गए प्रश्न का, णो आढाइ-कोई आदर नहीं किया, णो परिजाणह-न उसे स्वीकार ही किया-मानो उस सम्बन्ध में वह कुछ जानती ही न हो, तुसिणीया संचिट्ठइ-वह चुप चाप मौन धारण करके बैठी रही ।।३०।। - मूलार्थ--तत्पश्चात् राजा श्रेणिक के पूछने पर महारानी चेलना ने राजा के प्रश्न का कोई आदर नहीं किया, अर्थात् प्रश्न को सुनकर भी अनसुना कर दिया, मानो वह कुछ जानतो ही न हो, अपितु वह मोन धारण करके ज्यों की त्यों बैठी रही ॥३०॥ टीका-प्रस्तुत सूत्र द्वारा एक मनोवैज्ञानिक तथ्य पर प्रकाश डाला गया है। पति और पत्नी के सम्बन्ध प्रेम और विश्वास के आधार पर टिके होते हैं, अतः पत्नी पति की प्रत्येक बात को आदरपूर्वक स्वीकार करे। पूछने पर दोनों तत्काल उत्तर दें। किन्तु स्त्रियों में प्रायः मान-मनौवल करवाने की आदत होती है, उसी आदत के अनुसार महारानी चेलना ने भी राजा श्रेणिक के साथ एक मानिनी स्त्री जैसा व्यवहार किया। मूल-तए णं से सेणिए राया चेल्लणं देवी दोच्चं पि तच्चं पि एवं वयासी--कि णं अहं देवाणुप्पिए ! एयमट्ठस्स नो अरिहे सवणयाए जं णं तुमं एयमझें रहस्सीकरेसि ? ॥३१॥ ... छाया-ततः खलु श्रेणिको राजा चेल्लनां देवीं द्वितीयमपि तृतीयमपि (वार) एवमवादीत्कि खलु अहं देवानुप्रिये ! एतदर्थस्य नो अर्हः श्रवणाय यत्खलु त्वं एतमर्थ रहस्यीकरोषि ? ॥३१॥ ‘पदार्थान्वयः-तए णं-तत्पश्चात्, से सेणिए राया-उस राजा श्रेणिक ने, चेल्लणं देवोंमहारानी चेलना से, दोच्चं पि-दूसरी वार, तच्चं पि-फिर तीसरी बार, एवं क्यासी-इस प्रकार कहा-, कि णं अहं-किस कारण से मैं निश्चय ही, देवाणुप्पिए-देवानुप्रिये, एयमट्ठस्सतुम्हारे इस अर्थ को-तुम्हारे इस प्रकार न बोलने के कारण को, नो अरिहे सवणयाए-मैं सुनने के योग्य नहीं हूं, जंणं तुमं-जो कि तुम, एयम;-इस बात को मुझ से, रहस्सोकरेसिछिपा रही हो ॥३१॥ . मूलार्थ-तत्पश्चात् राजा श्रेणिक ने महारानी से दूसरी बार और फिर तोसरी बार भी पूछते हुए इस प्रकार कहा-देवानुप्रिये ! किस कारण से मैं निश्चय ही तुम्हारे इस प्रकार न बोलने के कारण को जानने के अयोग्य हूँ ? जो कि तुम मुझ से इस प्रकार छिपाव कर रही हो? Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ग-प्रथम ] (५२) [ निरयावलिका टीका-प्रस्तुत सूत्र में राजा श्रेणिक ने महारानी चेलना देवी से एक बार पूछा तो वह मौन रही, दूसरी तीसरी बार पूछने पर भी उसने अपना मौन नहीं तोड़ा। इस घटना के द्वाग यह संकेत किया जा रहा है कि जैसे राजा श्रेणिक अपनी पत्नी के कष्ट को देख कर आतुर हो रहा था ऐसे ही प्रत्येक पति को अपनी पत्नी के कष्ट निवारण के लिये आतुर होकर कष्ट निवृत्ति का उपाय करना चाहिये। रानी चेलना के मौन रहने से यह भी ध्वनित होता है कि उसके मनोजगत में कहीं न कहीं पति के प्रति श्रद्धा छिपी हुई है, प्रेम छिपा हुआ है जिसके कारण वह पति के कलेजे का मांस खाने की बात नहीं कह पा रही थी। यह एक वैज्ञानिक तथ्य है। ज्ञाता धर्म-कथा में महारानी धारणी के सम्बन्ध में भी इसी प्रकार वर्णन प्राप्त होता है । उत्थानिका-अब सूत्रकार पुनः इसी विषय में कहते हैं मूल-तए णं सा चेल्लणा देवी सेणिएणं रन्ना दोच्चं पि तच्चं पि एवं वुत्ता समाणी सेणियं रायं एवं बयासी-पत्थि णं सामी ! से केइ अढे जस्स णं तुन्भे अणरिहा सवणयाए, नो चेव णं इमस्स अट्ठस्स सवणयाए, एवं खलु सामी ! ममं तस्स ओरालस्स जाव महासुमिणस्स तिण्हं मासाणं बहुपडिपुण्णाणं अयमेयारूवे दोहले पाउन्भूए-"धन्नाणं ताओ अम्मयाओ जाओ णं णियस्स रन्नो उदरवलिमंसेहि सोल्लएहि य जाव दोहलं विणेति ।" तए णं अहं सामी ! तंसि दोहलंसि अविणिज्ज माणंसि सुक्का भुक्खा जाव झियायामि ॥३२॥ . __छाया-ततः खलु सा चेल्लना देवी श्रेणिकेन राज्ञा द्वितीयमपि तृतीयमपि (वार) एदमुक्ता सती श्रोणिकं राजानं एवं अवादोत्-"नास्ति खलु स्वामिन् ! सः कोऽप्यर्थः यस्य खलु यूयमनहः श्रवणताय, नो चेव खलु अस्यार्थस्य श्रवणताये एवं खलु स्वामिन् । मम तस्य उदारस्य यावत् महास्वप्नस्य त्रिषु मासेषु बहुप्रतिपूर्णेषु अयमेतद्पो दोहदः प्रादुर्भूतः-"धन्याः खलु ताः अम्बा याः खलु निजस्य राज्ञः उदरवलिमांसः शूलकैश्च यावत् दोहदं विनयन्ति । ततः खलु अहं स्वामिन् ! तस्मिन्दोहदे अविनीयमाने शुष्का बुभुक्षिता यावत् ध्याये ॥ ३२ ॥ पदार्थान्वयः-तए णं-तदनन्तर, सा-वह, चेल्लणा देवी-चेलना देवी, सेणिएणं रन्नाराजा श्रेणिक के द्वारा, दोच्चं पि-तच्चं पि-दो बार-तीन बार, एवं वुत्ता समाणी-इस प्रकार बुलाई जाने पर अथवा इस प्रकार राजा द्वारा कहने पर, सेणियं रायं एवं वयासी-राजा श्रेणिक Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरयावलिका ] - - से इस प्रकार बोली, णत्थि णं सामी - हे स्वामिन् ! ऐसा कुछ भी नहीं, से - ऐसी, केई अट्ठ े - कोई भी बात जस्स णं- जो कि, तुम्भे-प्रापके, अणरिहा सवणयाए - सुनने के योग्य न हो, मोचेब णं- और न ही इमस्स अट्ठस्स- इस बात को, सवणयाए - सुनने के ( अयोग्य हैं, एवं खलु सामी - इस प्रकार निश्चय ही हे स्वामी, ममं मुझे, तस्स ओरालस्स - उस महान्, जाव महासुमिणस्स – महास्वप्न अर्थात् सिंह-दर्शन वाले सुन्दर स्वप्न को देखने के अनन्तर, तिह मासा - तीन महीनों के, बहुपडिपुण्णाणं- परिपूर्ण होने पर, अयमेयारूवे – इस प्रकार का, दोहले पाउन्भू ए - दोहद उत्पन्न हुआ, धन्नाओ णं- धन्य हैं वे, अम्मयाओ - मातायें, जाओ णंजो कि अपने, णिस्स – निजी - अपने रन्नो- राजा अर्थात् पति के, उदरवलि मंसेहि — कलेजे के मांस को, सोल्सएहि - शूलों पर सेके हुए मांस को (एक दूसरे को देकर खाती हुई), जाव - मांस और मदिरा द्वारा, दोहल विणेंति - अपने दोहद को पूरा करती हैं, तएणं- तत्पश्चात्, सामीहे स्वामिन, अहंमैं, तंसि दोहलंसि-उस दोहद के, अविणिज्जमानंसि - पूर्ण न होने पर, सुक्का - सूखती जा रही हूं, भुक्खा - भूखी रह रही हूं, जाव झियायामि - यावत् आर्तध्यान कर रही हूं ||३२|| 1 (५३) [ वर्ग - प्रथम मूलार्थ - तदनन्तर वह चेलना देवी राजा श्रेणिक के द्वारा दो-तीन बार बुलाई जाने पर अर्थात् पूछने पर राजा श्रेणिक से इस प्रकार कहने लगी- " हे स्वामिन् ! ऐसी कोई भी बात नहीं है जिसे सुनने के योग्य आप न हों, इस बात को भी आप सुनने के आयोग्य नहीं है, ( किन्तु यह बात आपके सुनने के योग्य नहीं है), क्योंकि स्वामिन् सिंह दर्शन वाले महान स्वप्न को देखने के अनन्तर गर्भ के तीन मास पूर्ण होने पर मेरे मन में एक विचित्र दोहद उत्पन्न हुआ है कि वे मातायें धन्य हैं जो अपन राजा अर्थात् पति के कलेजे का मांस सलाइयों पर भून कर ( एक दूसरे को बांट कर मदिरा पीते हुए खाती हैं) । तदनन्तर हे स्वामिन् ! मैं उस दोहद के पूर्ण न होने पर सूखती जा रही हूं, भूखी रह रही हूं और आर्तध्यान कर रही हूं, अर्थात् चिन्तातुर होकर सोच में डूबी रहती हूं ॥ ३२ ॥ ॥ टीका - इस सूत्र में उक्त विषय का स्पष्ट रूप से वर्णन किया गया है कि जब राजा ने दो-तीन बार रानी चेलना से पूछा तो उसने कहा - "हे स्वामिन्! ऐसी कोई भी बात नहीं है। जो आपके सुनने योग्य न हो, किन्तु यह बात आपके सुनने योग्य नहीं है, क्योंकि यह घटना अत्यन्त कष्ट देने वाली है । जब राजा ने पुनः पुनः आग्रह किया तो चेलना देवी कहने लगी कि "हे स्वामिन् ! मैंने सिंह दर्शन वाला स्वप्न देखा था उसके बाद गर्भ के तीन मास बीतने पर मुझे आपके कलेजे Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वग-प्रथम (५४) [निरयावलिका का मांस खाने का दोहद उत्पन्न हुआ, इस दोहद की पूर्ति न होने से मेरी यह दशा हो रही है कि मेरा शरीर सूखता जा रहा है और अरुचि के कारण मुझे भोजन भी अच्छा नहीं लग रहा, अतः मैं हर समय चिन्तित रहती हूं। इसके द्वारा महारानी ने अपनी असमंजस में पड़ी स्थिति को स्पष्ट कर दिया है। इस कथन से यह भी भली-भांति सिद्ध हो जाता है कि रानी की इच्छा मांस-भक्षण की नहीं थी, किन्तु यह इच्छा केवल गर्भस्थ शिशु के प्रभाव के कारण उत्पन्न हुई थी। उक्त घटना से यह भी ध्वनित होता है कि पति-पत्नी को चाहे जैसी भी घटना अथवा परिस्थिति हो परस्पर सत्य रूप से वह स्थिति स्पष्ट कह देनी चाहिये । स्पष्टता से उसका समाधान भी ढूंढा जा सकता है और प्रायः ढूंढ ही लिया जाता है ॥३२॥ उत्थानिका- अब सूत्रकार उसी घटना के विषय में अन्य विवरण प्रस्तुत करते हैं मूल-तए णं से सेणिए राया चेल्लणं देवि एवं वयासी-माणं तुम देवाणुप्पिए ! ओहय० जाव झियायह, अहं णं तहा जइस्सामि जहा णं तव दोहलस्स संपत्ती भविस्सइत्ति कटु चेल्लणं देवि ताहिं इाहिं कंताहिं पियाहिं मणुन्नाहिं मणामाहिं ओरालाहिं कल्लाणाहिं सिवाहिं धन्नाहि, मंगल्लाहि, मियमधुरसस्सिरीयाहिं वह, समासासेइ, समासासित्ता, चेल्लणाए देवीए अंतियाओ पडिमिक्खमइ, पडिनिक्खमित्ता जेणेव बाहिरया उवट्ठाणसाला जेणेव सीहासणे तेगेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता सीहासणवरंसि पुरत्थाभिमुहे निसीयइ, निसीइत्ता तस्स दोहलस्स संपत्तिनिमित्तं बहहिं आएहिं उवाएहि य उप्पत्तियाहि य वेणइयाहि य कम्मियाहि य पारिणामियाहि य परिणामेमाणे-२ तस्स दोहलस्स आयं वा उदायं वा ठिई व अविदमाणे ओहयमणसंकप्पे जाव झियायइ ॥३३॥ __ छाया-ततः खलु सः श्रोणिको राजा चेल्लनां देवीमेवमवादीत्-मा खलु त्वं देवाणुप्रिये अकहत. यावत् ध्याय, अहं खलु तथा यतिष्ये, यथा खलु तव दोहदस्य सम्पत्तिर्भविष्यतीति उक्त्वा चेल्लणां देवीं ताभिरिष्टाभिः कान्ताभिः प्रियाभिमनोज्ञाभिर्मनो-रमाभिरुदाराभिः कल्याणाभिः . शिवाभिर्धन्याभिर्माङ्गल्याििमतमधुरसश्रीकाभिल्गुभिः समाश्वासयति, समाश्वास्य चेल्लनाया देव्या अन्तिकात् प्रतिनिष्कामति, प्रतिनिष्क्रम्य यत्रैव बाह्या उपस्थानशाला यत्रैव सिंहासनं तत्रवोपागच्छति, Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ A निरयावलिका । (५५) वर्ग - प्रथम उपागत्य सिंहासनवरे पौरस्त्याभिमुखो निषीदति, निषद्य तस्य दोहदस्य सम्पत्तिनिमित्तं बहुभिरायैरुपायैश्च औत्पत्तिकीभिश्च वैनयिकीभिश्च कामिकी ( कर्मजा ) भिश्च पारिणामिकीभिश्च परिणामयन्परिणामयन् तस्य दोहदस्य आयं वा उपायं वा स्थिति वा अविन्दन् अपहतमनः संकल्पो यावद् ध्यायति ॥ ३३ ॥ - पदार्थान्वयः - तणं - तदनन्तर, स सेणिए राया- वह राजा श्रेणिक, चेल्लणं देविमहारानी चेलना से, एवं वयासी- इस प्रकार बोले, माणं तुमं देवाणुपिए - देवानुप्रये ! तुम इस प्रकार, ओहय० जाव० झियायह- उपहत मन होकर अर्थात् श्रपने मन को मार कर आर्त-ध्यान मत करो, अहं णं तहा जइस्सामि – मैं निश्चय ही कोई ऐसा प्रयत्न करूंगा, जहा णं - जिससे कि, तन बोहलस्स - तुम्हारे दोहद की, संपत्ती भविस्सइ - पूर्ति होगी, त्ति कट्टु - इस प्रकार कह कर, चेल्लणं देवि - महारानी चेलना देवी, ताहि उसको, इट्ठाहि- इष्ट- पूर्ति करने वाले, कंताहिअत्यन्त सुन्दर, पियाहि- प्रियकारी, मणुन्नाहि- - मन को भाने वाले, मणाहि--मनोनुकूल, ओराला हिह-उदार भावनाओं से युक्त अर्थात् गर्भ-काल की कामनाओं को पूर्ण करनेवाली, कल्लानाहि - कल्याणकारी, सिवाहि- शुभकारी, धन्नाहि-ध - धन्य कहलाने के योग्य, मंगल्लाहिमंगलकारी, मिय-मधुर-सस्सिरीयाहि-थोड़े से शब्दों द्वारा अत्यन्त मधुर लगने वाली - शोभायमान, वहि-वचनों द्वारा समासासेइ - आश्वासन देता है, समासासित्ता - और फिर आश्वासन देकर, चेल्लगाए देवोए अंतियाओ - चेलना देवी के पास से, पडिनिवखमइ - वापिस लौट जाता है, पडिनिक्खमित्ता - और लौट कर, जेणेव बाहिरिया - अन्तःपुर से बाहर जहां पर, उद्वाणसाला - उपस्थानशाला - अर्थात् सभा मण्डप था, जेणेव सोहासणे- और उसमें जहां पर राज - सिंहासन था, तेणेव उवागच्छइ — वहीं पर आ जाता है, उवागच्छित्ता - और आकर, सीहासनवरंसि— अपने सिंहासन पर पुरत्थाभिमुहे - पूर्व दिशा की ओर मुख करके, निसीयइ-बैठ जाता है, निसीइत्ता- और बैठ कर, तस्स दोहलस्स - उस दोहद के संपत्ति-निमित्तं - पूर्णता के लिये, बहू आएहि उवाएहि - बहुत प्रकार के साधनों और उपायों के सम्बन्ध में, उप्पत्तियाहि-प्रत्पत्ति की बुद्धि द्वारा य वेणइयाहि वैनयिकी बुद्धि द्वारा, य कमिया हि — कार्मिको बुद्धि के द्वारा, य पारिणामियाहि र पारिणामिकी बुद्धि के द्वारा परिणामेमाणे परिणामेमाणे - अनेक प्रकार के विचार करता हुआ, तस्स दोहलस्स-उस दोहद की पूर्ति का आयं वा उपायं वा - किसी भी साधन या प्रयोग, ठिवा - व्यवस्था के, अविदमाणे - न सूझने पर, मोहयमण-संकप्पे - मानसिक संकल्प की पूर्ति न होने के कारण, जाव झियायइ - अतः वह भी आर्तध्यान करने लगा ||३३|| मूलार्थ - तदनन्तर वह राजा श्रेणिक महारानी चेलना देवी से इस प्रकार बोले देवि! तुम इस प्रकार अपने मन को मार कर आर्तध्यान मत करो, अर्थात् दुःखी मत होओ मैं निश्चित ही कोई ऐसा प्रयत्न करूंगा जिससे कि तुम्हारे दोहद की पूर्ति होगी । इस Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ग-प्रथम . (५६) [ निरयावलिका प्रकार कहकर राजा श्रेणिक महारानी चेलना देवी को इष्ट की पूर्ति करने वाले अत्यन्त सुन्दर प्रियकारी, मन को भानेवाले, उसे अनुकूल प्रतीत होन वाले उदार भावनाओं से युक्त अर्थात् गर्भकाल की इच्छाओं को पूर्ण करने वाले, कल्याणकारी शुभकारी, धन्य कहलाने के योग्य मंगलकारी, अल्प शब्दों द्वारा अत्यन्त मधुर एवं शोभायमान वचनों द्वारा आश्वासन देते हैं और आश्वासन देकर चेलना देवी के पास से वापिस लौट जाते हैं और वे लौट कर जहां अपनी राज-सभा थी और उस सभा में जहां उनका अपना निजी सिंहासन था वहां पर आकर अपने श्रेष्ठ अत्युत्तम राज-सिंहासन पर पूर्वाभिमुख होकर बैठ गए । बैठकर उस दोहद की पूर्ति के लिये अनेक साधन, एवं उपाय उत्पत्तिको, वनयिकी; कामिकी और परिणामिकी बुद्धि द्वारा सोचते हुए उस दोहद की पूर्ति का कोई भी साधन, उपाय एवं व्यवस्था न सूझने पर और अपने मानसिक संकल्प की पूर्ति न होने पर राजा श्रेणिक भी आर्तध्यान करने लगे-अर्थात् चिन्ता-निमग्न हो गए ॥३३॥ टोका-प्रस्तुत सूत्र में राजा श्रेणिक द्वारा महारानी चेलना को उसकी दोहद-पूर्ति के आश्वासन देने का वर्णन किया गया है । आश्वासन के लिये प्रयुक्त शब्दों द्वारा यह ध्वनित होता है कि किसी को यदि आश्वासन दिया जाये तो वह प्रियकारी शुभंकारी एवं कल्याणकारी शब्दों द्वारा ही देना चाहिये। __साथ ही “जइस्सामि" इस क्रिया द्वारा यह शिक्षा दी गई है कि जब तक किसी बात को पूर्ण करने की शक्ति पर पूर्ण विश्वास न हो जाय तब तक निश्चयकारी वचन नहीं बोलने चाहिये। प्रस्तुत सूत्र में चार प्रकार की बुद्धियों का वर्णन किया गया है। चारों प्रकार बुद्धियों का विवरण इस प्रकार है१. औत्पत्तिकी बुद्धि-जिस बुद्धि के द्वारा शास्त्रों के अभ्यास के बिना ही अनदेखे अनसुने और पहले अनुभव में न आए हुए विषयों का भी यथार्थ ज्ञान हो जाय उसे औत्पत्तिकी बुद्धि कहा जाता है। २. वनयिकी बुद्धि-विनय-भाव से उत्पन्न होने वाली बुद्धि वैनयिको बुद्धि कही जाती है । ३. कार्मिकी (कर्मजा) बुद्धि-उपयोग-पूर्वक चिन्तन-मनन करते हुए कार्य करने से उत्पन्न होनेवाली बुद्धि कार्मिकी बुद्धि कहलाती है। ४. पारिणामिको बुद्धि-अनुमान आदि द्वारा कार्य को सिद्ध करनेवाली एवं आयु की परिपक्वता के कारण परिपुष्ट होने के परिणाम स्वरूप उत्पन्न होने वाली बुद्धि पारिणामिकी बुद्धि कहलाती है ।।३३॥ Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरयावलिका] (५७) [वर्ग-प्रथम - उत्थानिका-तदनन्तर चेलना को दोहद-पूर्ति के विषय में क्या हुआ ? अब सूत्रकार इस विषय में कहते हैं. मूल-इमं च णं अभय कुमारे व्हाए जाव सरीरे, सयाओ गिहाओ पडिनिक्खमइ, पडिनिक्खभित्ता जेणेव बाहिरिया उवट्ठाण-साला जेणेव सेणिए राया तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता सेणियं रायं ओहय० जाव झियायमाणं पासइ, पासित्ता एवं वयासी-"अन्नया गं ताओ ! तुम्भे ममं पासित्ता हट्ठ जाव हियया भवह, किन्नं ताओ ! अज्ज तुम्भे ओहय० जाव झियायह ? तं जइणं अहं ताओ, ! एयस्स अट्ठस्स अरिहे सवणयाए तो णं तुब्भे मम एयमढें जहाभूयमवितहं असंदिद्धं परिकहेह, जाणं अहं तस्स अट्ठस्स अंतगमणं करोमि ॥३४॥ छाया-इतश्च खलु अभयः कुमारः स्नातः यावत् शरीरः, स्वकात् गृहात् प्रतिनिष्कामति, प्रतिनिष्क्रम्य यौव बाह्या उपस्थानशाला यत्रैव श्रोणिको राजा तत्रेवोपागच्छति, उपागत्य च घोणिक राजानं अवहत० यावत् ध्यायन्तं पश्यति, दृष्ट्वा एवमवादीत्-"अन्यदा खलु तात ! यूयं मां दृष्ट्वा हृष्टः यावत् हृदयः भवथ, किं खलु तात ! अद्य यूयं अवहत. यावत् ध्यायथ, तद्यदि खल्वहं तात ! एतस्यार्थस्याहः श्रवणताय तदा खलु यूयं मम एतमयं यथाभूतम् अक्तिथं असंदिग्धं परिकथयत, यस्मात् खल्वहं तस्यार्थस्यान्तगमनं करोमि ॥३४॥ .. पदार्थान्वयः-इमं च णं- उस समय, अभय कुमारे- अभय कुमार, व्हाए-स्नान करके, जाव-यावत्, सरीरे--शरीर को अलंकृत करके, सयाओ गिण्हाओ-अपने निजी राज-महल में से, पडिनिक्खमइ-बाहर निकला, पडिनिक्खमित्ता:-और बाहर निकल कर, जेणेव - जहां पर, बाहिरिया-बाहर की ओर, उवट्ठाणसाला-राज-सभा-मण्डप • था, जेणेव और जहां पर, सेणिए राया-राजा श्रेणिक बैठा था, तेणेव-वहां पर, उवागच्छइ-आता है, उवागच्छित्ता-और वहां आकर, सेणियं रायं-राजा श्रेणिक को, ओहय०-उपहत मन वाले अर्थात् मरे हुए मन से, जाव-यावत्, झियायमाणं-मार्तध्यान करते हुए, पासइ-देखता है, पासित्ता एवं वयासी-और उन्हें इस दशा में देख कर बोला, ताओ !-तात, अन्नया णं-अन्यदा हर समय अर्थात् पहले तो, तुम्भे-आप, ममं पासित्ता-मुझे देखते ही, हठ-हर्ष-युक्त, जाव-यावत्, हियय-हृदय से, भवह-होते रहे हैं, कि णं राओ अज्ज-हे तात फिर आज किस कारण से, तुम्भे-आप, ओहय०-अपने मन को मार कर, जाव-यावत्, झियायह-आर्तध्यान कर रहे Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ग-प्रथम] [निरयावलिका हैं, तं जइ णं-वह यदि, ताओ हे तात, अहं एयमट्ठस्स-इस अर्थ को अर्थात् मापके दुखित होने के कारण को, अरिहे सवणयाए-सुनने के योग्य हूं, तो णं-तब, तुम्भे-आप, ममं-मुझे, एयमलैं-इन नमस्त कारणों को, जहाभूयं-यथाभूत अर्थात् ज्यों का त्यों, अवितह-बिलकुल सत्य, असंदिद्धं-सन्देह-रहित, परिकहेह-कह दीजिए, जा गं अहं-जिससे कि मैं, तस्स अठ्ठस्स--उस अर्थ अर्थात् कार्य के, अंत-गमणं करोमि-अन्त तक पहुंच कर-मर्म तक जाकर उसे दूर कर सकू ॥३४॥ मूलार्थ-उस समय अभय कुमार स्नान करके और शरीर को अलंकारों से सुसज्जित करके अपने राज-भवन से बाहर निकला और बाहर निकल कर जहां पर राज-सभामण्डप था और जहां राजा श्रेणिक अपने मन को मारकर अर्थात् चिन्ता में डूबा हुआ आर्तध्यान कर रहा था वहां आकर उसे देखा और देखकर इस प्रकार बोला-"तात! अन्यदा अर्थात् पहले तो आप सदैव मुझे देखते ही हर्षित हृदय हो जाया करते थे, तात ! तो आज फिर क्यों अपने मन को मारे हुए आर्तध्यान में डूबे हुए हैं, अर्थात् चिन्तातुर हो रहे हैं ? तात ! यदि आप मुझे उस चिन्ता के कारण को सुनने के योग्य समझते हैं तो आप मुझ से वह कारण ज्यों का त्यों यथार्थ रूप से सन्देह रहित होकर कहें, जिससे कि मैं उस कारण के अन्त तक-मर्म तक पहुंच कर उसे दूर कर सकू ॥३४॥ टीका-प्रस्तुत सूत्र में अभय कुमार द्वारा पिता के पास आकर चिन्ता के कारण को पूछने का वर्णन किया गया है और साथ ही यह मनोवैज्ञानिक तथ्य प्रकट किया गया है कि पिता को पुत्रों से हर्षित हृदय से मिलना चाहिये । पुत्रों का यह कर्तव्य है कि वे पिता को यह विश्वास दिलायें कि हम आपकी चिन्ताओं को जान कर उन्हें हर सम्भव उपाय करके दूर करेंगे। सूत्र द्वारा यह भी ध्वनित होता है कि-पुत्रों को अपने पिता से जो भी बात पूछनी हो वह बड़े प्रेम से पूछनी चाहिये ॥३४। .. मूल-तए णं से सेपिए राया अभयं कुमारं एवं क्यासी-त्यि गं पत्ता ! से केइ अछे जस्स णं तुम अणरिहे सवणाए एवं खल पुत्ता ! तव चुल्लमाउयाए चेल्लणाए देवीए तस्स ओरालस्स जाव महासुमिणस्स तिण्हं मासाणं बहुपरिपुन्नागं नाव अयमेवारूवे बोहले पाउन्भूए "धन्नाओ Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५६) निरयावलिका (५६) [वर्ग-प्रथम णं ताओ अम्मयाओ जाओ उयरवलिमसेहिं सोल्लेहि य जाव दोहलं विणेति ॥३५॥ छाया-ततः खलु स श्रेणिको राजा अभयकुमारमेवमवादीत्-नास्ति खलु पुत्र सः कोऽप्यर्थः यस्य खलु त्वमनहः श्रवणताय । एवं खलु पुत्र ! तव क्षुल्लकमातुश्चेल्लनाया देव्यास्तस्योदारस्य यावत् महास्वप्नस्य त्रिषु मासेषु बहुप्रतिपूर्णेषु अयमेवरूप: दोहलः प्रादुर्भूतः-"धन्यास्ते अम्बाः याः तव उदरवलिमांसः शूलकश्च यावत् दोहदं विनयन्ति।" ततः खलु सा चेल्लना देवी तस्मिन् दोहदेऽविनीयमाने शुष्का यावत् ध्यायति। ततः खल्वहं पुत्र! तस्य दोहदस्य सम्पत्ति-निमितं बहुभिरायरुपायैश्च यावत् स्थिति वा अविन्दन् अपहत० ध्यायामि ॥ ३५॥ ___ पदार्थान्वयः-तए णं-तदनन्तर, से सेणिये राजा-वह राजा श्रेणिक, अभयं कुमारंअभय कुमार को, एवं वयासी-इस प्रकार बोला, णस्थि णं पुत्ता! हे पुत्र ऐसा कुछ भी नहीं है, जस्स गं तुमं-तुम जिसके, अणरिहे सवणाए-जिसे तुम सुनने योग्य के नहीं हो, एवं खलु पुत्ता!-हे पुत्र वस्तुतः बात यह है कि, तव-तुम्हारी, चुल्लमाउयाए चेल्लणाए देवीए-छोटी माता चेलना देवी के, तस्स ओरालस्स-उस प्रमुख, जाव-यावत्, महासुमिणस्स-महास्वप्न के, तिष्णं मासाणं-तीन महीने, बहुपडिपुन्ना गं-परिपूर्ण होने पर, अयमेवारवे-इस प्रकार का, बोहले पाउन्भूए-दोहद उत्पन्न हुआ, धन्नाओणं ताओ अम्मयामो-धन्य हैं वे मातायें जो कि तुम्हारे (राजा श्रेणिक के), उयरवलिमसेहि-कलेजे के मांस से, सोल्लेहि-तल-भून कर, दोहलं विणेति-अपने दोहद को पूर्ण करती हैं ॥३५।। मूलार्थ-तब उस राजा श्रेणिक ने अभय कुमार से इस प्रकार कहा-"पुत्र ! ऐसी कोई भी बात नहीं है जो तुम्हारे सुनने के योग्य न हो, किन्तु बात यह है कि तुम्हारी छोटी माता चेलना देवी को एक महान् उदार महास्वप्न को देखे हुए तीन मास बीतने पर यह दोहद उत्पन्न हुआ कि "वे मातायें धन्य हैं जो मेरे (श्रेणिक) के हृदय के मांस को सलाइयों पर सेक एवं तल-भून कर उस मांस से अपने दोहद को पूर्ण करती हैं ॥ ३५॥ टोका-प्रस्तुत प्रकरण द्वारा पहला ज्ञातव्य यह संकेत मिलता है कि राजा और मन्त्री पाहे पिता-पुत्र ही क्यों न हों उन्हें कुछ भी छिपाए बिना सब बातें एक दूसरे को स्पष्ट रूप से बतला • देनी चाहिये, तभी कोई कार्य सम्पन्न हो सकता है, अन्यथा नहीं। Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ग-प्रथम (६०) [निरयावलिका ... दूसरा संकेत इस प्रकार भी दिया गया है कि जहां माता-पिता के आचरण, वार्तालाप आदि का गर्भस्थ बालक पर प्रभाव पड़ता है वहां गर्भस्थ जीव का माता-पिता पर भी प्रभाव पड़ता है। महारानी चेलना पर गर्भस्थ दुष्ट जीव का ही यह प्रभाव पड़ा कि वह पति के कलेजे के भांस से दोहद-पूर्ति जैसा निकृष्ट विचार करने लगी। "उयरावलिमसेहि" शब्द का "जैनागम शब्द-संग्रह अर्धमागधी गुजराती कोश" में कलेजे का मांस अर्थ प्राप्त होता है और 'सोल्लेहि' शब्द का अर्थ उसी कोष में "सलाइयों पर पकाया हुआ मांस" किया है । अतः हमने कोषानुसारी अर्थ ही ग्रहण किया है ॥ ३५॥ - मूल-तएणं सा चेल्लणा देवीतंसि दोहलंसि अविणिज्जमाणंसि सक्का जाव झियायइ । तएणं अहं पुत्ता ! तस्स दोहलस्स संपत्ति-निमित्तं बहुहिं आएहि य जाव ठिई वा अविंदमाणे ओहय० जाव० झियामि ॥३६॥ छाया-ततः खलु सा चेलना देवी तस्मिन् दोहदे अविनीयमाणे शुष्का यावत् ध्यायति । ततः खल्वहं पुत्र । तस्य दोहदस्य संपत्ति-निमित्तं बहुभिरायः-उपायैः यावत् स्थिति वा अविन्दन् अपहत० यावद्० ध्यायामि ॥३६॥ १ पदार्थान्बयः-तए थे इसलिए, सा चेलणा देवी-वह महारानी चेलना, तंसि दोहलंसिउस दोहद के, अविणिज्जमाणंसि-पूर्ण न होने के कारण, सुक्का-कृशकाय होकर, जाव झियायआर्तध्यान कर रही है । तएणं-इसलिये, अहं पुत्ता-हे पुत्र मैं, तस्स दोहलस्स-उसके उस दोहद को, संपत्ति निमित्तं-पूर्णता के लिये, बहुहिं आएहि-बहुत उपायों से भी, जाव० ठिइंवा विदमाणे-स्थिति को न समझ पाने के कारण, ओहय जाव० शियामि-मैं भग्न-मनोरथ होकर चिन्तातुर हो सोच रहा हूं ॥३६॥ । - मूलार्थ-हे पुत्र ! महारानी चेलना देवी के उस दोहद के पूर्ण न होने के कारण वह कृशकाय होकर चिन्तातुर रहती है। उस दोहद की पूर्ति के बहुत से उपाय करके भी कुछ समझ न पाने के कारण हताश होकर मैं भग्नमनोरथ होकर चिन्ता में डूबा रहता हूं ॥३६॥ टोका-इस सूत्र द्वारा यह स्पष्ट हो रहा है कि गृहस्थी को अपनी चिन्ता के साथ अपने पारिवारिक-जनों के लिये भी चिन्तातुर रहना पड़ता है। दोहर--पूर्ति जैसे सामान्य से कार्य के Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरयावलिका (६१) [वर्ग-प्रथम . लिये भी राजा श्रेणिक इतना चिन्तातुर हो उठा। इसीलिये गृहस्थ को "चिन्ता-गृह-निवासी" कहा गया है ।। ३६ ॥ उत्थानिका-इसके अनन्तर अभय कुमार ने क्या किया? और दोहव-पूर्ति के लिये क्या उपाय ___किया ? शास्त्रकार इस विषय का वर्णन करते हैं मूल-तए णं से अभय कुमारे सेणियं रायं एवं वयासी-"मा णं ताओ ! तुम्भे ओहय० जाव झियायह, अहं णं तह जइहामि जहाणं मम चुल्लमाउयाए चेल्लणाए देवीए तस्स दोहलस्स संपत्ती भविस्सइ-त्ति कट्ट सेणियं रायं ताहिं इलाहिं जाव वग्गूहि समासासेइ, समासासित्ता जेणेव सए गिए तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता अभिंतरए रहस्सिए ठाणिज्जे पुरिसे सद्दावेइ, सद्दावित्ता एवं वयासी-गच्छह णं तुम्भे देवाणुप्पिया ! सूणाओ अल्लं मंसं रुहिरं वत्थिपुडगं च गिण्हह । ___तए णं ते ठाणिज्जा पुरिसा अभएणं कुमारेणं एवं वुत्ता समाणा हट्ठ० करतल० जाव पडिसुणेत्ता अभयस्स कुमारस्स अंतियाओ-पडिनिक्खमंति, पडिनिक्खमित्ता जेणेव सूणा तेणेव उवागच्छन्ति, उवा गच्छित्ता अल्लं मंसं रुहिरं वत्थिपुडगंच गिण्हंति, गिहित्ता जेणेव अभये .. कुमारे तेणेव उवागच्छन्ति, उवागन्छित्ता करयल० तं अल्लं मंसं रुहिरं वत्थिपुडगं च उवणेति ॥३७॥ छाया-ततः खलु सः अभयः कुमारः श्रेणिकं राजानमेवमवदोत्-मा खलु तात ! यूयं अवहत्० यावद् ध्यायत, अहं खलु तथा यतिष्ये यथा खलु मम क्षुल्लमातुश्चेलनायाः देव्यास्तस्य दोहदस्य सम्पत्तिर्भविष्यतीति कृत्वा श्रेणिकं राजानं ताभिरिष्टाभिर्यावद् वल्गुभिः समाश्वासयति, समाश्वास्य यत्रैव स्वकं गृहं तत्रैवोपागच्छति, उपागत्य आभ्यन्तरान् राहस्यिकान् स्थानीयान् पुरुषान् शब्दयति, शब्दयित्वा एवमवादीत-गच्छत खलु यूयं देवानुप्रियाः सूनात् आर्द्र मांसं रुधिरं वस्तुपुटकञ्च गृह्णीत । ततः खलु से स्थानीयाः पुरुषा अभयेन कुमारेण एवमुक्ताः सन्तः हृष्टाः करतल० यावद् प्रतिश्र त्य अभयस्य कुमारस्यान्तिकात् प्रतिनिष्कामग्ति, प्रतिनिष्कम्य वव तूना तत्रैवोपागच्छन्ति, Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ग-प्रथम] (६२) [निरयावलिका आद्रं मासं रुधिरं बस्तिपटकं च गृह्णन्ति, गृहीत्वा यत्रैव अभयः कुमारग्तत्रैवोपागच्छन्ति, उपागत्य करतल तमामांसं रुधिरं बस्तिपुटकञ्च उपनयन्ति ॥३७॥ _____पदार्थान्वयः-तएणं से- तत्पश्चात् उस, अभये कुमारे-अभय कुमार ने, सेणियं रायंराजा श्रेणिक को. एवं वयासी-इस प्रकार कहा, तब्भे-आप, ओहय०-भग्न-मनोरथ होकर, यावत् मा झियायह चिन्तातुर न हों, अहं तहा जत्तिहामी - मैं कोई ऐसा यत्न करूंगा, जहा णंजिससे कि, मम-मेरी, चुल्लमाउयाए चेल्लणाए छोटी माता चेलना देवी के, तस्स दोहलस्सउस दोहद की, संपत्ती भविस्सइ - पूर्ति हो सकेगी, ति कट्ट-- इस प्रकार कह कर, सेणियं रायंराजा श्रेणिक को, ताहि इट्टाहि-उसकी मनभाती (जाव), वहि- वचनों द्वारा, समासासे इआश्वासन प्रदान किया और, समासासित्ता-आश्वासन देकर, जेणेव-जहां पर, सए गिहे. अपना महल था, तेणेव उवागच्छइ-वहीं पर लौट गया। उवागच्छित्ता- लौट कर, अन्भितरएआन्तरिक, रहस्सिए-रहस्यों को जानने वाले, ठाणिज्जे पुरिसे- सम्माननीय स्थान प्राप्त विश्वस्त व्यक्तियों को, सहावेइ- बुलवाता है, सहाबित्ता- और बुलवा कर, एवं वयासी- उन्हें इस प्रकार कहा, गच्छह णं तुम्भे देवाणुप्पिया- हे देवानुप्रिय ! आप लोग जाओ और, सूणाओकिसी कसाई के घर या दुकान से, अल्लं- आद्र अर्थात् ताजा, मंसं रुहिरं-मांस और रुधिर, वत्थिपुडगंच-इस रुधिर और मांस से भरी थैली (कुछ विद्वानों की दृष्टि में कलेजा लेकर आओ, तएणं-तव, ते ठाणिज्जा पुरिसा-वे स्थानीय विशेष विश्वास-पात्र सेवक, अभएणं कुमारेणंअभय कुमार के द्वारा, एवं बुत्ता समाणा- इस प्रकार कहे जाने पर, करतल जाव-यावत् हाथ जोड़कर, हट्ट-तुट-प्रसन्न एवं संतुष्ट होकर, परिसणेत्ता-अभय कुमार की बातों को सुनते ही, अभयस्स कुमारस्स अन्तियाओ-अभय कुमार के महल से, पडिनिक्खमंति-बाहर निकले, पडिनिक्खमित्ता-बाहर निकल कर, जेणेव सूणा- जहां कसाई का घर था, तेणेव उवागच्छंतिवहीं पर आ पहुंचे, उवागच्छित्ता-तथा वहां आकर उन्होंने, अल्लं मांसं रहिरं वस्थिपुडगंचताजे अतएव गीले-गीले मांस, रुधिर और शोणित से भरी थैली ले ली, गिण्हित्ता-और उसे लेकर, जेणेव अभये कुमारे-जहां पर अभय कुमार बैठे थे, तेणेव उवागच्छन्ति-वहां पर वापिस लौट भाये, उवागच्छित्ता- और लौट कर, करयल-हाथ जोड़ कर, तं अल्लं मंसं रुहिरं वस्थिपुडगं च-उस ताजे मांस रुधिर से भरी थैली, उवणेति-उसे दे देते हैं। मूलार्थ -तत्पश्चात् अभय कुमार ने राजा श्रेणिक से इस प्रकार कहा-आप भग्न-मनोरथ होकर इस प्रकार चिन्तातुर न हों, मैं ऐसा कोई यत्न करूंगा जिससे मेरी । छोटी माता चेलना देवी के उस दोहद की पूर्ति हो सके । इस प्रकार कहकर राजा को प्रिय लगने वाले वचनों द्वारा उसने आश्वस्त कर दिया। Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरयावलिका ] ( ६३ ) राजा श्रेणिक को आश्वस्त करने ने पश्चात्, अभय कुमार अपने महल में लौट आए और लौटते ही आन्तरिक गुप्त रहस्यों के जानकार अपने सेवकों को बुलवाया और उनसे इस प्रकार कहा -- देवानुप्रियों ! तुम लोग किसी कसाई के घर पर जाओ और वहां से गीले (ताजे) मांस और रुधिर से भरी थैली लेकर आओ । | वर्ग - प्रथम वे सेवक अभय कुमार की बातें सुनकर प्रसन्न और परितुष्ट होकर अभय कुमार के पास से बाहर निकले और निकल कर किसी कसाई के घर पर पहुंचे और वहां से मांस एवं रुधिर से भरी थैली लेकर जहां अभय कुमार थे वहां पहुंचे और मांस एवं रुधिर भरी थैली हाथ जोड़कर उनको सौंप दी । टीका - उक्त वर्णन का यह आशय कदापि नहीं है कि उस समय राजा लोग मांसाहार करते थे । शास्त्रकार तो यह दिखलाना चाहते हैं कि "बुरे जीव के गर्भ में प्राने पर " सात्त्विक प्रकृति की महिलाओं के विचार भी दूषित हो जाते हैं, अतः चेलना देवी को इस प्रकार का दुष्ट एवं घृणित दोहद उत्पन्न हुआ । - यहां यह तथ्य भी स्मरणीय है कि स्त्रियों के दोहद की पूर्ति उस समय के समाज में एक उचित एवं महत्वपूर्ण प्रथा मानी जाती थी, अतः अभय कुमार और राजा श्रेणिक को कलेजे का मांस देने का नाटक करना पड़ा । दोहद-पूर्ति कोई धार्मिक कृत्य नहीं, केवल सामाजिक रूढ़ि मात्र है । इसीलिये महारानी चेलणा आगे चलकर श्रात्म-ग्लानि से प्रायश्चित्त कर इस कार्य का प्राय.श्चित करती है, गर्भ नष्ट करने के उपाय करती है और उस बालक को अनिष्टकारी समझ कर दासी द्वारा उसे कूड़े के ढेर पर फिंकवा देती है । महारानी चलना के दोहद में "पति के कलेजे का मांस खाने की इच्छा" बतलाई गई है, सामान्य से सामान्य नारी भी ऐसी कल्पना नहीं कर सकती । गर्भस्थ जीव की दुष्टता का केवल प्रभाव दिखाने के लिये ऐसा चित्रण किया गया है । मूल तणं से अभए कुमारे तं अल्लं मंसं रुहिरं कप्पणीकप्पियं करेइ, करिता जेणेव सेणिए राया तेणेव उवागच्छ्इ, उवागच्छित्ता, सेणियं रायं रहसिंगयं सयणिज्जंसि उत्ताणयं निवज्जावेद, निवज्जावित्ता सेणियस्स उदरवलीस तं अल्लं मंसं दहिरं विरवेद, विरवित्ता, वरिथ Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ग-प्रथम] (६४) [निरयावलिका पुडएणं वेढेइ, वढित्ता सवंतीकरणेणं करेइ, करित्ता चेल्लणं देवि उप्पिपासाए अवलोयणवरगयं ठवावेइ, ठवावित्ता चेल्लणाए देवीए अहे सपक्खं सपडिविसि सेणियं रायं सयणिज्जंसि उत्ताणगं निवज्जावेइ, सेणियस्स रन्नो उयरवलिमसाई कप्पणीकप्पियाई करेइ, करित्ता से ये भायणसि पक्खिवइ। .. तएणं से सेणिए राया अलियमुच्छ्यिं करेइ, करिता मुहत्तंतरेणं अन्नमन्मेणं सद्धि संलबमाणे चिट्ठइ । तएणं से अभयकुमारे सेणियस्स रन्नो उयरवलिमसाइं गिण्हेइ, गिपिहत्ता जेणेव चेल्लणा देवी तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता चेल्लणाए देवीए उवणेइ। ___तएणं सा चेल्लणा देवी सेणियस्स रन्नो तेहि उदरवलि - मंसेहि सोल्लेहिं जाव दोहलं विणेइ। ___तएणं सा चेल्लणा देवी संपुण्णदोहला एवं संमाणियदोहला विच्छिन्नदोहला तं गन्भं सुहं सुहेणं परिवहइ ॥३८॥ ____छाया-ततः खलु सः अभयः कुमारस्तमान मासं रुधिरं कल्पनी-कल्पितं करोति, कृत्वा यत्रव श्रोणिको राजा तत्रैवोपागच्छति, उपागत्य श्रेणिक राजानं रहसिगतं शयनीये उत्तानजं निषादयति, निषाद्य श्रेणिकस्योदरवलिषु तवाद्र मासं रुधिरं विरावयति, विराव्य, वस्तिपुटकेन वेष्टयति, वेष्टयित्वा स्त्रवन्तीकरणेन करोति. कृत्वा चेल्लना देवीमुपरिप्रासादे अवलोकनवरगतां स्थापति, स्थापयित्वा चेल्लनाया देव्या अधः सपक्षं सप्रतिदिक श्रेणिक राजानं शयनीये उत्तानकं निषादयति , घोणिकस्य राज्ञ उदरवलिमांसानि कल्पनीकल्पिनानि करोति, कृत्वा तच्च भाजने प्रक्षिपति । । ततः खलु सा श्रेणिको राजा अलीकमों करोति, कृत्वा मुहूर्तान्तरेण अन्योऽन्येन सावं संलपन् तिष्ठति। - ततः खलु सा अभयकुमारः श्रोणिकस्य राज्ञः उदरवलिमांसानि गृह्णाति, यत्रव चेल्लना देवी. तत्रवोपागच्छति, उपागम चेल्लनाया देव्या उपमयति । - ततः पल सा चेल्लना देवी कणिकस्य राजस्तैरुवरवलिमांसः शूलविद् घोहदं विनयति। Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरयावलिका] [वर्ग-प्रथम सतः खलु सा चेल्लना देवी सम्पूर्णदोहदा एवं संमानितदोहदा विच्छिन्नदोहदा तं गर्भ-सुखंसुखेन परिवहति ॥ ३८॥ पदार्थान्वयः-तएणं-तत्पश्चात्, से-वह, अभय कुमारे- अभय कुमार, तं--उस, अल्लं मंस-आर्द्र मांस, रुहिरं-रुधिर युक्त को, कप्पणीकप्पियं करेइ-छुरी से काटता है अर्थात् मांस के खण्ड-खण्ड कर देता है, करेइत्ता-टुकड़े-टुकड़े करके, जेणेव सेणिए राया-जहां पर राजा श्रेणिक था, तेणेव-वहां पर, उवागच्छइ-आता है, उवागच्छित्ता-पाकरके, सेणियं रायंराजा श्रेणिक को, रहसिगयं-गुप्त विचार कर, सयणिज्जसि-शय्या पर, उताणयं-सीधा, निवज्जावेइ-सुलाता है, निवज्जावित्ता-सुला कर, सेणियस्स-श्रेणिक राजा के, उदरवलीसुउदर पर, तं-उस, अल्लं मंसं रुहिरं-रुधिर युक्त आर्द्र मांस को, विरवेइ-बांधता है, विरवित्ताबांधकर, वस्थिपुडएणं-बस्ति पुटक के द्वारा, वेढेइ-पेट को ढकता है, वेढइत्ता-ढक कर, सवंतीकरणेणं-रुधिर टपकने जैसा (दृश्य), करेइ-करता है, करिता-करके, चेल्लणं देवि-चेलना देवी को, उत्पिपासाए-प्रासाद के उपर, अवलोयणवरगयं-अवलोकन करने योग्य स्थान पर अर्थात् महल के झरोखे में, ठवावेई–बिठलाता है ठवावित्ता-बैठाकर. चेल्लणं देवि-चेलना देवी के, अहेनीचे, सपखं-दाहिने बायें और, सपडिदिसि-सम्मुख दिशा पर, सेणियं रायं- श्रेणिक राजा को, सयणिज्जंसि-शय्या पर, उताणगं-सीधा, निवज्जावेइ-सुला कर अर्थात् लिटा कर, सेणियस्स रनो-श्रेणिक राजा के, उदरवलि मंसाह-कलेजे के मांस को, कप्पणीकप्पियाई करेइ-छुरी से काट-काट कर ग्रहण करता है, करित्ता-काट-काटकर, सेयं-उन सांस खण्डों को (वह अभय कुमार), भायणंसि-भाजन में, पक्खिवइ-प्रक्षेप करता है-डालता है। . तएणं-तत्पश्चात, से-वह, सेणिए राया-श्रेणिक राजा, अलियमुच्छियं करेइ, करित्ताझूठी मूर्छा करता है और करके, मुहत्तंतरेणं-मुहूर्त के अन्तर से, अन्नमन्नेणं सद्धि-अभय कुमार के साथ परस्पर, संलवमाणे-वार्तालाप करता हुआ, चिट्ठइ-ठहरता है। तएणं-तत्पश्चात्, से–वह, अभयकुमारे- अभय कुमार, सेणियस्स रन्नो-श्रेणिक राजा का, उदरवलिमसाई-उदर वली के मांस-खण्डों को, गिण्हेइ-ग्रहण करता है, गिण्हित्ता-- ग्रहण करके, जेणेव-जहां, चेल्लणा देवी-चेलना देवी थी, तेणेव-वहां, उवागच्छइ-आता है, उवागच्छिता-और आकर, चेल्लणाए देवीए उवणेइ-चेलना देवी को दे देता है। तएणं-तत्पश्चात्, सा-उस, चेल्लणा देवी-चेलना देवी ने, सेणियस्स रन्नो-श्रेणिक राजा के, तेहि उदरवलि-मंसेहि सोल्लेहि-उन कलेजे के मांस - खण्डों को सलाइयों पर भूनकर, जाव दोहलं विण इ-यावत् अपने दोहद को पूरा किया। तएणं-तत्पश्चात्, सा-वह, चेल्लणा देवी-चेलना देवी, संपुण्णदोहला-सम्पूर्ण दोहद वाली एवं इसी प्रकार, संमाणिय - दोहला-सम्मानित दोहद वाली, विच्छिन्न दोहला Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ग - प्रथम ) ( ६६ ) ****** दोहद की समाप्ति होने पर, तं गन्धं - उस गर्भ को सुहं सुहेणं परिवहद्द - सुख पूर्वक वहन करने लगी ॥ ३८ ॥ [ निश्यावलिका मूलार्थ-तत्पश्चात् वह अभय कुमार उस आर्द्र रुधिर युक्त मांस को छुरी से काट कर जहां महाराजा श्रेणिक था वहां आता है, राजा श्रेणिक को गुप्त बात समझा कर उसे शय्या पर सीधा लिटाता है, लिटाकर श्रेणिक राजा के उदर से उस रुधिर युक्त मांस को बांधकर बस्ति पुटक द्वारा लपेटता है, लपेटकर चेलना देवी को महल के झरोखे बिठाता है, बिठा कर चलना देवी को जहां से नीचे दायें-बायें और सामने दिखाई दे वहां बिठाया और श्रेणिक राजा को शय्या पर चित लिटाता है। फिर श्रेणिक राजा के उदरवलि मांस को छुरी से काट कर, ( श्वेत चांदी के ) पात्र में प्रक्षेप करता है, तब वह राजा श्रेणिक झूठी मूर्छा का दिखावा करता है और फिर कुछ समय के पश्चात् अभय कुमार से परस्पर वार्तालाप करने लगता है । तत्पश्चात् वह अभय कुमार श्रेणिक राजा के उदरवलि मांस खण्डों को ग्रहण करता है, ग्रहण करके जहां चेलना देवी थी वहां माता है आकर वह मास खण्डों से भरा पात्र चलना देवी को भेंट कर देता है । तब वह चेलना देवी राजा श्रेणिक के उदरबलि मांस खण्डों के टुकड़े करके यावत् अर्थात् उन्हें भून कर अपना दोहद पूरा करती है । तब चलना देवी सम्पूर्ण दोहद वाली सम्मानित दोहद वाली व विछिन्न दोहद वाली अर्थात् दोहद की इच्छा के नष्ट हो जाने पर उस गर्भ को सुख पूर्वक बहन करती है ।। ३८ ।। टीका - प्रस्तुत सूत्र में एक ओर तो अभय कुमार जैसे मन्त्री की बुद्धिमत्ता का परिचय दिया गया है और बताया गया है कि दूरदर्शी मन्त्री ही राष्ट्र की समस्याओं को सुलझाने में सहायक हो सकता है । दूसरा नारी हठ का चित्रण किया गया है, चेलना सब कुछ आंखों से देखकर भी अपने हठ पर अडिग रही है । वह मां थी, अतः अभय कुमार को मांस-स्पर्श एवं मांस काटने जैसे अकृत्य भी करने के लिये वाध्य होना पड़ा । Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरयावलिका] (६७) [वर्ग-प्रथम तीसरे यह प्रदर्शित किया गया है कि दुष्ट जीव के गर्भ में आने पर माता-पिता को अनेक तरह की परेशानियों का सामना करना पड़ता है। कुछ ही दिन बाद गर्भस्थ शिश की नीच वृत्तियों को समझ कर उस गर्भ को नष्ट करने के पापभार को उठाने के लिये भी वह प्रस्तुत हो जाती है। यह सब कर्मों का खेल है, कर्म-विधान ही यह सब खेल रच रहा है ॥३८॥ मूल-तए णं तीसे चेल्लणाए देवीए अन्नया कयाइ पुव्वरतावरत्तकालसमयंसि अयमेयारूवे जाव समुपज्जित्था, जइ ताव इमेणं दारएणं गब्भगएणं चेव पिउणो उदरवलिमंसाणि खाइयाणि तं सेयं खलु मम एयं गन्भं साडित्तए वा गालित्तए वा विद्धसित्तए वा, एवं संपेहेइ, संपेहित्ता तं गम्भं बहूहिं गब्भपाडोह य यब्भ गालणेहि य गब्भविद्धंस हिं य इच्छइ साडित्तए वा पाडित्तए वा विद्धंसित्तए वा, नो चेव णं से गम्भे सडइ वा पडइ वा गलइ व विद्धं सइ वा ॥३६॥ ___छाया-ततः खलु तस्याश्चेल्लनाया देव्या अन्यदा कदाचित् पूर्वरात्रापररात्र • कालसमये अयमेतद्र पो यावत् समुदपद्यत-यदि तावत् अनेन दारकेण गर्भगतेन चैव पितुरुदरवलिमांसानि खादितानि तत् श्रेयः खलुमम एनं गर्भ शातयितुं वा पातयितुं वा गालयितुं वा विध्वंसयितुं वा, एवं संप्रेक्षते, संप्रेक्ष्य तं गर्भ बहुभिर्गर्भशातनैश्च गर्भपातनैश्च गर्भगालनैश्च गर्भविध्वंसनैश्च इच्छति शातयितुं वा पातयितुं वा गालयितुं वा विध्वंसयितुं वा, नो चैव खलु स गर्भः शीर्यते वा पतति वा बागलंति वा विध्वंसते वा ॥३६॥ पदार्थान्वयः-तए णं-तत्पश्चात्, तीसे चेल्लणाए देवीए-उस चेल्लणा देवी का, अन्नया कयाई-कभी फिर, पुठवरत्तावरत्तकालसमयंसि-मध्य रात्रि के समय, अयमेयारूवे- इस प्रकार के विचार, जाव-यावत्, समुप्पज्जित्था-उत्पन्न हुआ, जह-यदि, ताव इमेणं दारएणं-- इस बालक ने, गभगएणं चेव-गर्भ में रहते हुए ही, पिउणो-पिता के, उयरवलिमसाणि-उदरवलि अर्थात् कलेजे का मांस खाया है, तं सेयं खलु-इसलिये निश्चय से यही उचित है कि, मए मेरे द्वारा, एवं गन्भं-इस गर्भ को, साडित्तए वा-पेट से बाहर कर दिया जाए अर्थात् नष्ट कर दिया जाए, गालित्तए व-इसे गला दिया जाए, विद्धंसित्तए वा-विध्वस्त कर दिया जाए, एवं संपेहेइ-इस प्रकार विचार करती है, संपेहित्ता-ऐसा विचार करके, तं. गम्भंउस गर्भ को, बहि-बहुत से, गब्भ साडहि-गर्भ को नष्ट करने वाली औषधियों द्वारा, गम्भ-पाडह-गर्भ-पात करने वाली, गर्भ-गालणेहि-गर्भ को गला देने वाली, गम्भविद्धंसहि-- Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ग-प्रथम] (६८) [निरयावलिका गर्भ को विध्वस्त करनेवाली औषधियों द्वारा, य-और, इच्छति-इच्छा करने लगी, साडित्तए बा-गर्भ को सड़ाने के लिये, पाडित्तए वा-गर्भ-पात करने के लिये, गालित्तए वा-गर्भ को गला देने के लिये, विखंसित्तए वा-विध्वस्त कर देने के लिये, नो चेव से गम्भं-किन्तु वह सफल नहीं हो पाई उस गर्भ को, सडइ वा-सड़ा देने में, पडई वा-पतन करने में, गलइ वागला देने में, विद्धंसह वा-विध्वस्त कर देने में ॥३६॥ ___ मूलार्थ-तत्पश्चात् उस चेलना देवी को अर्ध रात्रि के समय इस प्रकार के विचार उत्पन्न हुए कि यदि जन्म लेने से पूर्व ही इस गर्भस्थ बालक ने अपने पिता के कलेजे के मांस को खाया है, इसलिये यही उचित है कि इस गर्भ को किसी भी तरह उदर से बाहर निकाल दिया जाय, गर्भ-पात किया जाय, इसे गला दिया जाय या विध्वस्त कर दिया जाय, किन्तु इस प्रकार विचार करके वह उस गर्भ को सड़ा देने वाली, गिरा देने वालो गला देनेवाली गर्भ को विध्वस्त कर देने वाली औषधियों के द्वारा सड़ाने, गिराने, गलाने और विध्वस्त करने में सफल न हो सको ॥३९॥ टीका-प्रस्तुत सूत्र में "इमेणं दारएणं गन्भगएणं चेव पिडको उदरवाल मंसाणि खाइयाणि"अर्थात् इस गर्भगत शिशु ने पिता के कलेजे का मांस खाया है"-इन शब्दों से स्पष्ट ध्वनित होता है कि महारानी चेलना देवी तो मांस खाने का निमित्त मात्र थो, मांस तो गर्भस्थ नीच जीव ने खाया है । ..."दारए कुलस्स अन्तकरे भविस्सई"-उसे निश्चय हो गया कि यह बालक कुल का घातक होगा, अतः इसे गर्भ में ही समाप्त कर देना चाहिये । महारानी चेलना देवी यह गर्भपात रूप दूसरा पाप करने को भी समुद्यत हो गई, यह भी गर्भस्थ शिशु की हिंसक वृत्ति का ही प्रभाव था। सूत्र में "शातन" शब्द का अर्थ है औषधि आदि द्वारा बाहर निकालना, इसका अर्थ छीलना भी होता है, किन्तु वह अर्थ यहां अभीष्ट नहीं है । महारानी चेलना गर्भ-पात में असफल रही, इससे सिद्ध होता है कि जीव के आयुष्य कर्म को कोई समाप्त नहीं कर सकता ॥३६॥ मूल-तए णं सा चेल्लणा देवी तं गम्भं जाहे नो संचाएइ बहूहिं गम्भसाडणेहि य जाव गन्भविद्धंसणेहि य साडित्तए वा जाव विद्धंसित्तए. वा, ताहे संता तंसा परितंता निव्वन्ना समाणा अकामिया अवसवसा Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'निरयावलिका ] अट्टवसट्टदुट्टा तं गब्भं परिवहइ । तए णं सा चेल्लणा देवी नवहं मासाणं बहुपडिपुण्णाणं जाव सोमालं सुरूवं दारयं पयाया ॥ ४० ॥ ( ६६ ) [ वर्ग- प्रथम छाया - ततः खलु सा चेल्लना देवी तं गर्भं यदा नो शक्नोति बहुभिर्गर्भशातनंश्च यावद् गर्भविध्वंसनेश्च शातयितुं वा यावद् विध्वंसयितुं वा तदा शान्ता तान्ता परितान्ता निर्विण्णा सती कामिका अपस्ववशा आर्तवशातं दुःखार्ता तं गर्भं परिवहति । ततः खलु सा चेल्लना देवी नवसु मासेसु बहुप्रतिपूर्णेषु यावत् सुकुमारं सुरूपं दारकं प्रजाता ॥ ४० ॥ - पदार्थान्वयः - एणं - तदनन्तर, सा चेल्लणा देवी - वह महारानी चेलना, तं गब्र्भ-उस (अपने) गर्भ को, जानो संचाएइ - जब वह (गिराने में समर्थ न हुई – गिरा न सकी, बहूह गब्भसाडर्णोह – गर्भ-नाशक अनेक औषधियों द्वारा, य एवं, जाव० - यावत्, गन्भ-विद्धं सहिगर्भ के शातन विध्वंसन बादि में, ताहे संता तंता परितंता - वह ग्लानि पूर्वक खेद - खिन्न होती हुई, निव्विन्ना समाणा - अतिशय दुखित हो गई, (तो) अकामिया - अनिच्छा से, अवसवसा - विवशता के कारण अट्टवसट्टदुहट्टा–आर्तध्यान के वशीभूत होकर, तं गब्र्भ-उस गर्भं को, परिवहइ - वहन करने लगी, अर्थात् धारण किए रही, तएणं तत्पश्चात्, सा चेल्लणा देवी - वह महारानी चेलणा, नवहं मासा - नौ महीनों का लम्बा समय व्यतीत होने पर, जाव- यावत्, सोमाने सुरु(उसने एक) सुकुमार एवं सुरूप - सुंदर रूप वाले, दारयं पुत्र को, पयाया— जन्म दिया ||४०|| मूलार्थ - त - तदनन्तर महारानी चेलणा देवी जब अपने उस गर्भ को अनेक विध गर्भ-नाशक औषधियों द्वारा उदर से बाहर लाने उसे नष्ट एवं ध्वस्त करने में विफल रही तो वह ग्लानिपूर्वक खेद - खिन्न होती हुई अतिशय दुखी हो गई, तब वह अनिच्छापूर्वक विवशता के कारण आर्तध्यान के वशीभूत होकर उस गर्भ को वहन करने लगी, अर्थात् विवशता से धारण किये रही। तत्पश्चात् चेलणा देवी ने नौ मासों का लम्बा समय पूर्ण होने पर एक सुकुमार एवं सुरूप - सुन्दर बालक को जन्म दिया ॥४०॥ टीका - इस सूत्र द्वारा यह ध्वनित होता है कि गर्भस्थ जीव के दुष्ट होने के कारण महारानी चलना देवी समय से पूर्व ही उस गर्भ को नष्ट कर देना चाहती थी, अतः यह स्पष्ट हो रहा है कि Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ग - प्रथम ] ( ७० ) [ निरयावलिका वह मांसाहार नहीं करती थी, केवल गर्भस्थ दुष्ट जीव के प्रभाव से वह मांसाहार में प्रवृत्त हुई । गर्भपात भी एक महापाप है, उसके गर्भ में क्रूर कर्मी जीव होने से उसने यह कुकृत्य भी किया, किन्तु गर्भस्थ जीव के आयुष्य-कर्म की प्रबलता ने उस पर किसी भी औषधि का प्रभाव नहीं पड़ने दिया, क्योंकि आयुष्य कर्म को कोई मिटा नहीं सकता । वह ऐसे दुष्ट बालक की माता नहीं बनना चाहती थी, किन्तु गर्भपात के सभी उपायों में विफल होने पर उसे दुःखी होकर अनिच्छा-पूर्वक उस गर्भ को धारण किए रहना पड़ा और उसने यथासमय एक बालक को जन्म दिया ||४० ॥ मूल- तएणं ती से चेल्लणाए देवीए इमे एयारूवे जाव समुप्यज्जित्थाजइ ताव इमेणं दारएणं गब्भगएणं चेव पिउणो उदरवलिमंसाई खाइयाई, तं न नज्जइ णं एस दारए संवड्ढमाणे अम्हं कुलस्स अंतकरे भविस्सs, तं सेयं खलु अम्हं एवं दारगं उक्कुरुडियाए उज्झावित्त एवं संपेहेइ, संपेहित्ता दासचेंड सद्दावेइ, सद्दावित्ता एवं वयासी- गच्छ णं तुमं देवाणुपिए ! एवं दारगं एगंते उक्कुरुडियाए उज्झाहि । । ४१॥ छाया - ततः खलु तस्याश्चेल्लनाया देव्या अयमेतद्र पो यावत् समुद्धत - यदि तावत् अनेन दारकेण गर्भगतेन चैव पितुरुदरवलिमांसानि खादितानि तन्न ज्ञायते खलु एष दारकः संवर्द्धमानः अस्माकं कुलस्यान्तकरो भविष्यति, तच्छ्रयः खलु अस्माकम् एनं वारकमेकान्ते उत्कुरुटिकायामुज्झितुम्, एवं संप्रेक्षते, संप्रेक्ष्य दास चेटीं शब्दयित्वा एवमवादीत् - गच्छ खलु त्वं देवानुप्रिये ! एनं दारंकमेकान्ते उत्कुरुटिकायामुज्झ ॥४१॥ पदार्थान्वयः - तए गं तीसे चेलण्णाए देवीए - तत्पश्चात् उस चेलना देवी के, इमे एयारुवेइस प्रकार का विचार, जाव० - यावत् समुप्पज्जित्था - उत्पन्न हुआ, जइ ताव० – क्योंकि, इमेणं वारएणं - इस बालक ने, गन्भं गएणं चेब--- गर्भ में रहते हुए निश्चय ही, पिडणो-पिता के, उदरवलि मंसाई - उदरवली अर्थात् कलेजे के मांस को, खाइयाइं - खाया है, तं न नज्जइ णंक्या इससे यह आभास नहीं हो रहा कि, एसदारए संवड्ढमाणे- यह बालक बड़ा होने पर, अम्ह कुलस - हमारे कुल का, अंतकरे भविस्सइ - प्रन्त करने वाला होगा, तं सेयं खलु - अतः इसी में (हमारा श्रेय है, अम्हं एवं दारगं - कि हम इस बालक को एगन्ते - किसी एकान्त स्थान में, उक्कुरुडिए - कूड़े-करकट के ढेर पर, उज्झावित्तए - फेंक विचार करने लगी, संपेहित्ता - (मोर) विचार करके, दें, एवं संपेहेइ - ( वह ) इस प्रकार दासचेंड— अपनो चाकर दासी को, Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरयावलिका] (७१) [वर्ग-प्रथम सद्दावेइ-बुलाती है, सद्दावित्ता एवं वयासी- और बुलाकर उसे कहती है, गच्छणं तुम देवाणुप्पिएहे देवानुप्रिये तुम जाओ और, एवं दारगं-इस बालक को, एगते-एकान्त स्थान में (ले जाकर), उक्कुरुडियाए-कूड़े-कचरे के ढेर पर, उज्झाहि-फैक दो ॥४१।। मूलार्थ-तत्पश्चात् उस चेलना देवी के (मन में) इस प्रकार का विचार उत्पन्न हुआ, क्योंकि गर्भ में रहते हुए ही इस बालक ने निश्चय ही अपने पिता के कलेजे के मांस को खाया है, क्या इससे यह आभास नहीं हो रहा कि यह बालक बड़ा होने पर हमारे कुल का अन्त करने वाला अर्थात् कुलघाती होगा, अत: हमारा इसी में श्रेय है कि हम इस बालक को किसी एकान्त स्थान में कूड़े - करकट के ढेर पर फेंक दें। वह इस प्रकार का विचार करने लगी और (खूब) विचार कर वह अपनी चाकर दासी को बुलाती है और बुलाकर उसे कहती है-“हे देवानुप्रिये ! तुम जाओ और इस बालक को किसी एकान्त स्थान में (लेजाकर), किसी कूड़े-कचरे के ढेर पर फैंक दो॥४१॥ टोका-इस सूत्र में "पूत के पैर पालने से ही पहचान लिये जाते हैं," इस उक्ति के आशय को स्पष्ट करते हुए सूत्रकार ने यह बतलाया है कि चेलना देवो को गर्भगत बालक के दुष्ट स्वभाव का पूर्ण रूप से पूर्वाभास हो गया था। मांसासार की प्रवृत्ति ही बुरी होती है, इस बालक ने तो पिता के कलेजे का मांस खाने की इच्छा की जिसके परिणाम स्वरूप मुझे इस प्रकार का निकृष्ट दोहद उत्पन्न हुआ, अतः यह बालक निश्चय ही कुलघाती होगा, अतः इसे अभी से कूड़े - करकट के ढेर पर फिकवा दूं इसी में हमारे कुल का श्रेय है। क्योंकि राजा के कलेजे का मांस न होते हुए भी उसने पति के कलेजे का मांस समझ कर ही खाया था अत: उसमें बालघात की महापापमयी प्रवृत्ति उदित हो गई, अत: मांस-भक्षण साधारण पाप ही नहीं वह तो अनेक प्रकार की पापमयी प्रवृत्तियों को भी जन्म देता है। कड़े-करकट के ढेर के लिये “उक्कुरुडिया" शब्द तत्कालीन लोकभाषा का (देशी प्राकृत) का शब्द है ॥४१॥ मूल-तए णं सा दासचेडी चेल्लणाए देवीए एवं वुत्ता समाणी करयल० जाव कटु चेल्लणाए देवीए एमठें विणएणं पडिसुणेइ, पडिसुणित्ता तं दारगं करतलपुडेणं गिण्हइ गिण्हित्ता, जेणेव असोगवणिया Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ग - प्रथम ] ( ७२ ) [ निरयाबलिका तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता तं दारगं एगंते उक्कुरुडियाए उज्झाइ । तणं तेणं दारएणं एगंते उक्कुरुडियाए उज्झितेणं समाणेणं सा असोगवणिया उज्जोरिया यावि होत्या ॥ ४२ ॥ छाया - ततः खलु सा दासवेटी चेल्लनया देव्या एवमुक्ता सती करतल० यावत् कृत्वा चेल्लनाया देव्या एनमर्थं विनयेन प्रतिशृणोति, प्रतिश्रुत्य तं दारकं करतलपुटेन गृह्णाति गृहीत्वा areafter तत्रैवोपागच्छति, उपागत्य तं दारकमेकान्ते उक्कुरुटिकायामुज्झति । ततः खलु तेन दारकेण एकान्ते उत्कुरुटिकायामुज्झितेन सता साऽशोकवनिका उद्योतिता चाप्यभवत् ।४२|| पदार्थान्वयः -- तएर्ण – तत्पश्चात् सा दासचेडी - वह चाकर दासी, चेलणाए देवीए - महारानी चेलना के द्वारा, एवं बुसा समाणी - ऐसा प्रादेश देने पर करयल जाव० कट्टु - दोनों हाथ जोड़ कर, चेल्लणाए देवीए - महारानी चेलना के, एयमट्ठे- इस अर्थ अभिप्राय या आदेश को, विणणं- विनय-पूर्वक, पडिसुणेइ- सुनती है, पडिणित्ता ओर सुनकर, तं दारगं - उस नवजात शिशु को, करतलवुडेणं-दोनों हाथों के संपुट में ग्रहण करती है और, गिव्हित्ता - ग्रहण करके, जेणेव असोगवणिया - जहां पर अशोक वाटिका थी, तेणेव - वहां पर, उवागच्छइ - आ जाती है (और), उवागच्छित्ता- वहां आकर, तं दारंगं-उस शिशु को, एगन्ते- सर्वथा एकान्त अर्थात् जन-शून्य स्थान देखकर, उक्कुरुडियाए- कूड़े-करकट के ढेर पर, उज्झाई–फेंक देती है। तएणं - तदनन्तर, तेणं बारएणं - उस शिशु को, एगन्ते उक्कुरुडियाए - निर्जन स्थान में कूड़े-कचरे के ढेर पर फेंके जाने पर, सा असोगवणिया - वह अशोक वाटिका, उज्जोवियां - प्रकाशमयी, यावि- होत्या - हो गई ||४२॥ मूलार्थ-तत्पश्चात् वह चाकर दासी महारानी चेलना देवी के द्वारा दिये गए आदेश को दोनों हाथ जोड़कर उसके अभिप्राय एवं आदेश को सुनती है और सुनकर दोनों हाथों के सम्पुट में उस शिशु को ग्रहण करती है फिर उस शिशु को ग्रहण करके (राजा की) अशोक वाटिका थो वहां आती है । वहां आकर उस नवजात शिशु को एकान्त अर्थात् सर्वथा जनशून्य स्थान देखकर कूड़े-करकट के ढेर पर फेंक देती है । उस बालक को एकान्त में कूड़े-करकट के ढेर पर फेंकते ही वह अशोक वाटिका प्रकाशमयी हो गई - अर्थात् वहां प्रकाश ही प्रकाश छा गया ॥ ४२ ॥ Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरयावलिका] (७३) [वर्ग - प्रथम • टीका- उपर्युक्त वर्णन से यह ध्वनित होता है कि महारानी चेलना द्वारा गर्भ-पात के सभी प्रयास केवल अपने कुल की रक्षा के लिये ही किये गए, क्योंकि अपने कुल की रक्षा प्रत्येक नारी का सांस्कृतिक कर्तव्य है। चेलना मांसाहार नहीं करती थी, अतः उसके हृदय में दया थी, मांसाहारी प्रायः निर्दयी होते हैं। यदि वह निर्दयी होती तो बालक को फैंकने का आदेश न देकर स्वयं ही उसे मार सकती धी, अथवा चुपके-चुपके मरवा सकती थी, सम्भवतः मातृवात्सल्य के कारण उसने सोचा होगा कि हो सकता है कि फैंके हुए बालक को कोई निस्सन्तान दम्पति ले जायें और उसका पालन-पोषण करने लगे। "दासचेडी" उस दासी को कहा जाता था जो रानियों की अत्यन्त विश्वस्त और उसके निजी कार्यों को करनेवाली होती थी। अन्यथा "दासी" शब्द से ही काम चल सकता था। बालक आखिर राजकुमार था और भावी राजा था, अतः उसे कड़े-कचरे के ढेर पर फेंके जाने पर भी वहां प्रकाश फैल गया, क्योंकि ऐसा प्रकाश भी एक राज-लक्षण है ॥४२॥ मूल-तएणं से सेणिए राया इमोसे कहाए लखळे समाणे जेणेव असोगवणिया तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता तं दारगं एगते उक्कुरुडियाए उज्झियं पासेइ, पासित्ता आसुरुत्ते जाव मिसिमिसेमाणे त दारगं करतलपुडेणं गिण्हइ, गिण्हित्ता जेणेव चेल्लणा देवी तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता चेल्लणं देवि उच्चावयाहिं आओसणाहिं आओसइ, आओसित्ता उच्चावयाहिं निम्भच्छणाहिं निभच्छेइ, निभच्छित्ता एवं उद्धंसजाहिं उद्धंसेइ, उद्धंसित्ता एवं वयासी-किस्स णं तुम मम पुत्तं एगते उक्कुरुडियाए उज्झावेसि ? त्तिकटु चेल्लणं दैवि उच्चावयसवहसावियं करेइ, करित्ता एवं वयासी-तुम णं देवाणुप्पिए ! एयं दारगं अणुपुत्वेणं सारक्खमाणो संगोवेमाणी संवड्ढेहि। तएणं सा चेल्लणा देवी सेणिएणं रन्ना एवं वुत्ता समाणी लज्जिया विलिया विड्डा करयलपरिग्गहियं० सेणियस्स रन्नो विणएपो एयमलैं पडिसुणेइ, पडिसुणित्ता तं दारयं अणुपुटवेणं सारक्खमाणी संगोवेमाणी संवड्ढइ ॥४३॥ Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ग-प्रथम] (७४) [निरयावलिका छाया ततः खलु सः श्रेणिको राजा अस्या कथाया लब्धार्थः सन् यत्रवाशोकवनिका तत्रैवोपागच्छति, उपागत्य तं दारकमेकान्ते उत्कुरुटिकायामुज्झितं पश्यति, दृष्ट्वा आशुरक्तः यावत् मिसिमिसीकुर्वन् तं दारकं करतलपुटेन गृह्णाति, गृहीत्वा यत्रव चेल्लना देवी तत्रैवोपागच्छति, चेल्लनां देवीमुच्चावचाभिराकोशनाभिराकोशति, आकश्य उच्चावचाभिनिर्भर्त्सनाभिनिर्भसंयति, निर्भत्स्य, एवमुद्धर्षणाभिरुद्वर्षयति, उद्धर्म्य एवमवादीत्-किमर्थं खलु त्वं मम पुत्रमेकान्ते उत्कुरुटिकायामुज्झयसि ? इति कृत्वा चेल्लनां देवीमच्चावचशपथशापितां करोति, कृत्वा एवमवादीत्-वं खलु देवानुप्रिये ! एनं दारकमनुपूर्वेण संरक्षन्ती संगोपयन्ती संवर्द्धय । ततः खल सा चेल्लना देवी श्रेणिकेन राजा एवमुक्ता सती लज्जिता वीडिता विड्डा करतलपरिगृहीतं श्रोणिकस्य राज्ञो विनयेन एतमर्थ प्रतिशृणोति, प्रतिष त्य तं दारकमनुपूर्वेण संगोपयन्ती संवर्धयति ।। ४३ ॥ पदार्थान्वथः-तएणं से सेणिए राया-तत्पश्चात् राजा श्रेणिक ने (जब), इमोसे कहाए लट्ठ समाणे-इस कथा (समाचार) को सुना और जाना तो वह, खेणेव असोगवणिया-जहां पर अशोक वाटिका थी, तेणेव-वहीं पर, उवागच्छइ-(स्वयं ही) माता है, उवागच्छित्ता-और वहां आकर, तं दारगं एगते उक्कुरुडियाए उझियं- उसने उस निर्जन स्थान में एक कड़े-कचरे के ढेर पर फेंके गए उस बालक को, पासेइ-देखा, पासित्ता-देखकर, आसुरुत्ते- शीघ्र ही आंखें लाल करके अर्थात् क्रोध-पूर्वक, जाव०-यावत्, मिसिमिसेमा-क्रोधाग्नि से जलते हुए, तं दार-कुरडी पर पड़े हुए उस बालक को, करतलपुडेगं-दोनों हाथों से, गिण्हइ-ग्रहण करता है-उठा लेता है, गिण्हिता-(और) आकर, जेणे व चेल्लणादेवी-जहां पर महारानी चेलना देवी पी, तेणव-वहीं पर; उवागच्छइ-आ जाता है, उवागच्छित्ता-और आकर, चेल्लण देबि-बेलना देवी को, उच्चावयाहि-ऊंचे शब्दों में, आओसणाहि-आक्रोश भरे शब्दों द्वारा, आओसा-डांटता है, माओसित्ता- और डांट कर, उच्चावयाहि-ऊंच नीच शब्दों, निभच्छणाहिऔर भर्त्सनानों द्वारा, निभच्छेई-उसकी भत्स्ना करता है, निभच्छित्ता- और भत्स्ना करके, एवं-इस प्रकार, उद्धंसनाहि - फटकार द्वारा, उद्धंसेइ-फटकारता है, उद्धंसित्ता-और फटकार कर, एवं वयासी-इस प्रकार कहा, किस्स णं तुम-किस लिये तुमने, मम पुत्तं-मेरे पुत्र को, एगन्ते--शून्य स्थान में, उक्कुरुडियाए-कूड़े-कचरे के ढेर पर, उज्झावेसि-तुमने फिकवाया हैं, तिकट्ट-ऐसा कह कर, चेल्लन देवी-चेलना देवी को, उच्चावयसवहसावियं करेइ-ऊंच नीच शब्द कह कर शपथ (सौगन्ध) दिलवाता है, करिता-और सौगन्ध दिलवा कर, एवं वयासी-उसको इस प्रकार कहा, तुमचं देवाणुप्पिये-हे देवानुप्रिये तुम्हीं, एवं दारगं-इस नवजात बालक की, अणुपुव्वेणं-यथाक्रम अर्थात् इसको अवस्था के अनुसार क्रम से, सारखेमाणीरक्षा करते हुए, संगोवेमाणी-पालन-पोषण करते हुए, संवड्ढेहि-इसका संवर्धन करो, अर्थात् इसे बड़ा करो। Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरयावलिका ] (७५) [ वर्ग - प्रथम ICICIereiere तए णं सा चेल्लणा देवी - तब वह रानी चेलना देवी, सेणिएणं रन्ना - राजा श्रेणिक द्वारा, एवं वृत्ता समाणी - इस प्रकार कहे जाने पर, लज्जिया - ( मन ही मन बहुत ) लज्जित हुई, विलिया - (बाहरी रूप से भी) लज्जित हुई और विड्डा - ( इस प्रकार दोनों रूपों में विशेष ) लज्जित होती हुई, करयल परिग्गहियं - दोनों हाथ जोड़ कर सेणियस्स रन्नो- राजा श्रेणिक के, विणयेणं - विनीत भाव से, एयमट्ठे पडिसुणे ईई - उस आदेश को सुनती है, पडिसुणत्ता - और सुन कर, तं दारयं - उस बालक का, आणुपुव्वेणं - क्रमशः उसकी अवस्था के अनुरूप, सारक्खमाणीसंरक्षण एवं संगोवेमाणी - उसका पालन-पोषण करती हुई, संवड्ढइ - उसका संवर्धन करने लगी ||४३|| मूलार्थ - तत्पश्चात् राजा श्रेणिक ने जब उस बालक सम्बन्धी वार्ता को सुना और जाना तो वह जहां पर अशोक वाटिका थी वहीं पर गया और वहां जाकर उसने उस निर्जन स्थान में कूड़े-करकट के ढेर पर फेंके गए बालक को देखा और देखते ही आंखें लाल करके अर्थात् क्रोध में आकर उस क्रोधाग्नि से जलते हुए, कुरड़ी पर पड़े उस बालक को दोनों हाथों से उठा लिया और उठाकर वह जिस राजमहल में चेलना देवी निवास करती थी वहीं आ गया और आते हो उसने चेलना देवी को ऊंच-नीच शब्दों द्वारा क्रोधान्वित शब्दों से डांटा, फटकारा और उसकी भत्सर्ना की, उसको तिरस्कृत सा किया और फिर उससे कहा - "देवानुप्रिये ! तुमने मेरे पुत्र को किस लिये कुरड़ी पर फिकवाया, " ऐसा कह कर पुनः ऊंच-नीच शब्दों द्वारा उसे सौगन्धे दिलवाते हुए कहा - "देवानुप्रिये ! तुम्हीं इस बालक का आयु के अनुरूप प्रत्येक अवस्था में इसकी रक्षा करते हुए और इसका पालन-पोषण करते हुए इसका संवर्धन करो ।" राजा श्रेणिक के द्वारा ऐसे ऊंचे-नीचे शब्द कहे जाने पर वह मन ही मन बहुत ज्जित हुई और बाहर से भी वह लज्जित होती हुई प्रतीत हो रही थी (शायद नौकर करों की उपस्थिति के कारण ) इस प्रकार दोनों रूपों में लज्जित होतो हुई वह हाथ जोड़कर विनयपूर्वक राजा श्रेणिक के आदेश को सुनने लगी और सुनकर उस बालक का उसकी अवस्था के अनुरूप संरक्षण करती हुई उसका पालन-पोषण करके उसका संवर्धन करने लगी ॥४३॥ टीका - इस सूत्र के वर्णन द्वारा ध्वनित होता है कि राजा श्रेणिक अपने अनुचरों द्वारा सब तरह की सूचनायें तुरन्त प्राप्त करता रहता था । Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्य-प्रथम . ............... (७६) ....... __ [निरयावलिका । “अपना खून छिपता नहीं" इस उक्ति के अनुरूप कुरड़ी पर पड़े बालक को देखते ही उसे विश्व स हो गया कि यह उसी का पुत्र है और उसे यह समझते देर न लगी कि यह कृत्य चेलना ने ही किया है, अतः वह बालक को लेकर सीधा चेलना देवी के महल में ही पहुंचा। क्रोधावेश में मनुष्य ऊंच-नीच जो भी मुंह में आता है वही कह देता है। यद्यपि महारानी चेलना उसकी प्रिय रानी थी, उसके दोहद की पूर्ति के लिये उसने क्या कुछ नहीं किया था, किन्तु बालक के त्याग रूप अपराध पर उसे क्रोध आ ही गया और उसने उसे काफी फटकारा। मां होकर भी उसने सन्तान को कूड़े के ढेर पर फिकवा दिया, इसलिये वह अत्यन्त ही लज्जित हुई और राजा ने शायद नौकर-चाकरों की उपस्थिति में उसे फटकारा होगा, इसलिये वह बाहरी रूप से भी लज्जित हुई। ___ नौकर-चाकर जब यह जानेंगे कि जिस बालक को इसने फिकवाया था अब राजा के आदेश से उसी का पालन-पोषण कर रही है उस समय उसे और भी लज्जा का अनुभव होता रहा होगा जिसे शास्त्रकार ने "विड्डा" शब्द द्वारा ध्वनित किया है। __ "विड्डा" शब्द का संस्कृत रूपान्तर "व्यालीका"-भी हो सकता है जिसका अर्थ हो सकता है कि "माता के कर्तव्य के विपरीत आचरण करने के कारण वह लज्जित हो रही थी।" राजा की "मुंहलगी" पत्नी होने पर भी उसने राजा के द्वारा दी गई डांट-फटकार को चुपचाप सहन कर लिया, इसके द्वारा उसने “पत्नी के कर्तव्य" पर अच्छा प्रकाश डाला है और उसने शीघ्रता में पुत्र को फिकवाने का जो निर्णय लिया था उसके कारण लज्जित होते हुए भी उसने पति द्वारा सौगन्ध देने पर बालक का यथोचित पालन-पोषण किया। इससे यह शिक्षा मिलती है कि झूठो सौगन्ध कभी नहीं खानी चाहिये ।।४३।। .... मूल-तए में तस्स दारगस्स एगते उक्कुरुडियाए उज्झिज्जमाणस्स अग्गं गुलियाए कुक्कुडपिच्छएणं दूमिया यावि होत्था, अभिक्खणं अभिक्खणं पूयं च सोणियं च अभिनित्सवइ। . तए णं से दारए वेयणाभिभूए समाणे महया महया सद्देणं आरसइ। तए णं सेणिए राया तस्स दारगस्स आरसितसई सोच्चा निसम्म जेणेव से दारए तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता तं दारगं करतलपुडेणं गिव्हइ, गिण्हित्ता तं अग्गं गुलियं आसयंसि पक्खिवइ, पक्खिवित्ता पूयं च सोणियं च आसएणं आमुसइ । Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरयावलिका ] (७७) (वर्ग-प्रथम तए णं से दारए निव्वए निव्वेयणे तुसिणीए संचिठ्ठइ । जाहे वि य णं से दारए वेयणाए अभिभूए समाणे महया महया सद्देणं आरसइ ताहे वि य णं सेणिए राया जेणेव से दोरए तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता तं दारगं करतलपुडेणं गिण्हइ, तं चेव जाव निव्वेयणे तुसिणीए संचिट्ठइ ॥४४॥ छाया-ततः खलु तस्य दारकस्य एकान्ते उत्कुरुटिकायामुज्झ्यमानस्याऽप्राङ्गुलिका कुक्कुटपिच्छकेन दूना चाऽप्यभूत्, अभीक्ष्णमभीक्ष्णं पूयं च शोणितं चाभिनिस्त्रवति । ततः खलु स दारको वेदनाभिभूतः सन् महता महता शब्देन आरसति । ततः खलु श्रेणिको राजा तस्य दारकस्याऽऽरसितशब्दं श्रुत्वा निशम्य ववव स दारकस्तत्रैवोपागच्छति, उपागत्य तं वारक करतलपुटेम गृह्णाति, गृहीत्वा तामनांगलिकामास्ये प्रक्षिपति, प्रक्षिप्य पूयं च शोणितं चास्येन आमशति । ततः खलु सादारको निवृत्तोनिवेदनस्तूष्णीकः संतिष्ठते । यदापि च खलु स दारको वेदनयाऽभिभूतः सन् महता-महता शब्देन आरसति तदाऽपि च खलु श्रोणिको राजा यत्रैव स दारकस्त्रवोपागच्छति, उपागत्य तं वारक करतलपुटेन गृह्णाति, तदेव यावत् निवेदनस्तूष्णीकः संतिष्ठते ॥४४॥ पदार्थान्वयः-तएणं-तदनन्तर, तस्ल दारगस्स-उस बालक की, एगते-निर्जन स्थान में, उक्कुरुडियाए-कूड़े-कचरे के ढेर पर, उज्झिज्जमाणस्स-फेंके हुए की, अम्मं गलियाए-अंगली का अग्रभाग, कक्कुट-पिच्छकेन-मुर्गे की चोंच से, दूमिया यावि होत्था-घायल कर दिया गया था, अभिक्खणं-अभिक्खणं-(और उससे) बार-बार, पूयं च सोणियं च-पीप और खून, अभिनिस्सवइटपकते रहते थे, तएणं-तब, से दारगे-वह बालक, वेयणाभिभूए समाणे-तीखी पीड़ा से पीड़ित होकर, महया-महया-ऊंची-ऊंची, सट्टेणं-आवाज से (चीखते हुए), आरसति-रोने लगता था, तएणं-तब, सेणिए राया-राजा श्रेणिक, तस्स दारगस्स-उस बालक के, आर. सितसई-आर्तनाद को, सोच्चा-सुनकर, निसम्म-कुछ सोच कर, जेणेव से दारए-जहां पर वह बालक होता, तेणेव उवागच्छइ-वहीं आ जाता, उवागच्छित्ता-और प्राकर, तं दारगं-उस बालक को, करतलपुडेणं-अपने हाथों से (हथेलियों से), गिण्हइ-उठा लेता था, गिण्हित्ता-और उठाकर, तं अग्गं गुलियं-अंगुलि के उस घाव वाले भाग को, आसयंसि-मख में, पक्खिवेइ-डाल लेता है, पक्खिवित्ता-बोर मुख में डालकर, पूयं च सोणियं च-पीप और खून को, आसएणं-मुंह से, आमुसइ-चूस लेता है (और उसे थूक देता है), तएणं-तब वह, दारए-वह बालक, निव्वए-शान्त, निव्वेयणे-पीड़ा से मुक्त होकर, तूसिणीए संचिठहचुप हो जाता था, जाहे वि य गं दारए-जब भी वह बालक, वेयणाए अभिभूए समाणे-पीड़ा Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ग-प्रथम] ' (७८) [निरयावलिका से पीड़ित होकर, महया-महया-सद्देणं-ऊंची-ऊंची आवाज से, आरसइ--रोता है, ताहे वि य गं सेणिए-तब-तब वह राजा श्रेणिक, जेणेव से दारए-जहां पर भी वह बालक होता, तेणेव उवागच्छइ-वहीं पर आ जाता, उवागच्छित्ता और वहां आकर, तं दारगं-उस बालक को, करतलपुडेणं-अपने हाथों से, गिण्हइ-उठा लेता, तं चेव जाव निव्वेयणे-और वह जब तक पीड़ा रहित होकर, तुसिणोए संचिट्ठइ-मौन न हो जाता (तब तक वह वहीं) ठहरता ॥४४॥ मूलार्थ-निर्जन स्थान में कूड़े-कचरे के ढेर पर फेंके जाने के कारण बच्चे की अंगुली का अग्रभाग किसी मुर्गे की चोंच से छिल गया था, उसकी अंगुली के घाव से बार-बार खून और पीव बहती रहती थी, इस कारण से वह बालक पीड़ा के कारण बार-बार चीख-चीख कर रोता था। उस बालक के रुदन को सुनकर और समझ कर राजा श्रेणिक बालक के पास आता और उसे अपने हाथों से उठा लेता और उठाकर उसकी घायल अंगुली को मुख में डालकर उससे बहती पोव और खून को चूस कर थूक देता। ऐसा करने पर बालक शान्त एवं पीड़ा से मुक्त होकर बैठ जाता। इस तरह वह बालक जब भी वेदना के कारण चीखता और रोता. तो राजा श्रेणिक उसके पास पहुंच जाता और उसे हाथों में उठाकर उसकी अंगुली को मुंह में डाल लेता और उससे पीव और खून को चूसता (और थूक देता), इस प्रकार वह बालक पीड़ा-मुक्त, शान्त और चुप होकर बैठ जाता ।।४४॥ टीका-प्रस्तुत सूत्र में राजा श्रेणिक के वात्सल्य का चित्रण करते हुए उसके द्वारा सन्तान की पीड़ा को दूर करने के लिये पीव और खून तक को चूसने और उसके थूक देने का वर्णन करते हुए सांसारिक जनों के मोह की अतिशयता का वर्णन किया गया है। पीव और खून को चूसने जैसे घणित कार्य के द्वारा संकेत किया गया है कि माता-पिता को मोह के नाते नहीं कर्तव्य के नाते सन्तान के प्रत्येक कष्ट को दूर करने का प्रयास करना चाहिये ॥४४॥ मूल-तए णं तस्स दारगस्स अम्मापियरो तइए दिवसे चंदसूरदसणियं करेंति, जाव संपत्ते बारसाहे विवसे सयमेयारूवं गुणनिप्पन्नं नामधिज्ज करेंति, जम्हाणं अम्हं इमस्स दारगस्स एगते उक्कुलडिवाए पज्झिज्जमाषस्स Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरयावलिका] (७६) [वर्ग-प्रथम अंगुलिया कुक्कुडपिच्छएणं दूमिया, तं होउ णं अम्हं इमस्स दारगस्स नामधेज्जं 'कूणिए'। तए णं तस्स दारगस्स अम्मापियरो नामधिज्ज करेंति 'कणिय' त्ति ॥४५॥ ___ छाया-ततः खलु तस्य दारकस्याम्बापितरौ तृतीये दिवसे चन्द्रसूर्यदर्शनं कारयतः यावत् संप्राप्ते द्वादशाहे दिवसे इममेत पं गुणनिष्पन्नं नामधेयं कुरुतः यस्मात् खलु अस्माकमस्य वारकस्य एकान्ते उत्कुरुटिकायामुज्झ्यमानस्याङ्गुलिका कुक्कुटपिच्छकेन दूमिता (कूणिता) तत् भवतु खलु अस्माकमस्य वारकस्य दामधेयं 'कूणिकः । ततः खलु तस्य दारकस्य अम्बापितरौ नामधेयं कुरुतः 'कूणिक.' इति ॥४॥ पदार्थान्वयः-तएणं-तदनन्तर, तस्स दारगस्स-उस पुत्र को, अम्मापियरो-माता-पिता ने, तइये दिवसे-तीसरे दिन, चंद-सूर-दंसणियं-चन्द्र-सूर्य के दर्शन, करेंति-करवाते हैं, जाव०यावत्, संपत्ते बारसाहे दिवसे-बारहवां दिन आने पर, अयमेयास्वं- इस प्रकार का, गुणनिष्पन्नं-गुणों के अनुरूप, . नामधिज्ज-नाम, करेंति-करते हैं, जम्हाणं-क्योंकि, अम्हं इमस्स दारगस्स-हमारे इस पुत्र की, एगते उक्कुरुडियाए-निर्जन स्थान में कुरड़ी पर, पज्झिज्जमाणस्स-फेंके जाने के बाद, अंगुलिया-अंगुलि, कुक्कुडपिच्छएणं-मुर्गे ने अपनी चोंच से, दूमिया आहत कर दी थी, तं होउणं - इसलिये होना चाहिये, अम्हं इमस्स दारगस्स-हमारे इस शिशु का, नामधेज्ज-नाम, कृणिए-कूणिक, तएणं-तदनन्तर, तस्स दारगस्स-उस शिशु का, अम्मा-पियरो-माता-पिता ने, नामधिज्ज करेंति-नामकरण किया, "कूणिय" इतिकूणिक ।।४।। मूलार्थ-तदनन्तर माता-पिता अपने उस शिशु को तीसरे दिन चन्द्र-सूर्य के दर्शन करवाते हैं और फिर बाहरवां दिन आने पर गुणों के अनुरूप उसका इस प्रकार का नाम करते हैं, क्योंकि हमारे इस बालक को एकान्त में कुरड़ी पर फेंकने के बाद इसकी अंगुली को मुर्गे ने अपनी चोंच से कूणित कर दिया था, अर्थात् आहत कर दिया था, इसलिये हमारे इस बालक का नाम "कूणिक" होना चाहिये । तदनन्तर उसके माता-पिता ने अपने शिशु का नाम “कणिक" ही रख दिया ॥४५।। टीका-प्रस्तुत सूत्र में पुत्र-जन्म पर माता-पिता तीसरे दिन बच्चे को सूर्य - चन्द्र के दर्शन करवाते थे और बारहवें दिन उसका नामकरण-संस्कार करते थे-इस सांस्कृतिक परम्परा का उल्लेख किया गया है। Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ग-प्रथम] (८०) [निरयावलिका प्रायः गृहस्थ बच्चे का नाम उसके गुणों के अनुरूप रक्खा करते थे, क्योंकि मुर्गे ने इनके बच्चे की अंगुलि कूणित अर्थात् आहत कर दी थी, अतः उसका नाम 'कूणिक" ही रखा। तत्कालीन रीति-रिवाजों के ज्ञान के लिये प्रस्तुत सूत्र महत्वपूर्ण है ।।४५॥ मूल-तएणं तस्स कूणियस्स अणुपूवेणं ठिइवडियं च जहा मेहस्य जाव उप्प पासायवरगए विहरइ, अट्ठट्ठओ दाओ ॥४६॥ छाया-ततः खलु तस्य कूणिकस्यानपूर्वेण स्थितिपतितं च यथा मेघस्य यावत् उपरि प्रासादवरगतो विहरति । अष्ट दायाः॥४६॥ पदार्थान्वयः-तएणं-तदन्तर, तस्स कूणियस्स-उस राजकुमार कूणिक के, अणपुग्वेणंक्रमशः, ठिइवडियं च-कुल क्रमागत सभी उत्सवादि, जहा मेहस्स-जैसे मेघ कुमार के हुए थे, जाव०-यावत् युवावस्था में प्राप्त होकर, उप्पि पासायवरगए-अपने राज-महलों के ऊपर, विहरइ-आमोद-प्रमोद करता है, अट्ठट्ठओदाओ-(आठ कन्याओं के साथ उसका विवाह हुमा और) उसे आठ-आठ वस्तुएं दहेज के रूप में प्राप्त हुई ।।४६॥ . मूलार्थ-तदनन्तर उस राजकुमार कुणिक के क्रमशः कुल - परम्परागत सभी महोत्सव आदि हुए, जैसे शास्त्रों में मेघ कुमार के (विवाह आदि का वर्णन प्राप्त होता है वेसे ही उसका) आठ कन्याओं के साथ विवाह हुआ और उसे आठ-आठ वस्तुयें प्रीतिदान (दहेज के रूप में प्राप्त हुईं ॥४६।। टीका-किसी बात का बार-बार वर्णन न करके किसी भी अन्य आगम में वर्णित विषय जैसा कह कर शास्त्रकार लौकिक विषय को अधिक विस्तार नहीं देते । यह संक्षेप - शैली आगमों की अपनी विशेषता है, अतः राजकुमार कुणिक के विवाह का विस्तृत वर्णन न करके "मेघ कुमार के समान" कह दिया गया है। "ठिइवडियं"-"स्थिति-पतितं" कह कर शास्त्रकार ने गृहस्थों के लिये कुल-परम्पराओं का पालन आवश्यक बतलाया है, क्योंकि "संस्कार" बालकों को सुसंस्कृत बना देते हैं । यहां दहेज के लिये "प्रीतिदान" शब्द का प्रयोग किया गया है। जिससे यह ध्वनित होता है कि कन्या के माता-पिता प्रसन्नता पूर्वक कन्या को जो चाहे दें, किन्तु आज कल की तरह कन्यापक्ष के समक्ष कोई मांग (डिमांड) नहीं रखी जानी चाहिये। Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरयावलिका] ('८१) [वर्ग-प्रथम mium-rimurraimurrrrrrrrrrrrrrrrrrr-1-1___मूल-तएणं तस्स कूणियस्स कुमारस्स अन्नया पुव्वरत्ता० जाव समुप्पज्जित्था-एवं खलु अहं सेणियस्स रन्नो वाघाएणं नो संचाएमि सयमेव रज्जसिरिं करेमाणे पालेमाणे विहरित्तए, तं सेयं मम खलु सेणियं रायं निलयबंधणं करेत्ता अप्पाणं महया-महया रायाभिसेएणं अभिसिंचावित्तए, त्तिकटु एवं संपेहित्ता सेणियस्स 'रन्नो अंतराणि य विरहाणि य पडिजागरमाणे-पडिजागरमाणे विहरइ ॥४७॥ छाया-ततः खलु तस्य कूणिकस्य कुमारस्य अन्यदा पूर्वरत्रा० यावत्समुत्पद्यत-एवं खलु अहं श्रेणिकस्य राज्ञो व्याघातेन न शक्नोमि स्वयमेव राज्यश्रियं कुर्वन् पालयन् विहंतु, तच्छे यो मम खलु श्रोणिकं राजानं निगडबन्धनं कृत्वा आत्मानं महता-महता राज्याभिषेकेणाभिषेचयितुम्, इति कृत्वा एवं संप्रेक्षते, संप्रेक्ष्य श्रेणिकस्य राज्ञोऽन्तराणि च छिद्राणि च विरहान् च प्रतिजाग्रद् विहरति । ॥४७॥ पदार्थान्वयः-तएणं- तब, तस्स कूणियस्स-उस राज कुमार कूणिक (के हृदय में), अन्नया पूज्वरता-(कुछ समय के बाद) अर्धरात्रि में), जाव-यावत्-यह विचार, समुप्पज्जिस्थाउत्पन्न हुआ कि, एवं खलु-इस प्रकार जीवन व्यतीत करते हुए, अहं-मैं, सेणियस्स रनोराजा श्रेणिक के, वाघाएग-प्रतिबन्धों के होते हुए (स्वतन्त्रता पूर्वक), नो संचाएमि-प्राप्त करने में असमर्थ ही रहूंगा, सयमेव-मैं स्वयं, रजसिरि करेमाणे-राज्य श्री का उपभोग करने में, पालेमाणे विहरित्तए-अपने परिवार का पालन-पोषण करते हुए जीवन-यापन करने में, . 'तं सेयं मम खलु-अत: मेरे लिये यही कल्याणकारी होगा कि मैं, सेणियं रायं-राजा श्रेणिक को, निलयबंधणं करेत्ता-हथकड़ियों और बेड़ियों से बांध कर (कारागार में डाल दूं), अप्पाणं-और अपने आप को, महया-म हया-महान् से भी महान्, रायाभिसेएणं-राज्याभिषेक से, अभिमिचावित्तए-अभिषिक्त कर लेना. त्ति कठट-ऐसा विचार करके, एवं संपेड-उसने मन में यह (कार्य करने का) निश्चय कर लिया, संपेहिता-और यह निश्चय करके, सेणियस्स रन्नो- राजा श्रेणिक के, अन्तराणि-आन्तरिक (अन्दरूनी), छिद्दाणि-छिद्रों अर्थात् दोषों एवं कमजोरियों को, बिरहाणि-सहायकों से रहित होने के अवसर को, पडिजागरमाणे-पडिजागरमाणे-सावधानी से देखते हुए, विहरइ-अपना समय व्यतीत करने लगा ॥४७।। मूलार्थ-तदनन्तर किसी समय अर्ध रात्रि में राजकुमार कुणिक के हृदय में यह विचार उत्पन्न हुआ कि राजा श्रेणिक के प्रतिबन्धों के कारण मैं अपनी इच्छा से राज्यवैभव का उपभोग नहीं कर पाता हूं, अत: मेरे लिये यही श्रेयस्कर होगा कि मैं राजा Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ग - प्रथम 1 ( ८२ ) [ निरयावलिका श्रेणिक को हथकड़ियों एवं बेड़ियों आदि से जकड़ कर कारागार में डाल दूं और बहुत बड़े राज्याभिषेक से ( राज्याभिषेक महोत्सव आयोजित कर ) अपना राज्याभिषेक कर लूं । उसने इस प्रकार सोच-विचार कर ऐसा करने का दृढ़ निश्चय कर लिया और वह राजा श्रेणिक के आन्तरिक छिद्रों अर्थात् कमजोरियों तथा सहायकों से रहित होने का मौका देखते हुए समय व्यतीत करने लगा ॥ ४७ ॥ टीका - प्रस्तुत सूत्र में यह प्रदर्शित किया गया है कि लोभ बहुत बुरी बला है । लोभ उत्पन्न हो जाने पर मनुष्य के हृदय में किसी बड़े छोटे का भी खयाल नहीं रह जाता, वह कर्तव्य - अकर्तव्य को भी भूल जाता है। राजकुमार कूणिक पर स्वयं राजा बनने का भूत सवार हो गया तो उसने अपने पिता को ही हथकड़ियों और बेड़ियों में बांध कर जेल में डाल देने का निश्चय कर लिया । इस उदाहरण को देखते हुए मनुष्य को अत्यधिक लालसाओं के चक्कर में नहीं फंसना चाहिये । कूणिक के पास आठ राज महल थे, उसे सुखोपभोग में कोई रोक-टोक नहीं थी, फिर भी वह पिता के विपरीत हो गया ||४७ | उत्थानिका - तदनन्तर राज कुमार कूणिक ने अपने पिता को कैद करने का षड्यन्त्र कैसे रचा - अब सूत्रकार इस विषय का वर्णन करते हैं - मूल-तएण से कूणिए कुमारे सेणियस्स रन्नो अंतरं वा जाव मम्मं वा अलभमाणे अन्नया कयाइ कालादीए दस कुमारे नियघरे सहावेs सावित्ता एवं वयासी - "एवं खलु देवाणुप्पिया ! अम्हे सेणियस्स रन्नो वाघाएणं नो संचाएमो सयमेव रज्जसिरिं करेमाणा पालेमाणा विहरित्तए, तं सेयं देवाणुप्पिया ! अम्हं सेणियं रायं नियलबंधणं करेत्ता रज्जं च रठ्ठे च बलं च वाहणं च कोसं च कोट्ठागारं च जयवणं च एक्कारसभाए विरिचित्ता सयमेव रज्जसिरिं करेमाणानं जाव विहरितए ||४८ ॥ छाया - ततः खलु स कूणिक श्र ेणिकस्य राज्ञोऽन्तरं वा यावत् ममं वा अलभमानः अन्यदा कदाचित् कालादिकान् दशकुमारान् निजगृहे शब्दयति, शन्दयित्वा एवमवादीत् - एवं खलु देवान Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरयावलिका] (८३) [वर्ग प्रथम • प्रियाः ! वयं श्रेणिकस्य राज्ञो व्याघातेन नो शक्नुमः स्वयमेव राजश्रियं कर्वन्तः पालयन्तो विहर्तुम्, तच्छ यो देवानुप्रियाः ! अस्माकं श्रेणिक राजानं निगडबन्धनं कृत्वा राज्यं च राष्ट्र च बलं च वाहनं च कोशं च कोष्ठागारं च जनपदं च एकादशभागान् विभज्य स्वयमेव राज्यश्रियं कुर्वाणानां पालयतां यावद् विहर्तुम् ॥४॥ पदार्थान्वयः-तएणं-तदन्तर, से कणिए कुमारे--उस कूणिक कुमार ने, सेणियस्स रन्नो-- राजा श्रेणिक की, अन्तरं वा-कोई भी आन्तरिक कमजोरी, जाव मम्म वा-एवं किसी भी मार्मिक बात को, अलभमाणे-न मिलने पर, अन्नया कयाइ-किसी अन्य दिन, कालादीए दस कुमारे-काल कुमार आदि दस राजकुमारों (अपने भाइयों को), नियघरे- अपने निजी स्थान पर, सद्दावेइ-बुलवाया, सद्दावित्ता एवं वयासी- और बुलाकर उनसे कहा, एवं खलु देवाणप्पियाहे देवानुप्रियो ! इस प्रकार, अम्हे-हम लोग, सेणियस्स रनो-राजा श्रेणिक को, वाघाएणंरुकावटों और वाधाओं के कारण, नो संचाएमो-हम कभी भी प्राप्त करने में समर्थ नहीं हो सकते, सयमेव राजसिरि-स्वयं राज्य-वैभव का उपभोग करते हुए, पालेमाणा-प्रजा का पालनपोषण करते हुए, विहरित्तए-जीवन-यापन करने में, त सेयं देवाणुप्पिया- इस लिये हे देवानुप्रियो ! हमारे लिये यही श्रेयस्कर होगा कि, अम्हं-हम लोग, सेणियं रायं-राजा श्रेणिक को, निलय-बंधणं करेत्ता-हथकड़ियों एवं बेड़ियों से बांधकर (जेल में डाल दें और फिर), रज्जं च रटुंच बलं च वाहणं च कोसं च कोट्ठागारं च जयवणं च-अपने राज्य अपने इस राष्ट्र, बल, वाहन, कोष, भण्डार और जनपदों को, एक्कारसभाए-ग्यारह भागों में, विरिचित्ता- बांट कर, सयमेव - हम स्वयं, रज्जसिरि-राज्य वैभव का उपभोग, करेमाणा णं-करते हुए, जाव विहरितए-अपना-अपना सुखी जीवन व्यतीत करें। मूलार्थ -तदनन्तर उस कूणिक कुमार ने राजा श्रेणिक की किसी भी आन्तरिक कमजोरी एवं उसकी किसी भी मार्मिक बात के प्राप्त न होने पर, किसी दिन उचित अवसर देखकर अपने काल कुमार आदि दसों भाइयों को अपने निजी महल में बुलवाया और उनसे बोला-हे देवानुप्रियो ! इस प्रकार हम लोग स्वयं राज्य का उपभोग करने में कभी सफल नहीं हो सकते जब तक कि राजा श्रेणिक द्वारा खड़ी की गई रुकावटें और वाधायें विद्यमान हैं। इसलिये हमारे लिये यही श्रेयस्कर होगा कि हम लोग राजा श्रेणिक को हथकड़ियों एवं बेड़ियों से जकड़ कर (कारागार में डाल दें), और हम स्वयं राज्य-वैभव का उपभोग करते हुए जीवन-यापन करें। राज्य, राष्ट्र, बल (सेना), वाहन (हाथी. घोड़े, रथ आदि), कोष, धान्य-भण्डारों और जनपदों को Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ग - प्रथम ] (58) [ निरयाबलिका ग्यारह भागों में विभक्त करके स्वयं राज्य-सुख भोगते हुए राज करें और प्रजा का पालन करते हुए सुख-पूर्वक जियें ॥ ४८ ॥ टीका - प्रस्तुत सूत्र राजा श्रेणिक के कृतघ्न एवं क्रूर पुत्रों के हृदय में उमड़ते लोभ का वर्णन किया है और उस दाम नीति पर प्रकाश डाला है जिसके अनुसार उसने अपने भाइयों को भी अपने जैसा लोभी, क्रूर एवं पितृघाती बना लिया । लोभ मनुष्य से क्या नहीं करवा देता । उत्थानिका - तदनन्तर कूणिक ने क्या किया इसका वर्णन करते हुए शास्त्रकार कहते हैंमूल- तरणं ते कालादीया दस कुमारा कूणियस्स कुमारस्स एयमट्ठे विणणं पडिसुर्णेति । तएण से कूणिए कुमारे अन्नया कयाइं सेणियस्स रन्नो अंतरं जाणाइ, जाणित्ता सेणियं रायं नियलबंधणं करेइ, करिता अप्पाणं महया-महया रायाभिसेएणं अभिसिचावेइ । तएणं से कूणिए कुमारे राया जाए महया० ॥ ४६ ॥ छाया - ततः खलु स कूणिकः कुमारः अन्यदा कदाचित् कूणिकस्य राज्ञोऽन्तरं जानाति, ज्ञात्वा श्रेणिकं राजानं निगडबन्धणं करोति, कृत्वा आत्मानं महता महता राज्याभिषेकेण भिषेचयति । ततः खलु स कूणिकः कुमारो राजा जातो महा० ॥४६॥ पदार्थान्बयः—तएणं तत्पश्चात्, ते कालादीया इस कुमारा - वे काल कुमार आदि दस राज कुमार, कूणियस्स कुमारस्स - कूणिक कुमार के एयमट्ठे- इस विचार को, विणणं परिसुति - विनयपूर्वक ध्यान से सुनते हैं, तएणं - तदनन्तर, कूणिए कुमारे -- कूणिक कुमार, अन्नया कयाइ - किसी समय (मौका पाते ही), सेणियस्स रन्नो- राजा श्रेणिक के, अन्तरं जाणा - कुछ अन्दरूनी रहस्यों को जान लेता है, जाणिता - और जान कर श्रेणिकं राजानं - राजा श्रेणिक को, निगड़ बन्धनं करोति-हथकड़ियों और बेड़ियों से बांध देता है, करिता और बांधकर, अप्पाणं - अपने आपको, महया महया - विशाल से विशाल राज्याभिषेक ( महोत्सव पूर्वक), अभिसिचावेइ - अपने आपको अभिषिक्त करा देता है, तएणं - तत्पश्चात्, से कूणिए कुमारे राया जाए - कूणिक कुमार स्वयं ही राजा बन गया, महया महवा - महान से महान् ||४६|| Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरयावलिका] (८५) [वर्ग-प्रथम मूलार्थ-तत्पश्चात् काल कुमार आदि दसों राज कुमार, कूणिक कुमार के उन विचारों को विनय-पूर्वक ध्यान से सुनते हैं। कुछ दिन बाद कूणिक कुमार को राजा श्रेणिक के कुछ आन्तरिक रहस्य मालूम हो गये, उन्हें जानकर उसने राजा श्रेणिक को हथकड़ियों और बेड़ियों से बांध दिया (और कारागार में बन्द कर दिया), ऐसा करके उसने विशाल महोत्सव के साथ स्वयं ही अपना राज्याभिषेक करवा लिया । तब वह कूणिक कुमार बहुत बड़ा राजा बन गया ॥४९।। टीका-प्रस्तुत सूत्र में यह बतलाया गया है कि कूणिक कुमार ने अपने काल कुमार आदि दस भाइयों को राज्य का एवं स्वतन्त्र होकर राज्य-वैभव के उपभोग का लोभ देकर अपनी तरफ मिला लिया, जिससे वे भविष्य में उसका विरोध न कर सकें। यह भी ध्वनित हो रहा है कि संसार के सभी सम्बन्ध तभी तक हैं जब तक मनुष्य स्वार्थी बन कर लोभाविष्ट नहीं हो जाता, लोभावेश में आते ही वह सभी सम्बन्धों को भूल कर बड़ से बड़ा अनर्थकारी कार्य करने के लिये भी प्रस्तुत हो जाता है। कुणिक ने राज्यलोभ में आकर अपने हितकारी एवं पूज्य पिता को भी कैद ही नहीं किया, अपितु उन्हें लोह-बन्धनों से बांध भी दिया ।४६। मूल-तए णं से कणिए राया अन्नया कयाइं ण्हाए जाव सव्वालंकार-विभूसिए चेल्लणाए देवीए पायवंदए हव्वमागच्छइ । तएणं से कूणिए राया चेल्लणं देवि ओहय० जाव झियायमाणि पासइ, पासित्ता चेल्लणाए देवीए पायग्गहणं करेइ, करिता चेल्लणं देवि एवं वयासी-कि णं अम्मो ! तम्हं न तुट्ठी व न ऊसए वा न हरिसे वा नाणंदे वा, जं णं अहं सयमेव रज्जसिरिं जाव विहरामि ? ॥५०॥ छाया-ततः खलु स कूणिको राजा अन्यदा कदाचित् स्नातः यावत् सर्वालङ्कारविभूषितश्चेलनाया देव्याः पादवन्दको हव्वमागच्छति। ततः खलु स कूणिको राजा चेल्लनां देवीम् अपहत० यावद ध्यायन्ती पश्यति, दृष्ट्वा चेल्लनाया देव्याः पादप्रहणं करोति, कृत्वा, चेल्लनां देवीमेवमवादीत्-किं खलु अम्ब ! तव न तुष्टिा नोत्सवो वा न हर्षो वा नानन्दो वा ? यत्खलु अहं स्वयमेव राज्यश्रियं यावद् विहरामि ॥५०॥ Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ग - प्रथम ] ( ८६ ) [निरयावलिका पदार्थान्वयः - एणं - तत्पश्चात् से कूणिए राया- वह राजा कोणिक, अन्नया कयाईएक बार फिर कभी, हाए - उसने स्नान किया, जाव० सव्वालंकार विभूसिए - और सभी प्रकार के अलंकारों से सुसज्जित होकर, चेल्लणाए देवीए - महारानी चेलना देवी के, पाय वन्दए- चरणों में नमस्कार करने के लिये, हव्वमागच्छइ - शीघ्रता से आता है। तएण - तत्पश्चात् से कूणिए राया- वह राजा कूणिक, चेल्लणं देवि - महारानी चेलना देवी को, ओहय०० - उदास एवं मानसिक संकल्प के विपरीत कार्य होने के कारण खिन्न तथा, झियायमाणि- आर्त ध्यान करती हुई को, पासति - देखता है, पासित्ता और उसे उदास देख कर, चेल्लणाए देवीए -माता चेलना देवी के, पायग्गहणं करेइ-चरण पकड़ लेता है, करिताऔर चरण-वन्दन करके, चेल्लणं देवि - महारानी चेलना देवी से एवं वयासी - इस प्रकार बोला, किणं अम्मी ! - माता ऐसी क्या बात है ?, तुम्हं न तुट्ठी वा - आज आपको सन्तोष नहीं हुआ ? न ऊस वा - कोई आपको खुशी नहीं हुई ? हरिसे वा हर्ष नहीं हुआ ? नाणंदे वा - आपको आनन्द नहीं हुआ ? जंणं -जब कि, अहं सयमेव- मैं स्वयं, रज्जसिरि-राज्य - वैभव का उपभोग करते हुए, जाव विहरामि - आनन्द - पूर्वक अपना जीवन व्यतीत कर रहा हूं । मूलार्थ - तदनन्तर किसी दिन वह राजा कूणिक स्नान करके ( और बलिकर्म . प्रायश्चित्त आदि मंगल कार्य करने के अनन्तर ) सर्वविध राजा के योग्य आभूषण पहन कर अपनी माता चिल्लणा देवी के पास चरण-वन्दनार्थ पहुंचा । तब राजा कूणिक ने माता चेल्लना देवी को मानसिक संकल्प से विपरीत कार्य होने के कारण आर्तध्यान करते हुए देखा - चिन्तातुर देखा । देखते ही उसने माता चेलना देवी के चरण पकड़ लिये और माता चेलना देवी से इस प्रकार कहा - " मां ! ऐसी क्या बात है कि आज आपका मन सन्तुष्ट नहीं है, आज आपके मन में उत्साह हर्ष एवं आनन्द नहीं है, जब कि मैं स्वयं राज्य- वैभव का उपभोग करते हुए चैन की जिन्दगी जी रहा हूं, अर्थात् आपको मेरा राजा बन जाना क्या अच्छा नहीं लग रहा ||५० ॥ टीका - पुत्र कितना भी दुष्ट क्यों न हो, वह पिता के प्रति क्रूर व्यवहार कर सकता है, किन्तु अपनी माता के प्रति वह कभी क्रूर नहीं हो सकता । अतः कूणिक ने पिता को बांध कर जेल में डाल दिया, किन्तु माता की चरण-वन्दना के लिये वह समय-समय पर आता ही रहता था । कोई भी मां पुत्र से उदासीन न होते हुए भी अपने पति के प्रति भी अपनी निष्ठा एवं कर्तव्य को भूल नहीं सकती। कूणिक अब राजा बन गया था - अतः स्वच्छन्द था, इसलिये वह उसे कुछ विशेष कहना उचित न मानते हुए अपने पति राजा श्रेणिक को बन्दी बना दिये जाने के कारण Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरयावलिका] (८७) [बर्ग-प्रथम • वह अत्यन्त उदास खिन्न एवं चिन्तातुर थो, अतः पुत्र के राजा बन जाने पर भी वह असन्तुष्ट एवं दुःखी ही रहती थी ।।५०॥ मूल-तएणं सा चेल्लणा देवी कूणियं रायं एवं वयासी- "कहण्णं पत्ता ! ममं तुट्ठी वा उस्सए वा हरिसे वा आणंदे वा भविस्सइ ? जं णं तुम सेणियं रायं पियं देवयं गुरुजणगं अच्चंतनेहाणुरागरत्तं नियलबंधणं करित्ता अप्पाणं महया रायाभिसेएणं अभिसिंचावेसि। _____तएणं से कूणिए राया चेल्लणे देवि एवं वयासी-घाएउकामेणं अम्मो ! मम सेणिए राया, एवं मारेउं, बंधिउं, निच्छुभिउकामए णं अम्मो ! ममं सेणियं राया, तं व हण्णं अम्मो ! मम सेणिए राया अच्छतनेहाणुरागरत्ते ? ॥५१॥ ___ छाया - ततः खलु सा चेल्लना देवी कूणिक राजानमेवमवादीत्-कथं खलु पुत्र ! अम तुष्टिा उत्सवो वा हर्षो वा आनन्दो व भविष्यति यत्खलु त्वं श्रेणिक राजानं प्रियं दैवतं गुरुजनकमत्यन्त' स्नेहानुरागरक्तं निगडबन्धनं कृत्वा आत्मानं महता-महता राज्याभिषेकेण अभिषेचयसि। ततः खलु सा कूणिको राजा चेल्लनां देवीमेवमवादीत्-घातयितुकामः खलु अम्ब ! मम श्रेणिको राजा, एबं मारयितुं, बन्धयितुं, निःक्षोभयितुकामः खलु अम्ब ! मम श्रेणिको राजा, तत्कथं खलु अम्ब ! मम श्रेणिको रायाऽत्यन्तस्नेहानुरागरक्तः? ॥५१॥ पदार्थान्वय:-तएणं-तत्पश्चात्, सा चेल्लणा देवी-वह चेलना देवी, कुणियं राया-- कोणिक राजा को, एवं वयासो-इस प्रकार कहने लगी, कहणं पुत्ता गं-हे पुत्र कैसे, मम तुट्ठी वा-मुझे सन्तुष्टि होगी, उस्सए वा-उत्सव होगा, हरिसे वा-हर्ष होगा, आणंदे वा भविस्सइ-आनन्द होगा, जं गं तुम-जो तूने, सेणियस्स रायं-श्रेणिक राजा को, पियंजो तुम्हारे पिता हैं, देवयं-देव तुल्य, गुरुजणगं-गुरुजनों के तुल्य, अच्चंतनेहाणुरागरत्तंअत्यन्त स्नेह व राग से यक्त को, नियलबंधण करित्ता-हथकड़ियों और बेडियों से बांध कर, अप्पाणं-स्वयं को, महया-महान, रायाभिसेएणं-राज्याभिषेक से, अभिसिंचावेसि-अभिसिंचत करवाया है। तएणं-तत्पश्चात्, से कूणिए राया-वह कोणिक राजा, चेल्लणं देवि-चेलना देवी को, - एवं बयासी-इस प्रकार कहने लगा, घाए उकामेणं - घात करने के इच्छुक, अम्मो-हे माता Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ग-प्रथम] (८८) [निरयावलिका मम सेणिए राया-श्रेणिक राजा तो मुझे, एवं इस प्रकार, मारेउ-मारने के लिये इच्छुक, बंधिउं-बांधने के लिये इच्छुक, निच्छुभिउकामए णं-मुझे राज्य से बाहर करने के लिये इच्छुक था, अम्मो-हे माता, ममं सेणिए राया- मुझे श्रेणिक राजा, तं-अतः, अम्मो-हे माता, मम-मुझ पर, सेणिए राया-श्रेणिक राजा, अच्चंतनेहाणुरागरत्ते - कैसे अत्यन्त स्नेह राग से युक्त था ॥५१।। मूलार्म-तत्पश्चात् चेलना देवी ने राजा कूणिक को इस प्रकार कहा-"हे पुत्र ! मुझे कैसे प्रसन्नता, उत्सव, हर्ष व आनन्द हो सकता है ? क्योंकि तूने उस देव एवं गुरु के तुल्य अपने पिता राजा श्रेणिक को हथकड़ियों एवं बेड़ियों से बांध रखा है जिनका तुम्हारे प्रति गहरा स्नेह व राग है, ऐसे पिता को कैद करके तूने स्वयं का राज्याभिषेक किया है, इसलिए मेरे मन में हर्ष उत्सव, आनन्द कैसे हो सकता है ? तत्पश्चात् वह राजा श्रेणिक, चेलना देवी वी बात सुनकर इस प्रकार कहने लगा-“हे माता! आप कैसे कह सकती हैं कि मुझ पर राजा श्रेणिक का अत्यंत रागात्मक स्नेह है ? टोका-प्रस्तुत सूत्र में राजा कूणिक ने अपनी माता को प्रणाम करने के बाद अपने किये हुए कुकृत्य का समर्थन माता चेलना से करवाना चाहा, किन्तु महारानी चेलना पति के प्रति समर्पित रानी थी। वह अपने पति के प्रति अथाह स्नेह रखती थी। श्रेणिक की कंद के कारण वह सर्वाधिक दुःखी रहने लगी। प्रस्तुत सूत्र से रानी चेलना की स्पष्ट-वादिता का भी पता चलता है । रानी चेलना कहती है कि मुझे तेरे राजा बनने की खुशी कैसे हो सकती है ? तूने अपने देव-गुरु तुल्य पिता को कारागार में डाल दिया है, तुझे अपने पिता की महानता व तेरे प्रति स्नेह का भी ध्यान नहीं रहा । रानी चेलना देवी की बात सुनकर राजा कुणिक ने अपनी माता से पूछा- "हे माता! आप कैसे कहती हैं कि मेरे पिता राजा श्रेणिक मेरे से बहुत स्नेह व राग रखते हैं ? इस सूत्र से सिद्ध होता है कि कोणिक ने राजा श्रेणिक को कैद में डालते समय माता से विचार-विमर्श नहीं किया था। इसी कारण माता ने आशीर्वाद के स्थान पर उपालम्भ दिया। पियं और जणगं "पिता" और "जनक" ये दोनों शब्द पिता के पर्यायवाची शब्द हैं तथा पियं शब्द वल्लभ पति आदि अर्थों में भी प्रयुक्त होता है । गुजराती अर्धमागधी कोष पृष्ठ ५४६ में ऐसा ही कथन है ।।५१॥ मूल-तएणं सा चेल्लणा देवी कूणियं कुमारं एवं वयासो---एवं खलु पुत्ता ! तुमंसि ममं गन्भे आभूए समाणे तिण्हं मासाणं बहुपडि Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरयावलिका] (८६) _ [वर्ग-प्रथम पुन्नाणं ममं अयमेयारूवे दोहले पाउन्भूए- धन्नाओ णं ताओ अम्मयाओ जाव अंगपडिचारियाओ निरवसेसं भाणियव्वं जाव० जाहे वि य णं तुम वेयणाए अभिभूए महया जाव० तुसिणीए संचिट्ठसि, एवं खलु तव पुत्ता ! सेणिए राया अच्चंतनेहाणुरागरते ॥५२॥ छाया-ततः खलु सा चेल्लना देवी कूणिक कुमारमेवमवादीत्-एवं खलु पुत्र ! त्वयि मम गर्भे आभूते सति त्रिषु मासेषु वहुप्रतिपूर्णेषु ममायमेतद् पो दोहदः प्रादुर्भूतः-धन्याः खलु ता अम्बाः यावत् अङ्गप्रतिचारिकाः, निरवशेष भणितव्यं यावत् यदापि च खलु एवं वेदनयाऽभिभूतो महता यावत् तूष्णोकः संतिष्ठसे, एवं खलु तव पुत्र ! श्रेणिको राजाऽत्यन्तस्नेहानुरागरक्तः ॥५२॥ पदार्थान्वयः-तएणं-तब, सा चेल्लणा देवी-वह महारानी चेलणा, कणयं कुमारकोणिक कुमार से, एवं वयासी-इस प्रकार कहने लगी, एवं खलु पुत्ता - हे पुत्र ! इस प्रकार समझो, तुमंसि ममं गन्भे आभूए समाणे- जब तूं मेरे गर्भ में आया था तब, तिण्हं मासाणं-त.न महीने, बहुपडिपुन्नाणं-अच्छी तरह पूर्ण होने पर, ममं-मेरे हृदय में, अयमेयारूवे- इस प्रकार का, दोहले पाउन्भूए-- दोहद उत्पन्न हुआ था, धन्ना णं तो अम्मयाओ-कि धन्य हैं वे मातायें, यावत्-यावत्, अंगपडिचारियाओ निरवसेसं भाणियव्वं-इस संकल्प से लेकर अंगपरिचारिकाओं (सेविकाओं) द्वारा जो जो कार्य किये गए थे और जो कुछ अभय कुमार ने किया था वह सब कार्य उसने बतला दिये, जाव-वहां तक जब उसे कुरड़ी पर फेंका गया था और उसकी अंगुली के अग्रभाग को मुर्गे ने चोंच से छील दिया था, उसे श्रेणिक ने चेलना को लाकर दिया था और उसे यह भी बतलाया था कि, जाहे वि य णं तुम और जब भी तुम, वेयणाए-वेदना से, अभिभूए-अभिभूत हो जाते थे, महया-महान्, जाव तुसिणीए संचिट्ठसि-जब तक तुम चुप होकर शान्त नहीं हो जाते थे (तब तक श्रेणिक तुम्हारी अंगुली के खून और पीक को चूस-चूस कर थूकते रहते थे, एवं खलु तव पुत्ता--हे पुत्र ! इस प्रकार (तुम स्वयं ही समझ सकते हो कि), सेणिए राया-राजा श्रेणिक, अच्चंतनेहाणुरागरत्ते-अत्यन्त स्नेह से तुम पर अनुरक्त था ॥५२॥ मूलार्थ-तब महारानी चेलना कोणिक कुमार को इस प्रकार कहने लगी- हे पुत्र! तुम इस प्रकार समझो कि “जब तू मेरे गर्भ में आया था, तब तीन महीने अच्छी तरह पूरे हो जाने पर मेरे हृदय में इस प्रकार का दोहद उत्पन्न हुआ था कि "धन्य हैं वे मातायें जो यावत् अर्थात् अंग-परिचारिकाओं द्वारा जो-जो कार्य किये गए थे और जो कुछ भी अभय कुमार ने किया था वे सब कार्य उसवै कोणिक को बतला दिये Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ग-प्रथम] (६०) [निरयावलिका और कुरड़ी पर फेंकने से लेकर राजा श्रेणिक द्वारा उसे वापिस लाकर पुन: चेलना को सौंपने से लेकर यह भी बतलाया कि जब भी तुम मुर्गे द्वारा छीली गई अंगुली के भारी कऽट के कारण व्यथित होते थे तब तुम्हारे पिता श्रेणिक तुम्हारी अंगुली से पीप और खून तब तक चूस कर थूकते रहते थे जब तक तुम चुप होकर शान्त नहीं हो जाते थे । इस प्रकार हे पुत्र ! तुम स्वयं ही समझ सकते हो कि राजा श्रेणिक तुम पर कितना स्नेहानुराग रखते थे ।।५२॥ टोका-प्रस्तुत सूत्र में बतलाया गया है कि महारानी चेलना ने कुमार कोणिक को उसके गर्भ में आने से लेकर आज तक का सारा वृत्तान्त आद्योपान्त सुना दिया, जिससे उसका हृदय एक दम बदल गया, क्योंकि सत्य में हृदय-परिवर्तन की अपार शक्ति है। इस सूत्र द्वारा यह भी ज्ञात होता है कि कोणिक कुमार इससे पूर्व इस घटना से सर्वथा अपरिचित था, अतः वह अपने पिता को अपना शत्रु समझता था, इसीलिये उसने उसे हथकड़ियों और बेड़ियों से बांध कर जेल में डाल दिया था। राज्य-लोभ और पूर्व जन्मार्जित कर्म भी इसमें कारण थे, किन्तु जीवन-क्रम के ज्ञान का अभाव भी उसके इस दुष्कार्य करने के पीछे एक कारण था ॥५२॥ , तएणं से कूणिए राया चेल्लणाए देवीए अंतिए एयमढं सोच्चा निसम्म चेल्लणं देवि एवं वयासो-दुछु णं अम्मो ! मए कयं, सेणियं रायं पियं देवयं गुरुजणगं अच्चंतनेहाणुरागरत्तं निलयबंधणं करतेणं, तं गच्छामि णं सेणियस्स रन्नो सयमेव नियलाणि छिदामि त्तिकट्ठ परसुहत्थगए जेणेव चारगसाला तेणेव पहारेत्थ गमणाए ॥५३॥ छाया-ततः खलु सः कुणिको राजा चेल्लनाया देव्या अन्तिके एतमर्थ श्रुत्वा निशम्य चेल्लनां देवीमेवमवादीत्-दुष्ठु खलु अम्ब ! मया कृतं घोणिकं राजानं प्रियं दैवतं गुरुजनकमत्यन्तस्नेहानुरागरक्तं निगडबन्धनं कुर्वता, तद् गच्छामि खलु श्रेणिकस्य राज्ञः स्वयमेव निगडानि छिनछि, इति कृत्वा परशहस्तगतो यत्रैव चारकशाला तत्रैव प्रधारयति गमनाय ॥५३॥ पदार्थान्वय'-तएण-तदनन्तर, सकूणिए राया-वह राजा कूणिक, चेल्लणाए देवीएमहारानी चेलना के, अंतिए-पास से, एयम8 सोच्चा-इस वृत्तान्त (घटना-क्रम) को सुन कर, Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरयावलिका] (६१) [बर्ग-प्रथम निसम्म-और सुनते ही, चेल्लणं देवि-महारानी चेलना से, एवं वयासी-इस प्रकार बोलादुछु णं अम्मो-हे मां ! निश्चय ही एक दुष्कृत्य. मए कयं-मैंने किया है कि, सेणिय रायं-राजा श्रेणिक को (जो कि मेरे लिये), देव-देव स्वरूप, गुरुजणगं-परमोपकारक (गुरुतुल्य), अच्चं. तनेहाणुरागरत्तं-अत्यन्त स्नेहानुराग से युक्त हैं उन्हें, निलय-बंधणं करतेणं-हथकड़ियों बेड़ियों में वांधने वाले ने, तं गच्छामि-अतः मैं जाकर, सेणियस्स रनों- राजा श्रेणिक के, सयमेव निलयाणि छिदामि-स्वयमेव बन्धन भूत हथकड़ियों बेड़ियों को काटता हूं, ति कटु-ऐसा कहकर, परसुहत्थगए--हाथ में परशु लेकर, जेणेव चारगसाला-जहां जेलखाना था, तेणेव - वहीं पर, पहारेत्या गमणाए-पहुंचने के लिये चल पड़ा ॥५३॥ मूलार्थ-तदनन्तर उस राजा कूणिक ने महारानी चेलना से जब उपरोक्त वृत्तान्त सुना तो वह सुनते ही महारानी चेलना से इस प्रकार बोला-मां ! निश्चय ही मैंने राजा श्रेणिक को जो कि मेरे लिये देवता तुल्य हैं. मेरे परमोप कारक गुरु जैसे है और मुझ पर अत्यन्त स्नेहानुराग रखते हैं, उनके हथकड़ियों बेड़ियों जैसे बन्धन मैं स्वयमेव जाकर काटता हूं। यह कह कर वह हाथ में परशु लेकर जहां जेलखाना था वहां पहुंचने के लिये चल दिया ।।५३॥ ___टीका-सदुपदेशों से और वास्तविकता को जानकर मनुष्य कैसा भी क्रू र क्यों न हो उसके हृदय का परिवर्तन हो ही जाता है। ___अपनी माता से पिता के स्नेहानुराग की वास्तविक बात को सुनते ही कोणिक का हृदय बदल गया और वह परशु (कुल्हाड़ा अथवा कुल्हाड़े जैसा कोई औजार जिससे शीघ्र ही बन्धन कट सकें) हाथ में लेकर उस जेलखाने की ओर चल दिया जहां राजा श्रेणिक को उसने बन्द किया था। सूत्रकार ने उपर्युक्त उल्लेख से यह सिद्ध कर दिया है कि सदुपदेश कभी व्यर्थ नहीं जाताउसका प्रभाव मनुष्य के मन पर पड़ता ही है ॥५३॥ मूल-तएणं सेणिए राया कूणियं कुमारं परसुहत्थगयं एज्जमाणं पासइ, पासित्ता एवं वयासी-एस णं कूणिए कुमारे अपत्थियपत्थिए जाव सिरि. हिरिपरिवज्जिए परसुहत्थगए इह हव्वमागच्छइ। तं न नज्जइ णं ममं केणइ कु-मारणं मारिस्सइ त्ति कट्ट भीए जाव संजायभए तालपुडगं विसं मासगंसि पक्खिवइ। Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ग-प्रथम] (६२) [निरयावलिका तएणं से सेणिए राया तालपुडगविसे आसगंसि पक्खित्ते समाणे मुहुतंतरेणं परिणममाणंसि निप्पाणे निच्चिद्वै जीवविप्पजढे ओइन्ने । तएणं से कूणिए कुमारे जेणेव चारगसाला तेणेव उवागयं, सेणियं रायं निपाणं निच्चिद्रं जीवविप्पजढं ओइन्नं पासइ, पासित्ता महया पिइसोएणं अप्फुण्णे समाणे परसुनियत्ते विव चंपगवरपायने धसत्ति धरणियलंसि सव्वंगेहिं संनिवडिए ॥५४॥ छाया-तत खल श्रेणिको राजा कूणिक कुमार परशुहस्तगतमेजमानं पश्यति, दृष्ट्वा एवमवादीत्-एष खलु कूणिकः कुमारः अप्रार्थितप्रथितो यावत् श्रीह्रीपरिवजितः परशुहस्तगत इह हव्यमागच्छति, तन्न ज्ञायते खलु मां केनापि कुमारेण (कुत्सित-मारेण) मारयिष्यतीति, कृत्वा भीतो यावत् संजातभयस्तालपुटकं विषमास्ये प्रक्षिपति । ततः खल स श्रेणिको राजा तालपुटकविषे आस्ये प्रक्षिप्ते सति मुहूर्तान्तरेण परिणम्यमाने निष्प्र णो निश्चेष्टो जोवविप्रत्यक्तोऽवतीर्णः । ततः खलु सः कृणिकः कुमारो यत्रैव चारकशाला तत्रैवोपागता, उपागत्य श्रेणिकं राजानं निष्प्राणं निश्चेष्टं जीव-विप्रत्यक्तमवतीर्ण पश्यति, दृष्ट्वा महता पितृ-शोकेन आक्रान्तः सन् परशुनिकृत्त इव चम्पकवर-पादप: "धस" इति धरणीतले सर्वाङ्ग निपतितः ॥५४॥ __ पदार्थान्वय!-तएणं-तत्पश्चात्, सेणिए राया-राजा श्रेणिक, कूणियं कुमारं-कूणिक कुमार को परसुहत्थ गयं-हाथ में कुल्हाड़ा लिये हुए, एज्जमाणं-आते हुए को, पासइ- देखता है, पासित्ता-और उसे देखते ही (वह मन ही मन), एवं वयासी-इस प्रकार कहने लगा, एस णं कृणिए कुमारे-निश्चय ही यह कूणिक कुमार, अपत्थियपत्थिए-अप्रार्थित की प्रार्थना करनेवाला.. अर्थात् अकर्तव्य को कर्तव्य मानने वाला, जाव० सिरि-हिरि-परिवज्जिए-यावत् राजकर्तव्यरूप लक्ष्मी और लज्जा से रहित, परसु हत्थगए-हाथ में परशु लिये हुए, इह-यहां पर, हव्वमागच्छइ-शीघ्र ही पहुंचने वाला है, तं न नज्जइण-इस समय मैं नहीं जान पा रहा, मम-यह मुझे, केणइ -किस प्रकार की, कु-मारेणं-बुरी मौत से, मारिस्सइ-मारेगा, तिकटु-ऐसा सोचते ही वह, भीए-भय-भीत हो गया, जाव सं नाय भए-और भय उत्पन्न होते ही, तालपुडग विसं-तालपुट नामक भयंकर विष (वह अपने), आसगंसि-मुख में, पक्खिवइ-डाल लेता है। तएणं तदनन्तर, से सेणिए राया-वह राजा श्रेणिक, तालपुडगविसे-तालपुट विष, भासगंसि पक्खित्ते समाणे-मुख में डालते ही, मुहृत्तंतरेणं-कुछ ही क्षणों में, परिणममार्ग:स Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरयावलिका ] ( ३ ) | वर्ग - प्रथम - विष के शरीर में घुलते ही, निप्पाणे निच्चेट्ठे- निष्प्राण एवं निश्चेष्ट होकर, जीवविप्पजढे - जीवन विहीन होकर ( भूमि पर ), ओइण्णे - गिर पड़ा। तएण से कूणिए कुमारे- तब वह कूणिक कुमार, जेगेव चारगसाला - जहां पर बन्दीखाना था, तेणेव उवागयं-वहीं पर आ पहुंचा, ( वह आते ही ) सेणियं यं - राजा श्रेणिक को, निप्पाणं निच्चिट्ट - निष्प्राण एवं निश्चेष्ट, जीव-विप्पजढं-जीवनविहीन को, ओइन्नं भूमि पर गिरे हुए को, पासइ - देखता है, पासित्ता - देख कर, महयाअत्यन्त पिइसोएगं - पितृ-शोक से, अध्कुरणे समाणे - शोकाक्रान्त हो जाने पर, परसु-नियत्ते विवपरशु से काटे हुए, चंपगवरपायवे – चम्पक वृक्ष के समान, "धसत्ति" - धड़ाम से, धरणियलंसिपृथ्वी पर सब्बंगेहि — पूरे शरीर सहित, संनिवडिए - गिर पड़ा || ५४ || मूलार्थ - तत्पश्चात् राजा श्रेणिक हाथ में परशु लिए हुए कोणिक कुमार को अपनी ओर आते हुए देखता है और देखते ही उसने मन ही मन कहा - यह कूणिक कुमार निश्चय ही अकर्तव्य को कर्तव्य मानने वाला, राज-नियमों एवं लज्जा से रहित है । यह हाथ में परशु लिए हुए शीघ्र ही यहां पहुंचने वाला है, इस समय मैं नहीं जान पा रहा कि यह मुझे किस बुरी मौत से मारेगा, ऐसा सोचते ही भयभीत होकर उसने तालपुड विष को अपने मुंह में डाल लिया । तदनन्तर वह राजा श्रेणिक तालपुट विष को मुख में डालते ही कुछ ही क्षणों विष के शरीर में घुल जाने से निष्प्राण एवं निष्चेष्ट तथा जीवन-रहित होकर भूमि पर गिर पड़ा। तब वह कूणिक कुमार जहां पर बन्दी खाना था वहीं पर आ पहुंचा । उसने वहां आकर राजा श्रेणिक को निष्प्राण निश्चेष्ट और जीवन विहीन- मृतक अवस्था में भूमि पर पड़े हुए देखा और देखते ही वह अत्यन्त (भारी) पितृ-वियोग के कारण शोकाक्रान्त होकर, परशु से कटे हुए चम्पक वृक्ष के समान धड़ाम से धरती पर पूरे शरीर से गिर पड़ा || ५४॥ टोका - प्रस्तुत सूत्र में राजा श्रेणिक की बन्दीगृह में हुई मृत्यु का वर्णन किया गया है । राजा श्रेणिक ने कूणिक कुमार के अब तक के व्यवहार से यही जाना था कि यह मुझे मारने ही आ रहा है। यह घटना इस विषय का संकेत दे रही है कि मनुष्य को सहसा कोई निर्णय नहीं ले लेना चाहिये, बिना विचारे किया हुआ कार्य मृत्यु जैसे अनर्थ का कारण बन जाता है । Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बर्ग-प्रथम] (६४) [निरयावलिका राजा लोग पहले अपने पास 'तालपुट' नामक भयंकर विष (साईनाइड जैसा विष) प्रायः रखा करते थे। आपत्ति आने पर घुट-घुट कर मरने की अपेक्षा वे यह विष खाकर मर जाते थे। वह राजा था, इसलिए बन्दीखाने में बन्द करते समय शायद उसकी पूरी तरह तलाशी न ली गई हो, अतः यह विष राजा श्रेणिक के पास ही रह गया होगा। इसलिए जेल में उसे विष कहां से प्राप्त हुआ ? यह शंका नहीं करनी चाहिये ॥५४॥ __मूल-तएणं से कूणिए कुमारे महत्तंतरेणं आसत्थे समाणे रोयमाणे कंदमाणे, सोयमाणे विलवमाणे एवं वयासी-अहो णं मए अधन्नेण अपुन्नेणं अकय-पुन्नेणं दुठ्ठ कयं सेणियं रायं पियं देवयं अच्चंतनेहाणुरागरत्तं निलयबंधणं करतेणं, मम मूलगं चेव णं सेणिए राया कालगए तिकटु ईसर-तलवर जाव० संधिवाल-सद्धिं संपरिवुड़े रोयमाणे इड्ढिसक्कारसमुदए णं सेणियस्स रन्नो नीहरणं करेइ। करित्ता बहूई लोइयाइं मयकिच्चाई करे। तएणं से कूणिये कुमारे एएणं महया मणोमाणसिएणं दुक्खेण अभिभूइ समाणे अन्नया कयाइ अंतेउर-परिढाल संपरिवुडे सभंड मत्तीवगरणमायाए रायगिहाओ पडिनिक्खमइ, पडिनिक्खमित्ता जेणेव चंपा नयरी तेणेव उवागच्छइ। तत्थवि णं विउलभोगसमिइ-समन्नागए कालेणं अप्पसोए जाए यावि होत्था। तएणं से सेणिए राया अन्नया कयाइ कालादीए दस कुमारे सद्दावेइसद्दावित्ता रज्जं च जाव जणवयं च एक्कारसभाए विरिंचइ, विरिचित्ता सममेव रज्जसिरिं करेमाणे पालेमाणे विहरइ ॥५५॥ छाया-ततः खलु स; कूणिकः कुमारो मुहूर्तान्तरेण आस्वस्थः सन् रुदन् क्रन्दन शोचन् विलपन एवमवाहीत अहो खलु मया अधत्येत अपुण्येन. अकृतपुण्येन दुष्ठ कृतं श्रोणिक राजानं प्रियं . वैवतमत्यन्तस्नेहानुराज-खतं निपड़-बन्धनं कुर्वता, मम मूलकं चैव खलु श्रेणिको राजा कालगतः, Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरयावलिका) (६५) [वर्ग-प्रथम इति कृत्वा ईश्वर-तलवर यावत् सन्धिपालैः सार्धं संपरिवृतो रुदन् ३-(क्रन्दन, शोचन् विलपन्) महता ऋद्धिसत्कार-समुदयेन श्रेणिकस्य राज्ञो नीहरणं करोति, कृत्वा बहूनि लौकिकानि मृतकृत्यानि करोति। ___ ततः खलु सः कूणिकः कुमार एतेन महता मनोमानसिकेन दुःखेनाभिभूतः सन् अन्यदा कदाचित अन्तःपुर-परिवार - संपरिवृतः सभाण्डमत्तोप-करुणमादाय राजगृहात् प्रतिनिष्कमति, प्रतिनिष्क्रम्य यत्रैव चम्पा-नगरी तत्रैवोपागच्छति, तत्रापिच विपुल-भोग-समिति समन्वागतः कालेन अल्पशोको जातश्चाप्य भूत्। ततः खलु स: कूणिको राजा अन्यदा कदाचित् कालिकादिकान् दसकुमरान् शब्दापयित्वा राज्यं च यावत् जनपदं च एकादश-भागान् विभजति, विभज्य स्वयमेव राज्यश्रियं कुर्वन् पालयन् विहरति । ॥५५॥ पदार्थान्वयः-तएणं-तत्पश्चात्, से कूणिए कुमारे-वह कूणिक कुमार, महत्तंतरेणकुछ ही क्षणों के अनन्तर, आसत्थे समाणे-स्वस्थ ही जाने पर, रोयमाणे-रोते हुए, कंदमाणेक्रन्दन करते हुए, सोयमाणे-शोकाकुल होते हुए, विलवमाणे-विलाप करते हुए, एवं वयासीइस प्रकार कहने लगा, अहो णं मए-मोह मैं, अधन्नेणं-अभागा हूं, अपुन्नेणं-अधर्मी हैं, अकय-पुन्नेणं-पुण्य-हीन हूँ, दुठ्ठ कयं-मैंने दुष्कृत्य किया है जो कि, सेणियं रायं-राजा श्रेणिक को, (जो मेरे) पियं-प्रिय थे, देव तुल्य थे, अत्यन्त स्नेहानुराग-रंजित थे, निगडबन्धनं कुर्वता-उन्हें हथकड़ियों बेड़ियों से बन्धन में डालते हुए, मम मूलगं चेव-तो निश्चय ही मैं ही इसका मूल कारण हूं, (जो कि) सेणिये राया कालगते-राजा श्रेणिक कालधर्म (मृत्यु) को प्राप्त हुए हैं। त्तिकट्ट-ऐसा कह कर, ईसर-तलवर-जाव संधिवाल सद्धि- ईश्वर तलवर और संघिपाल आदि, संपरिवडे-से घिरे हुए, रोयमाणे-रुदन क्रन्दन विलाप आदि करते हुए, महया-महान. इडिढसक्कारसमुदएणं-समृद्धि सत्कार एवं समारोह के साथ, सेणियस्स रन्नो नीहरणं करेई.-राजा श्रेणिक के शव को देखता है; करित्ता-और देख कर, बहूइं-बहुत प्रकार के, लोइयाई-लौकिक. मयकिच्चाई करेइ-मृतककृत्यों को करता है। तएणं से कूणिए कुमारे-तदनन्तर वह कूणिक कुमार, एएणं महया-इस महान् मनोमाणसिएणं-अपने मानसिक, दुक्खेणं-दुःख से, अभिभूए समाणे-अभिभूत हो जाने पर, अन्नया कयाइ-फिर कभी, अंतेउर परिवाल-संपरिवडे-अन्तपुर-महारानियों और परिवार से युक्त अर्थात् घिरा हुआ; सभंडमत्तोवगरण मायाए- अपने वस्त्र-पात्र आदि जीवन-साधनों के साथ, राजगिहाओ-राजगृह नगरी से, पडिनिस्खमइ-बाहर निकलता है, पडिनिक्खमित्ता-और बाहर निकल कर, जेणेव चंपा नयरी-जहां पर चम्पा नाम की नगरी थी, तेणेव-वहीं पर, उवागच्छइ-आता है। तत्थ वि णं-और वहां पर आकर; विउलभोगसमिइ-समन्नागए-विपुल-भोग सामग्री उसने प्राप्त की, (और) कालेणं-और समय पाकर, अप्पसोए जाए यावि होत्थाअल्प शोक वाला अर्थात् शोक-रहित हो गया। Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ग-प्रथम] (६६) [ निरयावलिका तएणं कोणिए राया-तत्पश्चात् वह राजा कोणिक, अन्नया कयाइ-किसी अन्य समय में कालादीए दस कुमारे-काल आदि अपने दस राज कुमार भाइयों को, सद्दावेइ-बुलवाता है, सद्दावित्ता-और बुलवाकर, रज्जं च-समस्त राज्य-वैभव तथा, जनवयं च-जनपदों को, एक्कारस भाए-ग्यारह भागों में, विरिंचइ-बांट देता है, विरिचित्ता-और बांट कर, सयमेवखुद ही, रज्जसिरिं करेमाणे-राज्य-लक्ष्मी का उपभोग करते हुए, पालेमाणे-उसका पालन करते हुए, विहरइ-विहरण करने लगा ।।५५॥ मूलार्थ-तदनन्तर वह राजा कूणिक कुछ क्षणों के बाद कुछ स्वस्थ होकर रुदन. क्रन्दन, शोक और विलाप करता हुआ इस प्रकार बोला-"ओह मैं अभागा हूं: पापी हूं, अकृत-पुण्य हूं, मैंने बहुत ही दुष्ट कार्य किया है जो कि मैंने राजा श्रेणिक को जो कि मेरे अत्यन्त प्रिय देवतुल्य और गुरु के समान एवं स्नेहानुराग-रंजित थे उन्हें हथकड़ियों एवं बेड़ियों से जकड़ दिया। तो निश्चय पूर्वक मैं ही उसका मूल कारण हूं जो राजा श्रेणिक मृत्यु को प्राप्त हुए। इस प्रकार हार्दिक दुःख व्यक्त करके ईश्वर तलवर और सन्धिपाल आदि से घिरे हुए-रोते शोक करते विलाप करते हुए महान् ऋद्धि-समृद्धि के साथ उसने राजा श्रेणिक को देखा और अनेक विध लौकिक कृत्यों के साथ उनका अन्तिम-संस्कार किया। तदनन्तर वह कोणिक कुमार अत्यन्त मानसिक पीड़ा से पीड़ित होने पर, एक बार अपनी महारानियों एवं परिवार के साथ अपने खान-पान एवं वस्त्रों आदि के सहित राजगृह नगर से बाहर निकला और जहां पर चम्पा नगरी थी वहां पर आया, वहां पर भी अनेकविध भोग-समुदाय को प्राप्त करता हुआ कुछ समय पाकर शोक-रहित हो गया अर्थात् अपने पितृ-शोक को भूल गया । तत्पश्चात् एक बार उस राजा कोणिक ने अपने कालादिक दस राजकुमार भाइयों को बुलवाया और बुलबाकर प्राप्त राज्य-वैभव और समस्त जनपदों को उसने ११ भागों में बांट दिया और बांट कर स्वयं राज्य-श्री का उपभोग एवं पालन करने लगा ।।५४॥ ____टोका-"बहहिं लोइयाइं मयकिच्चाई" इन शब्दों से स्पष्ट ध्वनित हो रहा है कि कोणिक ने पिता की अन्त्येष्टि करते समय जो भी कृत्य किये वे लौकिक थे, उनका मध्यात्म-जगत से कोई सम्बन्ध नहीं था। Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरयावलका ] ( ६७ ) कोणिक को पितृ शोक का इतना गहरा श्राघात लगा कि आखिर उसने राजगृह नगर परित्याग कर दिया और चप्पा को उसने अपनी राजधानी बना लिया । का [ वर्ग - - प्रथम “ईश्वर” “तलवर” प्रादि शब्द उस समय अधिकारी वर्ग के लिये प्रयुक्त होते थे । इस नगरी का नाम "चम्पा" इसलिए पड़ा था कि जहां पर यह नगरी बसाई गई थी उस स्थान पर पहले हजारों चम्पक वृक्ष थे, अतः वह नगरी 'चम्पा' नाम से प्रसिद्ध हुई ।। ५५ ।। मूल - तत्थ णं चंपाए नयरीए सेणियस्स रन्नो पुत्ते चेल्लणाए देवीए अत्तए कूणियस्स रन्नो सहोयरे कणीयसे भाया वेहल्ले नामं कुमारे होत्या सोमाले जावं सुरूवे । तएणं तस्स वेहल्लस्स कुमारस्स सेणिएवं रन्ना जीवंतणं चैव सेयणए गंधहत्थी अठ्ठारसबंके य हारे पुम्बदिन्ने ॥ ५६ ॥ छाया-तत्र खलु चम्पायां नगर्यां श्रेणिकस्य राज्ञः पुत्रश्चेलनाया देव्या आत्मजः कूणिकस्य राज्ञः सहोदरः कनीयान् भ्राता वेहल्लो नाम कुमार आसीत्, स्कुमारो यावत् सुरूपः । ततः खलु तस्य वेलहल्लस्य कुमारस्य श्र ेणिकेन राज्ञा जीवता चैव सेचनको गन्धहस्ती अष्टादशवको हारश्च पूर्व दत्तः ॥५६॥ . पदार्थान्वयः -- तत्थ णं चंपाए नयरीए वहां उस चम्पा नामक नगरी में, सेणियस्स रन्नो पुसे - राजा श्रेणिक का पुत्र, चेल्लणाए देवीए अत्तए - चेलना देवी का आत्मज कूणियस्स रन्नो सहोयरे - राजा कूणिक का सहोदर (सगा), कणीयसे भाया - छोटा भाई वेहल्ले नामं कुमारेवेहल्ल नाम का, कुमारे होत्था - राजकुमार था; सोमाले जाव सुरूवे - सुकुमार यावत् सुरूपा, तणं तस्स वेल्लरस कुमारस्स - पहले कभी उस वेहल्ल कुमार को, सेणिएणं रन्ना - राजा श्रेणिक ने, जीवंत एणं - अपने जीवन काल में हो, सेप्रगए गन्ध हत्थी - सेचनक गन्धहस्ती, अट्ठारसबंके 'हारे - अठारह लड़ियों वाला हार, पुब्वदिन्ने - पहले ही दे दिया था ||५६ ॥ मूलार्थ - उस चम्पा नामक नगरी में राजा श्रेणिक का ही पुत्र और महारानी चेलना का आत्मज तथा राजा कूणिक का सगा झोटा भाई वेहल्ल नाम का राज कुमार था जो कि सुकुमार एवं सुन्दर रूप वाला था । उस वेहल्ल कुमार को राजा श्रेणिक ने अपने जीवन-काल में ही सेचनक नाम का गन्धहस्ती और अठारह लड़ियों वाला हार पहले ही दे दिया था । ५६६ Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ग-प्रथम] (१८) [निरयावलिका टीका--"आत्मज" शब्द का भाव यह है कि कोणिक और वेहल्ल कुमार की माता एक ही थी। इसी भाव को स्पष्ट करने के लिये वेहल्ल कुमार को “सहोयरे" सहोदर एक ही माता के उदर से उत्पन्न कहा है। दोनों का पिता तो राजा श्रेणिक था ही। यह स्पष्टीकरण इसलिये दिया गया है कि राजा श्रेणिक की अनेक रानियां थीं, उन सबके पुत्र भी राजा श्रेणिक के ही पुत्र थे, किन्तु वे सब राजा कणिक के सगे भाई न थे ॥५६॥ मूल-तएणं से वेहल्ले कुमारे सेणएणं गन्धहत्थिणा अंतेउर परियालसंपरिवुडे चंपं नार मझमझेणं निग्गच्छइ, निगच्छित्ता अभिक्खणंअभिक्खणं गगं महानई मज्जणयं ओयरइ ॥५७॥ छाया-ततः खलु सः वेहल्लः कुमारः सेचनकेन गन्धहस्तिना अन्तःपुर-परिवार-संपरिवृतः, चम्पायाः नगर्याः मध्यं ध्येन निर्गच्छति, निर्गत्य अभीक्ष्णं-अभीक्ष्णं गगां (गंगायां) महानदी (महानद्यां) मज्जनकमवतरति ॥५७।। पदार्थान्वयः-तए णं - तब, से वेहल्ले कुमारे-वह वेहल्ल कुमार, सेणएनं गंधहत्थिणासेचनक गन्धहाथी पर (सवार होकर), असे उर-परियाल-संपरिवुडे-अपनी रानियों और शेष परिवार एवं परिकर आदि के सहित, चंपं नरि-चम्पा नगरी के, मज्झं-मज्झेणं-बीचों-बीच के मार्ग से, निग्गच्छद-(नगरी से) बाहर जाता है, निग्गच्छित्ता-और बाहर जाकर, अभिक्खणंअभिक्खणं-बारम्बार, गंगं महानई-महानदी गंगा में, मज्झणयं-स्नानार्थ, ओयरइ-अवतरित होता है-उसमें प्रवेश करता है ।।५७।। मूलार्थ-तत्पश्चात् वह वेहल्ल कुमार सेचनक गन्धहस्ती पर सवार होकर अपनी रानियों और निजी परिवार एवं दास-दासियों के साथ चम्पा नगरी के बचोंबीच के मार्ग से होते हुए नगरी से बाहर निकला और निकल कर महानदी गंगा में बार-बार स्नान करने के लिए उतरा- अर्थात् गंगा नदी में प्रविष्ट हुआ ॥५७॥ टीका-इस सूत्र द्वारा स्पष्ट हो रहा है कि कूणिक जब राजगृह नगरी से चम्पा नगरी में पाया तो वेहल्ल कुमार आदि अपने दस भाइयों को भी साथ ही ले गया था। वेहल्ल कुमार ने अपने पिता के दिए हुए गन्धहस्ती और अठारह लड़ियों वाले हार को भी Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरयावलिका) [वर्ग-प्रथम साथ ही लाना था और वह लाया । उसी हाथी पर बैठ कर वह अपने परिवार के साथ गंगा नदी पर स्नान करने के लिये गया था ।।५७।। उत्थानिका-अब सूत्रकार वेहल्ल कुमार और उसके परिवार की जलक्रीड़ाओं का वर्णन करते हैमूल--तएणं सेयणए गन्धहत्थी देवीओ सोंडाए गिण्हइ, गिण्हित्ता अप्पेगइयाओ पुढे ठवेइ, अप्पेगइयाओ खंधे ठवेइ, एवं अप्पेगइयाओ कुंभे ठवेइ, अप्पेगइयाओ सीसे ठवेइ, अप्पेगइयाओ दंतमुसले ठवेइ, अप्पेगइयाओ सोंडाए गहाय उड्ढं वेहासं उविहइ, अप्पेगइयाओ सोंडागयाओ अंदोलावेइ, अप्पेगइयाओ दंतंतरेसु नीणेइ, अप्पेगइयाओ सीभरेणं हाणेइ, अप्पेगइयाओ अणेहि कोलावणेहिं कोलावेइ ॥८॥ छाया-ततः खलः सोचनको गन्धहस्ती देवीः शण्डया गृह्णाति, गृही वा अप्पेकिकाः पृष्ठे स्थापयति, अप्येकिका: स्कन्धे स्थापयति, अप्पेकिका: कुम्भे स्थापयति, अत्येकिकाः शीर्षे स्थापयति अपेकिकाः दन्तमुशले स्थापयति, अप्येकिकाः शुण्डया गृहीत्वा ऊर्ध्व वैहायसमुद्वहते, अप्येकिकाः शुण्डागता आन्दोलयति, अप्ये किकाः दन्तान्तरेषु नयति, अप्येकिकाः शोकरेण स्नपति, अप्येकिकाः अनेकैः कोडनकः क्रीडयति ।।५८॥ पदार्थान्वयः-तएणं-तब वह, सेयणए गंधहत्थी-सेचनक गन्धहस्ती, देवीओ-वेहल्ल कुमार की रानियों को, सोंडाए गिण्हइ-सूंड से पकड़ता है (और), गिण्हित्ता - पकड़ कर, अप्पेगइयाओ-उनमें से किसी को. पुढे ठवेइ-अपनी पीठ पर बिठला लेता है, अप्वेगइयाओ-किसी को, खंधे ठवेइ-कन्धे पर बिठला लेता है. एवं -इस प्रकार, अप्पेगइयाओ-किसी को अपने कुम्भस्थल पर (अर्थात् गर्दन के पास), ठवेइ-स्थापित कर लेता है, अप्पेगइयाओ-किसी को, सीसे ठिवेइ-सिर पर बिठला लेता है, अप्पेगइयाओ- और किसी को, दंतमुसले ठवेइ-दांतों पर बिठला लेता है, अप्पेगइयाओ-कुछ को, सोंडाए गहाय - सूंड से पकड़ कर, उड्ढं वेहासं उविहइ-ऊचे आकाश मैं उछाल कर पुनः दांतों पर रख लेता है, अप्पेगइया मो-किसी को, सोंडगयाओ-सूड से उठा कर, अंदोलावेइ-झुलाता है, अप्पेगयाओ-कुछ को, दंतंतरेसु नीणेइदांतों के अन्तर में (दोनों दांतों के बीच में) ले जाता है, अप्पेगइयाओ-और कुछ को, सीभरेणंजल-सीकरों अर्थात् जल की फुहारों से, हाणेइ-स्नान करवाता है, अप्पेगइयाओ-अनेक स्त्रियों को, अणेगेहि-अनेक प्रकार की, कोलावहि-क्रीड़ाओं से, कोलावेइ-खेल खिलाता है ।।५८॥ Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बर्ग - प्रथम ] [ निरयावलिका ( १०० ) रानियों को सूंड से पकड़ता मूलार्थ - तत्पश्चात् वह सेचनक हाथी वेहल्ल कुमार को है और पकड़ कर किसी को अपनी पीठ पर बिठला लेता है, किसी को कन्धे पर किसी को कुम्भ स्थल पर, किसी को सिर पर, किसी को दांतों पर बिठला देता है । किसी को सूंड से पकड़ कर ऊपर आकाश में उछालता है, किसी को सूंड से पकड़ कर झुलाता है, किसी को दांतों के मध्यभाग में बिठला लेता है, किसी को जल की फुहारों से स्नान करा देता है और किसी को अनेक प्रकार की क्रीड़ाओं द्वारा खेल खिलाता है ॥ ५८ ॥ टीका -- गीतार्थ शास्त्र मर्मज्ञ मुनियों का यह कथन है कि इस गन्धहस्ती को जाति-स्मरण ज्ञान था । इसका मतिज्ञान भी अत्यन्त निर्मल था; इसी कारण वह उपर्युक्त जल-क्रीड़ायें कर रहा था। " गन्धहस्ती " ऐसा हाथी होता है जिसके शरीर की विशेष गन्ध को पाते ही अन्य हाथी त्रस्त हो जाते हैं और हथनियां उसकी गन्ध से आकृष्ट होकर स्वयं ही उसके पास आ जाती हैं । इससे यह भी प्रमाणित होता है कि पञ्चेन्द्रिय जीवों को प्रशिक्षित करके विशिष्ट ज्ञान भी दिया जा सकता है ।। ५८ ।। उत्थानिका - अब सूत्रकार इस घटना के परिणाम पर प्रकाश डालते हैं-, मूल -- तएणं चंपाए नयरीए सिंघाडग-तिग- चउक्क- चच्चर-महापहपहेस बहुजणो अन्नमन्नस्स एवमाइक्खइ जाव० परूवेइ एवं खलु देवाणु - पिया ! वेहल्ले कुमारे एयणएणं गन्धहत्थिणा अंतेउर० तं चेव जाव अहि की लावणएहि कीलावेइ, तं एस णं वेहल्ले कुमारे रज्ज - सिरिफलं पच्चणुभवमाणे विहरइ, नो कूणिए राया ॥ ५६ ॥ छाया - ततः खलु चम्पायां नगर्यां शृङ्गाटक-त्रिक-चतुष्क- चत्वर-महापथ-पथेषु बहुजनोऽन्योfrer एवमाख्यापयति यावत् प्ररूपयति एवं खलु देवानुप्रियाः ! बेहल्लः कुमारः सेचकेन गन्धहस्तिना अन्तःपुर० तदेव यावत् अनैकैः क्रीडनकैः क्रीडयति तदेव खलु वेहल्ला कुमारो राज्यश्रीफलं प्रत्यनुभवन् विहरति नो कूणिको राजा ॥ ५६ ॥ पदार्थान्वयः - तणं - तत्पश्चात्, चंपाएं नयरीए-उस चम्पा नगरी में, सिंघाडग-तिगचक्क चच्चर - महापहपहेसु - सिंघाडे जैसे त्रिकोण मार्गों, चौराहों, राजमार्गों पर, बहुजनो - अनेक Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरयावलिका] (१०१) [बर्ग-प्रथम व्यक्ति, अन्नमन्नस्स-परस्पर (एक-दूसरे से), एवमाइक्खइ- इस प्रकार कहने लगे, जाव० पहवेइ-यावत् आलोचनात्मक विचार करते हैं, एवं खलु देवाणुप्पिया-हे देवानुप्रियो ! क्या यह निश्चय पर्वक नहीं कहा जा सकता कि, वेहल्ले कमारे-वेहल्ल कमार ही, एयणएणं गंधहत्थिणाइस गन्धहस्ती को पाकर, अंतेउर०-अपनी रानियों एवं अपने निजी परिवार के साथ, तं चेव जाव. अणेगेहि कोलावणएहि-वही अनेक प्रकार को क्रोडाओं द्वारा, कोलावेइ-क्रीडायें करता है-खेल खेलता है, तं एस णं वेहल्ले कुमारे - इसलिये यह वेहल्ल कुमार हो, रज्जसिरिफलंराज्य-लक्ष्मी-राजसी ऐश्वर्य का, पच्चणुब्भवमाणे-अनुभव करता हुआ उससे लाभ उठाता हुआ, विहरइ-सुखपूर्वक जी रहा है। नो कूणिए राजा-कणिक राजा होते हुए भी राज्य श्री का लाभ नहीं उठा रहा ।।५।। मूलार्थ-तत्पश्चात् अर्थात् वेहल्ल कुमार की क़ीड़ाओं को देखकर चम्पा नगरी के तिराहों. चौराहों और राजमार्गों पर खड़े अनेक व्यक्ति परस्पर एक दूसरे से इस प्रकार कहते हुए आलोचना करने लगे कि देवानुप्रियो ! क्या यह निश्चय-पूर्वक नहीं कहा जा सकता कि वेहल्ल कुमार हो इस गन्धहस्ती को पाकर अपनी रानियों एवं अपने निजी परिवार के साथ अनेक प्रकार की क्रीडायें करता हुआ राज्य-सुख का पूरा-पूरा अनुभव कर रहा है ? अर्थात् वही राज-ऐश्वर्य का उपभोग कर रहा है, कूणिक राजा होते हुए भी राजसी ऐश्वर्य का पूर्ण रूप से उपभोग नहीं कर पा रहा ।।५९॥ टीका-इस सूत्र द्वारा चम्पा नगरी के त्रिकोण मार्गों चौराहों प्रादि का जो वर्णन किया गया है उससे चम्पानगरी को विशालता और सुव्यस्थित रचना का बोध हो रहा है। प्राचीन काल से लोगों की यह आदत रही है कि एक दूसरे की अकारण ही आलोचना करते. रहते हैं। चम्पा नगरी के नागरिक भी इसी प्रकार की आलोचना कर रहे थे-इसे ही “लोकप्रवाद" कहा जाता है ॥५६॥ मूल-तएणं तोसे पउमावईए देवीए इमोसे कहाए लद्धट्ठाए समाणीए अयमेयारूवे जाव समुप्पज्जित्था-एवं खलु वेहल्ले कुमारे सेयणएणं गंधहत्थिणा जाव अणेगेहिं कोलावणएहिं कोलावेइ, तं एस णं वेहल्ले कुमारे रज्जसिरिफलं पच्चणुब्भवमाणे विहरइ, नो कूणिए राया, तं किं Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ग-प्रथम ] ( १०२) [निरयावलिका अम्हं रज्जेण वा जाव जणवएण वा जइ णं अम्हं सेयणगे गंधहत्थी नत्थि ? तं सेयं खलु ममं कूणियं रायं एयमद्रं विन्नवित्तए' त्ति कटु एवं संपेहेइ. संपेहित्ता जेणेव कूगिए राया तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता करयल० जाव एवं वयासी-एवं खलु सामी ! वेहल्ले कुमारे सेयणएणं गंधहत्थिणा जाव अणेहिं कीलावणएहि कोलावेइ, तं किण्णं सामी ! अम्हं रज्जेण वा जाव जणवएण वा जइणं अम्हं सेयणए गंधहत्थी नत्थि ? ॥६०॥ छाया-ततः खलु तस्याः पद्मावत्या देव्या अस्या. कथायाः लब्धार्थायाः सत्या अयमेतदरूपी यावत् समुपद्यत-एवं खलु वेहल्लः कुमारः सेचनकेन गन्धहस्तिना यावद् अनेकैः कोड़नकैः क्रीडयति, तदेव खलु वेहल्लः कुमारो राज्य श्रीफलं प्रत्यनुभवन् विहरति नो कूणिको राजा, तक्किमस्माकं राज्येन यावज्जनपदेम वा यदि खल्वस्माकं सेचनको गन्धहस्ती नास्ति, तच्छ यः खलु मम कूणिक राजानमेतमर्थ विज्ञपयितुम्, इति कृत्वा एवं संप्रेक्षते, संप्रेक्ष्य यत्रैव कूणिको राजा तत्रैवोपागच्छति, उपागत्य कर-तल० यावदेवमब्रवीत्, एवं खलु स्वामिन् ! वेहल्लः कुमारः सेचन केन गन्धहस्तिना यावद् अनेकः कीडनकः क्रीडयति, तत्कि खलु स्वामिन् ! अस्माकं राज्येन वा-यावद् जनपदेन वा यदि खल्वस्माकं सेचनको गन्धहस्ती नास्ति ।।६०॥ पदार्थान्वयः-तएणं-तत्पश्चात्, तोसे पउमावईए देवीए-उस पद्मावती देवी को, इमीसे कहाए-इस समाचार के, लट्ठाए समाणीए-प्राप्त होने पर, अयमेयारूवे-इस प्रकार का विचार, जाव०-यावत्, समप्पज्जित्था-उत्पन्न हुआ, एवं खल-इस प्रकार तो, वेहल्ले कुमारे-वेहल्ल कुमार ही. सेयणएणं गन्धहत्थिणा-सेचनक हाथी के द्वारा, जाव-यावत्, अणेगेहि कोलावणएहि-अनेक प्रकार के खेल, कोलवई-खेल रहा है, तं एस णं वेहल्ले कुमारे-अतः यह वेहल्ल कुमार ही, रज्जसिरीफलं-राज्य-वैभव-प्राप्ति के फल का, पक्चणुब्भवमाणे-अनुभव करता हुआ, विहरह-विहार कर रहा है, अर्थात् जीवन का आनन्द लूट रहा है, नो कूणिए राया-राजा कूणिक नहीं। तं कि अम्हं-(ऐसी दशा में) हमारा, रज्जेण वा जाव० जणपएण वा- इस राज्य और इस जनपद (पर अधिकार का क्या प्रयोजन रह जाता है), जइ णं अम्हे-यदि हमारे पास, सेयणगे गन्धहत्पी नत्थि-सेचनक हाथी नहीं है, त सेयं खलु मम-इसलिये अब इसी में मेरा श्रेय है कि, कूणियं रायं-(मैं) राजा कूणिक से, एयमलैं-यह बात, विन्नवित्तए-निवेदन कर दूं, त्ति कटु-ऐसा करके अर्थात् यह बात मन में आते ही, एवं संपेहेइ-यह निश्चय करती है (और), संपेहित्ता-निश्चय करके, जेणेव कूणिए राया-जहां पर राजा कूणिक था, तेणेव उवागच्छइवहीं पर आती है (और), ,उवागच्छित्ता-वहां पहुंच कर, करयल० जाव-दोनों हाथ जोड़ते हुए, एवं वयासो-इसे प्रकार बोली, एवं खलु सामो-हे स्वामिन् ! (जब कि), वेहल्ले कुमारे-वेहल्ल Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरयावलिका] (१०३) [वर्ग-प्रथम कुमार ही, सेयणएणं गंधहत्थिणा-सेचनक हाथी को पाकर, अणेगेहि कोलावणएहि-अनेक प्रकार के खेल, कोलावेइ-खेलता है, तं किण्णं सामी अम्हं-तो हे स्वामी ! इससे हमें क्या लाभ है, रज्जेण वा जणवएण वा-इस राज्य-वैभव और इस विशाल राज्य से, जइणं अम्ह-जब कि हमारे पास, सेयणए गन्धहत्थी-यह सेचनक हाथी ही, नत्थि-नहीं है ? ॥६०।। मूलार्थ-तत्पश्चात् उस महारानी पद्मावती को जब यह समाचार प्राप्त हुआ तो उसके मन में इस प्रकार का विचार उत्पन्न हुआ कि इस प्रकार तो वेहल्ल कुमार ही, सेचनक हाथी के द्वारा अनेक प्रकार के खेल खेल रहा है, तब तो वह वेहल्ल कुमार ही वस्तुत: राज्य-प्राप्ति का फल अनुभव करता हुआ, जीवन का आनन्द लूट रहा है. राजा कणिक नहीं। ऐसी दशा में हमारा इस राज्य-वैभव और इतने बड़े प्रदेश की प्राप्ति का क्या प्रयोजन रह जाता है ? यदि हमारे पास सेचनक गन्धहस्ती ही नहीं है । अब मेरा इसी में श्रेय है कि.मैं यह बात राजा कूणिक से निवेदन कर दू। ऐसा करके अर्थात् यह बात मन में आते ही वह यह निश्चय करती है और निश्चय करते ही वह जहां राजा कूणिक था वहां आती है और वहां पहुंच कर दोनों हाथ जोड़ते हुए इस प्रकार कहती है-"हे स्वामिन् ! जब कि वेहल्ल कुमार ही सेचनक हाथी को पाकर अनेक प्रकार के खेल खेलता है तो हे स्वामी ! इस राज्य-वैभव और इतने विशाल राज्य से हमें क्या लाभ है ? जब कि हमारे पास सेचनक हाथी ही नहीं है ॥६०॥ टोका-इस वर्णन द्वारा सूत्रकार ने व्यर्थ की लोक-चर्चाओं की ओर ध्यान देने के दुष्परिणामों का वर्णन कर दिया है और यह भी बतलाया है कि उस समय पारिवारिक शान्ति भंग हो जाती है जब स्त्रियां देवर जेठ आदि से ईर्ष्या करने लगती हैं। दोनों भाइयों और परस्पर सम्बन्धी राज्यों में भविष्य में जो कलह उत्पन्न हुई वह रानी पद्मावती के हृदय की ईर्ष्या का ही दुष्परिणाम है। इसमें मनुष्य को यथाप्राप्त धन से सन्तुष्ट न रहने का दुष्परिणाम भी बतलाया गया है। स्त्री - हृदय विशेष ईर्ष्यालु होता है, इस मानवीय कमजोरी का भी शास्त्रकार ने सुन्दर चित्रण उपस्थित किया है ।।६०॥ मूल-तएणं से कूणिए राया पउमावईए देवीए एयमठें नो आढाइ, नो परिजाणइ, तसिणीए संचिट्ठइ । तएणं सा पउमावई देवी अभि Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ग-प्रथम] (१०४) [निरयावलिका क्खणं-अभिक्खणं कूणियं रायं एयमझे विन्नवेइ। तएणं से कूणिए राया पउमावईए देवीए अभिक्खणं-अभिक्खणं एयमढ़ विन्नविज्जमाणे अन्नया कयाइ वेहल्लं कुमारं सद्दावेइ, सद्दावित्ता सेयणगं गंधहत्थि अट्ठारसबंकं च हारं जायइ ॥६१॥ छाया-ततः खलु स कूणिको राजा पद्मावत्याः देव्याः एतमथं नो आद्रियते, नो परिजानाति, तूष्णीकः सतिष्ठते। ततः खलु सा पद्मावती देवी अभीषणं-अभीक्ष्णं कणिक राजानं एतमर्थ विज्ञापयति । ततः खलु स कूणिको राजा पद्मावत्याः देव्याः अभीक्षणं - अभीक्ष्णं एतमर्थं विज्ञाप्यमानः अन्यदा कदाचित् वेहल्लं कुमारं शब्दयति, शब्दयित्वा सेचनकं गन्धहस्तिनं अष्टादशवक्रौंच हारं याचते ॥६१॥ पदार्थान्वया-तएणं-तब, से कूणिए राया-वह राजा कूणिक, पउमावईए देवीए-महारानी पद्मावती द्वारा, एयमट्ठ-निवेदित की गई बात को, नो भाद्रियते-कोई आदर नहीं देता अर्थात् उसे कोई महत्त्व नहीं देता, नो परिजाणइ-न ही उसे अच्छा मानता है, तुसिणीए संचिटुइअतः चुप्पी धारण करके बैठा रहता है। तएणं-तब, सा पउमावई देवी-वह महारानी पद्मावती अभिक्खणं-अभिक्खणं-बारंबार, कृणियं रायं-राजा कूणिक के समक्ष, एयम? विनवेइ-वही बात दोहराती है। तएणं-तब, से कूणिए राया-वह राजा कूणिक, पउमावईए देवीए-महारानी पद्मावती के द्वारा, अभिक्खणं-अभिक्खणं-बारम्बार, एयमटुं-उसी बात को, विनविज्जमाणे-कहने पर, अन्नया कयाइ-कुछ समय बाद, वेहल्लं कुमारं सदावेइ-वेहल्ल कुमार को बुलवाता है, सद्दावित्ता और बुलवा कर उससे, सेयणगं गन्धहत्थि-सेचनक गन्धहस्ती, अट्ठारसबकं च हारंऔर अठारह लड़ियों वाला हार, जायइ-मांगता है ।।६१॥ __मूलार्थ-तब वह राजा कूणिक महारानी पद्मावती देवी की बातों को कोई महत्त्व नहीं देता और न ही वह उसकी बातों को अच्छा समझता है. बल्कि (उपेक्षा भाव से) चुप बैठा रहता है । तब वह महारानी पद्मावती बार-बार राजा कूणिक के समक्ष अपनी बात को दोहराती है। इस प्रकार महारानी पद्मावती के द्वारा बार-बार अपनी बातों को दोहराने पर राजा कूणिक कुछ समय के बाद बेहल्ल कुमार को बुलवाता है और बुलवा कर उससे सेचनक गन्धहस्ती और अठारह लड़ियों वाला हार मांगता है ॥६१।। Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरयावलका ] टीका- राजा कोणिक रानी पद्मावती की बातों को लोभ-युक्त, असन्तुष्ट वृत्ति की तथा निरर्थक-सी जान कर उनको कोई महत्व नहीं देता और न ही उन बातों को अच्छा समझता है, अतः वह मुस्करा कर चुप रह जाता है । भाखिर कूणिक राजा था, वह राजनीति को अच्छी तरह समझता था, अत: वह उसे कुछ कहने की अपेक्षा मौन धारण कर लेना ही उचित मानता है । किन्तु 'तिरिया हठ' प्रसिद्ध ही है, अतः रानी हट-पूर्वक बार-बार अपनी बात को दोहराती है । ( १०५ ) बर्ग - प्रथम अनुसार आखिर कूणिक " अन्नया कयाइ" शब्दों "सरी आवत जात ते सिल पर परत निशान" की कहावत के उसकी बातों को मान लेता है, फिर भी उसे टालने का यत्न करता है । द्वारा यह बात व्यक्त होती है कि वह यह समझता रहा कि सम्भवतः समय पाकर पद्मावती शायद हाथी और हार के लोभ को छोड़ दे, किन्तु उसके हठ के सामने आखिरकार उसे झुक जाना पड़ा और उसने वेहल्ल कुमार को बुलवा कर उसके समक्ष हाथी और हार की मांग रख ही दी 1 स्त्री के सामने पुरुष झुक ही जाता है, यह एक मनोवैज्ञानिक सिद्धान्त है ।। ६१ ।। मूल - तणं से, वेहल्ले कुमारे कूणियं रायं एवं वयासी - "एवं खलु सामी ! सेणिएणं रन्ना जीवंतेणं चैव सेयणए गन्धहत्थी अट्ठारसबंके य हारे दिन्ने, तं जइ णं सामी ! तुब्भे ममं रज्जस्स य जणवयस्सय अद्धं दलइ तो णं अहं तब्भं सेयणगं गन्धहृत्थ अट्ठार सबंकं च हारं य दलयामि । तएण से कूणिए राया वे हल्लस्स कुमारस्स एयमट्ठ नो आढाइ, नो परिजाण, अभिक्खणं- अभिवखणं सेयणगं गन्धहत्थ अट्ठार सबंक चहारं जाइ ॥ ६२ ॥ छाया - ततः खलु स बेहल्लः कुमारः कूणिकं राजनमेवमवादीत् — एवं खलु स्वामिन्! श्र ेणिकेन राज्ञा जीवता चैव सेचनको गन्धहस्ती अष्टादशचक्रश्च हारो दत्तः, तद् यदि खल स्वामिन्! यूयं मह्यं राज्यस्य च यावत् जनपदस्य च अर्धं दत्तं तदा खल्वई युष्मभ्यं सेचनकं गन्धहस्तिनम् अष्टादशवक्र चहारं ददामि । ततः खलु स कूणिको राजा वैहल्लस्य कुमारस्य एतमर्थं नो आद्रियने, नो परिजानाति; अभीक्ष्णंअभीक्ष्णं गन्धहस्तिनम् अष्टावश्यक' च हारं याचते ।। ६६ ।। Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बर्ग - प्रथम ] [ निरयावलिका पदार्थान्वयः - तएणं तत्पश्चात्, से वेहल्ले कुमारे- वह वेहल्ल कुमार, कूणियं रायं एवं वयासी—कोणिक राजा को इस प्रकार बोला, एवं खलु सामी - हे स्वामी इस प्रकार निश्चय ही, सेणिणं रन्ना - राजा श्रेणिक ने, जोवतेणं चेव - जीवित अवस्था में ही मुझे, सेयणए गंधहत्थीसेचनक गन्धहस्ती (और), अट्ठारसबंक य हारे दिन्ने अठारह लड़ियों वाला हार दिया था, तं जह णं सामी - इसलिये हे स्वामी मंदि, तुम्भे-प्राप, ममं रज्जस्स- मुझे राज्य का, य-और, जणवयस्स य - जनपद का अद्धं बलइ - आधा भाग देवें, तो णं अहं - तो मैं, तुम्भ-आपको, सेयणयं गंधहस्थि - सेचनक गन्धहस्ती, च- ओर, अट्ठारसबंक च हारं - अठारह लड़ियों वाला हार, दलयामि - दे देता हूं। तणं - तत्पश्चात् से कूणिए राया- वह कोणिक राजा, वेहल्लस्स - वेहल्ल कुमार के, एतमट्ठ - - इस अर्थ (बात को सुन कर नो आढाइ-न तो उसकी बात को आदर देता है, नो परिजाणइ - न उसकी बात मानता है, अभिक्खणं - अभिक्खणं - बार-बार, सेयंणयं गंधहस्थ- सेचनक गन्धहस्ती; अट्ठारसबंक हारं - अठारह लड़ियों वाला हार, जायइ-मांगता है। ( १०६ ) मूलार्थ - तत्पश्चात् उस वेहल्ल कुमार ने कोणिक राजा को सम्बोधित करते हुए इस प्रकार कहा - " हे स्वामी ! निश्चय ही मुझे राजा श्रेणिक ने अपने जीवन-काल में सेचनक गंधहस्ती और अठारह लड़ियों वाला हार दिया था, ( अगर आप इन्हें पाना ही चाहते हैं तो ) हे स्वामी ! आप मुझे राज्य का और जनपद का आधा-आधा भाग दे दें, तो मैं आपको सेचनक गंधहस्ती और अठारह लड़ियों वाला हार दे सकता हूं । तत्पश्चात् राजा कोणिक वेहल्ल कुमार की बात को आदर सम्मान न देता हुआ सेचनक गंधहस्ती व अठारह लड़ियों वाले हार की पुनः पुनः याचना करता है । टीका - प्रस्तुत सूत्र में बेहल्ल कुमार की प्रतिक्रिया व्यक्त की गई है। जब वेहल्ल कुमार से राजा कोणिक ने सेचनक गन्धहस्ती और अठारह लड़ियों वाला हार मांगा तो वेहल्ल कुमार ने उत्तर दिया - हे स्वामी ! ये दोनों वस्तुएं पित। श्री ने मुझे अपने जीवन काल में ही दे दी थीं । इस प्रकार इन वस्तुओं पर मेरा ही अधिकार है। अगर आप इन वस्तुओं को लेना ही चाहते हैं तो मुझे राज्य व जनपद का आधा भाग प्रदान करें, तभी आप ये वस्तुयें ले सकते हैं, अन्यथा नहीं । वेल्ल कुमार का उत्तर न्याय संगत था, परन्तु कोणिक अपनी पटरानी की इच्छा पूर्ति के विरुद्ध कुछ भी सुनने को तैयार नहीं था । वेहल कुमार के कथन का कोणिक पर कोई प्रभाव न पड़ा। वह अपनी बात पर अडिग रहा । प्रस्तुत सूत्र में कोणिक के राज-हठ व स्त्री सम्बन्धी आकर्षण का सूत्रकार ने सुन्दर चित्रण किया है। Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरयावलिका ] ( १०७ ) [ वर्ग - प्रथम मूल - तणं तस्स वेहल्लस्स कुमारस्स कूणिएणं रत्ना अभिक्खणंअभिक्खणं सेणगं गंधहत्थि अट्ठारसबंकं च हारं जाएमाणस्स समाणस्स अयमेयारूवे अज्झत्थिए ४ समुप्पज्जित्था एवं खलु अक्खिविउकामे णं गिहिउकामे णं उद्दाले उकामे णं ममं कृणिए सेयणगं गंधहत्थि अट्ठारसबंकं च हारं तं जाव ममं कूणियं राया (नो जाणइ) ताव (सेयं मे) सेयणगं गंधहत्थि अट्ठारसबंक च हारं गहाय अंतेउरपरियाल संपरिवुडस्स सभंडमत्तोवगरणमायाए चंपाओ नयरीओ पडिनिक्खमइ, पडिनिक्खमित्ता सालीए नयरीए अज्जगं चेडयरायं उवसंपज्जित्ताणं विहरित्तए । एवं संपेहे, संपेहित्ता कुणियस्स रन्नो अंतराणि जाव पडिजागरमाणे- पंडिजागरमाणे विहरइ ||६३॥ छाया - ततः खलु तस्य वेहल्लस्य कुमारस्य कूणिकेन राज्ञा अभीक्ष्णं अभीक्ष्ण सेचनकं गन्धहस्तिनम् अष्टादशवक्रं च हारं याचय माणस्य अयं एतद्रूपः अध्यात्मिकः ४ समुत्पन्नः, एवं खलु आक्षेप्तुकामः खलु, ग्रहीतुकामः खलु आच्छेतुकामः खलु मां कूणिको राजा सेचनकं गन्धहस्तिनम् अष्टादशवक्रं च हारम् तद् यावन्मां कूणिको राजा [नो जानाति ] तावत् [ श्र ेयो मम ] सेचनकं गन्धहस्तिनम् अष्टादशचक्रं च हारं गृहीत्वान्तःपुरपरिवारसंपरिवृतस्य सभाण्डमत्रोपकरणमादाय चम्पाया नगर्याः प्रतिनिष्क्रम्य वैशाल्यां नगर्यामार्यकं चेटकराजमुपसम्पद्य विहर्तुम् । एवं संप्रेक्ष्य कूणिकक्ष्य राज्ञोऽन्तराणि यावत् प्रतिजाग्रत् प्रतिजाग्रत् विहरति ॥६३॥ पदार्थाभ्वयः -- तएणं - तत्पश्चात्, तस्स वेहरूलस्स कुमारस्स- उस वैहल्ल कुमार के, कूणिए रम्ना - कोणिक राजा के द्वारा अभिवढणं- अभिवखणं - वारम्बार, सेयणगं गंधहत्थसेचनक गंधहस्ती को और अट्ठारसबंकं च हार-अठारह लड़ियों के हार को जाएमाणस्समांगते हुए, अयमेयारूवे – इस प्रकार का अज्झस्थिए - आध्यात्मिक (आन्तरिक भाव), समुप्पज्जित्था - उत्पन्न हुआ, एवं इस प्रकार, अक्खिविउकामे णं-झूठा दोष लगाने वाला होने से, गिरिहणकामे णं - ग्रहण करने की इच्छा होने से, उद्दालेउ कामे णं-बलात्कारी की तरह इच्छा रखने वाला होने से, ममं कूणिए राया- मुझ से कोणिक राजा, सेवणगं गंथहत्थि सेवनक गन्धहस्ती, अट्ठारसबंकं च हार अठारह लड़ियों वाला हार, गहाय - ग्रहण कर, अंतेउरपरियाल संपरिवुडस्स - अन्तःपुर एवं परिवार ( दास-दासियों) से घिरा हुआ, सभंडमत्तोवगरणमायाएअपने भण्डोपकरण लेकर, चंपाओ नगरीओ- चम्पा नगरी से, पडिनियम- बाहर निकलता Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ग-प्रथम] (१०८) [निरयावलिका है और, पडिनिक्खमित्ता निकल कर, वेसालीए नयरीए- वैशाली नगरी में, अज्जगं चेयरायं आर्य चेटक राजा के. उवसंपत्तिाण-पास पहंच करके: वितरित्तए- विचरण करूं, एवं- इस प्रकार, संपेहेइ संपे हत्ता-विचार करता है और विचार करके, कणियस्स रस्नो-- कणिक राजा के, अंतराणि-अन्तर (कमियों) को, जाव-यावत्, पडिजागरनमाणेपडिजागरमाणे विहर इ-देखता हुआ विचरता है ।। ६३।। मूलार्थ-तत्पश्चात् उस वेहल्ल कुमार ने राजा कूणिक के द्वारा बारम्बार सेचनक गंधहस्ती और अठारह लड़ियों वाले हार के छीनने के भाव को देखकर उसके मन में यह विचार उत्पन्न हुआ कि इन वस्तुओं के ग्रहण करने का कामी होने से. छीनने का कामी होने से, मुझे यह उचित है कि मैं सेचनक गंधहस्ती और अठारह लड़ियों वाला हार लेकरके, अन्तःपुर से घिरा हुआ, अपने भाण्डोपकरण आदि लेकर, चम्पानगरी से निकलूं और वैशाली नगरी में आर्य चेटक (नाना) के पास चला जाऊ। . वह इस प्रकार विचार करता है और विचार करके राजा कोणिक के अन्तर अर्थात् छिद्रों को देखता हुआ विचरता है। टीका-प्रस्तुत सूत्र में वेहल्ल कुमार की सेचनक गंधहस्ती व अठारह लड़ियों वाले हार से प्रति रक्षा की चिन्ता का वर्णन है । वेहल्ल कुमार को राजा कोणिक की शक्ति का अनुभव है, इस लिए वह सोचता है कि चम्पा में रहते हुए मैं इन वस्तुओं की रक्षा नहीं कर सकता। मेरे लिए सपरिवार चम्पा नगरी को त्याग कर वैशाली में अपने नाना आर्य चेटक के पास जाना ठीक रहेगा। - मनुष्य वहीं जाता है वहां उसके धन-धान्य व परिवार की रक्षा हो सके । इससे वेहल्ल की अपने परिवार के प्रति सहज चिंता प्रतिध्वनित होती है। हर गृहस्थ को अपने परिवार की रक्षा के मामले में इसी तरह रक्षा की चिन्ता करनी चाहिए। इस सूत्र से यह भी ध्वनित होता है कि जिस देश में अपने धन-धान्य की रक्षा न होती हो, राजा प्रजा की अभिलाषाओं से अनभिज्ञ हो, वह देश त्याग देना ही उपयुक्त है। वेहल्ल कुमार ऐसे अवसर की तलाश करने लगा कि कब अच्छा अवसर आये और कब वह चम्पा को छोड़ कर, अपने नाना चेटक के पास चला जाये। प्रस्तुत सूत्र से सिद्ध होता है राजा कोणिक स्वयं गन्धहस्ती व अठारह लड़ियों वाला हार नहीं चाहता था, न ही वह अपने भाइयों से युद्ध करना चाहता था, परन्तु प्राचीन काल से त्रिया-हठ की हजारों कथायें भारतीय इतिहास में मिलती हैं। इस त्रिया-ह के कारण ही मर्यादा पुरुषोत्तम । Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरयावलिका] [वर्ग प्रथम को राज्य की जगह वनवाम मिला । पद्मावती देवी का त्रिया-हठ रथ-मुसल-संग्राम का कारण बना। राजा कोणिक पद्मावती पर पूर्ण रूप से आसक्त था, इसी कारण वह अपनी रानी की बात को टाल न सका। उसने अपनी रानी के कहने पर अपने भाइयों से दोनों वस्तुओं को ले लेने का निश्चय कर लिया। मूल-तएणं से वेहल्ले कुमारे अन्नया कयाई कूणियस्स रन्नो अंतरं जागइ जाणित्ता, सेयणगं गंधहत्थि अट्ठारसबंकं च हारं गहाय अंतेउरपरियालसंपरिवडे सभंडमत्तोवगरणमायाए चंपाओ नयरीओ पडिनिक्खमइ, पडिनिक्खमित्ता जेणेव साली नयरी तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता वेसालीए नयरीए अज्जगं चेडयं रायं उवसंपज्जित्ता णं विहरइ ॥६४॥ छाया-ततः खलु स वेहल्लः कुमारः अन्यदा कदाचित् कूणिकस्य राज्ञोऽन्तरं जानाति, ज्ञात्वा सेचनकं गन्धहस्तिनमष्टादशवकं च हारं गृहीत्वा अन्तःपुरपरिवारसंपरिवृतः सभाण्डमत्रोपकरणमादाय चम्पातो नगरीतः प्रतिनिष्क्रमति, प्रतिनिष्क्रम्य यत्रैव वैशाली नगरी तत्रैवोपागच्छति, उपागत्य वैशाल्यां नगर्यामार्यकं चेटकमुपसंपद्य विहरति ।। ६४ ।। पदार्थान्वय.-तएणं-तत्पश्चात्, से वेहल्ले कुमारे-वह वेहल्ल कुमार, अन्नया कयाइकिसी अन्य समय, कणिकस्य राज्ञो-राजा कूणिक के, अन्तरं जाणाइ--आन्तरिक अर्थात् मानसिक आशय को समझ जाता है, जाणिता-और जान कर, सेयणगं गन्धहत्यि-सेचनक गन्ध हस्ती, अट्ठारस बंकं च हारं-(बोर) मठारह लड़ियों वाले हार को, गहाय-लेकर, अन्तेउर-परियालसंपरिबडे-अपनी रानियों और खङ्ग-रत्नादि तथा अपने समस्त कोष तथा दास-दासी आदि सेवक वर्ग को साथ लेकर, (तथा) सभाण्डमत्रोपकरणम् -बर्तन आदि घरेलू सामग्री को, गहाय - साथ लेकर, चम्पाओ नयरोप्रो-चम्पा नामक नगरी से, पडिनिक्खमइ-बाहर निकल जाता है, पडिनिक्खमित्ता-और बाहर निकल कर, जेणेव साली नयरी-जिधर वैशाली नगरो यो, ते मेर- उधर हा, उबागच्छह-चल पड़ता है, उवापच्छिता-और चल कर, वेसालीए नयरीएवशाली नगरी में, अज्जगं चेडयं-(अपने नाना) आर्य चेटक के, उपसंपज्जित्ता-पास पहुंच कर, पं विहरइ-अपना जोवन-यापन करने लगता है ।।६४।। मूलार्थ-तत्पश्चात् वेहल्ल कुमार जब किसी समय राजा कूणिक के आन्तरिक भाशय को जान जाता है और जानकर सेचनक: गन्ध हस्ती और अठारह लड़ियों वाला Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ग-प्रथम (११०) [ निरयावलिका हार तथा अपनी रानियों, खड्ग आदि हथियारों, दास-दासियों और रत्न आदि को और गृहोपयोगी समस्त बर्तन आदि लेकर (उपयुक्त अवसर पाते ही) चम्पा नगरी से बाहर निकल जाता है और बाहर निकल कर जिधर वैशाली नगरी थी उधर ही चल पड़ता है और चल कर वैशाली नगरी में जहां उसके नाना आर्य चेटक थे उनके पास पहुंचकर अपना जीवन व्यतीत करने लगता है ॥६४॥ टीका-प्रस्तुत सूत्र से ध्वनित होता है कि मनुष्य को जहां कोई व्यक्ति अपना शत्रु जान पड़े और जहां अपने को असुरक्षित समझे वहां से उसे चल देना चाहिये और किसी ऐसे सुरक्षित स्थान पर पहुंच जाना चाहिये जहां वह निर्भय होकर जीवन व्यतीत कर सके। मनुष्य को यथासम्भव ऐसे व्यक्ति के पास जाना चाहिये जो विश्वस्त हो, सबल हो और समय आने पर कुछ सहायता भी कर सके। अतः वेहल्ल कुमार अपने नाना के पास पहुंचा था जो सशक्त राजा थे॥६४।। मूल-तएणं से कूणिए राया इमोसे कहाए लद्धठे समाणे-एव खलु वेहल्ले कुमारे ममं असंविदितेणं सेयणगं गंधहत्थि . अठ्ठारसबंकं च हारं गहाय अंतेउरपरियालसंपविडे जाव अज्जयं चेडयं रायं उवसंपज्जित्ता णं विहरइ, तं सेयं खलु ममं सेयणगं गंधहत्यि अट्ठारसबंकं च हारं आणेलं दूयं पेसित्तए। एवं संपेहेइ, संपेहित्ता दूयं सद्दावेइ, सद्दावित्ता एवं वयासी"गच्छह णं तुम देवाणुप्पिया ! वेसालि नरिं, तत्थ णं तुम मम अज्जं चेडगं रायं करतल० वद्धावेत्ता एवं वयाहि-एवं खल सामी ! कणिए राया विन्नवेइ-एस णं वेहल्ले कुमारे कूणियस्स रन्नो असंविदितणं सेयणगं गंधहत्थि अट्ठारसबंकं च हारं गहाय इह हव्वमागए, तए णं तुन्भे सामी ! कूणियं रायं अणुगिण्हमाणा सेयणगं गंधहत्थि अट्ठारसवंकं च हारं कूणियस्स रन्नो पच्चप्पिणह, वेहल्लं कुमारं च पेसेह ॥६५॥ छाया-ततः खलु स कूणिको राजा अस्याः कथाया लब्धार्थः सन् ‘एवं खलु वेहल्ल्लः कुमारो मम असंविक्तेिन सेचनकं गन्धहस्तिनमाटावशवकच हारं गृहीत्वा अन्तःपुरपरिवारसंपरिवृतो यावद् मार्य राजानमुपसंपद्य खलु विहरति, सईया खलु मम सेचनकं मन्धहस्तिनमष्टादशवकच हारम् , Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरयावलिका) [वर्ग-प्रयम • अनेतुं दूत प्रेषयितुम् । एवं सप्रेक्षते, संप्रेक्ष्य दूतं शब्दयति, शब्दयित्वा एवम वादीत्-गच्छ खलु त्व देवाणप्रिय ! वैशाली नगरी, तत्र खलु त्वं मम आर्य चेटकं राजानं करतल० बर्द्धयित्वा एवं वद-एवं खलु स्वामिन् ! कूणिको राजा विज्ञापयति-एवं खलु वेहल्लः कुमारः कूणिकस्य राज्ञः असविदितेन सेचन गन्धहस्तिनमष्टादशवक्र'चहारंगहीत्वा इह हव्यमागतः, ततः खल ययं स्वामिन! कणिक राजानमनुगृह्णन्तः सेचनक गन्धहस्तिनमष्टादशवकच हारं कणिकस्य राज्ञः प्रत्यर्पयत, बैहल्ल्यं कुमार च प्रषयत ॥६५॥ पदार्थान्त्रय-तएणं-तत्पश्चात् , से कृणिए राया-वह कोणिक राजा, इमोसे कहाए लद्धट्टे समाणे- इस चर्चा के लब्धार्थ होने पर, एवं खलु-निश्चय ही इस प्रकार, वेहल्ले कुमारेवेहल्ल कुमार,. ममं-मुझे, असंविदितेणं-बिना बताये ही, सेयणगं गन्ध हत्थि अट्ठारसबंक च हारं सेचनक गन्धहस्ती और अठारह लड़िया वाले हार को, गहाय-ग्रहण करके, अंतेउरपरियालसंपारवडे-अन्तःपुर के परिवार से घिरा हुआ, जाव-यावत्, अज्जयं चेडयं रायंनाना आर्य चेटक राजा को, उवसंपज्जिताण-शरण ग्रहण करता हुआ, विहरइ-विचरता है, त सेयं खल- तो निश्चय ही यही श्रेष्ठ है, मम सेयणगं गन्धहत्थि--मेरे सेचनक गन्धहस्ती को, चऔर, अट्ठारसबकं च हार-अठारह लड़ियों वाले रत्न हार को वापिस मंगवाने के लिये, दूयं सित्तए-दूत भेजना चाहिये, एवं संपेहेइ, संहिता-इस प्रकार विचारता है और विचार कर, दूयं सद्दावेइ, सद्दावेइत्ता-दूत को बुलाता है और बुलाकर, एवं वयासी-इस प्रकार बोला, गच्छह नं तुम देवाणप्पिया-हे देवानुप्रिय ! तुम जाओ, वेसालि नरि-वैशाली नगरी को, तत्थ णंवहां पर, तुम अज्जं चेडयं रायं-तुम मेरे नाना आर्य चेटक को, करयल बद्धावेत्ता-दोनों हाथ जोडकर और वधाई देकर, एवं वयासी-इस प्रकार कहना, एवं खल सामी-हे स्वामी निश्चय ही इस प्रकार, कूणियस्स राया विनवेइ-कोणिक राजा विनती करता है कि, एस णं वेहल्ले कुमारे-यह वेहल्ल कुमार, कूणियस्स रन्नो- कूणिक राजा को, असंबिंदितेणं-बिना बताये हो, सेयणगन्धहत्थि अट्ठारसबंकं च हारं-सेचनक गंधहस्ती और अठारह लड़ियों वाले हार को, गहाय-ग्रहण करके हन्गमागए-शीघ्र ही यहां आ गया है, तएणं-तो, तन्भे सामी-हे स्वामी प्राप. कणियं रायं राजा कूणिक को, अणुगिरहमाणा - उस पर अनुग्रह (कृपा) करते हुए, अट्ठारसबंकं च हार-सेचनक गंधहस्ती को बोर अठारह लड़ियों के हार को, कूणियस्स रन्नो पच्चप्पिणह-कोणिक राजा को वापिस कर दो, च-और, वेहल्लं कुमारं च पेसह-बेहल्ल कुमार को वापिस भेज दो ॥६५।। मूलार्थ-तत्पश्चात् राजा कोणिक को जब यह समाचार ज्ञात हुआ तो उसने विचार किया -इस प्रकार निश्चय ही वेहल्ल कुमार मुझे बिना बताये सेचनक गंधहस्ती व अठारह लड़ियों के हार को लेकर अंत:पुर के परिवार से घिरा हुआ यावत् Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ग-प्रथम ] (११२) [निरयावलिका अपने नाना चेटक राजा की शरण ग्रहण करता हुआ विचरता है । मुझे निश्चय ही अब यही उचित है कि सेचनक गन्धहस्ती व अठारह लड़ियों वाले हार को प्राप्त करने के लिए दूत भेजना चाहिए। (वह कोणिक) ऐसा विचार करता है, विचार करने के बाद दूत को बुला कर इस प्रकार आज्ञा देता है- "हे देवानुप्रिय ! तुम बैशाली नगरी में जाओ, वहां मेरे नाना आर्य चेटक को दोनो हाथ जोड़ कर वधाई देते हुए, इस प्रकार कहना "निश्चय ही कूणिक राजा प्रार्थना करता है कि वेहल्ल कुमार कोणिक राजा को बिना सूचित किये सेचनक गन्धहस्ती व अठारह लड़ियों वाले वक्र हार को ग्रहण करके, शीघ्र ही यहां आगया है । हे स्वामी ! आप कूणिक राजा पर अनुग्रह करते हुए से चनक गन्धहस्ती व अठारह लड़ियों वाला हार. राजा कूणिक को वापिस लौटा दें। (इसके साथ) वेहल्ल कुमार को भी वापिस भेज दें॥६५॥ टीका-प्रस्तुत सूत्र में राजा कोणिक द्वारा अपने नाना राजा चेटक के पास दूत भेजने का वर्णन है । प्राचीन काल से ही दूत का काफी महत्त्वपूर्ण स्थान रहा है । राज कोणिक दूत को बुलाकर समझाता है कि तुम मेरे नाना चेटक के यहां वैशाली जाओ। उनसे विनयपूर्वक सेचनक गन्धहस्ती, अठारह लड़ियों वाला रत्न हार और वेहल्ल कुमार की मांग करो। सूत्रकर्ता ने यहां करयल बद्धावेत्ता पद-प्रयुक्त किया है। यह समग्र सूत्र इस प्रकार जानना चाहिये करयल परिग्गहिया दुसनहं सरसावत्तं मत्थए अंजलि कटु नएणं विजएणं वद्धावेइ बढावेइत्ता एवं वयासी-प्रर्थात् शिरसा मस्तकेन प्राप्तम्-स्पष्टं शिरसि वा आवर्तः इति शिरस्यावर्तोऽतस्य । जएणं विणएणं वद्धावेति त्ति जयः-सामण्यो विनयादि विषयो विजयः-स एव विशिष्टतरः प्रचण्ड प्रतिपन्थादि विषयः वर्धयति जयते विजयते च बर्द्धस्व स्वमितमित्येवमाशिषं प्रयुक्तेस्मत्वर्थ:-इसका भाव इस प्रकार है कि दोनों हाथ करवद्ध कर शिर से स्पर्श न करता हआ, आवर्तन के साथ जय विजय के शब्दों से वधाई देता। है। क्योंकि जय शब्द सामान्य विघ्नों का नाश करने के अर्थ में आता है। विजय प्रचण्ड शत्रुओं पर विजय के स्वर में कहता है । अर्थात् हे स्वामी ! आपकी जय-विजय में बढ़ावा हो, यह आशीर्वचन है। अणुगिण्हयाणं का अर्थ विनयपूर्वक है। भसंविदितेन का अर्थ विनय-पूर्वक सूचना है ॥६५॥ - मूल-तए णं से दूए कणिएणं० करतला जाव पडिसणित्ता जेणेव सए गिहे तेगेव उवागच्छद, उवामच्छिता जहा चित्तो नाव बद्धाबित्ता Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरयावलिका) (११३) [वर्ग-प्रथम + + + + + एवं वयासी-एवं खलु सामी ! कूणिए राया विन्ननेइ-एस णं नेहल्ले कुमारे तहेव भाणियां जाव वेहल्लं कुमारं च पेसेह ॥६६॥ छाया-तता खलु स दूनः कूणिकेन० करतल० यावत् प्रतिश्रुत्य यत्रव स्वकं गृहं तत्रैवोपागच्छति, उपागत्य यथा चित्तो यावद वर्द्धयित्वा एवमवादीत एवं खल स्वामिन ! कणिको राजा विज्ञापयति-एवं खलु वेहल्लः कुमारस्तथैव भणितव्यं यावद् वेहल्लं कुमारं प्रेषयत ॥६६।। ___ पदार्थान्वयः-तएणं-तत्पश्चात्, से दूए-वह दूत, कूणिएणं करयल जाव पडिसुणित्ताकोणिक राजा के समीप दोनों हाथ जोड़कर यावत् उसके कथन को सुन कर, जेणेव सए गहे--जहां उसका अपना निवास था, तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता-वहां पर आया और आकर यावत्, जहा चित्तो-जैसे चित सारथी ने किया था, जाव-यावत्, बद्धावित्ता-वधाई देकर, एवं वयासोइस प्रकार बोला, एवं खलु सामी-इस प्रकार निश्चय हो हे स्वामी, कोणिए राया विन्मवेइ-राजा कोणिक निवेदन करता है, एस णं वेहल्ले कुमारे-यह वेहल्ल कुमार के सम्बन्ध में, तहेव भाणियव्वंइस प्रकार से कहना, जाव-यावत्, वेहल्लं कुमारं पेसह-वेहल्ल कुमार को (मेरे पास) भेज दे। मूलार्थ-तत्पश्चात् वह दूत कोणिक राजा के समीप दोनों हाथ जोड़ कर यावत् उस (कोणिक) के कथन को सुनता है और सुनकर, जहां उसका गृह था, वहां आता है। वहां से चल कर चित सारथी की तरह, (वैशाली पहुंचा और वहां) वधाई देकर (वैशाली नरेश राजा चेटक से) इस प्रकार बोला-"हे स्वामी निश्चय ही राजा कोणिक (मेरे स्वामी) ने निवेदन किया है कि आप वेहल्ल कुमार को यावत् सेचनक हाथी, अठारह लड़ियों वाला हार वापिस भेज दो ॥६६॥ टोका-तब दूत ने कोणिक राजा की बात ध्यान से सुनी तो दूत तैयार होकर, चित सारथी की तरह वैशाली नगरी में राजा चेटक के दरबार में पहुंचा। दूत ने राजा कोणिक के मन की इच्छा महाराजा चेटक को बताई। सारथी के लिये "महा चित्तो" पद आया है वृत्तिकार ने इसकी व्याख्या इस प्रकार की है। 'जहाचित्तो' ति राजप्रश्नीये द्वितीयोपाङ्ग यथा श्वेताम्बी नगर्याश्चितो ना दूतः प्रदेशिराज्ञा प्रेषितः, श्रावस्त्यां नगाँ जितशत्रु समीपे स्वगृहानिर्गत्य गतः तथाऽयमपि । कोणिक नामको राजा यथा एवं विहल्ल कुमारोऽपि । अर्थात् जैसे राय प्रश्नीय उपांग में राजा प्रदेशी द्वारा श्वेताम्विका नगरी से जितशत्रु के पास Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ग-प्रथम] (११४) निरयावलिका श्रावस्ती नगरी में दूत भेजने का वर्णन है यहां वही वर्णन जानना चाहिये । इस सूत्र में दूत की विनम्रता, आज्ञा-पालन स्वामी भक्ति व कर्तव्य-परायणता का अच्छा दिग्दर्शन कराया गया है । दूत वही कहता है जो कोणिक राजा ने आदेश दिया था, दूत की तैयारी के लिये चितसारथी का प्रकरण यहां दोहराया गया है ।। ६६।। मूल-तए णं से चेडए राया तं दूयं एवं वयासी-जह चेव णं देवाणुप्पिया ! कणिए राया सेणियस्स रन्नो पुत्ते चल्लणाए देवीए अत्तए ममं नत्तए तहेव णं नेहरले वि कुमारे सेणियस्स रन्नो पुत्ते, चेल्लणाए देवीए अत्तए मम नत्तुए, सेणिएणं रन्ना जीतेणं चैव हल्लस्स कुमारस्स सेयणगे गंधहत्थि अट्ठार सबं के हारे पुवदिन्ने, तं जइ णं कूणिए राया वेहल्लस्स रज्जस्स य रहस्स य जणवयस्स य अद्धं दलयइ तो णं सेयणयं गंधहत्थि अट्ठार सबंकं च हारं कूणियस्स रन्नो पच्चप्पिणामि, नेहल्लं च कुमारं पेसेमि । तं दूयं सरकारेइ संमाणेइ पडिविसज्जेइ ॥६७॥ छाया-ततः खलु स चेटको राजा तं दूतमेवमवादीत् यथैव खलु देवानप्रिय ! कणिको राजा श्रोणिकस्य राज्ञः पुत्रः, चेल्लनायाः देव्या आत्मजः मम नप्तकः, तथैव खल वैहल्लोऽपि राज्ञः पुत्रः, चेल्लनाया देव्या आत्मजो, मम नप्तकः । श्रेणिकेन राज्ञा जीवता चैव बेहल्लाय कुमाराय सेचनको गन्धहस्ती अष्टादशवको हारः पूर्वदित्तः, तद् यदि खलु कूणिको राजा वेहल्लाय राज्यस्य च राष्ट्रस्य च जनपदस्य चाद्धं ददाति तदा खलु सेचनक गन्धहस्तिनम् अष्टादशवकच हारं कूणिकाय राजे प्रत्यर्पयामि, वेहल्लं च कुमारं प्रेषयामि । तं दून सत्करोति सम्मानयति प्रतिविसर्जति ।। ६७।। पदार्थान्वयः-तएणं - तत्पश्चात्, से चेडए राया--वह चेटक राजा, तं दूयं-उस दूत को, एवं वयासी-इस प्रकार बोला, जह चेव णं देवाणप्पिया-जैसे कि हे देवानुप्रिय जिस प्रकार, कणिए राया सेणियस्स रन्नो पत्ते-कोणिक राजा, श्रेणिक राजा का पुत्र है, चेल्लणाए देवीए अत्तए चेलना रानीका आत्मज है, ममं नत्तए-मेरा नाती (दोहता) है, तहेवणं-वैसे ही, वेहल्ले वि कुमारेवेहल्ल कुमार भी, सेणियस्स रन्नो प्रत्ते-श्रेणिक राजा का पुत्र है. चेलणाए देवीए अत्ता-चेलना देवी का आत्मज है, मम नत्तुए-और मेरा बोहता है। सेणिएणं रनो-श्रेणिक राजा ने, जीवन्तेणंचेवअपने जीवन-काल में ही, वेहल्लस्स कुमारस्स-वेहल्ल कुमार को, सेयणगे गंधहत्यी-सेचनक गन्धहस्ती, अट्ठारसबंके य हारे पुन्वदिन्ने-अठारह लड़ियों वाला वक्र हार पहले दिया था, तंजइ णं Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरयावलिका) (११५ ) [वर्ग-प्रथम तो यदि, कृणिए राया-कोणिक राजा, वेहल्लस्स-वेहल्ल कुमार को, रज्जस्स य रटुस्स य जणवयस्सय-राज्य, राष्ट्र और जनपद का, अद्धं दलयइ-आधा भाग दे दे, तो णं अहं-तो मैं, सेयणगं गन्धहत्थि अट्ठारसबंक हारं च-सेचनक गन्धहस्ती व अठारह लड़ियों वाला वक्र हार, कृणियस्स रन्नो पच्चप्पिणामि-कोणिक राजा को लौटा सकता हूं, वेहल्लं च कुमार-और वेहल्ल कुमार को भी, पेसेमि-भेजता हूं। ऐसा कह कर, तं दूयं-उस दूत, को, सक्कारेइ संमाणे इ-सत्कार व सम्मान देता है और, पडिविसज्जेइ - विसर्जन (विदा) करता है ।।६७॥ · मूलार्थ-तत्पश्चात् वह राजा चेटक उस दूत को इस प्रकार कहने लगा "हे देवानुप्रिय ! जिस प्रकार राजा कोणिक, राजा श्रेणिक का पुत्र, महागनी चेलना का आत्मज और मेरा दोहता है उसी तरह वेहल्ल कुमार भी श्रेणिक राजा का पुत्र व रानी चेल्लना का आत्मज है और मेरा दोहता है। श्रेणिक राजा ने अपने जीवन-काल में ही वेहल्ल कुमार को सेचनक गंधहस्ती व अठारह लड़ियों वाला वक्र हार प्रदान किया था। अगर राजा कोणिक इन दोनों वस्तुओं को प्राप्त करना चाहता है तो वह वेहल्ल कुमार को आधा राज्य राष्ट्र और जनपद प्रदान करे। ऐसा करने पर कोणिक को सेचनक गन्धहस्ती व अठारह लड़ियों वाला वक़ हार मैं वापिस कर दूंगा। इसके साथ वेहल्ल कुमार को भी वापिस भेज दूंगा। इस कथन के बाद वह दूत का सम्मान करता है. सत्कार करता है और दूत को विजित (वापिस) भेजता है । टीका-जब दूत ने वैशाली गणराज्य के राजा चेटक से सेचनक हाथी व अठारह लड़ियों वाला हार और वेहल्ल कुमार की वापसी के बारे में अपने स्वामी राजा कोणिक का संदेश दिया तो राजा चेटक ने अपनी न्याय-प्रियता, सज्जनता, निडरता का उदाहरण प्रस्तुत करते हुए, स्पष्ट वादिता का सहारा लिया। राजा चेटक ने परम्परागत ढंग से दूत सम्बन्धी सभी कर्तव्यों का पालन किया, दूत का मान-सम्मान भी किया। साथ में यह भी कहलाकर भेजा कि अगर राजा कोणिक इच्छित वस्तुएं व वेहल कुमार की वापसी चाहता है तो वह अपना प्राधा राज्य वेहल्ल कुमार को प्रदान कर दे। वस्तु वही लौटाई जाती है जो दी जाये। जो वस्तु दी ही नहीं गई उसे वापिस मांगना निरर्थक है । फिर वेहल्ल कुमार ने अपने नाना के यहां इसी लिये शरण ग्रहण की थी क्योंकि वह जानता था कि मेरे नाना न्याय-प्रिय आदर्शवादी व सत्यवादी राजा हैं। ऐसे गुण व शक्ति-सम्पन्न राजा की शरण हर ढंग से कल्याणकारी है। दूत के वेहल्ल कुमार व सेचनक गन्धहस्ती अठारह लड़ियों वाला हार मांगने पर राजा चेटक ने अपनी न्याय-प्रियता का प्रमाण देते हुए कहा कि मेरे लिये कोणिक और वेहल्ल कुमार Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ग-प्रथम] ( ११६) [निरयावलिका में कोई रिश्ते का का भेद नहीं है । शक्ति के सहारे मैं ये वस्तुएं वापिस नहीं कर सकता । मगर राजा कोणिक अपने राज्य का प्राधा भाग वेहल्ल कमार को प्रदान करे तभी यह सब सम्भव है प्रस्तुत सत्र से ये भी पता चलता है कि राजा चेटक के समय राजा श्रेणिक मर चुका था। शास्त्रकार ने स्पष्ट कहलवाया है कि दोनों वस्तुएं राजा श्रेणिक ने वेहल्ल कुमार को अपने जीवनकाल में ही दी थीं। इसलिये इन वस्तुओं को मांग बेकार है। पर उपयुक्त उत्तर राजा कोणिक की भावना के विपरीत था क्योंकि राजा कोणिक तो लोभ में फंसा होने के कारण अपने पराये की पहचान ही खो बैठा था ॥६७॥ उत्थानिका-इसी विषय में आगे क्या हुआ सो कहते हैं मूल-तए णं से दूए चेडएणं रन्ना पडिविसज्जिए समाणे जेणेव चाउग्घंटे आसरहे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता चाउग्घंटं आसरहं दूरुहइ, दूरुहित्ता वेसालि नरि मज्झं-मज्झेणं निग्गच्छइ, निग्गच्छित्ता सुहेहि वसहिपायरासेहिं जाव वद्धावित्ता एवं वयासो-एवं खलु सामी ! चेडए राया आणवेइ-जह चेव णं कूणिए राया सेणियस्स रन्नो पुत्ते चेल्लणाए देवीए अत्तए मम नत्तुए, तं चेव भाणियव्वं जाव वेहल्लं च कुमार पेसेमि । तं न देइ सामी ! चेडए राया सेयणगं गंधहत्थि अट्ठारसबंक च हारं, वेहल्लं नो पेसेइ ॥६॥ छाया-तत खलु स दूतः चेटकेन राज्ञा प्रतिविजितः सन् यत्रय चतुर्घण्टः अश्वरथस्तत्रैवोपागच्छति, उपागत्य चतुर्घण्टमश्वरथं दूगेहति, दूरुह्य वैशाली नगरी मध्यंमध्येन निर्गच्छति, निर्गत्य शुभवसतिप्रातराशेर्यावद् वर्धयित्वा एवमवादीत् एवं खलु स्वामिन् । चेटको राजा आज्ञापयतियथैव खलु कूणिको राजा घोणिकस्य राज्ञ पुत्रः, चेल्लनाया देव्या आत्मजः मम नप्तकः, तदेवं भणितव्यं यावद् वेहल्लं च कुमारं प्रेषयामि । तन्न ददाति खलु स्वामिन् ! चेटको राजा सेचनक मन्धहस्तिनम् अष्टादशव च हारं वेहल्लं च नो प्रेषयति ॥६८।। पदार्थान्वय:-तएणं-तत्पश्चात्, से दूए-वह दूत, चेडएणं रन्ना पडिविसज्जिए समाणेराजा चेटक द्वारा विसर्जित होने पर. जेणेव चाउग्घण्टे आसरहे-जहां पर चार घण्टों वाला अपना अश्वरथ था अर्थात् जिस अश्व-रथ के चारों ओर घंटे बांधे हुए थे, तेगेव -वहां पर, उवागच्छइ - Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ वर्ग निरयावलिका ] ( ११७ ) आता है, उवागच्छित्ता - श्राकर, चाउरघण्टं आसरहं दुरुहइ - उस चार घंटों वाले अश्व - रथ पर आरूढ़ होकर, वेसालि नयर- वैशाली नगरी के, मज्झमज्झेणं-बीचों-बीच होता हुआ, निगच्छइ जाता है, निगच्छित्ता - जाकर, सुभह व सहीहि मार्ग में अच्छे ठिकानों में विश्राम करता हुआ, पायरासे हि - प्रातःकालीन जलपान करके, जाव वद्धावित्ता एवं वयासी - यावत् बधाई देकर, इस प्रकार बोला, एवं खलु सामी - हे स्वामी निश्चय ही, चेडय राया आणवेइ - चेटक राजा इस प्रकार कहता है, जह चेत्र गं कूणिए राया-जैसे कोणिक राजा, सेनियस्स रन्नो पुत्तेश्रेणिक राजा का पुत्र, चेलणाए देवाए बत्तए - चेलना देवी का आत्मज है, मम नुत्तए - मेरा दोहा है, तं चैव भाणियम्बं - इस प्रकार से कहना, जाव - यावत् ( अर्थात् वेहल्ल कुमार भी राजा श्रेणिक का पुत्र चेलना देवो का आत्मज और मेरा दोहता है), वेहल्लं च कुमारं पेसेमि - वेहल्ल कुमार को वापिस भेज दूंगा, तं न देइ णं सामी - वस्तुतः हे स्वामी वह नहीं देता, चेडय रायाचेटक राजा, सेवणगं गन्धहत्थि अट्ठारसबंक हारं च - सेचनक गन्धहस्ती व अठारह लड़ियों वाला हार, वेल्लं च नो पेसेइ - अ. र वेहल्ल कुमार को भी नहीं भेजना चाहता || ६८ ।। - प्रथम मूलार्थ - वह दूत राजा चेक द्वारा बापिस भेज देने पर जहां दूत का चार घण्टों वाला अश्व-रथ' खड़ा था वहां आता है, आकर चतुर्घण्टक अश्वरथ पर आरूढ़ होता है आरूढ़ होकर वैशाली नगरी के बीचों-बीच से होता हुआ बाहर आकर सुखमय स्थानों में विश्राम करता है । प्रात: काल का अशन करता है ( अर्थात् सुबह का अल्पहार करता है) और फिर राजा कोणिक के पास आता है, यावत् वधाई देकर इस प्रकार कहता हैहे स्वामी ! निश्चय ही चेटक राजा इस प्रकार कहता है कि कोणिक पुत्र, चेल्लना देवी का आत्मज व मेरा दोहता है, इसी प्रकार वेहल्ल कुमार भी है यावत् पूर्व कथनानुसार वेहल्ल कुमार को समय आने पर भेज दूंगा । हे स्वामी ! वस्तुतः चेटक राजा सेचनक गंधहस्ती व अठारह लड़ियों बाला हार और वेहल्ल कुमार को देने के लिये तैयार नहीं ॥ ६८ ॥ राजा श्रेणिक का टीका - प्रस्तुत सूत्र में दूत के वैशाली आगमन का वर्णन है दूत चार घण्टों वाले अश्वरथ पर आरूढ़ होकर गया था, इस सुन्दर रथ के चारों ओर घण्टे लगे हुए थे । दूत रास्ते में सुखमय स्थानों पर ठहरा, अर्थात् वैशाली से लेकर चम्पा नगरी तक उसे कोई असुविधा नहीं हुई । दूत सीधा अपने स्वामी राजा कोणिक के पास पहुंचा । वैशाली नरेश का सेचनक गन्धहस्ती, अठारह लड़ियों वाला हार व वेहल्ल कुमार सम्बन्धी सारा सन्देश सुनाता है। निम्नलिखित सन्देश ही राजा कोणिक के क्रोध का कारण बना है जब दूत राजा चेटक को यह बात बतलाता है। Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ग-प्रथम (११८) [निरयावलिका न देइ णं सामी ! चेडए राया सेयणग गन्धहत्थि अट्ठारसबक हारं च वेहल्लं न पेसेइ । दूत द्वारा प्रयुक्त रथ के. वारे में टीकाकार का कथन है। 'चाग्घंट' त्ति चतस्रो घण्टाश्चतसृष्वपि दिक्षु अवलम्बिता यस्य त चतुर्घण्टो रथः। दूत के सफर के बारे में वृत्तिकार ने कहा है सुभेहि वसहोहिं पायरासेहि, ति प्रातराशः आदित्योदयादेवाद्यप्रहरद्वयसमयवर्ती भोजनकालः निवाराश्च-निर्वसनभमागः तो द्वावपि सखडेतको न पीडाकारिणौ-अर्थात उसका सारा सफर मानंदमय रहा सुबह का भोजन दूत ने सुखपूर्वक किया। भोजन करने के पश्चात् वह कोणिक से मिला। दूत का सन्देश कोणिक राजा की इच्छा के सर्वथा प्रतिकूल था ॥६॥ उत्थानिका-तब राजा कोणिक ने फिर क्या किया, अब सूत्रकार इस विषय में कहते हैं मूल-तएणं से कूणिए राया दुच्चं पि दूयं सद्दावित्ता एवंवयासीगच्छह णं तमं देवाणुप्पिया ! वेसालि नरि, तत्थ णं तमं मम अज्जगं चेडगं रायं जाव एवं वदाहि-एवं खलु सामी !.कूणिए राया विनवेइजाणि काणि रयणाणि समप्पज्जति सव्वाणि ताणि रायकुलगामीणि, सेणियस्स रन्नो रज्जसिरि करेमाणस्स पालेमाणस्स दुवे रयणा समुप्पन्ना, तं जहा-सेयणए गंधहत्थी, अट्ठारसबंके हारे, तण्णं तब्भे सामी ! रायकुलपरंपरागयं ठिइयं अलोवेमाणा सेयणगं गन्धहत्थि अट्ठार सबंक हारं कूणियस्स रन्नो पच्चप्पिणह, वेहल्लं कुमार पेसेह। ___तएणं से दूए कूणियस्स रन्नो तहेव जाव वद्धावित्ता एवं वयासोएवं खलु सामी ! कूणिए राया विन्नवेई - जाणि काणित्ति जाव वेहल्लं कुमारं पेसेह ॥६६॥ छाया-ततः खल स कूणिको ताजा द्वितीयमपि दूतं शब्दयित्वा एवमवादीत्-गच्छ खलु त्वं देवानुप्रिय ! वैशाली नगरौं, तत्र खलु त्वं मम आर्यक चेटकं राजानं यावत् एवं वद-एवं खलु स्वामिन् ! कूणिको राजा विज्ञापयति-यानि कानि रत्नानि समुत्पद्यन्ते सर्वाणि तानि राजकुलगामीनि, श्रेणिकस्य राज्ञो राज्यश्रियं कुर्वतः पालयतो द्वे रत्ने समुत्पन्ने, तद्यथा-सेचनको गन्धहस्ती, अष्टादशवको हारः, Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरयावलिका) (११६) [बर्ग-प्रथम . तत्खल ययं स्वामिन् ! राजकुलपरम्रागतां स्थितिमलोपयन्तः सेचनकं गन्धहस्तिनम् अष्टादशवक्र च हार कणिकाय राज्ञे प्रत्यर्पयत, वेहल्लं कमारं प्रेषयत ततः खलु स दूतः कूणिकस्य राजस्तथैव यावद् वर्धयित्वा एवमवादीत्-एवं खलु स्वामिन् ! कूणिको राजा विज्ञापयति-यानिकानीति यावत् वेहल्ल कुमारं प्रषयत ॥६६॥ पदार्थान्वय'-तएर्ण-तत्पश्चात्, से कणिए राया- कूणिक राजा ने, दुच्च पि दयं सहाबित्ता-दूसरे दूत को बुला कर, अपि-संभावना अर्थ में है, एवं वयासी-इस प्रकार कहा, गच्छह णं तुम देवाणुप्पिया - हे देवानुप्रिय तुम जाओ, वेसालि नरि-वैशाली नगरी को, तत्थ णं तुम मम अज्जगं-वहां तुम मेरे आर्य नाना, चेडगं रायं-चेटक राजा को, जाव-यावत्, एवं वयासो- इस प्रकार कहना, एवं खलु सामो-हे स्वामी निश्चय हो, कणिए राया विन्नवेइकोणिक राजा इस प्रकार कहता है, जाणि काणि रयणाणि-जो कोई भी रत्न, समुप्पज्जन्तिराज्य में उत्पन्न होते हैं, सव्वाणि ताणि-वे सब, रायकुलगामोणि- राज्य-कुल में ही पहुंचाये जाते हैं, सेणियस्स रन्नो-श्रेणिक राजा के, रज्जसिरि करेमाणस्स-राज्य श्री को करते हुए के, पालेमाणस्स-पालन करते हुए, दूबे रयणा समुप्पन्ना-दो रत्न उत्पन्न हुए, तं जहा-जैसे कि, सेवणए गन्धहत्थी, अट्ठारसबंके हार-सेचनक गन्धहस्ती व अठारह लड़ियों काला वक्र हार, तणं तुम्भ सामो -तो आप हे स्वामो, रायकुलपरंपरागय ठिइयं-राज्य कुल की परम्परागत स्थिति को, अलोवेमाणा-लुप्त न करते हुए, सेयणगं गन्धहत्थि अट्ठारसबंक च हार-सेचनक गन्धहस्ती पौर अठारह लड़ियों वाला हार, कुणियस्स रन्नो पच्चप्पिणह-राजा कूणिक को वापिस लौटा दो वेहल्ल कुमारं पेसेह-और वेहल्ल कुमार को भी वापिस भेज दो। तएणं से दूए-तदनन्तर वह दूत, कुणियस्स रन्नो-राजा कूणिक का, तहेव जाव वद्धा. वित्ता-उसी प्रकार से वर्धापन देकर, एवमवादीत्-इस प्रकार बोला, एवं खलु सामी-इस प्रकार हे स्वामिन् ! कूणिए राया विन्नवेइ-राजा कूणिक पापको सूचित करता है, जाणि काणित्ति-जैसे भी हो वैसे, वेहल्लं कुमारं पेसेह-वेहल्ल कुमार को वापिस लौटा दो ॥६९।। मूलार्थ-तत्पश्चात् वह कोणिक राजा दूसरे दूत को बुलाता है बुलाकर इस प्रकार कहता है -“हे देवानुप्रिय ! तुम मेरे नाना राजा चेटक को यावत् इस प्रकार कहो हे स्वामी ! निश्चय ही राजा कूणिक इस प्रकार कहता है कि जो कोई रत्न राज्य में उत्पन्न होते हैं वे सब राज कुल में पहुंचाये जाने वाले होते हैं । श्रेणिक राजा के राज्य काल में दो रत्न उत्पन्न हुए थे सेचनक गन्धहस्ती व अठारह लड़ियों वाला हार । Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बर्ग-प्रथम] ( १२०) [निरयावलिका आप राज्य-कुल परम्परा को अक्षुण्ण रखते हुए सेचनक गन्धहस्ती व अठारह लड़ियों वाला हार राजा कोणिक को वापिस लौटा दो और वेहल्ल कुमार को भी वापिस भेज दो। तत्पश्चात् वह दूत राजा कूणिक को पूर्ववत् नमस्कार करके चला गया और वैशाली पहुंच कर राजा चेटक को हाथ जोड़ कर वधाई देता हुआ इस प्रकार बोलानिश्चय ही हे स्वामी ! राजा कृणिक आपसे निवेदन करता है कि जो भी राज्य के रत्न पदार्थ होते हैं वे राजा के ही होते हैं, अत: आप सेचनक गन्धहस्ती, अष्टादश वक्र हार और वेहल्ल कुमार को राजा कोणिक के पास भेज दो ॥६६॥ टीका-प्रस्तुत सूत्र में राजा कोणिक द्वारा दूसरी बार दूत भेजने का वर्णन है जिसमें पुन: सेचनक गंधहस्ती अठारह लड़ियों वाला हार व वेहल्ल कुमार की वापसी की मांग दोहराई गई है। साथ में राजा कोणिक ने यह तर्क प्रस्तुत किया है कि जो रत्न किसी भी राजा के राज्य में पैदा होले हैं उनका स्वामी राजा ही होता है। राजा श्रेणिक के राज्यकाल में ये दो रत्न उत्पन्न हुए थे। राजा श्रेणिक के परिवार से सम्बन्धित होने के कारण इन.वस्तुओं पर राज - कुल का ही अधिकार है। इस परम्परा का पालन करते हुए आपको ज्यादा आग्रह नहीं करना चाहिये । राजा कूणिक ने अपने मगध साम्राज्य के ग्यारह भाग किये थे। इन दोनों वस्तुओं के भाग नहीं हो सकते थे, अत ये वस्तुएं राजा कूणिक को वापिस लौटा देनी चाहिए। इसके साथ ही वेहल्ल कुमार को भी वापिस लौटाया जाए । वृत्तिकार ने इस विषय को स्पष्ट करते हुए कहा है - रायकुल-परम्परागयं ठिइयं अलोवेमाणे त्ति-एवं परम्परामलोपयन्तः अर्थात् राज-कुल की परम्परागत स्थिति को लोप नहीं करना चाहिये। राज-कुल की परम्परामों का पालन करना प्रत्येक राजा का प्रथम कर्तव्य है ।।६६।। मूल-तएणं से चेडए राया तं दूयं एवं वयासी-जह चेव णं देवाणुप्पिया ! कूणिए राया सेणियस्स रन्नो पुत्ते, चेल्लणाए देवीए अत्तए जहा पढमं जाव वेहल्लं च कुमारं पेसेमि, तं दूयं सक्कारेइ संमाणेइ पडिविसज्जेइ ॥७॥ छाया-ततः खलु स चेटको राजा तं दूतमेवमवावीत् -यथा चैव खलु देवानुप्रिय ! कूणिको राजाणिकस्य राज्ञः पुनः चेल्लनाया देव्या आत्मजः, यथा प्रथमं यावद् वेहल्लं च कुमारं प्रेषयामि । तं दूतं सत्करोति सम्मानयति प्रतिविसर्जयति ।।७।। Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरधावलिका । ( १२१ ) [ वर्ग - प्रथम पदार्थान्वयः –तएणं – तत्पश्चात् से चेडए राया - वह राजा चेटक, तं दूयं एवं वयासीउस दूत को इस प्रकार बोला, जह चेव णं देवाणुप्पिया- जंसे हे देवानुप्रिय ! निश्चय ही, कूणिए राया सेणियस्स रन्नो पुत्ते कोणिक राजा श्रेणिक का पुत्र है, चेल्लणाए देवीए अत्तए - चलन देवी का आत्मज है, जहा पढमं जैसे पहले कहा जा चुका है, जाव - यावत्, वेहल्लं च कुमारं पेसेमि - मैं वेहल्ल कुमार को भेज दूंगा, तं दूयं सक्कारेइ संमाणेइ - उस दूत का सम्मान सत्कार करता है, पडिविसज्जेइ - और उसे विसर्जित करता है ||७० ।। मूलार्थ - तत्पश्चात् वह राजा चेटक उस दूत को इस प्रकार कहने लगा देवानुप्रिय ! निश्चय ही राजा कोणिक श्रेणिक राजा का पुत्र और चेलना देवी का आत्मज है, जैसे पहले कहा जा चुका है ( उसी प्रकार राजा चेटक ने दूत को उत्तर दिया) यावत् वेहल्ल कुमार को भेजता हूं आदि। वह उस दूत का सत्कार-सम्मान करता है इसके बाद दूत को विदा करता है || ७०|| टीका - प्रस्तुत सूत्र में राजा श्रेणिक का दूत वैशाली सम्राट् चेटक को जो संदेश देता है उसी का उत्तर चेटक राजा दूत को देता है। यह उत्तर वही है जो उसने प्रथम दूत को दिया था । वह यह कि अगर कोणिक राजा सेचनक गंधहस्ती व अठारह लड़ी वाला हार चाहता और वेहल्ल कुमार की वापसी चाहता है तो अपना आधा राज्य प्रदान करे तभी उसे ये दोनों वस्तुएं प्राप्त हो • सकती हैं ||७० || उत्थानिका—दूत ने आकर राजा कोणिक से जो निवेदन किया अब सूत्रकार इसी विषय में कहते हैंमूल-लएणं से दूए जाव कूणियस्स रन्नो वद्धावित्ता एवं वयासीचेडए राया आणवेइ - जह चेव णं देवाणुप्पिया ! कूणिए राया सेणियस्स रन्नो पुत्ते चेल्लाए देवीए अत्तए जाव वेहल्लं कुमारं पेसेमि, तं न देइ सामी ! चेडए राया सेयणगं गंधहत्थि अट्ठारसबंकं च हारं वेहलं कुमारं नो पेसेइ ॥७१॥ छाया - ततः खलु स दूतो यावत् कूणिकंय राजानं वर्धयित्वा एवमवादीत् - चेटको राज्ञा आज्ञापयति-यथा चैव खलु देवानुप्रिय ! कूणिको राजा श्रेणिकस्य राज्ञः पुत्रः चेल्लनाया देव्या आत्मज यावद् वेहल्लं कुमारं प्रेषयामि, तन्न ददाति खलु स्वामिन् ! चेटको राजा सेचनकं गन्धहस्तिनम् 'अष्टादश व च हार, वेल्लं कुमारं नो प्रोषयति ॥ ७१ ॥ Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ग-प्रथम ] ( १२२) [निरयावलिका पदार्थांन्वय:-तएणं-तत्पश्चात्, से दूए-वह दूत, कणियरस रन्नो-कोणिक राजा को. वद्धावेत्ता-वधाई देकर, एवं वयासी-इस प्रकार कहने लगा. चेडए राया-राजा चेटक. आणवेइ-भाव प्रकट करता है कि, जह चेत्र णं देवाणुपिया-निश्चय ही हे देवानुप्रिय जैसे, कूणिए राया-कोणिक राजा, सेणियस्स रन्नो पुत्ते-श्रेणिक राजा का पुत्र, चेल्लणाए देवीए अत्तए-चेलना देवी का आत्मज है, जाव०-यावत्, वेहल्लं कुमारं पेसेमि-वेहल्ल कुमार को भेजता हूं, त न देई णं सामी-तो हे स्वामी ऐसा प्रतीत होता है कि वह नहीं देगा, चेडए राया-चेटक राजा, सेयणगं गन्धहत्थि-सेचनक गन्धहस्ती को और, अट्ठारसबंक हारं-अठारह लड़ियों वाला हार, वेहल्लं कुमारं नो पेसेइ - वेहल्ल कुमार को भी वापिस नहीं भेजेगा ।।७१॥ मूलार्थ-तत्पश्चात् वह दूत कोणिक राजा को जय-विजय के साथ वधाई देकर इस प्रकार कहने लगा-“हे देवानुप्रिय ! निश्चय ही राजा चेटक यह भाव प्रकट करता है कि कोणिक राजा श्रेणिक राजा का पुत्र, चेलना देबी का आत्मज है यावद् मैं वेहल्ल कुमार को भेजदूंगा, तो हे स्वामी! चेटक राजा सेचनक गंधहस्तो व अठारह लड़ियों वाले हार को वापिस नहीं करेगा और वेहल्ल कुमार को वापिस नहीं भेजेगा (ऐसा प्रतीत होता है) ॥७१॥ टीका-प्रस्तुत सूत्र में दूत ने वैशाली नरेश द्वारा दिये गए उत्तर का वर्णन अपने स्वामी राजा कोणिक से किया है । दूत का यह उत्तर दूत की निर्भयता का चित्रण करता है। उत्थानिका-दूत के उत्तर को सुनकर राना कोणिक ने क्या किया उसे आगे कहते हैं मूल-तएणं से कूणिए राया तस्स यस्स अंतिए एयमट्ठ सोच्चा निसम्म आसुरुत्ते जाव मिसिमिसेमाणे तच्चं दूयं सद्दावेइ, सद्दावित्ता एवं वघासी-गच्छह णं तुमं देवाणुप्पिया ! वेसालीए नयरीए चेडगस्स रन्नो वामेणं पाएणं पायपीढं अक्कमाहि, अक्कमित्ता कुंतग्गेणं लेहं पणावेहि, पणावित्ता आसुरत्ते जाव मिसिमिसेमाणे तिवलियं भिउडि निडाले साहटु चेडगं रायं एवं वदाहि-हं भो चेडगराया ! अपत्थियपत्थया ! दुरंत जाव-परिवज्जिया! एस णं कणिए राया आणवेइ-पच्चप्पिणाहि णं कूणियस्स रन्नो सेयणगं गंधहत्यि अट्ठारसबंकं च हारं वेहल्लं च Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरयावलिका) ( १२३) [बर्ग-प्रथम ++++++ कतार पेसेहि, अहवा जुद्धसज्जा चिट्ठाहि, एस णं कूणिए राया सबले सवाहणे सखंधावारे णं जुद्ध सज्जे इह हव्वमागच्छइ ॥७२॥ छाया-ततः खलु स कणिको राजा तस्य दूतस्यान्तिके एतमर्थं श्रुत्वा निशम्य आशुरक्तः यावन्मिसिमिसी-कुर्वन् तृतीय दूतं शब्दयति, शब्दयित्वा एवमवादीत-गच्छ खल त्वं देवानुप्रिय ! वैशाली नगरी चेडकस्य राज्ञो वामेन पादेन पादपीठमानाम, आक्रम्य कुन्ताग्रेण लेखं प्रणायय; प्रणाय्य आशुरक्तो यावत् मिसिमिसीकुर्वन् त्रिवलिका ध्रुटि ललाटे संहत्य चेटकं राजानमेवं वद- हं भो चेटकराजाः ! अप्राथितपार्थका: ! दुरन्त -यावत्परिवजिताः ! एषः खलु कूणिको राजा आज्ञापयर्यातप्रत्यर्पयत खलु कूणिकस्य राज्ञः सेचनकं गन्धहस्तिनमष्टादशवकच हारं वेहल्लं च कुमारं प्रेषयत, अथवा युद्धसज्जा तिष्ठत । एवं खलु कृणिको राजा सबलः सवाहनः संस्कन्धावारः खलु युद्धसज्ज इह हव्यमाच्छति ।।७२।। पदार्थान्क्य:-तएणं-तत्पश्चात्, से कणिए राया-वह राजा कोणिक, तस्स दूयस्स अन्तिए-उस दूत के समीप से, · एयमटु सोच्चा- इस अर्थ को सुनकर, निसम्म-विचार करके, आसुरुत्ते -क्रोधित होकर, जाव-यावत्, मिसिमिसेमाणे-क्रोध से आकुल व्याकुल होता हुआ, तच्चं दूयं सद्दावेइ-तीसरे दूत को बुलाता है और, सद्दावित्ता-बुलाकर, एवं वयासि- इस प्रकार कहने लगा, गच्छ णं तुम देवाणुप्पिय - हे देवानुप्रिय ! तुम जाओ, वेसालीए नयरीए- वैशाली नगरी में, चेडगस्सरनो-वहां चेटक राजा के, वामेणं पाएणं-वायें पैर से, पायपीढं-पादपीठ सिंहासन को, अक्कमाहि अमित्ता-ठोकर मारना, और ठोकर मार कर, कुंतग्गेणं लेहं पणावेहि, पणावेहित्ताकुंताग्र पर अर्थात् बरछी की नोक से लेख को देना, और देकर, आसुरुत्ते-क्रोधित होकर, जावयावत्, मिसिमिसेमाझे-दांत पीसते हुए, तिवलियं भिउडि निडाले साहट्ट-मस्तक पर तीन भृकुटी चढ़ाकर, चेडग रायं एवं क्यासी-चेटक राजा को इस प्रकार कहना, हं भो- अरे ओ, चेडग राया-चेटक राजा, अपस्थियपथिया- मृत्यु की प्रार्थना करने वाले, दुरत-दुष्ट, जाव-यावत्, परिवज्जिया-लक्ष्मी रहित, एस णं कणिए राया आणवेइ-कोणिक राजा यह प्राज्ञा करता है, पच्चप्पिणाहि-वापिस लौटा दो, कुणियस्स रन्नो-कोणिक राजा को, सेयणगं गन्धहत्थि अट्ठारसबकं च हारं-सेचनक गंधहस्ती व अठारह लड़ियों वाला हार, वेहल्लं कुमारं पेसेहि- और वेहल्ल कुमार को वापिस भेज दो, अहवा जुद्ध सज्जो चिट्ठाहि-अन्यथा युद्ध के लिए सुसज्जित होकर तैयार हो जाओ, एस णं कूणिए राया-यह कोणिक राजा सबले अत्यन्त वलबान् (हाथियों सहित) सवाहणे-वाहन सहित अर्थात् पालकी आदि सवारी सहित, सखन्धावारे-पंदल सैनिक दल के साथ पड़ाव करता हुआ, जुद्धसज्जे-युद्ध के लिये तैयार होकर, इह हव्वामगच्छइ-यहां शीघ्र ही आ रहा है ।।७२।। Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ग-प्रथम] ( १२४) [निरयावलिका मूलाथ-तत्पश्चात् वह राजा कोणिक, उस दूत के पास से इस अर्थ को सुनकर विचार कर आशुरक्त यावत् क्रोध से आकुल-व्याकुल (दांत पीसता) हुआ, तृतीय दूत को बुलाता है, बुलाकर इस प्रकार आज्ञा देता है 'हे देवानुप्रिय ! तुम वैशाली नगरी जाओ वहां चेटक राजा के सिंहासन को बांयें पैर से ठोकर मारना, मार कर कुन्ताग्र (बरछी के अग्रभाग से) यह लेख उसे देना, देकर आशुरक्त यावत् आकुल-व्याकुल होना, मस्तक में भृकुटी चढ़ाकर, चेटक राजा को इस प्रकार कहना अरे ओ मृत्यु चाहने वाले लक्ष्मीरहित चेटक ! कोणिक राजा आज्ञा देता है कि तुम कोणिक राजा को सेचनक गंधहस्ती और अठारह लड़ियों वाला हार लौटा दो और वेहल्ल कुमार को वापिस मेज दो। (अथवा) नहीं तो युद्ध के लिए सुसज्जित हो जाओ। वह कोणिक राजा हाथी-घोड़ों पालकी आदि वाहनों और पैदल सेना के साथ पड़ाव डालता हुआ शीघ्र ही यहां आ रहा है ॥७२॥ टीका-प्रस्तुत सूत्र में कोणिक राजा द्वारा अपने तीसरे दूत से वार्तालाप का वर्णन है राजा कोणिक, राजा चेटक के इन्कार करने पर किस तरह क्रोधित होता है, इसका स्पष्ट चित्रण शास्त्रकार ने किया है । राजा कोणिक अपने तीसरे दूत से राजा चेटक को स्पष्ट सूचित करता है कि या तो वह सब वस्तुओं और वेहल्ल कुमार को वापस लौटा दो या फिर युद्ध के लिये तैयार हो जाये। प्रस्तुत सूत्र में (हं भो) फटकार के अर्थ में लिया गया है। 'अपत्थिय थपस्थिया' पद का अर्थ है मृत्यु को आमन्त्रण देने वाला । जिस मृत्यु की कोई इच्छा नहीं रखता उस मृत्यु की इच्छा करने वाला । कुन्ताग्रेणं लेहं पणावेहि-इस सूत्र द्वारा कोणिक राजा द्वारा प्रेषित संदेश को बरछे की नोक पर टांग कर प्रस्तुत करने का उल्लेख है। इस पद द्वारा यह सिद्ध होता है कि आर्य लोग लिखने की कला प्रथम तीर्थंकर भगवान ऋषभदेव के काल से ही जानते थे। इस सूत्र में राजा कोणिक अपने नाना वैशाली नरेश चेटक को युद्ध की धमकी अपमान जनक शब्दों में देता है । इस सूत्र में उस समय की प्राचीन युद्ध-पद्धति का वर्णन किया गया है। उस्थानिका-आज्ञा पालक दूत ने फिर क्या किया अब सूत्रकार इसी विषय में कहते हैं । ... मूल-तएणं से दूर करयल० तहेव जाव जेणेव चेडए राया तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता करयल० जाव वद्धावेई, वद्धावित्ता एवं वयासी एस णं सामी ! ममं विणयपडिवत्ती, इयाणि कूणियस्स रन्नों आणत्तो Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरयावलिका) (१२५) [ वर्ग-प्रयम चेडगस्स रन्नो वामेणं पाएणं पायपीठं अक्कमइ, अक्कमित्ता, आसुरुत्ते कंतग्गेण लेहं पणावेइ तं चेव सबलखंधावारे णं इह हव्वमागच्छइ ॥७३॥ छाया-ततः खलु सः दूतः करतल० तथैव यावद् यत्रैव चेटको राजा तत्रैवोपागच्छति उपागत्य करतल. यावद् वर्धयति, वर्धयित्वा एवमवादीत्-एषा खलु स्वामिन् ! मम विनयप्रतिपत्ति', इदानीं कणिकस्य राज्ञः आज्ञप्तिः चेटकस्य राज्ञो वामेन पादेन पादपीठमानामति, आक्रम्य आशुरक्तः कुन्ताग्रेण लेखं प्रणाययति तदेव सबलस्कन्धावारः खलु इह हव्यमागगच्छ त ॥७३॥ पदार्थान्वय:-तएणं-तत्पश्चात्, से दूए-वह दूत, करयल०-दोनों हाथ जोड़कर, जाव-यावत्, तहेव-उसी प्रकार; जेणेव चेडए राया-जहां चेटक राजा था, तेणेव उवागच्छइ उवागच्छइत्ता-वहां आता है और आकर, करयल० जाव वद्धावेत्ता एवं वयासी-दोनों हाथ जोड़ कर वधाई देता हुअा, इस प्रकार बोला, एस णं सामी-हे स्वामी ! यह, मम विणय पडिवत्तीयह मेरी विनय प्रतिप्रत्ति है, इयाणि कुणियस्स रन्नो आणत्तो- अब कोणिक राजा की आज्ञा का पालन करता हूं ऐसा कहकर, चेडगस्स रन्नो चेटक राजा के, वामेणं पारणं- बायें पैर से, पायपीढं-पादपीठ सिंहासन को, अक्कमइ-स्पर्श करता है अर्थात् ठोकर मारता है, ठोकर मार कर, आसुररुत्ते-आशुरक्त क्रोधित होता हुआ, कुंतग्गेण लेहे पणावेइ-कुंताग्र से लेख को देता है, तं चेव-और इस प्रकार से, सबलखन्धावारेणं-सबल पंदल आदि चतुरंगिणी सेना सहित, इह हव्वमागच्छइ-यहां शीघ्र पा रहा है ॥७३।। . मूलार्थ तत्पश्चात् वह दूत करतल (दोनों हाथ जोड़कर) यावत् उस प्रकार जहां चेटक राजा था, वहां आता है, वहां आकर जहां चेटक राजा था वहां आता है आकर यावत् दोनों हाथ जोड़कर जय-विजय से वधाई देता हुआ इस प्रकार कहने लगा"हे स्वामी ! यह तो मेरी विनय भक्ति है । अब राजा कोणिक की आज्ञा का पालन करता हं। ऐसा कह कर राजा चेटक के सिंहासन को बांए पैर से छूता है, छूकर आशुरक्त होता हुआ, कुंतांग्र से लेख को अर्पण करता है। बाकी उसी प्रकार सबल-पैदल आदि चतुरगिनी सेना सहित राजा कोणिक शीघ्र ही यहां आ रहा है ॥७३॥ ___टीका-प्रस्तुत सूत्र में राजा कोणिक के सन्देश का वर्णन है जिसे राजा चेटक तक दूत अपने कर्तव्य का पालन करते हुए पहुंचाता है । दूत अपनी ओर से राजा चेटक का सम्मान करता हुआ वहीं सन्देश देता है जो उसके स्वामी ने उसे देने को कहा है । दूत की कर्तव्य परायणता निडरता स्वामी भक्ति का स्पष्ट चित्रण इस सूत्र में किया गया है। प्रस्तुत सुत्र से यह भी सिद्ध है Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बर्ग-प्रथम] ( १२६) [निरयावलिका arrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrr-.-.-.-.-.कि दूत को प्राचीन काल से ही अवध्य व सम्मान जनक स्थान मिलता रहा है । दूत मित्र के पास भी जाता है शत्र के पास भी। हर स्थान पर वह अपने स्वामी का संदेशबाहक बन कर जाता है। राजा चेटक के प्रति दूत का अभद्र व्यवहार उसकी स्वेच्छा से नहीं,वह तो राजाज्ञा का पालन मात्र है ।।७३।। उत्यानिका-तव चेटक राजा ने दूत से क्या व्यवहार किया, अब सूत्रकार उसका कथन करते हैं। ___ मूल-तएणं से चेडए राया तस्स दूयस्स अतिए एयमलैं सोच्चा निसम्म आसुरुत्ते जाव साहट्ट एवं वयासी-न अप्पिणामि णं कूणियस्स रन्नो सेयणगं अट्ठारसबंकं हारं, वेहल्लं च कुमारं नो पेसेमि, एस णं जुद्धसज्जे चिट्ठामि । तं दूयं असक्कारियं असंमाणियं अवद्दारेणं निच्छु-. हावेइ ॥७४॥ छाया-ततः खलु स चेटको राजा तस्य दूतस्यान्तिके एतमर्थ श्रुत्वा निशम्य आशुरक्तः यावत् संहृत्य एवमवादीत्-नार्पयामि खुलु कूणिकस्य राज्ञ सेचनकमष्टादशव हारं वेहल्लं च कुमारं नो प्रेषयामि, एष खलु युद्धसज्जस्तिष्ठामि । तं दूतमसत्कारितमसम्मानितमदद्वारेण निष्कासयति ।।७४।। पदार्थान्वयः-तएणं-तत्पश्चात्, से चेडए राया-वह चेटक राजा, तस्स दूयस्स अंतिए - उस दूत के समीप से,एयमझें सोच्चा-इस अर्थ (बात)को सुनकर, निसम्स-विचार कर,आसुरुत्तेक्रोधित हुआ, जाव साहटु-यावत् मस्तक पर तीन भृकुटी चढ़ाता हुआ, एवं वयासी- इस प्रकार बोला, न अप्पिणामि गं-नहीं अर्पण करता हूं, कूणियस्स रन्नो - कोणिक राजा को, सेयणगं अट्ठारसवंक हारं-सेचनक गन्धहस्ती व अठारह लड़ियों बाला हार को, वेहल्ल कुमारं नो पेसेमिवेहल्ज कुमार को भी वापिस नहीं भेजता, एस णं जुद्ध सज्जे चिट्ठामि परन्तु युद्ध के लिये सुसज्जित . होकर आता हूं ऐसा कहकर, तं दूयं असक्कारियं-उस दूत का असत्कार करता है, असंमाणियं असम्मान या अपमान करता है, परन्तु, अवदारेणं निच्छुहाबेइ- अपद्वार से बाहर निकलवा देता है ।७४॥ मूलार्थ-तत्पश्चात् वह राजा चेटक उस दूत के द्वारा इस अर्थ (बात) को सुनकर, विचार करता है विचार करके क्रोधित होता हुआ यावत् मस्तक पर तीन भृकुटी चढ़ाता हुआ, इस प्रकार कहने लगा-"मैं कोणिक राजा के पास सेचनक गंधहस्ती अठारह लड़ियों वाला हार व वेहल्ल कुमार को वापिस नहीं मेज सकता। हां, मैं युद्ध के लिए - सुसज्जितहोकर आता हूं। Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरयापलिका] (१२७) [वर्ग - प्रथम उस दूत का वह राजा चेटक असत्कार करता है, असम्मान करता है अपमान करके अपद्वार से बाहिर निकाल देता है, अर्थात् दुर्गन्धी भरे जल मार्ग से दूत को बाहिर निकालता है। टोका-- प्रस्तुत सूत्र में बताया गया है कि राजा कोणिक के दूत के मुख से संदेश सुनकर, श्रमणोपासक राजा चेटक को भी क्रोध आ गया। उसने राजा कोणिक की युद्ध की चुनौती स्वीकार कर ली। साथ में स्पष्ट कह दिया कि जब तक राजा कोणिक आधा राज्य प्रदान नहीं करता, तब तक मैं सेचनक गन्धहस्ती, अठारह लड़ियों वाला हार ब वेहल्ल कुमार किसी कीमत पर वापिस नहीं भेजे जायेंगे। अब उसने दूत को सत्कार-सन्मान न देकर, नगर के अपद्वार से वापिस लौटा दिया । अपद्वार का अर्थ है वह मार्ग, जहां से नगर का दुर्गन्धि भरा जल गुजरता है, राजा चेटक ने युद्ध की चुनौती स्वीकार करके शरणागत की रक्षा का कर्तव्य निभाया इसी कारण से राजा चेटक ने दूत से कहा न अप्पिणामि णं कुणियस्सरन्नो सेयणगं अट्ठारसबंक हारं वेहल्लं च कुमारं नो पेसेमि एस । गं जुद्धसज्जे चिट्ठामि-इस वाक्य से चेटक राजा की शूरवीरता ध्वनित होती है। राजा चेटक ने दूत से कहा हे दूत । तूं अवध्य है इसलिए मैं तुझे नहीं मारूंगा पर अपने स्वामी के पास मेरा संदेश ज्यों का त्यों पहुंचा देना ॥७४।। उत्थानिका- इसके बाद क्या होता है इसका वर्णन सूत्रकार ने आगे किया है - मूल-तएणं से कूणिए राया तस्स दूयस्स अंतिए एयमढं सोच्चा णिसम्म आसुरुत्ते कालादीए दस कुमारे सद्दावेइ, सद्दावित्ता एवं वयासीएवं खलु देवाणुप्पिया ! वेहल्ले कुमारे ममं असंविदितेणं सेयणगं गन्धहत्थि अट्ठारसबंकं हारं अतेउरं सभंडं च गहाय चंपातो पडिनिक्खमइ, पडिनिवखमित्ता वेसालि अज्जगं चेडगरायं उवसंपज्जित्ताणं विहरइ । तएणं मए सेयणगस्स गन्धहत्थिस्स अट्ठारसवंकस्स हारस्म अंट्ठाए या पेसिया, ते य चेडएण रण्णा इमेणं कारणेणं पडिसेहिया अदुत्तरं च णं ममं तच्चे दूए असक्कारिए, तं अवद्दारेणं निच्छुहावेइ, तं सेयं खलु देवाणुप्पिया ! अम्हं चेडगस्स रन्नो जुत्तं गिण्हित्तए ॥७॥ Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ग-प्रथम] (१२८) [निरयावलिका छाया ततः खलु स कूणिको राजा तस्य दूतस्यान्ति के एतमर्थ श्रुत्वा निशम्य आशुरक्तः कालावीन् दशकुमारान् शब्दयित्वा एवमवादीत-एवं खलु देवानुप्रियाः ! वेहल्लः कुमारो मम असंविदितः खलु सेचनकं गन्धहस्तिनम् अष्टादशवक हारम् अन्तपुरं सभाण्डं च गृहीत्वा चम्पातो निप्कामति, निष्क्रम्य वैशालीम आर्यक चेटकराजम उपसंपद्य विहरति । ततः खल मया सेचनकस्य गन्धहस्तिनः अष्टादशवक्रस्य हाररय अर्थाय दूताः प्रेषिता.तेच चेटकेन राज्ञा अनेन कारणेन प्रतिषिद्धाः, अथोत्तरं च खलु मम तृतीयो दूतः असत्कारित तं अपद्वारेण निष्कासयति, तच्छ्रे या खलु देवानुप्रियाः ! अस्माकं चेटकस्य राज्ञः युक्तं ग्रहीतुम् ।।७।। ___ पदार्थान्वय:-तएणं- तत्पश्चात्, से कूणिए राया- वह कोणिक राजा, तस्स दूयस्स अन्तिए-उस दूत के समीप से, एयमढं सोच्चा-इस अर्थ को सुनकर, निसम्म-विचार कर, आसुरत्ते-आशुरक्त हुए या क्रोधित होकर, कालादीए दस कमारे सद्दावेई, सद्दावेत्ता-कालादि दश कुमारों को बुलाता है बुलाकर, एवं वयासी-इस प्रकार कहने लगा; एवं खलु देवाणुप्पियाइस प्रकार निश्चय ही, हे देवानुप्रिय !, वेहल्ले कुमारे-वेहल्ल कुमार, ममं असंविदितेण-मुझे बिना बताये, सेयणगं गन्धहत्थि अट्ठारसबंक हारं-सेचनक गन्धहस्ती व अठारह लड़ियों वाले हार को लेकर अपने अंतपुर परिवार के साथ, सभंडं च गहाय-अपने साज सामान को साथ लेकर, चम्पाओ निक्खमह निक्खमित्ता-चम्पा नगरी से निकल गया है और निकल कर, वेसालि-. वैशाली में, जाव-यावत्, अज्जगं चेडगरायं उवसंपज्जित्ताणं विहरई-नाना पार्य चेटक की गरण ले कर विचरता है, तएणं मए-तो इस समाचार को सुनकर मैंने, सेयणगस्स गंधहत्थिस्स अट्ठारसबंकस्स हारस्स अट्ठाए-सेचनक गन्धहस्ती और अठारह लड़ियों वाले हार के लिए, या पेसिया-दो दूत भेजे, ते य-वह, चेडएण रन्ना-चेटक राजा ने, इमेणं कारणेणं-इस कारण से, पडिसेहित्ता-प्रतिषेध करके वापिस लौटा दिए, अदुत्तरंच णं- इतना ही नहीं, किन्तु अथवा, मम तच्चे दूए-मेरे तीसरे दूत को, असक्कारिए-सत्कार न देते हुए. असंमाणिए-असम्मान देते हुए, अवद्दारेणं निच्छुहावेइ-अपद्वार से अर्थात् नगर के दुर्गन्धित छोटे मार्ग से निकलवा दिया, तं सेयं खलु देवाणुप्पिया-तो निश्चय ही हे देवानुप्रिय यही श्रेय है, अम्हं-हमें, चेडगस्स रन्नोचेटक राजा से, जुत्तं गिहित्तए-युद्ध के लिए निकलना चाहिए अर्थात् युद्ध के लिए तैयार हो जाना चाहिये ।।७।। मूलार्थ - तत्पश्चात् कोणिक राजा ने उस दूत से इस बात को सुना, फिर विचार किया । यावत् कोध में आकुल-व्याकुल होकर काल आदि दश कुमारों को बुला कर इस प्रकार कहने लगा "हे देबानुप्रिय ! निश्चय ही वेहल्ल कुमार मुझे सूचित किये बिना सेचनक गन्धहस्ती, अठारह लड़ियों वाले हार को, अपने साज-सामान समेत अन्तःपुर के साथ चम्पा नगरी से निकला, निकल कर, वैशाली में यावत् नाना चेटक के आश्रित Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरग्रावलिका ] [ वर्ग - प्रथम ( १२६ ) "होकर विचरता है । इस समाचार के प्राप्त होने पर मैंने सेचनक गन्धहस्ती और अठारह ड़ियों वाले हार के लिये दो दूत भेजे । उनको चेटक राजा ने प्रतिषेधित कर दिया, केवल इतना ही नहीं, मेरे तीसरे दूत को तिरस्कार करके अपद्वार से बाहर निकलवा दिया, अतः हे देवानुप्रिय ! निश्चय ही हमें चेटक राजा के साथ युद्ध के लिये सुसज्जित होना श्रेयस्कर है ।। ७५ ।। टीका - तत्पश्चात् कोणिक राजा ने अपने भाइयों को अपने दूत के साथ राजा चेटक द्वारा किये गए व्यवहार का वर्णन किया है। दूत से किये अभद्र व्यवहार को सुनकर कोणिक क्रोधित हो गया था. उसने अपने दस भ्राताओं कालादि को निमन्त्रण दिया। कोणिक राजा ने वेहल्ल कुमार के वैशाली पहुचने की सूचना दी और साथ में कहा कि बेहल्ल कुमार हमारे राज्य के सेचनक गन्धहस्ती व अठारह लड़ियों वाला हार भी ले गया है। मैंने राजा चेटक को समझाने के लिये दो दूत भेजे, पर राजा चेटक नहीं माना। अंत में मैंने तीसरे दूत को भेजा। जिसके साथ चेटक राजा ने अभद्र व्यवहार करते हुए, उसे अपद्वार से बाहर निकलवा दिया, इसलिए हमें युद्ध के लिये तैयार हो जाना चाहिए । राजा कोणिक के इन शब्दों से उस का मनोगत भाव प्रकट होता है । • सेयं खदेवापिया ! अम्हं चेडगस्स रनो जुद्धं गिव्हित्तए - इस संदर्भ में वृत्तिकार का कथन है- ततो यात्रांसह ग्रामयात्रां गृहीतुमुद्यता वयमिति - यहां कोणिक राजा ने अपने दूत द्वारा : राजा चेटक के प्रति किए अभद्र व्यवहार का वर्णन नहीं किया ||७५ || मूल-तएणं कालाइया दस कुमारा कूणियस्स रन्नो एयमट्ठ विणणं पडिसुर्णेति ॥७६॥ छाया - ततः खलु कालादिकाः देश कुमाराः कूणिकस्य राज्ञः एतमर्थं विनयेन प्रतिशृण्वन्ति ॥ ७६ पदार्थान्वयः -- तएणं– तत्पश्चात्, एकलाइया दस कुमारा- कालादि दश कुमार, कूणिग्रस्स रह्यो– कोणिक राजा के इस अर्थ को अर्थात् आज्ञा को, विणएणं पडिसृणेन्ति-विनयपूर्वक सुन हैं, अर्थात् स्वीकार करते हैं ।। ७६ ।। मूलार्थ - तत्पश्चात् वे काल आदि दस कुमार, राजा कौणिक की इस आज्ञा को विनयपूर्वक सुनते हैं अर्थात् स्वीकार करते हैं ॥७६॥ टीका - प्रस्तुत सूत्र में राजा कोणिक द्वारा अपने कालादि दस कुमारों को युद्ध की प्रेरणा देने का वर्णन है । राजा कोणिक की बात को सभी भाई विनय-पूर्वक सुनते हैं, अर्थात् मान लेते हैं, क्योंकि Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ग-प्रथम (१३०) । निरयावलिका पडिसुणन्ति-का अर्थ है स्वीकार करना। उन कुमारों ने अपनी ओर से कुछ नहीं कहा अर्थात् उन भाइयों ने अपनी ओर से राजा कोणिक को न्याय-मार्ग पर लाने की चेष्टा नहीं की। उत्थानिका-राजा कोणिक ने इस विषय में जो आगे कथन किया, उसी का सूत्रकार ने कथन किया है मूल-तएणं से कूणिए राया कालादीए दस कुमारे एव वयासीगच्छह णं तुम्भे देवाणुप्पिया ! सएसु सएसु रज्जेसु पत्तेयं पत्तेयं व्हाया जाव पायच्छिता हत्थिखंधवरगया पत्तेयं-पत्तेयं तिहिं दंतिसहस्सेहि, एवं तिहिं रहसहस्सेहि, तिहिं आससहस्सेहि, तिहिं मणुस्सकोडीहिं सद्धि संपरिवुडा सव्विड्ढीए जाव रवेणं सएहितो सहितो नयरहितो पडिनिक्खमह, पडिनिक्खमित्ता ममं अंतियं पाउन्भवह ॥७७।। छाया-ततः खलु स कूणिको राजा कालादीन् दश कुमारान् एवा वादीत्-गच्छत खलु यूयं देवानुप्रियाः ! स्वकेषु राज्येषु प्रत्येक प्रत्येकं स्नाता यावत् प्रायश्चित्ताः हस्तिस्कन्धवरगताः प्रत्येक प्रत्येकं त्रिभिर्दन्तिसहस्रः, एवं त्रिभी रथसहस्रः, त्रिभिरश्वसहस्रः, तिसृभिर्मनुष्यकोटिभिः सार्द्ध संपरिवृता सर्वद्धां यावद्-रवेण स्वकेभ्यः स्वकेभ्यो नगरेभ्यः प्रतिनिष्कामत, प्रतिनिष्क्रम्य ममान्तिकं प्रादुर्भवत ।।७७॥ पदार्थान्वयः-तएणं-तत्पश्चात्, से कूणिए राया-वह राजा कूणिक, कालाईए दस कुमारे-कालादि दश कुमारों को, एवं वयासो-इस प्रकार बोला, गच्छह णं तुम्भे देवाणुप्पियाहे देवानुप्रिय आप जाओ, सएस सएसु रज्जेसु-अपने - अपने राज्यों में, पत्तेयं पत्तेयं ण्यायाप्रत्येक प्रत्येक स्नान कर, जाव-यावत. पायच्छित्ता-शुद्ध होकर, हत्थिखन्धवरगया-हस्तिस्कंध होकर अर्थात हाथियों पर सवार होकर, पत्तेयं पतयं तिहि दंतिसहस्सेहि-प्रत्येक-प्रत्येक तीन हजार हाथियों के साथ, एवं-इस प्रकार, तिहि रह सहस्सेहि-तीन-तीन हजार रथों के साथ, तिहि आससहस्सेहि-तीन-तीन हजार अश्वों के साथ, तिहि मणुस्स कोड़ोहि-तीन-तीन करोड़ मनुष्यों (सैनिकों) के साथ, संपरिबुडा-संपरिवृत हुए, घिरे हुए, सविडोए जाव रवेणं-सर्व ऋद्धि से युक्त होकर यावत् वाद्य यंत्रों के विभिन्न शब्दों के साथ, सहिता सएहिता-अपने-अपने, नयरोहितो-नगरों से, पडिनिक्खमह पडिनिक्खमइत्ता-निकले और निकल कर, ममं अन्तियं पाउम्भवह-मेरे समीप प्रकट हो जामो, अर्थात् मेरे पास पहुच जायो।।७७।। - मूलार्थ-तत्पश्चात् वह राजा कोणिक कालादिक दश कुमारों को इस प्रकार कहने लगा-“हे देवानुप्रिय! आप लोग अपने-अपने राज्यों में जाओ, वहां जाकर प्रत्येक Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरयादलिका] (१३१) [बर्ग- प्रथम 44444444444++++ (राजकुमार) स्नानादि करके यावत् शुद्ध होकर; हस्ति-स्कन्ध को प्राप्त होना, अर्थात् हाथियो पर सवार हो जाता प्रत्येक राज कुमार तीन-तीन हजार हाथियों के साथ, तीन-तीन हजार रथों के साथ तीन-तीन हजार घोड़ों के साथ और तीन-तीन करोड़ मनुष्यों (सैनिकों) से परिवृत होकर सर्व-ऋद्धि सहित यावत् नाना प्रकार के वाद्य-यन्त्रों के शब्दों के साथ अपने-अपने नगरों से बाहर आओ बाहर आकर मेरे पास पहुंच जाओ ॥७७।। टीका-प्रस्तुत सूत्र में राजा कोणिक ने हाथी, घोड़ों, रथों व सैनिकों सहित तैयार होकर आने को कहा है। प्रस्तत सत्र से यद्ध से पहले की तैयारी का वर्णन भी ध्वनित होता है कि कैसे प्राचीन राजा हाथी पर बैठकर, विभिन्न वाद्य-यन्त्रों के शब्दों के स्वर गंजाते हए यद्ध के मैदान में आया करते थे। यहां कोणिक ने तैयार होकर हाथी पर बैठकर अपने समीप आने की आज्ञा अपने कालादि दस कुमारों को दी है। इस सूत्र से यह भी प्रकट होता है कि प्रत्येक राज-कुमार की अपनी-अपनी सेना हे'ती थी। इस बारे में वृत्तिकार ने स्पष्ट किया है। गच्छत यूयं स्वराज्येषु निजनिजसामग्रया संनह्म समागन्छत मम समीपे अर्थात् आप अपने-अपने राज्य में जाओ और अपनी अपनी युद्ध-सामग्री से सज कर मेरे पास पहुगो ।।७७।। ... मूल-तए णं ते कालाईया दस कुमारा कुणियस्स रन्नो एयमर्थ सोच्चा सएस सएसु रज्जेसु पत्तेयं पत्तेयं व्हाया जाव तिहिं मणुस्सकोडोहिं सद्धि संपरिवुडा सव्विड्ढीए जाव रवेणं सएहितो सहितो नयरहितो पडिनिक्खमंति पडिनिक्खमित्ता जेणेव अंगा जणवए, जेणेव चंपा नयरी जेणेव कूणिए राया तेणैव उवागया, करयल० जाव वद्धावेति ॥७॥ छाया-ततः खलु ते कालादिका दशकुमाराः कूणिकस्य राज्ञ एतमर्थ श्रुत्वा स्वकेष स्वकेष राज्येष प्रत्येकं प्रत्येकं स्नाताः, यावत् तिसृभिर्मनष्यकोटिभिः सार्धं संपरिवृता यावत् रवेणं स्वकेभ्यः स्वकेभ्यो नगरेभ्यः प्रतिनिष्कामन्ति, प्रतिनिष्क्रम्य यत्रव अङ्ग जनपदः, यत्रैव चम्पानगरी, यत्रैव चम्पानगरी, यत्रव कूणिको राजा तत्रैवोपागतः करतल० यावद् वर्धयन्ति ।।७८।। पदार्थान्वयः-तएणं-तत्पश्चात्, ते कालाईया दस कुमारा-वे काल आदि दस कुमार, कूणियस्स रनो एयमढे सोच्चा-कोणिक राजा के इस अर्थ -आज्ञा को सुनकर, सएसु सएसु रज्जेसुअपने-अपने राज्य में आए, पत्तेयं पत्तेयं हाया-और आकर प्रत्येक राजकुमार ने स्नान किया, स्नान करके, जाव-यावत्, तिहि मणुस्सकोडीहिं सद्धि - तीन तीन करोड़ मनुष्यों (सैनिकों) के Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बर्ग-प्रथम] ( १३२ ) [निरयावलिका raru-rrr-rrr-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.--- साथ, संपरिवुडा-संपरिवृत हुए अर्थात् घिरे हुए, सविडोए- सर्व ऋद्धियों से युक्त, जाव-यावत्, रवेणं-वाद्य-यंत्रों के स्वरों से युक्त होकर, सरहितो संएहितो नयरेहिन्तो-अपने-अपने नगरों से, पडिनिवखमंति-निकलते हैं और, पडिनिक्खम इत्ता-निकल कर, जेणेब अंगा जणवए-जहां अंग जनपद था, जेणेव चंपा नयरी-जहां चम्पा नगरी थो, जेणेव कूणिए राया-जहां राजा कोणिक था, तेणेव उवागया-वहां पाए, आकर, जाव-यावत्, करयल० बद्धाति-दोनों हाथ जोड़ कर जय-विजय शब्दों द्वारा वधाई देते हैं ।।७।। मूलार्थ-तत्पश्चात् वे कालादि दश कुमार, राजा कोणिक की आज्ञा को सुनकर अपने-अपने राज्यों में आये । राज्य में आकर प्रत्येक राज कुमार ने स्नान किया। यावत् तीन-तीन हजार हाथियों रथों और तीन करोड़ मनुष्यों (सैनिकों) के साथ संपरिवृत (घिरे) होकर, सर्व ऋद्धि (राज्य वैभव) से युक्त होकर यावत् वाद्य-यंत्रों के शब्दों के साथ अपने-अपने नगरों से निकलते हैं, निकल कर जहां अंग देश की राजधानी चम्पा नगरी थी, वहां कोणिक राजा के पास आते हैं, आकर यावत् दोनों हाथ जोड़कर जयविजय स्वर से वधाई देते हैं कि महाराज आपकी जय हो ७८। टीका-प्रस्तुत सूत्र में बताया गया है कि राजा कोणिक की आज्ञा का पालन करते हुए कालादि दसों भ्राता अपने-अपने नगरों से सैनिक दलबल के साथ अंग देश की राजधानी चम्पा नगरी में आते हैं । प्रस्तुत सूत्र से यह सिद्ध होता है कि मगध देश अलग था, जिस की राजधानी पाटलीपुत्र थी। अंग देश मगध का एक हिस्सा था चम्पा एक प्रमुख नगरो थी । जैन इतिहास की अनेक कथाओं में इसका वर्णन है । इस सूत्र में मगध-साम्राज्य के राजतन्त्र की विशाल सीमा का पता चलता है। प्रत्येक राज कुमार की सैनिक शक्ति, वैभव प्रभुसत्ता का वर्णन भी इस सूत्र से मिलता है। प्राचीन काल में छोटे-छोटे राजा बड़े राजा की आधीनता स्वीकार कर लेते थे। यही बात कोगिक राजा के इतिहास से ज्ञात होती है ।।७।। उत्थानिका-तब कोणिक राजा ने क्या किया, अब सूत्रकार इस विषय में कहते हैं मूल-तएणं से कूणिए राया कोडुंबियपुरिसे सद्दावेइ, सद्दावित्ती एवं वयासी-खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया ! आभिसेक्कं हत्थिरयणं पडिकप्पेह, हय-गय-रह-चाउरंगिणि सेणं संनाहेह, ममं एयमाणत्तियं पच्चप्पिणह, जाव पच्चप्पिणंति ॥७॥ Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरयावलिका ] ( १३३ ) [ वर्ग - प्रथम ततः खलु स कूणिको राजा कौटुम्बिकपुरुषान् शब्दयति, शब्दयित्वा एवमवादीत् - क्षिप्रमेव भो देवानुप्रिया ! अभिषेक्यं हस्तिरस्नं प्रतिकल्पयत, हय-गज-रथ-चतुरङ्गिणीं सेनां संनह्यत मामाज्ञप्तां प्रत्यर्पयत यावत् प्रत्यर्पयन्ति ॥ ७६ पदार्थान्वयः - तएणं – तत्पश्चात् से कूणिए राया - वह राजा कोणिक, कोडुम्बिय-पुरिसे सद्द वेइ सद्दावित्ता— कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाता है और बुलाकर एवं व्यासी- इस प्रकार कहने लगा, खिप्पामेव भो देवाप्पिया - हे देवानुप्रिय शीघ्र ही, आभिसेवक हत्थिरयणं पडिक पेह-बैठने योग्य अभिषिक्त हस्ति रत्न को तैयार करो, हयगयरह चाउरंगिण सेगं संनाहेह - घोड़े, हाथी, रथ श्रादि चतुरंगिणी सेना तैयार करो, ममं एयमाणत्तियं पच्चपिणह- मेरी इस आज्ञा का पालन करो, जाव पच्चपिणन्ति - यावत् वे पुरुष उस कोणिक राजा की आज्ञा को पूरा करते हैं || ७६ ॥ मूलार्थ-तत्पश्चात् उस राजा कोणिक ने कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाया और बुला कर इस प्रकार आज्ञा प्रदान करते हुए कहने लगा - हे देवानुप्रिय ! शीघ्र ही (मेरे) बैठने योग्य अभिषेक किया हुआ हस्ति रत्न सुसज्जित ( तैयार ) करो और इसी तरह अश्व-गज-रथ आदि चार प्रकार की सेना तैयार करो, मेरी आज्ञा पूरी करके मुझे सूचित करो । उसको इस आज्ञा का पालन करते हैं ॥७६॥ टीका - प्रस्तुत सूत्र में बताया गया है कि राजा कोणिक ने देखा कि उसके दस भाई अपनी अपनी सेना लेकर चम्पा आ गए हैं। तब कोणिक ने अपने सेवकों को आज्ञा दी कि वे भी एक अभिषेक किया हुआ बैठने योग्य हाथी तैयार करें, साथ में चारों प्रकार को सेना को तैयार रहने का आदेश दो । सेवकों ने कोणिक की राजा की आज्ञा का पालन किया । हस्तिरत्न का अर्थ है प्रमुख हाथो । इसलिए इसे गजरत्न भी कहा गया है। चतुरंगिणी सेना का वर्णन मोपपातिक सूत्र में विस्तार से मिलता है, अतः जिज्ञासुओं को उस सूत्र का स्वाध्याय करना चाहिये । उत्थानिका - तत्पश्चात् कोणिक राजा ने क्या किया अब सूत्रकार इस विषय में कहते हैंमूल-तएण से कूणिए राया जेणेव मज्जणघरे तेणेव उवागच्छइ जाव पडिनिग्गच्छित्ता जेणेव बाहिरिया उवट्ठाणसाला जाव नरवई दुरूढे । Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ग-प्रथम ] ( १३४ ) [निरयावलिका तएणं से कूणिए राया तिहिं दंतिसहस्सेहिं जाव रवेणं चंपं नर्यार मज्झं-मज्झेणं निग्गच्छ इ, निग्गच्छित्ता जेणेव कालादीया दस कुमारा तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता कालाइएहिं दसहि कुमारे सद्धि एगओ मेलायति ॥८॥ ___ छाया-ततः खलु स कृणिको राजा यत्रैव मज्जनगृहं तत्रैवोपागच्छति यावत् प्रतिनिर्गत्य यत्रैव बाह्या उपस्थानशाला यावत् नरपतिर्दुरूढः । तत. खलु स कुणिको राजा त्रिभिर्दन्तिसहस्रः यावत् चम्पां नगरी मध्यं-मध्येन निर्गच्छति,. . निर्गस्य यत्रैव कालादिकाः दश कुमारास्तत्रैव उपागच्छति, उपागस्य कालादिकर्दशभिः कुमारः सार्द्धमेकतो मिलति ।.८०॥ पदार्थान्दय:-तएणं-तत्पश्चात्, से कणिए राया-वह कोणिक राजा, जेणेव मज्जणघरेजहां स्नान-घर था, तेणेव उवागच्छइ-वहां माता है, जाव-यावत् स्नानादि से निवृत्त होकर पडिनिग्गच्छित्ता-राज महल से निकल कर, जेणेव बाहिरिया उवट्ठाणसाला-जहां वाह्य उपस्थान शाला थी, जाव-यावत्, नरवई दुरूढे - नरपति कूणिक अभिषिक्त हस्ति पर बैठ गया। तरणं-तत्पश्चात्, से कूणिए राया-वह कोणिक राजा, जाव-यावत्, तिहि वंति सहस्सेहि-तीन हजार हाथियों के साथ, रवेणं-वाद्य-यंत्रों के स्वरों के साथ, चम्पा नार मज्झंमज्झेणं-चम्पा नगरी के मध्य-मध्य से होता हुआ, निग्गच्छइ-निकलता है, निग्गच्छइत्ता-और निकल कर, जेणेव कालाईया दस कुमारा-जहां कालादि दश कुमार थे, तेणेव उवागच्छइ-वहां आता है, उवागच्छित्ता-आकर, कालाइएहि कुमारहिं सद्धि एगो मेलायन्ति-कालादि दश कुमारों के साथ एकत्रित होता है, अर्थात् सब भाई इकट्ठ मिल जाते हैं । ८०।। मूलार्थ तत्पश्चात् राजा कोणिक जहां स्नान-घर था वहां आता है, यावत् स्नानादि क्रियाओं से निवृत्त होकर, राजमहल से निकलता है और निकल कर जहां बाहिर उपस्थान शाला (राज-सभा) थी बहां आता है । फिर वहां आकर यावत् कोणिक राजा हाथी पर सवार होता है। फिर कोणिक राजा तीन हजार हाथियों के साथ यावत् वाद्ययंत्रों के स्वरों के साथ चंपानगरी के बीचों-बीच होता हुआ आता है, आकर कालादि दश कुमारों के समूह के साथ एकत्रित होता है, अर्थात् भाइयों के साथ मिल जाता है ।।८०।। Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरयावलिका) [वर्ग-प्रथम m-r--.-.-.टोका-प्रस्तुत सूत्र में राजा कोणिक की युद्ध सम्बन्धी तैयारी का परम्परागत ढंग से वर्णन है । राजा कोणिक ने पहले स्नान किया, फिर उपस्थान शाला (सभा-मण्डप) में प्राता है फिर हाथी पर आरूढ़ होकर, वाद्य-यंत्रों व चतुरंगिणी सेना से घिरा हुआ वहां आता है जहां कालादि दश कुमार पड़ाव डाले हए थे। राजा कोणिक के साथ तीन-तीन हजार घोड़े, हाथी व अश्व थे । इस प्रकार की सैनिक तैयारी को समग्र वर्णन प्रौपपातिक सूत्र में मिलता है ।।८०॥ उत्थानिका-सूत्रकार अब इस विषय में आगे क्या कहते है ? मूल-तएणं से कूणिए राया तेत्तीसाए दंतिसहस्सेहि, तेत्तीसाए आससहस्सेहि, तेत्तीसाए रहसहर्सेहि, तेत्तीसाए मणुस्सकोडोहिं सद्धि संपरिवुडे सविढ्ढीए जाव रवेण सुहिं वसहिपायरासेहिं नाइविप्पगिट्ठहिं अंतरावासहिं वसमाणे-वसमाणे अंगजणवयस्स मज्झं-मज्झणं जेणेव विदेहे जणवए जेणेव वेसाली नयरी तेणेव पहारित्थ गमणाए ॥८१॥ छाया-ततः खलु स कूणिको राजा वयस्त्रिशतैः दन्तिसहस्रः; त्रयस्त्रिशताःवसहस्र', जयस्त्रिशतैः रथसहस्रः, त्रयस्त्रिंशतः मनुष्यकोटिभिः सार्द्ध संपरिवृतः सर्वद्धर्या यावद् रवेण शुभसतिप्रातराशे-नातिविप्रकृष्टरन्तरावासः बसन् वसन् अङ्गजनपदस्य मध्यमध्येन यत्रैव विदेहो जनपदः यत्रैव वैशाली नगरी तत्रैव प्राधारपद गमनाय ।।१।। पदार्थाम्बयः-तएणं-तत्पश्चात्, से कृणिए राया-वह राजा कोणिक, तेत्तीसाए दन्तिसहस्सेहि-३३ हजार हाथियों के साथ, तेलीसाए आससहस्सेहि-तेंतीस हजार अश्वों के साथ, तेत्तीसए रहसहस्सेहि-तेंतीस हजार रथों, तेत्तीसए मणुस्सकोडोहिं - तेंतीस करोड़ मनुष्यों (सैनिकों) सद्धि-साथ, संपरिवुडे-संपरिवृत हुआ यावत् घिरा हुआ, जाव-यावत्, सम्विडिए रवेणंवाद्य-यंत्रों के स्वर घोष के साथ सर्व ऋद्धि युक्त, सुहि-शुभ बस्तियों में पड़ाव करता हुआ, वसहिपाय-रासेहि-प्रातःकालीन जल-पान आदि करता हुआ, नाइविप्पगिट्ठोहि-अधिक न चलते हुए, अन्तरावासेहि वसमाणे, वसमाणे-रास्ते में पड़ाव डालता हुआ, अंगजणवयस्स मज्झमज्झेणंअंग देश के बीचों-बीच, जेणेव विदेह जणबए-जहां विदेह जनपद था, जेणेव वेसाली नयरी-जहां वैशाली नगरी थी, तेणेव पहारेत्थ गमणाए-वहां जाने के लिए तैयार हुआ अर्थात् उसने वैशाली नगरी की ओर प्रस्थान किया ।।८।। मूलार्थ-तत्पश्चात् राजा कोणिक ३३ हजार हाथियों ३३ हजार अश्वों, ३३ हजार रयों, ३३ करोड़ सैनिकों से घिरा हुआ यावत् अपनी समस्त ऋद्धि के साथ विभिन्न । Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ग-प्रश्वम] ( १३६ ) [निरयावलिका वाद्य-यंत्रों के स्वरों सहित, मंगलमय स्थानों पर पड़ाव डालता हुआ निकला, फिर सुबह के भोजन को ग्रहण करता हुआ, अधिक यात्रा न करके मार्ग में पड़ाव डालता हुआ, विश्राम करता हुआ अंग देश के बीचों-बीच होकर, जहां विदेह देश की वैशाली नगरी थी वहां जाने के लिये उसने प्रस्थान किया ॥१॥ टीका-प्रस्तुत सूत्र में राजा कोणिक का कालादि दश भाइयों व उनकी विशाल सेनाओं के साथ युद्ध में उतरने का वर्णन है। यहां यह बात ध्यान देने योग्य हैं कि राजा कोणिक ने विदेह देश पर सीधा आक्रमण नहीं किया, बल्कि वह पाराम से रास्ते में पड़ाव डालता हुआ विदेह देश की राजधानी वैशाली की सीमा पर पहुंचा। उसने आते ही युद्ध प्रारम्भ नहीं किया। प्राचीन काल में निरपराधी लोग युद्ध में न मारे जायें इस बात का विशेष ध्यान रखा जाता था और युद्ध निश्चित मैदानों में ही लड़ा जाता था।।८१॥ उत्थानिका-जब कोणिक राजा ने युद्ध के लिए प्रस्थान किया तो वैशाली नरेश चेटक ने क्या किया ? ___अब इसका वर्णन सूत्रकार प्रस्तुत सूत्र में करते हैं। मूल-तएणं से चेडए राया इमोसे कहाए लद्धठे समाणे नवमल्लइनवलेच्छइ-कासी-कोसलगा अट्ठारस वि गणरायाणो सद्दावेई, महावित्ता एवं वयासी एवं खलु देवाणुप्पिया ! वेहल्ले कुमारे कूणियस्स रन्नो असंविदित्ते णं सेयणगं गन्धहत्थि अट्ठारसबंकं च हारं गहाय इहं हन्वमागए, तए णं कूणिएणं सेयणगस्स अट्ठारसबंकस्स य अठाए तओ दूया पेसिया, ते य मए इमेणं कारणेणं पइिसे हिया। ____तएणं से कूणिए ममं एयमळं अपडिसुणमाणे चाउरंगिणीए सेणाए सद्धि संपरिवुडे जुज्झसज्जे इहं हव्वमागच्छइ, तं किं नु देवाणुप्पिया ! सेयणगं अट्ठारसबंकं च कूणियस्स रन्नो पच्चप्पिणामो ? वेहल्लं कुमारं पेसेमो ? उदाहु जुज्झित्था ॥२॥ ___छाया-ततः खलु स चेटको राजा अस्याः कथाया लब्धार्थः सन् नवमल्लकि-नवलिच्छविकाशी-कौशलकान् अष्टादशापि गण-राजान् शब्दयति, शब्दयित्वा एवमवादीत् - एवं खलु देवानुप्रियाः ! वेहल्लः कुमारः कणिकस्य राज्ञा असंविदितेन सेचनकं गन्धहस्तिनमष्टादशवक्रच हारं गृहीत्वा Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरयावलिका) (१३७) [वर्ग-प्रथम इह हव्यमागतः । ततः खलु कणिकेन सेचकस्य अष्टादशवकस्य चार्थाय त्रयो दूताः प्रेषिताः, ते च मयाऽनेन कारणेन प्रतिषिद्धाः । ततः खलु स कणिको मम एतमर्थमप्रतिशृण्वन् चातुरङ्गिण्या सेनया सार्द्ध संपरिवृतः युद्धसज्ज इह हव्यमागच्छति, तत् किं नु देवानुप्रियाः । सेचनकंमष्टादशवक्र च कूणिकाय राज्ञे प्रत्यर्पयामः, वेहल्लं कुमारं प्रेषयामः ? उताहो युध्यामहे ? ॥२॥ पदार्थान्वयः-तएणं-तत्पश्चात्, से चेडए राया-वह राजा चेटक, इमोसे कहाए लद्ध? समाणे-इस कथा (समाचार) के प्राप्त होने पर, नव मल्लई-नव मल्ल जाति के, नव लेच्छईनव लिच्छवि जाति के, कासीकोसलगा अट्ठारस वि गणरायाणो सद्दावेइ सद्दावित्ता-काशी कौशल देशों के अट्ठारह गण-राजाओं अर्थात् गणराज्य-प्रमुखों को बुलवाता है और बुलवाकर, एवं वयासीइस प्रकार कहता है, एवं खलु. देवाणुप्पिया-इस प्रकार हे देवानुप्रियो निश्चय ही, वेहल्ले कुमारे-वेहल्ल कुमार, कूणियस्स रन्नो-कोणिक राजा को, असंविदित्ते णं-बिना किसो पूर्व सूचना के, सेयणगं अट्ठारसबंकं च हारं गहाय इहं हव्व मागए-सेचनक गंधहस्ती और अठारह लड़ियों बाला वक्र हार ग्रहण करके शीघ्र ही यहां आ गया है, तएणं-तत्पश्चात्, कूणिएणं सेयणमस्स अट्ठारसबंकस्स य अठ्ठाए - कोणिक राजा ने उस सेचनक गन्धहस्ती और अठारह लड़ियों के हार को लौटाने केलिये, तो या पेसिया-तीन दूत भेजे, ते य मए इमेणं कारणेणं पडिसेहिया--मैंने इस कारण से उनका प्रतिषेध कर दिया, अर्थात् उन्हें वापिस लौटा दिया। तएणं-तत्पश्चात्, से कूणिए राया-उस कोणिक राजा ने, ममं एयमढ़-मेरे इस अर्थ को; अपडिसुणमाणे-स्वीकार न करते हुए (न सुनते हुए), चाउरङ्गिणीए सेणाए सद्धि संपरिबुडेचतुरंगिणी सेना से घिरा हुआ, जुद्धसज्जे इह हव्वमागच्छइ-यहां शीघ्र ही युद्ध के लिये सुसज्जित होकर आ रहा है, तं किं नु देवानुप्पिया-तो क्या हे देवानुप्रियो !, सेयणगं गंधहत्थि अट्ठारसर्वक • 'हारं च-सेचनक गन्धहस्ती व अठारह लड़ियों वाला हार, कणियस्स रन्नो पच्चप्पिणामो-कोणिक राजा को वापिस लौटा दूं ? वेहल्लं कुमारं पेसेमो- वेहल्ल कुमरको भी वापिस लौटा दूं, उदाहु जुज्झित्था-अथवा उसके साथ युद्ध करूं ।।२।। मूलार्थ-तत्पश्चात् वह राजा चेटक यह समाचार प्राप्त होने पर अर्थात् ज्ञात होने पर उसने नव मल्ली, नव लिच्छवि, काशी, कौशल देशों के अठारह राजाओं को बुलाया और बुलाकर इस प्रकार कहा कि-हे देवानुप्रियो ! इस प्रकार निश्चय हो वेहल्ल कुमार राजा कोणिक को बिना सूचित किए सेचनक गंधहस्ती व अठारह लड़ियों वाले हार के साथ यहां शीघ्रता से आ गया है। तत्पश्चात् कोणिक राजा ने सेचनक गन्धहस्ती व अठारह बड़ियों वाले हार के लिये तीन दूत भेजे। मैंने उनको इस कारण इस Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ग-प्रथम ] ( १३८ ) [निरयावलिका दिया अर्थात् वस्तुएं लौटाने से इन्कार कर दिया। तत्पश्चात् कोणिक राजा मेरे इस अर्थ बात को न स्वीकार करते हुए चतुरंगिणो सेना से संपरिवृत (घिरा हुआ) युद्ध के लिए तैयार होकर यहां शोघ्र आ रहा है । हे देवानुप्रियो ! क्या मैं सेचनक गधहस्ती व अठारह लड़ियों वाला हार उसे वापिस लौटा दूं ? वेहल्ल कुमार को भी वापिस भेज दूं ? अथवा उससे युद्ध करूं ? टोका-प्रस्तुत सूत्र में बतलाया गया है कि जब वैशाली गणतन्त्र के प्रमुख राजा चेटक को ज्ञात हुआ कि कोणिक अपने दस भाइयों व विशाल सेना के साथ इधर आ रहा है तो उस चेटक राजा ने नवमल्ल-नव लिच्छवि, काशी-कौशल देशों के अठारह गणराजाओं को वैशाली में बुलवाया। प्राचीन काल में छोटे-छोटे राजा मिलकर गण-परिषद् बनाते थे जो युद्ध आदि के समय अपनीअपनी सेनाओं के साथ आकर युद्ध में भाग लेते थे। राजा चेटक उन सभी राजाओं का प्रमुख था। उसने सभी राजाओं को वस्तु-स्थिति से अवगत कराया। राजा चेटक ने कहा "हे देवानुप्रियो ! वेहल्ल कमार सपरिवार बिना किसी को बताए सेचनक गन्धहस्ती व अठारह लड़ियों वाला हार लेकर मेरी शरण में आया है। ये वस्तयें राजा श्रेणिक ने अपने जीवन-काल में ही वेहल्ल कुमार को दी थीं. इसलिए कोणिक राजाका इन पर कोई अधिकार नहीं है। इन वस्तों के लिये राजा कोणिक तीन दूत भेजे । मैंने इन दूतों की बात पर कोई ध्यान नहीं दिया। इन बातों से स्पष्ट होता है कि प्रात्रीन गणराज्यों में निर्णय सर्व-सम्मति या बहुमत से किए जाते थे। इन सूत्रों से राजा चेटक की शरणागत-रक्षा की भावना भी झलकती है, फिर चेटक राजा उन गणराजाओं से पूछता है कि क्या हमें युद्ध करना उचित है ? या वेहल्ल कुमार सेचनक गन्धहस्ती व अठारह लड़ियों वाले हार की वापिसी उचित है ।।२।। उत्थानिका-चेटक राजा को इन गणराजाओं ने क्या उत्तर दिया, अब सूत्रकार इसी विषय में कहते हैं मूल-तएणं नवमल्लइ-नवलेच्छइ-कासी-कोलसगा अट्ठारस वि गणरायाणो चेडगं रायं एवं वयासी-न एयं सामी ! जुत्तं वा पत्तं वा सम्हे कोणएण रणो साख जुज्झामकं कृशियस्स रन्नो पच्चप्पिणिज्जइ, बेल्ले य कुमार सरणागए पलिज्जइ, तंजइयं अपिए या नारंगिणीए संगाए तद्धि संगरिदुई जन्मसन्जेई इनसागच्छद, तो मं अम्हे कूणिएणं रण्णा सद्धि जुज्झामो ॥३॥ Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरयावलिका ] [ बर्ग - प्रथम छाया - ततः खलु नवमल्ल कि –नवलेच्छकि - काशी - कौशल का अष्टादशापि गणराजाइचेटकं राजानमेवमवादिषु: -- नैतत् स्वामिन् ! युक्तं वा प्राप्तं व राजसदृशं वा यत्खलु सेचनकमष्टाशव कूणिकाय राज्ञे प्रत्ययंते, वेहल्लश्च कुमार: शरणागतः प्र ेष्यते, तत् यदि खलु कूणिको राजा चातुरङ्गिया सेनया सार्द्धं संपरिवृतो युद्धसज्ज इह हव्यमागच्छति तदा खलु वयं कूणिकेन राजा सार्द्धं युध्यामहे ।।८३|| ( १३६ ) पदार्थान्वयः - तरणं - तत्पश्चात् नव मल्ल इ-नवलेच्छइ - नव मल्ली व नव लिच्छवि, कासी को लगा अट्ठारस वि गणरायाणो - काशी- कौशल के अठारह गणराजा, चेडगं रायं एवं वयासी - राजा चेटक से इस प्रकार बोले, न एयं सामी - हे स्वामी ! इस प्रकार न करें, क्योंकि जुत्तं वा पत्तं वा-यह उपयुक्त नहीं, अर्थात् ठीक नहीं है, और न्याय से प्राप्त को लौटाना, रायसरिसं वाराजा के योग्य नहीं है, जं णं- जो कि आप, सेयणगं अट्ठारसबंकं कुणियस्स रन्नो पच्चप्पिणिज्जइजैसे कि सेचनक गन्धहस्ती व अठारह लड़ियों वाला हार कोणिक राजा को वापिस लौटा रहे हैं, बेहल्ले य कुमारे सरणागए पेसिज्जइ - शरणागत वेहल्ल कुमार को वापिस भेज रहे हैं, तं जइणं कूणि राया - तो यदि कोणिक राजा, चाउरङ्गिणीए सेणाए सद्धि संपरिबुडे जुज्झसज्जे इहं हव्वमागच्छइ - चतुरंगिणी सेना से संपरिवृत होता हुआ युद्ध के लिए सुसज्जित होकर यहां शीघ्र ही आ रहा है, तणं अम्हे कूणिएणं रन्ना सद्धि जुज्झामो - तो हम कोणिक राजा के साथ युद्ध करेंगे ||८३ || मूलार्थ-तत्पश्चात् वे नव मल्ल जाति के, नव लिच्छवी जाति के एवं काशी तथा कौशल देश के अठारह गणराज्य चेटक राजा के प्रति इस प्रकार कहने लगे - हे स्वामिन् यह युक्त (योग्य) नहीं है, न्याय से प्राप्त को लौटना उचित नहीं है । यह राजा के योग्य भी नहीं है कि सेचनक गंधहस्ती और अठारह लड़ियों के हार को कोणिक राजा को वापिस कर दिया जाये । साथ में शरण में आए हुए वेहल्ल कुमार को वापस भेज दिया जाये । स्वामिन् । यदि कोणिक चतुरंगिणी सेना से संपरिवृत हुआ युद्ध के लिये सुसज्जित होकर शीघ्र ही यहां आ रहा है, तो हम कोणिक राजा के साथ युद्ध करेंगे ।। ८३ । टीका - प्रस्तुत सूत्र में बताया गया है कि जब नव मल्ली नव लिच्छवि, काशी-कौशल देशों के अठारह राजाओं ने अपने गण प्रमुख की बात सुनी तो आपस में विचार-विमर्श किया। सभी राजा न्याय प्रिय थे । शरण में आए शरणागत की रक्षा करने व राजा के कर्त्तव्यों से भली भान्ति अवगत थे। सभी आपसी विमर्श के बाद राजा चेटक के पास आए और आकर निवेदन कियाहे स्वामी ! यह बात उचित नहीं है न ही न्याय से प्राप्त को लौटना उचित माना जा सकता है क्योंकि गुणवान व्यक्ति अयोग्य कार्य नहीं कर सकता। यह बात न ही राजा के योग्य है कि Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ग-प्रथम] (१४०) [निरयावलिका शरणागत को शरण न दी जाए। यदि को णिक युद्ध के लिये आ रहा है तो हम सब युद्ध के लिए तैयार हैं । पर शरणागत को लौटाना किसी भी तरह ठीक नहीं। प्रस्तुत सूत्र से सिद्ध होता है कि सभी राजा महाराजा चेटक को अपना प्रमुख मानते थे। यह बात उनके द्वारा प्रयुक्त निम्नलिखित शब्दों से सिद्ध हो रही है। ___ "न एवं सामी ! जुत्तं वा पत्तं वा रायसरिसं वा" "हे स्वामिन् !" यह सम्बोधन इस बात को सिद्ध करता है। जबकि राजा चेटक उन्हें देवानप्रिय-शब्द से सम्बोधित करता है। प्रस्तुत सूत्र में सभी राजा अपने स्वामी के प्रति निष्ठा प्रकट करते हैं ।।८३॥ उत्थानिका-उन गण राज्यों को चेटक राजा ने आगे क्या कहा, अब सूत्रकार इस विषय में आगे कहते हैं मूल-तए णं से चेडए राया ते नवमल्लइ-नवलेच्छइ-कासी-कोसलगा अट्ठारस वि गणरायाओ एवं वयासी-जइणं देवाणुपिया! तुब्भे कूणिएणं रन्ना सद्धि जुज्झइ, तं गच्छह णं देवाणुप्पिया! । सएसु-सएस-रज्जेस हाया जहा कालादीया जाव जएणं विजएणं वद्धाति ॥८४॥ . छाया-ततः खलु सः चेटको राजा तान् नवमल्ल कि-नवलेच्छकि-काशी-कौशलकान् अष्टादशापि गणराजान् एवमवादीत्-यदि खलु देवानुप्रियाः ! यूयं कूणिकेन राजा सार्द्ध युध्यध्वं, तद् गच्छत खलु देवानुप्रियाः ! स्वकेषु स्वकेषु राज्येषु, स्नाता कालादिका यावद् जयेन विजयेन वर्द्धयन्ति ॥४॥ पदार्थान्वयः-तएणं-तत्पश्चात्, से चेडए राया-वह राजा चेटक, नव मल्लई, नव लेच्छइ, कासी कोसलगा अट्ठारस वि गणरायाणो एवं वयासी-नवमल्ली, नव लिच्छवी, काशी कौशल प्रादि देशों के अठारह गणराजाओं के प्रति इस प्रकार कहने लगा जइ णं देवाणुप्पिया-यदि हे देवानुप्रियो ! तुम्भे कृणिएणं रन्मा सद्धि जुज्झइ-आप कोणिक राजा के साथ युद्ध करना चाहते हो, तं गच्छह णं देवाणुप्पिया- देवानुप्रियो (आप) जामो, सएसु सएसु रज्जेसु-अपने अपने राज्यों में, व्हाया-स्नानादि क्रियायें करके, जहा—जैसे, कालाइया-कालादि दश कुमार कोणिक पास) पाए थे, जाव-यावत्, जएणं विजएणं वद्धावेन्ति-राजा चेटक के समीप जय-विजय शब्दों से वधाई देते हैं (वैसा आप भी करें)॥४॥ Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरयावलिका] (१४१) [वर्ग-प्रथम मूलार्थ-तत्पश्चात वह राजा चेटक उन नव मल्ली, नव लिच्छवि, काशी कौशल देशों के अठारह गणराजाओं को इस प्रकार कहने लगा-हे देवानुप्रियो ! आप लोग पहले अपने-अपने राज्यों में जाओ और स्नानादि क्रियायें करो। जैसे कालादि दश कुमार राजा कोणिक के पास आए हैं इसी प्रकार के राजा लोग चेटक के पास जय - विजय शब्दों के साथ वधाई देते हुई लौट आए। टीका-सभी गणराजाओं ने जब युद्ध के प्रति अपनी सहमति प्रदान की तो वैशाली गणराज्य प्रमुख राजा चेटक ने अपने यहां आए नव मल्ली, नव लिच्छवि काशी-कौशल देशों के अठारह गणराजाओं से कहा कि आप भी युद्ध की तैयारी करें" सभी राजा अपने अपने प्रदेश में जाते हैं फिर सैनिक दल-बल के साथ राजा चेटक के पास आते हैं। सूत्रकार का कथन है कि इन राजाओं की युद्ध की तैयारी व राजा चेटक के पास पाने का वर्णन कालादि दश कुमारों की तरह है जिसका सूत्रकार ने वर्णन पहले कर दिया है ।।८४॥ मूल-तए णं से चेडए राया कोडुंबियपुरिसे सद्दावेइ, सद्दावित्ता एवं वयासो-आभिसेक्कं जहा कूणिए जाव दुरूढे ॥१५॥ छाया-ततः खलु स चेटको राजा कौटुम्बिकपुरुषान् शब्दयति, शब्दयित्वा एवमवादीत्आमिषेक्यं यथा कूणिको यावद् दूरूढः ।।८५॥ पदार्थान्वयः-तएणं-तत्पश्चात्, से चेडए राया-वह राजा चेटक, कोडम्बियपुरिसे सहावेई सदावित्ता-अपने कोटुम्बिक पुरुषों को बुलाता है और बुलाकर, एवं वयासी-इस प्रकार कहने लगा, अभिसेक्क जहा कुणिए जाव दुरुढे हे देवानुप्रिय अभिषेक युक्त हस्तिरत्न को तैयार करो, जिस प्रकार कोणिक राजा हाथी पर आरूढ़ हुआ, यावत् उसी प्रकार चेटक भी हाथी पर सवार हो गया ॥८॥ मूलार्थ-तत्पश्चात् वह राजा चेटक कौटुम्बिक पुरुषों अर्थात् अपने अधिकारी वर्ग को बुलाकर आज्ञा प्रदान करता है-हे देवानुप्रियो ! अभिषिक्त हाथी लाने की तैयारी करो। (यहां हाथी पर आरूढ़ होने तक का समस्त वर्णन राजा कोणिक की तरह जानना चाहिए), अर्थात् राजा चेटक भी वैसे ही हस्ती-रत्न पर आरूढ़ हुआ। Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ग-प्रथम] (१४२) [ निरयावलिका 4888888888ARRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRB 8 %999999 ___टीका-प्रस्तुत सूत्र में राजा चेटक की युद्ध-स्थल में जाने की तैयारी का वर्णन किया गया है। राजा चेटक युद्ध के योग्य हाथी को तैयार करने की अपने सेवकों को प्राज्ञा देता है। सेवक आज्ञा का पालन करते हुए हाथी तैयार करके प्रस्तुत करते हैं। राजा चेटक भी राजा कोणिक की तरह उस हाथी पर सवार होता है ।।५।। उत्थानिका-अब सूत्रकार पूर्वोक्त विषय में ही पुनः कहते हैं मूल-तएणं से चेडए राया तिहिं दंतिसहस्सेंहिं जहा कूणिए जाव वेसालि नरि मज्झं-मज्झेणं निगच्छइ निग्गच्छित्ता जेणेव ते नवमल्लइनवलेच्छइ-कासी-कोसलगा अट्ठारस वि गणरायोणो तेणेव उवागच्छइ।.. तएणं से चेडए राया सत्तावन्नाए दंतिसहस्सेहि, सत्तावन्नाए आससहस्सेहि, सत्तावन्नाए रहसहस्सेहिं सत्तावन्नाए मणुस्सकोडीएहिं सद्धि संपरिवुडे सविड्ढीए जाव रवेणं सुहिं वहिं पायरासेहिं नातिविप्पगिठेहिं अंतरेहि वसमाणे-वसमाणे विदेहं जणवयं मज्झं-मज्झेणं जेणेव देसपते तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता खंधावारनिवेसणं करेइ, कूणियं रायं पडिवालेमाणे जुज्झ-सज्जे चिठ्ठइ ॥८६॥ छाया-ततः खलु स चेटको राया त्रिभिदंन्तिसहस्र्यथा कणिको याद वैशाली नगरी मध्यमध्येन निर्गच्छति, निर्गत्य यत्रैव ते नवमल्लकी -- नवलेच्छ की-काशी-कौशलका अष्टादशापि गणराजास्तत्रवोपागच्छति। तत खलु स चेटको राजा सप्तपञ्चाशता दन्तिसहस्र सप्तपञ्चाशता अश्वसहस्रः, सप्तपञ्चाशता रथसहस्रः, सप्तपञ्चाशता मनुष्यकोटिभिः, सार्द्ध संपग्वित' सर्वर्द्धर्या यावद् रवेण शर्वसतिप्रातराशै तिविप्रकृष्टैरन्तरर्वसन् वसन् विदेह जनपदं मध्यं-मध्येन यत्रैव देशप्रान्तस्तत्रैवोपागच्छति, उपागत्य स्कन्धावारनिवेशनं करोति, कृत्वा कुणिक राजानं प्रतिपाल यन् युद्धसज्जस्तिष्ठति ।।६।। पदार्थान्वयः-तएणं-तत्पश्चात, से चेडए राया-वह राजा चेटक, तिहि दन्तिसहस्सेहितीन हजार हाथियों के साथ, जहा काणए जाव-जैसे कोणिक राजा यावत्, वेसालियर मज्झंमज्झणं निगच्छइ निग्गच्छित्ता-वैशाली नगरी के बीचों-बीच होता हुआ आता है और आकर; जेणेव ते नव मल्लइ, नव लेच्छइ अट्ठारस वि गणरायाणो-नव मल्ली, नव लिच्छवी और काशी कौशल देशों के अठारह गणराजा थे, तेणेव उवागच्छइ-वहीं पर प्राता है। Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरयावलिका (१४३ ) वर्ग-प्रथम तएणं-तत्पश्चात्, चेडए राया-फिर वह राजा चेटक, सत्ताबन्नाएदन्ति-सहस्सेहि. सत्तावनाए आससहस्सेहि, सत्तावन्नाए रहसहस्सेहि, सत्तावन्नाए मणुस्सकोडीहिं सद्धि संपरिवुडे-सत्तावन हजार हाथियों, सत्तावन हजार घोड़ों, सत्तावन हजार रथों और सत्तावन करोड़ मनुष्यों (संनिकों) से घिरा हुमा, सविडोए जाव-यावत्, रवेणं-सर्व ऋद्धि-युक्त यावत् वाद्य यन्त्रों के स्वरों के साथ, सुभेहि वसहीहि-शुभ बस्तियों में पड़ाव डालता हुआ, पायरासेहि-प्रातःकालीन जलपानादि करता हुआ, नाइविप्पगिहिं अंन्तरेहि वसमाणे वसमाणे-अति लम्बा रास्ता न तह करता हुआ, मार्ग में पड़ाव डाल कर निवास करता हुआ, विदेहं जणवयं मझमझेणं-विदेह देश के बीचों-बीच से होता हुआ, जेणेव देसपन्ते-जहां देश की सीमा थी, तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छत्ता-वहां आता है और आकर, खन्धावार - निवेसणं करेइ-सेना का पड़ाव डलवा देता है और, कणिय रायं पडिवालेमाणे जुद्धसज्जे चिट्ठ इ-और राजा कोणिक की प्रतीक्षा करता हमा युद्ध-क्षेत्र में आकर ठहर जाता है ।।८६।। मूलार्थ-तत्पश्चात् वह राजा चेटक तीन हजार हाथियों के साथ, जैसे कोणिक राजा यावत् चम्पा नगरी के मध्य में से होता हुआ, निकलता है, (वैसे ही यह भी वैशाली नगरी से निकला) और निकलकर, जहां वे नवमल्ली नवलिच्छवी काशी कौशल देश के अठारह गण राजा उपस्थित थे वहां आया और वहां आकर वह राजा चेटक सत्तावन हजार हाथी, सत्तावन हजार घोड़े, सत्तावन हजार रथ, सत्तावन करोड़ मनुष्यों (सैनिकों) के साथ घिरा हुआ यावत् सर्व ऋद्धि युक्त वाद्य यंत्रों के शब्दों के साथ शुभ स्थानों पर पड़ाव डालता हुआ प्रात:कालीन भोजन ग्रहण करते हुए लम्बी यात्रा न करता हुआ विदेह देश के बीचों-बीच से होता हुआ. जहां अपने राज्य की सीमा थी, वहां आता है और वहां आकर सेना का पड़ाव डालता है । अब वह राजा कोणिक की प्रतीक्षा करता हुआ युद्ध के लिये ठहर जाता है ।।८६।। टोका-राजा चेटक अपनी सेना के साथ चलता हुआ जहां पर नवमल्ली नव लिच्छवी अठारह काशी कौशल आदि के अन्य गणराजा थे उनसे आकर मिला। चेटक उनका प्रमुख राजा था, इसलिए राजा चेटक विशाल सेना के साथ सुसज्जित होकर विदेह देश की सीमा पर आ पहुंचा और वहां कोणिक राजा की युद्ध के लिये प्रतीक्षा करने लगा॥८६॥ उत्थानिका-तत्पश्चात् क्या हुआ ? अब सूत्रकार इसी विषय में कहते हैं मूल-तएणं से कूणिए राया सविड्ढीए जाव रवेणं जेणेव देसपंते Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बर्ग - प्रथम ] ( १४४ ) [ निरयावलिका तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता चंडयस्स रन्नो जोयणंतरियं खंधावार निवेस करेइ । CA तणं से दोन्निवि रायाणो रणभूमि सज्जावेति, सज्जावित्ता रणभूमि जयंति ॥८७॥ छाया - ततः खलु स कूणिको राजा सर्वद्वर्या यावद् रवेण यत्रैव देशप्रान्तस्तत्रैवोपागच्छति उपागत्य चेटकस्य राज्ञो योजनान्तरितं स्कन्धावार निवेशं करोति । ततः खलु तौ द्वावपि राजानौ रणभूमि सज्जयतः, सज्जयित्वा रणभू यातः ॥ ८७ ॥ पदार्थान्वयः - तएणं – तत्पश्चात्, से कूणिए राया- वह राजा कोणिक, सध्विड्डीए जाव रवेणं यावत् सर्व ऋद्धि-युक्त एवं वाद्य यन्त्रों के स्वरों के साथ, जेणेव देसपन्ते नेणेव उवागच्छ उवागच्छित्ता - जहां मगध देश की सीमा थी वहां वह आया और आकर, चेडयस्स रन्नो जोयणन्तरियं - राजा चेटक के एक योजन के अन्तर से रवन्धावारनिवेस करेइ - सेना का स्कन्धावार अर्थात् सैनिक छावनी को ठहराता है । तए - तत्पश्चात्, ते दोन्नि वि रायाणो रणभूमि सज्जावेन्ति सज्जावित्ता- वे दोनों राजा भूमि को सजाते हैं अर्थात् व्यूह रचना करते हैं, और सजा कर, रणभूमि जयंति रण भूमि में जीतने की इच्छा करते हैं ||८७|| मूलार्थं–तत्पश्चात् राजा कोणिक सर्व ऋद्धि-युक्त यावत् वाघ-यंत्रों के साथ जहां मगध देश की सीमा थी वहां आया और आकर राजा चेटक से एक योजन की दूरी पर अपनी सेना का पड़ाव डाल दिया । तत्पश्चात् वे दोनों राजा रणभूमि को शुद्ध करते हैं, अर्थात् झाड़-झंखाड़ साफ कर युद्ध के योग्य व्यूह बनाते हैं, शुद्ध करके, रण भूमि में जीतने की इच्छा से आते हैं ।। ८७ । टीका - तब वह राजा कोणिक सर्व राजकीय ऋद्धियों के साथ यावत् वाद्य-यन्त्रों की ध्वनियों के साथ मगध देश की सीमा पर पहुंचकर राजा चेटक से एक योजन के अन्तर पर स्कन्धावार अर्थात् अपनी सैनिक छावनी डाल देता है । सारांश यह कि उसने राजा चेटक से एक योजन की दूरी पर अपना स्कन्धावार स्थापित किया । एक योजन के कहने का सारांश यह है कि दोनों देशों की एक-एक योजन भूमि में युद्ध करने का निश्चय किया गया था और 'देशपंत' इस पद से Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरयावलिका] (१४५ ) [वर्ग-प्रथम यह सूचित किया है कि अपने-अपने देश की सीमा पर दोनों राजाओं की सेनाएं स्थित हो गई थीं। यह योजन-भूमि दोनों पक्षों की ओर से निश्चित की गई होगी। क्योंकि तत्कालीन युद्ध के नियमानुसार जो राजा दूसरे की सीमा में प्रविष्ट होकर युद्ध करते हुए आगे बढ़ जाता था उसे ही विजयी माना जाता था। . प्रस्तुत सूत्र में बताया गया है कि दोनों राजाओं की सेना युद्ध-परम्परा के अनुसार युद्धभूमि को शुद्ध करती है। जिस प्रकार मल्ल मल्लयुद्ध के लिये अपना-अपना स्थान (अखाड़ा) शुद्ध करते हैं ठीक उसी प्रकार दोनों राजाओं ने रणभूमि को शुद्ध किया-एक योजन भूमि को ठीक किया-कांटे, झाड़ियां आदि साफ की गई। जिससे सेना शीघ्रता से आगे बढ़ सके। इस प्रकार साफ की हुई रण भूमि में पहुंच कर वे युद्ध के लिये सुसज्जित होने लगे ॥८७।। उन्थानिका-फिर पूर्वोक्त बिषय में कहते हैं मूल-तएणं से कूणिए तेत्तीसाए दंतिसहस्सेहिं जाव मणुस्सकोडोहिं गरुलवूह रइए, रइत्ता गरुलवूहेणं संगाम उवायाए ॥१८॥ छाया-ततः खलु स कूणिकस्त्रयस्त्रिशता दन्तिसहस्रर्यावन्मनुष्यकोटिभिर्गरुडव्यूह रचयति, रच यित्वा गरुडव्यूहेन रथमुशलं सङ्ग्राममुपायातः ।।८।। पदार्थान्वय:-तएणं से कूणिए-तत्पश्चात् व राजा कोणिक, तेत्तीसाए दन्तिसहस्सेहितेंतीस हजार हाथियों के सहित, जाब-यावत्, मणुस्सकोडीहिं-एक करोड़ सैनिकों सहित, गरुलहेणं-गरुड़ व्यूह रच कर, रह-मुसलं संगाम, उवायाए-रथ मूसल संग्राम के लिये प्रा गया ॥८८।। मूलार्थ-तत्पश्चात् उस राजा कोणिक ने तेंतीस हजार हाथियों एवं तेंतीसतेंतीस हजार घोड़ों, रथों और कोटि पैदल सैनिकों से युक्त होकर गरुड-व्यूह की रचना की। गरुड-व्यूह की रचना करके वह राजा कोणिक रथ-मूशल संग्राम की तैयारी में प्रवृत्त हुआ ॥१८॥ ___टोका-प्रस्तुत सूत्र में राजा कोणिक द्वारा वैशाली के सीमान्त के समीप गरुड़-व्यूह की रचना करने का वर्णन है। गरुड़-व्यूह का अर्थ है जिस सेना का अग्र भाग विशाल हो, जिससे शत्रु पर प्रभाव पड़ सके वही सेना प्रथम आक्रमण करती है। ___ रथ मूसल संग्राम का विशद वर्णन भगवती सूत्र में आता है । जिज्ञासुओं को उस स्थल का स्वा ध्याय करना चाहिये ।।८।। Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ग-प्रथम] (१४६) । निरयावलिका उत्थानिका-अब सूत्रकार राजा चेटक की व्यूह-रचना के विषय में कहते हैं - मूल-तएणं से चंडए राया सत्तावन्नाए दंतिसहस्सेहिं जाव सत्तावन्नाए मणुस्सकोडीहिं संगडवूहं रएइ, रइत्ता सगडवूहेणं रहमसलं संगाम उवायाए। ८६॥ छाया-तता खलु सः चेटको राजा सप्तपञ्चाशद्भिः दन्तिसहस्रर्यावत् सप्तपञ्जाशद् भा मनुष्यकोटिभिः शकटव्यूह रचयति, रचयत्विा शकटव्यू हेन रथमुसलं संग्राममुपायातः ।। ८ ।। पदार्थान्वयः-तएणं-तत्पश्चात्, से चेडए राया-वह राजा चेटक, सत्तावन्नाए दन्तिसहस्सेहिं नाव सत्तावन्नाए मणुस्ससोडीहिं सगड-वूहं रइए रइत्ता-सत्तावन हजार हाथियों यावत् सत्तावन करोड़ मनुष्यों से युक्त होकर शकट-व्यूह की रचना करता है, रचना करके, सगड़वहेणं रहमुसलं संगामं उवायाए-शकट-व्यूह की रचना करके रथ-मुशल संग्राम को लक्ष्य में रख कर युद्धभूमि में आता है ।।८६॥ मूलार्थ-तत्पश्चात् वह राजा चेटक सत्तावन हजार हाथियों और सत्तावनसत्तावन हजार घोड़ों और रथों के तथा सत्तावन करोड़ सैनिकों के साथ आकर शकटव्यूह की रचना करता है । रचना करके शकट-व्यूह द्वारा रथमूसल संग्राम को लक्ष्य में रख कर युद्ध-भूमि में उतरता है ।।८९॥ . टोका-प्रस्तुत सूत्र में वैशाली मणराज्य-प्रमुख राजा चेटक द्वारा शकट-व्यूह की रचना द्वारा रथ-मूसल संग्राम में उतरने का वर्णन है। शकट-व्यूह की रचना इस प्रकार होती है-सबसे आगे के हिस्से में ज्यादा शकट, बीच में इनकी संख्या कम होती जाती है, पिछला भाग में फिर विशाल होता है। यहां यह ध्यान रहना चाहिए कि जहां कोणिक ने गरुड़-व्यह की रचना की है वहां राजा चेटक ने शकट-न्यूह की रचना की है । अतः इस सूत्र से सिद्ध होता है कि युद्ध-विशेषज्ञ सेना की तैनाती इस प्रकार करते थे कि शत्रु का व्यूह-भेदन किया जा सके ॥६॥ उत्थानिका- तत्पश्चात् क्या हुआ, अब सूत्रकार इस विषय में कहते हैं मूल-तएणं ते दोण्ह वि राईणं अणीया सन्नद्धा जाव गहियाउहपहरणा मंगतिएहिं फलएहि निक्कटाहिं असीहि, अंसागएहि तोहिं, Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरयावलिका) (१४७ ) [वर्ग-प्रथम संजोवेहि धर्हि, समुक्खित्तेहि, सरहिं, समुल्लालिताहिं डावाहि, ओसारियाहिं उरुघंटाहि, छिप्पतूरेणं वज्जमाणेणं, महया उक्किट्ठसोहनायबोलकलकलरवेणं समद्दरवभूयं पिव करेमाणा सविड्ढोए जाव रवेणं हयगया हयगहि, गयगया गयगहि, रहगया रहगहि, पायत्तिया पायलिएहिं, अन्नमन्नेहि सद्धि सपलग्गा यावि होत्था ॥१०॥ छाया-तप्तः खलु ते द्वयोरपि राज्ञोरनीके सन्नद्धा यावद्-गृहीतायुधप्रहरणे मङ्गतिकः फलकः निष्कासितैरसिभिः, अंशगतैस्तुणैः, सजीवर्धनुभिः समुक्षिप्तः शरैः, समुल्लालिताभिः डावाभिः, अवसारिताभिः उरुघण्टाभिः, क्षिप्रतूरेण वाद्यमानेन महता उत्कृष्टसिंहनादबोलकलकलरवेणं समुद्ररवभूतमिव कुर्वाणे सर्वऋद्धया यावद् रवेण हयगताः हयगतैः, गजगताः गजगतैः, रथगताः रथगतः, पदातिका पदातिकः, अन्योन्यः साद्धं संप्रलग्नाश्चाऽत्यभूवन् ।।६०॥ पदार्थान्वयः-तएणं-तत्पश्चात्, ते दोण्हं वि राईणं-उन दोनों राजाओं की, अणोयासेना, सन्नद्धा-सज कर कवच आदि पहन कर, जाव-यावत्, गहियाउहपहरणा-प्रहारक प्रायुध ग्रहण करके उन्होंने, मंगतिएहि-ढालों से, फलहि-फलकादि से, म्यान से बाहिर निकाली, निकट्टाहि-छोटे आकार के, असीहि-खड़गों से, अंसागएहि- स्कन्ध पर रखे, तोहितणीरों से, सजीवेहि-खिची हुई डोरी वाले, धणहि समुक्खितेहि-धनुष को ऊंचा करके फेंके गए बाणों से, सरहिं समुल्लालियाहि-शिरों को उछालने से; डवाहि ओसारियाहि-बायीं भुजा ऊंची करके बर्थी आदि ऊंची करने से, ऊरुघण्टाहि छिप्पतरेणं-हाथी घोड़ों आदि की जंघाओं से जो धुंघरू बांधे होते हैं उनके स्वर से, वज्जमाणेणं-वाद्य-यन्त्रों की ध्वनियों से, महया-बड़े, उक्कट्ठसोहनाय वोलकलकलरवेणं- उत्कृष्ट सिहनाद के समान, गर्जनाओं से, समुद्दरवभूयं पिव करेमाणासमुद्र के समान शब्द करते हुए, सब्विड्डोए-सर्व ऋद्धि युक्त अर्थात् अनेक विध आभूषण पहने हुए, जाव- यावत्, रबेणं-वाद्य यन्त्रों के स्वरों के साथ, हयगया-अश्वों के सवार, हयगहि-अश्वों के सवारों के साथ, गयगया गयगएहि-हाथी पर बैठे हुए हाथी पर सवारों के साथ, रहगया रहगहि-रथ के सवार रथियों के साथ, पायत्तिया पायत्तिएहि-पैदल सैनिक पैदल सैनिकों के साथ, अन्नमस्नेहि सद्धि परस्पर, संपलग्गा यावि होत्था-युद्ध करने में जुट गए ।।६० । मूलार्थ-तब दोनों राजाओं की सेनायें सजधज कर अर्थात् कवचादि पहन कर आ गई, उन्होंने सब तरह के आयुध ग्रहण किये और ढाल बरछी आदि को हाथों में ग्रहण किया। इस प्रकार फलक आदि से, म्यान से बाहर निकाले छोटे, खगों से, स्कन्धों पर Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ग-प्रथम] (१४८) [निरयावलिका तूणीर रखने से धनुष चढ़ाने से, धनुष की डोरी आदि के खींचने से, और शीशों उछालने से, भुजा आदि के ऊंचा करने से, हाथी घोड़ों आदि की जघांदि में बंधे घण्टा आदि जन्यध्वनियां करने से, वाद्य-यन्त्रों के वजने से बहुत ही ऊंचा उत्कृष्ट सिंहनाद यावत् शब्दों की कल-कल ध्वनियों से, समुद्र की भांति शब्द करते हुए, सर्व ऋद्धियों के साथ यावत् वाद्य-यन्त्रों के स्वरों के साथ, घोड़े वाले घोड़े वालों से, हाथी वाले हाथी वालों से, रथों वाले रथ वालों से, पैदल पंदल से परस्पर युद्ध करने लग गए ॥१०॥ टीका-प्रस्तुत सूत्र में दोनों सेनाओं के परस्पर युद्ध का विस्तृत रूप से वर्णन किया गया है। दोनों तरफ की चतुरंगिणी सेना मैदान में आ गई। विभिन्न हथियारों से युद्ध होने लगा । युद्ध में उत्साह-वर्धक वाद्य-यन्त्र बजने लगे। इसमें एक बात स्पष्ट की गई है कि रथ वाले सैनिक रथ वालों से लड़ रहे थे, हाथी पर चढ़े, हाथी पर सवार सैनिकों व घोड़ों पर चढ़े घुड़ सवारों से परस्पर युद्ध करने लगे, पैदल सैनिक पैदल से भिड़ने लगे। यहां कुछ शब्द ध्यान देने योग्य हैं-मंगतिएहि फलएहि-इसका अर्थ टीकाकार ने इस प्रकार किया है मंगतिएहि त्ति हस्तपाशितैः, फलकादिभः-फलकादि से हाथ में पाश रूप बनाया हुआ । इस प्रकार वैशाली के मैदान में परस्पर दोनों सेनामों में घमासान युद्ध होने लगा ॥१०॥ उत्थानिका-अब सूत्रकार फिर इसी विषय में आगे कहते हैं __मूल-तएणं ते दोण्ह वि रायाणं अणीया णियगसामीसासणाणुरत्ता महंत जणक्खयं जणवहं जणप्पमई जणसंवट्ट कप्पं नच्चंतकबधवार भीम रुहिरकद्दमं करेमाणा अन्नमन्नेणं सद्धिं झुझंति ॥१॥ . छाया-ततः खलु ते द्वयोरपि राज्ञोरनीके निजकस्वामिशासनानुरक्ते महान्तं जनक्षयं जनवधं जनप्रमर्व जनसंयर्तकल्पं नृत्यत्कबन्धवारभीमं रुधिरकर्दमं कुर्वाणो अन्योऽन्येन साद्धं युध्येते ॥६॥ पदार्थान्वय:-तएणं-तत्पश्चात्, णं-वाक्यालंकार, ते दोण्ह वि रायाणं - उन दोनों राजाओं की, अगोया-सेनायें, णियासामीसासरत्ता-अपने-अपने स्वामी के अनुशासन में रहते हुए (वफादारी से), महया-बड़ी संख्या में, जणक्खयं - जनों को क्षय कर; जणवहं-जनों का वध कर, जणप्पमई-जनों का प्रमर्दन कर उन्हें कुचल, जणसंवट्टक-जन-संहार के समान, नन्चंतकबंधवारभीम-शिर के बिना घड़ों के नाचने के कारण भयानक बनी युद्ध भूमि में, . हहिरकद्दमं करेमाणा-खून से मैदान में कीचड़ से भरते हुए, अनमनेणं सद्धि झुन्झति-परस्पर युद्ध करने लगे। Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निश्यावलिका ] ( १४६ ) | वग- प्रथम में मूलार्थ–तत्पश्चात् दोनों राजाओं की सेनायें अपने-अपने स्वामी के अनुशासन अनुरक्त होकर बहुत से लोगों का क्षय, वध, प्रमर्दन करने लगी जिससे मृतकों के सिरों की बहुत संख्या हो गई । युद्ध-स्थल में सिर के बिना धड़ नाच रहे थे । हाथियों का रूप भयंकर हो गया । मैदान को खून के कीचड़ से भरते हुए योद्धा परस्पर लड़ने लगे ॥ ९१ ॥ । टीका - प्रस्तुत सूत्र में युद्ध का वर्णन करते हुए बताया गया है कि यह युद्ध कितना भयंकर था। दोनों ओर के सैनिक अपनी-अपनी स्वामी भक्ति का परिचय देते हुए बहादुरी से अपने प्राणों की अहुतियां देने लगे । इस सूत्र में कुछ शब्द ध्यान देने योग्य हैं "नियग सामीसासणाणुरत्ता” का अर्थ अपने स्वामी की भक्ति में अनुरक्त हुए " जणसंवट्टक" का अर्थ है जिस प्रकार संवर्तक वायु चारों ओर से वस्तु एकत्र करती है। इसी प्रकार इस रथ मुशल में संग्राम में सैनिकों के शिर इकट्ठ े हो रहे थे । "नच्चे तक बंधवार भीमं " अर्थात् सिर के घड़ नाच रहे थे । ।।१।। उत्थानिका- अब सूत्रकार कॉल कुमार के विषय में कहते हैं मूल-तएण से काले कुमारे तिहिं दंतिसहस्सेहिं जाव मणुस्सकोडी हिं गरुलवणं एक्कारसमेणं बंधेणं कूणियरहमुसलं संगामं संगामेमाणे हयमहियजहा भगवया कालीए देवीए परिकहियं जाव जीवियाओ ववरोबिए ||२|| छाया—ततः खलु स कालः कुमारस्त्रिभिर्दन्तिसहस्रर्यावन्मनुष्यकोटिभिर्गरुडव्यूहेन एकादशेन स्कन्धेन कूणिकरथमुशलं संग्रामं संग्रामयन् हतमथितयथा भगवता काल्यै देव्यै परिकथितं यावज्जीविताद् व्यपरोपिताः ||६२।। पदार्थान्वयः—तएणं– तत्पश्चात्, से काले कुमारे-- वह काल कुमार, तिहि दंन्तिसहस्सेहितीन हजार हाथियों, जाव - यावतृ मणुस्सकोडीहि-करोड़ों सैनिकों को साथ लेकर, गरुल वहेणं - गरुड़ व्यूह से, एक्कारसमेणं खंधेणं - अपनी सेना के एकादश भाग सहित, कूणिएणं रन्ना सद्धि-कोणिक राजा के साथ रह कर, रहमुसलं संगामं संगामेमाणे - रथ मुशल संग्राम में संग्राम करता हुआ, हयमहियंजहा - हतमथित हो गया अपना होश- हवास खो बैठा जैसे, कालीए देवीए परिकहि-काली देवी के प्रति (भगवान) ने कहा, जाव- यावत्, जीवियाओ ववरोविए - जीवन व्यतिरिक्त हो गया अर्थात् मारा गया ||२|| Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ग-प्रथम] (१५०) [निरयावलिका मूलार्थ-तत्पश्चात् वह काल कुमार अपने तीन हजार हाथियों और करोड़ों सैनिकों से युक्त यावत् गरुड़-व्यूह की रचना करके अपनी सेना के ग्यारहवें भाग सहित, राजा कोणिक के साथ रह कर रथ-मशल संग्राम में राजा चेटक से युद्ध करते हुए आहत और मथित हुआ, जैसे भगवान महावीर ने काली देवी से कहा था यावत् जीवन से रहित अर्थात् मारा गया ॥९२॥ टीका-प्रस्तुत सूत्र में राजा कोणिक द्वारा चलाए गए रथ-मुसल संग्राम का वर्णन है । इस समय काल कुमार भी तीन हजार हाथियों यावत् तीन करोड़ सैनिकों के साथ राज चेटक के द्वारा मारा गया। चम्पा में विराजित सर्व विवरण काली देवी (श्रेणिक की रानो) को श्रमण भगवान . महावीर सुना रहे हैं। इस स्थान पर कोटि मनुष्यों का उल्लेख है-३३ करोड़ सेना का वर्णन है। राजा चेटक एवं अठारह गणराजाओं की सेना का प्रमाण सत्तावन करोड़ बताया गया है। यहां पर हमारा विचार है कि कोटि एक विशेष संज्ञा होगी जो उस समय सैनिक परिमाण के लिए प्रयुक्त हुआ करती थी। तपागच्छीय श्वेलाम्बर श्री आत्माराम जी महाराज अपने ग्रंथ "जन तत्त्वादर्श" के सातवें परिच्छेद सम्यक्त्व के पांच अतिचारों का वर्णन करते हुए प्रथम शंका अतिचार में लिखते हैं-सो जिन-वचन में शंका करनी, क्योंकि जिन-वचन बहुत गम्भीर है और उसका यथार्थ प्रर्ष कहने वाला इस काल में कोई नहीं है और जो शास्त्र हैं सो अनेक नयात्मक हैं उनकी गिनती तथा संज्ञा विचित्र है। कई एक जगह तो कोटि शब्द करोड़ का वाचक है और किसी जगह रूढ़ वस्तु २० की संख्या का वाचक है। क्योंकि श्री जिनभद्र गणि क्षमा-श्रमण सर्व संघ के समस्त आचार्य संधयण नामा पुस्तक में तथा विशेषणवती ग्रंथ में लिखते हैं कि कोई प्राचार्य कोडी शब्द को एक करोड़ का वाचक नहीं मानते हैं, किन्तु संज्ञा तर मानते हैं, क्योंकि वर्तमान काल में भी बीस को कोड़ी कहते हैं तथा सौराष्ट्र देश में भी पांच माने की कोड़ी है । यह जैसे कोड़ी शब्द में मतान्तर है ऐसे ही शत सहस्र शब्द भी किसी संज्ञा के वाचक होवे तो कुछ दोष नहीं तथा शत्रुञ्जय तीर्थ में जो मुनि मोक्ष गए हैं वहां भी पांच कोड़ी आदि शब्द संज्ञा विशेष में है। ऐसे ही ५६ करोड़ यादवों की संख्या कोई संज्ञा विशेष है। कोणिक एवं चेटक राजाजों की सेना में जो कोड़ी शत शतसहस्र शब्द हैं सो संज्ञा विशेष के वाचक हैं। इसलिये सब शब्दों का सर्व जगह एक सरीखा अर्थ मानना युक्त नहीं है। इस कथन में पूज्य श्री जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण पूरे साक्षी देने वाले हैं । - हो सकता है "कोटि" शब्द आज को सैनिक शब्दावली के "कम्पनी" शब्द का बोधक । किसी भी कम्पनी में सैनिकों की संख्या निश्चित नहीं होतो . कम्पनी विशिष्ट सैनिक समूह को कहा. जाता है। ऐसे ही कोटि में सैनिकों की संख्या निश्चित नहीं होती होगी। फिर भी सत्य अर्थ तो केवली भगवान् को ही ज्ञात होगा ।।६२॥ Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरयावलिका (१५१) [बर्ग-प्रथम उत्थानिका-अब सूद्रकार काल कुमार की गति के विषय में कहते हैं मूल-तं एयं खलु गोयमा ! काले कुमारे एरिसएहिं आरंभेहिं जाव एरिसएणं असुभकडकम्मपन्भारेणं कालमासे कालं किच्चा चउत्थीए पंकप्पभाए पुढवीए हेमा नरए नेरइयत्ता उववन्ने ॥३॥ छाया-तदेतत् खल गौतम ! कालः कुमार: ईदृशरारम्भविद् ईदशेन अशुभकृतकर्मप्राग्भारेण कालं कृत्वा चतुर्थ्यां पङ्कप्रभायां पृथिव्यां हेमाभे नरके नैरयिकतयोपपन्नः ।।१३।। पदार्थान्त्रयः-तं एयं खल गोयमा-हे गौतम निश्चय ही, काले कुमारे एरिसहि आरम्ह जाव एरिसएणं असुभकडकम्मषम्भारेण-काल कुमार इस प्रकार के आरम्भ से यावत् इस प्रकार के अशुभ कर्म के प्रभाव से, कालमासे कालं किच्चा-काल मास में काल करके, चउत्थोए पंकप्पभाए पुढवीए हेमामे नरए नेरय इयत्ता उववन्ने-चौथी पंकप्रभा पृथ्वी के हेमाभ नामक नरक-प्रावास में नारको रूप में उत्पन्न हुआ ॥६३।। मूलार्थ-श्रमण भगवान महावीर ने कथन किया कि- "हे गौतम ! काल कुमार इस प्रकार निश्चय ही आरम्भ यावत् अशुभ कृत्य के कारण, कालमास में काल करके चौथी पंकप्रभा पृथ्वी के हेमाभ नरकावास में नारकी रूप में उत्पन्न हुआ। ६३॥ ___टोका-काल कुमार का भविष्य बताते हुए श्रमण भगवान महावीर ने अपने प्रथम शिष्य गणधर इन्द्रभूति गौतम को बताया कि काल कुमार आरम्भ आदि अशुभ कर्मों के कारण मर कर चौथी नरक पंकप्रभा में हेमाभ नामक पृथ्वी में नारकी वना है। संसार की झूठी माया के पीछे संघर्ष का फल यही होता है । संग्राम में प्रायः तीनों योगों से हिंसा होती है, अत: उक्त क्रियाओं के त्याग से आत्मा को शान्ति की प्राप्ति हो सकती है ।।३।। उस्थानिका- अब इसी विषय में आगे कहते हैं और इस सूत्र का उपसंहार करते हैं। मूल-काले णं भंते ! कुमारे चउत्थीए पुढवीए अणंतरं उवट्टित्ता कहिं गच्छिहिइ ? कहिं उववज्जिहिइ ?।। गोयमा । महाविदेहे वासे जाइं कुलाई भवंति अड्ढाइं जहा दृढप्पइन्नो जाव सिज्झिहिइ बुज्झिहिइ जाव अंतं काहिइ । तं एवं खलु जंबू ! समणेणं भगवया जाव संपत्तेणं निरयावलियाणं पडमस्स अज्झयणस्स अयमढे पन्नत्ते तिबेमि ॥४॥ ॥ पढमं अज्झयणं समत्तं ॥१॥ Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ M वर्ग-प्रथम] ( १५२ ) [निरयावलिका e rrerare.-.-.--.-.-.-.-.-.-.-.-.___ छाया-कालः खलु भदन्त ! कुमारश्चतुर्थ्याः पृथिव्या अनन्तरमुद्वर्त्य कुत्र गमिष्यति ? कुत्रो. त्पत्स्यते ? गौतम ! महाविदेहे वर्षे यानि कुलानि भवन्ति आढयानि यथा दृढप्रतिज्ञो यावत् से स्यति भीत्स्यते यावद् अन्तं करिष्यति । तदेवं खलु जम्ब ! श्रमणेन भगवता यावत्संप्राप्लेन निरयावलिकामा प्रथमाध्ययनस्यायमर्थः प्रज्ञप्तः, इति ब्रवीमि ।।४।। ।। प्रथममध्ययनं समाप्तम् ॥१॥ पदार्थान्वय-कालेणं भन्ते ! कमारे-हे भगवन काल कुमार, चउत्थीए पढवीए-चौथी पृथ्वी से, अणन्तरं उव्वट्टित्ता कहिं गच्छिहिइ-बिना मन्तर नरक से निकल कर कहां पैदा होगा, कहिं उववज्जिहिइ-कहां उत्पन्न होगा, गोयमा महाविदेह वासे-हे गौतम महाविदेह क्षेत्र में, जाई कुलाइं भवन्ति-जो कुल हैं, अड्ढाइ-ऋद्धिमान धन-धान्य से युक्त, जहा-जैसे, दिढपइन्नोजैसे दृढ़ प्रतिज्ञ कुमार का वर्णन राज प्रश्नीय में कहा गया है, जाव सिज्झिहिइ वुझिहिइ जाव अन्तं काहिह-यावत् सिद्ध होगा , बुद्ध होगा यावत् सब दुःखों (कर्मों) का अन्त करेगा, तं एवं खलुं जम्बू-तो इस प्रकार निश्चय ही हे जम्बू, समणेणं भगवया जाव संपत्तेणं-श्रमण भगवान यावत् मोक्ष को प्राप्त, निरयावलियाणं पढमस्स अज्झयणस्स अयम? पण्णत्ते-निरयावलिका सूत्र के प्रथम अध्ययन का अर्थ प्रतिपादन किया गया है ।।१४।। __मूलार्थ-(गौतम स्वामी प्रश्न करते हैं) हे भगवन् ! वह काल कुमार चौथी नरक की आयु पूर्ण करके कहां पैदा होगा? कहां उत्पन्न होगा ? (इस प्रश्न के उत्तर में भगवान महावीर कहते हैं) हे गौतम ! महाविदेह क्षेत्र में ऋद्धिमान यावत् धन-धान्य से युक्त कुल में पैदा होगा, जैसे राजप्रश्नीय सूत्र में दृढ़प्रतिज्ञ कुमार का वर्णन है वैसे ही इसका वर्णन समझना चाहिए। फिर वह सिद्ध-बुद्ध मुक्त होगा। यावत् सब (कर्मों) का अंत करेगा, (जो जन्म मरण का कारण हैं) आर्य सुधर्मा अपने शिष्य जम्बू स्वामी से कहते हैं "हे जम्बू ! मोक्ष को संप्राप्त श्रमण भगवान ने निरयावलिका सूत्र के प्रथम अध्ययन का यह वर्णन किया है ॥९४।। टीका - भगवान महावीर ने काल कुमार का भविष्य बताते हुए अपने प्रिय शिष्य गणधर इन्द्रभूति को सूचित किया है कि यह काल कुमार चौथी नरक की आयु पूरी करके दृढ़प्रतिज्ञ की तरह महाविदेह क्षेत्र में जन्म लेगा। वहीं से यह शेष कर्मों का क्षय कर सिद्ध-वुद्ध-मुक्त होगा ।।६४॥ Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरयावलिका] (१५३ ) [वर्ग-प्रथम • प्रस्तुत अध्ययन के उपसंहार के रूप में जम्बू स्वामी से उनके पूज्य गुरुदेव श्री सुधर्मा कहते हैं-"जम्बू ! जैसे मैंने निरयावलिका के प्रथम अध्ययन का अर्थ अपने पूज्य शास्ता श्रमण भगवान महावीर से सुना था वैसा ही तुम्हें बताया है । हम पाठकों को जानकारी के लिये शास्त्रों में वणित लोक का स्वरूप संक्षेप में कथन करते हैं, ताकि स्वर्ग-नरक व महाविदेह क्षेत्र का विषय स्पष्ट हो जाए। जैन धर्म के अनुसार लोक लोक-अलोक की सीमा-लोक और अलोक की सीमा निर्धारण करने वाले स्थिर शाश्वत और व्यापक दो तत्त्व हैं - धर्मास्तिकाय और अधर्मास्तिकाय जो इस अखण्ड आकाश को दो भागों में विभाजित करते हैं। ये दोनों जहां तक हैं वहां तक लोक है और जहां इन दोनों का अभाव है, वहां अलोक है। धर्मास्तिककाय और अधम स्तिकाय के अभाव में जीवों और पुद्गलों को गति और स्थिति में सहायता नहीं मिलती। इसलिए जीव और पुद्गल लोक में ही हैं, अलोक में नहीं । महान् वैज्ञानिक अलबर्ट आइन्स्टीन ने भी क्षेत्र-लोक की सीमा इसी से मिलती-जुलती मानी है-“लोक के परिमित होने का कारण यह है कि द्रव्य अथवा शक्ति लोक के बाहर जा नहीं सकती। लोक के बाहर उस शक्ति (धर्मास्ति काय) का अभाव है जो गति में सहायक होती है।" __ लोक का संस्थान (आकार)- लोक का आकार सुप्रतिष्ठक - संस्थान बताया गया है, अर्थात्-वह नीचे विस्तृत, मध्य में संकीर्ण और ऊपर मृदंगाकार है। तीन शराबों (सकोरों) में से एक शराब औंधा रखा जाए दूसरा सीधा और तीसरा उसी के ऊपर औंधा रखा जाये तो जो आकृति बनती है वही आकृति (त्रिशरावात्-सम्पुटाकृति: लोक की है। अलोक का आकार मध्य में पोल वाले गीले जैसा है। (चित्र सामने देखें) सम्परोपाय अव प्रलोक का कोई भी विभाग नहीं है, वह एकाकार है। लोकाकाश तीन भागों में विभक्त है-ऊर्ध्वलोक, मध्यलोक और अधोलोक। तीनों लोकों की कुल लम्बाई १४ रज्जू (राज) है, जिसमें से सात रज्जू से कुछ कम ऊर्ध्वलोक है, मध्यलोक १८०० योजन परिमाण वाला है और अधोलोक सात रज्जू से कुछ अधिक है। लोक को इन तीन विभागों में विभक्त कर देने के कारण उन तीनों की पृथक्-पृथक् आकृतियां बनती हैं। धर्मास्तिकाय और अधर्मास्तिकाय कहीं पर फैले हुए हैं और कहीं संकुचित हैं। ऊर्वलोक में धर्मास्तिकाय और अधर्मास्तिकाय विस्तृत होते चले गए हैं। इस कारण ऊर्वलोक का भाकार मृदंग-सदृश है और मध्यकोक में वे कृश हैं, इसलिए उसका आकार, बिना किनारी वाली झालर के समान है। नीचे की बोर फिर वे विस्तृत होते चले गए हैं । इसलिए अधोलोक का आकार पौंधे शराब के जैसा बनता है यह लोकाकाश को ऊंचाई हुई । उसकी मोटाई सात रज्जू है । Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ग-प्रथम] ( १५४) [निरयावलिका लोक कितना बड़ा है ? लोक की मोटाई भगवान् महावीर ने एक रूपक द्वारा समझाई है - मान लो कि एक देव मेरुपर्वत की चूलिका (चोटी) पर खड़ा है जो एक लाख योजन को ऊंचाई पर है । नीचे चारों दिशाओं में चार दिक्कुमारियां हाथ में बलि पिण्ड लिए खड़ी हैं। वे बहिर्मुखी होकर एक साथ उन बलिपिण्डों को फेंकती हैं । देव उन चारों बलिपिण्डों को पृथ्वी पर गिरने से पूर्व ही हाथ से पकड़ लेता है और तत्काल दौड़ता है। ऐसी दिव्य शीघ्रगति से लोक का अन्त पाने के लिए ६ देव पूर्व, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण, ऊंचो और नीची इन छह दिशाओं में चले । ठीक इसी समय एक श्रेष्ठी के घर में एक हजार वर्ष की आयु वाला पुत्र उत्पन्न हुप्रा । उसकी आयु समाप्त हुई। इसके पश्चात् हजार-हजार वर्ष की आयु वाले उसके बेटे-पोते हुए। इस प्रकार की परम्परा से सात पीढ़ियां समाप्त हो गईं । उनके नाम-गोत्र भी मिट गए । तथापि वे देव तब तक चलते ही रहे, फिर भी लोक का अन्त न पा सके। यह ठीक है कि उन शीघ्रगामी देवों ने लोक का अधिकतर भाग तय कर लिया होगा, परन्तु जो भाग शेष रहा वह असंख्यातवां भाग है। इससे यह समझा जा सकता है कि लोक का आयतन कितना बड़ा है। प्रसिद्ध वैज्ञानिक आईन्स्टीन ने लोक का व्यास एक करोड़ अस्सी लाख प्रकाश वर्ष माना लोक के पायतन को पूर्वोक्त रूपक द्वारा समझने के पश्चात भी गौतम स्वामी की जिज्ञासा पूर्ण रूप से शान्त न हुई। वे सविनय बोले-"भन्ते ! यह लोक कितना बड़ा है ?" गौतम स्वामी के इस प्रश्न के उत्तर में भगवान महावीर ने कहा-“गौतम ! यह लोक बहुत बड़ा है। यह पूर्व, पश्चिम, उत्तर और दक्षिण तथा ऊर्ध्व और अधो दिशाओं में असंख्यात योजन कोटाकोटो (करोड़x करोड़) लम्बा चौड़ा है। अवलोक-परिचय-मध्यलोक से ६०० योजन ऊपर का भाग ऊर्वलोक कहलाता है। उसमें देवों का निवास है, इसलिए उसे देवलोक या स्वर्गलोक कहते हैं। देव चार प्रकार के होते हैं -भवनपति, वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिक । इस ऊर्ध्वलोक में कल्पोपन्न और कल्पातीत, ये दो प्रकार के वैमानिक देव ही रहते हैं। जिन देवलोकों में इन्द्र, सामानिक आदि पद होते हैं, वे देवलोक कल्प के नाम से प्रसिद्ध हैं। कल्पों (बारह देवलोकों) में उत्पन्न देव कल्पोपपन्न कहलाते हैं, और कल्पों (बारह देवलोकों) से ऊपर के (नव अवेयक और पांच अनुत्तर विमानवर्ती) देव कल्पातीत कहलाते हैं। कल्लातीत देवों में किसी प्रकार की असमानता नहीं होती। वे सभी इन्द्रवत् होने से अहमिन्द्र कहलाते हैं। किसी कारणवश मनुष्य-लोक में माने का प्रसंग उपस्थित होने पर कल्पोपपन्न देव ही आते हैं; कल्पातीत नहीं। अन्तिम देवलोक का नाम सर्वार्थसिद्ध है। इससे बारह योजन ऊपर सिद्धशिला है, जो ४५ लाख योजन लम्बी और इतनो ही चौड़ी है। इसकी परिधि कुछ अधिक तीन गुणी है । मध्यभाग में इसकी मोटाई आठ योजन है, जो क्रमशः Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरयावलिका] (१५५) [वर्ग-प्रथम किनारों की ओर पतली होती हुई अन्त में मक्खो के पंख से भी अधिक पतलो हो गई है। इसका आकार खुले हुए छत्र के समान है। शं व, अंकरल और कुन्दपुष्प के समान स्वभावत. श्वेत, निर्मल, कल्याणकर एवं स्वर्णमयी होने से इसे 'सीता' भी कहते हैं। 'ईषत् प्राग्भारा' नाम से भी यह प्रसिद्ध है। इससे एक योजन प्रमाण ऊपर वाले क्षेत्र को 'लोकान्तभाग' भी कहते हैं। उत्तराध्ययन सूत्र में इस लोकान्त को 'लोकार' भी कहा गया है, क्योंकि वह लोक का अन्त या सिरा है. इसके पश्चात् लोक की सीमा समाप्त हो जाती है। इस एक योजन प्रमाण लोकान्त भाग के ऊपरी कोस के छठे भाग में मुक्त (सिद्ध) आत्माओं का निवास है।। मध्यलोक का परिचय-मध्यलोक को तिर्यक्लोक या मनुष्यलोक भी कहा गया है। यह १८०० योजन प्रमाण है। इस लोक के मध्य में जम्बूद्वीप है और उसे घेरे हुए असंख्यात द्वीपसमुद्र हैं। ये सभी परस्पर एक दूसरे को वलय (चूड़ी) के आकार में धेरे हुए हैं। इनमें प्रायः पशुओं और वान-व्यन्तर देवों के स्थान हैं । इतने विशाल क्षेत्र में केवल अढ़ाई द्वीपों में ही मनुष्य जाति का निवास है। मनुष्य के साथ-साथ तिर्यञ्चों (ऐसे जीव जिनकी पीठ सदैव आकाश की तरफ रहती है) का भी इसमें निवास पाया जाता है । अढाई द्वीप को 'समय-क्षेत्र' भी कहते हैं। अढाई द्वीपों की रचना एक सरीखी है। अन्तर केवल इतना हो है कि इनका क्षेत्र क्रमशः दुगुना-दुगुना होता चला गया है। पुष्करद्वीप के मध्य में मानुषोत्तर पर्वत आ जाने से मनुष्यक्षेत्र में आधा पुष्करदीप ही गिना गया है। __ जम्बूद्वीप में सात मुख्य क्षेत्र हैं-भरत, हैमवत, हरि, विदेह. रम्यक, हैरण्यवत और ऐरावत । विदेह क्षेत्र के दो अन्य प्रमुख भाग हैं - देवकुरु और उत्तरकुरु । धातकीखण्ड और पुष्करार्धद्वीप में इन सभी क्षेत्रों की दुगुनी-दुगुनी संख्या है। ये सभी क्षेत्र तीन भागों में विभक्त हैं - कर्मभूमि, अकर्मभूमि और अन्तरद्वीप। कर्मभूमिक क्षेत्र वे हैं, जहां के निवासी मानव कृषि, वाणिज्य, शिल्पकला आदि कर्मों (पुरुषार्थ) के द्वारा जीवन-यापन करते हैं । कर्मभूमिक क्षेत्र में सर्वोत्कृष्ट पुण्यात्मा और निम्नलिखित पापात्मा दोनों प्रकार के मनुष्य पाए जाते हैं । कर्मभूमिक क्षेत्र १५ हैं -५ भरत हैं जिनमें से जम्बूद्वीप में एक, घातकीखण्ड में दो और पुष्करार्द्ध-द्वीप में दो हैं। इसी तरह ५ ऐरावत हैं-जम्बूद्वीप में एक, धातकीखण्ड में दो, पुष्करार्द्धद्वीप में दो। महाविदेह भी पांच हैं--एक जम्बुद्वीप में, दो घातकीखण्ड में और दो पुष्करार्द्धद्वीप में हैं । यों अढाई द्वीपों में कर्मभूमि के सब क्षेत्र पन्द्रह हैं। अकर्मभूमिक क्षेत्र वे हैं, जहां कृषि आदि कर्म किये बिना अनायास ही भोगोपभोग की सामग्री मिल जाती है । जीवन-निर्वाह के लिये कोई पुरुषार्थ नहीं करना पड़ता। यहां भोगों-भोग्य. सामग्री की प्रचुरता होने से यह भोगभूमि भी कहलाती है। जम्बूद्वीप में एक हैमवत, एक हरिवर्ष एक रम्यकवर्ष, एक हैरण्यवत, एक देवकुरु और एक उत्तरकुरु, यों छह भोगभूमिक क्षेत्र हैं । घातकीखण्ड और पुष्करार्द्धद्वीप में इनके प्रत्येक के दो-दो क्षेत्र होने से दोनों द्वीपों में बारह-बारह क्षेत्र हैं। Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ग-प्रथम] ( १५६) [निरयावलिका इस प्रकार सब मिलकर अकर्मभूमि के ३० क्षेत्र होते हैं । अन्तरद्वीप-कर्मभूमि और अकर्मभूमि के अतिरिक्त जो समुद्र के मध्यवर्ती द्वीप बच जाते हैं, वे अन्तरद्वीप कहलाते हैं । जम्बूद्वीप के चारों ओर विस्तृत लवणसमुद्र में हिमवान् पर्वत की दाढ़ाओं (पाश्र्व भागों में निकले हुए लम्बे भू-भाग) पर अट्ठाईस अन्तरद्वीप हैं, जो सात चतुष्कों में विद्यमान हैं। इनके नाम क्रमशः इस प्रकार है प्रथम चतुष्क-एकोरुक, आभाषिक, लांगूलिक, वैमानिक । द्वितीय चतुष्क-हयकर्ण, गजकर्ण, गोकर्ण और शष्कुलीकर्ण । तृतीय चतुष्क –आदर्शमुख, मेषमुख, हयमुख और गजमुख । चतुर्थ चतुष्क-अश्वमुख, हस्तिमुख, सिंहमुख और व्याघ्रमुख । पंचम चतुष्क--अश्वकर्ण, सिंहकर्ण, गजकर्ण और कर्णप्रावरण । षष्ठ चतुष्क-उल्कामुख, विद्युन्मुख, जिह्वामुख और मेघमुख । सप्तम चतुष्क–धनदन्त, गूढ़दन्त, श्रेष्ठदन्त और शुद्धदन्त । इसी प्रकार शिखरी पर्वत की दाढ़ाओं पर भी इन्हीं नामों के २८ अन्तर द्वीप हैं । इस तरह : सब मिलाकर ५६ अन्तरद्वीप होते हैं । इन अन्तरद्वीपों में मनुष्यों का निवास है। आधुनिक विज्ञान ने जितने भूखण्ड का अन्वेषण किया है, वह तो केवल कर्मभूमि के जम्बूद्वीप स्थित भरतक्षेत्र का छोटा-सा ही भाग है । मध्यलोक तो प्रकर्मभूमिक और अन्तरद्वीप के क्षेत्रों को मिलाने पर बहुत ही विशाल है, फिर भी ऊर्वलोक और अधोलोक की अपेक्षा इसका क्षेत्रफल अत्यल्प ही माना जायेगा। - ज्योतिष्क देवलोक-मध्यलोकवर्ती जम्बूद्वीप के सुदर्शनमेरु के समीप समतल भूमि से ७६० योजन ऊपर तारामण्डल है, जहां प्राधा कोस लम्बे-चौड़े और चौथाई कोस ऊंचे तारा विमान हैं। तारामण्डल से १० योजन पर ऊपर एक योजन के ६१वें भाग में से ४८ भाग लम्बा-चौड़ा और २४ भाग ऊंचा, अंकरत्नमय सूर्यदेव का विमान है। सर्यदेव के विमान से ८० योजन ऊपर एक योजन के ६१ भाग में से ५६ भाग लम्बा-चौड़ा और २८ भाग ऊंचा; स्फटिकरत्नमय चन्द्रमा का विमान है । चन्द्रविमान से ४ योजन ऊपर नक्षत्र माला है। इनके रत्नमय पंचरंगे विमान एक-एक कोस के लम्बे-चौड़े और आधे-आधे कोस के ऊंचे हैं। नक्षत्रमाला से ४ योजन ऊपर ग्रहमाला है। ग्रहों के विमान पंचवर्णी रत्नमय हैं । ये दो-दो कोस लम्बे-चौड़े और एक कोस ऊंचे हैं। Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरयावलिका (१५७ ) [वर्ग-प्रथम • ग्रहमाला से चार योजन की ऊंचाई पर हरितरत्नमय बुध तारा है। इससे तीन योजन ऊपर स्फटिकरत्नमय शुक्र तारा है। इससे तीन योजन उपर पोतरत्नमय बृहस्पति तारा है। इससे तीन योजन ऊपर रक्तरत्नमय मंगल तारा है । इससे तीन योजन ऊपर जम्बूनदमय शनि तारा है। इस प्रकार सम्पूर्ण ज्योतिश्चक्र मध्यलोक में ही है और समतल भूमि से ७६० योजन की ऊंचाई से आरम्भ होकर ६०० योजन तक अर्थात् ११० योजन में स्थित है। ज्योतिष्क देवों के विमान जम्बूद्वीप के मेरु पर्वत से ११२१ योजन दूर चारों ओर घूमते रहते हैं। अधोलोक परिचय-मध्यलोक से नीचे का प्रदेश अधेलोक कहलाता है। इसमें सात नरक भूमियां हैं जो रत्नप्रभा आदि सात नामों से विश्रुत हैं। इनमें नारक जीव (पापी जीव) रहते हैं। इन सातों भूमियों को लम्बाई-चौड़ाई एक-सी नहीं है। नीचे-नीचे की भूमियां ऊपर-ऊपर की भमियों से उत्तरोत्तर अधिक लम्बी-चौडी हैं। ये भूमियां एक दूसरी के नीचे हैं, किन्तु परस्पर सटी हुई नहीं हैं। बीच-बीच में अन्तराल (खाली जगह) है । इस अन्तराल में घनीदषि, घनवात और आकाश है। अधोलोक की सात भमियों के नाम इस प्रकार हैं-रत्नप्रभा. शर्कराप्रभा, बालकाप्रभा. पंकप्रभा, धूमप्रभा, तम:प्रभा और तमस्तमःप्रभा। इनके नामों के साथ जो प्रभा शब्द जड़ा हुआ है, वह इनके रंग को अभिव्यक्त करता है। सात नरक भूमियों की मोटाई इस प्रकार है रत्नप्रभा पृथ्वी के तीन काण्ड हैं—पहला रत्नबहुल खरकाण्ड है, जिसकी ऊपर से नीचे तक की मोटाई १६००० योजन है । उसके नीचे दूसरा काण्ड पंकबहुल है, जिसकी मोटाई ८०००० योजन है और उसके नीचे तृतीय काण्ड जलबहुल है, जिसको मोटाई ८४००० योजन है । इस प्रकार तीनों काण्डों की कुल मिलाकर मोटाई १,८०००० योजन है। - इसमें ऊपर और नीचे एक-एक हजार योजन छोड़कर बीच में १७२००० योजन का अन्तराल है, जिसमें १३ पाथड़े और १२ आन्तरे हैं । बीच के १० आन्तरों में असुरकुमार आदि दस प्रकार के भवनपतिदेव रहते हैं। प्रत्येक पाथड़े के मध्य में एक हजार योजन की पोलार है जिसमें तीस लाख नरकावास हैं। दूसरी नरक-पृथ्वी की मोटाई १,३२००० योजन है। तीसरी नरक पृथ्वी की मोटाई १,२८००० योजन है । चतुर्थ नरकभूमि की मोटाई १,२०००० योजन है, पांचवीं नरक-भूमि की मोटाई १,१८००० योजन है, छठी नरकभूमि की मोटाई १,१६००० योजन है और सातवीं नरकपृथ्वी की मोटाई १,०८००० योजन है। सातों नरकों के नीचे जो घनोदधि है उसकी मोटाई भी विभिन्न प्रमाणों में है। ___रत्नप्रभा प्रादि नरक-भूमियों की जितनी-जितनी मोटाई बताई गई है, उस-उस के ऊपर और नीचे के एक-एक हजार योजन भाग को छोड़कर शेष भाग में नरकावास हैं। Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ग-प्रथम ] (१५८) [निरयावलिका इन सातों नरकभूमियों में रहने वाले जीव नारक कहलाते हैं । ज्यों-ज्यों नीचे की नरकभूमियों में पापी जीव जाते हैं, त्यों-त्यों नारक जीवों में कुरूपता, भयंकरता, बेडौलपन आदि विकार बढ़ते जाते हैं। नरकभूमियों में तीन प्रकार की वेदनाएं प्रधानरूप से नारकों को होती है-(१) परमाधार्मिक आसुरों (नरकपालों) द्वारा दी जाने वाली वेदनाएं, (२) क्षेत्रकृत-अर्थात्-नरक की भूमियां खून आदि से लथपथ अत्यन्त कीचड़ वाली, अत्यन्त ठण्डी या अत्यन्त गरम होती हैं, इत्यादि कारणों से होने वाली वेदनाएं। (३) नारकी जीवों द्वारा परस्पर एक दूसरे को पहुंचाई जाने वाली वेदनाएं। परमाधार्मिक असुर (देव) तीसरे नरक तक ही जाते हैं। उनका स्वभाव अत्यन्त क्रू र होता है। वे सदैव पापकर्मों में रत रहते हैं, दूसरों को कष्ट देने में उन्हें मानन्दानुभव होता है। नारकी जीवों को वे अत्यन्त कष्ट देते हैं। वे उन्हें गरम-गरम शीशा पिलाते हैं, गाड़ियों में जोतते हैं, अतिभार लादते हैं, गर्म लोह-स्तम्भ का स्पर्श करवाते हैं और कांटेदार झाड़ियों पर चढ़ने-उतरने को वाध्य करते हैं। आगे की चार नरकभूमियों में दो ही प्रकार की वेदनाएं होती हैं, परन्तु पहली से सातवीं नरकभूमि तक उत्तरोत्तर अधिकाधिक वेदनायें होती हैं। वे पापी जीव मन ही मन संक्लेश पाते रहते हैं। एक दूसरे को देखते ही उनमें क्रोधाग्नि भड़क उठती है। पूर्वजीवन के वैर का स्मरण करके एक दूसरे पर क रतापूर्वक झपट पड़ते हैं। वे अपने ही द्वारा बनाये हुए शस्त्रास्त्रों, या हाथपैरों दांतों आदि से एक दसरे को क्षत-विक्षत कर डालते हैं। उनका शरीर वैक्रिय होता है जो पारे के समान पूर्ववत् जुड़ जाता है । नरकों में अकाल मृत्यु नहीं होती। जिसका जितना आयुष्य है, उससे पूरा करके ही वे इस शरीर से छुटकारा पा सकते हैं। संक्षेप में क्षेत्र की दृष्टि से इन तीनों लोकों की रचना पूर्वोक्त प्रकार से बतलाई गई है। महाविदेह विदेह क्षेत्र का ही दूसरा नाम महाविदेह है । मेरु पर्वत से पूर्व और पश्चिम में यह क्षेत्र है। इसके बीचों-बीच मेरुपर्वत के आ जाने से इसके दो विभाग हो जाते हैं—पूर्व महाविदेह और पश्चिम महाविदेह । पूर्व महाविदेह के मध्य में सीता नदी और पश्चिम महाविदेह के मध्य में सीतोदा नाम की नदी के आ जाने से एक-एक के फिर दो विभाग हो जाते हैं । इस प्रकार इस क्षेत्र के चार विभाग बन जाते हैं। इन चारों विभागों में आठ-पाठ विजय (क्षेत्र-विशेष) हैं । ये ८४४=३२ होने से महाविदेह में ३२ विजय प्रदेश-विशेष पाए जाते हैं। इस क्षेत्र में सदैव चौथे आरे जैसी स्थिति रहती है। Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरयावलिका) (१५६) [वर्ग-प्रथम अथ द्वितीयमध्ययनम् मूल-जइ णं भंते ! समणेणं जाव संपत्तेणं निरयावलियाणं पढमस्स अज्झयणस्स अयमढे पन्नत्ते, दोच्चस्स णं भंते अज्झयणस्स निरयावलियाणं समणेणं भगवया जाव संपत्तेणं के अढे पन्नत्ते ? एवं खलु जम्बू ! तेणं कालेणं तेणं समएणं चंपा नामं नयरी होत्था। पुन्नभद्दे चेंइए। कोणिए राया। पउमावई देवी । तत्थ णं चंपाए नयरीए सेणियस्स रन्नो भज्जा कोणियस्स रन्नो चुल्लमाउया सुकाली नामं देवी होत्था, सुकुमाला तीसे णं सुकालीए देवीए पुत्ते सुकाले नाम कुमारे होत्था । सकुमाले । तएणं से सुकाले कुमारे अन्नया कयाइ तिहिं दंतिसहस्सेहिं जहा कालो कुमारो निरवसेसं तं चेव जाव महाविदेहे वासे अंतं काहिइ ॥१॥ ॥बीयं अज्झयणं समत्तं ॥२॥ .. एवं सेसा वि अट्ठ अज्झयणा नेयव्वा पढमसरिसा, णवरं माया ओ सरिसणामाओ ॥१०॥ निक्खेवो सर्वेसि जाणियन्वो तहा ॥ निरयावलियाओ समत्ताओ। ॥पढमो वग्गो समत्तो ॥१॥ छाया-यदि खलु भवन्त ! श्रमणेन यावत्-संप्राप्तेन निरयावलिकानां प्रथमस्याध्ययनस्यायमर्थः प्रज्ञप्तः, द्वितीयस्य खलु भदन्त ! अध्ययनस्य निरयालिकानां श्रमणेन भगवता यावत्संप्राप्तेन कोऽर्थः प्रजप्त ? एवं खलु जम्बू ! तस्मिन् काले तस्मिन् समये चम्पा नाम्नी नगरी अभूत् । पूर्णभद्रश्चैत्यः । कणिको राजा। पद्मावती देवी। तत्र खल चम्पायां नगर्या श्रेणिकस्य राज्ञो भार्या कणिकस्य राज्ञः क्षुल्लमाता सुकाली नाम देव्यभूत् सुकुमारा। तस्याः खलु सुकाल्या देव्याः पुनः सुकालो नाम कुमारो. ऽभूत्, सुकुमारः ।तता खलु स सुकाला कुमारः अन्यदा त्रिभिर्दन्तिसहस्रर्यथा कालः कुमारः, निरवशेष तदेव यावन्महाविदेहे वर्षेऽन्तं करिष्यति ॥१॥ ॥ द्वितीयमध्ययनं समाप्तम् ।। २ । Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बर्ग-प्रथम] (१६०) [निरयावलिका ++ +++ ++ragon एवं शेषाप्यष्टाध्ययनानि ज्ञातव्यानि प्रथमसदृशानि। नवरं मातरः सदृशनाम्न्यः ॥ १० ॥ निक्षेपः सर्वेषां भवित० यस्तथा ।। निरयाबलिकाः समाप्ताः। ॥ प्रथमो वर्गः समाप्तः ॥ १॥ पदार्यान्वयः-जइ णं भन्ते-हे भगवन् यदि, समणेणं जाव संपत्तेणं-श्रमण भगवान् यावत् मोक्ष को संप्राप्त, निवयावलियाणं पढमस्स अज्झयणस्स अयम? पन्नत्ते-प्रथम अध्ययन का यह अर्थ प्रतिपादित किया है, दोच्चस्स णं भन्ते-हे भगवान तो दूसरे, अज्झयणस्स मिरयावलियाण समणेणं भगवया जाव संपत्तेणं के अटू पन्नते-अध्ययन निरयावलिका का क्या अर्थ श्रमण भगवान यावत् मोक्ष को संप्राप्त ने बताया है ?, एवं खल-इस प्रकार हे जम्बू, तेणं कालेणं तेणं समएणंउस काल व उस समय में, चम्पा नाम नयरी होत्था - चम्पा नाम को नगरी थी, पुण्णभद्दे चेइए - पूर्ण भद्र नाम का चैत्य था, कोणिए राया-राजा कोणिक था, पउमावइ देवी - उसकी पद्मावती नाम की रानी थी, तत्थ णं-उस, चम्पाए नयरीए सेणियस्स रन्नो-उस चम्पा नगरी में श्रेणिक राजा की, भज्जा-भार्या, कुणियस्स रन्नो चुल्लमाउया-कोणिक राजा की छोटी माता, सुकाली नाम देवी होत्था-सुकाली नाम की देवी (रानी) थी, सुकुमाला-वह सुकोमल थी, तोसे णं-उस, सुकालीए देवीए-सुकाली देवी का पुत्र सुकाल था जो शरीर से सुकोमल था, तएणं-तत्पश्चात्, से सुकाले कुमारे-वह सुकाल कुमार, अन्नयां-अन्यदा किसी, कयाइकभी अर्थात् किसी समय, तिहिं दन्तिसहस्सेहि-तीन हजार हाथियों सहित, जहा-जैसे, कालः कुमार:-काल कुमार का वर्णन है, निरवसेसं-निरवशेष (मृत्यु को प्राप्त हुआ), तं चेव-उसी प्रकार का वर्णन जानना चाहिए, जाव --यावत्. महाविदेह वासे-महाविदेह क्षेत्र में पैदा होगा, अन्तं काहिइ-सब दुःखों का अन्त करेगा। वीयं अज्झयणं सम्मत्तं-दूसरा अध्ययन समाप्त हुआ। एवं इसी प्रकार, सेसाविअट्र अज्झयणं-शेष आठ अध्ययन भी, नेयव्वा-जानने चाहिए, पढमसरिसा-प्रथम अध्ययन की तरह, णवरं-इतना विशेष है, मायाओ सरिसणामओउनकी माताओं के नाम उनकी तरह ही थे ।। ६५।। मूलार्थ-आर्य जम्बू कहते हैं- हे भगवन् ! अगर मोक्ष को संप्राप्त श्रमण भगवान ने निरयावलिका सूत्र के प्रथम अध्ययन का यह अर्थ बताया है, तो हे भगवन् ! उस मोक्ष को संप्राप्त श्रमण भगवान महावीर ने निरयावलिका के दूसरे अध्ययन का क्या अर्थ प्रतिपादित किया है ? आर्य सुधर्मा स्वामी कहते हैं-हे जम्बू ! उस काल, उस समय में चम्पा नाम की एक नगरी थी, वहां पूर्ण भद्र नाम का चैत्य था। वहां राजा कोणिक राज्य करता था। Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरयावलिका (१६१) [वर्ग-प्रथम उसकी पद्मावती नाम की रानी थी । उस चम्पा नगरी में राजा श्रेणिक की भार्या एवं राजा कूणिक की छोटी माता सुकाली देवी थी, जो कि सुकोमल थी। उस सुकाली देवी का पुत्र सुकाल कुमार किसी समय तीन हजार हाथियों (व सेना) के सहित मारा गया। जैसे काल कुमार का भी अन्त हुआ और सुकाल कुमार भी नरक की आयु सम्पूर्ण करके महाविदेह क्षेत्र में पैदा होगा, यावत् सब दुःखों का अन्त करेगा। इसी प्रकार शेष आठ अध्ययनों का विषय भी जानना चाहिये । इतना विशेष है कि इन सब राज कुमारों के नाम उनकी माताओं के नामों के अनुसार हैं ॥१५॥ टीका-प्रस्तुत सूत्र में शास्त्रकार ने शेष नौ अध्ययनों का संक्षिप्त वर्णन किया है। साथ में सूचित किया है कि सभी राजकुमार रथ-मुशल संग्राम में काल कुमार की तरह लड़ते हुए मारे गए और नरक गति को प्राप्त हुए । सभी राजकुमार मर कर महाविदेह क्षेत्र में जन्म लेंगे। वहां से वे सब दुखों से मुक्त होकर सिद्ध-बुद्ध पद प्राप्त करेंगे। सभी राजकुमारों का वर्णन समान है, अन्तर केवल माताजों के नामों का है। सभी का पिता राजा श्रेणिक है, सभी कोणिक के भ्राता हैं । प्राचीन काल में पिता की दूसरी पत्नी के लिये सम्मान-जनक छोटी माता पद आया है अतः उसे भी कोणिक की छोटी माता कहा गया है । अब प्रश्न यह उत्पन्न होता है कि रथ-मुशल संग्राम किसे कहते हैं। इसका वर्णन भगवती सूत्र के सातवें शतक में प्राप्त होता है। लड़ाई में राजा चेटक ने बहादुरी से दशों भाइयों को एक-एक बाण से मार दिया। यह • भयंकर स्थिति देख कर राजा कोणिक भयभीत हुआ कि कहीं अपने भाइयों की तरह मैं भी राजा चेटक के हाथों न मारा जाऊं । राजा कोणिक ने अपने पूर्व भव के दो मित्रों को याद किया जो अब शक्रेन्द्र व चमरेन्द्र के रूप में देव-लोक में पैदा हुए थे। उन दोनों देवों की प्राराधना से दोनों देव प्रसन्न हुए वह कोणिक के समीप आए। उन्होंने रथमुशल तथा महाशिला कंटक संग्राम में भाग लिया। जब शक्रन्द्र ने महाशिला कंटक संग्राम में वैक्रिय किया, तब कोणिक राजा शस्त्रों से सुसज्जित होकर उदाई नामक हस्ति-रस्न पर आरूढ़ हुआ। उस समय शक्रन्द्र अभेद्य वज्र मय कवच वैक्रिय कर, राजा कोणिक के सन्मुख खड़ा रहा । एक हाथी पर सुरेन्द्र और नरेन्द्र दोनों इन्द्र मिलकर संग्राम करने लगे। उस संग्राम में शक्रन्द्र ने तणकाय पत्थर कंकर वैक्रिय किया वह महाशिला रूप बन गये। इस तरह इस संग्राम में चौरासी (८४) लाख मनुष्यों की मृत्यु हुई। प्रायः सब सैनिक मर कर नरक में उत्पन्न हुए। इस तरह चमरेन्द्र ने तापस के बर्तनों की तरह वैक्रिय करके राजा कोणिक की सहायता की। शकेन्द्र, असुरेन्द्र तीनों इन्द्रों ने इस युद्ध में Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ग-प्रथम] (१६२) [निरयावलिका भाग लिया। सारथी के बिना ही खाली रथ चारों तरफ मुसलों को लगाकर छोड़ा गया इससे ६६ लाख मनुष्यों का पात हुआ। उसमें से दस हजार मछली के पेट में उत्पन्न हुए, एक मनुष्य गति में पैदा हुआ और एक देव गति में आया । वैशाली नगरी में वरुण नामक नाग सारथी का पोता बहुत ऋद्धिवन्त जीवाजीव का ज्ञाता था। क्षमणोपासक था, निरन्तर छठ-छठ व्रत का पारना करते हुए, आत्मा को सयमासंयम से भावित कर रहा था। वह राजा की आज्ञा से षट् व अष्टम तप कर रथ-मुशल संग्राम में आया। उसका नियम था कि वह निरपराधी जीव को नहीं मारेगा। जब दूसरी ओर से बाण मारा गया तब वह संग्राम स्थान में ही देव-गुरु व धर्म की साक्षी से समाधि-मरण को प्राप्त करके सौधर्म देव लोक में उत्पन्न हुआ। इस देव का अन्य देवों ने स्वर्ग में आगमन महोत्सव मनाया, जिससे देव आपस में कहने लगे जो संग्राम में मरता है वह स्वर्ग में जाता है । उस समय उस वरुण के पौत्र का बाल मित्र भी संग्राम में आया हुआ था। उसको भी बाण लगा ? वह भी अपने मित्र के पास आकर वैसे ही आसन पर बैठ कर हाथ जोड़कर बोला जो मेरे मित्र ने किया, वह ही मैं करूं, यह सोचकर उसने मन से पापकारी शल्यों का त्याग किया। बायुष्य पूर्ण कर मनुष्य के रूप में पैदा हुआ। वहां से धर्म आराधना द्वारा महाविदेह क्षेत्र में जन्म लेकर सिद्ध-बुद्ध मुक्त होगा। . इस युद्ध में व्यापक स्तर पर जान-माल की भारी क्षति हुई। राजा चेटक आदि अठारह (१८) गणराजाओं की हार हुई। राजा कोणिक जीत गया। इस प्रकार कोषिक द्वारा वैशाली का विनाश हुमा। -निरयावलिका प्रथम वर्ग पूर्ण Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ PORNSRPORN NE . . . . . . . . . PRASADCASS NA ON EMARA AAdival प. .. REA BRAINS कल्पावतंसिका [द्वितीय-वर्ग] Page #242 --------------------------------------------------------------------------  Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अथ कल्पावतंसिका नाम द्वितीयो वर्गः उत्थानिका प्रथम वर्ग निरयावलिका का अर्थ सुनने के पश्चात् आर्य जम्बू, अपने गुरुदेव पंचम गणधर श्री सुधर्मा स्वामी से पुनः जिज्ञासा करते हुए, द्वितीय वर्ग कल्पावतंसिका का अर्थ सविनय पूछते हुए कहते हैं-"हे भगवन् ! मैंने आपके द्वारा वर्णित प्रथम उपाङ्ग निरयावलिका का अर्थ सम्यक् रूप से ग्रहण कर लिया है, अब कृपया मुझे द्वितीय वर्ग कल्पावतंसिका का अर्थ बतलाने का अनुग्रह करें, जो आपने श्रमण भगवान महावीर से श्रवण किया था। शिष्य की जिज्ञासा का समाधान आर्य सुधर्मा स्वामी जिस प्रकार करते हैं उसी का कथन इस अध्ययन में किया गया है । इस अध्ययन से यह बात सिद्ध होता है कि जब यह उपाङ्ग आर्य सुधर्मा जी ने सुनाया था उस समय श्रमण भगवान महावीर मोक्ष में पधार चुके थे। मूल-जइणं भंते ! समणेणं भगवया जाव संपत्तेणं उवंगाणं पढमस्स वग्गस्स निरयावलियाणं अयमठे पन्नत्ते, दोच्चस्स णं भंते ! वग्गस्स कप्पडिसियाणं समणेणं जाव संपत्तेणं कइ अज्झयणा पन्नत्ता?। एवं खलु जम्बू ! समणेणं भगवया जाव संपत्तेणं कप्पडिसियाणं दस अज्झयणा पन्नत्ता, तंजहा-१. पउमे, २. महापउमे, ३. भद्दे, ४. सुभद्दे, ५. पउमभद्दे, ६. पउमसेणे, ७. पउमगुम्मे, ८. नलिणिगुम्मे, ६. आणंदे, १०. नंदणे ॥१॥ छाया-यवि खलु भदन्त ! श्रमणेन भगवता यावत् संप्राप्तेन उपाङ्गानां प्रथमस्य वर्गस्य निरयावलिकानामयमा प्रज्ञप्तः, द्वितीयस्य खलु भवन्त । वर्गस्य कल्पावतंसिकानां श्रमणेन यावत् संप्राप्तेन कति अध्ययनानि प्रज्ञप्तानि ? निरयावलिका] (१६५) [वर्ग-द्वितीय Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बर्ग - द्वितीय ] ( १६६ ) [ निरयावलिका एवं खलु जम्बू ! श्रमणेन भगवता यावत् संप्राप्तेन कल्पावतंसिकानां दश अध्ययनानि प्रज्ञप्तानि तद्यथा - १. पद्मः २. महापद्मः ३. भद्रः ४. सुभद्रः, ५. पद्मभद्र, ६. पद्मसेनः ७. पद्मगुल्मः, ८. नलिनीगुल्मा ६. आनन्दः, १०. नन्दनः । पदार्थान्वयः—जइ णं भंते - हे भगवन् यदि, समणेणं भगवया -- श्रमण भगवान महावीर ने, जाव संपत्ते - यावत् मोक्ष को संप्राप्त, उवङ्गाणं- उपांगों में प्रथम, निरयावलियाणं अथमट्ट पत्ते -- निरयावलिका का यह अर्थ प्रतिपादन किया है, दोच्चस्स णं भंते वग्गस्स कव्यर्वाड सियाणंहे भगवन् ! तो द्वितीय वर्ग कल्पावतंसिका का समणे णं जाव संपत्तेणं कइ अज्झयणा पत्तामोक्ष को संप्राप्त श्रमण भगवान (महावीर ) ने कितने अध्ययन बतलाये हैं | एवं खलु जम्बू - इस प्रकार हे जम्बू, समणेण भगवया - श्रमण भगवान, जाव संपतेणंयावत् मोक्ष को संप्राप्त ने, कंप्पबडसियाणं दस अज्झायणा पत्ता- कल्पावतिसका नामक वर्ग के दश अध्ययन प्रतिपादित किए हैं, तं जहा-जैसे, पउमे - पद्म, महापउमे - महापद्म, भद्दे - भद्र, सुभद्दे – सुभद्र, पउमभद्दे - पद्मभद्र, पउमसेणे - पद्मसेन, पउमगुल्म- पद्मगुल्म, नलिणिगुम्मेनलिनोगुल्म, आणन्दे - आनंद, (मौर) नन्दणे - नंदन | मूलार्थं - हे भगवन् ! यदि मोक्ष को संप्राप्त श्रमण भगवान महावीर ने उपाङ्गों प्रथम निरावलिका का यह अर्थ प्रतिपादन किया है तो भगवन् ! दूसरे वर्ग कल्पावतंसिका के यावत् मोक्ष को संप्राप्त श्रमण भगवान महावीर ने कितने अध्ययन प्रतिपादित किये हैं ? हे जम्बू ! मोक्ष को संप्राप्त श्रमण भगवान ने काल्पावतंसिका नामक दूसरे वर्ग के दस अध्ययन प्रतिपादन किये हैं. जिनके नाम इस प्रकार हैं । १. पद्म, २. महापद्म, ३. भद्र, ४. सुभद्र, ५. पद्मभद्र, ६. पद्मसेन, ७. ८. नलिनी गुल्म, ९ आनन्द, और १०. नन्दन । पद्मगुल्म, टीका - प्रस्तुत सूत्र में दूसरे वर्ग कल्पावतंसिका के विषय में वर्णन किया गया है। इस वर्ग के दस अध्ययन हैं | आयं जम्बू के प्रश्न के उत्तर में आई गणधर सुधर्मा ने बताया कि इन दश अध्ययनों में आये नाम कल्प देवलोक में उत्पन्न चारित्र-निष्ठ आत्मानों का वर्णन है। यहां "समणेणं भगवया जाव संपत्तेर्ण" पद से सम्पूर्ण "नमोत्थूणं" का पाठ ग्रहण करना चाहिये || १ || उत्थानिका— अब जम्बूस्वामी प्रथम अध्ययन के विषय में श्री सुधर्मा स्वामी जी से प्रश्न करते हैंमूल - जइणं भंते! समणेणं जाव सपत्तेणं कप्पवडसियाणं दस अज्झयणा पन्नत्ता, पढमस्स णं भंते! अज्झयणस्स कप्पवडिसियाणं Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरयावलिका] (१६७ ) [वर्ग द्वितीय - भगवया जाव सपत्तेषां के अट्ठे पन्नत्ते? एवं खलु जंबू ! तेणं कालेणं तेणं समएणं चंपा नाम नयरी होत्था । पुन्नभद्दे चेइए। कूणिए राया। पउमावई देवी । तत्थ णं चंपाए नयरीए सेणियस्स रन्नो भज्जा कूणियस्स रन्नो चुल्लमाउया काली नामं देवी होत्था, सुकुमाल० । तीसेणं कालीए देवीए पत्ते काले नाम कुमारे होत्था, सुकुमाल० । तस्स णं कालस्स पउमावई नामं देवी होत्था, सोमाल० जाव विहरइ। तए णं सा पउमावई देवी अन्नया कयाई तसि तारिसगंसि वासघरंसि अभितरओ सचित्तकम्मे जाव सोहं सुमिणे पासित्ता णं पडिबुद्धा। एवं जम्मणं जहा महाबलस्स, जाव नामधिज्ज, जम्हाणं अम्हं इमे दारए कालस्स कुमारस्स पुत्ते पउमावईए देवीए अत्तए तं होउ णं अम्हं इमस्स वारगस्स नामधिज्ज पउमे, सेसं जहा महबलस्स अट्ठओ दाओ जाव उत्पिपासायवरगए विहरइ ॥२॥ छाया-यदि खल भदन्त ! श्रमणेन यावत् संप्राप्लेन कल्पावतंसिकानां दश अध्ययनानि प्रज्ञप्तानि, प्रथमस्य खलु भवन्त । अध्ययनस्य कल्पावतंसिकानां श्रमणेन भगवता यावत् सम्प्राप्तेन कोऽर्थः प्रज्ञप्तः ? एवं खलु जम्बू ! तस्मिन् काले तस्मिन् समये चम्पा नाम्नी नगरी आसीत् । पूर्णभद्र चैत्यं, कणिको राजा, पद्मावती देवी। तत्र खलु चम्पायां नगर्या श्रोणिकस्य राज्ञो भार्या कणिकस्य राज्ञो लघमाता काली नाम देवी आसीत् । सुकुमारा० । तस्याः खलु देव्याः पुत्रः कालो नाम कुमारः आसीत् । सुकुमारः । तस्य खलु कालस्य कुमारस्य पद्मावती नाम्नी देवी अभवत् । सुकुमारा० यावत् विहरति । ततः खलु सा पद्मावती देवी अन्यदा कदाचित् तादृशे वासगृहे अभ्यन्तरतः सचित्रकर्मणि यावत् सिहं स्वप्ने दृष्ट्वा खलु प्रतिबुद्धा । एवं जन्म यथा महाबलस्य यावत् नामधेयं, तस्मात् खल अस्माकं अयं दारकः कालस्य कुमारस्य पुत्रः पद्मावन्याः देव्या आत्मजः तद् भवतु खलु अस्माकम् अस्य दारकस्य नामधेयं पद्मः। शेषं यया महाबलस्य अष्ट दायाः यावत् उपरि प्रासादवरगतो विहरति ॥२॥ पदार्थान्वयः-जइ णं भंते-हे भगवन् ! यदि, समणेणं जाव संपत्तेण-श्रमण भगवान महावीर यावत् मोक्ष को संप्राप्त ने, कप्पडिसियाणं दस अज्झयणा पन्नता-कल्पावतंसिका के दस अध्ययन प्रतिपादित किए हैं, पढमस्स णं भंते-तो हे भगवन प्रथम, अज्झयणस्स कप्प Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ग-द्वितीय] (१६८) [कल्पावतंसिका वडिसियाणं समजेणं भगवया जाव के अछे पन्नत्ते-कल्पावतंसिका के प्रथम) अध्ययन का श्रमण भगवान महावीर यावत मोक्ष को प्राप्त ने क्या अर्थ प्रतिपादन किया है, एवं खलं जंब-इस प्रकार हे जम्ब!, तेणं कालेणं तेणं समएणं-उस काल, उस समय में; चंपा नाम नयरी होस्थाचम्पा नाम की नगरी थी, पुन्नभद्दे चेइए-पूर्ण भद्र नाम का चैत्य था, कृणिए राया-कोणिक नाम का राजा था, दउमावई देवी-पद्मावती नाम की रानी थी, तत्थणं चंपाए नयरीए-उस चम्पा नगरी में, सेणियस स्त्रोमामाणियस रम्रो चल्लमाया काली नाम देवी होत्था-श्रेणिक राजा की भार्या, कोणिक राजा की छोटी माता काली देवी थी, तीसे गं कालीए देवीए-उस काली देवी का, पुत्ते काले नाम कुमारे हो था--काल कुमार नाम का पुत्र था, सकुमाले०-जो सुकोमल था, तस्स णं कालस्स पउमावई नाम देवी होत्था-उस काल कुमार की पद्मावती नाम की रानी थी, सोमाला जाव विहरइ-जो कि सुकुमार थी यावत् शान्ति पूर्वक जीवन यापन कर रही थी। तए ण-तत्पश्चात्, सा पउमावई देवी-वह पद्म वती, अन्नया कयाई-अन्य किसी समय, तंसि तारिसगंसि वास घरंसि-उस पुण्य आत्मा के योग्य वासगृह में, अमितरओआभ्यंतर से, सचितकम्मे-जो वास गृह सचित्र था, जाव-यावत् सोहं सुमिणे-सिंहस्वप्न में, पासित्ता णं-देख कर; पडिबुद्धा-जागृत हुई, एवं-इस प्रकार, जम्मणं-जन्म, जहाजैसे, महाबलस्स-महावल कुमार, जाव-यावत्, नामधिज्ज-नाम करण हुआ था, जम्हागजिससे, अम्ह-हमारा, इमे दारए-यह बालक, काल कुमारस्स-काल कुमार, पुत्ते-हमारा पुत्र है, पउमावईए देवीए अत्तए पद्मावती का आत्मज है, तं--प्रतः,, होउणं-हो, अम्हं-हमारे, इमस्स दारगस्स-इस बालक का, नामधिज्जं-नाम करण, पउमें-पद्म, सेसं-- शेषवर्णन, जहाजैसे, महाबलस्स-महाबल कुमार का है उसी प्रकार जानना चाहिए, अट्ठाओ दाओ-आठ पत्नियां अर्थात् पाठ कन्याओं के साथ विवाह हुआ, जाव-यावत्, उप्पिपासायवरगए-ऊपर प्रधान प्रासाद में रहता हुआ, विहरइ-विचरता है ॥२॥ मूलार्थ-हे भगवन् ! यदि श्रमण भगवान यावत् मोक्ष को संप्राप्त भगवान महावीर ने कल्पवतंसिका के दश अध्ययन प्रतिपादित किए हैं तो हे भगवन् ! मोक्ष को संप्राप्त भगवान महावीर ने कल्पावतंसिका के प्रथम अध्ययन का क्या अर्थ प्रतिपादन किया है. ? सुधर्मा स्वामी ने उत्तर दिया-निश्चय ही उस काल उस समय में चम्पा नाम की नगरी थी, पूर्ण भद्र चैत्य था, कोणिक नाम का राजा राज्य करता था, उसकी पद्मावती नाम की रानी थी। उत चम्पा नगरी में श्रेणिक राजा की भार्या राजा कोणिक की छोटी माता काली नाम की रानी थी जो सुकोमल थी। उस काली देवी के . काल कुमार नाम का पुत्र था जो सुकोमल था। उस काल कुमार की पद्मावती नाम Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरयावलिका] (१६६) [वर्ग-द्वितीय की रानी थी, जो सुकोमल थी एवं शान्ति-पूर्वक जीवन व्यतीत कर रही थी। ___ तत्पश्चात् वह पद्मावती देवी किसी समय पुण्यवान प्राणी के योग्य वासगृह में शैय्या पर शयन कर रही थो। वह वासगृह अन्दर से चित्रों से सुसज्जित था यावत् (वह) सिंह के स्वप्न को देखकर जाग उठी। (बालक उत्पन्न हुआ) जिसका जन्म, नामकरण आदि जिस प्रकार महाबल कुमार का हुआ था उसी प्रकार इसका भी जानना चाहिए । यह काल कुमार का पुत्र व पद्मावती का आत्मज है, अत: इस बालक का नाम पदम रखा गया। शेष वर्णन महाबल कुमार की तरह जानना चाहिए, आठ कन्याओं से उसका विवाह हुआ, आठों कन्याओं के परिवारों का दान-दहेज आया, यावत् राज-प्रासाद में बैठ कर सुख भोगता हुआ, विचरता है। शेष वर्णन महावल कुमार की तरह ही जानना चाहिये । २।। टोका-प्रस्तुत सूत्र में आर्य सुधर्मा के शिष्य अंतिम केवली जम्बू स्वामी ने दश अध्ययनों में : से प्रथम अध्ययन का अर्थ पूछा है । शिष्य की जिज्ञासा को शांत करते हुए गुरुदेव कहते हैं कि प्रथम अध्ययन में काल कुमार का वर्णन है। इसका समस्त वर्णन महाबल कुमार की तरह जानना चाहिये । जैसे पंचम मङ्ग भगवती सूत्र के ग्यारहवें शतक में महाबल कुमार का वर्णन है वैसा ही समझें अन्तर इतना है कि यहां काल कुमार के पिता श्रेणिक हैं पर कोणिक व काल कुमार की रानियों के नाम एक तरह के हैं। काल कुमार की रानी सिंह का स्वप्न देख कर जागृत होती है । प्राचीन परम्परा है कि शुभ स्वप्न आने पर जागृत रहना अच्छा होता है। यहां राज कुमार पद्म के जन्म का वर्णन आया है। जो अपने माता-पिता की तरह सुकोमल एवं सुन्दर है, बड़ा होने पर आठों ही कुमारों की शादी होती है। आठों सुन्दर कन्याएं काफी दहेज लाई । परन्तु प्राचीन काल में दहेज आज की तरह जरूरी नहीं होता था माता-पिता सभी वस्तुएं पुत्री को स्वेइच्छा से भेंट करते थे। जीवन भर स्त्री हो इसको स्वामिनी होती थी। इसे स्त्री-धन कहा जाता था। महाबल कुमार की तरह इसने भी प्रथम तीर्थंकर श्री ऋषभदेव जी द्वारा प्रतिपादित ७२ कलाएं 'कलाचार्य से सीखीं। अब ये आठ पत्नियों के साथ सुख से रह रहा है। 'सोमाला' पद का कई अर्थों में प्रयोग हुआ है, शरीर का. सुकोमल, शान्तिपूर्वक जीवन, या सुखमय जीवन गुजारने वाला के रूप में ।।२।। मूल-सामी समोसरिए परिसा निग्गया, कूणिओ निग्गए, पउमेवि जहा महब्बले निग्गए तहेव अम्मापिइ-आपुच्छणा जाव पव्वइए अणगारे जाए जाव गुत्तबंभयारी ॥३॥ Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ग-द्वितीय] (१७०) [निरयावलिका छाया- स्वामी समवसतः, परिषद् निर्गता, कूणिको निर्गतः, पनोऽपि यथा महाबलो निर्गतस्तथैव अम्बापित-आपृच्छना यावत् प्रवजितोऽनगारो जातो यावत् गुप्तब्रह्मचारी ॥३॥ पदार्थान्वयः- सामी-स्वामी, समोसरिए-पधारे, परिसा निग्गया-परिषद् दर्शनार्थ निकली, कृणिो निग्गए - राजा कोणिक भी राज महल से निकला, पउमेवि जहा महाबले निग्गए तहेव-जैसे महाबल कुमार निकला था वैसे ही पद्मकुमार भी दर्शनार्थ निकला, वैसे ही, अम्-पिइ-माता-पिता से, आपुच्छणा-पूछ कर, जाव पव्व इए-यावत् प्रवजित हुए, अनगारे जाए-अणगार हुए, जाव गुत्तब भय रो-यावत् गुप्त ब्रह्मचारी हुए ॥३॥ मूलार्थ-उस नगरी में स्वामी (श्रमण भगवान महावीर पधारे) । धर्म परिषद् निकली। राजा कूणिक भो राजमहल से निकला, पद्म कुमार भी महाबल कुमार की तरह दर्शन करने आया (धर्म-उपदेश सुनकर) माता-पिता की आज्ञा से प्रवजित हुए, यावत् गुप्त ब्रह्मचारी अणगार हुए ॥३।। टीका-श्रमण भगवान महावीर अपना धर्म-उपदेश करते हुए चम्पा नगरी में पधारे । राजा प्रजा भगवान के दर्शन करने व धर्म-उपदेश सुनने आए। पद्म कुमार भी भगवान के दर्शन करने पाया। धर्म उपदेश सुन कर वह माता-पिता की माज्ञा से महाबल की तरह ही दीक्षित हो गया । अनगार (साधु) के गुणों से युक्त हो गया, यावत् गुप्त ब्रह्मचारी हो गया ॥३॥ उत्थानिका-सूत्रकार अब पुनः उसी विषय में कहते हैं.... मूल-तएणं से पउमे अणगारे समणस्स भगवओ महावीरस्स तहारूवाणं थेराणं अंतिए सामाइयमाइयाई एक्कारस अंगाई अहिज्जइ, अहिज्जिता बहूहि चउत्थछट्ठट्ठम जाव विहरइ। तएणं से पउमे अणगारे तेणं ओरालेणं जहा मेहो तहेव धम्मजागरिया चिंता एवं जहेव मेहो तहेव समणं भगवं आपुच्छिता विउले भाव पाओवगए समाणे । छाया-ततः खलु स पद्मोऽनगारा श्रमणस्य भगवतो महावीरस्य तथा रूपाणां स्थविराणाम् अन्तिके सामायिकादिकानि एकापसाङ्गानि अघोते। अधीत्य बहुभिः चतुर्थषष्ठाष्टम० यावद् विहरति । ततः स पद्मोऽनगारो तेन उवारेण यथा मेघस्तथैव धर्मजागरिका, चिन्ता, एवं यथैव मेघस्तथैव भ्रमण भगवन्तमापच्छ्य विपुले यावत् पादपोगता सन् ॥४॥ Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरयावलिका (१७१) [वर्ग - द्वितीय . पदार्थान्वय:-तएणं से पउमे अणगारे-तत्पश्चात् वह पद्म अनगार, समणस्स भगवओ महावीरस्स-श्रमण भगवान महावीर के, तहा रूवाणं-तथा रूप विद्वान, थेराणं-स्थविरों के, अंतिए-समीप, साइयमाइयाई-सामायिक आदि से लेकर, एकारस्स अंङ्गाई-ग्यारह अङ्गों का, अहिज्जइ - अध्ययन करता है, अहिजित्ता-अध्ययन करके, वहि-बहुत से, चउत्थछट्ठठम-एक उपवास, दो उपवास, तीन उपवास आदि ग्रहण कर, जाव - यावत् विहर इविचरता है, तएणं-तत्पश्चात, पउमे अणगारे-वह पद्म अनगार, तेणं-उस, उरालेणंप्रधान तप द्वारा शरीर से, जहा-जैसे, मेहो-मेघ कुमार, तहेव-उसी प्रकार, धम्मजागरियाधर्म जागरण, चिता-चिन्तन, एवं - इसी प्रकार, नहेव-जैसे, मेहो-मेघ कुमार, तहेव-उसी प्रकार, समणं भगवं-श्रमण भगवान से, आपुच्छिता-पूछ कर, विउले-विपुलगिरि पर चढ़ कर. जाव-यावत्, पाओवगए समाणे-पादोपगमन अनशन कर साधना करने लगा।।४।। मूलार्थ-तत्पश्चात् वह पद्म अनगार श्रमण भगवान महावीर के तथा रूप श्रमणों के समीप रह कर सामायिक आदि से लेकर एकादश अङ्गों को पढ़ता है, पढ़ कर बहुत बार एक-एक उपवास, दो-दो उपवास, तीन-तीन उपवास आदि से महातप धारण कर विचरता है । तब पद्म अनगार का वह प्रधान तप के करने से शरीर कृश हो गया। जिस प्रकार मेघ कुमार ने धर्म जागरण करते हुए अनशन करने की विचारणा की थी, ठीक उसी प्रकार का विचार कर, पद्म अनगार भगवान महावीर से आज्ञा लेकर विपुलगिरि (राजगृह) पर्वत पर चढ़ कर पादोपगमन अनशन कर साधना करने लगा ॥४॥ टोका-प्रस्तुत सूत्र में राजकुमार पद्म की स्थविरों के पास एकादश अङ्ग पढ़ने की चर्चा . है। सामायिक आचारङ्ग सूत्र का ही नाम है। फिर लम्बे समय तक तप करते हुए. धर्म-जागरण करता है। लम्बे समय तक तप करने से जब शरीर कृश हो गया तब वह पद्म अनगार मेघ कुमार की तरह विपुल गिरि पर समाधि - मरण के लिए जाता है। वह पादोपगमन अनशन की आज्ञा भगवान कहावीर से लेता है। मेघ.मुनि भी राजा श्रेणिक का पुत्र था। उसका वर्णन श्री ज्ञाताधर्म कपाङ्ग सूत्र में देखना चाहिए। हस्तलिखित कतिपय प्रतियों में समाणे' पद के स्थान पर समर्ण पद दिया गया है, किन्तु प्रकरण अनुसार 'समाणे' पद ही उपयुक्त है। तथा "धम्म जागरिया चिता" इन दो पदों से यह सूचित किया गया है कि यदि रात्रि में निद्रा खुल जाए, तब धर्म के विषय में चिन्तन करना चाहिए। इसका नाम ही धर्म-जागरणा है । फिर विचार पूर्वक सच्चे धर्म का पालन करना चाहिये । कारण Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बर्ग - द्वितीय ] ( १७२ ) [ निरयावलिका यह है कि धर्म जागरणा करने के अतिरिक्त कुछ अन्य जागरण भी हैं जैसे कि कुटुम्ब - जागरिया, अत्थजागरिया, काम- जागरिया, कलह-जागरिया, विवाद- जागरिया, सक्लेश- जागरिया, मोह जागरिया आदि अनेक जागरण हैं। इनको छोड़कर धर्म जागरण ही प्रात्मा के लिये कल्याणकारी है। इसका कारण यह है कि रात्रि में निद्रा से मुक्त होने पर विचार अवश्य आते हैं । अठारह पापों के अशुभ विचार होते हैं, उन पापों से बचने के लिए शुभ विचार किये जाते हैं । जिन्हें शास्त्रकार ने धर्म जागरणा नाम दिया है। धर्म जागरण, नित्य जागरण, बुद्ध जागरण प्रबुद्ध जागरण, सुदर्शन जागरण आदि शुभ जागरण हैं || ४ || मूल - तहारूवाणं थेराणं अंतिए सामाइयमाइयाई एक्कारस अंगाई, बहुपडिपुणाई पंच वासाई सामन्नपरियाए, मासियाए संलेहणाए सट्ठ भत्ताइं० आणुपुव्वी कालगए। थेरा ओइन्ना, भगवं गोयमो पुच्छर, सामी कहेइ जाव सठि भत्ताइं अणसणाए छेदित्ता आलोइय० उड्टं चंदिम० सोहम्मे कप्पे देवत्ताए उववन्ने, दो सागराई ॥५॥ छाया - तथारूपाणां स्थविराणाम् अन्तिके सामायिकाविकानि एकादशाङ्गानि बहुप्रतिपूर्णानि पञ्च वर्षाणि श्रामण्यपर्यायः। मासिक्या संलेखनया षष्ठि भक्तानि आनुपूर्व्या कालगत । । स्थविरा अवतीर्णाः, भगवान् गौतमः पृच्छति - स्वामी कथयति यावत् षष्ठि भक्तानि अनशनेन छत्वा आलोचति० ऊध्वं चन्द्रमः० सौधर्म कल्पे देवत्वेन उपपन्नः, द्वौ सागरी ॥५॥ पदार्थान्वयः -- तहारुवाणं - तथारूप श्रमण, थेराणं - स्थविरों के, अंतिए - समीप, सामाइयमाइया - सामायिक आदि, एक्कारस अंगाई - एकादश अंगों को पढ़कर, बहुपडिपुण्णा - बहुत प्रतिपूर्ण, पञ्चवासाई - पांच वर्ष, सामण्णपरियाए - श्रामण्य पर्याय पालकर, मासियाए संलेहणाए - एक भास का अनशन करके, सहि भत्ताईसाठं भक्त का छेदन कर, आणुपुब्बीएअनुक्रम से उसने कालगए - काल किया, थेरा - स्थविर, ओबिना - विपुलगिरि पर्वत से उतर आये, भगवं भगवान, गौतमं - गौतम ने, पुच्छ६ - पूछा, सामी कहेइ - भगवान महावीर ने उत्तर दिया, जाव - यावत्, सट्टि भत्ताइं - साठ भक्त, अणसणाए अनशनों का, छेवित्ताछेदन कर, आलोय - श्रालोचना प्रतिक्रमण कर, उड्ड-ऊंचे, चंदिम० - चन्द्र से, सोहम्मे कप्पेसौधर्म कल्प में, देवत्ताएं - देव रूप में, उबबन्ने - उत्पन्न हुआ, वो सागराई - जिसकी स्थिति दो सागरोपम की है ॥५॥ मूलार्थ - पद्म अनगार तथारूप स्थविरों के समीप सामायिक आदि से लेकर ग्यारह अङ्ग शास्त्र पढ़कर बहुत प्रतिपूर्ण पांच वर्ष संयम पर्याय पाला। फिर एक - Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १७३) ( वग - द्वितीय निरयावलका ] मास की संलेखना से साठ भक्तों के अनुक्रम से काल-धर्म को प्राप्त हुआ । स्थविर पर्वत से नीचे उतर आए, उसके भण्ड उपकरण भगवान महावीर को दिखाये । गणधर गौतम ने प्रश्न किया - हे भगवन् ! पद्म अनगार काल करके कहां उत्पन्न हुआ है ? भगवान महावीर ने उत्तर दिया " हे गौतम ! पद्म अनगार अपनी संयम क्रिया का पूर्णत: पालन कर आलोचना प्रतिक्रमण करके शल्यों से शुद्ध होकर एक मास की संलेखना से प्रथम देवलोक में दो सागरोपम की स्थिति वाले देव के रूप में उत्पन्न हुआ है ||५|| . टीका - प्रस्तुत सूत्र में बतलाया गया है कि पद्म अनगार ने तथारूप श्रुतज्ञ स्थविरों के समीप आचाराङ्ग आदि ग्यारह अङ्गों का अध्ययन किया। पांच वर्षों तक साधु-जीवन का पालन किया । एक मास की संलेखना की । साठ (६०) भक्तों का छेदन कर अनुक्रम से काल-धर्म को प्राप्त हुआ। तब स्थविर विपुल गिरि से उतर कर नीचे भगवान के समीप उपस्थित हुए । उन्होंने पद्म अनगार के भण्डोपकरण दिखाकर उसके समाधि मरण की सूचना दी। गणधर गौतम ने जब पद्म अनगार का भविष्य पूछा, तो श्रमण भगवान ने बताया कि पद्म अनगार यहां से काल करके सौधर्म देवलोक में दो सागरोपम की आयु वाला देव बना है । जिस प्रकार मेघ कुमार का वर्णन श्री ज्ञाताधर्म कथाङ्ग सूत्र में आया है पद्म मुनि का साधनामय जीवन भी वैसा ही जान लेना चाहिए ||५|| मूल-से णं भंते पउमे देवे ताओ देवलोगाओ आउक्खएणं पुच्छा, गोमा ! महाविदेहे वासे जहा दढपइन्नो जाव अंतं काहि । तं एवं खलु जंबू ! समणेणं जाव संपत्तेणं कप्पवडसियाणं पढमस्स अज्झयणस्स अयमट्ठे पन्नत्ते तिबेमि ॥ ६ ॥ छाया - सः खलु भवन्त ! पद्मो देवस्ततो देवलोकाद् आयु:-क्षयेण पृच्छति, गौतम ! महाविदेहे वर्षे यथा दृढप्रतिज्ञो यावदन्तं करिष्यति । तदेव खलु जम्बू ! श्रमणेन यावत् संप्राप्न कल्पाafeकानां प्रथमस्याध्ययनस्य अयमर्थः प्रज्ञप्तः इति ब्रवीमि ॥ ६ ॥ ताओ देव लोगाओ - उस पउमे देवे- पद्मदेव, उत्पन्न होगा ?, पदार्थावयः - से णं भंते - हे भगवन ! वह, देवलोक से, आउक्खएणं - आयु क्षय करके, कहां गौतम ने प्रश्न किया, भगवान के उत्तर दिया, गोयमा - हे गौतम, क्षेत्र में, जहा - जैसे, दंडप इन्नो जाब- दृढ़ प्रतिज्ञ कुमार का वर्णन है यावत् सब दुःखों का अंत पुच्छा - इस प्रकार गणधर महाविदेह वासे - महाविदेह 8 Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ग-द्वितीय] (१७४) निरयावलिका करेगा, तं एवं खलु जंबू-इस प्रकार निश्चय ही हे जम्बू !, समणेण जाव संपत्तेणं-श्रमण भगवान यावत् मोक्ष को सम्प्राप्त ने, कप्पडिसियाणं-कल्पावतंसिका के, पढ-स्स-प्रथम, अज्झयणस्स-मध्ययन का, अयम8 पन्नते-यह अर्थ प्रतिपादन किया है, तिबेमि-इस प्रकार मैं कहता हूं ॥६॥ मूलार्थ-हे भगवन् ! वह पद्मदेव, देवलोक की आयु पूर्ण करके कहां उत्पन्न होगा ? इस प्रकार का प्रश्न गौतम स्वामी ने किया। इसके उत्तर में भगवान महावीर ने कहा- "हे गौतम ! महाविदेह क्षेत्र में जैसे दृढ़प्रतिज्ञ का वर्णन है यावत् सब दु:खों का अन्त करेगा। (आर्य सुधर्मा कहते हैं) हे जम्बू ! निश्चय ही श्रमण भगवान मोक्ष-संप्राप्त ने कल्पावतंसिका के प्रथम अध्ययन का यह अर्थ प्रतिपादन किया है। इस प्रकार मैं कहता हूं ॥६॥ टोका-प्रस्तुत सूत्र में भगवान महावीर ने सूचित किया है कि पद्म मुनि देवलोक की आयु पूर्ण कर महाविदेह क्षेत्र में उत्पन्न होगा, वह दृढ़प्रतिज्ञ अनगार को तरह से सिद्ध बुद्ध होकर मोक्ष को प्राप्त करेगा॥६॥ ॥प्रथम अध्ययन पूर्ण हुआ॥ . अथ द्वितीय अध्ययन मूल-जइ णं भते ! समणेणं भगवया जाव संपत्तेणं कप्पडिसियाणं पढमस्स अज्झयणस्स अयमढे पन्नत्ते, दोच्चस्स णं भंते ! अज्झयणस्स के अट्ठे पण्णत्ते ? एवं खलु जंबू ! तेणं कालेणं तेणं समएणं चंपा नाम नयरी होत्था, पन्नभद्दे चेइए, कूणिए राया, पउमावईदेवी । तत्थ णं चंपाए नयरीए सेणियस्स रन्नो भज्जा कूणियस्स रन्नो चुल्लमाउया सुकाली नामं देवी होत्था । तोसे णं सुकालीए पुत्ते सुकाले नाम कुमारे। तस्स णं सुकालस्स कुमारस्स महापउमा नामं देवी होत्था, सकुमाला तए णं सा महापउमा देवी अन्नया कयाइं तंसि तारिसगंसि एवं तहेव महापउमे नाम बारए, जाव सिज्झिहिइ, नवरं ईसाणे कप्पे उववओ Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरयावलिका] ( १७५) [वर्ग-द्वितीय उक्कोसट्ठिइओ। तं एवं खलु जंबू ! समणेणं भगवया जाव संपत्तेणं० । एवं सेसा वि अट्ठ नेयव्वा । मायाओ सरिसनामाओ । कालादीणं दसण्हं पुत्ताणं आणुपन्वीए-दोण्हं च पंच चत्तारि, तिण्हं तिण्हं च होंति तिन्नेव ! दोण्हं च दोण्णि वासा, सेणिय-नत्तूण परियाओ। __उववाओ आणुपुत्वीए, पढमो सोहम्मे वितिओ ईसाणे, तइओ सणंकमारे, चउत्थो माहिंदे, पंचमओ बंभलोए, छट्ठो लंतए, सत्तमओ महासुक्के, अट्ठमओ सहस्सारे, नवमओ पाणए, दसमओ अच्चुए। सव्वत्थ उक्कोसट्ठिई भाणियव्वा, महाविदेहे सिज्झिहिइ ॥१॥ छाया-यवि खलु भदन्त ! श्रमणेन भगवता यावत् संप्राप्तेन कल्पावतंसिकानां प्रथमस्याऽध्ययनस्य अयमर्थः प्रज्ञप्ता, द्वितीयस्य खलु भवन्त ! अध्ययनस्य कोऽर्थः प्रज्ञप्तः। एबं खल जम्ब ! तस्मिन् काले तस्मिन् समये चम्पा नाम नगरी आसीत्, पूर्णभद्रं चैत्यं, कृणिको राजा, पद्मावती देवी । तत्र खलु चम्पायां नगर्या श्रोणिकस्य राज्ञो भार्या कणिकस्य राज्ञो लघुमाता सुकाली नाम देवी बासीत्। तस्याः खलु सुकाल्याः पुत्रः सुकालो नाम कुमार', तस्य खलु सुकालस्य कुमारस्य महापना नाम देवी आसीत्, सुकुमारा। ततः खलु सा महापद्मा देवी अन्यदा कदाचित् तस्मिन् तादृशे एवं तथैव महापमो नाम वारकः, यावत् सेत्स्यति, नवरमीशानकल्पे उपपातः उत्कृष्टस्थितिकः । एवं खलु जम्बू! श्रमणेन भगवता यावत् संप्राप्तेन । एवं शेषाण्यपि अष्टौ ज्ञातव्यानि, मातरः सदृशनाम्न्यः कालादीनां दशानां पुत्राणामानुपूा-(वत्पर्यायः)-द्वयोश्च पञ्चचत्वारि, त्रयाणां त्रयाणां च भवन्ति त्रीण्येव । द्वयोश्च द्वे वर्षे, श्रोणिकनप्तृणां पर्यायः ।। उपपातः आनुपूर्वा-प्रथमः सौधर्म, द्वितीयः ईशाने, तृतीयः सनत्कुमारे, चतुर्थो माहेन्द्र, पञ्चमो ब्रह्मलोके, षष्ठो लान्तके, सप्तमो महाशक, अष्टमः सहस्रारे, नवमो प्राणते, दशमोऽच्युते । सर्वत्र उत्कृष्टा स्थिति णितव्या, महाविदेहे सेत्स्यति ॥१॥ पदार्थान्वयः-जइणं भंते-यदि हे भगवन्, समणेणं भगवया-श्रमण भगवान, जावयावत्, संपत्तेणं-मोक्ष को संप्राप्त ने, कप्पडिसियाणं पढमस्स अज्झयणस्स अयम? पन्नत्तेकल्पावतंसिका के (द्वितीय वर्ग के) प्रथम अध्ययन का यह अर्ष प्रतिपादन किया है, वोच्चस्स गं भंते अज्मयणस्स के अठे पण्णत्ते-तो भगवान ने दूसरे अध्ययन का क्या अर्थ प्रतिपादन किया है। एवं Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ग-द्वितीय ( १७६ ) [कल्पावतंसिका खलु जंबू !-इस प्रकार निश्चय ही हे जम्बू !, तेणं कालेणं तेणं समयेणं-उस काल उस समय, चंपा नाम नगरी होत्था-चम्पा नाम की नगरी थी, पन्नभद्दे चेइए-वहां पूर्ण भद्र नामक चैत्य था, कणिए राया, पउमावईदेवी- कोणिक राजा था, पद्मावती रानी थी, तत्थ णं चंपाए नयरीए-उस चम्पा नगरी में, सेणियस्स रन्नो भज्जा-श्रेणिक राजा की भार्या. कोणियस्स रन्नो चुल्लमाउया-कोणिक राजा की छोटी माता; सुकाली नाम देवी होत्था-सुकाली नाम की महारानी थी, तोसे गं सुकालीए पुत्ते-उस सुकाली के पुत्र, सुकाल नाम कुमारे- सुकाल नाम का कुमार था, तस्स णं सुकालस्स कुमारस्स-उस सुकमार सुकाल कुमार के, महापउमा नाम देवी होत्था-महापद्मा नाम की देवी थी, सुकुमाला०-जो सुकोमल थी। तए णं सा महापाउमा देवी-तत्पश्चात् वह महापद्मा देवी, अन्नया कयाई-अन्य किसी समय, तंसि तारिसगंसि-उसके समान शैय्या पर, एवं तहेथ महाप उमे नाम दारए-वैसे ही महापद्म नाम का पुत्र उत्पन्न हुआ, जाव-यावत्, सिज्झिहिइ-मोक्ष पद प्राप्त करेगा, नवरं ईसाणे कप्पे उववाओ-इतना विशेष है कि उसका ईशान देव-लोक में उत्पति (जन्म) होगा, उक्कोसट्ठि इओ-उत्कृष्ट स्थिति जाननी चाहिए, तं एवं खल जंब-इस प्रकार हे जम्बू !, समणेणं भगवया जाव संपत्तेणं-श्रमण भगवान यावत् मोक्ष को संप्राप्त ने द्वितीय अध्ययन का यह अर्थ प्रतिपादन किया है, एवं सेसा वि अट्ठ नेयव्वा- इस प्रकार शेष आठ अध्ययनों के विषय में भी जान लेना चाहिए, मायाओ सरिसनामाओ-सबके नाम माताओं के नामों पर हैं. कालादीणं पत्ता आणपवीए-अनुक्रम से कालादि दसों कुमारों की चारित्र पर्याय इस प्रकार है, दोण्हं च पंच-प्रथम दो की पांच वर्ष, चत्तारि तिह-फिर तीन की चार वर्ष, तिण्हं च होंति तिण्णेव-फिर तीन कुमारों की तीन वर्ष, दोण्हं च दोणि वासा-फिर दो की दो वर्ष, सेणियनत्तण परियाीश्रेणिक राजा के पौत्र का चारित्र पर्याय है। ___ उववानो आणुपुत्रीए -उपपात अनुक्रम से, पढमो सोहम्मे-प्रथम सौधर्म में, वितिमो ईसाणे-द्वितीय का ईशान कल्प में, तइओ सणंकमारे - तीसरा सनत कुमार देवलोक में, चउत्थो माहिदे-चतुर्थ माहेन्द्र कल्प देवलोक में, पंचमओ वंभलोए-पांचवां ब्रह्म देवलोक में, छट्ठो लंतए-छठा लांतक कल्प में, सत्तमओ महासुक्के-सातवें का महाशुक्र में, अट्ठम भो सहस्सारेआठवां सहस्रार देवलोक में, नवमओ पाणए-नौवां प्राणत देवलोक में, दसमओ अच्चुए-दशवां अच्युत देवलोक में उत्पन्न हुआ, सव्वस्स उक्कोसहि -सब की उत्कृष्ट स्थिति कहनी चाहिए, महाविदेह सिज्झिहिइ भाणियव्वा-पोर यावत् सन्न हो महाविदेह क्षेत्र में जन्म लेकर सिद्ध गति प्राप्त करेंगे, अर्थात् मोक्ष प्राप्त करके सब दु:खों का अंत करेंगे। कप्पडिसियाओ वितियोवग्गो संमताओ-कल्पावतंसिका नामक शास्त्र द्वितीय वर्ग समाप्त हुमा ।।७।। मूलार्थ-अब आर्य जम्बू स्वामी ने प्रश्न किया-हे भगवन् ! श्रमण भगवान यावत् मोक्ष को संप्राप्त ने अगर कल्पावतंसिका के द्वितीय वर्ग के प्रथम अध्ययन का Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरयावलिका] (१७७) [वर्ग-द्वितय यह अर्थ प्रतिपादन किया है, तो हे भगवन् ! (उन श्रमण भगवान महावीर) ने दूसरे अध्ययन का क्या अर्थ प्रतिपादन किया है ? गणधर सुधर्मा स्वामी ने उत्तर दियाहे जम्बू ! उस काल एवं उस समय में चम्पा नाम की एक नगरी थी। (वहां) कोणिक नाम का राजा राज्य करता था। उसकी पद्मावती नाम की देवी (महारानी) थी। उस चम्पा नगरी में राजा श्रेणिक की भार्या एवं राजा कोणिक की छोटी माता सुकाली नाम की देवी थी। उस सुकाली का पुत्र सुकाल नाम का कुमार था। उस सुकाल कुमार की महापद्मावती नाम को रानी थी जी सुकोमल थी। ___तत्पश्चात् वह महापद्मावती देवी, किसी समय महल में सो रही थी (जैसे कि पहले वर्णन किया जा चुका है) । उसको कुक्षि से महापद्म नाम का कुमार उत्पन्न हुआ, यावत् वह निर्वाण-पद प्राप्त करेगा। इतना विशेष है कि उसका उपपात (देवलोक में जन्म) होगा और वह ईशान-कल्प नामक देवलोक में उत्कृष्ट स्थिति वाला देव बनेगा। इस प्रकार हे.जंबू ! श्रमण भगवान महावीर ने यावत् मोक्ष को संप्राप्त ने द्वितीय अध्ययन का यह अर्थ प्रतिपादन किया है। - इस प्रकार शेष आठ अध्ययनों का अर्थ भी जानना चाहिए। सब के नाम माताओं के नामों के सदृश हैं । अनुक्रम से कालादि दसों ही पुत्रों की दीक्षा-पर्याय इस प्रकार है, प्रथम दो की पांच वर्ष, तीन की तीन वर्ष, दो की दो वर्ष । यह सब महाराजा श्रेणिक के पोत्रों की दीक्षा-पर्याय है । अनुक्रम से इन सबका उपपात इस प्रकार हुआ। प्रथम का सौधर्भ देवलोक, द्वितीय का ईशान देवलोक, तृतीय का सनत्कुमार देवलोक, चौथे का माहेन्द्र देवलोक, पांचवें का ब्रह्म देवलोक, छठे का लांतक देवलोक, सातवें का महाशुक्र देवलोक, आठवें का सहस्रार देवलोक, नौवें का प्राणत, दसवें का अच्युत देवलोक । सबकी देवलोक में उत्कृष्ट स्थिति जाननी चाहिए यावत् ये सब महाविदेह क्षेत्र से सिद्ध होंगे ।।६।। टोका-इस सूत्र में राजा श्रेणिक के पौत्रों का वर्णन है, इन सब राज-कुमारों ने मुनि-जीवन ग्रहण किया, तप किया और देवलोक प्राप्त किया। फिर महाविदेह क्षेत्र में सिद्ध-बुद्ध-मुक्त होंगे, Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बर्ग-द्वितीय] ( १७८ ) [निरयावलिका इनकी माताओं के नाम पर ही इनके नाम जानने चाहिये। अन्तर इनके नामों, दीक्षा - पर्यायों व देवलोक के नामों में है । इस अध्ययन से सिद्ध होता है कि सम्यग् ज्ञान, सम्यग् दर्शन, सम्यग् चारित्र व सम्यग् तप की आराधना से श्रेष्ठ गति प्राप्त होती है । देव-लोक में देव रूप में जन्म, शुभकर्मोदय से ही होता है : महाविदेह क्षेत्र से इन सभी चारित्रशील प्रात्माओं ने मोक्ष पधारना है। सभी अध्ययनों में घटनाक्रम एक तरह का है। इस प्रकार कल्पावतंसिका नामक द्वितीय वर्ग में निम्नलिखित मुनियों का वर्णन है, काल, सुकाल के पुत्र पद्म-महापद्म अनगार ने पांच वर्ष संयम पालन किया, तदनन्तर सौधर्म नामक प्रथम देवलोक में उत्कृष्ट दो सागरोपम प्राय वाला, महापद्म ईशान देवलोक में दो सागरोपम से कुछ अधिक आयु वाला देव बना । महाकाल, कृष्ण और सुकृष्ण के पुत्र भद्र, सुभद्र और पद्म भद्र ने चार वर्ष संयम पर्याय का पालन किया । भद्र मुनि सनत्कुमार नामक तीसरे देवलोक में उत्कृष्ट सात सागरोपम की आयु वाला, सुभद्रमुनि माहेन्द्र नामक चतुर्थ देवलोक में उत्कृष्ट सात सागरोपम और पद्म भद्रमुनि ब्रह्मलोक नामक पांचवें देवलोक में उत्कृष्ट दस सागरोपम को आयु बाला देव बना। महाकृष्ण, रामकृष्ण का पुत्र पद्मसेन पद्मगुल्म मुनि हुए । पद्मसेन मनि लांतक नामक छटे देवलोक में उत्कृष्ट चौदह सागरोपम की स्थिति बाला देव बना । पद्मगुल्म मुनि महाशुक्र नाम के सातवें देवलोक में सत्रह सागरोपम की आयु वाले देव बने । इन्होंने तोन वर्ष संयम का पालन किया। नलिनी-गुल्म सहस्रार देवलोक में १६ सागरोपम आयु वाले देव बने। पितृ सेन कृष्ण व महासेन कृष्ण के पुत्र मानन्द मुनि व नन्दन मुनि ने दो-दो वर्ष संयम पालन किया। आनन्द मुनि प्राणत नाम के नवमे देवलोक में उत्कृष्ट २० सागरोपम बायु वाला व नन्वन मुनि वारहवें अच्युत देवलोक में २२ सागरोपम स्थिति वाले देव बने॥६॥ ॥ द्वितीय वर्ग समाप्त ॥ Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुष्पिता नामक [तृतीय-वर्ग] Page #258 --------------------------------------------------------------------------  Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अथ पुष्पिताख्यस्तृतीयो वर्गः [ उत्थानिका-आर्य जम्बू पचम गणधर सुधर्मा स्वामी से निरयावलिका सूत्र के द्वितीय वर्ग का अर्थ ग्रहण करने के पश्चात् इस उपाङ्ग के पुष्पिता नामक तृतीय वर्ग के अर्थ सुनने की जिज्ञासा अपने गुरुदेव से करते हैं। विनीत शिष्य के प्रश्न के उत्तर में आर्य सुधर्मा ने क्या उत्तर दिया, उसी का वर्णन इस अध्ययन में है ] मूल-जइ णं भंते ! समणेणं भगवया जाव संपत्तेणं उवंगाणं दोच्चस्स वग्गस्त कप्पडिसियाणं अयमढे पन्नत्ते ?। तच्चस्स णं भंते ! वग्गस्स उवंगाणं पुफियाणं के अट्ठे पण्णत्ते ?। एवं खलु जंबू ! समणेणं जाव संपत्तणं उवंगाणं तच्चस्स वग्गस्स पुफियाणं दस अज्झयणा पन्नत्ता तं जहा१. चंदे, २. सूरे, ३. सुक्के, ४. वहुपुत्तिय, ५. पुन्ने, ६. माणभद्दे य । ७. दत्त, ८. सिवे, ६. वलेया, १०. अणाढिए चेव वोद्धव्वे ॥१॥ छाया-यदि खलु भदन्त ? श्रमणेन भगवता यावत् संप्राप्तेन उपाङ्गानां द्वितीयस्स वर्गस्य कल्पावतंसिकानायमर्थः प्रज्ञप्तः तृतीयस्य खलु भदन्त ? वर्गस्य उपाङ्गानां पुष्पितानां कोऽर्थः प्रज्ञप्त: ? एवं खलु जम्बू ! श्रमणेन यावत् संप्राप्तेन उपाङ्गानां तृतीयस्य वर्गस्य पुष्पितानां दशाव्ययमानि प्रज्ञप्तानि, तद्यथा-चन्द्रः १. सूरः, २. शुक्रः, ३. बहुपुत्रिकः, ४. पूर्णः, ५. मानभद्रश्च । ६. दत्तः ७. शिव', ८. वलेपकः, ६. अनादृतः, १०. चैव बोद्धव्याः ॥१॥ पदार्थान्वयः-जइणं भंते-यदि हे भगवन्, समणेणं भगवया जाव संपत्तणं-श्रमण भगवान महावीर यावत् मोक्ष संप्राप्त ने, उवंगाणं दोच्चस्स बग्गस्म- दूसरे उपाङ्ग के द्वितीय वर्ग, कप्पडिसिवाणं अयम→ पम्नत्ते-कल्पावतंसिका का यह अर्थ प्रतिपादन किया है, तच्चस्स गं भंते-तो हे भगवन तीसरे, वग्गस्स उवंगाणं पुफियाणं के अट्ठे पण्णत्ते-वर्ग के उपाङ्ग पुष्पिता का क्या अर्थ प्रतिपादन किया है ? निरयावलिका) (१८१) [वग-तृतीय Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वग-तृतीय ] ( १८२ ) [कल्पावतंसिका एवं खलु जम्बू - इस प्रकार हे जम्बू, समणेणं जाव संपत्तेण-श्रमण भगवान यावत् मोक्ष को सम्प्राप्त ने, . उबंगाणं तच्चस्स वग्गस्स-उपाङ्ग के तीसरे वर्ग, पुफियाणं-पुष्पिता के, दम अज्झयणा पन्नत्ता-दस अध्ययन प्रतिपादन किये हैं, त जहा-जैसे कि, चदे, सूरे, सुक्के, वहुपुत्तिय, पुन्ने, माणभद्दे य–चन्द्र, सूर्य, शक्र, वहुपुत्रिका, पूर्ण, मानभद्र, दत्त, सिवे, वलेया, अणाढिए, चेव, वोद्धव्वे-दत्त, शिव, बलेपक, अनादृत का वर्णन जानना चाहिए। मूलार्थ-दूसरे वर्ग का अर्थ सुनकर आर्य जम्बू अपने गुरु आर्य सुधर्मा स्वामी से तीसरे वर्ग के बारे में प्रश्न करते हैं- हे भगवन् ! यदि श्रमण भगवान महावीर यावत् मोक्ष को संप्राप्त ने द्वितीय वर्ग कल्पावतंसिका का यह अर्थ प्रतिपादन किया है तो तीसरे उपाङ्ग पुष्पिका का क्या अर्थ प्रतिपादन किया है ? ___ (आर्य सुधर्मा उत्तर देते हैं) हे जम्बू ! श्रमण भगवान यावत् मोक्ष सम्प्राप्त ने उपाङ्गों में तृतीय वर्ग पुष्पिका के दश अध्ययन प्रतिपादन किये हैं जो इस प्रकार जानने चाहिये-१. चन्द्र, २. सूर्य, ३. शुक्र, ४. वहुपुत्रिका, ५. पूर्ण, ६. मानभद्र, ७. दत्त, ८. शिव ९. वलेपक, १०. अनादृत । . टीका- इस सूत्र में कल्पावतंसिका और पुष्पिका का आपसी सम्बन्ध स्थापित किया गया है। तीसरे वर्ग पुष्पिका के भी दस अध्ययन हैं। प्रत्येक अध्ययन का निक्षेप शुरू व अन्त में स्वयं जोड़ लेना चाहिए। इस सम्बन्ध में वृत्तिकार का कथन है-अथ तृतीय वर्गोऽपि दशाध्ययनात्मक 'निक्खेवओत्ति निगमन वाक्यं यथा एवं खलु जम्बू समणेणं भगवया महावीरेणं आइगरेणं, इत्यादि जाव सिद्धिगइ नामधेयं ठाणं, संपाविउकामेणं तइयस्य वग्गस्स (पढम अज्झ) यणस्स पुषिफयाभिहाणस्स अयमठे पण्णत्ते, एवमुत्तरेष्वप्यध्ययनेषु सूरशुक्र-बहुपुत्रिादिषु निगमनं वाच्य तत्तदभिलापेन । इसी प्रकारं प्रत्येक अध्ययन के साथ सम्बन्ध जोड़ लेना चाहिये। सभी वर्गों के नाम ऊपर लिखे जा चुके हैं। उत्थानिका-अब सूत्रकार प्रथम अध्ययन का विषय कहते हैं मूल-जइ णं भंते ! समणेणं जाव संपत्तेणं पुफियाणं दस अज्झयणा पन्नत्ता, पढमस्स णं भंते ! अज्झयणस्स पुफियाणं समणेणं जाव संपत्तेणं के अठे पन्नत्ते?। एवं खलु जंबू ! तेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहे नामं नयरे, गुणसिलए चेइए, सेणिए राया। तेणं कालेणं तेणं समएणं सामी Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरयावलका ( १८३ ) ( वर्ग-तृतीय समोसढे, परिसा निग्गया । तेणं कालेणं तेणं समएणं चंदे जोइसिंदे जोइसराया चंदवडसए विमाणे सभाए सुहम्माए चंदंसि सोहासणंसि चहिं सामाणियसाहस्सीहिं जाव विहरइ । इमं च णं केवलकप्पं जंबूद्दीवं दीवं विउलेणं ओहिणा आभोएमाणे - २ पासइ, पसित्ता समणं भगवं महावीरं जहा सूरिया आभिओगे देवे सद्दावित्ता जाव सुरिंदाभिगमणजोगं करेत्ता तमाणत्तियं पच्चप्पिणइ । सूसरा घंटा, जाव विउव्वणा, नवरं ( जाणविमाणं) जोयणसहस्सवित्थिष्णं अद्धत्तेवट्ठिजोयणसमूसियं, महिंदज्झओ पणुवीसं जोयणमूसिओ, सेसं जहा सूरियाभस्स जाव आगओ नट्टविही तहेव पडिगओ । भंते त्ति भगवं गोयमे समणं भयवं महावीरं, पुच्छा, कूडागारसाला, सरोरं अणुपविट्ठा पुव्वभवो । एवं खलु गोयमा ! तेणं कालेणं तेण समएणं सावत्थी नाम नयरी होत्या, कोट्ठए चेइए ! तत्थणं सावत्थीए नयरीए अंगई नामं गाहावई होत्या, अड्ढे जाव अपरिभूए । तएणं से अंगई गाहावई सावत्थोए नथरीए बहूण नयरनिगण० जहा आणंदी ॥ १ ॥ छाया - यदि खलु भदन्त ! श्रमणेन यावत् संप्राप्तेन पुष्पितानां दशध्ययनानि प्रज्ञतानि प्रथमस्य खलु भदन्त ! अध्ययनस्य पुष्पितानां श्रमणेन यावत् संप्राप्तेन कोऽर्थः प्रज्ञप्तः ? एवं खलु जम्बू ! तस्मिन् काले तस्मिन् समये राजगृहं नाम नगरं गुणशिलं चंध्यं श्रेणिको राजा । तस्मिन् काले तस्मिन् समये स्वामी समवसृतः । परिषत् निर्गता । तस्मिन् काले तस्मिन् समये चन्द्र ज्योतिकेन्द्र ज्योतीराजः चन्द्रावतंस के विमाने सभायां सुधर्मायां चन्द्रो सिंहाशने चतसृभिः सामानिकसाहस्रीभिः यावद् विहरति । इमं च खलु केवलकल्पं जम्बूद्वीपं द्वीपं विपुलेन अवधिना आभोगयमानः श्राभोगयमानः पश्यति, दृष्ट्वा श्रमणं भगवन्तं महावीरं सूर्याभः अभियोग्यान् देवान् शब्दयिःवा यावत् सुरेन्द्रादिगमनयोग्यं कृत्वा नामाज्ञप्तिकां प्रत्यर्पयति । सुम्वरा घण्टा यावत् विकुर्वणा नवरं (यानविमानं) योजनसहस्र विस्तीर्णम् अर्धत्रिषष्टियोजन समुच्छ्रितम्, महेन्द्रध्वजः पञ्चविंशतियोजनमुच्छ्रितः शेषं यथा सूर्याभस्य यावदागतो नाट्यविधिस्तथैव प्रतिगतः । भदन्त इति भगवान् गौतमः श्रमण भगवन्तं महावीरं पृच्छा, कूटागारशाला, शरीरमनुप्रविष्टा, पूर्वभवः । Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ग - तृतीय ] [ निरयावलिका एवं खलु गौतम । तस्मिन् काले तस्मिन् समये 'धावस्तिः' नाम नगरी आसीत्, कोष्ठकं चैत्यम् । तत्र खलु श्रावस्त्यां नगर्याम् अङ्गति नामा गायापतिरासीत् आढ्यो यावदपरिभूतः । ततः खलु सः अङ्गतिर्गाथापतिः श्रावस्त्यां नगर्यां बहूनां नगर निगम० यथा आनन्दः ॥ १ ॥ ( १८४ ) पदार्थावयः - जइ णं भंते - यदि हे भगवन, समणेणं जाव संपत्तेणं - श्रमण भगवान यावत् मोक्ष संप्राप्तने, पुल्फियाणं दस अज्झयणा पन्नत्ता - पुष्पिका के दश अध्ययन प्रतिपादन किये हैं, पढमस्स णं भंते - तो हे भगवन प्रथम, अज्झयणस्स पुष्कियाणं - अध्ययन पुष्पिका के समणेणं जाव संपत्ते - श्रमण भगवान् यावत् मोक्ष को संप्राप्त ने, के अट्ठ पन्नत्ते - क्या अर्थ प्रतिपादन किया है ? एवं खलु जम्बू - इस प्रकार निश्चय ही हे जम्बू, तेणं कालेणं तेणं समएणं- उस काल उसे समय में, रायगिहे नाम नथरे - राजगृह नामक नगर था, गुणसिलए चेइए-गुणशील नामक चैत्य था, सेणिए राया- श्रेणिक राजा था, तेणं कालेणं, तेणं समएणं--उस काल उस समय में, सामी समोसढे - (भगवान महावोर) स्वामी गुणशील चैत्य में पधारे, परिसा निग्गया - परिषद् दर्शनार्थ आई, तेणं कालेणं तेणं समएणं - उस काल उस समय में चंदे जोइसिदे - शन्द्र ज्योतिषी देवों का इन्द्र, जोइसराया - ज्योति राजा था, चंदवडसए विमाणे सभाए सुहम्माए - चन्द्रावतंसक विमान की सोधर्म सभा में चंदसि सोहास मंसि- चन्द्र नामक सिंहासन पर चह सामाणियसाहस्तीह जाव विहरइ-चार हजार सामानिक देवों से संपरिवृत ( घिरा हुआ) विचरता है, इमं च णं hamari जंबुद्दीवं दीवं - उस समय सम्पूर्ण जम्बू द्वीप को, विउलेणं ओहिणा आभोए माणे आभोएमाणे पासइ पासित्ता - विपुल प्रधान अवधि ज्ञान के उपयोग से देखता है और देखकर, समणं भगवं महावीरं - :- श्रमण भगवान महावीर को देखकर, जहा सूरियाभे-जैसे सूर्याभदेव ने किया था, यावत् अभिओगे देवे सद्दावित्ता - आभियोगिक (सेवक ) देवों को बुला कर जाव सुरिदाभिगमन-जोग्गं करेता तमाणत्तियं पच्चपिणइ - यावत् सुरेन्द्र के जाने योग्य विमान की रचना कर, उसकी आज्ञा का पालन किया अर्थात् चन्द्र देव को सूचित किया कि विमान तैयार है, सुसरा घंटा जाव विव्वणासुस्वर घंटे यावत् सब की विकुर्वणा कर, उनको बताया, नवरं जाण विमाणं, जोयणसहस्स वित्थिष्णं - इतना विशेष है उसका विमान एक हजार योजन चोड़ा, अद्धत्ते वट्ठि जोयणसमूसियं - मोर ६२३ योजन ऊंचा था, महदज्झओ पणवीसं जोयणमूसिओ - महेन्द्र ध्वजा २५ योजन ऊंची, सेसं जहा सरियाभस्स जाव आगओ - शेष सूर्याभ देव के समान यावत् आ गया, नट्टविहि तहेव पडिगओ - उसी तरह नाट्य विधि (नाटक) दिखाकर वापिस स्वस्थान पर चला गया, भंते त्ति भगवं गोयमेहे भगवन् ! भगवान गौतम जो ने, समणं भगवं महवीरं पुच्छा - श्रमण भगवान महावीर से पूछा यावत् प्रश्न किया, कूडागारसाला सरीरं अणु पविट्ठा - कूटागारशाला की तरह वह देव के शरीर ही अनुप्रविष्ट हो गई, पुण्यभवो - गौतम स्वामी ने चन्द्रमा का पूर्व भव भगवान से पूछा, भगवान ने उत्तर दिया, एवं खलु गोयमा - इस प्रकार हे गौतम, तेणं कालेणं तेणं समएणं - उस काल उस समय में, सावत्थी नाम नयरी होत्था - श्रावस्ती नामक की नगरी थी, कोटुए चेहए Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरयावलिका) (१८५) [वर्ग-ततीय वहां ईशान कोण में कोष्ठक नामक चैत्य था, तत्थर्ण सावत्थीए नयरोए-उस श्रावस्ती नगरी में, अंगई नाम गाहावई होत्था-एक अंगति नामक गाथापति था, अड्डे जाव अपरिभए-वह ऋद्धिवान यावत अपरिभूत था, तएणं से गाहावई-तत्पश्चात वह गाथापति, सावत्थीए नयरीए-श्रावस्ती नगरी में, बरणं नयरनिगम-बहत नगर निगमों में यावत, जहा आनंदो-जैसे आनन्द था ॥२॥ मूलार्थ - (आर्य जम्बू प्रश्न करते हैं। हे भगवन् ! श्रमण भगवान महावीर यावत् मोक्ष को संप्राप्त ने पुष्पिका नामक वर्ग के यदि १० अध्ययनों का प्रतिपादन किया है । तो हे भगवन् ! श्रमण भगवान यावत् मोक्ष संप्राप्त ने पुष्पिका के प्रथम अध्ययन का क्या अर्थ प्रतिपादन किया है ? (उत्तर में आर्य सुधर्मा स्वामी कहते हैं) हे जंबू ! निश्चय ही उस काल, उस समय में राजगृह नामक नगर था उस नगर में गणशील नामक एक चैत्य था । श्रेणिक नामक राजा वहां राज्य करता था। उस काल और उस समय श्रमण भगवान महावीर उस राजगृह नगर के गुण शील चैत्य नाम के उद्यान में पधारे । परिषद दर्शन करने आई अर्थात् परिषद ने भगवान की पर्युपासना की। उस काल, उस समय में चन्द्र ज्योतिष्केन्द्र, ज्योतिष्क देवों का राजा था, जो चार हजार सामानिक देवों से संपरिवृत (घिरा) हुआ, सुधर्मा सभा में, चन्द्रावतंसक नामक विमान पर, चन्द्र नामक सिंहासन पर बैठा हुआ यावत् विचरता था। वह . अपने विपुल अवधि-ज्ञान की शक्ति से समस्त जम्बू द्वीप को देखता है, देखकर श्रमण भगवान महावीर को देखते ही जैसे सूर्याभ देव ने किया था, उस प्रकार आभियोगिक देवों को बुलाता है । वे आभियोगिक देव सुरेन्द्र के गमन करने योग्य विमान की विकुर्वणा कर, चन्द्र देव की आज्ञा का पालन कर, उसको (चन्द्र देव को) सूचित करते हैं। फिर पदातिसेनानायक देव ने सुस्वर घंटों को बनाया और विमान की विकुर्वणा की। इतना विशेष है कि उस (चन्द्र) का विमान हजार योजन विस्तार वाला, साढ़े ६२ योजन ऊंचा था। महेन्द्र ध्वजा २५ योजन ऊंची थी। शेष जैसे सूर्याभदेव का वर्णन है, वैसे ही इस (चन्द्र) का है यावत् नाट्य-विधि की। उसे दिखाकर वापिस देवलोक लौट गया। हे भगवन् ! (इस वर्णन के अनन्तर) भगवान गौतम ने श्रमण भगवान् महावीर Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ग - तृतीय ] ( १८६ ) से प्रश्न किया "हे भगवन् ! वह रचना कहां गई" भगवान महावीर ने उत्तर दिया "कूटागार शाला के समान ही देव के शरीर में प्रविष्ट हो गई ।" गणधर गौतम ने चन्द्र का पूर्व भव पूछा। भगवान ने उत्तर दिया - हे गौतम! उस काल, उस समय में श्रावस्ती नाम की नगरी थी। वहां एक कोष्ठ नाम का चंत्य था वहां अंगति नामक गाथापति रहता था । जो धन धान्य से यावत् पराभव से रहित था वह अंत गाथापति श्रावस्ती नगरी में बहुत नगर निगमों में यावत् आनन्द की तरह समृद्धियों से युक्त था ॥ २॥ - [ निरयावलिका टीका - प्रस्तुत सूत्र पुष्पिकानामक वर्ग के १० अध्ययनों में से प्रथम का अर्थ आर्य जम्बू की जिज्ञासा का समाधान करते हुए आर्य सुधर्मा सुना रहे हैं। उस काल उस समय राजगृही नगरी में श्रमण भगवान महावीर ग्रामानुग्राम धर्म प्रचार करते हुए पधारे । गुणशील चंत्य में राजा श्रेणिक व समस्त नागरिक प्रभु का धर्म उपदेश सुनने, दशन वन्दन करने आये। उसी सभा में ज्योतिष देवों का इन्द्र चन्द्रमा अपने चन्द्र सिंहासन पर बैठा अवधिज्ञान के उपयोग से ये सब देखता है । अपने चार हजार सामानिक देवों से घिरा, सुधर्मा सभा के चन्द्रावतंसक विमान में बैठा, अपने आधीन सेवक देवों को बुलाता है, उन्हें सुरेन्द्र के गमन योग्य विमान को विकुर्वणा करने का आदेश देता है सेवक देव एक हजार विस्तार व ६ २३ योजन ऊंचा विमान तैयार करते हैं और फिर देवों ने सुस्वर घंटा बजा कर अन्य देवों को सूचित किया । १६००० आत्म-रक्षक देवों को विकर्वणा कर आज्ञा पूरी करके चन्द्रदेव को सूचित करते हैं । चन्द्र देव अपने समस्त परिवार, देव परिवार व समस्त ऋद्धियों का प्रदर्शन करता हुआ, भगवान महावीर का प्रणाम करने आ रहा है । उसके आगे २५ योजन ऊंचो महेन्द्र ध्वजा चल रही है । चन्द्र देव भगवान के सामने सूर्याभदेव की तरह नाटक विधि का प्रदर्शन करता है और धर्म-उपदेश सुनने के पश्चात् चला जाता है । चन्द्रमा के चले जाने के पश्चात् गणधर गौतम प्रश्न करते हैं कि हे भगवन ! इस देव ने अपनी ऋद्धिको विस्तृत करके दिखाया, अब यह ऋद्धि कहां चली गई ? फिर शरीर में कैसे प्रविष्ट हो गई ?" भगवान महावीर ने उत्तर में कूटाकार शाला का दृष्टांत देकर स्पष्ट किया जैसे किसी उत्सव में फैला जनसमूह वृष्टि के भय से किसी विशाल घर में प्रवेश करता हैं उसी प्रकार चन्द्रदेव ने अपनी वैक्रिय शक्ति से देवताओं की रचना कर नाटक दिखाया और फिर उसको समेट कर अपने ही देव-शरीर में प्रविष्ट कर लिया । केवलकप्पं का भाव है अपना कार्य करने में समर्थ, अर्थात् स्व गुण सम्पूर्ण । वृत्तिकार मी इस प्रकार लिखते हैं Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरयावलिका) (१८७) [वर्ग-तृतीय केवलकप्पति केवलः-परिपूर्णः स चासो कल्पश्च केवल कल्प:-स्वकार्यकरण समर्थः केवल जेल्पः तं स्वगुणेन संपूर्णमित्यर्थः । गौतम का ऐसा प्रश्न सुनकर भगवान ने कहा - हे गौतम ! उस काल उस समय में श्रावस्ती नाम को नगरी थो । उन नगरो में कोष्ठक नामक चैत्य था। उस श्रावस्ती नगरी में प्रगति नामक एक गाथापति था। वह गाथापति बहुत बड़ो ऋद्धि आदि से युक्त था, कीर्ति से उज्ज्वल था। उसके पास बहुत से घर, शैय्या, आसन, गाड़ो, घोड़े आदि थे और वह बहुत सा धन तथा बहुत सोना चांदी आदि का लेन-देन करता था। उसके घर में खाने के बाद बहत सा अन्न-पान प्रादि खाने पीने का सामान रहता था जो अनाथ-गरीब मनुष्यों को व पशु पक्षियों को दिया जाता था। उसके यहां दास-दासियां बहुत सी थीं और बहुत से गाय, भैंसें, भड़ें थीं, तथा वह अपरिभूत-प्रभावशाली था। " 'आख्य, दीप्त, और अपरिभूत' इन तीन विशेषणों से अंगति गाथापति के लिये दीपक का दृष्टान्त दिया जाता है, वह इस प्रकार है-जैसे दीपक, तेल, बत्ती और शिखा (लौ) से युक्त होकर वायु-रहित स्थान में सुरक्षित रहकर प्रकाशित होता है, वैसे ही अंगति गाथापति भी तेल और बत्ती के समान पाढ्य तथा अर्थात् ऋद्धि से, शिखा की जगह उदारता गंभीरता आदि से और दीप्ति से युक्त होकर, वायु-रहित स्थान के समान मर्यादा का पालन आदि रूप सदाचार से तथा पराभवरहितपन से संयुक्त होकर तेजस्विता धारण करता था । अतः आड्यता दीप्ति और अपरिभूतता, इन तीनों में रहनेवाला हेतुताऽवच्छेदक धर्म एक हो है, इस कारण तृणारणिमणि-न्याय से प्रत्यक्ष, अनुमान और आगम शब्दों में प्रमाणता के समान प्रत्येक (सिर्फ आध्यता, सिर्फ दीप्ति, या सिर्फ अपरिभूतता) को हेतु नहीं मानना चाहिए। जिस प्रकार प्रानन्द गाथापति धन-धान्य आदि से युक्त वाणिज्य ग्राम में निवास करता था। उसी प्रकार अङ्गति गाथापति भी श्रावस्ती नगरो में निवास करता था। आनन्द का वर्णन श्री उपासक दशांगसूत्र के प्रथम अध्याय में देखना चाहिए । ___ वह अङ्गति गाथापति राजा ईश्वर यावत् सार्थवाही के द्वारा बहुत से कार्यों में, कारणों (उपायों) में मन्त्र (सलाह) में, कुटुम्बों में, गु ह्यों में, रहस्यों में, निश्चयों में और व्यवहारों में एक बार पूछा जाता था और वह अपने कुटुम्ब का भो मेधि, प्रमाण, आधार आलम्बन चक्षु, मेघीभूत यावत् समस्त कार्यों को बढ़ाने वाला था। यावत् शब्द से राजा, ईश्वर, तलवार, माण्डविक, कौटुम्बिक, इभ्य, श्रेष्ठी सेनापति और सार्थवाह का ग्रहण होता है। माण्डलिक नरेश को राजा, और ऐश्वर्य वालों को ईश्वर कहते हैं। राजा संतुष्ट होकर जिन्हें पट्टवन्ध देता है, वे राजा के समान पट्टबन्ध से विभूषित लोग तलवर कहलाते हैं। जो वस्तो छिन्न भिन्न हो उसे मण्डव और उसके अधिकारी को माण्डविक कहते हैं। 'माहबिय' को छाया यदि 'माडम्बिक' की जाय तो माडम्बिक का अर्थ 'पांच सौ गांवों का स्वामी' होता है। अथया ढाई ढाई कोस की दूरी पर जो अलग गांव वसे हो, उनके स्वामी को 'माडम्बिक' कहते हैं। जो कटुम्ब का पालन पोषण करते हैं, Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ग-तृतीय] ( १८८) । निरयावलिका या जिनके द्वारा बहुत से कुटुम्बों का पालन होता है, उन्हें 'कौटुम्बिक' कहते हैं। इस का अर्थ है हाथी और हाथी के बराबर द्रव्य जिसके पास हो उसे 'इभ्य' कहते हैं । जघन्य मध्यम और उत्कृष्ट के भेद से इभ्य तीन प्रकार के हैं। जो हाथी के बराबर मणि, मुक्ता, प्रवाल (मूंगा) सोना, चांदी आदि द्रव्य-राशि के स्वामी हो वे जघन्य इभ्य हैं । जो हाथी के बराबर हीरा और माणिक को राशि के स्वामी हों वे माध्यम इभ्य हैं । जो हाथी के बराबर केवल होरों की राशि के स्वामी हो वे उत्कृष्ट इभ्य हैं । लक्ष्मी की जिस पर पूरी-पूरी कृपा हो और उस कृपाकोर के कारण जिनके लाखों के खजाने हों. तथा सिर पर उन्हीं को सूचित करने वाले चान्दी का विलक्षण पट्ट शोभायमान हो रहा हो, जो नगर के प्रधान व्यापारी हों, उन्हें श्रेष्ठी कहते हैं। ___ चतुरङ्गी सेना के स्वामी को सेनापति कहते हैं । जो गणिम, धरिम, मेय और परिछेद्य रूप खरीदने बेचने के योग्य वस्तुओं को लेकर नफा के लिये देशान्तर जाने वाले को साथ ले जाते हैं, योग (नयी वस्तु को प्राप्ति) और क्षेम (प्राप्त वस्तु को रक्षा) के द्वारा उनका पालन कहते हैं, गरीबों की भलाई के लिये उन्हें पूंजी देकर व्यापार द्वारा धनवान बनाते हैं उन्हें सार्थवाह कहते हैं । एक, दो, तीन, चार आदि संख्या के हिसाब से जिनका लेन देन होता है, 'गणित' कहते हैं, जैसे-नारियल, सुपारी, केला आदि । तराजू पर तोलकर जिसका लेन-देन हो, उसे 'धरिम' कहते हैं, जैसे धान, जौ, नमक, शक्कर आदि । सरावा छोटे-छोटे वर्तन आदि से नाप कर जिसका लेनदेन होना है, उसे मेय कहते हैं, जैसे-दूध, घी, तेल आदि। सामने कसौटो आदि पर परीक्षा कर के जिसका लेन देन होता है, उसे परिच्छेद्य कहते हैं। जैसे मणि, मोती, मूंग, गहना प्रादि । वह मङ्गति गाथापति, इन राजा; ईश्वर आदि के द्वारा बहुत से कार्यों में कार्य को सिद्ध करने के उपायों में, कर्तव्य को निश्चित करने के गप्त विचारों में, बान्धवों में, लज्जा के कारण गुप्त रखे जाने वाले विषयों में, एकान्त में होने वाले कार्यों में, पूर्ण निश्चयों में, व्यवहार के लिये पूछे जाने योग्य कार्यों में, अथवा बान्धवों द्वारा किये गये लोकाचार से विरुद्ध कार्यों के प्रायश्चित्तों (दंडों) में, अर्थात् उल्लिखित सब मामलों में एक बार और बार-बार पूछा जाता था-इन सब बातों में राजा आदि समस्त बड़े-बड़े आदमी अङ्गति की सम्मति लेते थे। इन सब विशेषणों से सूत्रकार ने यह प्रकट किया है कि अंगति गाथापति को सभी लोग मानते थे, वह अत्यन्त विश्वासपात्र था विशाल बुद्धिशाली था और सबको उचित सम्मति देता था। धान, जौ, गेहूं आदि की दायं करने (आटा-दाने-निकालने) के लिये गढ़ा खोदकर एक लकड़ी या बांस का स्तम्भ गाडा जाता है। उसके चारों बोर एक पंक्ति में लांक (धान) को कुचलने के लिये बैल घूमते हैं उस स्तम्भ को मेधि-मेढी कहते हैं । बैल आदि उस समय उसी पर निर्भर रहते हैं। यदि वह स्तम्भ न हो तो कोई बैल कहीं चला जाय, कोई कहीं सब व्यवस्था भङ्ग हो जाय । गाथापति अङ्गति अपने कुटुम्ब की मेधि-मेढो के समान थे, अर्थात् कुटुम्ब उन्हीं के सहारे था । वही उसके व्यवस्थापक थे । मूल-पाठ में 'वि' (अपि) शब्द है, उसका तात्पर्य यह है Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरयावलिका ( १८६) (वर्ग-तृतीय . कि वे केवल कूटम्ब के हो आश्रय नहीं थे, अपितु समस्त लोगों के भी पाश्रय थे, जैसा कि ऊपर बताया जा चका है । आगे जहां-जहां 'वि' (मपि-भी) आया है वहां सर्वत्र यही तात्पर्य समझना चाहिए। अङ्गति गाथापति अपने कुटुम्ब के भी प्राण थे। अर्थात् जैसे प्रत्यक्ष अनुमान आदि प्रमाण संदेह आदि को दूर करके हेय (त्याग करने योग्य) पदार्थों से निवृत्ति और उपादेय (ग्रहण करने योग्य) पदार्थों को जानते हैं उसी प्रकार अङ्गति भी अपने कुटुम्बियों को बताते थे कि अमुक कार्य करने योग्य है, अमुक कार्य करने योग्य नहीं है, यह पदार्थ ग्राह्य है, यह आग्राह्य है। ___ तथा अङ्गति गाथापति अपने कुटम्ब के भी आधार (प्राश्रय) थे, तथा आलम्बन थे, अर्थात् विपत्ति में पड़ने वाले मनुष्य को रस्सी या स्तम्भ के समान सहारे थे। अङ्गति अपने कुटुम्ब के चक्षु थे, अर्थात् जैसे चक्षु मार्ग को प्रकाशित करता है वैसे ही अङ्गित कुटुम्बयों के भी समस्त अर्थों के प्रदर्शक (सन्मार्गदर्शक। थे! दूसरी बार मेधिभूत आदि विशेषण स्पष्ट बोध के लिये हैं। “जाव” शब्द से प्रमाणभूत, अाधारभूत, आलम्बनभूत, चक्षुभूत, इनका संग्रह होता है। यहां स्पष्टता के लिये 'भूत' शब्द अधिक दिया है, इसका तात्पर्य यह है कि अङ्गति गाथापति मेढी अर्थात् मेढो के सदृश थे, प्रमाण अर्थात् प्रमाण के सदृश थे, आधार अर्थात् आधार के सदृश आलम्बन के सदृश थे, चक्षु अर्थात् चक्षु के सदृश थे ; अङ्गति समस्त कार्यों के सम्पादन करनेवाले भी थे ।।१।। मूल-तेणं कालेणं तेणं समएणं पासेणं अरहा पुरिसा-दाणीए आदिगरे जहा महावीरो, नवुस्सेहे सोलसेहि समणसाहस्सोहिं, अद्रुतीसा जाव कोट्ठए समीसढे, परिसा निग्गया ! । ___तए णं से अंगइ गाहावई इमोसे कहाए लद्धठे समाणे हठे जहा कत्तिओ सेट्ठी तहा निग्गच्छइ जाव पज्जवासइ, धम्म सोच्चा निसम्म० जं नवरं देवाणुप्पिया ! जेट्टपुत्ते कुटुंबे ठावेमि, तए णं अहं देवाणुप्पियाणं जाव पव्वयामि, जहा गंगदत्तो तहा पव्वइए जाव गुत्तबंभयारी। तए णं से अंगई अणगारे पासस्स अरहो तहारूवाणं थेराणं अंतिए सामाइय-माइयाई एक्कारस अंगाई अहिज्जइ, अहिज्जित्ता बहूहि च उत्थ जाव भावेमाणे बहूई वासाइं सामन्नपरियागं पाउणइ, पाउणित्ता अद्ध मासियाए संलेहणए तीसं भत्ताई अणसणाए छेदित्ता विराहिय Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वग - तृतीय ] ( ११० ) सामने काम से कालं किच्चा चंदवडसए विमाणे उववायसभाए देवसय णिज्जंसि देवदूतरिए चंदे जोईसिंदत्ताए उववन्ने । [ कल्पावर्तसिका तए णं से चंदे जोइसिंदे जोइसराया अहुणोववन्ने समाणे पंच विहाए पज्जत्तीए पज्जत्तिभावं गच्छइ, तं जहा - आहारपज्जत्तीए सरीरपज्जत्तीए इंदियपज्जत्तीए सासोसासपज्जत्तीए भासा मणपज्जत्तीए । चंदस्स णं भंते! जोइसिइस्स जोइसरन्नो केवइयं कालं ठिई पत्ता ? गोयमा ! पलिओवमं वास सय सहस्समम्भहियं । एवं खलु गोयमा चंदस्स जाव जोइसरन्नो सा दिव्वा देविड्ढी ० । चंदणं भंते! जोइसिदे जोइसराया ताओ देवलोगाओ आउक्खएणं ३ चइत्ता कहिं गच्छिहि गच्छत्ता ? गोयमा ! महाविदेहे वासे सिज्जिहिइ ५ एवं खलु जम्बू ! समणं० निक्खेवओ ॥ ३ ॥ ॥ पढमं अज्झयणं समत्तं ॥ १ ॥ छाया - तस्मिन् काले तस्मिन् समये पार्श्वः खलु अर्हन् पुरुषादानीय आदिकरो यथा महावीरः, नवहस्तोच्छ्राय षोडशभिः श्रमसाहस्रीभिः अष्टाविंशद् यावत् कोष्ठके समवसृतः परिषत् निर्गता । ततः खलु सः अङ्गतिर्गाथापतिः अस्याः कथाया लब्धार्थः सन् हृष्टो यथा कार्तिकश्रेष्ठी तथा निर्गच्छति यावत् पर्युपास्ते धर्मं श्रुत्वा निशम्य यत् नवरं देवानुप्रिय ! ज्येष्ठपुत्रं कुटुम्बे स्थापयामि, ततः खलु अहं देवानुप्रियाणां यावत् प्रव्रजामि गङ्गदत्तस्तथा प्रव्रजितो यावद् गुप्त ब्रह्मचारी । ततः खलु स अङ्गतिः अनगारः पार्श्वस्य अर्हतः तथारूपाणां स्थविराणाम् अन्तिके सामायिका दीनि एकादशाङ्गानि अधीते, अधीत्य बहुभिश्चतुर्थ० यावद् भावयन् बहूनि वर्षाणि श्रामण्यपर्यायं पालयति पालयित्वा मासिक्या संलेखनया विशद् भक्तानि अनशनया छित्वा विराधितश्रामण्यः कालमासे कालं कृत्वा चन्द्रावतंस के विमाने उपपातसभायां देवशयनीये देवदूष्यान्तरिते चन्द्रो ज्योतिरिन्द्रतया उपपन्नः । ततः खलु स चन्द्रो ज्योतिरिन्द्रो ज्योतिराजः अधुनोपपन्नः सन् पंचविधया पर्याप्त्या पर्याप्तभावं गच्छति, तद्यथा - आहारपर्याप्त्या शरीरपर्याप्त्या इन्द्रियपर्याप्त्या श्वासोच्छ्वासपर्याप्त्या भाषामनः पर्याप्त्या । Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ वर्ग-तृतीय चन्द्रस्य खलु भवन्त ! ज्योतिरिन्द्रस्य ज्योतिराजस्व कियत्कालं स्थितिः प्रज्ञप्ता ? गौतम ! पत्योपमं वर्षशतसहस्राभ्यधिकम् । एवं खलु गौतम ! चन्द्रस्य यावत् ज्योतिराजस्य सा दिव्या देवऋद्धि ० । चन्द्रः खलु भदन्त ! ज्योतिरिन्द्रो ज्योतीराजस्तस्माद्देवलोकादायुःक्षयेण ३ च्युत्वा कुत्र गमिष्यति २ ? गौतम ! महाविदेहे वर्षे सेत्स्यति५ । एवं खल जम्ब ! श्रमणन निक्षेपकः ||३|| ॥ इति प्रथमाध्ययनम् ॥ निरयावलिका । ( १६१ ) पदार्थान्वयः - तेणं कालेणं तेणं समएणं- -उस काल उस समय, पामेणं अरहा - पार्श्व अर्हन्, पुरितादाणीए आदिक - पुरुषों में प्रादरणीय, अपने समय में चारों तीर्थ के संस्थापक, जहा महावीरो - जैसे भगवान महावीर हैं, नवस्सेहे - -नव हाथ शरीर की ऊंचाई वाले, सोलसेहि समणसाहसीहि-सोलह हजार श्रमण निर्गन्धों के अद्वतीस-बत्तीस हजार श्रमणी परिवार के साथ, जाब- यावत्, कोटूक समोसढे - कोष्ठक नामक उद्यान में समवसृत हुए, परिसा निगाया परिषद् दर्शनार्थ घरों से निकल कर आई । तर से अंगई गाहावई - तत्पश्चात् वह अंगती गाथापति, हमीसे कहाए लद्वटा० - इस कथा को सुन लेने पर, हट्ठे- हर्षित हुआ, जहा— जैसे, कतिओ सेट्ठी- जैसे कार्तिक सेठ दर्शनार्थं निकला था, तहा निगच्छइ - उसी प्रकार दर्शन करने निकला, जाव - यावत्, पज्जवासइ - उसने पर्युपासना की धम्मं सोच्चा निसम्म - धर्मकथा सुनकर, जं नबरं - जो इतना विशेष है, देवापिया - हे देवानुप्रिय जेट्ठपुत्ते कडुंबे ठावेमि- बड़े पुत्र को घर का भार सौंप कर तणं अहं तत्पश्चात् मैं. देवाणुप्पियाणं जाव पव्वयामि – देवानुप्रिय के पास यावत् प्रव्रजित होता हूं, जहां गंगदत्तो - जैसे गंगदत्त दीक्षित हुआ था, तहा पव्वइए - ऐसे ही प्रव्रजित हुआ, जाव गुत्तबभयारी - यावत् गुप्त ब्रह्मचारी हुआ । तए णं से अंगइ अणगारे - तत्पश्चात् वह अंगती अनगार, पासस्स अरहमो- पार्श्वनाथ अर्हत के पास, तहारूवाणं - तथारूप थेराणं अंतिए - स्थविर भगवंतों के समीप, सामाइयमाया - सामायिक आदि, एक्कारस अंगाई अहिज्जह-- ग्यारह अङ्ग शास्त्रों का अध्ययन करता है, अहिज्जित्ता - अध्ययन करके, बहूह चउत्थ- बहुत प्रकार के चतुर्थ भक्त (व्रत), जाव - यावत्, भावेमाणे- बहूइं वासाई -बहुत वर्षों तक भावित, सामण्णपरियाग पाउणइ - श्रामण्य पर्याय का पालन करता है, पाउणित्ता - पालन करके, अद्धमासियाए संलेहणाए - अर्ध मासिक संलेखना के द्वारा, तीस भत्ताई - तीस भक्त, अणसणाए छेदित्ता - अनशन के छेदन करके, विराहियसामण्णेश्रामण्य पर्याय का विराधक होकर, कालमासे कालं किच्चा - काल मास में काल करके, चंदवडसए विमा - चन्द्रावतंसक विमान में, उववाय सभाए - उपपात सभा में देवसय णिज्जंसि - देव सैय्या के उपर, देवदूतरिए - देवदूष्य नामक वस्त्र के मध्य में चंदे जोइसिबत्ताए उवबन्ने – चन्द्र नामक ज्योतिष देवों के इन्द्र रूप में उत्पन्न हुआ । Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बर्ग-तृतीय ] ( १९२) [ निरयावलिका तए णं-तत्पश्चात्, से चंदे-वह चन्द्रमा, जोइसराया ज्योतिष देवों का राजा, अहुणोववन्ने समाणे-बर्तमान में ही उत्पन हुआ, पंच विहारे-पांच प्रकार की, पज्जत्तीए-पर्याप्तियों की, पंज्जत्तिभाव गच्छइ-पांच प्रकार की पर्याप्ति भाव को प्राप्त हुप्रा तं तहा-जैसे कि, आहार पज्जत्तीए-आहार पर्याप्ति, सरीर पज्जत्तीए-करीर पर्याप्ति, इंदिय पज्जत्तीए-इन्द्रिय पर्याप्ति, सासोसासपज्जत्तीए-श्वासोश्वास पर्याप्ति, भासा मणपज्जत्तीए - भाषा मन पर्याप्ति इन से. पर्याप्त हुआ। ___चंदस्स गंभंते-भगवन ! चन्द्र की, जोइसिदस्स ज्योतिषइन्द्र की, जोइसरन्नो-ज्योतिराज, केवइयं कालं ठिई पन्नता-कितने काल की स्थिति कही गई है, गोयमा-हे गौतम !, पलिओवमं वाससयसहस्स-मन्भहियं-एक लाख वर्ष अधिक एक पल्योपम को, एवं खलु गोयमा- इस प्रकार निश्चय ही हे गौतम, चंदस्स-चन्द्रमा, जाव-यावत्, जोइसरन्नो ज्योतिष राज ने, सा दिव्या देविडो०-यह दिव्य देवऋद्धि प्राप्त की है, चदेणं भंते-हे भगवन् चन्द्र, जोइसिदे जोइसरायाज्योतिष इन्द्र, ज्योतिष राजा, ताओ देव लोगाओ आउक्खएणं-उस देवलोक की आयु क्षय करके, चइत्ता कहि गच्छिहिइ गच्छइत्ता-च्यवन होकर कहां जाएगा कहां उत्पन्न होगा और उत्पन्न होकर, गोयमा-हे गौतम, महाविदेहेवासे सिज्जिहिइ महाविदेह क्षेत्र से सिद्ध गति को जाएगा, एवं खलु जंबू-इस प्रकार हे जंबू निश्चय हो, समणेण० - श्रमण भगवान यावत् संप्राप्त ने पुष्पिका के प्रथम अध्ययन यह अर्थ प्रतिपादन किया है, निक्खेवओ-सम्पूर्ण हुमा, पढमं अज्झयणं समत्तंप्रथम अध्ययन समाप्त हुभा ॥३॥ मूलार्थ-उस काल उस समय में श्री पार्श्व अर्हत् पुरुषों में आदरणीय अपने समय के चारों तीर्थों के व्यवस्थापक थे, जैसे भगवान महावीर हैं (सर्व वर्णन उसी तरह है) इतना विशेष है कि उनका शरीर नव हाथ ऊंचा था। उनके सोलह हजार साधु और अट्ठत्तीस हजार साध्वियां का धर्म-परिवार था यावत् वह कोष्ठक उद्यान से समवसृत (हुए) पधारे, परिषद् दर्शनार्थ आई । धर्म उपदेश सुना । तत्पश्चात् वह अंगती गाथापति, इस कथा के लब्धार्थ होने पर अति प्रसन्न हुआ। जैसे कार्तिक सेठ का वर्णन है वैसे ही वह भी प्रभु के दर्शनार्थ आया । यावत् प!पासाणा की। धर्म उपदेश सुनकर उस पर विचार किया, विचार करने के पश्चात् साधु बनने की इच्छा व्यक्त करने लगा। इतना विशेष है । देवानुप्रिय ! बड़े पुत्र को कुटुम्ब का भार सम्भाला । तत्पश्चात् हे देवानुप्रिय ! (भगवान पार्श्वनाथ के) सान्निध्य में यावत् दीक्षा ग्रहण करूंगा और दीक्षा ग्रहण की जैसे गंगदत्त का वर्णन है उस प्रकार अंगती का भी समझ लेना चाहिए। Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ वर्ग - तृतीय तत्पश्चात् वह अंगती अनगार अरिहत भगवान श्री पार्श्वनाथ के तथारूप स्थविरों के पास, आचाराङ्ग आदि एकादश अङ्गों का अध्ययन करता है । अध्ययन करने के पश्चात् वह चतुर्थ भक्त करते हुए यावत् आत्मा को सयमादि से भावित करता है । बहुत वर्षों तक श्रामण्य पर्याय का पालन करता है, पालन करने के पश्चात् अर्ध मास की संलेखना के साथ तीस (३०) भक्तों का छेदन कर भ्रामण्य पर्याय का आराधक बनता है, फिर काल मास में यहां से काल करके चन्द्रावतंस विमान की उपपात सभा में देव शय्या पर देवदृष्य वस्त्र के मध्य में चन्द्र ज्योतिष्क इन्द्र रूप में उत्पन्न हुआ है। निरयावलका ] ( १९३ ) तत्पश्चात् वह चन्द्र ज्योतिष्क इन्द्र, ज्योतिष्क राजा तत्काल उत्पन्न होते ही पांच प्रकार की पर्याप्तियों को प्राप्त हुआ जैसे आहार-पर्याप्ति, शरीर-पर्याप्ति, इन्द्रिय-पर्याप्ति, श्वासोच्छ्वास पर्याप्ति, भाषा तथा मन पर्याप्ति । अब गणधर गौतम ने चन्द्र देव का भविष्य पूछने की दृष्टि से कहा - हे भगवन् ! ज्योतिष्क इन्द्र ! ज्योतिष देवों का राजा चन्द्र देव की कितनी स्थिति वर्णन की गई है ? हे गौतम! लाख वर्ष अधिक पल्योपम की । इस प्रकार निश्चय ही हे गौतम ! ज्योतिक राजा यावत् चन्द्रदेव की यह देव ऋद्धि है । गणधर गौतम ने पुनः प्रश्न किया- हे भगवन् चन्द्र ज्योतिष्क राजा ज्योतिष देवों का इन्द्र, इस देवलोक की आयु सम्पूर्ण करके कहां उत्पन्न होगा ? भगवान महावीर ने उत्तर दिया- " हे गौतम ! यह भी महाविदेह क्षेत्र से सिद्ध गति प्राप्ति करेगा ।" गणधर सुधर्मा अपने प्रिय शिष्य आर्य जंबू से कहते हैं - 'हे जंबू ! श्रमण भगवान यावत् मोक्ष संप्राप्त ने पुष्पिका नामक सूत्र के प्रथम अध्ययन का यह अर्थ प्रतिपादन किया है। प्रथम अध्ययन समाप्त हुआ ||३|| Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ग - तृतीय ] ( १६४ ) [ निरयावलिका hol में टीका - प्रस्तुत सूत्र श्रमण भगवान् महावीर ने प्रथम अध्ययन का वर्णन करते हुए बताया है कि जब चन्द्र देव अपनी नाट्य-विधि दिखाकर अपनी ऋद्धियां प्रदर्शित कर जाने की तैयारी करने लगा तो उसने समस्त ऋद्धियां अपने शरीर में समेट लीं। भगवान महावीर ने गणधर गौतम को चन्द्रदेव की इस अपूर्व ऋद्धि का कारण बताया कि किसी समय श्रावस्ती नगरी का अंगती गाथा - पति पुरुषादानीय तीर्थंकर श्री पार्श्वनाथ का शिष्य बन गया। साधु बनकर उसने स्थविरों से एकादश अङ्गों का अध्ययन किया । बहुत लम्बे समय तक तप किया । अर्धमास की संलेखना कर संयम का विराधक बना। मर कर यही चन्द्र देव बना है । पुरिसादाणीए का अर्थ पुरुषों में आदरणीय है । जैसे कि वृत्तिकार का कथन है - पुरुषरादीयते पुरुषादानीयः मबुस्सेहे इसका अर्थ वृत्तिकार ने नवहस्तोच्छ्रायः नवहस्तोच्च किया है। गंगदत्त के बारे में वृत्तिकार का कथन है यथा गङ्गदत्तो भगवत्यङ्गोक्तः, स हि किपाक फलोवमं मुणिय विसपकरवं जसवण्णुयमाणं, कुसग्गबिंदु चंचल जीवियं च नाऊण नधवं, चइता हिरण्ण-विपुल धणकणग रयणमणि- मोतियसंख सिलप्प वालरतरयणमाइयं विच्छउइत्ता दाणं दाइयाणं परिचाइत्ता, आगाराओ अणगारयं पव्बइओ जहा तहा अंगई वि गिनायगो परिच्चइय सव्व पब्बइओ जाओ य पंच समिओ, तिगुत्तो, अममो अचिणो गुत्तिदित्रो गुत्तबंभयारी इत्येवं यावच्छन्दात् दृष्करम् । विराहिषं । इसका भावार्थ यह है कि मूल गुणों की विराधना न करता हुआ, उत्तर गुणों की विराधना करने से आहारादि की शुद्धि न की गई तथा अभिग्रह आदि का सम्यक् प्रकार से पालन न किया गया। इन बातों से सिद्ध होता है कि मूल गुणों का सर्वाधिक महत्त्व है। उत्तर गुणों को विराधना से ही चन्द्र देव की उत्पत्ति हुई । पर्याप्तियां पूर्ण होने पर सब क्रियाएं सूर्याभिदेव की तरह समझनी चाहिये। यह भाषा और मन को पर्याप्ति का एक मानकर पांच पर्याप्तियां बताई हैं। देवताओं को सूत्रकार ने इस प्रकार षट की जगह पांच पर्याप्तियां बताई हैं । चन्द्र देव ज्योतिष्क देवों का इन्द्र है इसका विस्तृत वर्णन चन्द्र-प्रज्ञप्ति व व्याख्या प्रज्ञप्ति में देखना चाहिये । उपसंहार में चन्द्र देव की आयु लाख वर्ष अधिक एक पल्योपम बताई गई है । भविष्य में वह महाविदेह के धनाढ्य कुल में जन्म लेकर साधु बनेगा । फिर निर्वाण प्राप्त करेगा । मूल - जइणं भते ! समणेणं भगवया जाव पुफियाणं पढमस्स अायणस्स अयमट्ठे पन्नत्ते वोच्चस्स णं भंते! अज्झयणस्स पुफियाणं समणेषं भगवया जाव संपत्तेणं के अट्ठे पन्नत्ते ? एवं खलु जंबू ! तेणं काणं तेणं समएणं रायगिहे नामं नयरे, गुणसिलए चेइए, सेणिये राया समोसरणं जहा चंदो तहा सूरोऽवि आगओ जाव नट्टविहि उवदंसित्ता Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरयावलिका) (१६५ ) (वर्ग-तृतीय पडिगओ । पुत्वभवपुच्छा, सावत्थी नगरी, सुपइठे नाम गाहावई होत्था, अड्ढे, जहेव अंगती जाव विहरति, पासो समोसढे, जहा अंगती तहेव पव्वइए, तहेव विराहियसामन्ने जाव महाविदेहे वासे सिज्झिहिति जाव अंतं काहित्ति, एवं खलु जंबू ! समणेणं निक्खेवओ ॥२॥ ॥बीयं अज्झयणं समत्तं ॥२॥ छाया. यदि खल भदन्त ! धमणेन भगवता यावत् पुष्पितानां प्रथम्स्य अध्ययनस्य यावत् अयमर्थः प्रज्ञप्तः द्वितीयस्य खल भदन्त ! अध्ययनस्य पुष्पितानां श्रमणेन भगवत यावत् संप्राप्तेन कोऽर्थः प्रज्ञप्तः ? एवं खलु जम्बू ! तस्मिन् काले तस्मिन समये राजगृहं नाम नगरं, गणशिंलक चैत्यं, णिको रामा, समवसरणं यथा चन्द्रः तथा सूरोऽपि आगतो यावत् नाटयविधिमुपदर्य प्रतिगतः । पूर्वभवपृच्छा-श्रावस्ती नगरी सुप्रतिष्ठो नाम गाथापतिरभवत् आख्यः यर्थव अतिर्यावद् विहरति पावः समवसतः, यथा अङ्गतिस्तथैव प्रवजितः तथैव विराधितधामप्यो यावत् महाविदेहे वर्षे सेत्स्यति यावत् अन्तं करिष्यति, एवं खलु जम्बू ! श्रमणेन निक्षेपकः ।।२।। पदार्थान्वयः-जइणं भते-यदि हे भगवन् !, समणेणं भगवया जाव-श्रमण भगवान यावत् मोक्ष संप्राप्त ने, पल्फियाण पढमस्स अज्झयणस्स-पुष्पिका सूत्र के प्रथम अध्ययन का जाव अयम? पन्नत्ते-यह अर्थ प्रतिपादन किया है, दोच्चस्स णं भते अज्झयणस्स पुष्फयाणंदूसरे पुष्पिका अध्ययन का, “समणेण भगवया जाव संपत्तेण-श्रमण भगवान यावत् संप्राप्त ने, के अटै पन्नत्ते -क्या अर्थ प्रतिपादन किया है, एवं खलु जंबू-इस प्रकार निश्चय ही हे जंबू !, तेग कालेणं तेणं समएणं-उस काल उस समय में, रायगिहे नामं नयरे-राजगृही नामक नगर था, गणसिलए चेइए-गुणशील चैत्य 'था, सेणिये राया-श्रेणिक राजा था, समोसरणं-भगवान महावीर का समवसरण हुआ अर्थात् धर्म उपदेश हुआ, जहा चंदो-जैसे चन्द्र देव, तहा-वैसे ही, सूरोऽव आगओ-सूर्य देव भी दर्शनार्थ आया, गव नट्टविहि उवदं सत्ता-उसी प्रकार नाट्य-विधि दिखा कर, पडिगओ-लौट गया, पुटवभव पुच्छा - गणधर गौतम ने सूर्य का पूर्व भव पूछा, सावत्थी नयरी-(भगवान महावीर ने उत्तर दिया) श्रावस्ती नगरी थी, एपइ8 नाम गाहावई होत्या-वहां सुप्रतिष्ठ नाम का गाथापति रहता था, अड्ढे-- ऋद्धिवान था, जहेव अंगती-जैसे, अंगती था, जाव विहरति-वैसे यावत्, विमहरता था, पासो समोसढे-भगवान पार्श्वनाथ धर्म परिवार से घिरे पधारे, जहा अंगतो तहेव पव्व इए-जैसे अङ्गती प्र ब्रजित हुआ था वैसे ही वह भी मुनि बना, तहेव विराहियसामन्ने- उसी प्रसी प्रकार श्रामण्य भाव का विराधक हुआ, जावयावत्, महाविदेहे वासे-- महाविदेह में उत्पन्न होगा, सिमिहिति-सिद्ध होगा, जाव अंतं Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ग-तृतीय] ( १८६) [ निरयावलिका काहित्ति-सब दुःखों का अन्त करेगा, एवं खन जंबू- इस प्रकार निश्चय ही हे जंबू, समणेणश्रमण भगवान ने द्वितीय अध्ययन का अर्थ बताया है. निक्खेवओ-द्वितीय अध्ययन समाप्त हुआ।२।। मूलार्थ-आर्य जंबू प्रश्न करते हैं-हे भगवन् ! यदि श्रमण भगवान् यावत् मोक्ष संप्राप्त ने पुष्पिका के पहले अध्ययन का यह अर्थ कहा है, तो हे भगवन् ! पुष्पिका के दूसरे अध्ययन का श्रमण भगवन् यावत् मोक्ष को संप्राप्त ने क्या अर्थ कहा है ? आर्यसुधर्मा स्वामी ने उत्तर दिया-हे जंबू ! उस काल उस समय में राजगृही नामक नगरी थी, गुणशील चैत्य था, श्रेणिक नामक राजा था। वहां भगवान् ग्रामानुग्राम विहार करते हुए पधारे। समवसरण लगा अर्थात् धर्म-उपदेश हुआ । जैसे चन्द्रदेव दर्शन करने आया था, वैसे ही सूर्य देव भी दर्शन करने आया। उसी तरह नाट्य-विधि दिखाकर चला गया । गणधर गौतम ने सूर्य का पूर्वभव पूछा उस काल, उस समय में श्रावस्ती नामक नगरी थी, वहां सुप्रतिष्ठ नामक गाथापति रहता था, जो ऋद्धिमान था, जैसे अंगती का वर्णन किया जा चुका है 'विचरता था। वहां ग्रामानुग्राम धर्म-प्रचार करते हुए भगवान पार्श्वनाथ धर्म-परिवार से घिरे हुए पधारे, जैसे अंगती मुनि बना था बैसे वह भी मुनि बना। वह सुप्रतिष्ठ मुनि भी महाविदेह क्षेत्र में जन्म लेगा, सिद्ध होगा यावत् सब दुखिों का अंत करेगा। इस प्रकार हे जंबू ! निश्चय ही मोक्ष को संप्राप्त भ्रमण भगवान महावीर ने द्वितीय अध्ययन का अर्थ बताया है, यह द्वितीय अध्ययन समाप्त हुआ॥२॥ टीका-प्रस्तुत सूत्र के दूसरे अध्ययन में अङ्गति-सूर्यदेव के सपरिवार भगवान महावीर के दर्शन की घटना का संक्षिप्त विवरण है। साथ में सूर्यदेव के पूर्वभव का उल्लेख करते हुए, श्रमण भगवान महावोर कहते हैं यह सूर्य देव अपना देव-आयुष्य पूण करके सिद्ध-बुद्ध मुक्त होगा । सब दुखों का अंत करेगा। सूर्यदेव के बारे में पौर विवरण प्रज्ञापना सूत्र से जानना चाहिए। वहां स्पष्ट किया गया है कि पिछले जन्म में श्रावस्तो नगरी में सुप्रतिष्ठ ही संयम ग्रहण करके भगवान पार्श्वनाप के सानिध्य में मुनि बना। संयम पालन करने से यह ज्योतिष्क देवों में सूर्यों का इन्द्र यावत् ऋद्धि का स्वामी बना ॥२॥ Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरयावलिका ) | वग-तृतीय 1 मूल्-- जइणं भंते! समणेणं भगवया जाव संपत्तेणं उक्खेवओ मणियम्वो, रायगिहे नयरे, गुणसिलए चेइए, सेणिए राया, सामी समोसढे, परिसा निग्गया । तेणं कालेणं तेणं समएणं सुक्के महग्गहे सक्कaser विमाणे सुक्कंसि सोहासणंसि चउहि सामाणियसाहसहि जहेव चंदो तहेव आगओ, नट्ट - विहि उवदंसित्ता पडिगओ । भंते त्ति कूडागारसाला । पुव्वभवपुच्छा । ( १६७ ) एवं खलु गोयमा ! तेणं कालेणं तेणं समएणं वाणारसी नामं नयरी होत्था । तत्थ णं वाणारसीए नयरीए सोमिले नामं माहणे परिवसइ, अड्ढे जाव अपरिभूए रिउव्वेय- जाव सुपरिनिट्ठिए । पासे समोसढे । परिसा पज्जुवासइ ||३॥ छाया - यदि खल भदन्त ! श्रमणेन भगवता यावत् सम्प्राप्तेन उत्क्षेपको भणितव्यः । राजगृहं नगरम् । गुणशिलकं चैत्यम् । श्रेणिको राजा । स्वामी समवसृतः । परिषत् मिगंता । तस्मिन् काले तस्मिन् समये शुक्रो महाग्रहः । शुक्रावतंसके विमाने शुक्र े सिंहासने चतसृभि सामानिक साहस्रीभि: यथैव चन्द्रस्तथैवागतः, नाट्यविधिमुपदर्श्य प्रतिगतः । भदन्त ! इति कृटाकारशाला । पूर्वभव पृच्छा । एवं खलु गौतम ! तस्मिन् काले तस्मिन् समये वाराणसी नाम नगरी अभवत् । तत्र खलु वाराणस्यां नगर्यां सोमिलो नाम ब्राह्मणः परिवर्सात, आढ्यो यावत् अपरिभूत, ऋग्वेद० यावत् सुप्रतिष्ठितः । पार्श्वः समवसृतः । परिषत् पर्युपास्ते ॥ ३ ॥ पदार्थान्वयः - जइणं भंते - यदि है भगवन् समणेण भगवय नाव - श्रमण भगवान महावीर यावत् संपत्ते - संप्राप्त ने, उक्लेवओ भाणियव्वो- उत्क्षेप कहना चाहिए, रायगिहे नयरेराजगृह नगर था, गुणसिलए जेइए-गुणशील चैत्य था, सेणिए राया- श्रेणिक राजा था, सामी समोसढे - स्वामी संमवसृत हुए, परिसा गया - परिषद् दर्शनार्थ श्राई, तेणं कालेणं, तेणं समयणं - उस काल उस समय में, सुबकें शुक्र, महर हे महाग्रह, सुक्यडस विमाणे - शुकावतंसक विमान में, सुक्कंसि सोहासणंसि शुक्र सिंहासन पर, च ह सामाणियसाहस्सिहिचार हजार सामानिक देवों के साथ, जहेब चंदो तहेव आगओ - जैसे चन्द्र देव आया था वैसे आया, नट्टविहि उवदं सित्ता पडिगओ - नाट्य विधि दिखाकर वापिस लौट गया, भंते ति - हे भगवन् शुक्र देव की ऋद्धि कहां प्रविष्ट हो गई, भगवान ने उत्तर दिया, कूडागारताला - कूटागार शाला का दृष्टांत जानना चाहिए, पुव्वभवपुच्छा - हे भगवन् शुक्र महाग्रह का जीव पूर्व भव Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वग - तृतीय ] कौन था, भगवान ने उत्तर दिया । एवं खलु गोयमा - इस प्रकार निश्चय ही हे गौतम, तेणं कालेणं तेणं समयणं - उस काल होत्था - वाराणसो नामक नगरी थी, तत्थ णं-उस, सोमिले नाम माहणे परिवसइ - सोमिल नामक ब्राह्मण ( १६८ ) उस समय में, वाणारसी नाम नयरो वाणारसीए नयरीए - वाराणसी नगरी में, रहता था, अडे - ऋद्धियुक्त, जाब-- यावत् ऋग्वेद आदि में सुप्रतिष्ठत था, पाले पज्जवासइ - परिषद सेवा करने आई । [ कल्पायतं सिका 1 अपरिभूए- अपरिभूत था, रिउव्वेय सुपरिनिट्ठिएसमोसढे - भगवान पार्श्वनाथं समवसृत हुए, परिसा मूलार्थ -ग - गणधर सुधर्मा स्वामी ने उत्तर दिया " हे जंबू ! मोक्ष को संप्राप्त श्रमण · भगवान महावीर ने इस प्रकार कहा है. उस काल उस समय एक राजगृह नगर था, गुणशील चैत्य था, श्रेणिक राजा था, वहां श्रमण भगवान महावीर पधारे, समवसरण में धर्म-उपदेश हुआ । परिषद् दर्शनार्थ आई । उस काल उस समय शुक्र नामक महाग्रह शुक्रावतंसक विमान के शुक्र सिंहासन पर चार हजार सामानिक देवों से घिरा भगवान के दर्शन करने आया यावत् जैसे चन्द्रदेव अया था । नाट्य-विधि दिखाकर वह भी चला गया । हे भगवन् ! शुक्र देव की ऋद्धि कहां चली गई ? उत्तर में भगवान कहते हैं कि इसके लिये यावत् कूटागारशाला का दृष्टान्त जानना चाहिए । शुक्र का पूर्व भव क्या था किस कारण से उसे ऐसी ऋद्धि प्राप्त हुई ? इस प्रश्न के उत्तर में भगवान महावीर ने कहा हे गौतम! उस काल उस समय में वाराणसी नामक नगरी थी । उस वारासी नगरी में सोमिल नामक ब्राह्मण रहता था। जो ऋद्धिवान व संपन्न था। वह ऋग्वेद आदि (चार वेदों, उपनिषद् इतिहास एवं व्याकरण आदि का ज्ञाता था । वहां भगवान श्री पार्श्वनाथ समवसृत हुए । परिषद् सेवा करने लगी । टीका - प्रस्तुत सूत्र में सूर्य व चन्द्रमा के पश्चात् शुक्र महाग्रह के भगवान महावीर के दर्शनार्थ आने का वर्णन है। शुक्र भी अपनी समस्त देवऋद्धि सहित अपने श्रद्धा-सुमन समर्पित करता है + गणधर गौतम शुक्र का पूर्वभव पूछते हैं उसी के उत्तर में करुणा सागर प्रभु महावीर बताते है कि शुक्र पूर्व भव में वाराणसी का सोमिल ब्राह्मण था वह वेद, उपनिषद्, इतिहास, निघंटु, Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निश्यावलिका (१६६) [वर्ग- तृतीय व्याकरण आदि विषयों का प्रकाण्ड पंडित था। वह सम्पन्न था उसकी प्रतिष्ठा सारे नगर में थी। इस विषय में वृत्तिकार कहते हैं । 'रिउव्वेय जाव' इति ऋग्वेद-यजुर्वेद सामवेदाथवर्णवेदानां इतिहास-पञ्चमानाम् इतिहास पुराण निघण्टषष्ठकानां निर्घटु नाम कोशः साङ्गोपाङ्गनामानि अङ्गानि-शिक्षा दीनि उपाङ्गानि तदक्तप्रपञ्चनपराः प्रबन्धाः सरहस्यानां-एतष्वर्थयुक्तानां धारकः-प्रवर्तकः वारक:- अशुद्ध पाठ निष पक पारगः, पारगामि षडङ्गवित् षष्टितन्त्र विशारदः शष्टि तन्त्रः कापिलीय शास्त्रं षडङ्गवेदक स्तमेव व्यनक्ति, सड्ढयाने गणितस्कन्ध शिक्षा कल्पे, शिक्षाया अक्षर स्वरूप निरूपके शास्त्रंकल्पेतथा विध समाचार प्रतिपादके व्याकरणे-शब्द लक्षणो छान्दस गद्य-पद्य वचन लक्षण निरूपक प्रतिपादके ज्योतिषाख्ये ज्योतिः शास्त्रे अन्येषु च ब्राह्मणकेषु शास्त्रेष सुपरितिष्ठित: सोमिल नाम ब्राह्मण । उपरोक्त विषय का इतना तात्पर्य है कि सोमिल ब्राह्मण वैदिक साहित्य का प्रकाण्ड पंडित था। प्राकृत व्याकरण के वाणारसी का संस्कृत में वाराणसी रूप बन जाता है। प्राकृत व्याकरण में 'र' और ण का व्यत्यय किया गया है। करेणुवाराणस्यो रणो व्यत्ययः । सिद्धोऽयार।।८।८।११६ अनयो रेफणकारयोर्व्यत्ययः स्थिति परिवत्तिर्भवति । कणेरू । वाणारसी। उत्थानिका-अगले सूत्र में सोमिल ब्राह्मण का भगवान आर्यनाथ के पास जाने का वर्णन किया गया है। मूल-तएणं तस्स सोमिलस्स माहणस्स इमोसे कहाए लद्धहस्स समाणस्स इमे एयारूवे अज्झथिए० जाव समुप्पज्जित्था-एवं खलु पासे अरहा पुरिसादाणीए पुवाणुपुविव जाव अंबसातवणे विहरइ, तं गच्छामि 'णं पासस्स अरहओ अंतिए पाउन्भवामि । इमाइं च णं एयारूवाई हेऊइं जहा पण्णत्तीए । सोमिलो निग्गओ खंडियविहणो जाव एवं वयासी ॥४॥ . छाया-ततः खलु तस्य सोमिलस्य ब्राह्मणस्य अस्याः कथायाः लब्धार्थस्य सतः अयमेतद्र पः आध्यात्मिकः ४, यावत् समुदपद्यत-एवं खलु पार्श्व अर्हन् पुरुषावानोयः पूर्वाना यावत् आम्रशालवने विहरति, तद् गच्छामि खलु पार्श्वस्य अहंतोऽन्तिके प्रादुर्भवामि, इमान् च खलु एतद्र पान् अन्ि हेतन् यथा प्रज्ञप्त्याम् । सोमिलो निर्गतः खण्डिकविहीमो यावत् एक्मवादीत् ॥४॥ पदान्वियः-तएणं-तत्पश्चात्, तस्स सोमिलस्स माहणस्स-उस सोमिल ब्राह्मण के, इमीसे कहाए-इस कथा (समाचार) के, लद्धस्स समाणस्स-लब्धार्थ होने पर, इमे एयाख्वे-इस प्रकार के, अज्झथिए -माध्यात्मिक विचार उत्पन्न हुए, एवं खलु पासे अरहा-इस प्रकार पार्श्वनाथ अहंत, पुरिसादाणोए-पुरुषों में प्रधान, पुब्वाणुपुग्वि घरमाणे-अनुक्रम से विहार करते हुए, Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ग - तृतीय ] । निरयावलिका जाव -- यावत्, अंबसालवणे - आम्रशाल वन में, विहरइ - विचरते हैं, तं गच्छामि णं - इसलिए मैं जाता हूं, पासस्स अरहओ - पार्श्वनाथ प्रर्हत के, अन्तिए - समीप, पाउन्भवामि - उपस्थित होता हूं, च-फिर णं - वाक्यालंकार, इमाई एयारूव इं- इस प्रकार के, अट्ठाई - अर्थों को ऊहूं-हेतुओं को, जहा पण्णत्तीए - जैसे व्याख्या प्रज्ञप्ति में वर्णन किया गया है, सोमिलो निग्गओ - सोमिल ब्राह्मण भगवान पार्श्वनाथ के समीप गया खण्डिय विहृणो- छात्रों से रहित गया, जाव - यावत् एवं वयासी- इस प्रकार कहने लगा ||४|| ( २०० ) मूलार्थ - तत्पश्चात् वह सोमिल ब्राह्मण के इस कथा (समाचार) को सुनकर यह भाव उत्पन्न हुए । इस प्रकार पार्श्वनाथ अर्हत् पुरुषादानीय अनुक्रम से विहार करते हुए आम्रशाल उद्यान में विचर रहे हैं। मैं पार्श्व अर्हत् के समीप जाता हूं। इस प्रकार अर्थ और हेतुओं को पूछूंगा । जिस प्रकार व्याख्या - प्रज्ञप्ति में वर्णन किया गया है उसी प्रकार यहां भी जानना चाहिए। वह ( सोमिल) छात्रों से रहित भगवान के समीप आया और इस प्रकार प्रश्न करने लगा । टीका - प्रस्तुत सूत्र में सोमिल ब्राह्मण के भगवान पार्श्वनाथ के समीप छात्रों से रहित पहुंचने का वर्णन है। भगवान पार्श्व आम्रशाल उद्यान में पारेघ हैं । जब सोमिल ने यह समाचार सुना तो उसके मन में विचार उत्पन्न हुआ कि मैं क्यों न प्रभु पाइव से प्रश्न पूछूं । सोमिल ब्राह्मण के प्रश्नों का वर्णन भगवती सूत्र के अठाहरवें शतक के दसवें उद्देश्य में आया है । सोमिल ब्राह्मण चाहे अपने धर्म का प्रकाण्ड पंडित है पर वह एक जिज्ञासु भी है । क्योंकि जिज्ञासु ही इस प्रकार की प्रवृत्ति के स्वामी होते हैं। जनसाधारण ही वह सब प्रश्न एकान्त में शिष्यों के बिना पूछना चाहता है। ताकि उसकी किसी अज्ञानता का शिष्यों का पता न चल सके। यह प्रश्न बहुत ही महत्वपूर्ण है ||४|| * मूल - जत्ता ते भंते ! ? जवणिज्जं च ते ? पृच्छा, सरिसवया. मासा कुलत्था, एगे भवं, जाव संबुद्ध सावगधम्मं पडिवज्जिता पडिगए ॥ ५ ( | छाया - यात्रा ते भवन्त !? यापनीयं ते ? पृच्छा सदृशवयसः भाषा, कुलत्था एको भवान् यावत् संबुद्धः श्रावक धमं प्रतिपद्य प्रतिगतः । "दार्थान्वयः - जत्ता - यात्रा, ते - क्या, भन्ते - हे भगवन्, जवणिज्जं - यापनीया, चते क्या है, पुच्छा-पूछता है, सरिवसयसा - सामान अवस्था वाला और सरसों, काल उड़द प्रमाण, एगं भव- (एक भव) तबुद्धे - बोधिलाभ प्राप्त कर, सवग धम्मंधर्म का, पडिगए पालन करने लगा ||५|| मासा--- -श्रावक Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( वर्ग - तृतीय निरयावलिका ] मूलार्थ- (उस सोमिल ब्राह्मण ने प्रश्न किये) भगवन् ! आपकी यात्रा क्या है ? फिर (सोमिल) सरसों, माष कुलत्थ आदि भक्ष्य हैं या अभक्ष्य हैं, आदि के विषय में प्रश्न करता है । एक भव में वह संबुद्ध हो कर श्रावक धर्म का पालन करने लगा ||५|| ( २०१ ) टीका प्रस्तुत सूत्र में (श्री पार्श्वनाथ जी के समकालीन) सोमिल ब्राह्मण के प्रश्नों के नाम दिये गये हैं। साथ में भगवान पार्श्व नाथ का उपदेश सुनकर सोमिल के श्रावक धर्म ग्रहण करने का वर्णन है । - सोमिल ब्राह्मण (श्री महावीर कालीन ब्राह्मण) के प्रश्नों के उत्तर भगवती सूत्र के अठारहवें शतक के दसवें उद्देशक में इस प्रकार दिये गये हैं । हम यहां उनका सारांश देते हैं :प्रश्न- क्या आप यात्रा, यापनीय, अव्याबाध और प्रासुक विहार करते हैं ? आपकी यात्रा आदि क्या है ? उत्तर- सोमिल ! मैं तप-यम-संयम स्वाध्याय और ध्यान में रमण करता हूं यही मेरी यात्रा है । इन्द्रियानीय, नोइन्द्रिय-यापनीय- पांचों इन्द्रियां मेरे आधीन है और क्रोध, मान आदि कषाय मैंने विच्छिन्न कर दिए हैं, इसलिए वे उदय में नहीं आते। इसलिए में इन्द्रिय और नो इन्द्रिय यापनीय हूं । वात, पित्त, कफ, ये शरीय सम्बन्धी दोष मेरे उपशांत हैं, वे उदय में आते ही नहीं, इसलिए मुझे प्रव्यावाघ भी है । मैं आराम, उद्यान, देवकुल, सभास्थल प्रादि स्थलों पर जहां स्त्री, पशु व नपुंसक का अभाव हो ऐसे निर्दोष स्थान पर आज्ञा ग्रहण कर विहार करता हूं यह मेरा प्रासुक निर्दोष विहार है । प्रश्न - सरिसवया भक्ष्य है या अभक्ष्य ? उत्तर - हे सोमिल ! सरिसवया दो प्रकार का है सदृश-वय समवयस्क व्यक्ति तथा सरसों । सदृशवय तीन प्रकार का है एक साथ जन्मे हुए, एक साथ पालित पोषित हुए अथवा जो साथ - साथ क्रीड़ा करते हैं । ये तीनों श्रमण निर्ग्रन्थों के लिए प्रभक्ष्य हैं और धान्य सरिसव दो प्रकार का है शस्त्रपरिणत और अशस्त्रपरिणत । शस्त्रपरिणत भी दो प्रकार का है एषणीय और अनेष णी । अनेषणीय अभक्ष्य है । एषणीय भी याचित और अयाचित दो प्रकार का है याचित 1 • मक्ष्य है श्रोर अयाचित अभक्ष्य है । प्रश्न- मास भक्ष्य है या अभक्ष्य ? उत्तर - मास का अर्थ महीना और सोना चांदी मापने का परिणाम मासा भी है ये दोनों तो अभक्ष्य ही हैं माष अर्थात् उड़द जो शस्त्रपरिणत याचित हो वही श्रमणों के लिए भक्ष्य है । Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बर्ग-तृतीय] ( २०२) [निरयावलिका प्रश्न-कुलत्था भक्ष्य है या अभक्ष्य ? उत्तर-हे सोमिल ! कुलत्था शब्द के दो अर्ष हैं एक है कुलीन स्त्री, दूसरा है धान्य विशेष (कुलत्थ) । जो धान्य विशेष शस्त्र-परिणत और याचित है वही श्रमणों के लिये भक्ष्य है शेष अभक्ष्य है। प्रश्न-आप एक हैं या अनेक उत्तर-सोमिल में द्रव्य दृष्टि से एक हूं, ज्ञान-दर्शन रूप दो पर्यायों के प्राधान्य से दो भी हूं। सोमिल उपयोग एवं स्वभाव को दृष्टि से मैं अनेक हूं ! इस तरह सोमिल ने अव्यय, अवस्थित एवं तोन काल के परिणमन योग्य विषयों पर प्रश्न किये, जिनका समाधान भगवान ने अनेकांत दृष्टिकोण से दिया। इन प्रश्नों के उत्तरों से यह सोमिल अत्यधिक प्रभावित हुआ। . .. मूल-तएणं पासे अरहा अन्नया कयाई, वाणारसीओ नयरीयो अम्बसालवणाओ उज्जाणाओ पडिनिक्खमइ, पडिनिक्खमित्ता बहिया जेणवयविहारं विहरइ ॥६॥ छाया-तत : खलु पार्श्व अर्हन् अन्यदा कदाचिद् वाराणसीतः नगरीतः आम्रशालवनात् उद्यानात् प्रतिनिष्कमति प्रतिनिष्क्रम्य बाह्य जनपदविहारं विहरति । ६।। - पदार्थान्वयः-तएणं-तत्पश्चात्, पासे णं अरहा-तीर्थङ्कर श्री पार्श्वनाथ अन्नया कपाईअन्य किसी समय, वाणरसीओ नयरीनो अम्बसाल वणामो उज्जाणाओ-बाराणसी नगरी के आम्रशालवन उद्यान से, पडिनिक्खमइ पडिनिक्खमित्ता–बाहर आते हैं और भाकर, बहिया- बाह्य जनपदों में, जणवय-विहारं विहरह-विहार हेतु विचरण करते हैं ॥६॥ - मूलार्थ-तत्पश्चात् भगवान श्री पार्श्वनाथ फिर किसी समय वाराणसी नगरी के आम्रशालवन नामक उद्यान से बाहर आते हैं और फिर अन्य जनपदों में विहार करते हैं, अर्थात् धर्म - प्रचार करते हुए विभिन्न ग्रामों नगरों जनपदों में विचरण करते हैं ॥६॥ टोका-प्रस्तुत सूत्र में तीर्थङ्कर पुरुषादानीय भगवान श्रीपार्श्वनाथ के पुनः वाराणसी नगरी में पधारने का वर्णन है । वे आम्रशालवन उद्यान में ठहरते हैं। फिर ज्ञान, दर्शन चरित्र का उपदेश देकर मन्य जनपदों में घूमते हैं ॥६॥ Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरयावलिका। ( २०३ ) [वर्ग-तृतीय उत्थानिका-उसके बाद क्या हुआ, सूत्रकार अब इस विषय में कहते हैं : मूल-तएणं से सोमिले माहणे अण्णया कयाइं असाहुदंसणेण य अपज्जुवासण्याए य मिच्छत्तपज्जवेहिं परिवड्ढमाणेहिं परिवड्ढमाणेहि, सम्मत्तपज्जर्वेहि परिहायमाणेहि परिहायमाहि, विच्छत्तं च पडिवन्ने । तए णं तस्स सोमिलस्स माहणस्स अण्णया कयाइं पुत्वरत्तावरत्त. कालसमयंसि कुडुंबजागरियं जागरमाणस्स अयमेयारूवे अज्झथिए जाव समुप्पज्जित्था-एव खलु अहं वाणारसीए नयरीए सोमिले नाम माहणे अच्चतमाहणकुलप्पसूए । तएणं मए वयाई चिण्णाइं, वेया य अहीया, दारा आहूया, पुत्ता जणिया, इड्ढीओ समाणीयाओ, पसुवधा कया, जन्ना जेट्ठा, दक्षिणा दिन्ना, अतिहि पूजिया, अग्गी हूया, जूपा निक्खिता, तं सेयं खलु ममं इयाणि कल्लं जाव जलते वाणारसीए नयरीए बहिया बहवे अंबारामा रोवावित्तए, एवं माउलिंगा, बिल्ला. कविट्ठा, चिंचा, पुप्फारामा रोवा वित्तए । एवं संपेहेइ संपेहित्ता कल्लं जाव जलंते वाणारसीए नयरीए बहिया अंबाराम य जाव पुष्फाराम य रोवावेइ । तएणं बहवे अंबारामा य जाव पुप्फारामा य अणुपुत्वेणं सारक्खिज्जमाणा संगोविज्जमाणा संवढियमाणा आरामा जाया, किण्हा किण्होभासा जाव रम्मा महामेहनिकुरंबभूया पत्तिया पुफिया फलिया हरियगरेरिज्जमाणसिरीया अईव अईव उवसोभेमाणा उवसोभेमाणा चिठंति ॥७॥ छाया-ततः स सोमिलो ब्राह्मणः अन्यदा कदाचित् असाधुदर्शनेन च अपर्युपासनतया च मिथ्यात्वपर्यवेः परिवर्धमानः परिवर्धमानः, सम्यक्त्वपर्यवः परिहीयमानः परिहीयमानै मिथ्या व च प्रतिपन्न।। .. ततः खलु तस्य सोमिलस्य ब्राह्मणस्य अन्यदा कदाचित् पूर्वरात्रापरर वकालसमये कुष्टुम्बजागरिकां जाग्रतोऽयमेतद् प आध्यात्मिकः यावत् समृदपद्यत-एवं खलु वाराणस्यां नगर्यां सोमिलो नाम ब्राह्मणोऽत्यन्तवाह्मणकुलप्रसूतः । ततः खलु मया व्रतानि चीर्णानि, वेदाश्चाधीता; दारा आहूताः, Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ग-ततीय ( २०४ ) [निरयावलिका पुत्रा जनिताः, ऋद्धयः समानीताः, पशवधाः कृताः, यज्ञा इष्टाः, दक्षिणा दत्ता,अतिथयः पूजिता, अग्नयो हुताः, यपा निक्षिप्ताः, तच्छ् यः खलु ममेवानी कल्ये यावत् ज्वलंति वाराणस्या नगर्या बहिर्बहून् आम्रारामान् रोपयितुम्, एवं मातुलिङ्गान्, बिल्वान्, कपित्थान, चिञ्चाः, पुष्पारामान रोपयितुम् । एवं संप्रक्षते, संप्रक्ष कल्ये यावत् ज्वलति वाराणस्या नगर्या बहिः आम्रारामांश्च रोपयति । ततः सूल वहवः आम्रारामाश्च यावत् पुष्पारामाश्च अनपूर्वेण संरक्ष्यमाणाः, संगोप्यमानाः, संवद्यमानाः आरामाः जाताः कृष्णा कृष्णावभासा यावत् रम्याः महामेघनकुरम्बिभूताः पत्रिताः पुष्विता। फलिता हरितकराराज्यमानश्रीकाः अतीवातीब उपशोभ माना उपशावमानास्तिष्ठन्ति ।।७।। पदार्थान्वयः-तएणं-तत्पश्चात्, स सोमिले माहणे-वह सोमिल ब्राह्मण, अण्णया कयाई-अन्य किसी समय, असाहुदसणेण-असाधु दर्शनों के कारण, य अपज्जवासणयाए- पर्यपासना न करने पर, य-और, मिच्छत्तपमवेहि परिवड्ढमाहि-मिथ्यात्व पर्यायों के बढ़ने के कारण और सम्मत्तपज्जवेहि परिहायमाणेहि-सम्यक्त्व - पर्यायों के घटने के कारण, मिच्छत्तं च पडिवन्ने-बह मिथ्यात्व को प्राप्त हो गया। तएणं-तत्पश्चात्, तस्स सोमिलस्स माहणस्स-वह सोमिल ब्राह्मण, अण्णया कयाई-- अन्य किसी समय, पुव्वरत्तावरत्तकालसमयंसि-अर्ध रात्रि के समय कुडुम्बजागरियं जागरमाणस्सकटुम्ब की चिन्ता में जागरण करते हुए, अयमेयास्वे-इस प्रकार के, अज्मथिए जाव समुप्पज्जित्था अध्यात्म विचार उत्पन्न हुए यावत्, एवं खलु अहं- इस प्रकार निश्चय ही मैं, वाणारसीए नयरीए-वाराणसी नगरी में, सोमिले नाम माहणे- सोमिल नामक ब्राह्मण, अच्छतमाहणकुलप्पसूए-अत्यन्त उत्तम ब्राह्मण कुल में उत्पन्न हुआ हूं, तएणं-तत्पश्चात्, मए-मैंने, बयाई चिण्णाई-व्रत ग्रहण कर उनका आचरण किया, वेया य अहीया- मोर वेदों का अध्ययन किया, दारा आहूया-स्त्री से शादी की, पुत्ता जणिया-पुत्र उत्पन्न किए, इड्डोमो समाणीयाओऋद्धियां इकट्ठो की, पसुवधा कया- पशुओं का वध किया, जन्ना जेट्ठा- ज्येष्ठ यज्ञ किये कि, अर्थात् स्वयं यज्ञ किये, दक्षिणा दिन्ना - ब्राह्मणों को दान दक्षिणा दी, अतिहि पूजिया-अतिथियों को पूजा की, अग्गी हूया-अग्नि-होत्र कर्म किया,बूमा निविश्वत्ता-यज्ञ स्तम्भगाड़ा, तं सेयं-इसलिए श्रेष्ठ है, खलु-निश्चय, मम-मेरे लिये, इयाणि-इस समय, कल्लं जाव जलते-प्रभात काल के उदय होने पर, वाणारसीए नयरीए बहिया-वाराणसी नगरी के बाहर, बहवे-बहुत से, अंबारामाआमों के बाग, रोवावत्तिए -पारोपित किए, एवं-इस प्रकार, माउलिंगा-मातुलिंग-बिजौरा, बिल्ला-बिल्व, कविटा-कपित्य विचा-इमली और, पृष्फारामा-फलों के वाग, रोवावित्तएपारोपित किये, एवं संपेहेइ संहिता-इस प्रकार विचार करता है, विचार करके, कल्लं जाव जलते-कल जावत् प्रातः काल सूर्योदय होने पर, वामारसीए नयरीए बहिया-वाराणसी नगरी के वाहर, अंबारामे-आमों के बाग, जाव-यावत्, पुरफारामे-फूलों के बाग, रोवावेइआरोपित करवाता है, तएणं-तत्पश्चात्, बहवे अंबारामा-बहुत से मामों के बागों, य-और, Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरयावलिका) (२०५) विग-तृतीय जाव-यावत्, पुप्फारामा-पुष्पों के बाग, य-और, अणुपुवेणं-अनुक्रम से, सारक्खिज्जमाणा- जीवादि के भय से रक्षा करते हुए, संगोविज्जमाणा-वाय आदि का भय से रक्षा करते हुए, संवड़ियमाणा-सिंचाई करके संवधित करते हुए, आरामा जाया-बाग पैदा हो गए, किण्हा-कृष्ण वर्ण वाले हुए, किण्हाभासा- काली प्रभा वाले, जाव-यावत्, रम्मा-- रमणीक लगने लगे, महामेहनिकुरंबभूया-महामेध के समान काली प्रभा वाले, पत्तिया-पत्तों से युक्त; पुफिया-फूलों से युक्त, फलिया- फलों से युक्त, हरियगरेरिज्जमाणसिरीया- नीले रंग की लक्ष्मी से युक्त, अईव, अईब-अतीव, उवसोभेमाणा, उसोभेमाणा-शोभा पा रहे थे शोभा पाते हुए, चिट्ठति-उत्पन्न हो गए थे ॥७॥ मूलार्थ-तत्पश्चात् वह सोमिल ब्राह्मण किसी समय असाधु-दर्शन से और साधुओं की सम्यक् सेवा न करने के कारण, मिथ्यात्व पर्याय की वृद्धि होने से, सम्यक्त्व पर्याय के क्षीन हो जाने से मिथ्यात्व अंगीकार कर विचरने लगा। तत्पश्चात् वह सोमिल ब्राह्मण एक बार मध्यरात्रि के समय कुटुम्ब - जागरण करते हुए, इस प्रकार विचार करता है कि "निश्चय ही मैं सोमिल ब्राह्मण, वाराणसी के सर्वोच्च ब्राह्मण कुल में उत्पन्न हुआ हूं। .. तत्पश्चात् मैंने व्रत ग्रहण किये, उनका आचरण किया, वेदों का अध्ययन किया, शादी करके पत्नी लाया, पुत्र उत्पन्न किये, ऋद्धि प्राप्त की, यज्ञार्थ पशुवध किया, स्वयं श्रेष्ठ यज्ञ किए, अब मुझे यही श्रेयस्कर है यावत् मैं प्रातःकाल सूर्योदय होते ही ' वाराणसी नगरी के बाहर बहुत आमों के बागों को लगाऊं। इसी प्रकार मातुलिङ्गबिजौरा, बेल, कपित्थ, इमली व पुप्प-उद्यान लगाना मेरे लिए श्रेयस्कर है। इस प्रकार विचार कर वह प्रातः यावत् सूर्योदय के समय उठा और उसने वाराणसी नगरी के बाहर आमों के बाग यावत् पुष्प-वाटिकायें लगवाई। फिर बहुत से आमों के बाग यावत् पुष्पों के बागों की, अनुक्रम से, जीवों के भय से रक्षा करते हुए, वायु आदि के भय से संगोपन करते हुए, जल आदि की सिंचाइ की इससे वृक्ष बढ़ने लगे । बाग कृष्णप्रभा से युक्त रमणीक महामेघ के समान काली प्रभा वाले पत्रों, पुष्पों से, फलों से, नील वर्ण की प्रभा से अति मनोहर शोभा से युक्त, अतिउत्तम सुन्दरता को प्राप्त हए ॥ ७॥ Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वग-तृतीय ] ( २०६ ) [कल्पावतसिका टोका-प्रस्तुत सूत्र में सोमिल ब्राह्मण के मिथ्यात्वी होने का वर्णन है, साथ में यह भी बताया गया है कि मिथ्यात्व के अशुभ परिणाम से वह सम्यक् आचरण वाले साधु पुरुषों से दूर भागने लगा। असंयमियों द्वारा प्ररूपित देव, गरु व धर्म के स्वरूप में श्रद्धा करने लगा। ज्ञाताधर्म कथाङ्क सूत्र के १३वें अध्ययन में नन्दन मणियार के वर्णन की तरह सोमिल का वर्णन भी जानना चाहिये जिसकी संक्षिप्त कथा इस प्रकार है एक बार श्रमण भगवान महावीर राजगृही नगरी में पधारे । राजा श्रेणिक शाही ठाटवाट के साथ प्रभु के दर्शन करने आ रहा था उसके हाथी के पैर के नीचे आकर एक मेंढक मर गया। श्रेणिक को इस बात का बहुत खेद हुमा ! भगवान महावीर ने कहा कि श्रेणिक ! वह मेंढक जो तम्हारे हाथी के पैर के नीचे चला गया है वह मेरे दर्शन करने आ रहा था क्योंकि उस तिर्यच को जाति-स्मरण ज्ञान हो गया था। पिछले जन्म में यह एक धनाड्य गाथापति व श्रमणोपासक था। एक बार वह पौषधोपवास कर रहा था। भयानक गर्मी के कारण रात्रि में उसे प्यास सताने लगी। नंदन मणियार ने निश्चय किया कि सूर्योदय होते ही मैं ऐसे सुन्दर बावड़ी व बाग वनाऊंगा ताकि स्वच्छ ठण्डा पानी मुझे हमेशा मिले । वह सुबह उठा, बाग व बावड़ियां तैयार करवाने लगा। सारी जिंदगी धर्म को छोड़कर बाग बावड़ियों के प्रति आसक्त हो गया। इसी कारण मर कर वह बावड़ी में मेंढक के रूप में पैदा हुआ, किन्तु मर कर वह शुभ भावों के कारण देव बना। सोमिल ने भी इस तरह सम्यक्त्व छोड़ा और मिथ्यात्व ग्रहण किया। वृत्तिकार का इस संदर्भ में कथन है असाधुओं के दर्शन, साधुओं के न मिलने, असाधुओं से मिलाप, कदाग्रह एवं साधुओं के दर्शन न होने के कारण मिथ्यात्व की प्राप्ति होती है। इसके आगे एक रात्रि सोमिल ब्राह्मण अपने भूतकाल के जीवन, अपने उत्तम वंश, मर्यादाओं आदि का चिंतन करते हुए सोचने लगा कि मैं वाराणसी में वेद-पाठी ब्राह्मण-कुल में पैदा हुमा हूं। मैंने शादी की, बच्चे पैदा किये। शौच, तप स्वाध्याय आदि ग्रहण किया। यज्ञों में पशु बलि दी। दान दक्षिणा दी और अतिथियों की सेवा की । अब मुझे सांसारिक धर्म की साधना हेतु बहुत से फल, फूलों के बाग लगवाने उचित हैं। प्रस्तुत सूत्र से सिद्ध होता है कि यज्ञ में पशुबलि के लिए यूप स्थापित करने की परम्परा काफी प्राचीन है। 'अजास्थिए जाव' इस सूत्र के बारे में वृत्तिकार का कथन है। 'सथिए जाव' ति आध्यात्मिकः आत्मविषयः चिन्तित:- स्मरण रूपः प्राथितः मनोगतो, मनत्येव वर्तते, यो न बहिः प्रकाशितः सङ्कल्पो विकल्पः समुत्पन्न प्रादुर्भूतः ॥७॥ मूल-तएणं तस्स सोमिलस्स माहणस्स अण्णया कयाइ पुव्वरत्ता. वरत्तकालवयंसि कुडुंबजागरियं जागरमाणस्स अयमेयारूवे अज्झथिए Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरयावलिका ( २०७) [ वर्ग-तृतीय जाव समुपज्जित्था-एवं खलु अहं वाणारसीए णयरीए सोमिले नाम माहणे अच्चंतमाहणकुलप्पसूए । तए णं मए वयाइं चिण्णाई, जाव जूवा णिक्खित्ता, तए णं मए वाणारसीए नयरीए बहिया बहवे अंबारामा जाव पुप्फारामा य रोवाविया, तं सेयं खलु ममं इयाणि कल्लं जाव जलंते सुबहु लोहकडाहकडुच्छुयं तंबियं तावसभंडं घडावित्ता विउलं असणं पाणं खाइमं साइमं मित्तनाइ० आमंतित्ता तं मित्तनाइणियग० विउलेणं असण० जाव संमाणित्ता तस्सेव मित्त जाव जेट्टपुत्तं कुडुंबे ठावेत्ता तं मित्तनाइ जाव आपुच्छिता सुबहुं लोहकडाहकडच्छुयं तंबिय तावसभंडगं गहाय जे इमे गंगाकूला वाणपत्था तावसा भवंति-तं जहा होत्तिया पोत्तिया कोत्तिया जन्नई सड्ढई थालई हुबउट्ठा दंतुक्खलिया उम्मज्जगा संमज्जगा निमज्जगा संपक्खालगा दक्खिणकूला उत्तरकला संखधमा कूलधमा मियलुद्धया हत्थितावसा उदंडा दिसापोक्खिणो वक्कवासिणो बिलवासिणो जलवासिणो रुक्खमलिया अंबुभक्खिणो वायभक्खिणो सेवालभक्खिणो मूलाहारा कंदाहारा तयाहारा पत्ताहारा पुप्फाहारा फलाहारा बीयाहारा परिसडियकंदमूलतय-पत्तपुप्फफलाहारा जलाभिसेयकडिणगायभूया आयावणाहिं पंचग्गितावेहिं इंगालसोल्लियं कंदुसोल्लियं पिव अप्पाणं करेमाणा विहरंति । तत्थ णं जे ते दिसापोक्खिया तावसा तेसि अंतिए दिसापोक्खियत्ताए पव्वइत्तए । पव्वइए वि य णं समाणे इमं एयारूवं अभिग्गहं अभिगिहिस्सामि कप्पइ मे जावज्जीवाए छट्ट-छद्रेणं अणिक्खित्तेणं दिसाचक्कवालेणं तवोकम्मेणं उड्ढ बाहाओ पगिझिय पगिज्झिय सूराभिमुहस्स आयावणभूमीए आयावेमाणस्स विहरित्तएत्ति कटु एवं संपेहेइ, संपेहिता कल्लं जाव जलते सुबहु लोह जाव दिसापोक्खियत्तावसत्ताए पन्वइए । पव्वइए वि य णं समाणे इम Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ग-तृतीय] (२०८) निरयावलिका एयारूवं अभिग्गहं अभिगिहित्ता पढमं छट्टक्खमणं उवसंपज्जित्ताणं० विहरइ॥८॥ छाया-ततः खलु तस्य सोमिलस्य ब्राह्मणस्याऽन्यदा कदाचित् पूर्वराजापररात्रकालसमये कुटुम्बजागरिकां जाग्रतोऽयमेतद् प आध्यात्मिकः यावत् समुदपद्यत-एवं खल्वहं वाराणस्यां नगर्या सोमिलो नाम ब्राह्मणः अत्यन्तब्राह्मणकुलप्रसतः, ततः खलु मया व्रतानि चीर्णानि यावद यपः निक्षिप्तः । ततः खलु मया वाराणस्या नगर्या बहिर्वहव आम्रारामा यावत् पुष्पारामाश्च रोपितास्तच्छ यः खलु ममेदानी कल्ये यावज्ज्वलति सुन्हु लोहकटाहकच्छकं ताम्रीय तापसभाडं घटयित्वा विपुलमशन पानं खाद्यं स्वाद्यं मित्र जाति० आमन्त्र्य तं मित्र-ज्ञाति-निजक० विपुलेन अशन० यावत् सम्मान्य तस्यैव मित्र यावत् ज्येष्ठपुत्रं कुटुम्बे स्थापयित्वा तं मित्रजातियावत् बापच्छ्य सुबह लौहकटाहकटुच्छुक ताम्रीयं तापसभाण्डकं गृहीत्वा ये इमे गङ्गाकला: वानप्रस्थास्तापस भवन्ति तद्यथाहोत्रिकाः, पोत्रिका:, कौत्रिकाः यज्ञयाजिनः, बाढकिनः, स्थालकिन:-गृहीतभाण्डाः, हुण्डिकाश्रमणाः; दन्तोदूखलिकाः, उन्मज्जकाः, सम्मज्जकाः निमज्जका संप्रक्षालकाः,दक्षिणकूलाः, उत्तरकूलाः,शङ्खध्माःः कलमाः, मगलब्धकाः, हस्तितापसा:. उदृण्डाः, दिशाप्रोक्षिणः वल्कवाससः, विलवासिनः, जलवासिनः वृक्षमूलकाः, अम्बुभक्षिणः, वायुभक्षिणः, शेवालभक्षिणः, मूलाहारा, कन्बाहाराः, त्वगाहाराः, पत्राहाराः, पुष्पाहाराः, फलाहाराः, बीजाहाराः, परिटितकन्दमूलत्वप पृष्पफलाहाराः, जलाभिषेककठिनगात्रभूताः, मातापनाभिः पञ्चाग्नितापैः अङ्गारशोल्यकं, कन्दुशोल्यकमिव आत्मानं कुर्वाणा विहरन्ति । तत्र खलु ये ते दिशाप्रोक्षकास्तापसास्तेषामन्तिके दिशाप्रोक्षकतया प्रवजितम् । प्रव्रमितोऽपिच खलु सन् इममेत पमभिग्रहमभिग्रहीष्यामि-कल्पते मे यावज्जीवं षष्ठ-षष्ठेनानिक्षिप्तेन विचक्राबालेन तपःकर्मणा ऊध्वं वाहू प्रगृह्य प्रगृह्य सूराभिमुखस्याऽऽतापनभूम्यामातापयतो विहर्तुम् । इति कृत्वा एवं संप्रेक्षते, संप्रेक्ष्य कल्ये यावज्ज्वलति सुबह लोह० यावत् दिशाप्रोक्षकतापसतया प्रवजित'। प्रजितोऽपि च खल सन् इममेतद्र पमभिग्रहम भिगृह्य प्रथमं षष्ठक्षपणमुपसंपच खलु विहरति ॥८॥ पदार्थान्वयः-तए-उसके अनन्तर, गं-यह अव्ययपद है, जो वाक्य की सुन्दरता के लिए प्रयुक्त किया जाता है, तस्स-उस, सोमिलस्स - सोमिल नामक, माहणस्स-ब्राह्मण के, अण्णया कयाइ-किसी अन्य समय, पुन्वरत्तावरत्तकालसमयंसि-रात्रि के मध्य भाग में, कुडम्बजागरिय मागरमाणस्स-कुटुम्व जागरणा कुटुम्ब के हानि-लाभ का चिन्तन करते हुए, अयमेयारवे-इस प्रकार, अन्सथिए-आध्यात्मिक, आत्मा सम्बन्धी, प्रात्मा या मन से सम्बन्ध रखने वाला, जाव-यावत् विचार, समुपज्जित्या-उत्पन्न हुआ, खलु-निश्चय ही, एवं-इस प्रकार, अहंमैं, सोमिले नामं माहणे-सोमिल नामक ब्राह्मण, वाणारसीए णयरीए-वाराणसी नगरो में, अच्चतमाहणकुलप्पसूए-ब्राह्मणों के अत्यन्त उच्च कुल में पैदा हुआ हूं। तए-तदनन्तर, गं Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरयावलिका) (२०९) [वर्ग-तृतीय वाक्य-सौन्दर्यार्थ क है, मए-मैंने, वयाई-व्रतों का, चिण्णाई-आराधन किया, जावयावत्, जूवा निक्खित्ता-यूप-यज्ञस्तम्भ या स्तम्भ-विशेष स्थापित किए, तए-उस के बाद, णं-वाक्य सुन्दरता के लिए है, मए-मैंने, वाणारसीए णयरीए-वाराणसी नगर के, बहियाबाहिर, बहवे अनेकों, अंबारामा-आमों के बाग, जाव-यावत्, पुप्फारामा य-और फलों के बाग, रोवाविया-लगवाए हैं, तं-सो, खलु-निश्चय ही, मम सेयं-मेरे लिए यही श्रेष्ठ है, इयाणि-अब, कल्लं-प्रात:काल ही, जाव-यावत्, जलते-- सूर्य के जाज्वल्यमान होने पर, सुबहु -बहुत से, लोह-कडाह-कडुच्छयं-लोहे के कडाहे और लोहे की कड़छी-चमची आदि डोई (प्राकृत शब्द-महार्णव कोष), तंबियं-ताम्रिक (परिव्राजकों के पहनने का एक उपकरण); तावास-भंड-तपस्वियों के उपयोग में आने वाले भाण्ड-पात्र, घडवित्ता-बनवा कर, विउलंविपुल-पर्याप्त, असणं-अशन- अन्न, पाणं-पेय पदार्थ, खाइम-खादिम-बादाम और पिस्ते आदि मेवे, साइम-मूख को स्वादिष्ट बनाने वाले चर्ण आदि पदार्थ बनवा कर. मित्त- मित्र, नाइ-समान जाति आदि वाले लोगों को, आमंतित्ता-आमंत्रित करके, तं मित्त राइणियगउन मित्रों, समान जाति वालों तथा निजक-आत्मीय, अपने सम्बन्धी जनों को, विउलेणंपर्याप्त, असण-भोजनादि से, नाव समाणित्ता-यावत् सम्मानित करके, तस्सेव मित्त जावउन मित्र आदि के सामने, जेट्टपुत्तं-ज्येष्ठ पुत्र, बड़े लड़के को, कुडुंबे ठावेत्ता-कुटुम्ब का दायित्व सम्भाल कर, त मित्तनाइ जाव-उन मित्र आदि सम्बन्धियों को, आपुच्छित्ता-पूछ कर, सुबहु लोह-कडाह-कडच्छ-यं-बहुत से लोहे के कडाहे और कड़छियों को, तंबियं-ताम्रकों को, तावसभंडगं-तापसों के पात्रों को, गहाय-ग्रहण करके, जे-जो, इमे-ये, गंगाकूला-गंगा के किनारे पर रहने वाले, वाणपत्था तावसा-- वानप्रस्थ-वन में रहने वाले तपस्वी, भवंति-विराजमान हैं, तंजहा-जैसे कि, होत्तिया-अग्निहोत्री । वानप्रस्थ तापसों का एक वर्ग ], पोत्तिया-- वस्त्रधारी बानप्रस्थ, कोटिया-भूमि पर शयन करने वानप्रस्थ, जन्नई-यज्ञ अर्थात् यज्ञ करने वाले • तापस, सट्टई-श्राद्ध करने वाले बानप्रस्थ, थालई-पात्र धारण करने वाले बानप्रस्थ, हुबउटाहुम्बउष्ट [वानप्रस्थ तापसों की एक जाति] दंतुक्खलिया-दांतों से चबाकर खाने वाले तापस, उम्मज्जगा-उन्मज्जक उन्मज्जन (गोते) लगाकर ही स्नान करने वाले तापस, संमज्जगासम्मज्जक बार-बार हाथ से पानी को उछाल कर स्नान करने वाले, निमज्जगा-निमज्जक पानी में डूबकर स्नान करने वाले, संपक्खालगा-संप्रक्षालक-मिट्टी मल कर शरीर का स्नान करने वाले । दक्षिणकला-गंगा के दक्षिण तट पर रहने वाले, उत्तरकूला - गंगा के उत्तर तट पर रहने वाले, संखधमा-शङ्खध्मा-शंख बजा कर भोजन करने वाले, कलधमा- तट पर स्थित होकर आवाज करते हुए भोजन करनेवाले, मियलुद्धया-मृग को मार कर उसी के मांस से जीवन व्यतीत करने वाले, हस्थितावसा-हस्ति-तापस-हाथी की तरह स्नान करके शरीर पर भस्म आदि लगा कर जीवन विताने वाले, उघडा --उद्दण्ड-डण्डे को ऊंचा उठाकर चलने वाले, दिशापोक्खिणोविशाप्रोक्षी-दिशा को जल से सींचकर उस में पुष्प फल आदि चुन कर रखने वाले अथवा, अपनी प्रतिज्ञा के अनुसार दिशाओं को देखकर तपस्या करने वाले तापस, वकवासिणो Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २१० ) वर्ग - तृतीय ] वल्कलवासस - वृक्षों की छाल को धारण करने वाले, बिलवासिणो-विलवासी - भूमि के नोचे बिल जैसे स्थान में रहने वाले, जलवा'सणो-जलवासी - जल में ही रहने वाले दबखमूलियावृक्षमूलक -- वृक्ष के मूल में रहने वाले, अंबुभक्खिणो - केवल जल का सेवन करने वाले, वायभक्खिणो - वायुभक्षी - केवल वायु का सेवन करने वाले, सेयालभविखणो- शैवालभक्षी - केवल शैवाल नामक जलीय घास का सेवन करनेवाले, मूलाहारा - मूलाहार - मूल - जड़ों का सेवन करने वाले, कंदाहारा - कन्द का सेवन करने वाले (गूदेदार बिना रेशे की जड़, जमीकन्द, शकरकन्द, गाजर, लहसुन आदि) का सेवन करने वाले, तयाहारा - त्वचाहारा-नीम आदि वृक्षों की त्वचा का सेवन करने वाले, पत्ताहारा- पत्राहार- वृक्षों के पत्तों का सेवन करने वाले, पुष्पाहारा - पुष्पाहारा - गुलाब आदि फूलों का सेवन करने वाले, फलाहारा - फलाहार - वे. ले आदि फलों का सेवन करने वाले, बीयाहारा - बीजाहारा बीजों का सेवन करने वाले, परिसडिय - कंद-मूल-तय- पत्त- पुप्फ- फलाहारा - परिशटित- अर्थात् सड़े हुए कन्द, मूल, त्वचा, पत्र, पुष्प भौर फलों का सेवन करने वाले, जलाभिसेय - कडिण गायभूया - जलाभिषेक - जल hi अभिषेक अर्थात् अधिक सिंचन से जिनका शरीर कठोर हो गया है ऐसे तापस, आयावणाहि पंचग्गितावेहि- सूर्य की आतापना और पञ्चाग्नि-तप के कारण, इंगालसोल्लियं - प्रङ्गारशौल्य अर्थात् अङ्गारों पर रक्खे शूल से पकाये हुए मांस एवं कंदुसोल्लियं - कन्दुशील्य अर्थात् चावल आदि भूनने का पात्र कन्दु होता है उसमें घृत डाल कर शूल पर पकाए गए मांस के, पिव- समान, अध्याणं करेमाणा - अपने शरीर को कष्ट देते हुए, विहरति - जीवन व्यतीत कर रहे हैं, तत्थ — उनमें, जे ते जो तापस, - वाक्य सौन्दर्यार्थक है, दिसापोविखयादिशाप्रोक्षक अर्थात् दिशाएं प्रोक्षित कर जीवन-यात्रा चलानेवाले, तावसा - तापस हैं, तेसि अतिए दिसापोक्खियत्ताए - उन दिशाप्रोक्षक तापसों के पास अर्थात् दिशाप्रोक्षक के रूप में तापस बनना चाहता हूं, पव्वइत्तए - प्रव्रजित होने के लिये, पव्वइए वि य णं समाणे - प्रव्रजित हो जाने पर, इमं एयारूवं - मैं इस प्रकार का अभिग्गहं अभिगिहिस्सामि - अभिग्रह - प्रतिज्ञा विशेष ग्रहण करूंगा, कप्पई मे जावज्जीवाए - जीवन पर्यन्त मेरा नियम रहेगा कि मैं, छट्ठ छट्टणं- बेले बेले तपस्या करता हूं अणिक्खितेणं - बिना किसी अन्तर के अर्थात् लगातार, यह तपस्या, दिसाचक्कवालेणं तवो कम्मेणं- दिक्-चक्रवाल तपस्या करता हुआ, सूराभिमुहस्स - सूर्य की ओर मुख करके, उड्ड बाहाए पगिज्झियं सूर्य के सामने भुजाएं उठा उठा कर, णस्स विहरितए - आतापना भूमि में आतापना ग्रहण करता रहूंगा, इस प्रकार सोचकर मन में चिन्तन करता है, दिक्चक्रवाल- तपस्या का निश्चय कर लेता है, संपेहित्ता - ऐसा निश्चय कर लेने के अनन्तर काल यावत् सूर्य के देदीप्यमान होने पर सुबहु लोह - जाव विसापोक्खियत्तावसत्ताए - बहुत से लोहे के कड़ा यावत् अन्य ( पूर्व वर्णित ) सामग्री लेकर दिशाप्रोक्षक तापस के पास आकरें, पव्व इए - प्रव्रजित हो जाता है, पव्वइए वि य णं समाणे - प्रव्रजित हो जाने के पश्चात्, इर्म एयारूवं अभिग्गहं - इस प्रकार का अभिग्रह ( प्रतिज्ञा विशेष ), अभिगिन्हित्ता - धारण करके, - आयावण भूमीए मायावेमात्ति कट्टु एवं संपेहेइके द्वारा जीवन बिताने कल्लं जाव जलते - प्रातः - [निरधावलिका - Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ वर्ग-तृतीय पढमं छटुक्खमाणं - पहला षष्ठक्षपण-दो दिन का उपवास, उबसंपज्जिताणं - धारण करके, हिरइ - विहरण करने लगा ||८|| निरयावलिका ) ( २११ ) मूलार्थ – उसके बाद उस सोमिल ब्राह्मण को किसी अन्य समय रात्रि के मध्य में, कुटुम्ब (की चिन्ता में ) जागरण करते हुए उसके मन में इस प्रकार का विचार उत्पन्न हुआ "निश्चय ही मैं सोमिल ब्राह्मण वाराणसी नगरी के उच्च ब्राह्मण कुल में उत्पन्न हुआ हूं । तत्पश्चात् मैंने व्रतों का अराधन किया फिर यूप या यज्ञ-स्तम्भ स्थापित किए, तत्पश्चात् मैंने वाराणसी नगरी के बाहर अनेकों आमों के बाग, फूलों के बाग लगवाए हैं । अब मेरे लिए यही श्रेयस्कारी होगा कि प्रातः सूर्योदय होते ही मुझे बहुत से लोहे केकड़ा और कड़छियां, ताम्रिक (परिव्राजकों के पहनने का एक उपकरण ), तपस्वियों के दैनिक प्रयोग में आने वाले भण्डोपकरण बनवा करके, विपुल अशन, पान, खादिम, स्वादिम- चारों प्रकार का भोजन तैयार करवाऊं और मित्रों और समान कुलवालों को आमंत्रित करके उन मित्रों एवं समान जाति के लोगों, रिश्तेदारों को पर्याप्त भोजन करवा करके, उनका सन्मान सत्कार करू । फिर बड़े पुत्र को घर का दायित्व संभाल कर उन मित्रों एवं सम्बन्धियों से पूछ कर तापस-दीक्षा ग्रहण करने की आज्ञा प्राप्त । फिर बहुत से कड़ाहों, कड़डियों व तांबे के बर्तनों को ग्रहण करके, गंगा के किनारे पर रहने वाले वानप्रस्थों के पास जाऊं । फिर अग्निहोत्री ( वानप्रस्थ तापसों का एक वर्ग) वल्कलधारी वानप्रस्थी, भूमि पर सोने वाले वानप्रस्थ, यज्ञ करने वाले तापस, श्राद्ध करनेवाले वानप्रस्थ, पात्र धारण करने वाले वानप्रस्थ, हुम्बडकष्ट ( वानप्रस्थी तापसों की एक जाति) दांतों से चबाकर खाने वाले तापस, गोता लगाकर स्नान करने वाले तापस, बार-बार हाथ से पानी उछाल कर स्नान करने वाले तापस, पानी में डुबकी लगाकर स्नान करने वाले, मिट्टी से शरीर को मल कर स्नान करनेवाले, गंगा के दक्षिण तट पर रहने वाले, गंगा के उत्तरी तट पर रहने वाले, शंख बजाकर भोजन करने वाले, मृग को मार कर उसके मांस से जीवन व्यतीत करनेवाले, हाथी के समान स्नान करके शरीर पर भस्म आदि लगा कर • जीवन बिताने वाले, दण्ड को ऊंचा रखकर चलने वाले दिशाओं को जल से सींचकर Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ग-तृतीय ] (२१२) । निरयावलिका उन में फल फूल आदि चुनकर रखने वाले अथवा प्रतिज्ञा के अनुसार दिशाओं को देखकर तपस्या करने वाले, वृक्ष की छाल धारण करने वाले, बिलों में रहने वाले, पानी में रहने वाले. वृक्षों के मूल में रहने वाले, केवल जल का सेवन करने वाले, केवल वायु का भक्षण करने वाले, शैवाल एक जलीय विशेष घास खाने वाले, जड़ का सेवन करने वाले, कन्द मूल का सेवन करने वाले; नोम आदि वृक्षों की त्वचा का आहार करने वाले, वृक्षों के पत्तों का भोजन करने वाले, फूलों का भोजन करने वाले, केवल फलाहार करने वाले, बोजों का आहार करने वाले, परिटित अर्थात् सड़े हुए कन्द मूल, त्वचा. पत्र, पुष्प और फलों का आहार करने वाले, जलाभिषेक से जिनका शरीर कठोर हो गया है ऐसे तापस सूर्य की आतापना लेने वाले, अंगारों पर रख कर शूल से पकाये कवाब की ग्रहण करनेवाले, कन्दुशौलक नामक चावल पकाने के पात्र में घृत डाल कर शूल पर बनाये कवाब का भोजन ग्रहण करने वाले, अपने शरीर को कष्ट देकर जो जीवन-यापन कर रहे हैं ऐसे तापसों के पास (वह सोमिल ब्राह्मण आता है और आकर विचार करता है) मैं इन तापसों में जो दिशाप्रोक्षक तापस हैं उन दिशा-प्रोक्षक तापसों के पास तापस बनना चाहता हूं। फिर वह दिशाप्रोक्षक तापस के पास आकर प्रवजित हो जाता है, प्रवजित होने के पश्चात् विशेष प्रकार का अभिग्रह धारण करता है, अभिग्रह धारण करके पहला षष्ठक्षपण (दो दिन का उपवास) करता हुआ जीवन-यापन करता है। टीका-प्रस्तुत सूत्र में लोमिल ब्राह्मण के मिथ्यात्व के उदय के बाद की स्थिति का वर्णन किया गया है, वह किस प्रकार का तापस जोवन ग्रहण करता है कितने प्रकार के तापस होते हैं, इन सभी का विस्तृत वर्णन इस सूत्र में पाया है । तापस-परम्परा के प्राचीन इतिहास पर यह सूत्र अच्छा प्रकाश डालता है। तापसों के अनेक भेद बतलाये गए हैं सभी बानप्रस्थी तापस लोग गंगा-तट पर रहते थे। सोमिल ब्राह्मण ने मित्रों एवं रिश्तेदारों की प्राज्ञा से, पूत्र को घर का उत्तरदायित्व संभाला, उसने दिशाप्रोक्षक तापस परम्परा को चुना। सोमिल ब्राह्मण ने सात्विक तापस परम्परा को चुना, किसी मांसाहारी तापस परम्परा को नहीं चुना। इस बात से सिद्ध होता है कि थोड़े से समय का भी सम्यक्त्व जीवन में मिथ्यात्व को कैसे दबाये रखता है। . . तपस्या के पारणे के लिए नपस्वी अपनी तपोभूमि के चारों ओर फलों का संग्रह करके रखता है । पारणे का समय माने पर पहले पारणे में पूर्व दिशा में रक्खे हुए फलों का सेवन करके Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरयावलिका) (२१३ ) (वर्ग-तृतीय - पारणा करता है । दूसरे पारणे में दक्षिण दिशा में रक्खे फलों का आसेवन करता है । नीसरे पारणे में पश्चिम दिशा में और चौथे पारणे में उत्तर दिशा में रक्खे हुए फलों को ग्रहण करता है । इस पदति से जिस तपस्या में पारणा किया जाता है उस तपस्या को दिक्-चक्रवाल तपस्या के नाम से पुकारा जाता है । इस तपस्या में पारणे के समय अलग-अलग दिशाओं का अभिग्रह ग्रहण करना जरूरी होता है । इस प्रकार वह दिक्-चक्रवाल तपस्या करता है ।।८।। मूल-तएणं से सोमिले माहणे रिसी पढमछट्ठक्खमण पारणंसि आयावणभूमीए पच्चोरुहइ, पाचोरुहित्ता बागलवत्थ नियत्थे जेणेव सए उडए तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता किढिणसंकाइयं गिण्हइ, गिण्हित्ता पुरस्थिमं दिसि पुक्खेइ, पुक्खित्ता, पुरथिमाए दिसाए सोमें महाराया पत्थाणे पत्थिय अभिरक्खउ सोमिलमाहणरिसिं, जाणि य तत्थ कंदाणि य मूलाणि य तयाणि य पत्ताणि य पुप्फाणि य फलाणि य बीयाणि य हरियाणि ताणि अणुजायउ-त्ति कटु पुरथिमं दिसं पसरई, पसरित्ता जाणि य तत्थ कंदाणि य जाव हरियाणि ण ताई गिण्हइ, गिण्हित्ता किढिणसंकाइयं भरेइ, भरित्ता दब्भे य कुसे य पत्तामोडं च समिहाकट्ठाणि य गिण्हइ, गिण्हित्ता जेणेव सए उडए तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता किढिणसंकाइयगं ठवेइ, ठवित्ता वेदि वड्ढई वड्ढित्ता उवले. वणं संमज्जण करेइ, करित्ता दमकलसहत्थगए णेणेव गंगा महानई तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता गंगं महानइं ओगाहइ, ओगाहित्ता जलमज्जणं करेइ, करित्ता जलकिडं करेइ, करित्ता जलाभिसेयं करेइ, करित्ता आयंते चोक्खे परमसुइभूए देवपिउकयकज्जे दमकलसहत्थगए गंगाओ महानईओ पच्चुत्तर इ, पच्चुत्तरित्ता जेणेव सए उडए तेणेव उपागच्छइ, उवागच्छित्ता दभेहि य कसेहिं य बालुयाए य वेदि रएइ, रइत्ता सरयं करेइ, करिता अग्गि पाडेइ, पाडित्ता अग्गि संधुक्खेइ, समिहाकट्ठाई पक्खिवइ. पक्खिवित्ता अग्गि उज्जलेइ, उज्जालित्ता अग्गिस्स दाहिणे पासं सांगाई समादहे। Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बर्ग-तृतीय] ( २१४ ) [निरयावलिका तं जहा-"सकत्थं वक्कलं ठाणं, सिज्ज भंडं कमंडलु। दंड-दारु तहप्पाणं, अह ताइ समादहे।" महुणा य घएण य तंदुलेहि य अग्गि हुणइ, चरु साहेइ, साहित्ता बलिवइस्सदेवं करेइ, करित्ता अतिहिपूयं करेइ, करित्ता तओ पच्छा अप्पणा आहारं आहारेइ ॥६॥ छाया-ततः खलु सोमिलो ब्राह्मण ऋषिः प्रथमषष्ठक्षपणपारणे आतापनभूम्यां प्रत्यवरोहति प्रत्यवरा वल्कलस्त्रनिवासितः यत्रव स्वकं उटजस्तत्रंदोपागच्छति, उपागत्य किढिणसाङ्कायिक गृह्णाति गृहीत्वा पौरस्त्यां विशं प्रोक्षति, प्रोक्ष्य "पौरस्त्याया दिशः सोमो महाराजः प्रस्थाने प्रस्थितमभिरक्षत् सोमिलब्राह्मणषिम्, यानि च तत्र कन्दानि च मूलानि च त्वचञ्च पवाणि च पुष्पाणि च फलानि च बीजानि च हरितानि च तानि अनुजामातु,” इति कृत्वा पौरस्त्यां दिशं प्रसरति, प्रसृत्य यानि च तत्र कन्दानि च यावत् हरितानि च तानि गृह्णाति किढिणसांकायिक भरति, भ वा वर्भाश्च कुशांश्च पत्रामोटं च समित्काष्ठानि च गृह्णाति, गृहीत्वा यत्रैव स्वकं उटजस्तत्रैवोपागच्छति, उपागत्य किढिणसांकायिकं स्थापयति, स्थापयित्वा वेदिवधति, वर्धयित्वा उपलेपनसम्मार्जनं करोति, कृत्वा दर्भकलशहस्तगतो यत्रैव गङ्गा महानदी तत्रैवोपागच्छति, उपाग य. गगायां महानद्यां अवगाहते, अवगाह्य जलमज्जनं करोति, कृत्वा जलक्रीडां करोति, कृत्वा जलाभिषेकं करोति, कृत्वा आचान्तः स्वच्छः परमशुचिभूतः देवपितृकृतकार्यः, दर्भकलशहस्तगतो गङ्गातो महानदीतः प्रत्यवतरति, प्रल्यवतीर्य यत्रव स्वकं उटजस्तत्रैवोपागच्छति, उपागत्य व:श्च कुशेश्च बालुकया च वेदि रचर्यात, रचयित्वा शरकं करोति, कृत्वा अरणि करोति, कृत्वा शरकेणारणि मथ्नाति, मथित्वा अग्नि पातयति, पातयित्वा अग्नि संधुभते. संधुक्ष्य समित्काष्ठानि प्रक्षिपति, प्रक्षिप्य अग्निमुज्ज्वालयति, उज्ज्वाल्य, अग्नेर्दक्षिणे पावं सप्ताङ्गानि समादधति, तद्यथा १ "सकत्थं २ वल्कलं, ३ स्थानं, ४ शय्याभाण्ड, ५ कमण्डलम्, ६ दारुदण्ड, ७ तथाऽरमानम्, अथ तानि समादधीत । ततो मधुना घृतेन च तण्डुलेश्चाग्नि ज होति; चरु साधयति । साधयित्वा बलिवैश्वदेवं करोति, कृत्वाऽतिथिपूजां करोति, कृत्वा ततः पश्चात् आत्मना आहारमाहारयति ।।६।। पदार्थान्वयः-तएणं से सोमिले माहणे रिसी-तत्पश्चात् वह सोमिल ब्राह्मण ऋषि, पढमं छटुक्खमण पारणंसि-प्रथम षष्ठ भक्त के पारणे के दिन, आयावणभूमीए-आतपना भूमि से, पच्चोरुहइ, पच्चोरहित्ता-उतरता है, उतर कर, वागलवत्थ नियत्थे- वल्कल अर्थात् वृक्ष की छाल के वस्त्र पहनकर, जेणेव सए-जहां उसकी अपनी, उडए-झोंपड़ी थी, तेणेव-वहां, उवागच्छइ उपाच्छित्ता-माता है, आकर, किढिणसंकाइयं गिण्हइ-वह बांस की बनी कांवड़ ग्रहण करता है, गिण्हित्ता-ग्रहण करके, पुरत्थिमं दिप्ति-पूर्व दिशा में, पुक्खेइ, पुक्खित्ता-जल सींचता Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निश्यावलिका । - है और सींच कर ( प्रार्थना करता है), पुत्थमाए दिसाए- पूर्व दिशा के, सोमे महाराया - सोम महाराज, पत्थणे पत्थियं - वह सोम नामक दिक्पाल के मार्ग में चलते हुए मेरी, अभिरखखेउरक्षा करें, सोमिल माहण रिसि - सोमिल ब्राह्मण की इस प्रकार बार-बार प्रार्थना कर, जाणि य तत्थ - और वहां पूर्व दिशा में जो भी, कंदाणि य-कंद, मूलाणि य-मूल, तयाणि य-त्वचा ( वृक्षों की छाल), पत्ताणि य-पत्र, पुप्फाणि य-पुष्प, बोयाणि य-बीज, हरियाणि - हरी घास आदि थे, ताणि- उनको, गिण्हइ गिव्हित्ता ग्रहण करने की आज्ञा लेता है और आज्ञा लेकर जो उस दिशा में तृण आदि पदार्थ थे उनसे अपने किढिणसंकाइयं भरइ भरिता- बांस की कांवड़ भरता है और भर कर दंभे य-दूब, कुसे य- कुशा, पत्तामोडं च पत्रामोड़ समिहाकट्ठाणि यगिव्हइ, गिव्हित्ता- समिधा रूप काष्ठ ग्रहण करता है, ग्रहण करके, जेणेव सए उडएजहां उसकी अपनी झोंपड़ी थी, तेणेव उवागज्छइ, उवागच्छित्ता-वहां आता है और आकर किटिसंकाय ठवेइ, ठवित्ता- बांस की कांवड़ को नीचे रखता है और रखकर, वेदि वड्डइ वडिता वेदी बनाता है और बना कर, उबलेण संमज्जण करेइ, करिता - गोबर का लेप करता है संमार्जन करता है और करने के पश्चात्, दब्भकल सहत्थगए - हाथ में दूब और कलश को लेकर, जेणेव गंगा महानई- जहां गंगा महानदी थी, तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता- वहां आता है और आकर, गंगं महान ओगाइ, ओगहित्ता - गंगा महानदी में प्रवेश करता है, करने के पश्चात्, जेलमज्णणं करेह, करिता - जल में स्नान करता है और स्नान करके, जलकिडुं करेइ, करिता - जल-क्रीड़ा करता है और करने के पश्चात् जलाभिसेयं रेइ करिता - जलाभिषेक करता है और करके, आयंते चोक्खे परमसुइभूए - आचमन आदि करके परम शुचिभूत होकर, देवपिउकयकज्जेदेव-पितृ कार्य करता है, दम्भकलस हत्थगए - कुशा और कलश हाथ में ग्रहण कर, गंगाओ महानईओ पच्चत्तरइ, पच्चतः रिता- गंगा महानदी से बाहर निकला और निकल कर, जेणेत्र सए उडए - जहां उसकी झोंपड़ी थी, तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छिता - वहां आता है और आकर, दहिय दूब, कुसेहि य-कुशा, बालुयाए य - ( - (और) बालुका से, (वेदि रएइ, रइत्ता - वेदी की रचना करता है और रचना करने के पश्चात्, सरयं करेइ करिता - सरक (अग्नि उत्पन्न करने का काष्ठ) को घिसता है घिसने के पश्चात्, अग्नि करे - अग्नि उत्पन्न करने का प्रयत्न करता है, करिता - प्रयत्न करके, सरएणं अणि महेइ - सरक से अग्नि मन्थन करता है, अरिंग पाडेइ, अग्निकुण्ड में डालता है, पातयित्ता - डाल कर अग्गि संधक्खेइ - अग्नि जलाता है और जला कर, समिहाकट्ठाई पक्खिवइ, पविखवित्ता- उस अग्नि में समिधा रूप लकड़ियां डालता है और डाल कर, अग्ग उज्जालेइ, उज्जालित्ता-अग्नि को जाज्वल्यमान करता है और जाज्वल्यमान करके, अग्गस दहिणे पासं— अग्नि की दाहिनी ओर, सत्तंगाई समावहे - सात अङ्ग – वस्तुओं को स्थापित करता है। .. - ( २१५ ) (वर्ग-तृतीय - - तं 'जहा- - जैसे कि, कत्थं वक्कलं - सक्थ और बल्कल, ठाणं- स्थान, सिज्जं भंड कमंडलुं - शैय्या, बर्तन लौर कमंडलु, दंड दारु - दण्ड दारु, तहप्पाणं- स्वयं को, अह ताई समाद Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वग - तृतीय ] ( २१६ ) [ कल्पावत सिका अब उन्हें रखता है । इन सात अङ्गों को स्थापित करने के पश्चात्, महुणा य घएण य-मधु और घृत से, तंदुलेहि य अरिंग हुणइ - तंदुलों से अग्नि में होम करता है, चरु साहेइ - चरु से बलि देता है, साहित्ता - बलि देकर, बलिवइस्सदेवं करेइ 'करिता - बलि से वैश्वदेव की पूजा करता है और पूजा करके, अतिहिपूयं करेइ, करिता - अतिथि पूजन करता है और करके, तओ पच्छा अपणा जाहारं आहारेइ - तत्पश्चात् स्वयं भोजन करता है ||६|| मूलार्थ - तत्पश्चात् वह सोमिल ब्राह्मण ऋषि प्रथम बेले के पारणे के दिन आतापना भूमि से नीचे उतरता है उतर कर बल्कल वस्त्र धारण करता है, धारण करके जहां उसकी अपनी झोंपड़ी थी वहां आता है. आकर बांस की कांबड़ ( वंहगी ) को ग्रहण करता है ग्रहण करके पूर्व दिशा की ओर जल छिड़कता है । पूर्व दिशा में जो सोम महाराज है वह सोम नामक दिक्पाल मार्ग में चलते हुए लोमिल ब्राह्मण ऋषि की रक्षा करें, इस प्रकार की प्रार्थना करता है. प्रार्थना करक वह जो पूर्व दिशा में कंद, मूल, त्वचा, पत्र, पुष्प, बीज, हरित घास है उनको ग्रहण करने की आज्ञा लेता है, आज्ञा लेकर वह पूर्व दिशा के तृणादि पदार्थ अपनी बांस की कांबड़ में भरता हैं। भरकर दाभ कुश, पत्रामोड़ समिधा रूप काष्ठ ग्रहण करके जहां उसकी झोंपड़ी थी वहां आता है आकर बांस की कांबड़ यथास्थान रख देता है, फिर बेदिका बनाता है बना कर उसको गोबर आदि से लीपता है और संमार्जन करता है । फिर यह जल छिड़कता है जस छिड़क कर हाथ में कुशा और कलश लेकर जहां गंगा महानदी थी, वहां आया । आकर उससे गंगा नदी में स्नान के लिए प्रवेश किया । (स्नान के समय वह) जल-क्रीड़ा करता है, जलाभिषेक करता है, आचमन करता है फिर परम शुचिभूत अर्थात् पवित्र हो कर देवों और पितरों के निमित्त तर्पण आदि करता है, हाथ में कलश और दूब रखता हुआ गंगा नदी से बाहर आया । बाहर आकर वह अपनी झोंपड़ी के पास पहुंचा। वहां पहुंच कर उसने दर्भ कुशा व बालु वेदिका का निर्माण किया । सरक लिया, अरणि ली, सरक और अरणि का मंथन किया । मंथन करके उसमें से आग उत्पन्न करता है, फिर अग्नि को जलाता है जला कर उसमें समिधा रूप काष्ठादि का प्रक्षेप किया, अग्नि के देदीप्यमान होने पर अग्नि की दक्षिण दिशा की ओर सात वस्तुएं स्थापित कर दीं। ये सात वस्तुयें इस प्रकार हैं Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरयावलिका ) [ वर्ग-तृतीय १. सक्थ, २. बल्कल, ३, स्थान, ४. शैय्या - भाण्ड ५. कमंडलु. ६. दण्ड- दारु, ७. और स्वयं इन सातों वस्तुओं को स्थापित कर उसने मधु-घृत और चावलों से हवन किया । चरु से बलि प्रदान की । बलि से वैश्वानर की पूजा की ओर फिर अतिथि पूजा करता है उसके बाद वह स्वयं भोजन करता है । ( २१७ ) टीका - प्रस्तुत प्रकरण में सोमिल ब्रह्मर्षि द्वारा तापसों के उपकरणों सहित पूर्व दिशा के स्वामी सोमदेव की पूजा का वर्णन विधि सहित किया गया है। साथ में अतिथि पूजा एवं वैश्वानर देव को बलि देने का कथन है । प्रस्तुत सूत्र में सोमिल के पारणे का बिस्तार से वर्णन है । वृत्तिकार ने निम्नलिखित शब्दों के अर्थ इस प्रकार किये हैं उडए त्ति - उटज :- तापसाश्रमगृहं - अर्थात् तापसों के रहने की कुटिया । कठिणसंकाइयंति - वंशमय तापस-भाजन विशेष ततश्च तस्य संकायिक- "भारोद्वहनयन्त्रम् किढिणसंकायिकम् " - अर्थात् बांस की लकड़ी से बने एक भाजन - विशेष (बंहगी ) को fafढण और शेष भाण्डोपकरण को "संकाइ" कहते हैं । पस्थाणे पस्थिति - प्रस्थाने परलोक साधन-मार्गे प्रस्थितं प्रवृत्तं फलाद्याहरणार्थं गमने वा प्रवृत्तम् - परलोक-साधना के मार्ग पर चलते हुए अथवा फलादि लाने के लिये गमन करते हुए । दर्भ और कुशा में अन्तर इतना ही है कि दर्भ समूल होती है और कुशा मूल-रहित होती वेद बड्डू's वडिता - वेदिका देवाचंन स्थानम् वर्धनी बहुकारिका तां प्रयुक्त इति वर्धयति प्रमार्जयति इत्यर्थ: - पूजा के स्थान को झाड़ू से स्वच्छ किया । साहेइ - बलि वइस्स देवं करोति त्ति- चरुः भाजन- विशेष । तत्र पच्यमानं द्रव्यमपि चरुरेव तं चरुबलि मित्यर्थः साधयति, बलि वइस्सदेवं त्ति-बलिना वैश्वानरं पूजयति, इत्यर्थः चरु एक भाजन का नाम है, उसमें जो पकाया जाए उसे भी चरु ही कहते हैं, अर्थात् चरु बलि का दूसरा नाम है, वह उसको तैयार करता है फिर पकाकर वैश्वानर की पूजा करता है । देव-पिउ-कयकज्जेत - देवानां पितॄणां कयकज्जं - कृतकार्यं - जलाञ्जलि - दानेन - अर्थात् देव और पितरों के निमित्त अंजलि से जल-दान किया । स्थान - शब्द से ज्योति स्थान व पात्र स्थान जानना चाहिये । उबलेवणं - से गोबर का लेप भौर "आयंते" से जलद्वारा कूड़ा-करकट को दूर करना 'जानना चाहिये । Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ग-तृतीय ] (२१८) [ निरयावलिका चोक्खे-शब्द से अशुचि द्रव्य दूर करना है । अतिथि-पूजा से आगन्तुओं का प्रादर सत्कार है। पत्तामोडं-अर्थात् तरुशाखा मोडित पत्राणि । शब्द से वनस्पति अथवा वृक्ष की शाखा के पत्तों का तोड़ना जानना चाहिये। सक्य-यह संन्यासियों का एक विशेष उपकरण जानना चाहिये। शय्या-भाण्ड-शब्द से शय्या उपकरण जानने चाहिये। उत्थानिका-अब सूत्रकार द्वितीय षष्ठक्षपण के विषय में कहते हैं मूल--तए णं से सोमिले महाणरिसी दोच्चंसि छठ्ठख मणपारणगंसि तं चेव सव्वं भाणियन्व, जाव आहारं आहारेइ, नवरं इमं नाणांदाहिणाए दिसाए जमे महाराया पत्थाणे पत्थियं अभिरक्खउ सोमिलं माहणरिसिं जाणि य तत्थ कंदाणि य जाव अणुजाणउ त्ति कटु दाहिणं दिसि पसरइ । एवं पच्चत्थिमे वरुणे महाराया जाव पच्चत्थिमं दिसि पसरइ। उत्तरेणं वेसमणे महाराया जाव उत्तरं दिसि पसरइ। पुत्वविसागमेणं चत्तारि बिदिसाओ भाणियवाओ जाव आहारं आहारेइ॥१० छाया-ततः खलु स सोमिलो ब्राह्मणऋषिद्वितीये षष्ठक्षपणपारणके तदेव सर्व भणितव्यं यावद् आहारमाहारयति । नवर मिद नानात्वम्-दक्षिणस्यां दिशि यमो महाराजः प्रस्थाने प्रस्थितमभिरक्षतु सोमिलं ब्रह्मर्षि, ये च तत्र कन्दाश्च यावत् अनुजानातु, इति कृत्वा दक्षिणां दिशं प्रसरति । एवं पश्चिमे खलु वरुणो महाराजो यावत् पश्चिमां दिशं प्रसरति । उत्तरे खलु वैश्रमणो महाराजो यावद् उत्तरां टिशं प्रसरति । पूर्वदिग्गमेन चतस्रो विदिशो भणियव्या यावद् आहारमाहारयति ॥१०॥ पदार्थान्वयः-तएणं-तत्पश्चात्, सोमिले माहण रिसी-सोमिल नामक ब्रह्मर्षि, वोच्चंसि छद्रुखमण पारणंसि-दूसरे षष्ठ क्षपण के पारणे में, तं चेव सव्वंभाणियर्व-पहले के समान सब कहना चाहिये, जाव०-यावत्, आहारं आहारेइ-आहार ग्रहण किया, मवरं इमं नाणत्तंइतना विशेष है, दाहिणाए बिसाए-दक्षिण दिशा के, जमे महाराया-महाराज यम से, पत्थाणे पत्थियं-प्रस्थान मार्ग में चलते हुए (प्रार्थना करता है कि वे), अभिरक्खउ-रक्षा करें, सोमिलं माहणरिसि-सोमिल ब्रह्मर्षि की, जाणि य तत्थ कंदाणि-जो वहां कन्द प्रादि हैं; Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरयावलिका ] ( २१६ ) जाव० - यावत्, अणजाणउ — उनको ग्रहण करने की आज्ञा प्रदान करें; प्रार्थना करके, दाहिणं दिसी पसर - वह दक्षिण दिशा की ओर चला गया । (वर्ग-तृतीय त्ति कट्टु - ऐसी एवं पच्चत्थमेणं - इस प्रकार पश्चिम दिशा में, वहणे महाराया - महाराज वरुण की आज्ञा आदि लेकर जाव० - यावत् पच्चत्थिमं दिसि पसरइ-पश्चिम दिशा में चला गया । वेसमणे महाराया - महाराज वैश्रमण की आज्ञा आदि ग्रहण कर, जाव० - यावत् उत्तरं दिसि पसरइ -उत्तर दिशा की ओर चल पड़ा । उत्तरेणं- - उत्तर दिशा में पुव्वदिसा गमेणं - पूर्व दिशा में गमन की तरह, चत्तारि विदिसाओ- चारों विदिशाओं के सम्बन्ध में भी, भाणियव्वाओ - कहना चाहिये, जाव० - याबत्, आहारं आहारेइ - जब तक कि प्रहार ग्रहण करता है ।। १० ।। मूलार्थ - तत्पश्चात् उस सोमिल ब्रह्मर्षि ने दूसरे षष्ठखमण व्रत के पारणे के लिये जो कुछ किया वह पहले किए हुए वर्णन जैसा जानना चाहिये। यहां इतना ही विशेष ज्ञातव्य है कि इस बार सोमिल ब्राह्मण दक्षिण दिशा की ओर मुख करके महाराज यम से प्रार्थना करता है कि मार्ग में चलते हुए सोमिल ब्राह्मण की रक्षा करें। ऐसी प्रार्थना करके वह दक्षिण दिशा की ओर चल देता है । इसी प्रकार वह पश्चिम दिशा में महाराज वरुण की प्रार्थना करके चला गया । उत्तर दिशा में वह महाराज वैश्रमण की प्रार्थना करके चला गया । पूर्व दिशा की भांति चारों दिशाओं के स्वामियों की आज्ञा लेकर उसने स्वयं भोजन किया ॥ १० ॥ टीका - प्रस्तुत सूत्र में लोमिल नामक ब्रह्मर्षि द्वारा विभिन्न दिशाओंों के लोकपालों से ग्रहण की गई प्रार्थना एवं आज्ञा का वर्णन है। वह दक्षिण, पश्चिम और उत्तर दिशा में जाकर अपनी तपस्या को पूर्ण कर पारणा करता है । दक्षिण दिशा के दिग्पाल यम, पश्चिम दिशा के वरुण और उत्तर दिशा के दिग्पाल वैश्रमण माने गए हैं। वह उन दिशाओं के दिग्पालों से कन्द-मूल आदि ग्रहण करने की आज्ञा लेता है। सभी कृत्य वह प्रत्येक दिशा में एक समान करता है, अन्तर दिशाओं और लोकपालों का है, उसके धर्मकृत्यों में कोई अन्तर नहीं पड़ा ॥ १०॥ Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ग-तृतीय ( २२०) [निरयावलिका उत्थानिका- सूत्रकार अब सोमिल ब्राह्मण के अन्य कृष्यों का वर्णन करते हैं मूल-तए णं तस्स सोमिलमाहणरिसिस्स अण्णया कयाइ पुत्वरत्तावरत्तकालसमयंसि अणिच्चजागरियं जागरमाणस्स अयमेयारूवं अज्झथिए जाव समुप्पज्जित्था-एवं खलु अहं वाणारसीए नयरोए सोमिले नाम माहणरिसी अच्चंतमाहणकुलप्पसूए, तएणं मए वयाई चिण्णाई जाव जवा निक्खित्ता । तएणं मए वाणारसीए जाव पुप्फारामा य जाव रोविआ । तएणं मए सुबहु लोह० जाव घडावित्ता जाव जेठ्ठपुत्तं कुटुंबे ठावित्ता जाव जेठ्ठपुत्तं आपुच्छित्ता सुबहु लोह० जाव गहाय मुंडे जाव पव्वइए वि य णं समाणे छठें छठेणं जाव विहरामि, तं सेयं खल मम इयाणि कल्लं पाउ जाव जलते बहवे तावसे दिवा-भट्ठे य पुत्वसंगइए य परियाय - संगइए य आपुच्छित्ता आसमसंसियाणि य बहूइं सत्तसयाई अणमाणइत्ता वागलवत्थनियत्थस्स किढिणसंकाइयगहियसभंडोवगरणस्स कट्ठमुद्दाए मुहं बंधिता उत्तरदिसाए उत्तराभिमहस्स महपत्थाणं पत्थावेत्तए । एवं संपेहेइ, संपेहित्ता कल्लं जाव जलते बहवे तावसे य दिट्ठा-भट्ठ य पुत्वसंगइए य तं चैव जाव कट्ठमुद्दाए मुहं बंधइ, बंधित्ता अयमेयारूवं अभिग्गहं अभिगिण्हइ, जत्थेव णं अहं जलंसि वा एवं थलंसि वा दुग्गंसि वा निन्नंसि वा पव्वयंसि वा विसमंसि वा गड्डाए वा दरीए वा पक्खलिज्ज वा पवडिज्ज वा, नो लल में कप्पइ पच्चत्तिए ति कट्ट अयमेयारू वं अभिग्गहं अभिगिण्हइ, अभिगिण्हित्ता उतराए दिसाए उत्तराभिमुहमहपत्थाणं पत्थिए से सोमिले माहणरिसी पवावरण्हकालसमयंसि जेणेव असोगवरपायवे तेणेव उवागए असोगवरपायवस्स अहे किढिणसंकाइयं ठवेइ, ठवित्ता वेदि वड्ढइ, वडिढत्ता उवलेवणसंमज्जणं करेइ, करित्ता दमकलसहत्थगए जेणेव गंगा महानई जहा सिवो जाव गंगाओ महानईओ पच्चुत्तरइ पच्चुत्तरित्ता जेणेव Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरयावलिका] ( २२१) (वर्ग-तृतीय - असोगवर पायवे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता दब्भेहि य कुसेहिय वालुयाए य वेदि रएइ, रइत्ता सरगं करेइ, करित्ता जाव बलिवइस्तदेवं करेइ, करित्ता कट्ठमुद्दाए मुहं बंधेइ, तुसिणीए संचिट्ठइ ॥११॥ छाया-ततः खलु तस्य सोमिलब्रह्मरन्यदा कदाचित् पूर्वरात्रापररात्रकाल समये अनित्यजागरिकां जाग्रतोऽयमेतद् प आध्यात्मिको यावत् समुदपद्यत, एवं खलु अहं वाराणस्यां नगर्यां सोमिलो नाम ब्राह्मणऋषिरत्यन्त ब्राह्मणकूलप्रसूतः, ततः खलु मया व्रतानि चीर्णानि यावत् यपाः निक्षिप्ताः, ततः खल मया वाराणस्यां यावत् पुष्पारामाश्च यावद् रोपिताः, ततः खलु मया सुबहलोह० यावद घडयित्वा यावत् ज्येष्ठपुत्रं कुटुम्बे स्थापयित्वा यावद् ज्येष्ठपुत्रमापृच्छय सबलोह. यावद् गृहीत्वा मुण्डो यावत् प्रवजितोऽपि च खलु सन् षष्ठषष्ठेन यावत् विहरामि, तच्छ् यः खल ममेदानी कल्ये प्रादुर्यावज्ज्वलति बहून तापसान् दृष्ट-भ्रष्टांश्च पूर्वसङ्गतिकांश्च पर्यायसंगतिकांश्च आपच्छ्य आश्रनसंश्रितानि च बहूनि सत्त्वशतानि अनुमान्य वल्कलवस्त्रनिवासितस्य किढिणसंकायिकगहीतसभाण्डोपकरणस्य काष्ठमुद्राया मुखं बध्वा उत्तरदिशि उत्तराभिमुखस्य महाप्रस्थानं प्रस्थापयितुम, एवं संप्रेक्ष्य कल्ये यावत् ज्वलति बहून तापसांश्च दृष्ट-भ्रष्टांश्च पूर्वसङ्गतिकांश्च तदेव यावत् काष्ठमुद्रया मुखं बध्नाति, बध्वा इममेतद् पमभिग्रहमभिगृह्णाति-यत्रेव खलु अहं जले वा, एवं स्थले वा दुर्गे वा निम्ने वा पर्बते वा विषमे व गर्ते वा दाँ वा प्रस्खलेयं वा प्रपतेयं वा नो खलु मे फेल्पते प्रत्युत्थातुं, इति कृत्वा इममेतद्र पमभिग्रहमभिगृह्णाति, उत्तरस्यां विशि उत्तराभिमखमहाप्रस्थान प्रस्थितः । स सोमिलो ब्रह्मषिः पूर्वापराहकालसमये यत्रैव अशोकवरपादपस्तत्रैवोपागतः । अशोकवरपादपस्याधः किढिणसंकायिक स्थापयति, स्थापयित्वा वेदि वर्धयति, वर्धयित्वा उपलेपनसम्मान, करोति, कृत्वा दर्भकलशहस्तगतो यत्रैव गङ्गा महानदी यथा शिवो यावद् गङ्गातो महानदीतः प्रत्युत्तरति, प्रत्युत्तीय यत्रैव अशोकवरपादपस्त्रवोपागच्छति, उपागत्य दर्भेश्च कुशेश्च बालुकया च वेदि रचयति रचयित्वा शरकं करोति, कृत्वा यावद् बलिवैश्वदेवं करोति, कृत्वा काष्ठमुद्र या मुखं बध्नाति तूष्णीकः संतिष्ठते ॥११॥ पदार्थान्वयः-तएणं-तत्पश्चात्, तस्स सोमिल माहणरिसिस्स-उस सोमिल ब्रह्मर्षि के मन में, अण्णया कयाइ-एक बार, पुवरतावरत्तकाल-समयंसि-पूर्व रात्रि और अपर रात्रि के बीच के समय में अर्थात् अर्ध रात्रि में, अणिच्चजागरियं जागरमाणस्स-अनित्य भावना में लीन होकर जागते हुए, अयमेयारूवे-इस प्रकार का, अज्झथिए-आध्यात्मिक संकल्प, जाव०-यावत्, समुज्जित्था उत्पन्न हुआ, एवं खलु-इस प्रकार निश्चय ही, अहं-मैं, चाणारसीए नयरोएवाराणसी नगरी में; सोमिलनामं माहणरिसी-सोमिल नामक ब्राह्मण ऋषि, अच्चन्तमाहणकुलप्पसूए-अत्यन्त उत्तम ब्राह्मण-कुल में पैदा हुआ हूं, तएवं मए-तत्पश्चात् मैंने, Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वग - तृतीय ] ( २२२ ) - [ कल्पावतसिका वयाइं चिण्णाई - व्रतों का आचरण किया, जाव० - यावत्, जवा निक्खित्ता - यज्ञ-स्तम्भ स्थापित किये, तरणं एतत्पश्चात् वाणारसीए - वाराणसी नगर के बाहर, जाव० - यावत्, पुप्फारामा य जाव रोविया - पुष्पों फलों के बाग आदि लगवाए, तएणं - तत्पश्चात् मए - मैंने, सुबहु ० लोह घड़ा वित्ता-बहुत से लोहे के कड़ाहे कछियां आदि बनवा कर जाव० - यावत्, जेट्ठपुत्तं - अपने बड़े पुत्र को, कुटुम्बे ठाविता - कुटुम्ब का भार सौंप कर जाव० - यावत् जेठपुत्तं आपुच्छिता -बड़े पुत्र से पूछ कर सुबहु लोह० जाव० गहाय- बहुत से लोहे के भाण्डोपकरण ग्रहण कर, मुण्डे जाव पव्वइए-मुण्डित होकर प्रव्रजित हो गया, वि य णं समाणे- और प्रव्रजित हो जाने पर, छट्ट छट्टणं - षष्ठ भक्त उपवास तप करता हुआ, जाव विहरामि -- विचरण करता हूं । तं सेयं खलु -- अतः मेरे लिये यही श्रेयस्कर है, मम इयाणि – कि मुझे अब,.. कल्लं पाउ- कल प्रातः काल ही, जाव जलन्ते – सूर्य के निकलने पर, बहवे तावसे- बहुत से तापसों को दिट्ठा भट्ट - जिन्हें मैंने आंखों से दूर होते देखा है, य पुव्वसंगइए - जो दीक्षा से पूर्व के मेरे मित्र हैं, य परियाय संगइए - एवं दीक्षा - काल से बाद भी मेरे मित्र रह चुके हैं, आपुच्छित्ता - उन सबसे पूछ कर आसम संसियाणि - और आश्रम में ठहरे हुए, य बहूहि-जो बहुत से, सत्त-सधाई - सैंकड़ों की तादाद में हैं, अणुमाणइत्ता- उन सबका आदर-सम्मान करके, वागलवत्थ नियत्थस्स - बल्कल वस्त्र धारण करके, किढिणसंकाइय गहिय-सभंडोवगरणस्स - अपनी वंहगी में रखे हुए अनेकविध भण्डोपकरण लेकर. कटुमद्दाए- काष्ठ की मुद्रा से, महं बंधित - मुख को बांध कर, उत्तर दिसाए - उत्तर दिशा में, उत्तराभिमहस्स - उत्तर दिशा चलता रहूं । एवं कल्लं जाव जलते की ओर मुख करके, महापत्थाणं पत्थवेत्तए - महापथ अर्थात् मृत्यु मार्ग पर संपेइ - इस प्रकार विचार करता है (और), संपेहित्ता विचार करके प्रातःकाल सूर्योदय होते ही, बहवे तावसे य-बहुत से तापसों को जिन्हें पहले दिट्टा-भट्ठे घआंखों से दूर हो चुके थे, पव्वसंगइए - जो पहले साथ-साथ रह चुके थे, तं चैव-उन सवको, जाव०-3 - जैसा कि पहले वर्णन किया जा चुका है, क मुद्दाए मुहं बंधाई - काष्ठ की मुद्रा से अपना मुंह बांध लेता है, बंधिता - प्रोर मुख को बांध कर अयमेयारूवं - इस प्रकार का, अभिग्ग अभिहिs - अभिग्रह धारण करता है. जत्थेव णं-जहां कहीं भी अहं - मैं, जलसि जल में, वा एवं थलंसि – अथवा शुष्क भूमि पर, वा दुग्गंसि - अथवा किसी भी दुर्गंम प्रदेश में. वा निनंसि - किसी निम्न स्थान पर, पठत्रयंसि वा- किसी पर्वत पर विसमंसि वा - विषम मार्ग पर गड्डुए वा- किसी गड्ढे में, दरीए वा - किसी पर्वत की दरार में वा - फिसल कर गिर जाऊं तो, नो खल में कप्पड़ पच्च टिठतए मेरे लिये वहां से उठना उचित न होगा तिकट - ऐसा निश्चय करके अयमेवारूबं - इस प्रकार का अभिग्गहं अभिगिण्हs - अभिग्रह धारण कर लेता है, अभिगिन्हित्ता - ऐसा अभिग्रह धारण करके, उत्तराए बिसाए- ' उत्तर दिशा में, उत्तराभिमुहमहपत्थाणं पत्थिए — उत्तराभिमुख होकर महापथ ( मृत्यु - मार्ग) पर चल पड़ा, से सोमिले माह रिसी - वह सोमिल नामक ब्राह्मण ऋषि, पुव्वावरण्हकाल समयंसि - पक्खलिज्ज वा पडविज्ज Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरयावलिका) (२२३) [ वर्ग- तृतीय . दिन के तीसरे प्रहर में, यत्रैव असोगवरपायवे - जहां पर अशोक नामक श्रेष्ठ वृक्ष था, तेणेण उवागए-वहीं पर आ गया. असोगवरपायवस्स अहे-उस सन्दर अशोक वक्ष के नीचे किटणासंकाइयं-अपनी बंहगी को, ठवेइ-रख देता है, ठवित्ता वेदि वड्ढइ-वेदिका बनवाता है, वढित्ता उवलेवण संज्च गं करेह-उपलेपन एवं संमार्जन करता है, करित्ता-और करके, दम-कलसहत्थ गए-दूब और कलश आदि हाथ में लेकर, जेणेव गंगा महानई-जहां गगा महानदी थी, जहा सिवो-और शिवराज ऋषि के समान, जाव०-यावत्, गंगाओ महानईओ-महानदी गंगा में, पच्चुत्तरइ - स्नानादि के लिये प्रवेश करता है, पच्चुत्तरित्ता-और प्रवेश करके, जेणेव असोगवरपायवे-जहां पर अशोक. नामक वृक्ष था, तेणेव उवागच्छइ-वहों पर आता है, उवागच्छित्ता-और वहां आकर, दहिं य कुसेहि य बालुयाए-दर्भ कुशा और बालुका से, वेदि रएइ-वेदिका की रचना करता है, रइत्ता सरगं करेइ-सरग और अरणि से अग्निमन्थन करता है, करिता जाव० बलिव इस्स देवं करेइ-और अग्नि मन्थन करके बलि वैश्वदेव करता है, करित्ता कट्ठमद्दाए मुहं बंधेइ-और फिर काष्ठ की मुद्रा से अपना मुंह बांधता है, तुसिणीए संचिटठड-और मौन धारण करके बैठ जाता है ॥११॥ मूलार्थ-तत्पश्चात उस लोमिल ब्राह्मण ऋषि के हृदय में एक बार अर्धरात्रि के समय अनित्यता का विचार उत्पन्न हुआ और वह जागने लगा, जागते हुए उसके मन में इस प्रकार का आध्यात्मिक (आन्तरिक) संकल्प उत्पन्न हुआ, मैं वाराणसी नगरी में सोमिल नामक ब्राह्मण अत्यन्त महान कुल में उत्पन्न हुआ हूं। मैंने अनेक प्रकार के व्रतों का आचरण किया है और अनेक यज्ञ-स्तम्भ स्थापित किए हैं । तत्पश्चात् वाराणसी .नगरी के बाहर मैंने अनेक फूलों फलों आदि के वाग लगवाए हैं । और फिर मैंने बहुत से लोहे के कड़ाहे और कड़छिया आदि बनवाये और फिर अपने बड़े पुत्र को कुटुम्ब का भार सौप कर और उस ज्येष्ठ पुत्र से पूछ कर बहुत से लोहे आदि के भाण्डोपकरणों का निर्माण करवाया और स्वयं मुण्डित होकर प्रवजित हो गया। प्रवजित होकर षष्ठ-भक्त अर्थात् बेले-बेले तप करते हुए विचरण करने लगा। इसलिये अब मेरे लिये यही श्रेयस्कर है कि कल प्रात:काल सूर्योदय होते ही जो बहुत से तापस अब मेरी दृष्टि से ओझल हो चुके हैं, अथवा पहले मेरे संगी-साथी रह चुके हैं उन सबसे परामर्श करके तथा अपने आश्रम में रह रहे सैंकड़ों प्राणियों को सन्मानित करके बल्कलवस्त्र-धारी बनकर वंहगी में अनेक भाण्डोपकरणों को लेकर तथा काष्ठमुद्रा से अपना मुंह बांधकर उत्तराभिमुख होकर उत्तर दिशा की ओर महापथ (मृत्यु Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बर्ग-तृतीय] (२२४ ) [निरयावलिका मार्ग में) प्रस्थान करूं। वह इस प्रकार विचार करता है और विचार करके दुसरे दिन सूर्योदय होने पर उन सब तापसों को जो उसकी नजरों से दूर हो चुके थे, जो पहले साथ-साथ रह चुके थे उनसे परामर्श करके काष्ठ मुद्रा से अपना मुंह बांधकर वह इस प्रकार का अभिग्रह धारण कर लेता है कि मैं जहां पर भी होऊंगा-जल में, थल में, किसी कठिन मार्ग में, किसी निम्न स्थान पर किसी पर्वत पर किसी विषम मार्ग में, किसी गड्ढे में, पर्वत की दरार में कहीं पर भी फिसल जाऊं अथवा गिर पडूं तो मेरे लिये यही उचित होगा कि मैं वहां से उठू नहीं। इस प्रकार वह ऐसा अभिग्रह धारण कर लेता है और अभिग्रह धारण करके उत्तराभिमुख होकर उत्तर दिशा में महापथ अर्थात् मृत्यु-मार्ग पर चल पड़ता है। अब वह सोमिल ब्रह्मर्षि दिन के अन्तिम प्रहर में जहां पर एक उत्तम जाति का अशोक वृक्ष था वहीं पर आ पहुंचा और उस श्रेष्ठ अशोक वृक्ष के नीचे उसने अपनी बंहगी रख दो और रख कर एक वेदिका बनाई, उस वेदिका में उपलेपण -संमार्जन किया और ऐसा करके हाथ में दूब और कलश लेकर जहां पर महानदी गंगा थी वहां शिव राज ऋषि के समान वह गंगा नदी में स्नानार्थ उतरा और उतर कर स्नानादि से निवृत्त हुआ और जहां अशोक वृक्ष था वहां पर आ गया । आकर दूब कुशा और बालुका से उसने वेदिका बनाई और बना कर सरक और अरणि से अग्नि-मन्थन किया तथा अग्नि-मन्थन करके बलिवैश्वदेव करता है, और फिर काष्ठ-मुद्रा से अपना मुंह बांध लेता है और मौन धारण करके बैठ जाता है ॥११॥ टीका-सूत्रकार के कुछ शब्द वृत्तिकार के मन में विचारणीय हैं-कट्ठमुद्दाए बंधित्ताकाष्ठमुद्रा मुंह पर मौनवृत्ति के चिन्ह के रूप में बांधी जाती थी। वृत्तिकार इस विषय में पुन। लिखते हैं-कट्ठमुद्दाए मुहं बंधित्ता-यथा काष्ठमयी पुत्तलिका न भाषते एवं सोऽपि मौनावलम्बी भविष्यति । यता मुरखन्ध्राच्छादकं काष्ठखण्डमुभयपाल छिद्रद्वय-प्रेषित दोरकान्वितं मुखबन्धनं, काष्ठमुद्रया मुखं बध्नाति-मुख-विवर के ढकने के लिये काष्ठ-खण्ड के दोनों ओर छिद्र किए और दोनों छिद्रों में धागा डाल कर मुख पर बांधा। इसी काष्ठ-खण्ड को "काष्ठमुद्रा" कहा जाता है। महापत्थाणं पत्थावेत्तए-यह पद मृत्यु की अपेक्षा रखकर दिया गया है। वृत्तिकार ने इस संदर्भ में कथन किया है कि महाप्रस्थानं पदं इति मरण काल। ततः प्रस्थितः। Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २२५ ) | वर्ग-तृतीय "शिव" शब्द का भाव यह कि जैसे शिव राजर्षि ने किया था अर्थात् वह राज्य त्याग कर तापस बना था । सोमिल ने भी वैसा ही किया। राजा शिवि भगवान् महावीर का उपदेश सुनकर श्रमण बन गया था । इसका वर्णन भगवती सूत्र के ग्यारहवें शतक में प्राप्त होता है । निरयावलिका । मूल - तणं तस्स सोमिलमाहणरिसिस्स पुव्वरत्तावरत - काल समयंसि एगे देवे अंतियं पाउन्भूए । तएण से देवे सोमिलं माहणं एवं arrer - हं भो सोमिलमाहणा ! पव्वइया ! दुप्पव्वइयं ते । तएणं से सो मिले तस्स देवस्स दोच्चपि तच्चपि एयमट्ठे नो आढाइ नो परिजाणइ जाव सिणीए संचिट्ठइ । तएणं से देवे सोमिलणं माहणरिसिणा अणाढाइज्जमाणे जामेव दिसि पाउब्भूए तामेव दिसं पडिगए । एणं से सोमिले कल्लं जाव जलते वागलवत्थनियत्थे किठिणसंकाइयं गहाय गहियभंडोवगरणे कट्ठमुद्दाए मुहं बंधइ, बंधित्ता उत्तराभिम् हे संपत्थिए । तरणं से सोमिले विइयदिसम्मि पच्छावरण्हकाल समयंसि जेणेव सत्तवन्ने तेणेव उवागच्छ, उवागच्छित्ता सत्तवण्णस्स अहे किटिण-संकाइयं ठवेइ, ठवित्ता वेई वड्ढेइ, वड्ढित्ता जहा असोगवरपायवे जाव अरिंग हुई कट्ठमुद्दाए मुहं बंध, तुसिणीए सचिट्ठइ ॥ १२ ॥ छाया - ततः खलु तस्य सोमिलस्य ब्राह्मणऋषेः पूर्वरात्रापररात्रकालसमये एको देवोऽन्तिकं प्रादुर्भूता । ततः खलु स देवः सोमिलं ब्राह्मणमेवमवादीत् हे भो सोमिलब्राह्मण ! प्रव्रजित ! दुष्प्रवजितं ते । ततः खलु सः सोमिलस्तस्य देवस्य द्वितीयमपि तृतीयमपि एलमर्थं नो आद्रियते नो परिजानाति यावत् तूष्णीकः संतिष्ठते । ततः खलु स देवः सोमिलेन ब्रह्मणषणा अनाद्रियमाण यस्थादिशः प्रादुर्भूतस्तामेव दिशं प्रतिगतः । ततः खलु स सोमिलः कल्ये यावत् ज्वलति वल्कलवस्त्रनिवसितः किढिणसां कायिकं गृहीत्वा गृहीतभाण्डोपकरणः काष्ठमुद्रया मुखं बध्नाति, बद्ध्वा उत्तराभिमुखः संप्रस्थितः । ततः खलु स सोमिलो द्वितीयदिवसे पश्चादपराह्नकालसमये यत्रैव सप्तपर्णः तत्रैवोपागच्छति, उपागत्य सप्तपर्णस्य अधः किंढिणसांका थिकं स्थापर्यात, स्थापयित्वा वेद वर्धयति, वर्धयिश्वा ter अशोक रपादपे यावत् अग्नि जुहोति, काष्ठमुद्रया मुखं बध्नाति, तूष्णीकः संतिष्ठते ॥ १२ ॥ - पदार्थान्वयः – तएण – तत्पश्चात्, तस्स सोमिलमाहणरिसिस्स - उस सोमिल नामक ब्राह्मण ऋषि के पुव्वरत्तावरतकाल समयसि - पूर्व और अपर रात्रि के मध्य भाग में - श्रर्थात् मध्य Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ग-तृतीय ] ( २२६) । निरयावलिका - रात्रि के समय, एगे देवे-एक देवता, अन्तियं-उसके समक्ष, पाउम्भूए-प्रकट हुआ। तएणं से देवे-तब उस देवता ने, सोमिलं माहणं-सोमिल नामक ब्राह्मण से, एवं वयासी-इस प्रकार कहा, हं भो सोमिल माहणा ! पव्वइया- हे प्रवजित सोमिल ब्राह्मण, दुष्पव्वइयं ते-तेरी प्रव्रज्या दष्प्रव्रज्या है। तएणं से सोमिले-तब वह सोमिल ब्राह्मण, तस्स देवस्स- उस देवता के द्वारा, दोच्चपि तच्चंपि-दो तीन बार कहे जाने पर भी, एयम-उसकी बान का, नो आढाइनो परिजाणइ-न तो उसकी बात का प्रादर करता है और न ही उसकी बात पर कोई ध्यान देता है, जाव०-यावत्, तुसिणीए संचिट्ठा-अपितु मौन धारण करके अपने स्थान पर ही बैठा रहता है। तएणं से देवे-तब वह देवता, माहणरिसिणा-ब्राह्मण ऋषि द्वारा, अणाढाइज्जमाणे-तिरस्कृत होकर, जामेवदिसि पाउन्भूए-जिस दिशा में प्रकट हुआ था, तामेव दिसि पडिगए- उसी दिशा मैं लौट गया। तएणं से सोमिले-तदनन्तर वह सोमिल, कल्लं जाव जलते-दूसरे दिन प्रात:काल सूर्योदय होते ही, वागलवत्थ-नियन्थे-बल्कलवस्त्र धारण किए हुए, किढिणसंकाइयं गहाय-अपनी बंहगी को उठा कर, गहियभंडोवगरणे-और अपने भाण्डोपकरण लेकर, कट्ठमुद्दाए मुहं बंधई-काष्ठ मुद्रा से अपना मुख बांध लेता है, (ोर) बांध कर, उत्तराभिमुहे संपत्थिए - उत्तर की तरफ मुंह करके चल देता है, तएणं से सोमिले-तत्पश्चात् वह सोमिल, विइयविसम्मि-दूसरे दिन, पच्छावरहकाल समयंसि-अपराह्नकाल के अन्तिम प्रहर में, जेणेव सत्तवन्ने-जहां सप्तपर्ण नामक वृक्ष था, तेणेव उवागच्छइ-वहां पर आ जाता है, (और), उवागच्छित्ता , वहां भाकर, सत्त. बस अडे-उस सप्तपर्ण वृक्ष के नोचे, किढिणसंकाइयं ठवेइ-अपनी बंहगी को रख देता है. ठवित्ता-और रख कर, वेइंद-वेदी की रचना करता है. वड़िता-और वेदिका की रचना करके, जहा असोगवरपायवे-जैसे पहले अशोक वृक्ष के नीचे, जाव-यावत् अर्थात् पूर्ववत् स्नानाबि करके, अगि हुणइ-अग्नि में हवन करता है, कठुमुद्दाए मुहं बंधइ-काष्ठ मुद्रा से अपना मुंह बांध लेता है, तुसिणीए संचिट्ठइ-और मौन होकर वहीं बैठ जाता है ॥१६॥ मूलायं-तत्पश्चात् उस सोमिल नामक ब्राह्मण ऋषि के सामने अर्धरात्रि एक देव प्रकट हुआ और उस देवता ने उस सोमिल नामक ब्राह्मण से इस प्रकार कहा-हे प्रव्रजित सोमिल ब्राह्मण ! तेरे द्वारा धारण को गई प्रव्रज्या दुष्प्रवज्या है। किन्तु सोमिल ब्राह्मण ने उस देवता के द्वारा दो-तीन बार कहने पर भी उसकी बात का कोई सम्मान नहीं किया और न ही उसकी ओर कोई ध्यान दिया, अपितु चुपचाप अपने ही स्थान पर बैठा रहा। तत्पश्चात् वह देवता सोमिल ब्राह्मण ऋषि द्वारा तिरस्कृत होकर जिस दिशा में प्रकट हुआ था उसी दिशा में लोट गया। Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरयावलिका) ( २२७) [वर्ग-ततीय - तत्पश्चात् वह सोमिल दूसरे दिन प्रात:काल सूर्योदय होते हो बल्कल वस्त्र धारण करके अपनी बहगो (कांवड़) एवं अपने भाण्डोपकरण आदि लेकर काष्ठमुद्रा से अपना मुह बांध लेता है और मुख को बांध कर उत्तर की ओर मुख करके वहां से चल देता है । तब वह सोमिल दूसरे दिन सूर्यास्त से कुछ पूर्व हो वहाँ पर सप्तरण नामक एक वृक्ष था वहीं पर पहुंच जाता है और पहुंच कर सप्तपर्ण वृक्ष के नीचे अपनी बंहगी रख देता है और रखकर वेदिका का निर्याण करता है और निर्माण करके जैसे पहले दिन अशोक वृक्ष के नीचे पूर्ववत् स्नानादि करके अग्नि में हवन करता है और पुन: अपने मुख पर काष्ठ-मुद्रा बांधकर मौन धारण करके बैठ जाता है ॥१२॥ टोका-प्रस्तुत सूत्र में सभी व्याख्येय प्रकरण अत्यन्त सरल हैं। उत्तर दिशा में सोमिल सप्तपर्ण वृक्ष के सीचे विश्राम एवं अपने हवन कृत्य करता है यही विशेष है ।।१२।। मूल-तए णं तस्स सोमिलस्स पुन्वरत्तावरत्तकालसमयंसि एगे देवे अंतियं पाउन्भूए । तएणं से देवे अंतलिक्खपडिवाने जहा असोगवर पायवे जाव पडिगए । तएणं से सोमिले कल्लं जाव जलते वागलवत्थ नियत्थे किढिणसंकाइयं गिण्हइ, गिव्हिइत्ता कट्ठमुद्दाए मुहं बंध इ, उत्तरदिशाए · उत्तराभिमुहे संपत्थिए ॥१३॥ छाया-ततः खलु तस्य सोमिलस्य पूर्वरात्रापररात्रकाल समये एको देवोऽन्तिकं प्रादुर्भतः । ततः खल स देवोऽन्तरिमप्रतिपन्नः यथा अशोकवरपादपे यावत् प्रतिगतः । तत खुल स सोमिल: कल्पे यावत् ज्वलति वल्कलवस्त्रनिवसितः किढिणसाङ्कायिकं गृह्णाति, गृहीत्वा काष्ठमुद्रया मुखं बध्नाति, बवा उत्तराभिमुखः संप्रस्थितः ॥१३॥ पदार्थान्वयः-तएणं-तत्पश्चात्, तस्स सोमिलस-उस सोमिल ब्राह्मण के, पुवरत्ता परत कालसमयंसि-अपराह्नकाल अर्थात् दिन के अन्तिम प्रहर में, एगे देवे-एक देवता, अंतियं पारम्भूए-सामने प्रकट हुना, तएणं से देवे-तब वह देवता, अंतलिक्ख-परिवन्ने-आकाश में खड़े खड़े ही, बहा असोगवरपायवे-और जैसे अशोक वृक्ष के नीचे उसने पहले कहा था वैसे ही कह कर, जाव पडिगए-(सोमिल द्वारा उपेक्षा करने पर वह) लौट गया था, वैसे ही लौट मया । Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ग-तृतीय] (२२८) [निरयावलिक तएण से सोमिले-तत्पश्चात् वह सोमिल, कल्ल जाव जलते-दूसरे दिन सूर्योदय होने पर वागलबत्थ नियत्थे-वल्कल वस्त्र धारण करके. किढिणसकाइयं गिला-अपनी बंहगी उठा लेता है (और , गिण्हिता-उठाकर, कट्ठमुद्दाए मुहं बंधइ-काष्ठ-मुद्रा से अपना मुंह बांधकर, उत्तरदिसाए उत्तराभि मुहे संपत्थिए-उत्तर दिशा की ओर मुख करके उत्तर दिशा में चल दिया।।१३।। मूलार्थ तदनन्तर उस सोमिल के सामने सूर्यास्त से कुछ ही पूर्व एक देवता प्रकट हुआ। तब वह देवता अन्तरिक्ष में ही खड़े-खड़े जैसे अशोकवृक्ष के नीचे बोला था (वैसे ही बोला और ) तिरस्कृत होकर जिधर से आया था उधर ही लौट गया । तत्पश्चात् वह सोमिल दूसरे दिन प्रात:काल के समय सूर्योदय होते हो वल्कल वस्त्र धारण कर अपनी बंहगी उठाता है और उठा कर काष्ठमुद्रा से अपना मुख बांध लेता है और उत्तराभि मुख होकर उत्तर दिशा में हो चल देता है ॥१३॥ टोका-सम्पूर्ण वर्णन अत्यन्त सरल है ।।१३।। मूल--तएणं से सोमिले तइयदिवसम्मि पच्छावरण्हकालसमयंसि जेणेव असोगवरपायवे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता असोगवरपायवस्स अहे किढिणसंकाइयं ठवेइ, वेइं वड्ढेइ जाव गंगं महानई पच्चुसरइ, पच्चत्तरिता जेणेव असोगवरपायवे तेणेव उवागच्छइ, उवागन्छित्ता वेइं रएइ जाब कट्ठमुद्दाए मुहं बंधइ, बंधित्ता तुसिणीए संचिट्ठइ। तएणं तस्स सोमिलस्स पुवरत्तावरत्तकाले एगे देवे अंतियं पाउन्भए तं चैव भणइ जाव पडिगए। तएणं से सोमिले जाव जलते वागलवत्यनियत्थे किढिणसंकाइयं जाव कट्ठमुद्दाए मुहं बंधित्ता उत्तराए दिसाए उत्तराभिमुहे संपत्थिए ॥१४॥ छाया-ततः खलु स सोमिलस्ततीयदिवसे पश्चादपराह्नकालसम्ये यौवाशोकवरपादपस्तत्रयोपागच्छति, उपागत्य अशोकवरपादस्पाधः किढिणसाकायिक स्थापपति, वेदि वर्धयति, यावद् गङ्गा महानदी प्रत्युत्तरति, प्रत्युत्तीर्य यत्रवाशोकवरपादपस्तत्रवोपागच्छति, उपागत्य वेदि रचयति, यावत् Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ वर्ग-तृतीय काष्ठमुद्रयामुखं वनानि, तूष्णीकः संतिष्ठते ततः खलु तस्य सोमिलस्य पूर्वरात्रापररा काले एको hatsन्तिकं प्रादुर्भूतः तदेव भणति यावत् प्रतिगतः । ततः खल् स सोमिलो यावत् ज्वलति वल्कलवस्त्रनिवसितः किढिणसाङ्कायिक यावत् काष्ठमृद्रमा मुखं बध्नाति बद्ध्वा उत्तरस्यां दिशि उत्तराभिमुखं संप्रस्थितः ।। १४ ।। निरंयावलिका । isinIIMIL ( २२६ ) इ दार्थान्वयः -- लएणं - तत्पश्चात्, से सोमिले- वह सोमिल, तइयदिवसम्मि- तीसरे दिन, पच्छावरण्हकाल समयंसि - दिन के चौथे प्रहर में, जेणेव असोगवरपायवे - जहां पर अशोक नामक वृक्ष था। तेणेव उवागच्छइ वहीं पर आ जाता है, उवागच्छिता - वहां आकर, असोगपावस आहे - उस अशोक वृक्ष के नीचे, किठिण संकाइयं अपनी बहंगी को, ठवेइ — रख देता है वे बड्डू - वेदो बनाता है, जाव- पहले की तरह सभी धार्मिक अनुष्ठान करके, गगं महानदीं पच्चत्तर - गंगा महानदी में स्नान करके बाहर आता है, पच्चत्तरिता-और बाहर बाकर, जेणेव असोग बरपायवे - जहां वह अत्युत्तम अशोक नामक वृक्ष था, तेणेव उवागच्छइ-बहीं पर आ जाता है, उवागच्छित्ता- वहां आकर, वेई रएइ - वेदिका का निर्माण करता है, जाबऔर अग्निहोत्र आदि करके, कट्ठमुद्दाए महं बन्धइ - काष्ठ की मुद्रा से अपना मुंह बांध लेता है, धिता और बांध कर तुसिणीए संचिट्ठइ मौन धारण करके बैठ जाता है। 5 · तएणं - तत्पश्चात् तस्स सोमिलस्स- उस सोमिल नामक ब्राह्मण के पुव्वरत्तावरत्तकाले - आधी रात के समय, एगे देवे - एक देवता, अतिय पाउन्भूए- उसके समीप आकर प्रकट हुआ, तं चेब भणइ जाव० - उसने पुन: उससे पहले को तरह ही कहा, पडिगए - और पहले की तरह ही लौट गया, सएणं - तत्पश्चात्, से सोमिले - वह सोमिल, जाव जलते - प्रातःकाल सूर्योदय होने पर, वागलबस्थ - नियत्थे - बल्कल वस्त्र पहन कर किढिण संकाइयं-अपनी बहंगी (कांबड) को उठाकर, कटु मुद्दा म्हं बंघित्ता - काष्ठ की मुद्रा से मुंह को बांधकर, उत्तराए दिलाएउत्तर दिशा में, उत्तरामि मुहे - उत्तराभिमुख होकर, संपत्थिए — उसने प्रस्थान कर दिया || १४ || - मूलार्थ - तत्पश्चात् वह सोमिल नामक ब्राह्मण सायंकाल के समय जहां पर अशोक नामक वृक्ष था वहां पर पहुंच जाता है, पहुंच कर उस अशोक वृक्ष के नीचे अपनी बंहगी ( कांवड़ ) को रख देता है और एक वेदिका का निर्माण करता है, फिर अपनी आस्था के अनुरूप धार्मिक कृत्य करके गंगा महानदी में स्नान करके बाहर आता है और आकर जहां पर अशोक वृक्ष था पुनः वहीं लौट आता है और लौट कर वेदिका का निर्माण कर अग्निहोत्रादि कर्म करता है तथा काष्ठमुद्रा से अपना मुंह बांध कर मौन धारण करके बैठ जाता है । तत्पश्चात् उस सोमिल ब्राह्मण के समक्ष अर्ध रात्रि में एक देव प्रकट होकर पूर्व - Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ग-तृतीय] ( २३०) [निरयावलिका वत् "तेरी यह प्रवज्या दुष्प्रवज्या है" कह कर जहां से आया था कहीं लौट जाता है । तदनन्तर वह सोमिल प्रात:काल सूर्योदय होने पर बल्कल वस्त्र धारण करता है अपनी कांवड़ उठाता है और काष्ठमुद्रा से अपना मुंह बांधकर उत्तराभिमुख होकर उत्तर दिशा में ही चल देता है ।।१४।। टोका-सोमिल उत्तर दिशा में आगे ही आगे बढ़ रहा था। दूसरे दिन उस यात्रा में वह सप्तपर्ण वृक्ष के नीचे ठहरा था, तीसरे दिन के विश्राम में वह अशोक वृक्ष के नीचे ठहरा है। काष्ठ-मुद्रा से मुंह बांधकर चलने की बात का स्पष्टीकरण पहले किया जा चुका है। अब पुन: वह उत्तर दिशा में ही चला । देव ने इस बार भी उसको प्रबज्या को दुष्प्रवज्या बतलाया. किन्तु देव-वचनों की उपेक्षा करके वह अपने अपनाये हुए मार्ग पर ही चलता रहा ।।१४।। मूल-तएणं से सोमिले चउत्थे दिवसे पच्छावरण्हकालसमयंसि जेणेव बडपायवे तेणेव उवागए, बडपायवस्स अहे किढिणसंकाइयं ठवेइ, ठवित्ता वेई वड्ढेइ, उवलेवण संमज्जणं करेइ जाव कट्ठमुद्दाए महं बंधइ, तसिणीए संचिट्ठइ । तइणं तस्स सोमिलस्स पुन्वरत्तावरत्तकाले एगे देवे अंतियं पाउन्भूए तं चैव भणइ जाव पडिगए । तएणं से सोमिले जाव जलंते वागलवत्थनियत्थे किढिणसंकाइयं जाव कट्ठमुद्दाए मुहं दंधइ, बंधित्ता उत्तराए दिसाए उत्तराभिमुहे संपत्थिए ॥१५॥ छाया-ततः खलु स सोमिलः चतुर्थे विवसे पश्चादपराकालसमये यत्रैव बट पादस्तत्रैवोपागतः बटपादपस्याधः किढिणसाङ्घायिकं स्थापयति,स्थापयित्वा वेदि वर्धयति, उपलेपनसंमार्जनं करोति, काष्ठमुद्रया मखं बध्नाति तूष्णीकः संतिष्ठते । ततः खलु तस्य सोमिलस्य पूर्वरावापररात्रकाले एको देवोऽन्तिक प्रादुर्भूतः । तदेव भणति यावत् प्रतिगतः। ततः खल स सोमिलो यावज्ज्वलति वल्कलवस्त्रनिवसत: किढिणसाङ्कायिकं यावत् काष्ठमुद्रया मुखं बध्नाति बद्ध्वा उत्तरस्यां दिशि उत्तराभिमुखः संस्थितः ॥१५॥ पदार्थान्वयः-तएणं से सोमिले- तत्पश्चात् वह सोमिल, चउत्थे दिवसे–चौथे दिन, पच्छावरण्ड-काल-समयंसि-दिन के अन्तिम प्रहर में (सायं काल के समय, जेणेव बड़पायवेजहां पर एक बड़गद का वृक्ष था, तेणेव उवागए-वहीं पर आ पहुंचा, बडपायवस्स आहे-उस Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरयावलिका) (२३१) (वर्ग-तृतीय - बड़गद के पेड़ के नीचे, किढिणसंकाइयं ठवेइ-अपनी कांवड़ रख देता है, ठवित्ता-और रख कर, वेई वड्डइ-वेदी बनाता है, उवलेवण-संमज्जणं करेइ-गोबर आदि से लीपता है मौर जलादि छिड़क कर स्थान को शुद्ध करता है, जाव०-अन्य धार्मिक कृत्य करके, कट्ठमुहाए-काष्ठ की मुद्रा से अपना मुंह बांध कर मौन होकर बैठ जाता है, तएणं तस्स सोमिलस्स -तदनन्तर उस सोमिल के, अंतियं-समक्ष, पुन्वरत्तावरत्त काले - अर्ध रात्रि के समय, एगे देवे-एक देवता, पाउन्भए- प्रकट हुआ, तं चेव भणइ-उसने फिर पहले की तरह ही कहा, जाव-कि तेरी यह प्रव्रज्या दुष्प्रवज्या है, पडिगए-और यह कह कर वह वापिस लौट गया, तएणं से सोमिले-तत्पश्चात् वह सोमिल, जाव जलते-प्रातःकाल सूर्योदय होते हो, वागलवत्थ-नियत्थे-वल्कल वस्त्र धारण करके, किढिणसंकाइयं जाव०-कांवड़ उठा कर, कट्ठमुद्दाए मुहं बंधइ-काष्ठ की मुद्रा से मुंह बांध लेता है और बांध कर, उत्तराभिमुहे-उत्तर की ओर मुख करके, उत्तराए दिसाए-पुनः उत्तरदिशा में हो, संपत्थिए-प्रस्थान कर देता है ॥१५॥ मूलार्थ-तत्पश्चात् वह सोमिल चौथे दिन सायंकाल के समय जहां पर एक बड़गद का वृक्ष था वहीं पर आ पहुंचा, और बड़गद वृक्ष के नीचे अपनी कांवड़ रख देता है और रखकर वेदी बनाता है, वेदी के स्थान को गोबर आदि से लीप कर सिंचित करता है और अपनी पूर्व आस्था के अनुरूप धर्म-कृत्य करता है, फिर काष्ठमुद्रा से अपना मुख बांध कर मौन धारण करके बैठ जाता है तदनन्तर उस सोमिल के समक्ष अर्धरात्रि के समक्ष एक देवता आकर प्रकट होता है और पहले की तरह "तेरी प्रवज्या दुष्प्रवज्या है" कह कर जहां से आता है वहीं लौट जाता है। उसके बाद सोमिल-प्रात:काल सूर्योदय होते ही बल्कल वस्त्र धारण कर अपनी कांवड़ उठाता है और काष्ठमुद्रा से अपना मुंह बांधकर उत्तराभिमुख होकर उत्तर दिशा में ही पुनः प्रस्थान कर देता है ॥१५॥ टीका-सोमिल उत्तरदिशा में ही निरन्तर बढ़ रहा है। चौथे दिन वह बड़गद के वृक्ष के नीचे विश्राम करता है। ज्ञात होता है वेदि वड्डई-का भाव वेदिका का स्थान निश्चित कर उसे लेपन आदि द्वारा शुद्ध बनाता है और "वेदि रएइ" से ज्ञात होता है कि वह स्नानादि से निवृत्त होकर वेदिका को विश्राम के योग्य बना लेता है। काष्ठमुद्रा से मुख बांधने का भाव पहले स्पष्ट किया जा चुका है ॥१५॥ Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ग - तृतीय ] ( २३२ ) [कल्पातंसिका मूल - तणं से सोमिले पंचमदिवसम्मि पच्छाव रहकाल समयंसि जेणेव उंबरपायवे तेणेव उबागच्छइ, उंबरपायवस्स अहे किठिणसंकाइयं ठवेइ, वेइं वड्ढेइ जाव कट्ठमुद्दाए मुहं बंधइ जाव तुसिणीए संचिट्ठइ । WIC छाया - ततः खलु स सोमिलः पञ्चमदिवसे पश्चादपराह्न कालसमये यत्रैव उदुम्बरपादपस्तत्रैवपागच्छति, उदुम्बरपादस्याधः किढिणसाङ्कायिकं स्थापयति, वेदि वर्धयहि यावत् काष्ठमुद्रया मुखं बध्नाति यावत् तूष्णीकः संतिष्ठते ।। १६ ।। पदार्थान्वयः -- तएणं से सोमिले - तदनन्तर वह सोमिल, पंचम दिवसम्मि- यात्रा करते हुए पांचवें दिन, पच्छावरह कालसमयंसि - दिन के चतुर्थं प्रहर अर्थात् सायंकाल के समय, जेणेव उंबर- पायवे - जहां पर उदुम्बर अर्थात् एक गूलर का वृक्ष था, तेणेव उवागच्छ वहीं पर आता है, उंबर पायवस्त- और उस गूलर के वृक्ष के नीचे अपनी कांवड़ रख देता है और रखकर, वेदि वड इवेदिका का निर्माण करता है, जाव और पूर्ववत् स्नानादि से निवृत्त होकर, कट्ठमुद्द ए मुह बंधन - काष्ठ की मुद्रा से अपना मुख बाँधकर पूर्ववत् मौन धारण करके बैठ जाता है ।। १६ ।। मूलार्थं - अपनी यात्रा के पांचवें दिन सायंकाल के समय सोमिल जहां पर एक गूलर का वृक्ष था वहां पहुंच जाता है और पहुंच कर गूलर के नीचे अपनी कांवड़ रखकर एक वेदिका का निर्माण करता है और फिर अपने समस्त धार्मिक कृत्यों से निवृत्त होकर काष्ठ- मुद्रा से अपना मुंह बांधकर मौन धारण करके बैठ जाता है ॥ १६ ॥ टीका - इस सूत्र में संक्षेप शैली का प्रयोग करते हुए सूत्रकार ने कुछ शब्दों में ही वह सब कुछ कह दिया है जो वे कहना चाहते हैं । पांचवें दिन उसका विश्राम स्थल गूलर का वृक्ष रहा, यही विशेष है ॥ १६ ॥ TAR PR मूल-तएणं तस्स सोमिलमाहणस्स पुव्वरत्तावरत्तकाले एंगे देवे जाव एवं वयासी-हं भो सोमिला ! पव्बइया । दुप्पठवइयं ते पढमं भणड़ तहेव तुसिणीए संचिट्ठइ । देवो दोच्चपि तच्चपि वदइ सोमिला ! पव्वइया दुप्पव्वइयं ते । तएणं से सौमिलें तरणं देवेण दोच्चपि तच्चपि एवं Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ वर्ग-तृतीय . बुत्ते समाणे तं देवं एवं वयासी - कहण्णं देवाणुप्पिया ! मम दुष्पव्वइयं ? | ॥१७॥ छाया - ततः खलु तस्य सोमिल ब्राह्मणस्य पूर्बरात्रापररात्रकाले एको देवः यावत् एवमवादीत् - हं भो सोमिल ! प्रव्रजित ! दुष्प्रव्रजितं ते, प्रथमं भणति तथैव तूष्णीकः संतिष्ठते ! देवो द्वितीयतृतीयमपि वर्षात सोमिल ! प्रब्रजित ! दुष्प्रव्रजितं ते ततः खलु स सोमिलस्तेन देवेन द्वितीयम प तृतीयमप्येवमुक्तः सन् तं देवमेवमवादीत् - कथं खलु देवानुप्रिय ! मम दुष्प्रव्रजितम् ।। १७ ।। निरयावलिका । ( २३३ ) पदार्थान्वयः - तणं - तत्पश्चात्, तस्स सोमिल माहणस्स - उस सोमिल नामक ब्राह्मण ऋषि के समक्ष पुव्वरत्तावरत्तकाले - अर्ध रात्रि के समय, एगे देवे - एक देवता, जाव - प्रकट हुआ और एवं वयासी - इस प्रकार बोला, हं भो सोमिल ! पव्वइया ! - हे प्रव्रजित सोमिल, दुवइयं ते तुम्हारी यह प्रबज्या दुष्प्रव्रज्या है, पढमं भणइ - ऐसा उसने पहली बार कहा ( किन्तु यह सुनकर भी वह सोमिल), तहेव तुसिणीए सचिट्ठइ - पहले की तरह ही मौन धारण करके बैठा रहा, देवो दोच्चंपि तच्चपि वदइ - तब उस देवता ने दूसरी ओर तीसरी बार भी यही कहा, सोमिल ! पव्वइया दुप्पवइयं ते सोमिल तुम्हारी यह प्रवज्या दुष्प्रवज्या है, तएण से सोमिलेतब उस सोमिल ने तेणं देवेणं - उस देवता के द्वारा, दोच्चंपि तच्चपि - दूसरी ओर तीसरी बार मी एवं वृत्ते समराणे- ऐसा कहने पर, तं देवं- उस देवता से एवं वयासी - इस प्रकार कहा, • कहणं देवार्णाप्पा मम दुप्पव्व इयं - यह मेरी प्रव्रज्या दुष्प्रव्रज्या क्यों है ? ।। १७ ।। मूलार्थं : तत्पश्चात् उस सोमिल नामक ब्राह्मण ऋषि के समक्ष आधी रात के समय एक देवता प्रकट हुआ और उससे कहने लगा - हे प्रव्रजित सोमिल ! तेरी यह प्रवज्या दुष्प्रव्रज्या है उसके पहली बार ऐसा कहने पर सोमिल पहले की तरह ही मौन धारण करके बैठा रहा, किन्तु उस देवता ने दूसरी और तीसरी बार भी यही कहा- सोमिल ! तुम्हारी यह प्रव्रज्या दुष्प्रव्रज्या है | तब सोमिल ने उस देवता के द्वारा दूसरी बार और तीसरी बार भी उसकी प्रव्रज्या को दुष्प्रव्रज्या बतलाने पर उस देवता से कहा - हे देवानुप्रिय यह मेरी प्रव्रज्या दुष्प्रव्रज्या कैसे है ? क्यों है ? ।।१७॥ मूल-तणं से देवे सोमिलं माहणं एवं वयासी एवं खलु देवाणुपिया ! तुमं मासस्स अरहओ पुरिसावाणीयस्स अंतियं पंचाणुव्वए सत्त Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ग-तृतीय] ( २३४ ) [निरयावलिका सिक्खावए सावगधम्म पडिवन्न, तएणं तव अण्णया कयाइ असाहुदंसणेण पवरत्ता० कुडुब० जाव पुचितिय देवो उच्चारइ जाव जेणव असोगवरपायवे तेणेव उवागच्छसि, उवागच्छित्ता किढिणसंकाइय जाव तुसिणीए संचिठ्ठइ । तएणं पुव्वरत्तावरत्तकाले तव अतिय पाउन्भवामि हं भो सोमिला! पव्वइया ! दुप्पव्वइयं ते तह चेव देवो नियवयणं भणइ जाव पंचमदिवसम्मि पच्छावरण्हकालसमयसि जेणेव उंबरवरपायवे तेणेव उवागए किढिणसंकाइयं ठवेसि, वेई वड्ढे सि, उवलेवणं संमज्जणं करेसि, करित्ता कट्ठमुद्दाए मुहं बंधेसि, बंचित्ता तुसिणीए संचिट्ठसि, तं चे देवाणुप्पिया ! तव पच्वइयं दुप्पव्वइयं ॥१८॥ ___' छाया -- ततः खलु स देवः सोमिल ब्राह्मणमेवमवादीत्-एवं खलु देवानुप्रिय ! त्वं पार्श्वस्याहतः पुरुषादानीयस्यान्तिकं पञ्चाणुव्रतानि सप्तशिक्षावतानि द्वादशविधं धावकधर्मः प्रतिपन्नः, तता खलु तवाऽन्यदा कदाचित् असाधदर्शनेन पूर्वरात्रा० कुटुम्ब० यावत् पूर्वचिन्तितं देव उच्चारयति यावत् यत्रवाऽशोकवरपादपस्तत्रैबोपागच्छसि, उपागन्य किढिणसाङ्कायिकं यावत् तूष्णीक: सतिष्ठसे ततः पूर्वरावापररात्रकाले तवान्तिक प्रादुर्भवामि-हं भो सोमिल ! प्रवजित ! दुष्प्रवजितं ते तथैव देवो निजवचनं भणति यावत् पञ्चम दिवसे पश्चादपरालकालसमये यत्रैव उदुम्बरपादपस्तत्रवोपागतः किढिणसाङ्कायिक स्थापयसि, वेदों वर्धयसि, उपलेपनं संमार्जनं करोबि, कृत्वा काष्ठमुद्रया मुखं बध्नासि, बद्ध्वा तूष्णीकः संतिष्ठसे, तदेवं खलु देवान प्रय! तव प्रवजितं दुष्प्रवजितम् ॥१८॥ पदार्थान्वयः-तएणं से देवे तदनन्तर वह देव, सोमिलं माहणं-उस सोमिल ब्राह्मण मे, एवं वयासी-इस प्रकार बोला, एवं खल देवाणप्पिया-हे देवानुप्रिय ! तुम पासस्स अरहो पुरिसादाणीयस्स-तुमने मुमुक्षु जनों द्वारा सेवित अर्हत् भगवान श्री पार्श्वनाथ के, अन्तियं-पास पहुंच कर, पंचाणुव्वए-पांच अणुव्रत, सत्त सिक्खावए-सात शिक्षा व्रत, दुवालस बिहे सावगधम्मे-इस प्रकार बारह प्रकार के श्रावक धर्म को, पडिवन्ने-ग्रहण किया था, तएणं तव अन्नया कयाइ-तदनन्तर तुमने एक बार, असाहुदंसणेण-असाधुओं का दर्शन करने पर, पुन्वरत्ता. कुटुम्ब जाव०-अर्ध रात्रि के समय अपने कुटुम्ब के विषय में सोचते हुए तुमने विचार किया कि "मैं गंगा-तट पर तपस्या करनेवाले दिशाप्रोक्षक तापसों के पास जाऊं और दिशा - प्रोक्षक तापस बनूं, पुवचिन्तियं देवो उच्चारेइ-सोमिल ब्राह्मण के द्वारा पूर्व चिन्तित विचारों को देवता ने उससे कहा, (और देवता ने यह भी कहा कि), जाव जेणेव असोगवर पायवे उवागछसि-फिर दिशा Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरयापलिका ( २३५ ) (वर्ग-ततीय प्रोक्षक तापस बन कर जहां अशोक नामक वृक्ष या बहां पहुंचे, उवागच्छित्ता-वहां पहुंच कर, किाढणसंकाइयं जाव-अपनी कांवड़ रख कर अपने सभी धर्म-कृत्य किये, तुसिणीए सचिटुइ -(मेरे द्वारा प्रतिबोध देने पर भी उसे अनसुना करके) तुम चुप-चाप बैठे रहे, तएणं-तत्पश्चात्, पुवरत्ताघरत काले- इस प्रकार चार बार अर्धरात्रि के समय, तव अन्तियं पाउभवामि-तुम्हारे सामने आकर प्रकट हुआ, (और तुम्हें समझाया कि), हं भो सोमिला-हे प्रब्रजित सोमिल, दुप्पच्वइयं ते-तुम्हारी यह प्रवज्या दुष्प्रव्रज्या है, तह चेव देवो नियवयणं भणइ जाव- पुन: उस देवता ने अपने वचन दोहराते हए उससे कहा, पंचम दिवसम्मि-आज पांचवें दिन, पच्छावरण्ह. काल-समयंसि-सायंकाल के समय, . जेणेव उंबरवरपायवे-जहां यह उदुम्बर वृक्ष था, तेणेव उवागए-वहां पर भी आ पहुचा हूं, किढिण संकाइयं ठवेसि-यहां तुमने अपनी कांवड़ रखी, वेई बड्डेस-वेदी बनाई, उवलेवणं संमज्जणं करेसि-उसे गोबर आदि से लीपा, संमार्जन किया, करित्ता कट्ठमुद्दाए मुहं बंधेसि-काष्ठ-मुद्रा से तुमने अपना मुंह बांधा, बंधित्ता-(और) बांधकर, तसिणीए-मौन धारण करके, संचिटुसि-बैठ गए हो, तं चेव खलु देवाणुप्पिया-(किन्तु हे देवानुप्रिय ! इस प्रकार निश्चय ही, तव पव्वइयं-तुम्हारी यह प्रवज्या, दुप्पव्वइया- दुष्प्रव्रज्या है ॥१८॥ ___मूलार्थ - तदनन्तर वह देवता सोमिल ब्राह्मण से इस प्रकार बोला- हे देवानुप्रिय (पहले तुमने) सर्व-जन-सेव्य भगवान श्री पार्श्वनाथ जी से पांच महाव्रतों और सात शिक्षा ब्रतों इस प्रकार बारह प्रकार के श्रावक धर्म को स्वीकार किया था। फिर कुछ समय बाद असाधु-दर्शन (सम्पर्क) के कारण अर्धरात्रि के समय अपने कुटुम्ब की . चिन्ता करते हुए तुमने सोचा कि मैं दिशा-प्रोक्षक वानप्रस्थ बन जाऊं। इस प्रकार तुम दुष्प्रव्रज्या के मार्ग पर चलते हुए दिशा-प्रोक्षक बानप्रस्थ बन गए । उस देव ने उसने फिर कहा-फिर तुम चलते-चलते जहां एक अशोक वृक्ष था वहां पहुंचे और वहां आकर तुमने अपनी कावड़ रख कर वे कृत्य किए जिन्हें तुम धर्म मानते थे । धर्मकृत्य करके मौन धारण करके बैठ गए। तब एक दिन मैं पुनः अर्धरात्रि के समय तुम्हारे सामने प्रकट हुआ और तुम्हें सावधान करते हुए कहा "हे सोमिल-इस प्रकार तुम्हारी प्रवज्या दुष्प्रवज्या है। देव ने उसे फिर से अपने वचन कहे कि आज पुनः पांचवें दिन सायंकाल के समय जहाँ उदुम्बर का वृक्ष है तुम वहां पहुंचे और उसके नीचे आकर अपनी कांवड़ रखी, वेदिका बनाई और उसे गोबर आदि से लीपकर वहां जल छिड़का और जल आदि सींच कर काष्ठ-मुद्रा से अपना मुंह बांध कर बैठ गए, Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ग - तृतीय ] ( २३६ ) इस प्रकार हे देवानुप्रिय ! तुम्हारी यह प्रवज्या दुष्प्रव्रज्या है ।। १८ । टीका - प्रस्तुत पाठ में जाव० शब्द का बहुत अधिक प्रयोग करके शास्त्रकार ने पुनरावृत्ति दोष न होने देने का प्रयास किया है। हमने मूलाथ में "जाव" से गृहीत बातों को ग्रहण करके पूर्वापर को मिलाने का कुछ प्रयास किया है । as बस का अर्थ पूजास्थान की सीमायें बांधकर उस पूजा-स्थान को निश्चित्त करना निश्चित होने के बाद ही उपलेपन संमार्जन होता है । सोमिल चार दिनों तक देव के वचनों की उपेक्षा करता रहा, किन्तु देव ने अपने प्रयास में ढील नहीं आने दी, अत: पांचवीं बार वह सोमिल को समझाने के प्रयास में सफल हो ही गया । १८ । [ निरयावलिका मूल - तणं से सोमिले तं देवं एवं वयासी- कहण्णं देवानुप्पिया ! मम सुपव्वइयं ? तएण से देवे सोमिलं एवं वयासी, जइणं तुम देवाणुपिया ! इयाणि पुव्व पडिवण्णाई पंच अणुव्वयाई सत्तसिक्खावयाई सममेव उवसंपज्जित्ताणं विहरसि, तेणं तृज्झ इदाणि सुपव्वइयं भविज्जा तइणं से देवे सोमिलं वंदइ नमसइ, वंदित्ता नमसित्ता जामेव दिसि पाउब्भू जाव पडिगए ॥ १६ ॥ छाया - ततः खलु स सोमिसस्तं देवमेवमवादीत्-कथं खलु देवानुप्रिय ! मम सुप्रव्रजितं ? । ततः खलु स देवः सोमिलमेवमवादीत् - यदि खलु त्वं देवानुप्रिय । इदानीं पूर्वप्रतिपन्नानि सप्तशिक्षाव्रतानि स्वयमेव उपसंपद्य खलु विहरसि तर्हि खलु तवेदानीं सुप्रव्रजितं भवेत् । ततः खलु स देवः सोमिलं वन्दते नमस्यति, वन्दित्वा नमस्विता यस्या दिशः प्रादुर्भूतः यावत् प्रतिगतः ॥ १६ ॥ पदार्थान्वयः - तणं से सोमिले - तदनन्तर वह सोमिल ब्राह्मण, तं देवं एवं वयासी उस देव से इस प्रकार बोला, कण्णं देवाणुध्विया मम सुष्प वइयं - हे देवानुप्रिय ! अब आप ही बतलायें कि मेरी प्रव्रज्या सुप्रवज्या कैसे हो सकती है ? तरणं से देवे- तब वह देवता, सोमिलं एवं वयासीसोमिल से इस प्रकार बोला, जड़ णं तुमं देवाणुपिया - हे देवानुप्रिय ! यदि तुम, इयाणि पुरुवपडवण्णाई - अ -अब भी ( भगवान पार्श्वनाथ से ) ग्रहण किए हुए, पंच अणुव्वयाइं - पाँच अणुव्रतों, सत सिखावयाइं - (और) सात शिक्षा व्रतों को, सयमेव उवसंपज्जित्ताणं- स्वयं ही (पुनः) ग्रहण करके, विहरसि - जीवन यात्रा पर चलोगे, तएणं तुज्झ इदाणि- तब तेरी प्रवज्या अब भी, सुप्पन्वइयं - सुप्रवज्या, भविज्जा हो सकती है, तइणं से देवे - तव वह देवता, सोमिलं बंबद्द नमंसइ - (सोमिल द्वारा उसके कथन के अनुरूप बारह व्रतों का पालन करते हुए विचरने लगा, यह Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरयावलिका] (२३७) [वर्ग-तृतीय ++ +++++ +++++ देखकर बह देवता सोमिल को वन्दना-नमस्कार करता है, वन्दित्ता नमंसित्ता-वन्दना नमस्कार करके, जामेव दिसि पाउन्भए--जिस दिशा में प्रकट हुआ था, जाव पडिगए-उसी दिशा में लौट गया ।। १६ ।। मूलार्थ-तदनन्तर वह सोमिल ब्राह्मण उस देव से इस प्रछार बो ला-हेदेवानप्रिय (अब आप ही बतलायें कि मेरी प्रव्रज्या सुप्रवज्या कैसे हो सकती है ? तब उस देवता ने उस सोमिल से इस प्रकार कहा- "हे देवानुप्रिय ! यदि तुम अब भी भगवान श्री पार्श्वनाथ जी से ग्रहण किये हुए पांच अणुव्रतों और सात शिक्षाव्रतों को ग्रहण करके अपनी जीवन-यात्रा पर चलोगे तो तुम्हारी प्रवज्या अब भी सुप्रव्रज्या हो सकती है। (सोमिल ने देवता के कथनानुसार श्रावक के बारह व्रत धारण कर लिये) तब उस देवता ने सोमिल को वन्दना नमस्कार किया और वन्दना नमस्कार करके वह जिस दिशा में प्रकट हुआ था (अर्थात् दिशा से आया था) उसी दिशा में सौट गया ॥१९॥ ___टीका-समस्त प्रकरण सरल है। समास शैली के कारण कुछ शब्दों का अध्याहार कर लेना चाहिये ॥१९॥ .. ____ मूल--तएणं से सोमिले माहणरिसी तेणं देवेणं एवं वुत्ते समाणे पवपडिवन्नाइ पंच अणुव्वयाइ सयमेव उवसंपज्जित्ताणं विहरइ ॥२०॥ छाया-ततः खलु सोमिलो ब्राह्मणः ऋषिस्तेन देवेन एवमुक्तः सन् पूर्वप्रतिपन्नानि पञ्चाणव्रतानि स्वयमेव उपसंपद्य खलु विहरति ।।२०॥ पदार्थान्वयः-तएणं से सोमिले माहण रिसी-तत्पश्चात् वह सोमिल नामक ब्रह्मषि, तेणं देवेणं एवं वुत्ते समाणे-उस देव के द्वारा पूर्वोक्त वचन कहने पर, पुम्वपडिवन्नाइ-पहले ग्रहण किये हए, पंच अणव्वयाइ-पांच अणव्रतों (और सात शिक्षा व्रतों को), सयमेव--स्वयं ही (स्वेच्छा से), उवसंपज्जित्ताणं विहरइ-स्वीकार कर जीवन-यात्रा व्यतीत करने लगा ॥१६॥ ___ मूलार्थ तत्पश्चात् वह सोमिल नामक ब्रह्मर्षि उस देव के द्वारा पूर्वोक्त वचन कहने पर पहले भगवान श्री पार्श्वनाथ जी से गृहीत पांच अणु-व्रतों का स्वयं ही पालन करते हुए अपनी जीवन-यात्रा पर चलने लगा ॥२०॥ टोका-"पंच अणुब्बयाई" इस शब्द के बाद "सत्त सिक्खा-वयाई" इस शब्द का अध्याहार कर लेना चाहिये, क्योंकि पूर्व सूत्र में 'दुवालविहं" शब्द द्वारा बारह व्रतों का संकेत पहले ही किया जा चुका है ॥२०॥ Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ग-तृतीय] (२३८) निरयावलिका मूल-तएणं से सोमिले बहूहिं चउत्थ छट्ठम जाव मासद्ध मासखमणेहिं विचित्तेहिं तवोवहाणेहि अप्पाणं भावेमाणे बहूई वासाइं समणोवासगपरियागं पाउणइ, पाउणित्ता, अद्ध मासियाए संलेहणाए अत्ताणं झूसेइ, झूसित्ता तीसं भत्ताई अणसणाए छेदेइ, छेदित्ता तस्स ठाणस्स अणालोइयपडिक्कंते विराहियसम्मत्ते कालमासे कालं किच्चा सक्कडिसए विमाणे उववायमभाए देवसयणिज्जसि जावतोगाहणाए सुक्कमहग्गहत्ताए उववन्ने । तएणं से सुक्के महग्गए अहुणोववन्ने समाणे जाव भासामणपज्जत्तीए० ॥२१॥ छाया-ततः खलु स सोमिलो बहुभिश्चतुर्थषष्ठाष्टमयावन्मासार्द्धमासक्षपर्णविचित्रस्तप उप धानेरात्मनं भावयन् बहूनि वर्षाणि श्रमणोपासकपर्यायं पालयति, पालयित्वा अर्धमासिक्या संलेखनया आत्मानं जोषयति, जोषयित्वा त्रिशद् भक्तानि अनशनेन छित्त्वा तस्य स्थानस्यानालोचिताऽप्रतिकान्तो विराधितसम्यक्त्व: कासमासे कालं कृत्वा शुकावतंसके विमाने उपपातसभायां देवशयनीये यावताऽवगाहनया शुक्रमहाग्रहतया उपपन्नः । ततः खलु स शुक्रो महाग्रहः अधुनोपपन्नः सन् यावद् भाषामन:पर्याप्त्या० ॥२१॥ पदार्थान्वयः-तएणं से सोमिले-तत्पश्चात् वह सोमिल, बहूहि चउत्थं-छट्ठम जाव मासद्ध मासखमणेहि-बहुत से-चतुर्थ, षष्ठ, अष्टम आदि और आधे मास (१५ दिन) और मासखमण रूप, विचित्तेहिं तवोवहाणेहि-नाना प्रकार के तप उपधानों द्वारा, अप्पाणं भावमाणे-अपने आपको भावित करता हुआ (अर्थात् बेले, तेले आदि से लेकर अर्ध मास और एक मास आदि की तपस्या करता हुआ), बहूहि वासाई-बहुत वर्षों तक, समणोवासग-परियागं पाउणइ-श्रमणोपासक पर्याय का पालन करता रहा (अर्थात् श्रमणोपासकचर्या का पालन करता रहा), पाउणित्ता-और पालन करके, अद्ध-मासियाए संलेहणाए-१५ दिन की संलेखना द्वारा, अत्ताणं झूसेइ-अपने आपको लगाए रखता है, झूसित्ता-इस प्रकार अपने आपको (तप में) लगा कर, तीसंभत्ताइं अणसणाएतीस भक्त (आहार) का त्याग करता है, छेदित्तए-और त्याग करके, तस्स ठाणस्स-अपने पूर्व कृत पाप स्थानों की, अणालोइयपडिक्कते-आलोचना एवं प्रतिक्रमण किए बिना, विराहिय सम्मत्ते-सम्यक्त्व की विराधना के कारण, कालमासे कालं किच्चा-कालमास में काल करके (अर्थात् मृत्यु समय आने पर), सुक्क-वडिसए विमाणे-शुक्रावतंसक नाम के विमान में, उववाय सभाए-उपपात सभा में (देवों के उत्पत्ति स्थान में), देवसयणिज्जंसि-देव-शमनीय शय्या में, जावते गाहणाए-प्रमणोपेत अवगाहना से, सुक्क-महग्गहत्ताए-शुक्रमहाग्रह के रूप में, उववन्ने Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरयावलिका ( २३६) [वर्ग-तृतीय -- - - उत्पन्न हुआ, तएणं से सुक्के महागहे-तदनन्तर शुक्रमहाग्रह के रूप में उत्पन्न होकर, जाव मण पज्जतीए-भाषा पर्याप्ति मनःपर्याप्ति आदि पाँचों प्रकार की पर्याप्तियों से परिपूर्ण हो गया ।।२१।। मूलार्थ-तत्पश्चात् वह सोमिल नामक ब्राह्मण बहुत से चतुर्थ षष्ठ अष्टम आदि एवं अर्धमास (१५ दिन) और मास खमण रूप नाना प्रकार के तप उपधानों द्वारा अपने आपको भावित करता हुआ (अर्थात् वेले तेले आदि से लेकर मासख मण आदि की तपस्या में लीन रहते हुए), श्रमणोपासक की जीवन-चर्या का पालन करता रहा और पालन करते हुए उसने अपने आप को तपस्या में लगाए रखा और ऐसा करके तीस समय के भोजन का त्याम करके (आधे महीने तक भोजन छोड़कर) १५ दिन की संलेखना में अपने आपको लगाए रखता है। किन्तु अपने पूर्व कृत पापों की आलोचना एवं प्रतिक्रमण किए बिना हो सम्यक्त्व की विराधना के कारण मृत्यु-समय आने पर मर कर शुक्रावतंसक नाम के देव-विमान की उपपात सभा(देवों के उत्पत्ति-स्थान में) देव-शय्या पर प्रमाणोपेत अवगाहना से शुक्रग्रह के रूप में उत्पन्न हुआ और शुक्रग्रह के रूप में उत्पन्न होते ही भाषा-पर्याप्ति मनः-पर्याप्ति आदि सर्वविध पर्याप्तियों से वह परिपूर्ण हो गया ॥२१॥ टीका-देवों की उत्पत्ति गर्भ से नहीं होती, वे उपपात (जन्म-स्थान) में रखी देवों की शय्या पर उत्पन्न होते हैं, अत: वह शुक्रग्रह के रूप में देव-शय्या पर उत्पन्न हुआ। ' 'अवगाहना' का अर्थ है शरीर का प्रमाण । उत्पत्ति के समय देवों का शरीर प्रमाण अंगुल के आसंख्यत वें भाग से लेकर अधिक से अधिक सात हाथ परिमाण वाला होता है । 'जावतेगाहणाय' का भाव यही है कि वह प्रमाणोपेत शरीर से उत्पन्न हुआ। भासामण-पज्जत्तीए-सभी प्राणी जन्म के समय तक अपर्याप्त दशा (अपूर्ण दशा) में उत्पन्न होते हैं, उत्पत्ति के बाद वह प्राकृतिक रूप से स्वतः ही छहों पर्याप्तियां प्राप्त कर लेता है, जैसे कि-आहार पर्याप्ति, शरीर पर्याप्ति, इन्द्रयपर्याप्ति, श्वासोच्छवास पर्याप्ति, भाषा-पर्याप्ति, मनः पर्याप्ति ! आत्मा के संयोग से तैजस और कार्मण शरीर द्वारा ग्रहण किया गया उपर्युक्त छे प्रकार की पौद्गलिक शक्तियों का जो संचय होता है वही पर्याप्ति कहलाता है ॥२१॥ मूल-ए खलु गोयमा ! सुक्केणं महग्गहेणं सा दिव्वा जाव अभिसमन्नागया, एगं पलिओवमं ठिई । सुक्के णं भंते ! महग्गहे तओ देव Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ग - तृतीय ] ( २४० ) [ निरयावलिका लोगाओ आउक्खएणं ३ कहिं गण्छिहिइ ? गोयमा ! महाविदेहे वासे सिज्झिहि ५ । एवं खलु जंबू ! समणेणं निक्खेवओ ॥२२॥ . ॥ तइयं अज्झयणं समत्तं ॥ ३ ॥ छाया - एवं खलु गौतम ! शक्र ेण महाग्रहेण सा दिव्या यावत् अभिसमन्वागता । एक पल्योप स्थितिः । शुक्रः खलु भदन्त ! महाग्रहस्ततो देवलोकात् आयुःक्षयेण ३ कुत्र गमिष्यति ? गौतम ! महाविदेहे वर्षे सेत्स्यति ५ ! एवं खलु जम्बू ! श्रमणेन निक्षेपकः ||२२|| ॥ इति पुष्पिताया तृतीयमध्ययनं समाप्तम् ॥ पदार्थान्वयः – एवं खलु गोयमा - इस प्रकार हे गौतम! सुक्केणं महग्गहेणं - उस शुक्र नामक महाग्रह ने, सादिवा- वह दिव्य, जाव अभिसमन्नागया - सभी प्रकार की देव - समृद्धि को प्राप्त किया । एवं पलिओवमठिई - शुक्र महाग्रह की स्थिति एक पल्योपम की है। सुवणं भ महग्गहे - भगवन् ! वह शुक्र महाग्रह, तओ देवलोगाओ - उस देवलोक से, आउक्खणं-- आयु पूर्ण होने पर, कहिं गच्छ हिइ - देवलोक से च्यवकर कहां जाएगा ?, गोयमा ! महाविदेहेवासे - यह शुक्र महाग्रह विदेह क्षेत्र में जन्म लेकर, सिज्झिहिइ - यावत् सिद्ध होगा, एवं खलु जम्बू ! - (सुधर्मा स्वामी कहते हैं) इस प्रकार हे जम्बू समणेणं निक्खेवओ - श्रमण भगवान महावीर ने ) पुष्पिता के इस तृतीय अध्ययन में) यह निरूपण किया है ||२२|| ! मूलार्थ - इस प्रकार हे गौतम! उस शुक्र नामक महाग्रह ने वह दिव्य सभी प्रकार की देव-समृद्धि प्राप्त की । शुक्र महाग्रह की स्थिति एक पल्योपम की है । ( गौतम पूछते हैं) यह शुक्र महाग्रह उस देव-लोक से आयु पूर्ण होने पर देवलोक से च्यव कर कहां जाएगा ? गौतम ! यह शुक्र महाग्रह महाविदेह क्षेत्र में जन्म लेकर यावत् सिद्ध होगा । सुधर्मा स्वामी कहते हैं इस प्रकार हे जम्बू ! प्रभु महावीर ने पुष्पिता के तृतीय अध्ययन में यह निरूपण किया है ||२२|| टीका - आउक्खणं के आगे जो ३ का श्रंक है वह आयु, भव और स्थिति का परिचायक है अर्थात् आयुभव और स्थिति को पूर्ण कर । "सिज्झिहिइ" पद के प्रागे ५ का अंक है उसका अभिप्राय यह है कि वह १. प्राण त्याग करेगा, २. सिद्ध होगा, ३. बुद्ध होगा, ४. मुक्त होगा और ५. सब सभी दुःखों का अन्त करेगा ||२२|| ॥ पुष्पिता का तृतीय अध्ययन पूर्ण ॥ Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अथ बहुपुत्रिकाख्यः (चतुर्थी--वर्ग:) Page #320 --------------------------------------------------------------------------  Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अथ बहुपुत्रिकाख्यं चतुर्थमध्ययनम् (बहुपुत्रिका नामक चतुर्थ अध्ययन) मूल-जइणं भते ! उक्खेवओ। एवं खलु जंबू ! तेणं कालेणं, तेणं समएणं रायगिहे नामं नयरे, गुणसिलए चेइए, सेणिए राया, सामी समोसढे, परिसा निग्गया। तेणं कालेणं तेणं समएणं बहुपुत्तिया देवी सोहम्मे कप्पे बहुपुत्तिए विमाणे सभाए सुहम्माए बहुपुत्तियंसि सीहासगंसि चहिं सामाणियसाहस्सोहिं चहिं महत्तरियाहिं जहा सूरियाभे भुंजमाणी विहरइ।. ___ इमं च णं केवलकप्पं जंबूदीवं विउलेणं ओहिणा आभोएमाणी आभोएमाणी पासइ, पासित्ता समणं भगवं महावीरं जहा सूरियाभो जाव णमंसित्ता सोहासणवरंसि पुरत्थाभिमहा सन्निसन्ना । आभियोगा जहा सूरियाभस्स, सूसरा घंटा, आभिओगियं देवं सद्दावेइ जाणविमाणं जोयणसहस्सवित्यिण्णं, जाणविमाणवण्णओ, जाव उत्तरिल्लेणं निज्जाणमग्गेणं जोयणसाहस्सिहिं विग्गहेहिं आगया जहा सूरियाभे। धम्मकहा समत्ता ॥१॥ छाया-यदि खलु भवन्त ! उत्क्षेपकः । एवं खलु जम्बू ! तस्मिन् काले तस्मिन् समये राजगृहं नाम नगरं, गुणशिलकं चैत्यं, श्रोणिको राजा, स्वामी समवसतः । परिषद् निर्गता । तस्मिन् काले तस्मिन् समये बहुपुत्रिका देवी सौधर्म कल्पे बहुपुत्रिके विमाने सभायां सुधर्मायां बहुपुत्रिके सिंहासने चतसृभिः सामानिकसाहस्रीभिः चतसृभिः महत्तरिकाभिः यथा सूर्याभो यावद् भुञ्जमाणा विहरति, । - वर्ग-चतुर्थ ] (२४३) [निरयावलिका Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरयावलिका] ( २४४) [ वर्ग-चतुर्थ इमं च खलु केवलकल्पं जम्बूद्वीपं विपुलेन अवधिना आभोगयन्ती आभोगयन्ती पश्यति, दृष्ट्वा श्रमणं भगवन्तं महावीर यथासूर्याभो यावद् नमंस्थित्वा सिंहासनवरे पौरस्त्याऽभिमुखी संनिषण्णा । अभियोगा यथा सूर्याभस्य सुस्वरा घण्टा आभियोगिक देवं शब्दयति यानविमान योजनसहस्रविस्तीर्ण, यानविमानवर्णकः, यावत् उत्तरोयेण निर्याणमार्गेण योजनसाहसिकः विग्रहैरागता यथा सूर्याभः । धर्मकथा समाप्ता ।।१।। पदार्थान्वयः-जइ णं भंते–यदि हे भगवन्, उक्खेवओ-उत्क्षेपक, एवं-इस प्रकार, खलु जंबू-हे जम्बू, तेणं कालेणं, तेणं समएणं-उस काल, उस समय में, रायगिहे नयरे-राजगृह नगर में, गुणसिलए चेइए-गुणशील चैत्य था (वहां), सेणिए राया-राजा श्रेणिक था, सामी समोसढे-भगवान महावीर पधारे, परिसा निग्गया-परिषद् धर्मदेशना सुनने आई। तेणं कालेण; तेणं समयेणं-उस काल उस समय में, बहपुत्तिया देवी-बहुपुत्रिका देवी, सोहम्मे कप्पे-सौधर्म कल्प में, बहुपुत्तिए विमाणे-बहुपुत्रिका विमान की, सभाए सुहम्माए - सुधर्म सभा में, बहुपुत्तियंसि सोहासणंसि-बहुपुत्रिका सिंहासन पर विराजित, चउहि सामाणियसाहस्सीहि-चार हजार सामानिक देवियों तथा, चउहि महत्तरियाहि-चार महत्तरिका देवियों के साथ, जहा सूरियाभे—सूर्याभ देव के समान, जाव-यावत्, भुजमाणी विहरइ –भोगोपभोगों को भोगतो हुई विचर रहो थी॥ इमं च णं-इस, केवलकप्पं-अपने गुणों से युक्त, जंबद्दीव-जम्बूद्वीप नामक, दीवदीप को, विउलेणं ओहिणा-अपने विशाल अवधि ज्ञान द्वारा, आभोएमाणी, आभोएमाणी पासइउपयोग लगा कर देख रही थी इस प्रकार, समणं भगवं महावीरं श्रमण भगवान महावीर को देखा, जहा सूरियाभे-जैसे सूर्याभ देव ने, जाव-यावत्, णमसित्ता-सात आठ हाथ आगे होकर नमस्कार किया, सोहासणवरसि-फिर सिंहासन के ऊपर, पुरत्याभिमुहे -पूर्व की की ओर मुख करके, सन्नि सन्ना-बैठ गई, आभियोगा जहा सूरियाभस्स-सूर्याभदेव की तरह आभियोगिक देव ने जाना, सुसरा घंटा-सुस्वर नामक घंटा बजाया और आभिओगियं देवंअपने आभियोगिक देव को, सद्दावेइ-बुलाया, जोयणसहस्स विस्थिण्णं-हजार योजन के विस्तार का, जाण विमाणं-विमान बनाने की आज्ञा प्रदान की, जाणविमाणवण्णओ-यान विमान का वर्णन जान लेना, जाव-यावत्, उत्तरिल्लेणं निज्जाणमग्गेण-उत्तर की ओर जाने वाले मार्ग से, जोयणसाहस्सिएहि विग्गहेहि-एक हजार योजन का शरीर धारण करके, आगया-भगवान महावीर के समीप आई, जहा सूरियाभे-जैसे सूर्याभदेव, धम्मकहा समत्ता-धर्म-कथा समाप्त हुई ॥१॥ मूलार्थ-तीसरे अध्ययन का अर्थ सुनने के पश्चात् आर्य जम्बू अपने गुरु आर्य सुधर्मा से चौथे अध्ययन का अर्थ पूछते हैं। शिष्य की जिज्ञासा को शान्त करते हुए गुरु आर्य सुधर्मा कहते हैं : Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ग-चतुर्थ ( २४५) [निरयालिका __ हे जम्बू ! भगवान ने इस अध्ययन का अर्थ इस प्रकार कहा है-"उस काल, उस समय में राजगृही नगरी थी, वहां गुणशील चैत्य था, बहां राजा श्रेणिक राज्य करता था। उस नगर में स्वामी (भगवान महावीर) पधारे । परिषद धर्मदे-शना सुनने आई । उस काल. उस समय में बहुपत्रिका देवी सौधर्म कल्प के बहुपुत्रिका विमान की, सुधर्म सभा में बहुपुत्रिका सिंहासन पर विराजित हुई । चार हजार सामानिक देवियों और चार हजार महत्तरिकाओं के साथ; सूर्याभ देव की तरह भोग-उपभोग करती विचर रही थी। वह अपने इस सम्पूर्ण जम्बूद्वीप को अपने विशाल अवधि-ज्ञान द्वारा (उपयोग लगाकर) देख रही थी। उसने अपने ज्ञान के बल से श्रमण भगवान महावीर को देखा। जैसे सूर्याभदेव ने देखा था। बहुपुत्रिकादेवी ने सात आठ कदम आगे आकर (श्रमण भगवान महावीर के चरणों में) नमस्कार किया और वह अपने सिंहासन पर पूर्व की ओर मुख करके बैठ गई। सूर्याभ देव की तरह आभियोगिक देव को उसने बुलवाया और उसने आकर सुस्वर नामक घंटा बजाकर आभियोगिक देवों को बुलाया। बुलाकर एक हजार योजन विस्तार वाला और साढ़े बासठ योजन ऊंचा विमान बनाने की आज्ञा दी । यह वर्णन सूर्याभ देव की तरह जान लेना चाहिए। वह उत्तर दिशा की ओर जाने वाले मार्ग से हजार योजन का शरीर धारण ' कर श्रमण भगवान महावीर के समीप आई। जैसे सूर्याभ देव आया था। इस प्रकार धर्मकथा समाप्त हुई, अर्थात् जनता ने धर्म-कथा सुनने के बाद सम्यक् ज्ञान, सम्यक् दर्शन और सम्यक् चारित्र को ग्रहण किया ॥१॥ टोका-प्रस्तुत सूत्र में बहुपुत्रिका देवी के प्रभु महावीर के दर्शनार्थ समोसरण में आने का वर्णन सूर्याभदेव कुमार की तरह है। बहुपुत्रिका देवी ने भी अपने सामानिक देवों को हजार योजन लम्बा वासठ योजन ऊंचा विमान बनाने की आज्ञा दी। फिर देवी अपने विमान में देव परिवार से युक्त होकर आई। यहां 'उक्खेवओ' पद का अर्थ प्रारम्भ का वाक्य है जो पुष्पिका नामक सूत्र के चौथे अध्ययन में आया है । चउहि सामाणिय साहस्सोहि-पद से सिद्ध होता है देवियों का स्व शासन होने पर भी उनके मन्त्री रूप सामानिक देव भी होते हैं। Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरयावलिका] ( २४६ ) [ वर्ग-चतुर्थ .. 'चउहि महत्तरियाहि पद से सिद्ध होता है कि बहुपुत्रिका देवी की चार महत्तरिका देवियाँ थीं जो बहुपुत्रिका देवी को हर समय न्याय की शिक्षा देती थीं। विउलेहि ओहिणा-इत्यादि सूत्र विपुल अवधि ज्ञान का सूचक है, इस ज्ञान के द्वारा दूर के पदार्थ देखे जा सकते हैं। धम्मकहा के लिए औपपातिक सूत्र और सुस्वर घंटा के लिए जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र का स्वाध्याय करना चाहिए ॥१।। उत्थानिका-उसके बाद बहुपुत्रिका देवी ने क्या किया, इसी का वर्णन सूत्रकार ने किया है । मूल-तएणं सा वहुपुत्तिया देवी दाहिणं भुयं पसारेइ देवकुमाराणां अट्ठसयं, देवकुमारियाण य वामाओ भुयाओ अट्ठसयं, तयाणंतरं च णं बहवे दारगा दारियाओ य डिभए य डिभियाओ य विउव्वइ, नट्टविहिं जहा सरियाभो उवदंसित्ता पडिगया। भंतेत्ति भगवं गोयमे समणं भगवं महावीरं वंदइ नमसइ, कूडागारसाला० । बहुपुतियाए णं भंते ! देवीए सा दिव्वा देविड्ढी पुच्छा जाव अभिसमण्णागया। एवं पृष्ठे सति भगवान् आह एवं खलु इत्यादि ॥२॥ छाया-ततः खलु सा बहुपुत्रिकादेवी दक्षिणं भुजं प्रसारयति देवकुमाराणामष्टशतम् देवकुगरिकाणां च वामतो भनतोऽष्टशतम्. तदनन्तरं च खलु बहून् दारकांश्च दारिकाश्च डिम्भकांश्च डिम्भिकाश्च विकुरुते, नाट्यविधि यथा सूर्याभः, उपदर्य प्रतिगता। भदन्त ! इति, भगवान् गौतमः श्रमणं भगवन्तं महावोरं वन्दते नमस्यति, कूटागार शाला० । बहुपुत्रिकया खलु भदन्त ! देव्या सा दिव्या देवद्धिः पृष्टा यावत् अभिसमन्वागता ॥ २ ॥ पदार्थान्वयः -तएणं-तत्पश्चात्, सा बहुपुत्तिया देवी-उस बहुपुत्रिका देवी ने, दाहिणं भुयं दक्षिण भुजा को, पसारेइ-लम्बा किया, देवकुमाराणं अट्ठसयं-उस के बाद एक सौ आठ देवों की विकुर्वणा को किया, देव कुमारियाण व वामाओ भुयाओ अट्ठसयं-वाई भुजा पर एक सौ आठ देब कुमारियों की विकुर्वणा की, तयाणंतरं च गं-तदन्तर, बहवे बारगा या दारियाओ-बहुत से दारक (आठ वर्ष की आय वाले) और दारिकाओं की, डिभए य-और डिम्भों (आठ वर्ष से अधिक आयु वाले) को, डिभियाओ यं-और डिभिकाओं की, बिउध्वइविकुर्वणा की, जहा सूरियाभो-सूर्याभ देव की तरह, नट्टविहि-नाट्य-विधि, उवदंसित्तादिखा कर, पडिगया-चली गई । भगवं गोयमे-भगवान गौतम ने, समणं भगवं महावीरं Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ग - चतुर्थ ] ( २४७ ) [ निरयाथलिका श्रमण भगवान महावीर को, वंदइ नमसइ-वन्दना नमस्कार करके पूछा, भंते त्ति - हे भगवन् वह नाट्य-रचना कहां समा गई ? भगवान ने कूडागारसाला - कूटागार शाला का दृष्टांत सुनाया, उन्होंने पुनः प्रश्न किया, भंते - हे भगवन, बहुपुत्तियाए ं देवीए - बहुपुत्रिका देवी ने सा- वह, दिव्या - दिव्य, बेबिड्ढी – देव ऋद्धि, जाव अभिसमण्णागया- किस प्रकार प्राप्त की ? || २ || मूलार्थ - तत्पश्चात् बहुपुत्रिका देवी ने अपनी दाईं भुजा को लम्बा किया और उस पर एक सौ आठ देव कुमारों की विकुर्वणा करके दिखाई। इस प्रकार बाई भुजा पर एक सौ आठ देव कुमारियों की विकुवर्णा करके दिखाई । फिर बहुत से आठ वर्ष के बालक एवं बालिकाओं की विकुर्वणा करके दिखाई । इस प्रकार बहुत से डिम्भों डिभिकाओं की विकुर्वणा करके दिखाई सूर्याभ देव की तरह नाट्य-विधि सम्पन्न करके वह चली गई। श्री गौतम स्वामी ने श्रमण भगवान महावीर को वन्दना नमस्कार करके प्रश्न किया "हे भगवन् ! वह नाट्य-विधि रचना कहां समा गई ?" भगवान् कूटागार शाला का दृष्टान्त सुनाया। उन्होंने पुनः प्रश्न किया कि उस बहुपुत्रिकादेवी ने वह ऋद्धि किस प्रकार प्राप्त की ? ॥२॥ टीका - प्रस्तुत सूत्र में वहुपुत्रिका द्वारा भगवान महावीर के समवसरण में नाट्य-विधि दिखाने का विस्तृत वर्णन है । बहुपुत्रिका द्वारा अपनी देव-शक्ति से अपने हाथ पर एक सौ आठ देवकुमारों और एक सौ आठ देव कुमारियां के निर्माण करने का वर्णन है । डिभ्भए व दारगाए ये दोनों शब्द बालक के वाचक हैं। श्री गौतम स्वामी जी ने बहुपुत्रिका को देव ऋद्धियां प्राप्त होने का कारण पूछा है ॥२॥ उत्थानिका - गणधर गौतम के प्रश्न का श्रमण भगवान महावीर जो समाधान करते हैं उसी का उल्लेख शास्त्रकार ने प्रस्तुत सूत्र में किया है : मूल एवं खलु गोयमा ! तेणं कालेणं, तेणं समएणं वाणारसी नामं नयरी, अंबसालवणे' चेइए । तत्थ णं वाणारसीए नयरीए भद्दे नामं सत्यवा होत्या, अड्ढे अपरिभूए । तस्स णं भद्दस् य सुभद्दा नामं मारिया सुकुमाला० बंझा अवियाउरी जाणुकोप्परमाता यावि होत्या । तए णं तीसे सुभद्दाए सत्यवाहीए अन्नया कयाई पुव्वत्तावरत्तकाले Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरयावलिका) (२४८) (वर्ग-चतुर्थ कुडुंबजागरियं जागरमाणीए इमेयारूवे जाव संकप्पे समुप्पजित्था-एवं खलु अहं भद्देणं सत्थवाहेणं सद्धि विउलाई भोगभोगाई भुंजमाणी विहरामि, नो चेव णं अहं दारगं वा पयामि, त धन्नाओ णं ताओ अम्मगाओ जाव सुलद्धे णं तासि अम्मगाणं मणयजम्मजीवियफले, जासि मन्ने नियकच्छिसंभूयगाई थणदुद्ध लुद्ध गाई महुरसमुल्लावगाणि मंजुल (मम्मण) प्पजंपियाणि थणमलकक्खदेसभागं अभिसरमाणगाणि पण्हयंति, पुणो य कोमल-कमलो वहिं हत्यहिं गिण्हिऊणं उच्छंगनिवेसियाणि देति, समुल्लावए सुमहुरे पुणो पुणो मम्मण (मंजुल) प्पभणिए अहं णं अधण्णा अपुण्णा अकयण्णा एत्तो एगमवि न पत्ता ओहय० जाव झियाइ ॥३॥ छाया-एवं खल गौतम ! तस्मिन् काले तस्मिन् समये वाराणसी नाम नगरी, आम्रशालवनं चत्यम् । तत्र खल वाराणस्यां नगर्यां भद्रो नाम लार्थवाहोऽभवत्, आढ्योऽपरिभृतः । तस्य खलु भद्रस्य च सुभद्रा नाम भार्या सुकुमारपाणिपादा बन्ध्या अविजनयित्री जानकूपरमाता चापि अभवत् । ततः खलु तस्याः सुभद्रायाः सार्थवाहिकायाः अन्यदा कदाचित् पूर्वरात्रापररात्रकाले कुटुम्बजागरिकां जाग्रत्या अयमेतद् पो यावत् संकल्पः समुपद्यत-एवं खलु अहं भद्रण सार्थवाहेन सार्द्ध विपलान् भोगभोगान् भुजाना विहरमि, नो चैव खल अह दारकं वा दारिका व प्रजनयामि, तद् धन्याः खलु ता: अम्बिकाः (मातरो) यावत् सुलब्धं खलु तासाम् अम्बिकानां (मातृणां) मनुजजन्मजीवित - फलम्, यासां मन्ये निजकुक्षिसंभूतकाः स्तनदुग्धलुब्धकाः मधुरसमुल्लापकाः मञ्जुल (मम्मण) प्रजल्पिताः स्तनमूलकक्षदेशभागम् अभिसरन्तः प्रस्नुवन्ति । पुनश्च कोमलकमलोपमाभ्यां हस्ताभ्यां गृहीत्वा उत्सङ्गनिवेषिताः (सन्तः) ददति समुल्लापकान सुमधुरान् पनः पुनर्मम्मण (मञ्जुल) प्रभणितान्, अहं खलु अधन्या अपण्या अकृतपुण्या (अस्मि यवह) एततः (एतेयां मध्यात्) एकमपि न प्राप्ता। (एव) अपहतमनः-संकल्पा यावत् ध्यायति ॥३॥ पदार्थान्वयः-एबं खलु गोयमा-इस प्रकार हे गौतम, तेणं कालेणं तेणं समएणं-उस काल उस समय, वाणारसी नामं नयरी-बाराणसी नामक नगरी थी, अंबसालवणे चेइए-अम्रशालवन नामक चैत्य था, तत्थ णं वाणारसीए नयरीए-उस वाराणसी नगरी में, भद्दे माम सत्थवाहे होत्था-भद्र नामक सार्थवाह रहता था, अड्डे अपरिभए-जो धन-धान्य से युक्त व प्रतिष्ठित था, तस्स णं-उस, भद्दस्स य सुभद्दा नाम भारिया-उस भद्रवाह की सुभद्रा नाम की भार्या थी, Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरयावलिका) ( २४६ ) विग-चतुर्थ सुकुमाला०-सुकोमल थी, किन्तु वंझा-बांझ थी, अवियाउरी-संतान उत्पन्न करने के अयोग्य थो, जाणकोप्परमाता-खाली गोद वाली अर्थात् आनु की ही माता, यावि होत्था-थी, तएणंतत्पश्चात्, तीसे सुभद्दाए सत्यवाहीए-उस सुभद्रा सार्थवाही को, अन्नया कयाइ-अन्य किसी दिन, पन्चरत्तावरत्तकाले-अर्धरात्रि के समय में, कुडुबजागरियं-कुटुम्ब जागरण के समय, इमेयारूवेइस प्रकार का, जाव-यावत्. संकप्पे-संकल्प, समुप्प जित्था-उत्पन्न हुआ, एवं खल-निश्चय ही. अहं-मैं, भद्देण सत्थवाहेण सद्धि-भद्र सार्थवाह के साथ, विउलाई-विपुल, भोगभोगाई-भोगों उपभोगों को, भुजमाणी-भोगती हुई, विहरामि-विचर रही हूं, नो चेव णं- इस पर भी, अहं दारगं व दारियं वा न पयामि-मैंने किमी बालक व बालिका को उत्पन्न नहीं किया, तं धन्नाओ णं अम्मगाओ-वे माताएं धन्य हैं, जाब-यावत्, सलद्धे--सुलभ हैं, णं तासि अम्मगाणं-उन माताओं ने ही, मण यजम्मजीवियफले-मनुष्य-जन्म का फल पाया है, जासि-जिन्होंने, मन्ने नियकुच्छिसभूयगाई-अपनी कुक्षि से उत्पन्न हुई संतान को, थणदुद्धलुद्धगाई-स्तनपान की इच्छक हैं. महुरसमुल्लागाणि-उन बच्चों के मधुर स्वर सुनती हैं, मंजुल (प्रम्मण) जंपियाणि-उन बच्चों के मनोहर वाक्य सुनती हैं और, थणमूलकक्खदेसभाग-उन बच्चों को अपने स्तनमूल में उठा-उठा कर अर्थात् छाती से लगाकर, अभिसरमाणगाणि पण्हयंति -घूमती हैं, पणो य–तथा, कोमलकमलोवमेहि हत्थेहि-कमल तुल्य कोमल हाथों से, गिहिऊणं-ग्रहण कर, उच्छंगनिवेसियाणि-अपनी गोद में बिठाती हैं, देति-देती हैं, समुल्लावए-समुल्लाप-मीठे वचनों से, सुमहुरे-मीठे, पुणो पुणो-बार बार, मम्मणप्पभाणिए-मनोहर लोरियां बच्चों को देती हैं, अहं णं-मैं, अधण्णाअधन्य, अपुण्णा-पुण्य हीन, अकयपण्णा-पूर्व जन्म के पुण्य उपार्जन से रहित हूं, और एत्तो एगमविएक भी सन्तति को, न पत्ता--नहीं प्राप्त किया, ओहय०- नजर झुका कर, जाव-यावत्, झियाइ-आत ध्यान अर्थात् दुःख भरा जीवन यापन करने लगी ।।३।। मूलार्थ-भगवान महावीर ने बताया कि इस प्रकार, हे गौतम ! उस काल, उस समय में वाराणसी नाम का एक नगरी थी, वहां आम्रशालवन नामक चैत्य था, उस वाराणसी नगरी में भद्र नाम का एक सार्थबाह रहता था, जिसकी सुभद्रा नामक भार्या थी। वह सुकोमल थी; किन्तु वह बांझ थी, संतान उत्पन्न करने के अयोग्य थे, उसकी गोद खाली थी, वह जानुकूर्परमाता थी अर्थात् सोते समय उसके उदर के साथ जान ही होता था, कोई बालक नहीं, तत्पश्चात् किसी दिन अर्धरात्रि के समय, कुटम्ब जागरण करते हुए, उसके पन में इस प्रकार के विचार उत्पन्न हुए मैं (वर्षों से) निश्चय ही भद्र सार्थवाह के साथ विपुल भोगों-उपभोगों का सेवन करते हुए जीवन-यापन कर रही हूं, परन्तु मेरे घर में एक भी बालक या बालिका का जन्म नहीं हुआ । वे माताएं धन्य हैं, सुलभ हैं। उन माताओं ने ही मनुष्य-जन्म का फल पाया है, जिन्होंने अपनी कुक्षि से Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ग चतुर्थ ] ( २५०) [निरयावलिका संतान उत्पन्न की है, संतान को दूध पिलाया है, अपने बच्चों के मधुर स्वर सुने हैं, मनोहर वाक्य सुने हैं, बच्चों को छातो से लगा कर घुमाती हैं; फिर बच्चों के कमल तुल्य कोमल हाथों को पकड़ कर बच्चे को गोदो में बिठाती हैं. अपने मीठे मीठे वचनों व समुल्लापों के साथ बार-बार मनोहर लोरियां देती हैं। अहो ! मैं कितनी अधन्य हूं, पुण्यहीन हूं, पूर्व जन्मों के शुभ कामों के पुण्य से रहित हूं कि मेरी एक भी सन्तान नहीं है। इस प्रकार (वह) नजर झुका (शोश निवा कर) यावत् आर्तध्यान करती है, दु:ख भरा जीवन-यापन करती है ।।३।। टीका-प्रस्तुत सूत्र में मां की संतान के प्रति ममता का मनोवैज्ञानिक ढंग से वर्णन किया गया है। सुभद्रा हर बांझ स्त्री का प्रतिनिधित्व कर रही है। सांसारिक मनुष्य पुत्र प्राप्ति को ही सुख का मार्ग मानते हैं, क्योंकि वे मानते हैं कि पुत्र ही वंश-परम्परा का प्रतिनिधि है। इसीलिये सुभद्रा बहुत दुःखो है, क्योंकि वह बांझ है, संतान उत्पन्न करने के अयोग्य है। यह सूत्र माता की संतान के प्रति सहज चिंता का चित्रण भी करता है। वंझा अवियाउरी जाण कोप्परमाया यावि होत्या-बह . सुभद्रा केवल वंध्या ही न थी, यदि कोई संतान पैदा भी हो जाती तो वह मृतक होती थी, इस कारण वह सुभद्रा सन्तान-हीन ही थी। रात्रि को सोते समय उसके उदर के साथ केवल जानु का ही स्पर्श होता था, न कि बच्चे का। इस लिए उसे "जानकपर माता" कहा गया है। प्रस्तुत सूत्र में सुभद्रा उन माताओं के सुख का चिंतन कर रही है जो बच्चों को दूध पिलाती हैं, गोद में उठा कर छाती से लगाती हैं, मीठे वचनों से उन्हें लोरियां देती हैं। दूसरी बात यह है कि किसी पूर्व कृत अशुभ कर्म के कारण उसे बच्चे का मुंह देखना नसीब नहीं हुआ। इस सूत्र में सुभद्रा अपने आप को कोसती है। बांझ का अर्थ वृत्तिकार ने इस प्रकार किया है।। 'बंझा' त्ति अपत्यकलणलाभेक्षया निष्फला अवियाउरि त्ति प्रसवानन्तरमपत्यमरणो वापि फलतो वन्ध्या भवति, अत उच्यते-अवियाउरि त्ति अजिजन शोलाऽपत्यानाम् तदेवाहं । उत्थानिका:-अब आगे नगरी में सुवता आर्या के आगमन का वर्णन व सुभद्रा द्वारा साध्वी जीवन ग्रहण करने का उल्लेख शास्त्रकार ने विस्तार पूर्वक किया है:मूल--तेणं कालेणं तेणं समएणं सव्वयाओ णं अज्जाओ इरियासमियाओ भासासमियाओ एसणासमियाओ आयाणभंडमत्तनिक्खेवणास Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरयावसिका] ( २५१ ) [वर्ग-चतुर्थ मियाओ उच्चारपासवणखेलजल्लसिंघाणपारिट्ठावणासमियाओ मणगुत्तोओ वयगुत्तीओ कायगुत्तीओ गुत्ति दियाओ गुत्तबंभयारिणोओ बहुस्सुयाओ बहुपरिवाराओ पुव्वाणुपुत्वि चरमाणीओ गामाणुगाम दूइज्जमाणीओ जेणेव वाणारसी नयरी तेणेव उवागया, उगगच्छित्ता अहापडिरू ओग्गहं ओगिण्हित्ताणं संजमेणं तवसा अप्पाणं भावमाणीओ विहरंति। तएणं तासि सव्वयाणं अज्जाणं एगे संघाडए वाणारसीनयरीए उच्चनीयमज्झिमाई कुलाइं. घर समुदाणस्स भिक्खायरियाए अडमाणे भद्दस्स सत्थवाहस्स गिहं अणुपविठे । ____तएणं सुभद्दा सत्यवाही तओ अज्जाओ एज्जमाणोओ पासइ, पासित्ता हट्ठ जीव खिप्पामेव आसणाओ अब्भुट्टेइ, अब्भुट्टित्ता सत्तट्ठ प्रयाई अणुगच्छइ, अणुगच्छित्ता वंदइ नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता विउलेणं असणपाणखाइमसाइमेणं पडिलाभित्ता एवं वयासी-एवं खल अहं अज्जाओ ! भद्देणं सत्यवाहेणं सद्धि विउलाई भोगभोगाई भुंजमाणी विहरामि, नो चेव णं अहं दारगं दारियं वा पयामि, तं धन्नाओ णं ताओ अम्मगाओ जाव एत्तो वगमवि न पत्ता, तं तन्भे अज्जाओ ! बहुणायाओ बहुपढियाओ बहूणि गासागरनगर० जाव सण्णिवेसाई आहिंडह, बहूणं राईसरतलवर जाव 'सत्थवाहप्पभिईणं गिहाई अणुपविसह, अस्थि से केइ कहिं चि विज्जापओए वा मंतप्पओए वा वमणं वा विरेयणं वा वस्थिकम्म वा ओसहे वा भेसज्जे वा उवलद्धे, जेणं अहं दारगं वा दारियं वा पयाएज्जा ॥४॥ छाया-तस्मिन् काले, तस्मिन् समए सुव्रताः खलु आर्याः ईर्यासमिताः, भाषासमिताः, एषणासमिताः, आदानभाण्डमात्रनिक्षेपणासमिताः, उच्चारप्रस्रवणश्लेष्मजल्लसिंघाणपरिष्ठापना Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ग-चतुर्थ ] (२५२) | निरयावलिका समिताः, मनोगुप्तिकाः, वचोगुप्तिकाः, कायगुप्तिकाः, गुप्तेन्द्रियाः, गुप्तब्रह्मचारिण्यः, बहुश्रुताः, बहुपरिवारा: पूर्वानपूर्व चरन्त्यः ग्रामान ग्राम द्रवन्त्यः यत्रैब वाराणसी नगरी तत्रैवोपागसाः, उपागत्य यथाप्रतिरूपम् अवग्रहं अवगृह्य संयमेन तपसा आत्मानं भावयन्त्यो विहरन्ति । ततः खलु तासां सब पानामार्याणाम् एकः सङ्गाटको वाराणसीनगर्या उच्चनीचमध्यमानि कुलानि गृहरमदानस्य भिक्षाचर्याय अटन् भद्रस्य सार्थवाहस्य गृहमनुप्रविष्टाः । ततः खलु सुभद्रा सार्थवाही ता आर्याः एज्मानाः पश्यति, दृष्ट्वा हृष्टा यावत् शिप्रमेव आसनात् अभ्यत्तिष्ठति, अभ्युत्थाय सप्ताष्टपदानि अनुगच्छति, अनुगत्य वन्दते नमति, वन्दि वा विपुलेन अशनपानखाद्यस्वाद्येन प्रतिलभ्य एवमवादीत्-एवं खल अहम् आर्या. ! भद्रेण सार्थवाहेन सार्द्ध विपुलान् भोगभोगान् भजाना विहरामि, नो चेव रूल अहं दारकं दारिकां व प्रजनयामि, तद् धन्याः खलु ताः अम्बिकाः (मातरः) यावत्-एतत: (अहं) एकमपि न प्राप्ता, तद् यूयम् भार्या ! बहुजात्य: बहुपठिताः बहून ग्रामऽऽकरनगर० यावत् सन्निवेशान् अहिण्डध्वे बहूनां राजेश्वरतलवर० यावत् सार्थवाहप्रभृतीनां गृहान् अनप्रविशथ, अस्ति स कश्चित् क्वचित् विद्याप्रयोगो वा मन्त्रप्रयोगो वा वरन वा विरेचनं वा औषध व भैषज्यं वा उपलब्धं येनाहं दारकं वा दारिका वा प्रजनयामि ।।४।। पदार्थान्वयः-तेणं कालेणं, तेणं समएणं-उस काल, उस समय में, अज्जाओ सूचयाओ णं : सव्रता नामक आर्या अर्थात साध्वी, इरियासमियाओ-ईर्या समिति- भासासमियाओ-भाषा समिति, एपणासमियाओ-एषणा समिति, आयाणभंडमत्तनिक्खेवणास मियाओ-आदान-भण्डामत्रनिक्षे रण नामक समिति, उच्चारपासवणखेलजल्लसिंघाणपारिद्वावणसमियाओ-उच्चार प्रस्रवण श्लेष्मसिंघाण परिष्ठापनासमिति, मणगुत्तीओ-मन-गुप्ति, वयगुत्तीओ-वचन गुप्ति, कायगुत्तोमो-काया गुप्ति, गतिदियाओ-प्रत्येक इन्द्रिय पर नियन्त्रण रखनेवाली, गत्तवंभयारिणीओगुप्त ब्रह्मचारी, अर्थात् इन्द्रियों को गुप्त रखने वाली, जिससे ब्रह्मचर्य का ठीक ढंग से पालन हो सके; वहुस्सुयाओ-बहुश्रुता, बहुपरिवाराओ-बहुत शिष्य परिवार वाली, पुव्वाणुपुब्धि-क्रम पूर्वक, चरमाणीओ-विचरती हुई, गामाणुगाम-ग्रामानुग्राम, दूइज्जमाणोओ-भ्रमण करती हुई, जेणेवजहां, वाणारसी-वाराणसी, नयरो-नगरी थी. तेणेव उवागया-वहाँ आई, उवागच्छित्ताआकर, अहापडिरूवं-विधि-पूर्वक, ओग्गहं ओगिव्हित्ताणं-शैय्या आदि उपकरण ग्रहण करने की आज्ञा लेकर, संजमेणं तवसा-संमम और तप से अपनी आत्मा को पवित्र करती हुई, विहरंतिविचरती थी। तएण-तत्पश्चात्, तासि सुव्वयाणं अज्जाणं-उस सुभद्रा आर्या का, एगे संघाडएएक सिंघाड़ा अर्थात् दो साध्वियों का समूह, वाणारसी नयरोए-वाराणसी नगरी के, चमोय. मज्झिमाइं कुलाइं-उच्च, नीच, मध्यम कुलों के, घरसमुदाणस्स-घरों के समूह में, भिक्खा. यरियाए-भिक्षा के लिए, अडमाणे-विचरण करते हुए, भद्दस्स सस्थवाहस्स-भद्रसार्थवाह के, गिह-घर में, अणुपविट्ठ-प्रवेश किया। Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरयावलिका] (२५३) [वर्ग-चतुर्थ . तएणं-तत्पश्चात्, सुभद्दा सत्थवाही-सुभद्रा सार्थवाही, तओ अज्जाओ-उन साध्वियों (आर्याओं) को, एज्जमाणीओ-आते हुए, पास इ पासित्ता- देखा और देखकर, हट्ट-प्रसन्न किया, जाव-यावत्, खिप्पामेव-शीघ्र ही, असणाओ-आसनों से, अन्भुट्ठइ अन्भुष्ठित्ता-हो उठी और उठ कर, सत्तटुपयाई-सात आठ कदम आगे होकर, अणुगच्छइ लेने पाई और, अणुगच्छित्ता-और अन्दर बुलाकर. वंदइ नमसइ-वन्दन नमस्कार करती है, वंदित्ता नमंसित्तावन्दन नमस्कार करने के पश्चात्, विउलेणं-विपुल, असणपाणखाइमसाइमेणं- अशन-पान स्वादिम व खादिम चारों प्रकार का भोजन, पडिलाभित्ता-उनको देने का लाभ लेकर, एवं वयासीइस प्रकार कहने लगी, एवं खलु-इस प्रकार निश्चय ही, अहं-मैं, अज्जाओ-साध्वियों, भद्देणं सस्थवाहेणं-भद्रसार्थवाह के, सद्धि-साथ, विउलाई भोगभोगाई-विपुल भोग उपभोग भोगती हुई, विहरामि-विचर रही हूं, नो चेव णं-फिर भो अभी तक, णं अहं-मैं, दारगं दारियं वा-पुत्र या पुत्री, ना पयामि-पैदा नहीं कर सकी, तं-अतः, धन्नाओ-धन्य हैं बे, तओ अम्मगाओ-जो बच्चों की माताएं हैं, जाव-यावत्, एत्तो एगवि-किन्तु मैं एक भी बच्चे को, न पत्ता-पैदा न कर सकी, तं तुब्भे अज्जाओ-हे साध्वियो मैं आप से प्रार्थना करती हूं कि आप, बहुणायाओ-बहुत जान वान हो, बहुपढियाओ-बहुत पढ़ी लिखी हो, बहूणि गामागरनयर०बहुत से ग्राम नगरी में भ्रमण, जाव-यावत्, सण्णिवेसाई-सन्निवेशों, आहिडह-विचरती हो, बहूणं राइसरतलवर जाव सत्यवाहप्पभिईण-बहुत से राजाओं, तलवर, सेठों यावत् सार्थवाहों के, गिहाई- घरों में, अणुपविसह-प्रवेश करती हो, अस्थि से केइ-क्या कोई, कहिं चि-किसी भी जगह, विज्जापओए वा-विद्या प्रयोग से, मंतप्पओए वा-मंत्र प्रयोग से, वमणं वा विरेयणं वा वस्थिकम्म वा-वमन, विरेचन, बस्तिकर्म तथा, ओसहे वा भेसज्जे वा-औषधि भेषज, उवलद्धे-उपलब्ध की है, जेणं-जिसके प्रयोग से, अहं-मैं, दारगं वा दारियं वा पयाएज्जालड़का व लड़की उत्पन्न कर सकू ।।४।। मूलार्थ-उस काल उस समय में आर्या (साध्वी) सुव्रता ईया-भाषा-एषणा, आदान भण्डमात्रनिक्षेप-उच्चार प्रस्रवण श्लेष्मसिंघाण परिष्ठापना आदि समितियों से युक्त, मन-गुप्ति, वचन-गुप्ति, व काय-गुप्ति से युक्त; इन्द्रियों को वश में रखने वाली गुप्त ब्रह्मचारिणी, बहुश्रुता; अपनी बहुत सी शिष्याओं के धर्म परिवार के साथ, गांव-गांव में धर्म-प्रचार करती हुई जहां वाराणसी नगरी थी वहां पधारी, आकर विधिपूर्वक स्वामी की आज्ञा से स्थान व शैय्या आदि उपकरण ग्रहण किये। फिर संयम व तप से अपनी आत्मा को पवित्र किया। । तत्पश्चात् बार्या सुनता की साध्वियो का एक संघाड़ा भिक्षा के लिये वाराणसी Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ग-चतुर्थ ] ........ ..........( २५४) [निरयावलिशा के उच्च नीच-मध्यम कुलों में गवेषणा करता हुआ भिक्षा के लिये भद्र सार्थवाह के घर पहुंचा। .. - तत्पश्चात्' सुभद्रा 'सार्थवाही उन साध्वियों को देखकर बहुत प्रसन्न हुई। अपना आसन छोड़ कर वह उन्हें लेने के लिये सात-आठ कदम आगे आई। वन्दन नमस्कार किया वन्दन नमस्कार करने के पश्चात् विपुल (लेने योग्य विशाल) अशन-पान-खादिमस्वादिम चारों प्रकार का भोजन देकर लाभान्वित हुई। भोजन देने के पश्चात् वह साध्वियों से इस प्रकार प्रार्थना करने लगी । हे आर्याओ ! मैं भद्र सार्थवाह के साथ विपुल भोग उपभोग भोगती हुई आनन्द से जीवन-यापन कर रही हूं किन्तु मेरे एक भी बालक या बालिका उत्पन्न नहीं हुआ। वे माताएं धन्य हैं जो किसी बच्चे को उत्पन्न करती हैं, हे आर्याओ ! आप तो बहुत ज्ञान बाली. हैं; आपने बहुत कुछ पढ़ा लिखा है , बहुत से ग्राम, नगर, आकर व सन्निवेश घूमे हैं; बहुत से राजा, तलवर सेठ और सार्थ, वाहों के यहां (घरों में) आप आती-जाती रहती हैं। क्या कोई ऐसी विद्या है ? कोई : मात्र, प्रयोग है ? वमन, विरेचन या बस्तिकर्म आदि क्रिया है ? औषध-भेषज उपलब्ध है, जिसके प्रयोग से मैं बालक या बालिका को जन्म देने के योग्य हो सकं ॥४॥ टीका-प्रस्तुत सूत्रों में माता की सन्तान के प्रति सहज चिन्ता का मनोवैज्ञानिक चित्रण" किया गया है। साथ में साध्वी सुव्रता के वाराणसी में आगमन का वर्णन है, साध्वी सुव्रता साधुजीधन के पांचा महानतों से युक्त है, पाँच समितियों व तीन गुसस्तयों से युक्त है वह स्वामी की आज्ञा से धार्मिक उपकरण लेकर, ठहरती हैं। उन ,साध्वियों का विशाल शिष्या-परिवार है, साध्वी सुव्रता के ज्ञान व श्रुत की चर्चा देश-देशान्तरों तक फैली हुई है। सम्भवत: इसी कारण उनका विहार क्षेत्र भी विशाल है। उन साध्वियों में से दो साध्वियां अपनी गुरुणी की आज्ञा से वाराणसी के उच्च-नीच 'व मध्यम कुलों आदि अज्ञात कुलों मैंभिक्षा के लिए घूम रही है, क्योंकि साधु हर घर से भिक्षा नहीं ले सकता। उसे भिक्षा सभी दोष काल कर लेती है।... TFउन साध्वियों से वह सुभद्रा अपनी मनो-धा वर्णन करती है कि कोई विद्या, मंत्र, यंत्र; औषधि भस्म ऐसी बताओ जिससे मेरे भी संतान उत्पन्न हो जाए। संतान न होने के कारण सुभद्रा स्वयं को हीन मान रही है । इसी हीन भावना के आधीन होकर उसने अपनी सारी जीवन-गाथा साध्वियों के सामने अपनी स्थिति स्पष्ट की लगता, है सुभद्रा हर समय संतान की चिंता में डूबी रहती थी। 'उसामा ससा दादा- ह . . . . Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरयावलिका ( २५५) [वर्ग-चतुर्थ कुल समुदाणिस्स भिक्खायरियाए गहेषु सुदानं भिक्षाटनं गृह समुदानं भक्षं तद्धि भिक्षटनम्3 र्थात् साधु को उच्च, नीच, मध्यम, अमीर, गरीब सभी के यहाँ बिना कुन पूछे जाना चाहिए। सिंघाडए पद से साध्वीसंधाटक का अर्थ है कि भिक्षा के लिए कम से कम दो साध्वियां अवश्य जाए, जैसे सूत्रकृतांग सूत्र में षट् साधुओं के तीन सिंघाट क माने गए हैं। यद्यपि संतान प्राप्ति पूर्व कर्मों के पुण्य से उत्पन्न होती है, फिर भी सूत्रकृतांग सूत्र के द्वितीय स्कन्ध में गम्भाकरे अर्थात् गर्भ धारण विद्या का उल्लेख है, जिसके द्वारा गर्भ धारण किया जा सकता था। सत्तट्ठपयाइं-इस सूत्र से गुरु-भक्ति का दिग्दर्शन कराया गया है। उत्थानिका-तब उन साध्वियों के सिंघाडे ने क्या उत्तर दिया, उस उत्तर के सुझाव से जो सुभद्रा सार्थवाही के मन में परिवर्तन हुआ उसी का वर्णन सूत्रकार आगे करते हैं। मूल-तएणं तओ अज्जाओ सुभदं सत्थवाहिं एवं वयासो-अम्हे में देवाणुप्पिए ! समणीओ निग्गंधीओ इरियासमियाओ जाव गुत्तबंभयारीओ नो खलु कप्पइ अम्हं एयमद्रं कर्णेहि वि णि सामित्तए; किमग ! पुण उद्दिसित्तए वा समायरित्तए वा, अम्हे णं देवाणुप्पिये ! णवरं तव विचित्तं केवलिपण्णत्तं धम्म परिकहेमो ॥५॥ छाया-ततः खलु ता आयिकाः सुभद्रा सार्थवाहीमेवमवादिषुः–वयं खलु देवानप्रिये ! श्रमण्यो निर्गन्थिण्यः ई-समिता यावत् गुप्तब्रह्मचारिण्यः, नो खलु कल्पते अस्माकम् एतमर्थ कर्णाभ्यामपि निशामयितु किमङ्ग! पुनरुपदेष्टुवा समाचरितुवा, वयं खलु देवानुप्रिये ! नवरं तव विचित्रं केवलिप्रज्ञप्तं धर्म परिकथयामः ।।५।। पदार्थान्वयः-तएणं-तत्पश्चात्, ताओ अज्जाओ-वे आर्याए, सुभई सत्थवाहि-सुभद्रासार्थवाही से, एवं वयासी-इस प्रकार कहने लगीं, अम्हे णं देवाणुप्पिए-हे देवानुप्रिये हम, समणीओ निगयोओ-श्रमणी हैं निर्ग्रन्थनी है, इरियासमियाओ-इर्या-समिति की पालन करने वाली है, जाब गुत्तबंभयारीमो-यावत् गुप्त ब्रह्मचारिणी हैं, नो खलु कप्पइ-नहीं कल्पता, अम्हं-हमें, एयमढें-इस प्रकार की बात, कणेहि वि णिसामित्तए-कानों से सुनना भी, किमंग पुण-तब फिर, उद्दिसित्तए वा समायरित्तए वा-उपदेश करने के लिये और आचरण Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ग-चतुर्थ] ( २५६) [निरयावलिका करने के लिये, अम्हे णं-हम लोग, देवाणुप्पिये-हे देवानुप्रिये, णवरं-हां इतना कह सकती हैं, तव-तुम्हारे लिये, विचित्तं केवलिपण्णत्तं धम्म-अपूर्व केवली प्ररूपित धर्म को, परिकहेमोकह सुन सकती हैं ।।५।। मूलार्थ- तत्पश्चात् वे साध्वियां सुभद्रा सार्थवाहो से इस प्रकार कहने लगी हे देवानुप्रिये ! हम श्रमणी हैं, निर्ग्रन्थनी हैं. ईर्या आदि समितियां यावत् तीन गप्तियों (मन, वचन, काया) द्वारा ब्रह्मचर्य आदि पांच महाव्रतों का पालन करती हैं, हमें इस प्रकार का कथन कानों से सुनना भी नहीं कल्पता, अर्थात् हमारे लिए यह बात सुनना पाप है, फिर ऐसी बात का कहना व करना तो एक तरफ रहा । हे देवानुप्रिये ! हम आपको केवली प्ररूपित धर्म जो कि अपूर्व है, सुना सकतो हैं ॥५॥ टीका-प्रस्तुत सूत्रों में बताया गया है कि जब साध्वियों ने भद्रा सेठानी की बातें सु। तो उन्होंने जैन धर्म के साधु-जीवन का सार उसे समझाया कि जैन साधु साध्वी पांच महाब्रत, पांच समितियों व तीन गुप्तियों का कठोरता से पालन करते हैं। उन्हें इस तरह की सांसारिक बातों से कुछ लेना-देना नहीं। वे तो वीतराग सर्वज्ञ केवलियों द्वारा प्ररूपित शाश्वत धर्म सुना, सकती हैं, जिसे सुनकर इहलोक और परलोक में कल्याण होता है। साध्वियों के धर्म-उपदेश से सुभद्रा, उन साध्वियों के पास जीव अजीव की ज्ञाता, बारह व्रती श्राविका बन गई। सुभद्रा को साध्वियों ने कहा शुभ कार्य में प्रमाद ना करो। एक रात्रि कुटुम्ब जागरण के, समय उसके मन में यह विचार पाया कि मुझे ।।५।। मूल--तएणं सुभद्दा सत्थवाही तासि अज्जणं अंतिए धम्म सोच्चा निसम्म हट्ठतुट्ठा ताओ अज्जाओ निखुत्तो वंदइ नमसइ, वंदित्ता नमं. सित्ता एवं वयासी-सहहामिणं अज्जाओ ! निग्गंथं पावयणं, पत्तियामिणं रोएमिणं अज्जाओ ! निग्गंथं पावयणं ! एवमेयं, तहमेयं, अवितहमेयं, जाव सावगधम्म पडिवज्जए । महासुहं देवाणुप्पिए ! मा पडिबंधं करेह । तएणं सा सभहा सत्थवाही तासि अज्जाणं अंतिए जाव पडिवज्जइ, पडिवज्जित्ता ताओ अज्जाओ वंदइ नमसइ पडिविसज्जइ ॥६॥ Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ग-चतुर्थ ] ( २५७) [निरयावलिका छाया-ततः खलु सुभद्रा सार्थवाही तासामार्याणामन्ति के धर्म श्रुत्वा निशम्य हृष्टतुष्टा ता आर्यास्त्रिकृत्वा वन्दते नमस्यति वन्दित्वा नमस्यित्वा एवमवादीत्-श्रद्दधामि खलु आर्याः! निग्रन्थ प्रवचनं, प्रत्येमि खल, रोचयामि खलु आर्याः ! निर्ग्रन्थं प्रवचनम् एवमेतत्, तथ्यमेतत्, अवितथमेतत्, यावत् श्रावकधर्म प्रतिपद्ये। यथासुखं देवानुप्रिये ! मा प्रतिबन्धं कुरु । तत: खल सा सुभद्रा सार्थवाही तासामार्याणामन्तिके यावत् प्रतिपद्यते, प्रतिपद्य ता आर्याः वन्दते नमस्यति प्रतिविसर्जयति ।।६।। पदार्थान्वयः-तएणं-तत्पश्चात्, सुभद्दा सत्यवाही-सुभद्रा सार्थवाही, तासि-उन, अज्जाणं-आर्याओं के, अंतिए धम्म सोच्चा निसम्म-धर्म सुनती है और सुन कर, हठ्ठतुट्ठाबहुत प्रसन्न होती है, ताओ अज्जाओ-उन आर्याओं को, तिखुत्तो-तीन बार, वंदइ नमसइबन्दना नमस्कार करती है, वंदित्ता नमंसित्ता-वन्दन नमस्कार करने के बाद, एवं वयासी-इस प्रकार बोली, सद्दहामि ण अज्जाओ-हे आर्याओं में श्रद्धा करती हूं, निग्गंथ-निर्ग्रन्थ प्रवचन पर, पत्तियामि णं-प्रतीति करती हूं रोएमिणं-रुचि करती हूं, निग्गंथं पावयणं-निर्ग्रन्थ प्रवचन पर, एवमेयं-जैसे कहा है, . तहमेयं-वैसा ही सत्य है, अवितहमेयं-यह यथार्थ है, जाव-यावत् सावगधम्म पडिवज्जए-कि मैं श्राविका धर्म को ग्रहण करना चाहती हूं। अहार हं देवाणुप्पिए-हे देवानुप्रिये ! जैसे आप को सुख हो, मा पडिबंधं करेइ-प्रमाद मत करो, तएणं-तत्पश्चात्, सा सभद्दा सस्थवाही-वह सुभद्रा सार्थवाही, तासि अज्जाणंउन आर्यानों के, अतिए- समीप, जाव-यावत्, पडिवज्जइ-श्रावक धर्म को स्वीकार करती है, पडिवज्जित्ता-स्वीकार करके, तओ अज्जाओ-उन साध्वियों को, वंबइ नमसइ-वन्दन नमस्कार • करके, पडिविसज्जइ-वापिस लौट गई ।६।। मूलार्थ - तत्पश्चात् वह सुभद्रा सार्थवाही उन साध्वियों से केवली (अर्हत) धर्म सुनकर तथा विचार कर उन्हें वन्दना नमस्कार करती हुई इस प्रकार कहने लगी.हे साध्वियों ! मैं निर्ग्रन्थ-प्रवचन में श्रद्धा करती हूं, प्रतीति करती हूं, रुचि करती हूं; जैसा आपने कथन किया है वह (तत्थ है) वैसा ही है, सर्वथा सत्य है, इसमें बरा सा भी असत्य नहीं है, यावत् मैं श्राविका-धर्म को स्वीकार करना चाहती हूं। साध्वियों ने कहा:- जैसे आपकी आत्मा को सुख हो, वैसा करो, पर अच्छे कार्य में प्रमाद नहीं करना चाहिए। तत्पश्चात् वह सुभद्रा सार्थवाही उन आर्याओं (साध्वियों) के समीप श्रावक-धर्म ग्रहण करती है, यावत् ग्रहण करने के पश्चात् उन्हें Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरयावलिका (२५८) . वर्ग- चतुर्थ वन्दना नमस्कार करके लौट जाती है । (तब से वह) श्रमणोपासिका का जीवन व्यतीत करने लगती है ॥७॥ मूल--तएणं सभद्दा सत्थवाही समणोवासिया .या जाव विहरइ। तएणं तोसे सुभद्दाए समणोवासियाए अण्णया कयाइ पुव्वरत्तावरत्तकालसमए कड़बजागरियं जागरमाणीए समाणोए अयमेयारूवे अज्झथिए जाव संकप्पे समुपज्जित्था एवं खलु अहं भद्देणं सत्थवाहेण सद्धि विउलाई भोगभोगाइं भुञ्जमाणी जाव विहरामि, नो चेव अहं दारगं वा दारियं वा पयामि, तं सेयं खलु ममं कल्ल पाउप्पभायाए जाव जलते भदस्स आपुच्छित्ता सुव्वयाणं अज्जाणं अंतिए अज्जा भवित्ता अगाराओ जाव पन्वइत्तए, एवं संपेहेइ, संपेहित्ता, कल्लं जेणेव भद्दे सत्यवाह तेणेव उवागया, करतल०-जाव एवं वयासी-एवं खलु अहं देवाणुप्पिया ! तुहिं सद्धि बहूइं वासाइं विउलाई भोगभोगाइं भुंजमाणी जाव विह रामि, नो चेव णं दारगं वा दारियं वा पयामि ! तं इच्छामि गं देवाणुपिया ! तुमहिं अब्भणण्णाया समाणी सुव्वयाणं जाव अज्जाणं पव्वइत्तए॥७॥ छाया-ततः खलु सभद्रा सार्थवाही श्रमणोपासिका जाता यावद् विहरति । ततः खलु तस्याः सुभद्रायाः श्रमणोपासिकाया अन्यदा कदाचित् पूर्वरावापर-रात्रकाले कुटुम्बजागरिकां जाग्रत्या सत्याः अयमेतद् पो-आध्यात्मिकः यावत् संकल्पः समुत्पद्यत-एवं खलु अहं भद्रेण साथवाहेन सार्द्ध विपृलान् भोगभोगान् भञ्जमाना यावद् विहरामि, नोचैव खलु अहं दारकं वा दारिकां वा प्रजनयामि, तत् श्रेयः खलु मम कल्ये प्रादुर्यावत् ज्वलति भद्दमापृच्छ्य सुवतानामार्याणामन्तिके आर्या भूत्वा अगाराव यावत प्रवजितम । एवं संप्रेक्षते संप्रेक्ष्य कल्ये यत्रव भद्रः सार्थवाहस्तवोपागता.करतलयावत् एवमवादीत्-एवं खलु अहं देवानुप्रियाः ! युष्माभिः सार्द्ध बहूनि वर्षाणि विपुलान् भोगभोगान् भुजाना यावद् विहरामि, नो चैव खलु दारकावा वारिका वा प्रजनयामि, तत् इच्छामि खलु देवानुप्रियाः! युष्माभिरभ्यनुज्ञाता सती सुव्रतानामार्याणामम्तिके यवत् प्र जितुम् ॥७॥ पदार्थान्वयः-तएणं-तत्पश्चात्, सुभद्दा सस्थवाही समणोवासिया जाया-सुभद्रा सार्थवाही Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ग-चतुर्थ ] ( २५६) [निरयावलिका * श्रमणोपासिका बन कर, जाव-यावत्, विहर इ-विचरण करने लगी, तएणं-तत्पश्चात्, तोसे सभद्दाए समणोवासियाए- उस सुभद्रा श्रमणोपासिका को, अण्णया कयाइ-अन्न किसी समय, पुवरत्तावरत्तकालसमए-मध्य रात्रि में, कुडुबजागरियं जागरमाणीए समाणीए- कुटुम्ब जागरण करते हुए, अयमेयारूवे अज्झस्थिए-इस प्रकार के विचार उत्पन्न हुए, जाव-यावत्, संकप्पे समुपज्जित्था-संकल्प उत्पन्न हुआ, एवं खल-निश्चय ही, अहं-मैं, भद्देणं सत्थवाहेणं सद्धिभद्र सार्थवाह के साथ विउलाई भोगभोगाई-विपुल भाग-उअभाग भोगतो हुई, जावयावत, विहरामि-विचर रही हैं, नो चेव णं अहं दारगं वदारियं व पयामि-मेरे यहां कोई भी बालक व बालिका का जन्म नहीं हुआ, तसेयं खल-इसलिए मुझे उचित है कि, ममं कल्लं पाउप्पभायाए-कल दिन होते ही, जाव-यावत जलते-सर्योदय के समय, भस्स-भद्र सार्थवाह को, आपूच्छित्ता- पूछ कर, सव्वयाणं अज्जाणं-सव्रता आर्या के, अंतिए-समीप, अज्मा भवित्ता अगाराओ--आर्या बनकर अनगार होने के हेतु, जाव पव्वइत्तए-याव प्रवज्या ग्रहण करूं, एवं सपेहेइ संपेहित्ता-इस प्रकार विचार किया और विचार करके, जेणेव भद्दे सत्यवाहेजहां भद्र सार्थवाह था, तेणेव उवागया-वह वहां आई, करतल जाब-हाथ जोड़ कर यावत्, एवं वयासी-इस प्रकार कहने लगो, एवं खल-इस प्रकार निश्चय ही, अहं देवाण प्पिया-हे देवानप्रिय मुझे, तुहिं सद्धि-तुम्हारे साथ, बहूई वासाई-बहुत वर्षों से, विउलाइ भोग भोगभोगाई भुजमाणी नाव-विपुल भोग भोगती हुई यावत्, विहरामि-रह रही हूं, नो चेव णं दारगं वा दारियं वा पयामि-मेरे वहां कोई बालक या बालिका का जन्म नहीं हआ, तं-इसलिए, इच्छामि -मेरी इच्छा है, देवाणप्पिया- हे देवानप्रिय, तह-आप से, अभणण्णाया समाणी-आज्ञा पाकर, सुव्वयाण: अज्जाणं जाव पच्वइत्तए-सुव्रता आर्य के पास प्रवज्या ग्रहण कर लूं ॥७॥ मूलार्य-तत्पश्चात् उस सुभद्रा श्रमणोपासिका को किसी दिन अर्ध-रात्रि के समय कुटुम्ब जागरण करते हुए इस प्रकार आध्यात्मिक संकल्प पैदा हुआ कि (मुझे इस प्रकार भद्र सार्थवाह के साथ विपुल भोगोपभोग भोगते काफी समय व्यतीत हो गया है, फिर भी मेरे कोई लड़का व लड़की उत्पन्न नहीं हुआ, इसलिए मुझे यही उचित है कि प्रातः सूर्योदय होते ही कल मैं भद्र सार्थवाह की आज्ञा लेकर साध्वी सुव्रता के समीप जाकर आर्या (साध्वी) बन जाऊं, अर्थात् दीक्षा अंगीकार कर लूं। - इस प्रकार विचार करके प्रातः ही, जहां भद्र सार्थबाह था वहां आई और दोनों हाथ जोड़ कर इस प्रकार विनय करने लगी-हे देवानुप्रिय ! आपके साथ विपुल भोग भोगते हुए, मुझे लम्बा समय व्यतीत हो गया है, फिर भी मेरे यहां एक भी बालक या वालिका उत्पन्न नहीं हुआ। हे देवानुप्रिय ! मेरी इच्छा है कि आपकी आज्ञा लेकर Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरयावलिका] (२६०) [वर्ग-चतुर्थ मैं सुव्रता आर्या के चरणों में दीक्षा अंगीकार करूं ॥७॥ टोका-सुभद्रा यह सोचने लगी कि संसार के भोग भोगते हुए लम्बा समय गुजर चुका है मेरे कोई सन्तान उत्पन्न नहीं हुई, मैं कल प्रात: ही अपने पति से आज्ञा लेकर साध्वी सुव्रता जी के पास पाँच महाव्रतों को धारण करूंगी। अगली सुबह वह अपने पति के पास आई, उसने पति को नमस्कार किया फिर अपने मनोगत भाव इस प्रकार प्रकट किये-हे देवानुप्रिय ! मुझे आपके साथ विपुल भोग उपभोग भोगते लम्बा समय व्यतीत हो गया है किन्तु मेरे यहां एक भी बालक व बालिका उत्पन्न नहीं हुई। इसलिये मैं आपकी आज्ञ से साध्वी बनना चाहती हूं। सुभद्र सेठ ने अपनी पत्नी को बहुत तर्क, वितर्क, प्रलोभनों द्वारा सांसारिक सुखों का वास्ता दिया, पर सुभद्रा अपने निश्चय पर अडिग रही। लम्बी वार्तालाप के बाद भद्र सेठ को आज्ञा न चाहते हुए भी आज्ञा देनी पड़ी। प्रस्तुत सूत्र में सुभद्रा सेठानी की गुण ग्राहता, विनम्रता, शालीनता, एवं शिष्टाचार का दिग्दर्शन कराया गया है। साथ में उसकी दीक्षा का कारण उसका वांझपन है जिससे दु:खी होकर एक माता होने के नाते उसे सारे सुख वेकार लगते हैं ।।६।। ___ इस सूत्र से यह सिद्ध होता है कि धर्म सुनने से साभ हो सकता है। धर्म (धार्मिक विचार) सुनकर जीव निर्ग्रन्थ-प्रवचन के प्रति श्रद्धावान हो जाता है। कहा भी है जीवदया सच्चवयणं परधणवज्जणं सुसोलं य खंतिय पंचिदिय निग्गहा य धम्मस्स मूलाई । अर्थात्-जीवदया, सत्य वचन, पराएधन का त्याग ब्रह्मचर्य, परिग्रह त्याग, क्षमा व पंचेन्द्रिय निग्रह ही धर्म का मूल है । ये धर्म-प्राप्ति के श्रद्धा-वाचक शब्द हैं। ' एव मेयं, तहमेयं, अवितहमेय, असंघिद्धमेयं--अर्थात् जो आप (साध्वियों) ने कहा है वह यथार्थ है, सत्य है, शंका रहित है, पूर्ण तथ्य है। धम्म सोच्चा निसम्म-धर्म को सुनकर हर्ष हुआ अर्थात् धर्म सुन कर विचार उत्पन्न होता है। .. पति-पत्नी के परस्पर वार्तालाप में "देवाणुप्पिया" शब्द का प्रयोग किया गया है। यह शब्द प्रत्येक व्यक्ति द्वारा ग्रहण करने योग्य है। "देवानुप्रिय" शब्द जैन शास्त्रों में सामान्य जन से लेकर तीर्थङ्कर तक प्रयुक्त हुआ है ॥७॥ ___मूल--तएणं से भद्दे सत्थवाहे सुभई सत्यवाही एवं वयासी-मा णं तुमं देवाणुप्पिए ! इवाणि मुंडा जाव पव्वयाहि, भुजाहि ताव देवाणुप्पिए ! मए सद्धि विउलाई भोगभोगई, ततो पच्छा भत्तभोइ सुव्वयाणं अज्जाणं जाव पव्वयाहि । तएणं सुभद्दा सत्यवाही भद्दस्स० एययट्ठ नो आढाइ नो परिजाणइ दोच्चं पि तच्चपि भद्दा सत्थवाही एवं Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ग - चतुर्थ | ( २६१ ) [ निरयालिका वयासि - इच्छामि णं देवाणुप्पिया ! तुभई अब्भणुन्नाया समाणी जाव इत्तए ! तणं से भद्दे सत्यवा हे जाहे नो संचाएइ बहूहिं आघायनाहिय एवं पन्नवणाय सन्नवणाहिय विष्णवणाहिय आघवित्तए वा जाव विणवित्तएका ताहे अकामए चेव सुभद्दाए निक्खमणं अणुमणित्था ॥८॥ छाया - ततः खलु स भद्रः सार्थवाहः सुभद्रां सार्थवाहीं एवमवादीत् - मा खल त्वं देवानप्रिये ! इदानीं मुण्डा यावत् प्रव्रज । भङ्क्ष्व तावद् देवानुप्रिये ! मया सार्द्धं विपुलान् भोगभोगान् ततः पश्चात् भुक्तभोगिनी (सती) सुव्रतानामार्याणामन्तिके यावत् प्रव्रज । ततः खलु सुभद्रा सार्थवाही भद्रस्य एतमर्थ नो आद्रियते नो परिजानाति द्वितीयमपि तृतीयमपि भद्रा सार्थवाही एवमवादोत्इच्छामि खलु देवाप्रियाः ! युष्माभिरभ्यनुज्ञाता सती यावत् प्रव्रजितुम् । ततः खलु स भद्रः सार्थवाहो या नो शक्नोति - बह्वीभिराख्यापनाभिश्च एवं प्रज्ञापनाभिश्च संज्ञापनाभिश्च, विज्ञापनाभिश्च, आख्यायितुम् वा, यावत् विज्ञापयितुं वा तदा अकामतश्चैव सुभद्रा निष्क्रमणमन्वमन्यत ||८|| पदार्थान्वयः - तएणं - तत्पश्चात्, से भद्दे - वह भद्र, सत्यवाहे - सार्थवाह, सुभद्दं सत्थवाहीसुभद्रा सार्थवाही से एवं - इस प्रकार, वयासी – कहने लगा, मा णं तुभं देवापिया हे देवानुप्रिये तुम मत ग्रहण करो, इदाणि मुंडा - तुम मुण्डित, जाव - यावत् पव्वयाहि- प्रवजित होना, जाहिता - तब तक देवाणुप्पिए - देवानुप्रिये, मए - मेरे, सद्धि-साथ, बिउलाई भोगभोगाई - विपुल भोग उपभोग कर, ततो पच्छा - तत्पश्चात् भुत्तभोइ— भुक्त भोगी होकर, सुब्वयाणं अज्जाणं जाव पश्वयाहि-सुव्रता आर्या के पास जाकर प्रवज्या ग्रहण कर लेना, तरणं तत्पश्चात्; 'सुभद्दा सत्यबाही - सुभद्रा सार्थवाही, भद्दस्त - भद्र की, एयमट्ठ - इस बात को सुनकर, नो आढाइ – उसे न आदर दिया, नो परिजाणइ-न ही अच्छा समझा, दोच्चंपि - दो बार, तच्वंपि -- तीन बार, भद्दा सत्यवाही- भद्रा सार्थवाही, एवं वयासी - इस प्रकार कहने लगी, इच्छामि गं देवापिया - हे देवानुप्रिय मेरी इच्छा है कि, - आप से, अब्भणुष्णाया समाणी - आज्ञा पाकर, जाव - यावत् पव्वइत्तए - दीक्षा स्वीकार करूं, तरणं - तत्पश्चात् से भद्दे सत्यवाहे - वह भद्र सार्थवाह, जाहे - जब, नो संचाएइ – असमर्थ रहा, बहूह - बहुत से, आघयणाहियसामान्य वचनों से, एवं प्रौर, पन्मवणाय - विशेष वचनों से, सन्नवणाहिय - प्रलोभनों से, विष्णवगाहिय - प्रेमपूर्वक वचनों से, आघवित्तए वा जाव विष्णवित्तए वा - प्रलोभन देने से, प्रेम पूर्वक समझाने से, ताहे- तब, अकामए चेव-इच्छा न होने पर भी, सुभद्दाए निक्खमणं उसने सुभद्रा को दीक्षित होने की कर दी, अणुमण्णित्था - भद्रासार्थवाह ने अपनी पत्नी सुभद्रा सार्थवाही को आज्ञा प्रदान कर दी ||८|| तुम्मेहि + Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरयावलिका (२६२) [वर्ग-चतुर्थ मूलार्थ- तत्पश्चात् (सुभद्रा की बात को सुन कर) भद्र सार्थवाह इस प्रकार कहने लगा हे देवानुप्रिये ! इस समय तुम मण्डित यावत् साध्वी मत बनो. अपितु पहले की तरह मेरे साथ विपुल भोग उपभोग भोगो । फिर भुक्तभोगी होकर सूव्रता आर्या के समीप जाकर यावत् दीक्षित हो जाना । ऐसी बात सुनकर भद्रा सार्थवाही ने उन वचनों को अच्छा नहीं माना। भद्र सार्थवाह को दो तीन बार इस प्रकार कहा"हे देवानुप्रिय ! मैं आपकी आज्ञा से दीक्षा ग्रहण करना चाहती हूं। तत्पश्चात् जब सुभद्र सार्थवाह विशेष वचनों, प्रलोभनों, स्नेह वाक्यों से समझाने में असमर्थ रहा, तब इच्छा न होते हुए भी उसने सुभद्रा को दीक्षा लेने की आज्ञा प्रदान कर दी ॥८॥ टीका-प्रस्तुत सूत्र द्वारा भद्र सेठ के पत्नी के प्रति स्नेह का भी पता चलता है । तभी तो वह न चाहते हुए भी उसे दीक्षा की आज्ञा दे देता है। सुभद्रा सार्थवाही को दो-तीन बार ऐसा कहना पड़ता है । भद्र सेठ की उदासी उसके राग का प्रतीक है। इस सूत्र से यह भी सिद्ध होता है कि वैरागी को उसके घर वाले या संरक्षक अनुकूल या प्रतिकूल वचनों से समझा बुझा तो सकते हैं, पर ऐसे कार्य में वैरागी आत्मा से मारपीट अच्छी नहीं होती। क्योंकि मारपीट से मन के विचारों पर कोई असर नहीं पड़ता। वैरागी का कर्तव्य है कि वह भी अपने माता, पिता, संरक्षकों और निकट सम्बन्धियों की आज्ञा लेकर साधु-जीवन ग्रहण करे, घर से पलायन न करे ।।८।। मूल-तएणं से भद्दे सत्थवाहे विउलं असणं ४ उवक्खडांवेइ, मित्तनाइ जाव आमंतेइ, पच्छा भोयणवेलाए जाव मित्तनाइ० सक्कारेइ सम्माणेइ, सुभदं सत्यवाहि हायं जाव पायच्छित्तं सव्वालंकारविभूसियं पुरिससहस्सवाहिणि सोयं दुरूहेइ । तओ सा सुभद्दा सत्थवाही मित्तमाइ जाव संबंधिसंपरिवडा सविड्ढोए जाव रवेणं वाणारसीनयरीए मज्झं मज्झेणं जेणेव सुव्वयाणं अज्जाण उवस्सए तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता पुरिससहस्सवाहिणि सोयं ठवेइ, सुभदं सत्यवाहिं सोयाओ पच्चोरहेइ ॥६॥ Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ग-चतुर्थ ] ( २६३) [निरयावलिशा . छाया-ततः खलु स भद्रः सार्थवाहो विपुलम् अशनं पानं खाद्यं स्वाद्यम् उपस्कारयति मित्रजाति यावदामन्त्रयति । ततः पश्चात् भोजनवेलायां यावत् पित्रज्ञाति० स करोति सम्मानयति, सुभद्रां सार्थवाही स्नातां यावत् कृतप्रायश्चित्तां सर्वालङ्कारविभूषितां पुरुषसहस्रवाहिनीं शिविकां दूरोहयति । ततः सा सुभद्रा सार्थवाही मित्रज्ञाति० यावत् सम्वन्धिसंपरिवता सर्वऋद्धया यावत रवेण वाराणसीनगयां मध्यध्येन यौव सुबताना आर्याणामुपाश्रयस्तत्रैव उपागच्छति, उपागत्य पुरुषसहस्रवाहिनीं शिविकां स्थापयति, सुभद्रा सार्थवाही शिविकातः प्रत्यवरोहति ।।९।। पदार्थान्वयः-तएणं-तत्पश्चात्, से भद्दे सत्थवाहे-उस भद्र सार्थवाह ने, विउलं असणं ४चार प्रकार का अशन आदि विपुल भोजन, उवक्खडावेइ-तैयार करवाया, मित्तनाइ-मित्रों व रिश्तेदारों, जाव-यावत्, आमतेइ-आमन्त्रित किया, पच्छा भोयणवेलाए-फिर भोजन के पश्चात्, सक्कारेई सम्माणेइ-उनका सत्कार सन्मान किया, सुभद्द सत्थवाहि-तब सुभद्रा सार्थवाही को, व्हायं जाव पायच्छित्तं सब्बालंकारविभूसियं-स्नान करवाया प्रायश्चित् आदि करवाया (मंगल कार्य करवाये) फिर सब वस्त्र अलंकारों से विभूषित कर, पुरिससहस्सवाहिणि सोयं-हजारों पुरुषों द्वारा उठाने योग्य शिविका (पालकी) पर, दुल्हेइ-बिठाया, तओ-तब, सा सुभद्दा सत्थवाही-वह सुभद्रा सार्थवाही, मित्तनाइ-मित्रों व रिश्तेदारों से, जाव-यावत्, संबंधिसपरिबुडा-सम्बन्धियों.से घिरी हुई, सन्निड्ढीए-सर्व ऋद्धि से युक्त, जाना-यावत्, रवेणं-वेग पूर्वक, वाणारसीनयरीए-वाराणसी नगरी के, मज्झं मज्झेणं-बीचों बीच होती हुई, जेणेव-जहां, सुब्धयाणं अज्जाणं-सुव्रता आर्या थी, उवस्सए-उपाश्रय था, तेणेव उपागच्छदवहां आई और, उपागच्छित्ता-पाकर, पुरिससहस्सवाहिणि सीयं ठवेइ-हजारों पुरुषों द्वारा उठाई जाने के योग्य शिविका को नीचे रखवाया, पच्चोव्हेइ-और वह स्वयं नीचे उतर गई ।।६।। - मूलार्थ-तत्पश्चात् उस भद्र सार्थवाह ने पिपुल अशन आदि चार प्रकार का भोजन तथार करवाया। फिर मित्रों व रिश्तेदारों को भोजन के लिए आमन्त्रित किया। भोजन कराने के पश्चात् सभी का सन्मान-सत्कार किया। फिर सुभद्रा सार्धवाही को स्नान करवाया गया। प्रायश्चित् आदि करवाया गया फिर उसे (सुभद्रा सार्थवाही को) वस्त्रों-अलंकारों व आभूषणों से सुसज्जित करके; हजार पुरुषों द्वारा उठाने योग्य पालकी में बिठाया। तब वह सुभद्रा सार्थवाही मित्रों व रिश्तेदारों से घिरी, सर्व ऋद्धि से युक्त होकर वेगपूर्वक चलती हुई और वाराणसी नगरी के बीचों-बीच हे ती हुई जहां सुब्रता आर्या का उपाश्रय था वहां पहुंची और पहुंच कर हजारों पुरुषों द्वारा उठाई गई,पालकी को नीचे रखवाया और स्वयं उससे नीचे उतरी ॥६॥ Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरयावसिका] (२६४) [वग-चतुर्थ टोका-प्रस्तुत सूत्र में सुभद्रा सार्थवाही का अपने पति से वार्तालाप व दीक्षा प्रसंग का विस्तत वर्णन है। पति ने दीक्षा की आज्ञा प्रदान कर दी। उस समय की परम्परा अनसार भद्र सार्थवाह ने अपने रिश्तेदारों व मित्रों को इक्ट्ठा किया और उन्हें भोजन करवाया। फिर उनका सन्मान सत्कार किया। अपनी पत्नी सुभद्रा को स्नान करवाया, वस्त्र आभूषणों से उसे अलंकृत किया। फिर एक हजार मनुष्यों के उठाने योग्य सुन्दर शिविका पर सुभद्रा सवार हुई। वाराणसी नगरी के बीचों बीच बड़े ठाट के साथ होती हुई साध्वी सुव्रता के उपाश्रय के समीप पहुंची। पालकी को नीचे रखा गया और वह स्वयं नीचे उतर गई।६। तएणं भद्दे सत्थवाहे सुभदं सत्थवाहिं पुरओ काउं जेणेव सुव्वया अज्जा तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता सव्वयाओ अज्जाओ वंदइ नमसइ, वंदित्ता एवं वयासो-एवं खलु देवाणुप्पिया ! सुभदा सत्थ बाही ममं भारिया इट्ठा कंता जाव मा णं वाइया पित्तिया सिभिया सन्निवाइया विविहा रोगातका फुसंतु, एसणं देवाणुप्पिया ! संसारभउविग्गा, भीया जम्मणमरणाणं, देवाणुप्पियाणं अंतिए मुंडा भवित्ता जाव पव्वयाइ, तं एवं अहं देवाणुप्पियाणं सीसिणीभिवखं दलयाणि, पडिक्छंत णं देवणुप्पिया ! सोसिणीभिक्खं । अहासहं देवाणुप्पिया! मा पडिबंधं ।१०। ततः खल भद्रः सार्थवाहः सुभद्रां सार्थवाही पुरतः कृत्वा यत्रैव सुव्रता आर्यः तत्रैवोपागच्छति, उपागम्य सुव्रता आर्या वन्दते नमस्यति, वन्दित्वा एवमवादोत्-एवं खलु देवानप्रियाः। सुभद्रा सार्थवाही मम भार्या इष्टा कान्ता यावत मा खल वातिकाः पत्तिकाः श्लैष्मिकाः सानिपातिका विविधाः रोगातङ्काः स्पृशन्तु, एषा खल देवानुप्रिया ! संसारभयोद्विग्ना, भीता जन्ममरणाभ्यां. देवानुप्रियाणामन्तिके मुण्डा मत्वा यावत् प्रव्रजति ! तद् एतामहं देवानुप्रियाभ्यो ददामि, प्रतीच्छन्तु रू लु देवानुप्रिया: ! शिष्याभिक्षाम् । यथासुखं देवानुप्रियाः मा प्रतिबन्धम् ।।१०।। पदार्थान्वयः-तएणं-तत्पश्चात्, भद्दे सत्थवाहे-भद्र सार्थवाह ने, सुभई सस्थवाहिभद्रा सार्थवाही को, पुरओ काउं-आगे किया, जेणेव-जहां, सुब्बया अज्ज-सुव्रता आर्या थी, तेणेव-वहां पर, उवागच्छइ उवागच्छित्ता-आए और आकर, सुम्वयाओ अज्जाओ-सुव्रता आर्या को. बंबइ नमंसह-वन्दन नमस्कार किया, वंदित्ता नमंसित्ता-वन्दन नमस्कार करने के पश्चात् एवं वयासो-इस प्रकार कहा, एग खल-इस प्रकार निश्चय ही, देवाणुप्पिया-हे देवानुप्रिय, सुभद्दा सत्थवाही-यह सुभद्रा सार्थवाही, ममं भारिया-मेरी पत्नी है मुझे, इट्टा-इष्ट है, Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ग-चतुर्थ] ( २६५ ) [निरयावलिका कंता- प्रिय है, जाव मा णं-यावत् न, वाइया-वात, पित्तिया-पित्त, सिभिया-कफ, सन्निवाइया-सन्निपात, विविहा-विविध, रोगात का-रोगों की पीड़ा, फुसंतु–सताए, इस बात का ध्यान रखा है कि, एसणं-इस प्रकार, देवाणुप्पिया-हे देवानुप्रिये, संसारभउम्विग्गा-सांसारिक भय से, भीया-डरी हुई है, जम्मणमरणाणं-जन्म-मरण के दुःखों से, देवाणुप्पियाणहे देवानुप्रिये, अंतिए-यह आपके समीप, मुंडा भवित्ता-मुण्डित होकर, जाव-यावत्, पब्वयाइ-प्रवज्या ग्रहण करना चाहती है, तं एयं-इसलिए, अहं-मैं, देवाणुप्पियाणं-देवानुप्रिये, सोसिणीभिक्खं-शिष्या की भिक्षा, दलयाणि-आपको देता हूं, पडिच्छतु णं-आप इसे स्वीकार करें, देवाणुप्पिया-हे देवानुप्रिये, सोसिणोभिक्ख-इस शिष्या की भिक्षा के रूप में स्वीकार करें, अहासुहं देवाणुप्पिया-हे देवानुप्रिय जैसी आप की आत्मा को सुख हा वैसा करो, मा पडिबंघ-शुभ-काम में विलम्ब नहीं करना चाहिये ।।१०।। मूलार्थ-पालकी से उतरते ही, भद्र सार्थवाह ने सुभद्रा सार्थवाही को आगे किया। वे (सभी) वहां पहुंचे जहां सुव्रता आर्या विराजमान थी। सुव्रता आर्या को वन्दन नमस्कार करने के पश्चात् भद्र सार्थवाह इस प्रकार कहने लगा - "हे देवानुप्रिये ! सुभद्रा सार्थवाही मेरी धर्मपत्नी है जो मुझे इष्ट है, प्रिय है यावत् मैंने इसका वात, पित्त, कफ, सन्निपात आदि विविध रोगों से सुरक्षित रखने का ध्यान रखा है, अर्थात् रोगों से इसकी रक्षा की है । अब यह संसार के भय से जन्म-मरण के दुःखों से डरी हुई है। हे देवानुप्रिये ! इस यह सुभद्रा सार्थवाही आप के समीप मुण्डित होकर प्रवज्या ग्रहण करना चाहती है, अतः हे देवानुप्रिये ! मैं आपको सुभद्रा सार्थवाही को शिष्या के रूप में भिक्षा के रूप में प्रदान करता हूं। हे देवानु पये ! आप इस भिक्षा को स्वीकार करें। . तब आर्या सुव्रता ने कहा - हे देवानुप्रिय ! जैसे आप की आत्मा को सुख हो वैसे करो, पर शुभ काम में विलम्ब अच्छा नहीं ।। १०॥ ___टोका-जब सुभद्रा पालकी से उतरी तो भद्र सार्थवाह ने सुभद्रा को आगे किया, आप पीछे-पीछे साध्वी जी के चरणों में पहुंचा। वन्दना नमस्कार करने के पश्चात् भद्र सार्थवाह ने स्वयं साध्वी सुव्रता से प्रार्थना की, कि मेरी प्रिय पत्नी सुभद्रा मुझे बहुत प्रिय है पर यह जन्म-मरण रूपी दुःख की परम्परा का अन्त करने के लिए श्रमणी बनना चाहती है। मैं आपको इसे भिक्षा के रूप में भेंट करता हूं। कृपया इसे शिष्या बना कर अनुग्रहीत करे । “ऐसे वचन सुनकर साध्वी सुव्रता ने कहा" हेदेवानुप्रिय ! जैसे आपकी आत्मा को सुख हो वैसे करो। Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरयावलिका (२६६) [वर्ग-चतुथ दीक्षा को आज्ञा यहाँ पति से ली गई है, जब पत्नी को वैराग्य भाव उत्पन्न हो जाए, तब पति की आज्ञा से स्त्री को दीक्षा धारण करनी चाहिये । इस सूत्र में सुभद्रा सार्थवाही की वैराग्यभावना का वर्णन किया गया है और शिष्य को भिक्षा रूप कहा गया है । पत्नी को अन्य धार्मिक कार्यों में भी पति की आज्ञा लेनी चाहिये। पति का भी यह कर्तव्य है कि वह पत्नी को हर प्रकार से समझा-बुझा कर अच्छे काम की आज्ञा प्रदान करे। इस सत्र में पति-पत्नी के कर्तव्यों पर अच्छा प्रकाश डाला गया है । भद्र सार्थवाह के शब्द उसके कर्तव्य की साक्षी हैं : एवं खलु देवाणुप्पिया - सुभद्दा सत्थवाही ममं भारिया इट्ठा, कंता, जाव मा णं वातिया, पित्तिया, सिभिया, सन्निवाइया, विविहा रोगातका फुसंतु-अर्थात् हे देवानुप्रिये ! मुझे अपनी पत्नी प्यारी है मैंने इसकी वात, पित्त, कफ, सन्निपात के विभिन्न रोगों से रक्षा की है। इस बात से भद्र सेठ का पवित्र स्नेह व कर्तव्य - परायणता झलकती है। सारा समारोह साध्वी सुव्रता के उपाश्नय में सम्पन्न हमा। प्राचीन काल में भी साधू साध्वियों के ठहरने के स्थान को "उपाश्रय' कहा जाता था। भगवती सूत्र के आठवें शतक में लिखा है। समणोवस्सए-अर्थात् श्रमणों का उपाश्रय यह संज्ञा स्वयं समझ लेनी चाहिये ॥१०॥ उत्थानिका :-सुभद्रा सार्थवाही ने सुव्रता आर्या के सम्मुख दीक्षा से पूर्व जो कार्य किया, __उसका वर्णन सूत्रकार ने किया हैमूल-तएणं सा सुभद्दा सत्थवाही तुट्ठा सुव्वयाहिं अज्जाहिं एवं वुत्ता समाणी हट्ठ० सयमेव आभरणमल्लालंकारं ओमुयइ, ओमुइत्ता, सयमेव पंचमुट्ठियं लोयं करेइ, करित्ता जेणेव सुव्वयाओ अज्जाओ तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता सुव्वयाओ अज्जाओ तिक्खुत्तो आयाहिणपयाहिणणं वंदइ नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासी-आलित्तेणं ! भन्ते ! जहा देवाणंदा तहा पव्वइया जाव अज्जा जाया जाव गत्त बंभयारिणी ॥११॥ छाया-ततः खलु सा सुभद्रा सार्थवाही सुव्रताभिरार्याभिरेवमुक्ता सती स्वयमेव आमरणमाल्यालङ्कारमवमुञ्चति, अवमुच्य स्वयमेव पञ्चमुष्टिकं लोचं करोति, कृत्वा यत्रैव सुव्रता आर्या तत्रवोपागच्छति, उपागत्य सुवता आस्त्रिकृत्वा आदक्षिणप्रदणिणेन वदन्ते नमस्यति, वन्दित्वा नमस्यित्वा, एवमवादोत्-आदीप्तः खलु भदन्त ! यथा देवानन्दा तथा प्रवजिता यावत् आर्या जाता यावद् गुप्तब्रह्मचारिणी ॥११॥ पदार्थान्वयः-तए णं-तत्पश्चात्, सा सुभद्दा सस्थवाही-उस सुभद्रा सार्थवाही.ने, तुट्टाप्रसन्न होकर, सुव्वयाहिं अज्जाहि-सुव्रता आर्या द्वारा, एगं वृत्ता समाणी-इस प्रकार कहने पर, Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ग-चतुर्थ ] ( २६७ ) [निरयावलिका हट्ठा--प्रसन्न हुई तथा, सयमेव -स्वयं ही, आभरणमल्लालंकारं ओमयइ-आभरणों अलंकारों का त्याग करती है, ओमुइत्ता-और त्याग कर, सयमेव - स्वयं ही, पचमुठ्ठियं लोयं करेइ-पांच मुष्टि लोच करतो है, करित्ता-लोच करने के पश्चात्, जेणेव-जहां पर, सव्वयाओ अज्जाओ-सुव्रता आर्या थी, तेणेव उवागच्छइ-वहीं आती है, उवागच्छित्ता-वहां आकर, सुब्वयाओ अज्जाओसुव्रता आर्या को, तिक्खतो-तीन बार, आयाहिणपयाहिणेणं-प्रदक्षिणा करती हुई, वंदइ नमसइ-वन्दना-नमस्कार करती है, वदित्ता नसित्ता-वन्दन नमस्कार करने के पश्चात, एवं बयासी-इस प्रकार कहने लगो, आलित्तेणं भंते-हे गुरुणी जी! यह संसार जन्म-मरण की आग में जल रहा है, जहा-जैसे, देवाणंदा-देवानंदा ब्राह्मणी (भगवती सूत्र के अनुसार वर्णन जानना चाहिये), तहा-वैसे ही, पव्वइया-प्रवज्या ग्रहण करती है, अर्थात् साध्वी बन गई, जाव-यावत्, अज्जा-आर्या, जाया-बन गई, जाव-यावत्, गुत्त बंभयारिणी-गप्त ब्रह्मचारिणी हो गई ॥११॥ ___मूलार्थ तत्पश्चात् वह सुभद्रा सार्थवाही साध्वी सुव्रता के ऐसा कहने पर प्रसन्न हुई जौर उसने स्वयं ही गृहस्थ वेश के वस्त्रों अलंकारों को उतार दिया। अपने हाथों से स्वयेव ही पंचमुष्टि लोच किया । लोच करने के पश्चात् जहां सुव्रता आर्या थी वहां आती है आकर सुव्रता आर्या की तीन बार प्रदक्षिणा करके वन्दना नमस्कार करती है। और फिर इस प्रकार कहने लगी :संसार में आग लगी है संसार दु:खों की आग से जल रहा है" जैसे देवानंदा ब्राह्मणी ने प्रवज्या ग्रहण की थी वैसे उस सुभद्रा सार्थवाही ने भी दीक्षा ग्रहण करना । वह भी यावत् गुप्त ब्रह्मचारिणी हो गई ॥११॥ टीका-प्रस्तुत सूत्र में सुभद्रा सार्थवाही द्वारा दीक्षा लेने का वर्णन है। यह वर्णन भगवती सूत्र में वर्णित देवानंद ब्राह्मणी की तरह है । इस सूत्र में सुभद्रा की वैराग्य भावना का दिग्दर्शन कराया गया है। साथ में बताया गया है कि सुभद्रा ने स्वयं ही पंचमुष्टि लोच किया। फिर उसने अपनी गुरुणी आर्या सुव्रता से पंच महाव्रत धारण किये ॥११॥ उत्थानिकाः-दीक्षा ग्रहण करने के बाद क्या हुआ ? अब इस का वर्णन सूत्रकार ने किया है । ___मूल-तएणं सा सुभद्दा अज्जा अन्नया कयाइ बहुजणस्स चेडरूवे संमृच्छिया जाव अज्झोववण्णा अभंगणं च उव्वट्टणं फासुयपाणं च अलत्तगं च कंकणाणि य अंजणं च वण्णगं च चुण्णगं च खेलगाणि य Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरयावलिका ] [ वर्ग - चतुर्थ " खज्जललगाणि य खीरं च पुष्पाणि य गवेसइ, बहुजणस्स दारए वा दारियाए वा कुमारेय कुमारियाए य डिंभए य डिभियाओ य अप्पेगइयाओ अब्भंगेइ, अप्पेगइयाओ उब्वट्टेइ, एवं अप्पेगइयाओ फासुयपाणएवं व्हावे, अपेगइयाणं पाए रयइ, अप्पेगइयाणं उट्ठे रयइ, अप्पेगइयाणं अच्छीणि अंजेइ, अध्येगइयाणं उसुए करेइ, अप्पेगइयाणं तिलए करे, अपेगइयाओ दिगिंदलए करेइ अप्पेगइयाणं पंतियाओ करेइ, अगइयाइं छिज्जाइ करेइ अप्पेगइया वन्नएणं समालभइ, अप्पेगइया चुन्नएणं समालभइ अप्पेगइयाणं खेल्लणगाई दलयइ अप्पेगइयाणं खज्जुल्लगार्इं दलयइ, अपेगइयाओ खीरभोयणं भुंजावेइ, अगइया पुप्फाई ओमुयइ, अप्पेगइयाओ पाएसु ठवेइ, अप्पेगइयाओ जंघासु करेइ, एवं ऊरुस, उच्छंगे, कढीए, पिट्ठे, उरसि, खधे, सीसे य करतलपडे गहाय हलउलेमाणी- हलउलेमाणी आगायमाणी - आगायमाणी परिगायपरिगाय पुत्तविवासं च धूयपिवासं च नत्तुयपिवासं च नत्तिपिवासं च पच्चणुब्भवमाणी विहरइ ॥ १२ ॥ (२६८ ) छाया - ततः खलु सा सुभद्रा आर्या अन्यदा कदाचित् बहुजनस्य चेटरूपे संमूच्छिता याबद् अध्युपपन्ना अभ्यञ्जनं च उद्वर्त्तनं च प्रासुकपानं च अलक्तकं च कङ्कणानि च अञ्जनं च वर्णकं च चर्णकं खेलकानि च खज्जलकानि च क्षीरं च पुष्पाणि च गवेषयति, गवेषयित्वा बहुजनस्य दारकान् दारिकाः व कुमारांश्च कुमारिकाश्च डिम्भांश्च डिम्भिकांश्च अप्येककान् अभ्यङ्गयति अप्येककान् उद्वर्त्तयति, एवम् अप्येककान् प्रासुकपानकेन स्नपयति, अप्येककानां पादौ रञ्जयति, अध्येककानाम् ओष्ठौ रञ्जयति, अप्येककानाम् अक्षिणी अञ्जयति अप्येककानाम् इषुकान् करोति, अध्येककानां तिलकान् करोति, अप्येककान् दिलिन्दलके करोति, अप्येककानां पङ्क्तीः करोति, अप्येककान् छेद्यान् (छिन्नान् ) करोति, अप्येककान् वर्णकेन समालभते, अप्येककान् चूर्णकेन समालभते, अप्येककेभ्यः खेलकानि ददाति, अप्येककेभ्यः खज्जुलकानि ददाति, अध्येककान् क्षीरभोजनं भोजयति, अप्येककानां पुष्पाणि अवमुञ्चति, अप्येककान् पादयोः स्थापयति, अप्येककान् जङ्घयोः करोति, एवं ऊर्वोः, उत्सङ्ग, कयां पृष्ठे, उरसि, स्कन्धे, शीर्षे च करतलपुटेन गृहीत्वा हलउल्लयन्ती २ आगायन्ती २ परिगा. यन्ती २ पुत्र पिपासां च दुहितृपिपासां च नप्तृकपिपासां च नप्त्रीपिपासां च प्रत्यनुभवन्ती विहरति । १२ । Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ग-चतुर्थ ] (२६६) [निरयावलिशा • पदार्थान्वय:---तएणं-- तत्पश्चात् सा सुभद्दा अज्जा-उस सुभद्रा आर्या को, अन्नया कयाइ--अन्य किसी समय, बहुजणस्स- बहुत लोगों के, चेडरूवे-बालकों पर, समुच्छिया मूर्छा -आसक्ति भाव वाली, जाव-यावत्, अज्झोववण्णा-अतीव आसक्त हो गई. बालकों के निमित्त, अभंगणं च-मालिश के लिये तेल आदि, उव्वट्टणं च-उद्धर्तन, फासुयपाणं च–प्रासुक जल, अलत्तगं च-अल तक, कंकणाणि य-कंगन, अंजणं च-अंजन, वण्णगं च-चन्दन आदि, चण्णगं च-चूर्णक, खेल्लगाणि य-खिलौने, खज्जल्लगाणि य–खाद्य पदार्थ खाजा आदि, खीरं च-क्षीर, पुष्पाणि यपुष्पों का, गवेसइ-गृहस्थों के घरों से गंवेषणा करती है और, गवेसित्ता-गंवेषणा करके, बहुजणस्स दारए वा-बहुत लोगों के बालकों को, दारिया व बालिकाओं को, कुमारे य-कुमारों को, कुमारियाए य -कुमारियों को, डिभए य-छोटे बच्चों, डिभियाओ य-बच्चियों, अप्पेगइयाओ-उन में से किसी को, अब्भगेइ-हाथ - पांव दबातो है, अप्पेगइयाओ उन्वट्ट इकिसी के बटना मलता है, एवं इस प्रकार, अप्पेगइयाओ फासुयपाणएणं-किसी को प्रासुक जल से, व्हावेइ-स्नान कराती है, अप्पेगइयाणं पाए रयइ-किसी के पैरों पर रंग चढ़ाती है, अप्पेगइयाणं उ8 रयइ-किसी के ओष्ठ रंगती है, अप्पेगइयाणं अच्छीणि अजेइ-किसी की आंखों में अञ्जन लगाती है, अप्येगइयाणं उसुए करेइ-किसी के मस्तक पर बाण के आकार का तिलक लगाती है, अप्पेगइयाणं तिलए करेइ-किसी के माथे पर तिलक लगाती है, अप्पेगइयाओ दिगिदलए करेइ-किसी को हिंडोले में बिठलाती है, अप्पेगइयाणं पंतियाओ करेइ-किन्हीं को पंक्ति में बैठाती है, अप्पेगइयाइं छिज्जाइं करेइ-किसी को अलग-अलग बिठलाती है, अप्पेगइय वन्नएणं समालभइ-किसी को वर्णक विशेष प्रकार के चन्दन का लेप करती है, अप्पेगइया चुन्नएणं समालभइ-किसी को चूर्ण का लेप करती है, अप्पेगइयाणं खेल्लणगाई दलयइकिसी को खिलौने गुड़िया आदि देती है. अप्पेगइयाणं खज्जल्लगाइं दलयइ-किसी को खाजा आदि खाद्य पदार्थ देती है, अप्पेगइयाओ खोरभोयणं भुजावेइ-किसी को खीर का भोजन कराती है, अप्पेगइयाणं पृष्फाई ओमुयइ-किसी पर फूल फैकती है, अप्पेगइयाश्दो पाएस ठवेइ-किसी को अपने दोनों पांवों पर बिठलाती है, अप्पेगइसाओ जंघासु करे इ-किसी को अपनी जंघाओं पर बिठलाती है, एवं-इस प्रकार, ऊरुसु-गोडे पर, उच्छंगे-गोद में, कढीए-कटि पर, पिट्ट-पीठ पर, उरसि-छाती पर, खंधे-कन्धे पर, सीसे य–सिर पर बिठलाती है। करतलपुडेणं-दोनों हाथों से, गहाय-उठा कर, हलउलेमाणी-हलउलेमाणी-हुल राती हुई, आगायमाणी-आगायमाणी-बार-बार गाती है, परिगायमाणी-परिगायमाणी-ऊंचेस्वर से गाती हैलोरियां देती है, पुत्तपिवासं च-अपनी पुत्र की प्यास को, ध्यपिवासं च-पुत्री की पिपासा को, नत्तयपिवासं च-दोहते की इच्छा को एवं, नत्तिपिवासं च-दोहती की प्यास को, पच्चगुब्भवमाणी-प्रत्यक्ष अनुभव करती हुई, विहरइ-विचरण करने लगी ॥१२॥ मूलार्थ तत्पश्चात् वह सुभद्रा आर्या (साध्वी), किसी अन्य समय, बहुत लोगों के Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरयावलिका ] [ वर्ग - चतुर्थ बालक-बालिकाओं के प्रति मूच्छित भाव से आसक्त हो गई । वह बालकों को बाहर से, भिक्षा रूप में लाये हुए उबटन आदि लगाकर प्रसुक जल से स्नान कराने लगी । वह अलता, अजन; वर्णक, चूर्णक खिलौनों व खाद्य पदार्थों खीर और पुष्पों की गृहस्थों के घरों में गवेषणा करती है, करने के पश्चात् बहुत से लोगों के बालक बालिकाओं, कुमार; कुमारियों, डिम्भो; लोटे बच्चे बच्चियों में से किसी हाथ पांव दबाती है, किसी के उबटन लगाती है इसी तरह किसी बालक बालिका को प्रासुक जल से स्नान कराती है किसी बालक के पांव पर रंग चढ़ाती है; किसी बालक के होंठ रंगता है, किसी बालक की आंख में अंजन डालता है, किसा बालक को इषुक बाण के आकार का तिलक लगाती है किसी किसी बालक के मस्तक पर तिलक लगाती है । किसी बालक को खेलने के लिए गुड़िया देती है; किसी बालक को बालकों की पक्ति बिलाती है; किसी बालक को चन्दन आदि सुगन्धित द्रव्यों का लेप करती है; किसी बालक को चूर्णक का लेप करती है, किसी बालक को खेलने के लिए खिलौने देती है, किसी बालक को खाद्य पदार्थ (खाजा) देती है क़िसी बालक को खाने के सिए खीर देती है; किसी बालक पर फूल फेंकती है, किसी बालक को अपने दोनों पांवों पर बिठलाती है, किसी बालक को जंघाओं पर बिठलाती है, किसी बालक को उदर स्थल पर, किसी को गोद में ग्रहण करतो है, किसी बालक को कटि प्रदेश से ग्रहण करती है, किसी बालक को पीट पर बिठलाती है, किसी बालक को छाती पर बिठलाती है, किसी बालक को कन्धे पर बिठलाती है, किसी बालक को सिर पर बिठलाती है किसी बालक को दोनों हाथों से पकड़ कर गीत गाती है. वह किसी बालक बालक के लिये लोरियां गाती है इस प्रकार वह ( सुभद्रा आर्या ) अपनी पुत्रपिपासा, पुत्री - पिपासा, पौत्र-पोत्री पिपासा, एनं दोहते दोहतियों की प्यास का प्रत्यक्ष अनुभव करती हुई जीवन यापन करने लयी है ॥ १२ ॥ ( २७० ) टीका - प्रस्तुत सूत्र में बताया गया है कि सुभद्रा आर्या ने पंच महाव्रत ग्रहण कर साध्वी जीवन अंगीकार तो कर लिया, पर उसकी माता बनने की अभिलाषा फिर भी जीवित रही। वह किसी भी तरह अपने मन को वीतराग प्ररूपित धर्म की ओर न लगा सकी। ममता के वश वह अभ्य लोगों के बच्चे व बच्चियों को माता जैसा लाड़ दुलार देने लगी। वह गृहस्थों के बच्चों में सभी सांसारिक नाते रिश्ते देखने लगी। इस तरह सुभद्रा भाव दृष्टि से उन बच्चों पर आसक्त हो गई । Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ग-चतुर्थ ] (२७१) [निरयावलिका - सूत्रकर्ता ने “गवेसई" पद से सिद्ध किया है कि वह साध्वो-जीवन के विपरीत क्रिय ये अकेली करतो थो। फासुयंगण - पद से यह बताया गया है कि वह बालक बालिकाओं को प्रासुक जल से स्नान कराती थी। पुप्फाइं ओमुई–सूत्र से पुष्ट होता है कि वह सचित पुष्पों से नहीं, बल्कि कागज के फूलों से बच्चों का मनोरंजन करती थी। ऐसे वनावटी पुष्प सुगन्धित पदार्थ लगा कर तैयार किये जाते थे। क्योंकि ओमई-पद इसी ओर संकेत करता है । करतलपुडेण गहाय हलउलमाणी-पद से माता और पूत्र का स्वाभाविक स्नेह सिद्ध किया गया है। प्रस्तुत सूत्र में सभद्रा आर्या की मनःस्थिति का स्पष्ट चित्रण किया गया है कि एक वांझ स्त्री बच्चे के लिए किस तरह लालायित रहती है ? साध्वी बनकर भी वह ममता नहीं त्याग सकी। इस सत्र के माध्यम से साध्वियों को राग-द्वेष से बचे रहने का निर्देश किया गया है ॥१२॥ उत्थानिका :-जब सुभद्रा आर्या इस प्रकार की क्रियायें करने लग गई तो अन्य साध्वियों ने - सुभद्रा आर्या को क्या कहा? सुभद्रा ने जो किया उसका वर्णन प्रस्तुत सूत्र में सूत्रकार ने किया है :मूल-तएणं ताओ सुव्वयाओ अज्जाओ सुभद्दे अज्जं एवं क्यासीअम्हे णं देवाणु प्पिए ! समणीओ निग्गंथीओ इरियासमियाओ जाव गुत्तबंभयारिणीओ नो खलु अम्हं कप्पइ जातककम्म करित्तए, तुमं च णं देवाणुप्पिया ! बहुजणस्स चेडरूवेस मुच्छिया जाव अज्झोववन्ना जाव नत्तिपिवासं वा पच्चणुब्भवमाणो विहरसि, तं णं तुमं देवाणुप्पिया एयस्स ठाणस्स आलोएहि जाव पायच्छित्तं पडिवज्जाहि। तएणं सा सुभद्दा अज्जा सुव्वयाणं अज्जाणं एयमद्वं नो आढाइ नो परिजाणइ, अणाढायमाणी अपरिजाणमाणी विहरइ ॥१३॥ ___ छाया- ततः खलु ता सुव ता आर्या सुभद्रामार्यामेवमवादीत्-वयं खलु देवानुप्रिये ! श्रमण्यो निग्रन्थ्यः इर्यासमिता यावद् गुप्तब्रह्मचारिण्यो नो खलु अस्माकं कल्पते जातकर्म कर्तुम्, त्वं च खलु देवानुप्रिये ! बहुजनस्य चेटरूपेषु मूच्छिता यावत् अध्युपपन्ना अभ्यञ्जनं च यावत् नप्त्रीविपासा वा प्रत्यनुभवन्ती विहरसि, तत् खलु देवानुप्रिये ! एतस्य स्थानस्य आलोचय यावत् प्रायश्चित्तं प्रतिपद्यस्व । ततः खलु सा सुभद्रा आर्या सुव्रतानामार्याणामेतमर्थ नो आद्रियते मो परिजानाति, अनाद्रियमाणा नपरिजानन्ती विहरति ।।१३।। Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरयावसिका] (२७२) (वर्ग-चतुर्थ पदार्थान्वयः-तएणं-तत्पश्चात्, ताओ सुचयाओ अज्जाओ-उस सुव्रता आर्या ने, सुभद्दे अज्ज-सुभद्रा आर्या को, एवं वयासी-इस प्रकार कहा, देवाण प्पिए-हे देवानुप्रिये ! अम्हे गं-हम, समणीओ निग्गंथीओ-श्रमणियां निर्ग्रन्थनियां हैं, इरियासमियाओ जाव गुत्तवंभयारिणीओ-इर्या समिति से युक्त गुप्तब्रह्मचारिणो हैं, अम्हे -हमें. जातककम्म करित्तए-बच्चों के पालन-पोषण व खिलाने का कार्य, नो खलु-बिल्कुल नहीं, कप्पइ-कल्पता, तुम च णऔर तुम, देवाणुप्पिए-हे देवानुप्रिये, बहुजणस्स चेडरूवेसु-बहुत लोगों के बच्चों में, मुच्छिया जाव अज्झोववन्ना-मूच्छित याबत् आसक्त हो और, अब्भगणं जाव नत्तिपिवासं व-अभ्यगन आदि क्रिया करती हुई पुत्र पुत्रियों, दोहते दोहतियों, पौत्र पौत्रियों की इच्छा का यावत्, पच्चणुब्भववाणी विहरसि-प्रत्यक्ष अनुभव करती हुई विचर रहो हो, तं णं-अतः, तुम-तुम्हें, देवाणुप्पिया-हे देवानुप्रिये ! एयस्स ठाणस्स-उस दोष युक्त स्थान की, आलोएहि-आलोचना करो, जाव-यात्, पायच्छित्तं-प्रायश्चित्त करो, पडिवज्जाहि-ग्रहण करो, तएणं-तत्पश्चात्. सा सुभद्दा मज्जा-उस सुभद्रा आर्या ने, सुब्बयाणं अज्जाणं-सुब्रता आर्या के एयम्लैं-इस अर्थ बात.का, नो आढाइ, नो परिजाणइ - कोई आदर सम्मान नहीं किया और न ही कोई महत्त्व दिया, अणाढायमाणी अपरिजाणमाणी विहर इ- इस गुरुणी की शिक्षा का आदर न करती हुई न उसे अच्छा समझती हुई विचरने लगती है ।।१३।। मूलार्थ- तत्पश्चात् वह सुव्रता आर्या, सुभद्रा आर्या के प्रति इस प्रकार कहने लगी-हे देवानुप्रिये ! हम श्रमणी हैं निर्ग्रन्थनी हैं, इर्या-समिति से युक्त यावत् ब्रह्मचारिणी हैं। हम लोगों को इस प्रकार लोगों के बच्चों को खिलाना आदि कार्य करने नहीं कल्पते। तुम लोगों के बच्चों में मूछित भाव यावत् अत्यंत आसक्त बन कर उनकी अभ्यंगन आदि क्रियाएं करती हो, प्रत्यक्ष से पुत्र आदि की प्यास अनुभव करती हुई विचर रही हो, अत: हे देवानुप्रिये ! तुम इस दोष-युक्त स्थान की आलोचना करो यावत् प्रायश्चित्त ग्रहण करो। ऐसा सुनकर सुभद्रा आर्या ने सुव्रता आर्या के कथन का न तो कोई आदर किया न हो उसे अच्छा समझा। इस प्रकार आदरसत्कार न करती हुई और न अच्छा समझती हुई विचरने लगी ॥१३ । टीक-प्रस्सुत सूत्र में आर्या सुव्रता ने अपनी शिष्या सुभद्रा को अपना कर्तव्य पहचानने की शिक्षा दी है, कि हम जैन साध्वियां हैं, रागद्वेष से दूर हैं, गुप्त ब्रह्मचारिणी हैं, हम लोगों को बच्चों के इस प्रकार के जातक-कर्म करने शोभा नहीं देते । इस प्रकार का मूर्छा भाव आत्मा के लिये घातक है, तुम्हें इस कृत्य की आलोचना करके प्रायश्चित्त ग्रहण करना चाहिए। वास्तव में यह Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ग-चतुर्थ ] (२७३) [निरयावलिका शिक्षाग्रहण करने योग्य थी, पर सुभद्रा आर्या बच्चों की लीलाओं में इतनी खो चुकी थी कि उसने गुरुणी की आत्म-शुद्धि की बात न मानी। जिस प्रकार रोगी कुपथ्य की ओर ध्यान नहीं देता वही हालत सुभद्रा की थी। उसने गुरुणी के कथन को सुना-अनसुना कर दिया ।।१३।। उस्थानिका-जब शिक्षा देने पर भी सुभद्रा साध्वी पर कोई प्रभाव न पड़ा तब क्या हुआ ? ____ अब उसी के विषय में सूत्रकार कहते हैं :मूल-तएणं ताओ समणीओ निग्गंथीओ भुभदं अज्ज होलेति निदंति खिसंति गरहंति अभिक्खणं अभिक्खणं एयमढं निवारेति । तएणं तीसे सुभद्दाए अज्जाए समणोहिं निग्गंथोहिं होलिज्जमाणीए जाव अभिक्खणं अभिक्खणं एयमढं निवारिज्जमाणीए अयमेयारूवे अज्झथिए जाव समपज्जित्था-जयाणं अहं अगारवासं वसामि तयाणं अहं अप्पवसा जप्पभिई च णं अहं मुंडा भविता अगाराओ अणगारियं पव्वइत्ता, तप्पभिई च णं अहं परवसा, पुटिव च समणीओ निग्गंथीओ आति परिजाणेति, इणाणि नो आढाइंति नो परिजाणंति, तं सेयं खल मे कल्लं जाव जलते सव्वयाणं अज्जाणं अंतियाओ पडिनिक्खमित्ता पाडियक्कं उवस्सयं उवसंपज्जित्ता णं विहरित्तए । एवं संपेहेइ, संपेहित्ता कल्लं जाव जलते सुव्वयाणं अज्जाणं अंतियाओ पडिनिक्खमेइ, पडिनिक्खमित्ता पाडियक्कं उवस्सयं उवसंपज्जित्ता णं विहरइ । तएणं सा सुभद्दा अज्जा अज्जाहिं अणोहट्टिया अणिवारिया सच्छंदमई बहुजणस्स चेडरूवेसु मच्छित्ता जाव अब्भंगणं जाव नत्तिपिवासं च पच्चणुब्भवमाणी विहरइ ॥१४॥ छाया-ततः खलु ताः श्रमण्यो निम्रन्थ्यः सुभद्रामार्या होलन्ति निन्दन्ति खिसन्ति गर्हन्ते अभीक्षणम् २ एतमर्थ निवारयन्ति । तत खलु तस्याः सुभद्राया आर्यायाः श्रमणोभिनिर्ग्रन्थीभिोल्यमानाया यावत् अभीक्ष्णम् २ एतमर्थ निवारयन्त्या अयमेतद्रूप आध्यात्मिको यावत् समुत्पद्यतयदा खल अहम् भगारवासं वसामि तदा खलु अहम् आत्मवशा, यतः प्रभृति च खलु अहं मुण्डा भूत्वा अगारात् अनगारतां प्रवजिता ततः प्रभृति च खलु अहं परवशा, पूर्व च श्रमण्यो निन्थ्य आद्रियन्ते, परिजामन्ति, इदानी नो आद्रियन्ते नो परिजानन्ति, तत् श्रेयः खलु मे कल्ये यावत् ज्वलति सुव्रता Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरयावलिका] (२७४) [वर्ग-चतुर्थ नामार्याणामन्तिकात् प्रतिनिष्क्रम्य प्रत्येकम् उपाश्रयम् उपसंपद्य खलु विहर्तुम्, एवं संप्रेक्षते, सप्रेक्ष्य कल्ये यावत् ज्वलति सुक्तानामार्याणामन्तिकात् प्रतिनिष्काम्यति, प्रतिनिष्कभ्य प्रत्येकमुपाश्रयमुपसंपद्य खल विहरति । ततः खलु सा सुभद्रा आर्या आर्याभिः अनपघट्टिका अनिवारिता स्वच्छन्दमतिः बहुजनस्य चेटरूपेषु मूच्छिता यावत् अभ्यञ्जनं च यावत् नप्त्रीपिपासां च प्रत्यनुभवन्ती विहरति ।१४। पदार्थान्बयः-तएणं-तत्पश्चात्, ताओ समणीओ निग्गंथीओ-उन श्रमणियों f ग्रन्थनियां, सुभदं अज्ज-सुभद्रा आर्या की, हीति-अवहेलना करती हैं, निदति-निंदा करती हैं, खिसतिउससे खीजती हैं, गरहंति-घृणा करती हैं और, अभिक्खणं अभिक्खण–बार-बार, एयमलैं-- इस बात को करने से, निवारेति-निवारण करती हैं, तएणं-तत्पश्चात्, तीसे सुभद्दाए अज्जाए-वह सुभद्रा आर्या को, समणीहि निग्गंथोहि-श्रमणियों निर्ग्रन्थनियों से इस प्रकार होलिज्जमाणीए जाव अभिक्खणं-अभिक्खणं एयमझें निवारिज्जभाणीए-अवहेलना पाती हुई यावत् वार-बार उन चेष्टाओं से रोके जाने पर, अयमेयारूवे-इस प्रकार के, अज्झथिए-उसके मन में विचार आये, जाव सम्पज्जित्था-ऐसा संकल्प उत्पन्न हुआ, जयाण-जब, अहं-मैं, अगारवासं वसामि-घर में थी, तयाणं अहं-तब मैं, अप्पवसा-स्वतन्त्र थी, जप्पभिइ च णजब से, अहं-मैं, मुडा भवित्ता-मुण्डित हुई हूं, अगाराओ अणगारियं पव्व इत्ता-घर छोड़ कर अणगार बनी हूं, तप्पभिई च णं-तब से लेकर, अहं-मैं, परवसा-पराधीन हो गई हूं, पुवि च-और पहले ये, समणीओ निग्गंथीओ आति परिजाणेति-श्रमणियां निर्ग्रन्थनियां मेरा आदर-सत्कार करती थीं, इणाणि-अब, नो आढाइंति नो परिजाणंति-आंदर सत्कार नहीं करती हैं, तं सेयं खलु-इसलिए निश्चय ही उचित है, मे---मुझे, कल्लं जाव जलते-कल सूर्योदय होते ही, सव्वयाणं अज्जाणं अंतियाओ-सुभद्रा आर्या के समीप से, पडिनिक्खमित्ता-अकेले ही निकलकर, पाडियक्कं-पृथक से, उवस्सयं-किसी अन्य उपाश्रय को, उवसंपज्जित्ता-स्वीकार करके, विहरित्तए-विचरण करना, अर्थात् अलग उपाश्रय में रहना, एवं संपेहेइ-इस प्रकार विचार करती है और, संपेहिता-विचार करके, कल्लं जाव जलते-प्रात: सूर्योदय होते हो, सुध्वयाणं अज्जाणं अतियाओ-सुभद्रा आर्या के समीप से, पडिनिवखमेइ, पडिनिक्वमित्ता-निकलती है और निकल कर, पाडियक्कं उवस्सयं-पृथक उपाश्रय में, उवसंपज्जित्ता ण-स्थान स्वीकार करके, विहरइ-विचरण करती है, तएणं-तत्पश्चात्, सा सुभद्दा अज्जा-वह सुभद्रा आर्या, अज्जाहि-अन्य आर्याओं द्वारा, अणोहट्रिया-निषेध करने पर भी न मानती हई, अणिवारियानिवारण न करती हुई, सच्छंदमई-स्वेच्छा से, बहुजणस्स चेडरूवेसु - बहुत लोगों के बच्चों में, मुच्छित्ता-मूर्छित हुई, जाव-यावत्, अम्भंगणं-उनका अभ्यंगन आदि करती है, जाव-यावत्, नत्तिपिवासं च-पौत्र पौत्रादि की पिपासा का, पच्चणम्भवमाणी-प्रत्यक्ष अनुभव करती हुई, विहरइ-विचरने लगी ॥१४॥ मूलार्थ – तत्पश्चात् वह सुभद्रा आर्या (गुरुणी के रोकने पर भी) उस आर्या की Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ग-चतुर्थ ] (२७५) [निरयावलिका M अवहेलना करने लगीं। वह निंदा एवं खीज करती हुई और उससे घृणा करने लगीं। बार बार सुभद्रा को रोकने पर भी वह इन सांसारिक कार्यों से न रुकी तब उस सुभद्रा आर्या के मन में इस प्रकार का सकल्प आया। जब मैं घर में थी तब स्वतन्त्र थी । जब से मैंने गृह-त्याग कर अनगार वृत्ति ग्रहण की है तब से मैं परतन्त्र हो गई हूं। पहले यह श्रमणियां निर्ग्रन्थ नियां मेरा आदर-सत्कार करती थीं अब नहीं करतीं ऐसी स्थिति में मुझे यही श्रेयस्कर है कि मैं सुव्रता आर्या के सान्निध्य को छोड़कर, पृथक् किसी उपाश्रय में जा रहूं, इस प्रकार विचार कर वह सूर्योदय होते ही पृथक उपाश्रय में जाकर रहने लगी। ___ तत्पश्चात् सुभद्रा आर्या अन्य आर्यकाओं के निषेध को न मानती हुई, उन क्रियाओं को न छोड़ती हुई स्वेच्छाचारिणी हो गई। वह बहुत से लोगों के बच्चों में मूछित यावत् ‘अभ्यंग आदि क्रिया करती हुई, पुत्र-पौत्रादि की पिपासा को प्रत्यक्ष रूप से अनुभव करती हुई विचरने लगी ॥१४।। - टोका-प्रस्तुत सूत्र में बताया गया है कि जब सुव्रता आर्या ने सुभद्रा आर्या को अपना कर्तव्य पहचानते हुए साध्वी धर्म में स्थिर रहने का उपदेश दिया तो वह सुभद्रा नहीं मानी। वह साध्वियों को शिक्षा को बुरा समझने लगी। सुभद्रा के मन में से साध्वी-धर्म जैसे उड़ गया। वह . साध्वी-जीवन को परतन्त्रता का कारण मानने लगी। गृहस्थ जीवन उस को स्वतन्त्र जीवन लगने लगा। वह सोचने लगी कि मैं तो घर में ही अच्छी थी, स्वाधीन थी, ये साध्वियां भी पहले मेरा सन्मान-सत्कार करती थीं, पर अब जब मैं साध्वी बन गई हूं पराधीन हो गई हूं, मुझे सुव्रता आर्या का उपाश्रय छोड़ कर कल ही नये उपाश्रय में चले जाना चाहिये। ऐसा विचार कर सुभद्रा आर्या नये उपाश्रय में आ गई वहां लोगों के बच्चों के साथ पूर्व वणित क्रियाएं करने लगी। यहां यह भी बताया गया है कि जैन धर्म में जोर जबरदस्ती का कोई स्थान नहीं है। प्रेरणा का स्थान है। वृत्तिकार ने कुछ महत्व पूर्ण शब्दों की व्याख्या इस प्रकार की है। - 'पाडियक्कं उबस्सयं उवसंपजित्ता णं विहरति' सा पृथक् विभिन्नमुपाश्रयं प्रतिपद्य विचरति आदि पद से सिद्ध होता है कि एकाकी विहार शिथिल व्यक्ति व उग्रविहारी ही कर सकता है, किन्तु वह सुभद्रा आर्या शिक्षा रहित होकर स्वच्छन्दमति होकर ये क्रियाएं कर रही थी। जिस समय शिक्षा अनुकूल नहीं लगती, तो अविनीत शिष्य, सुभद्रा आर्या की भांति सोचने लगता है और दूसरों में दोष निकलता है जैसे सुभद्रा आर्या कहती है। . Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरयावलिका) (२७६) विग-चतुर्थ पुव्विं च समणीओ निग्गंथनीओ आढेइ परिजाणेति इयाणि नो आढाइंति नो परिजाणति-- अर्थात् पहले तो ये श्रमणियां-निर्ग्रन्थिनियां मेरा मान-सम्मान सत्कार करती थीं अब मुझे कोई मान-सत्कार नहीं देतीं ।।१४।। मूल-तएणं सा सुभद्दा अज्जा पासत्था पासस्थविहारी एवं ओसण्णा० ओसणण्णविहारी कुसीला कुसोलविहारी संसत्ता संसत्तविहारी अहाच्छंदा अहाच्छंद विहारी बहूई वासाइं सामन्नपरियागं पाउणइ, पाउणित्ता अद्ध मासियाए संलेहणाए अत्ताणं झूसित्ता तीसं भत्ताइं अणसणाए छेदित्ता तस्स ठाणस्स अणालोइयप्पडिक्कंत, कालमासे कालं किच्चा सोहम्मे कप्पे बहुपुत्तियाविमाणे उववायसभाए देवसयणिज्जसि देवदूसंतरियाए अंगुलस्स असंखेज्जमागमेत्ताए ओगाहणाए बहुपुत्तिय-देवित्ताए उववण्णा ॥१५॥ छाया-ततः खलु सा सुभद्रा आर्या पार्श्वस्था पार्श्वस्थविहारिणी एवमवसन्ना अवसन्नविहारिणी कुशीला कुशीलविहारिणी संसक्ता संसक्तविहारिणी यथाच्छन्दा यथाच्छन्दविहारिणी बहूनि वर्षाणि श्रामण्यपर्यायं पालयति, पालयित्वा अर्द्धमासिक्या संलेखनया आत्मनं जोषयित्वा विशद् भक्तानि अनशनेन छित्त्वा तस्य स्थानस्य अनालोचिताऽप्रतिकान्ता कालमासे कालं कृत्वा सौधर्मे कल्पे बहुपुत्रिकाविमाने उपपातसभायां देवशयनीये देवदूष्यान्तरिता अंगुलस्य असंख्येयभागमात्रया अवगाहनया बहुपुत्रिकादेवीतया उपपन्ना :।१५॥ पदार्थान्वयः-तएणं-तदनन्तर, सा सुभद्दा अज्जा-वह आर्या सुभद्रा, . पासत्था पासविहारी–साधु के गुणों से दूर होकर विचरतो है, एवं ओसण्णा०–साधु-समाचारी के पालन में खिन्न (अर्थात् साधु समाचारी से उदासीन हो कर), ओसण्ण विहारी-अवसन्न विहारिणी हो गई, कुसीला कुसीलविहारी-उत्तर गुणों का पालन न करने के कारण संज्वलन कषायों का उदय हो जाने से दूषित आचरण वाली, समाचारी पालन में शिथिल होकर विचरने लगी, संसत्ता संसत्तविहारी-गृहस्थों के बाल-प्रेम सम्बन्धों में आसक्त होकर शिथिालाचारिणी होकर विचरने लगी ; अहाच्छंबा-अपने अभिप्राय से कल्पित धर्म-मार्ग पर, अहाच्छंदविहारी-स्वच्छंद होकर चलने लगी, एवं बहुवासाइं-इस प्रकार अनेक वर्षों तक, सामन्नपरियागं-श्रमणचर्या का, पाउणइ पालन करती है, पाउणित्ता-और उस चर्या का पालन करके, अद्धमासियाए-अर्ध Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ग-चतुर्थ ] (२७७ ) [निरयावलिका मासिकी, संलेहणाए-संलेखना द्वारा, अताणं-अपने आपको, झसित्ता-सेवित करके, तीसं भत्ताई-तीस भक्तों (आहारों) के, अणसणाए-अनशन द्वारा, छेदित्ता-छेदन करके (आहारों का त्याग करके, तस्स ठाणस्स अणालोयप्पडिक्कंत-उस अनाचार की आलोचना न करके. काल मासे कालं किच्चा मत्य-काल आने पर मर कर. सोहम्मे कप्पे-सौधर्म कल्प नामक देवलोक के, बहपत्तिया विमाणे-बहपत्रिका नामक विमान की. उववायसभाए-उपपात सभा में. देवसयणिज्जसि-देव-शय्या पर, देवदूसंतरियाए-देव दूष्य वस्त्रों से आच्छादित, अगुलस्सअसंखेज्जमागमेताए-अंगुल के असंख्यातवें भाग मात्र की, ओगाहणाए-अवगाहना से (शरीरप्रमाण से), बहुपुत्तियदेवित्ताए-बहुपुत्रिका देवी के रूप में, उववण्णा-उत्पन्न हुई ॥१५॥ मूलार्थ -तदनन्तर वह आर्या सुभद्रा साधु के द्वारा आचरणीय गुणों से दूर होकर साधु-समाचारी के पालन में खेदयुक्त हुई अवसन्न विहारिणी हो गई, उत्तर गुणों का पालन न करने के कारण संज्वलन कषायों का उदय हो जाने से दूषित आचरण वाली बन कर-समाचारी के पालन में शिथिल होकर विचरने लगी। वह गृहस्थों के बाल-प्रेम के सम्बन्धों में आसक्त होकर शिथिलाचारिणी बन कर अपने अभिप्राय से कल्पित धर्म-मार्ग पर स्वच्छन्दता पूर्वक विचरने लगी । इस प्रकार अनेक वर्षों तक तथाकथित श्रमणीचर्या का पालन करती हुई अर्धमासिकी सलेखना द्वारा अपनी आत्मा को सेवित करके तोस भक्तों (पन्द्रह दिन तक आहार का) त्याग करके उन अनाचारणीय कार्यों के आचरण की आलोचना किये बिना ही, मृत्यु का अवसर आने पर मर कर सौधर्म कल्प नामक देवलोक के बहुपुत्रिका नामक विमान की उपपात सभा में देवदूष्य वस्त्रों से आच्छादित अंगुल के असख्थातवें भाग की अवगाहना से (शरीर-प्रमाण से) वह बहुपुत्रिका देवी के रूप में उत्पन्न हुई ॥१५॥ टीका-इस सूत्र में बताया गया है कि आर्या सुभद्रा सुव्रता आर्या से अलग होकर वह अपनी इच्छा के अनुसार विचरण करने लगी। उसकी स्वछन्दता की अभिव्यक्ति के लिये सूत्रकार ने पांच वाक्यों का प्रयोग किया है-पासत्था पासस्थविहारी, ओसण्णा ओसण्णविहारी, कुसीला कुसीलविहारी, संसत्ता संसत्तविहारी, अहाच्छन्दा अहाच्छन्दविहारी- अर्थात् शिथिलाचार में प्रवृत्त, संयम-पालन की उपेक्षा करती हुई, ज्ञानादि साधनों की विराधिका होकर केवल अपने अनुकूल अर्थात् जैसा चाहती थी वैसा ही आचरण करने लगी। पासत्था शब्द का अर्थ है-जातादिना पाते. तिष्ठति इति पार्श्वस्था। इसी प्रकार अन्य पांच पद भी उसकी स्वच्छन्दता की अभिव्यक्ति कर Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरयावलिका] (२७८) [वर्ग-चतुर्थ रहे हैं, क्योंकि ज्ञानादि के पास रहते हुए भी वह उनके अनुकूल आचरण करने की उसकी सामर्थ्य को सन्तान-मोह ने नष्ट कर दिया था। वह इस अनाचरण की आलोचना किए बिना ही मृत्यु को प्राप्त हुई और सौधर्म देवलोक के बहुपुत्रिका विमान में उत्पन्न हुई। साधु-जीवन स्वीकार करने का फल तो उसे मिलना ही था और वह देव-भव की प्राप्ति के रूप में उसे प्राप्त हुआ ॥१५।। मूल-तएणं सा बहुपुत्तिया देवी अहुणोववन्नमित्ता समाणी पंचविहाए पज्जत्तीए जाव भासामणपज्जत्तीए । एवं खलु गोयमा ! बहुपुत्तियाए देवीए सा दिव्वा देविड्ढी जाव अभिसमण्णागया। से केणठेणं भंते ! एवं वच्चइ बहुपुत्तिया देवी देवी ? गोयमा बहुपत्तिया णं देवी जाहे जाहे सक्कस्स देविंदरस देवर ण्णो उवस्थाणियणं करेइ, ताहे ताहे बहवे दारए य दारियाए य डिभए य डिभियाओ य विउव्वइ, विउवित्ता जेणेव सक्के देविदे देवराया तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता सक्कस्स देविंदस्स देवरण्णो दिव्वं देविड्ढि दिव्वं देवज्जुई दिव्वं देवाणुभागं उवदंसेइ, से तेणट्टेणं गोयमा ! एवं वुच्चइ बहुपुत्तिया देवी ॥१६॥ छाया-ततः खलु सा बहुपुत्रिका देवी अधुनोपपन्नमात्रा सतो पञ्चविधया पर्याप्त्या यावद् भाषामनःपर्याप्त्या० । एवं खलु गौतम ! बहुपुत्रिकाया देव्या दिव्या देवद्धिः यावत् अभिसमन्वागता । अथ सा केनार्थेन भदन्त ! एवमुच्यते बहुपुत्रिका देवी देवी ? गौतम ! बहुपत्रिका खल देवी यदा यदा शकस्य देवेन्द्रस्य देवराजस्य उपस्थानं (प्रत्यासत्तिगमन) करोति । तदा तदा बहून् दारकांश्च दारिकाश्च डिम्भांश्च डिम्भिकांश्च विकुरुते, विकृत्य यत्रव शक्को देवेन्द्रो देवराज-तत्रैव उपागच्छलि, उपागत्य शकस्य देवेन्द्रस्य देवराजस्य दिव्यां देवद्धि दिव्यं देवज्योतिः दिव्यं देवानुभागमुपदर्शयति । ततेनाऽर्थन गौतम ! एवमुच्यते बहुपुत्रिका देवी ॥१६।। पदार्थान्वषः-तएणं-तदनन्तर, सा बहपत्रिका देवी-वह बहुपुत्रिका देवी, अहणोब बन्नमित्ता समाणी-वर्तमान में उत्पन्न होते ही, (उसने), पंचविहाए पज्जत्तीए-पांच प्रकार की पर्याप्तियों, भासामणपज्जत्तीए भाषा और मन: पर्याप्तियों आदि को प्राप्त कर लिया। एवं खलु गोयमा!-गौतम इस प्रकार से, बहुपुत्तियाए देवीए-बहुपुत्रिका देवी ने, · सा दिव्वा देविड्डी-वह दिव्य समृद्धि, जाव. अभिसमण्णागया-आदि उसे प्राप्त हुई थी। से केण?णं Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ग-चतुर्थ ] (२७६) [निरयावलिका भन्ते-भगवन् ! किस कारण से, बहुपुत्तिया देवी-उसे बहुपुत्रिका देवी, एवं वुच्चइ-इस नाम से पुकारा जाता है ? गोयमा! बहुपुत्तिया णं देवी-गौतम ! वह बहुपुत्रिका देवी, जाहे-जाहेजब-जब, सक्कस्स देविदस्स देवरणो-देवराज शक्र देवेन्द्र के, उवत्थाणियणं-पास जाती है, ताहेताहे-तब-तब वह, बहवे दारए दारियाए य-बहुत से लड़के लड़कियों, डिभए य डिभियाओ यछोटे-छोटे बच्चे बच्चियों की, विउब्वइ-विकुर्वणा करती है, विउवित्ता-विकुर्वणा करके, जेणेव सक्के देविदे देवराया-जहां देवताओं के राजा देवेन्द्र देव-सभा में बैठे होते हैं, तेणेव उवागच्छइवहीं पर आती है, उवागच्छित्ता - और वहां आकर, सक्कस्स देविदस्स देव-रणो-देवताओं के राजा देवेन्द्र शक के सपक्ष, दिव्वं देविडि-अपनी दिव्य समृद्धि, दिव्वं देवज्जुइ-दिव्य देव ज्योति को, दिव्व देवाणुभाग-दिव्य तेज को, उवदंसेइ-प्रदर्शित करती है, से तेणढणं-वह इसी कारण से, गोयमा !-हे गौतम, एवं बहुपुत्तिया देवी-इस प्रकार वह बहुपुत्रिका देवी कहलाती है ॥१६॥ मूलार्थ-तत्पश्चात् वह बहुपुत्रिका देवी अभी-अभी उत्पन्न होते ही पांचों पर्याप्तियां - भाषा पर्याप्ति, मन पर्याप्ति आदि प्राप्त कर लेती है । हे गौतम इस प्रकार बहुपुत्रिका देबी ने दिव्य देब-ऋद्धियां प्राप्त कर लीं। ___भगवन् ! किस कारण से वह देवी बहुपुत्रिका कहलाती है, गौतम ! वह बहुपुत्रिका देवी जब-जब देवताओं के राजा देवेन्द्र शक्र के पास जाती है, तब-तब वह बहुत से लड़के-लड़कियों तथा बच्चे बच्चियों की वि कुर्वणा करती है - अपनी देव-शक्ति से बच्चेबच्चियां बना लेती है, वि कुर्वणा करने के अनन्तर जहां देवताओं के राजा शक्रेन्द्र विराजमान होते हैं वहां आती है और देवराज शक्रेन्द्र के समक्ष अपनी दिव्य समृद्धि. दिव्य देव-ज्योति और अपना दिव्य तेज प्रदर्शित करती है। हे गौतम इसीलिये वह बहुपुत्रिका देवी कहलाती है ॥१६॥ टोका-प्रस्तुत सूत्र में आर्या भद्रा का नाम बहुपुत्रिका क्यों पड़ा ? इस विषय पर युक्तियुक्त प्रकाश डाला गया है कि वह जब भी शक्रन्द्र के सानिध्य में जाती थी तो अनेक बच्चों की विकुर्वणा करके उनको साथ लेकर जाती थी। अतः वह बहुपुत्रिका नाम से प्रसिद्ध हो गई। देवलोक में उसने चार पल्योपम की आयु प्राप्त की थी ।।१६।। मूल-बहुपत्तियाए णं भंते ! देवीए केवइयं कालं ठिइं पण्णता? गीयमा ! चत्तारि पलिओवमाइं ठिई पण्णत्ता। बहुपुत्तिया णं भंते ! देवी Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरयावलिका ] [ वर्ग - चतुर्थ ताओ देवलगाओ आउक्खएणं ठिइक्खएणं भवक्खएणं अनंतरं चयं चइत्ता कहिं गच्छ ? कहि उववज्जिहिइ ? गोयमा ! इहेव जंबूदीवे दीवे भारहे वासे विज्झगिरिपायमूले विभेलसंनिवेसे माहण कलंसि वारियताए पच्चायाहि । तएणं तोसे दारियाए अम्मापियरो एक्कारसमे दिवसे वितिक्कते जाव बारसेहिं दिवसेहिं वितिक्कंतेहिं अयमेयारूवं नामधिज्जं करेंति, होउ णं अम्हं इमोसे दारियाए नामधिज्जं सोमा । तएणं सोमा उम्मुक्कबालभवा विणयपरिणयमेत्ता जोव्वणगमनुत्पत्ता रूवेण य जोव्व exces ( २८० ) णय लावण्णेण य उक्किट्ठा उक्किट्ठसरीरा जाव भविस्सइ । तएणं तं सोमं दारियं अम्मापियरो उम्मुक्कबालभावं विणयपरिणयमित्तं जोव्वणगमणुप्पत्तं पडिकूविएणं सुक्कणं पडिरूवएणं नियगस्स भायणिज्जस्स रट्ठकूडयस्स भारियत्ताए दलइस्सइ । सा णं तस्स भारिया भविस्सइ इट्ठा कंता जाव भंडकरंडगसमाणा तेल्लकेला इव सुसंगोविआ चेलपेला. (डा) इव सुपरिग्गहिया रणकरंडगओ विवसुसार विखया सुसंगोविया माणं सीयं जाव माणं विविहा रोगातंका फुसंतु ॥ १७॥ छाया - बहुपुत्रिकाया भदन्त ! देव्याः कियन्तं कालं स्थितिः प्रज्ञप्ता ? गौतम ! चतुः पल्योपमा स्थितिः प्रज्ञता । बहुपुत्रिका खलु भदन्त ! देवी तस्माद्देवलोकादायु क्षयेण स्थितिक्षयेण भवक्षयेण अनन्तरं चयं च्युत्वा क्व गविष्यति क्व उत्पत्स्यते ? गौतम ! अस्मिन्नेव जम्बूद्वीपे द्वीपे भारते वर्षे विन्ध्यगिरिपादमूले विभेलसन्निवेशे ब्राह्मणकुले दारिकातया प्रत्यायास्यति । ततः खलु तस्या दारिकाया अम्बापितरौ एकादशे दिवसे व्यतिक्रान्ते यावद् द्वादशभिदिवसैर्व्यतिक्रान्तं रिदमेतद्रूपं नामधेयं कुरुतः, भवतु अस्माकमस्या दारिकाया नामधेयं सोमा । ततः खलु सोमा उन्मुक्तबालभावा विज्ञकपरिणतमानमनुप्राप्ता रूपेण च यौवनेन च लावण्येन च उत्कृष्टा उत्कृष्टशरीरा यावत् भविष्यति । तसः खलु तां सोमां दारिकाम् अम्बापितरो उन्मुक्तबालभावां विज्ञकपरिणतमात्रां यौवनमनुप्राप्तां प्रतिकूजितेन शुल्केन प्रतिरूपेण निजकाय भागिनेयाय राष्ट्रकूटकाय भार्यातया दास्यति । सा खलु तस्य भार्या भविष्यति इष्टा कान्ता यावत् भाण्डकरण्डकसमाना तंलकेला इव सुसंगोपिता चेलपेटा इव सुपरिगृहीता रत्नकरण्डक इव सुसंरक्षिता सुसंगोपिता मा खलु शीतं यावत् मा विविधाः रोगात काः स्पृशन्तु ।।१७।। Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ग--चतुर्थ (२८१) [निरयावलिका - पदार्थान्वयः- (गौतम ने भगवान महावीर से प्रश्न किया)-बहुपुत्तियाए णं भंते ! -भगवन् उस बहपत्रिका देवी की, केवइयं कालं-कितने समय तक वहां (सौधम देवलोक में), ठिE पत्ता-स्थिति कही गई है ? गोयमा-(भगवान् महावीर ने कहा) गौतम ! चत्तारि पलिओवमाई–चार पल्योपम की, ठिई पग्णता-स्थिति कही गई है : (गौतम पुनः प्रश्न करते हैं। बहुपत्तिया णं भन्ते-भगवन् ! वह बहुपुत्रिका देवी, ताओ देवलोगाओ उस देवलोक से, आउक्खएणं-ग्रायु पूर्ण होने पर, ठिइक्खएणं-स्थित पूर्ण होने पर, भवक्खएणं-देव-भव का क्षय होने पर, अणंतरं -तदनन्त र वह, चयं च इत्ता - वहां से च्यवन करके, कहिं गििहइ-कहां जायेगी, कहिउवजिहिइ–कहाँ उत्पन्न होगी? (भगवान् महावीर ने उत्तर में कहा)-गोयमा ! इहेव जम्बूदीवे दीवे -इसी जम्बूद्वीप नामक द्वीप में, भारहेवासे–भारत वर्ष में ही, विज्झगिरि पायमले-विन्ध्य पर्वत की तलहटी में, विभेनसंमिवेसे-विभेल नामक ग्राम में, माहण कुलंसि - ब्राह्मण-कुल में, दारियताए-लड़की के रूप में, पच्चायाहिइ-लौट आएगी अर्थात् जन्म लेगी, तएणं-तत्पश्चात्, तीसे दारियाएउस लड़की के, अम्मा-पियरो-माता-पिता, एक्कारसमे दिवसे वितिक्कन्ते-ग्यारह दिन बीत जाने पर, बारसेहि दिवसेहि वितिक्कितेहि-बारहवां दिन जब बीत रहा था अयमेयारूवं नामधिज्ज करेंति-तब उसका नामकरण करेंगे, होउणं अम्हं इमोसे दारियाए नामधिज्ज सोमा-हमारी इस लड़की का नाम होगा सोमा, ततः खलु सोमा-तदनन्तर वह सोमा, उन्मुक्कबालभवा-बालकपन को छोड़कर. विणयपरिणयमेत्ता-वैषयिक सुखों के परिज्ञान के साथ युवा अवस्था को प्राप्त हो गई, जोव्वणगमणुपत्ता–युवती हो जाने पर, स्वेण य, जोवणेण य, लावण्णेण य - रूप यौवन और सुन्दरता से, उक्किट्ठा-उत्कृष्ट, उक्किटुसरीरा-अत्यन्त सुन्दर शरीर वाली, जाव भविम्सइवह होगी। एणं तं सोमं दारियं-तत्पश्चात् उस सोमा नामक लड़की को, अम्मा-पियरो-मातापिता ने, उन्मुक्कबाल भावं-वह वचपन को पार कर गई, विणय-परिणयमित्तं-विषय-सुख, से अभिज्ञ—जानकार, जोवणगम पत्त-युवती हो जाने पर, पडिकूविएणं-स्वीकृति सूचक शब्दों द्वारा, सुक्कणं-शुल्क रूप देय द्रव्य देते हुए, पडिरूवएणं-प्रतिरूप अर्थात् मनोनुकूल वचनों द्वारा, नियकस्स-अपने, भायविज्जस्स रटूकडयस्स-भानजे राष्ट्र कूट को, भारियत्ताए--पत्नी के रूप में, दल इस्सइ-प्रदान कर देगा, अर्थात् राष्ट्रकूट के साथ उसका विवाह कर देगा, साणं तस्स भारिया-राष्ट्रकूट को अपनी पत्नी सोमा, इट्टा कता भविस्सइ-प्रिय एवं अत्यन्त सुन्दर लगेगी, (अतः वह), जाव-यावत्, भंडकरंडगसमाणा-आभूषण रखने के डिब्बे के समान, तेल्लकेला इव-तेल रखने के पात्र के समान, सुसंगोविआ-अच्छी प्रकार सुरक्षित, चेलपेला (डा) इव-वस्त्र रखने की पेटी के समान, सुसंपरिग्गया-अच्छी प्रकार से उसकी रक्षा करेगा, रण-करंडगओ-हीरे मोती आदि रत्न रखने की तिजौरी के समान, विवसुसारक्खिया-अच्छी Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरयावलिका] (२८२) (वर्ग-चतुर्थ प्रकार से संभाल करके उसको सुरक्षित रखेगा, मा णं सीय जाव-उसे शीत-वाधा न सताये, मा णं विवहा रोगातका फुसन्तु-अनेक प्रकार के रोग इसका स्पर्श भी न कर सकें (इस बात का भी वह ध्यान रखेगा) ।।१७।। मूलार्थ - (गौतम स्वामी ने भगवान् महावीर से प्रश्न किया) कि- भगवन् ! उस बहुपुत्रिका देवी की उस सौधर्म देवलोक में कितने समय की स्थिति कही गई है ? (भगवान् महावीर ने उत्तर दिया) वहां उसकी स्थिति चार पल्योपम की होगी। (गौतम पुनः प्रश्न करते हैं)- वह बहुपुत्रिका देवी उस सौधर्म देवलोक से अपनी देवलोक की आयु पूर्ण होने पर, उसका स्थिति काल समाप्त होने पर, देवभव का समय पूर्ण हो जाने पर वह उस देवलोक से च्यव कर कहां जायेगी- कहां उत्पन्न होगी? । (भगवान महावीर ने गौतम के प्रश्न का पुनः समाधान करते हुए कहा- गौतम वह इसी जम्बूद्वीप नामक द्वीप के एक भाग भारत वर्ष में ही विन्ध्याचल पर्वत की तलहटी में बसे विभेल नामक ग्राम में एक ब्राह्मण-परिवार में लड़की के रूप में आकर जन्म लेगी। तत्पश्चात् उस लड़की के माता-पिता ग्यारह दिन बीत जाने पर जब बारहवां दिन व्यतीत हो रहा होगा तो वह उस लड़की का नामकरण "सोमा" करेंगे । तदनन्तर धीरे-धीरे वह सोमा अपने बचपन को पार करके जब युवती हो जायेगो, तब वह रूप यौवन और सुन्दरता से अत्यन्त उत्कृष्ट होगी, तत्पश्चात् उसके माता-पिता यह जानकर कि वह यौवन-सुखों की महत्ता को जान गई है और युवती हो गई है, तब उन्होंने अपने भानजे राष्ट्रकूट को स्वीकृति-सूचक शब्दों द्वारा और शुल्क (दहेज) के रूप में देय द्रव्य देते हुए सोमा को उसे पत्नी के रूप में दे देगा, अर्थात् उसके साथ उसका विवाह कर देगा। राष्ट्रकूट को अपनी पत्नी सोमा प्रिय एवं अत्यन्त सुन्दर लगेगी अत: वह आभूषण रखने के डिब्बे के समान, तेल रखने के पात्र के समान और वस्त्र रखने की पेटी के समान और हीरे मोती आदि रखने की तिजौरी के समान उसको अच्छी तरह सुरक्षित रक्खेगा; वह यह भी ध्यान रक्खेगा कि इसे शीत-वाधा न सताये और कोई भी रोग इसका स्पर्श न कर सके ॥१७॥ Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ग – चतुर्थ ]. ( २८३) [ निरयावलिका टीका - इस सूत्र में बहुपुत्रिका देवी के भविष्य-भावी जीवन का वर्णन किया गया है कि वह भारतवर्ष में ही विन्ध्याचल पर्वत की तलहटी में बसे विभेल नामक ग्राम में एक ब्राह्मणपरिवार में जन्म लेगी । उसके माता-पिता उसके जवान हो जाने पर उसका विवाह अपने भानजे राष्ट्रकूट के साथ कर देंगे । . राष्ट्रकूट से पहले प्रिय वचनों द्वारा स्वीकृति लेंगे और फिर शुल्क अर्थात् दहेज भी देंगे । इस घटना के वर्णन से ज्ञात होता है कि उन दिनों निकट की रिश्तेदारियों में भी कन्या दी जाती थी, उस समय भी दहेज देने को प्रथा थी । तब बाल-विवाह भी नहीं होते थे ।। १७ ।। मूल - तए णं सोमा माहिणी रट्ठकूडेणं सद्धि बिउलाई भोग भोगाई भुंजाणी संच्छ संवच्छरे जुयलगं पयायमाणी सोलसेहि संवच्छरोहिं बत्तीसं दारणरूवे पयाइ । तए णं सा सोमा माहणी तेहि बहूहिं बारगेहि यदारियाहिंय कुमारएहिं य कुमारियाहिं य डिंभएहि य डिभियाहि य अप्पेगइएहिं उत्ताणसेज्जएहि य अप्पेगइएहि यणियाएहिं य अप्पेगइएहि पीहापाएहि अप्पे एहि परंगणएहि अप्पेगइएहिं परक्कममाणेहि अप्पेगइएहि पक्खोलणएहिं अप्पेगइएहि थणं मग्गमाणे अप्पेगइएहिं खीरं मग्गमाणेहि अप्पेगइएहिं खिल्लणयं मग्गमाणेहिं अप्पेगइएहि खज्जगं अपेग एहिं कूरं मग्गमाणे पाणियं मग्गमाणेहिं हसमाणेहिं रूसमा अक्कुसमाणेह अक्कोस्समाणेह हणमाणेहि विप्पलायमाणेहिं अणुगम्ममाणेहिं रोवमाणेहिं कंद माणं हि विलवमाणेहिं कुवमाणेहिं उक्कूमाहं निद्वायमाणेहिं पलंबमाणेहिं दहमाणेहिं दंसमाणेह वममाणेहिं छेरमाणेहिं मुत्तमाहं मुत्तपुरी सवमियसुलित्तोवलित्ता मइलवसणपुच्चडा जाव असुइबीभच्छा परमदुग्गंधा नो संचाएइ रट्ठकूडेणं सद्धि विजलाई भोग भोगाई भुंजमाणी विहरित ॥ १८ ॥ छाया - ततः खलु सा सोमा ब्राह्मणी राष्ट्रकूटेन सार्द्धं विपुलान् भोगभोगान् भुञ्जाना संवत्सरे संवत्सरे युगलं प्रजनयन्ती षोडशभिः संवत्सरः द्वात्रिंशद् वारकरूपाणि प्रजनयति । ततः खलु सा सोमा Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरयावलिका] ( २८४) वर्ग-चतुर्थ व ह्मणी तैर्बहुभिर्दार कैश्च दारिकाभिश्च कुमारैश्च कुमारिकाभिश्च डिम्भश्च डिम्भिकाभिश्च अप्येककै उत्तानशयकश्च, अप्येकक. स्तनितश्च अप्येककैः स्पृहकपादै , अप्येककैः पराङ्गणकः, अप्येकको पराक्रममाणः, अप्येककैः, प्रस्खलनकै , अप्येककैः स्तनं मृग्यमाणः, अध्येककैः, क्षीरं मृग्यमाणः, अप्येककैः, खेलनकं मृग्यमाणैः, अप्येक कैः खाद्यक मग्यामणैः, अप्येककैः कूरं (भक्त) मग्यमाणः, पानीयं मृग्यमाणः हसद्भिः, रुष्यद्भिः, आक्रोद्भिः, आक श्यद्भिः, हन्यमानः, विप्रलपद्भिः, अनुगम्यमानः, रुदद्भिः, क्रन्दद्भिः, विलपद्भिः, कूजद्भि. उत्कूद्भिः, निर्धावद्भिः, प्रलम्बमानः, दहद्भिः, दशद्भिः, वद्भिः छरद्भिः, मत्रद्धिः, मूत्रपुरोष वान्तसुलिप्तोपलिप्ता मलिनवमनपुच्चडा यावद अशुचिबीभत्सा परमदुर्गन्धा नो शक्रोति राष्कूटेन सार्ध विपुलान् भोगभोगान् भुजाना विहर्तुम् ।१८। पदार्थान्वयः-तएणं सा सोमा माहिणी-तदनन्तर (विवाहोपरान्त) वह सोमा ब्राह्मणी, रटुकडेणं सद्धि-राष्ट्रकूट के साथ, विउलाई-अनेक विध, भोगभोगाइं भुंजमाणी-भोगों को भोगती हुई, संवच्छरे-संवच्छरे-प्रतिवर्ष, जुयलगं पयायमाणी-सन्तान-युगल (जोड़ी) को जन्म देती हुई, सोलसहि संवच्छरेहि-सोलह वर्षों में, बत्तीसं दाणरूवे पयाई- बत्तीस बच्चों को जन्म देगी। तएणं सा सोमा माहिणी-तब वह सोमा ब्राह्मणी, तेहिं बहूहि दारगेहि य दारियाहि यउन बहुत से लड़के-लड़कियों, कुमारएहि य कुमारियाहि य-कुमारों एवं कुमारियों, डिभएहि य डिभियाहि य-अल्प वयस्क बालक-बालिकाओं में से, अप्पेग इएहिं उत्ताणसेज्जएहि-कोई एक उत्तान (ऊपर की ओर मुख करके) सोते रहेंगे, य अप्पेगइएहि थणियाएहिं य-और कोई एक बच्चा चीख रहा होगा, अप्पेगइएहि पीहगपाएहि-कोई एक चलना चाहेगा, अप्पेगइएहि परंगणपति कोई बच्चा दूसरों के आंगन में चला जाएगा, अप्पेगह परकममाहि-कोई बच्चा चलने की चेष्टा करेगा, अप्पेगइएहि पक्खोलणएहि-कोई बच्चा गिर पड़ेगा, अप्पेगइएहि थणं मग्गमाहि-कोई बच्चा (दुग्ध-पान के लिये उसके) स्तनों को ढूंढेगा, अप्पेग इएहि खीर मग्गमाहि-कोई बच्चा दूध की तलाश कर रहा होगा, अप्पेग इएहि खिल्लणयं मग्गमाणेहिकोई बच्चा खिलौने ढूंढ रहा होगा, अप्पेगइएहि खज्जगं मग्गमाणेहि-कोई बच्चा खाद्य पदार्थों को ढूंढ रहा होगा, अप्पेगइएहि कूरं मग्गमाणेहि-कोई बच्चा भोजन (भात) की तलाश कर रहा होगा, अप्पेगइएहिं पाणीयं मग्गमाणेहि-कोई बच्चा पीने के लिये पानी या अन्य पेय ढूंढ रहा होगा, हसमाहि-कोई हंस रहा होगा, रूसमाणेहि-कोई रूठ रहा होगा, अक्कोस्समाणेहि-कोई गुस्से में भर रहा होगा, अक्कुस्समाहि-कोई बच्चा अपनी वस्तु पाने के लिये दूसरों से लड़ रहा होगा, हणमाणेहि-को दूसरे बच्चों का मार रहा होगा, विप्पलापमाणेहि-कोई प्रलाप कर रहा होगा, अणुगम्ममाणेहि-कोई किसी के पोछे भाग रहा होगा, रोवमाणेहि-रुदन कर रहा होगा, कंदमाणेहि-कोई क्रन्दन चोख-पुकार) कर रहा होगा, विलवमाणेहि-विलाप कर रहा होगा कूवमाणेहि-सुबक रहा हागा (फड़ फड़ाते हुए होंठों से अन्दर ही अन्दर रो रहा होगा), उक्कूवमाणेहि-जोर-जोर से चिल्लाते हुए से रहा होगा, निद्रायमाहि-कोई सो रहा होगा, पलंबमाणेहि-कोई मां का आंचल पकड़ कर लटक रहा होगा, बहमाहि-कोई प्राग से या किसी Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ग चतुर्थ ] ( २८५ ) [ निरयावलिका गरम वस्तु को छूकर जल जाएगा, दसमाह- कोई बच्चा किसी को दांतों से काट खाएगा, माहि- कोई उल्टी (वमन) कर रहा होगा, छेरमाणेहि — कोई शौच (टट्टी) कर रहा होगा, मुत्तमाह- कोई पेशाब कर देगा, ( और वह सोमा स्वयं), मुत-पुरीस वनिय सुलित्तोवलित्ताटट्टी-पेशाब और बच्चों की उल्टी से भर जायेगी, मइल वसण- उच्चडा - मैले कपड़ों के कारण कान्तिविहीन अथवा गन्दी प्रतीत होने वाली असुइबीभच्छा - गन्दगी से भरी होने के कारण बीभत्स लग रही परमदुग्गंधा- अत्यन्त दुर्गन्धित नो संचाएइ - अब वह इस योग्य नहीं रही थी कि वह रट्ठकूडेणं सद्धि - राष्ट्रकूट नामक अपने पति के साथ बिउलाई भोग भोगाई – अनेकविध भोगों का, भुंजाणी विहरितए - उपभोग करती हुई विहरण कर सके ।। १८ ।। मूलार्थं – तदनन्तर वह सोमा ब्राह्मणी राष्ट्रकूट के साथ भोगों का आनन्द ती हुई प्रतिवर्ष सन्तान युगल को जन्म देती हुई सोलह ही वर्षों में बत्तीस बच्चों को जन्म देगी । तदनन्तर वह सोमा ब्राह्मणी उन बहुत से (बत्तीस) लड़के लड़कियों- कुमार- कुमारियों एवं अल्पवयस्क बालक-बालिकाओं में से कोई तो ऊपर ( आकाश की ओर मुख करके सोते रहेंगे, कोई बच्चा चीख-पुकार मचाता रहेगा, कोई बच्चा चलना चाहेगा, कोई बच्चा पड़ोसियों के आंगन में पहुंच जाएगा, कोई बच्चा चलने को चेष्टा करेगा, कोई बालक धरती पर गिर पड़ेगा, कोई बच्चा उसका दूध पीने के लिये उसके स्तन ढूंढेगा, कोई बालक दूध की तलाश कर रहा होगा, कोई बच्चा खिलौने ढूंढ रहा होगा; कोई बच्चा खाद्य पदार्थों की तलाश कर रहा होगा, कोई बालक भोजन भात) खोज रहा होगा, कोई बालक पानी अथवा अन्य पेय पदार्थ पाने को भटक रहा होगा, कोई हंस रहा होगा, कोई रूठ रहा होगा, कोई गुस्से में भर रहा होगा, कोई बच्चा अपनी वस्तु पाने के लिये दूसरों से लड़ रहा होगा। कोई बच्चा दूसरे बच्चे को मार रहा होगा; कोई मार खाकर प्रलाप कर रहा होगा, कोई किसी के पीछे उसे पकड़ने के लिये भाग रहा होगा, कोई रो रहा होगा, कोई क्रन्दन कर रहा होगा, कोई सुबक रहा होगा ( होठों को फड़फड़ाते हुए अन्दर ही अन्दर रो रहा होगा), कोई जोर-जोर से चिल्लाते हुए रो रहा होगा, कोई सो रहा होगा, कोई बच्चा अग्नि या किसी गरम पदार्थ को छूकर जल रहा होगा, कोई बालक दूसरे बालक को दांतों से काट रहा होगा कोई उल्टी (वमन) कर देगा कोई शौच (टट्टी) कर रहा होगा और कोई पेशाब कर देगा, अत: वह सोमा स्वयं बच्चों की टट्टी Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरयावलिका (२८६) (वर्ग-चतुर्थ पेशाब और उल्टियों से भर जाएगी मैले कुचैले कपड़ों के कारण कान्तिविहीन प्रतीत होने लगेगी, गन्दगी से भरी रहने के कारण बीभत्स सी एव दुर्गन्धि से युक्त होकर वह राष्ट्रकट के साथ भोग भोगने में सर्वथा असमर्थ हो जाएगी ॥१८॥ टोका-प्रस्तुत सूत्र में सन्तान की अधिकता के कारण गृहस्थ उन प्यारे लगनेवाले बच्चों से कैसे तंग होने लगते हैं, इसका सुन्दर चित्रात्मक एवं सजीव वर्णन कर सोमा की दुर्दशा का वर्णन किया गया है । और साथ ही यह भी बतलाया गया है कि पत्नी को बहुत प्यार करनेवाला पति भी उन बच्चों में उलझ कर गन्दी लगती हुई पत्नी की भी उपेक्षा कर देता है, अत: ऐसी अवस्था में स्त्रियां सन्तान-सुख और पति-प्रेम दोनों से वंचित हो जाती हैं। पन्द्रह वर्ष पहले पहल उत्पन्न हुए बच्चों के लिये "दारग" शब्द का, बीच के वर्षों में होने वाले बच्चों के लिये कुमार कुमारी और पन्द्रहवें सोलहवें वर्षों में उत्पन्न होनेवाले बच्चों के लिये "डिम्भ-डिम्भिका" शब्दों का प्रयोग किया गया है, अत: यहां तीनों शब्द क्रमशः सार्थक हैं ।।१८।। मूल-तए णं तोसे सोमाए माहणीए अण्णया कयाई पुज्वरत्तावरत्तकालसमयंसि कुडंबजागरियं जागरमाणीए अयमेयारूवे जाव समुपज्जित्था-एवं खलु अहं इहिं बहूहिं दारहिं य जाव डिभियाहिं य अप्पेगइएहिं उत्ताणसेज्जएहि य जाव अप्पेगइह मुत्तमाणेहिं दुज्जाएहिं दुज्जम्मएहि हयविप्पहयभग्गेहिं एगप्पहारपडिएहिं जाणं मुत्तपुरीसवमियसुलित्तोवलित्ता जाव परमदुब्भिगंधा नो संचाएमि रट्ठकूडेण सद्धि जाव भुंजमाणी विहरित्तए । तं धन्नाओ णं तओ अम्मयाओ जाव जीवियफले जाओणं बंझाओ अवियाउरीओ जाणुकोप्परमायाओ सुरभिसुगंधगंधियाओ विउलाई माणुस्सगाई भोगभोगाई भुंजमाणीओ विहरंति, अहं णं अधन्ना अपुण्णा अकयपुण्णा नो संचाएनि रट्ठकूडेण सद्धि विउलाई जाव विहरित्तए ॥१६॥ ____ छाया-ततः खलु तस्याः सोमाया ब्राह्मण्या अन्यदा कदाचित् पूर्वरात्रापररात्रकालसमये कुटुम्बजागरिकां जाग्रन्या अयमेत पो यावत् समुदपद्यत-एवं खलु अहमेभिर्बहुभिर्दारकैश्च यावद् Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ग-चतुर्थ । . . ( २८७ ) [निरयावलिका डिम्भिकाभिश्च अप्येककैः उत्तानशयकश्च यावद् अप्येककत्रयद्भिः दुर्जातः दुर्जन्मभिः हतविप्रहतभाग्यश्च एकप्रहारपतितः या खलु मूत्रपुरीषवमितसुलिप्तोपलिप्ता यावत् परमदुरभिगन्धा नो शक्नोमि राष्ट्रकूटेन सार्ध यावद् भुजाना विहर्तुम् । तद् धन्याः खलु ता अम्बिका यावद् जीवितफलं याः खलु वन्ध्या अविजननशीला जानुकूपरमातरः सुरभिसुगन्धगन्धिका विपुलान् मानुष्यकान् भोगभोगान् भुज्जाना विहरन्ति, अहं खलु अधन्या अपुण्या नो शक्नोमि राष्ट्रकूटेन साद्ध विपुलान् यावड़ विहर्तुम् ।।१९।। पदार्थान्बयः-तएणं तोसे सोमाए माहणीए-तत्पश्चात् उस सोमा नामक ब्राह्मणी के, अण्णया कयाइं-किसी समय (कुछ समय बीत जाने के बाद), पुव्वरत्तावरत्तकालसमयंसि-अर्धरात्रि के समय, कुडुबजागरियं जागरमाणीए-पारिवारिक चिन्ताओं में निमग्न होकर जागते हुए, अयमेयारूवे जाव समुपज्जित्था इस प्रकार के (सांसारिक उदासीनता सम्बन्धी) विचार उत्पन्न हुए, एवं खलु अहं-मैं निश्चित ही, इमेहि बहूहि वारगेहि-इन बहुत से वालक-बालिकाओं, य जाव डिभियाहिं य-और इन छोटे-छोटे से बच्चों के कारण (जिन में से), अप्पेगइएहि उत्ताणसेज्जएहि य जाव-कोई बालक चित (आकाश की तरफ मुंह किए हुए) सोया हुआ है, अप्पेगहि मुत्तमाणेहि-कोई मूत्र कर रहा है, दुज्जाएहि-जो जन्म से ही दुःखदायी हैं, दुज्जम्मएहिजो थोड़े-थोड़े महीनों के अन्तर से ही उत्पन्न हुए हैं, हय-विप्पहय-भग्गेहि-जो सर्वथा भाग्यहीन हैं, एगप्पहारपडिएहि-जो थोड़े-थोड़े समय के अनन्तर मेरी कोख से जन्मे हैं, जाणं मुत्त-पुरीस-वमियसुलितोवलित्ता-इनके मल-मूत्र और वमन आदि से हर वक्त मैं लिपटी सी रहती हूं, जाव परमदुभिगंधा-और दुर्गन्धि से भर कर, नो संचाएमि रट्ठकूडेण सद्धि - राष्ट्रकूट के साथ भोगोपभोग सुख प्राप्त नहीं कर पाती हूं, जाव भुजमाणी विहरत्तए-और न ही भोगों-उपभोगों को आनन्द लेते हुए जोवन-यापन ही कर पाती हूं, तं धन्नाओ णं ताओ अम्मयाओ- इसलिये वे मातायें धन्य • हैं, जाव जीवियफले-वे ही मानव-जीवन का फल प्राप्त कर रही हैं, जाओणं बंझाओ-जो कि वन्ध्या हैं, अवियाउरीओ-सन्तानोत्पत्ति नहीं कर पाती हैं, जाणुकोप्परमायाओ-जो जानुकूर्पर मातायें हैं (अर्थात् शयन करते हुए टांगें ही जिनके हृदय के साथ लगी होती हैं, बच्चा नहीं), सरभि-सुगन्ध-गन्धियाओ-जो सुगन्धित द्रव्यों से सुवासित होकर, विउलाई माणुस्सगाइंभोगभोगाई -जो अनेक-विध मानवीय भोगों को, भुजमाणीओ विहरंति-भोगती हुई जीवन-यापन करती हैं, अहं णं अधन्ना-मैं तो अधन्य हूं, अपुण्णा-पुण्य-हीन हूं, अकयपृण्णा-मैंने मानो किसी जन्म में भी कोई पुण्य कार्य नहीं किया है, नो संवाएमि रट्ठकूडेणं सद्धि विउसाइं जाव विहरित्तएमैं राष्ट्रकूट के साध अनेकविध भोग भोग नहीं पाती हूं ॥१६॥ मूलार्थ-तत्पश्चात् उस सोमा नामक ब्राह्मणी के मन में एक वार अर्धरात्रि के समय पारिवारिक चिन्ताओं में निमग्न होकर जागते हुए ये विचार उत्पन्न होंगे कि मैं Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरयावसिका] (२८८) [वर्ग-चतुर्थ निश्चित ही अपने बहुत से बालक-बालिकाओं- अल्पवयस्क बच्चे बच्चियों के कारण जिन में से कोई बालक आकाश की ओर मुख करके चित लेटा रहता है, कोई मूत्र कर रहा होता है. ये सब जन्म से ही मेरे लिये दुःखदायी हैं जो सर्वथा भाग्यहीन हैं, और जो थोड़े-थोड़े महीनों के अन्तर से ही मेरी कोख से जन्मे हैं, जिनके मललूत्र और वमन आदि से मैं हर वक्त लिपी ही रहती हूं. और दुर्गन्धमयो होकर मैं राष्ट्र. कूट के साथ भोगोपभोगों का सुख प्राप्त नहीं कर पाती हूं, और न ही भोगोपभोगों के आनन्द का अनुभव करती हुई जीवन व्यतीत कर पाती हूं। इसलिये वे मातायें धन्य हैं और वे मातायें जीवन का फल प्राप्त कर रही हैं - जो वन्ध्या हैं, सन्तानोत्पत्ति.. के योग्य नहीं हैं. सोते समय टांगें ही जिनके हृदय के साथ लगी रहती हैं (सन्तान नहीं), और जो सुगन्धित द्रव्यों से सुवासित होकर अनेक विध मानव-जीवन सम्बन्धी भोग भोगती रहती हैं । मैं तो अधन्य हूं, पुण्यहीन हूं; मैंने मानो किसी पूर्व जन्म में कभी कोई पुण्य किया ही नहीं, जिससे मैं राष्ट्रकूट के साथ भोगों को भोग नहीं पाती हूं ॥१६॥ टीका-जब मनुष्य दुखी हो जाता है तब उसे अपनी सन्तान भी सुहाती नहीं है, इसीलिये सोमा अपनी सन्तान के लिये “दुज्जएहि", दुजम्मएहि, हय विप्पहय-भग्गेहि-दुखदायी दुर्जन्मवाले, हतभाग्य आदि विशेषणों का प्रयोग करती है। भद्रा बहुपुत्रिका देवी बनी, क्योंकि उसके हृदय में प्रबल सन्तानेच्छा थी। प्रबल सन्तानेच्छा के कारण ही सोमा ब्राह्मणी के रूप में जन्म लेने पर उसके गर्भ से सोलह ही सालों में ३२ सन्ताने हई । अत्यधिक वासना का फल ऐसा ही होता है यहां यह दिखलाया गया है। उसके हृदय में भोग भोगने की कामना आज भी बनी हुई थी, इसीलिये अब वह वन्ध्या नारियों एवं सन्तानोत्पत्ति के अयोग्य नारियों को सौभाग्यशीला एवं धन्य मानतो हुई अफसोस प्रकट करती है कि अधिक सन्तान के कारण मैं गन्दी एवं बीभत्स होती जा रही हूं, अत: पति-सुख से वंचित रह रही हूं ॥१९॥ मूल-तेणं कालेणं तेणं समएणं सुव्वयाओ नाम अज्जाओ इरियासमियाओ जाव बहुपरिवाराओ पुव्वाणपव्वि जेणेव विभेले संनिवेसे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता अहापडिरूवं ओग्गहं जाव विहरति । Page #367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ग- चतुर्थ ] ( २८६) [निरयावलिका तएणं तासि सुव्वयाणं अज्जाणं एगे संघाडए विभेले सन्निवेसे उच्चनीय जाव प्रडमाणे रकडस्स गिह अणपविठे । तएणं सा सोमा माहणी तओ अज्जाओ एज्जमाणी ओपासइ, पासित्ता हट्ठतुट्ठा० खिप्पामेव आसणाओ अब्भुढेइ, अब्भट्ठित्ता सत्तट्ठपयाइं अणुगच्छइ अणुगच्छित्ता वंदइ नमसइ, विउलेणं असणं ४ पडिलाभेइ, पडिलाभित्ता एवं वयासी-एवं खलु अहं अज्जाओ रट्ठकूडेणं सदि विउलाइ जाव संवच्छरे - संवच्छरे जगलं पयामि, सोलसहि संवच्छरेहिं बत्तीसं दारगरूवे पयाया। तएणं अहं तेहिं बहूहिं दारएहि य जाव डिभियाहिं य अप्पेगइएहि उत्ताणसिज्ज एहिं जाव मुत्तमा दुज्जाएहि जाव नो संचाएमि रट्ठकूडेणं सद्धि विउलाई भोग भोगाइं भुंजमाणी विहरित्तए तं इच्छामि णं अज्जाओ ! तुम्हं अंतिए धम्म निसामित्तए । तएणं ताओ अज्जाओ सोमाए माहणीए विचित्तं जाव केवलिपण्णत्तं धम्म परिकहेइ । तएणं सा सोमा माहणी तासि अज्जाणं अंतिए धम्म सोच्चा निसम्म हट्ठतुट्ठा जाव हियया ताओ अज्जाओ वंदइ नमसइ, वंदित्ता नम सित्ता एव वयासी-सद्दहामि णं अज्जाओ ! निग्गथं पावयणं जाव अब्भुढेमि णं अज्जाओ जाव से जहेयं तुब्भे वयह, जं नवरं अज्जाओ! रट्ठकूडं आपुच्छामि । तएणं अहं देवाणुप्पियाणं अंतिए मुंडा जाव पध्वयामि । अहासुहं देवाणुप्पिए ! मा पडिबंधं । तएणं सा सोमा माहणी ताओ अज्जाओ वंदइ नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता पडिविसज्जेइ ॥२०॥ छाया-तस्मिन् काले तस्मिन् समये सव्रता नाम आर्या इर्यासमिता यावद् बहुपरिवाराः पूर्वानपूर्वी यत्रय वेभेलः सन्निवेशस्तत्रैवोपागच्छन्ति, उपागत्य यथाप्रतिरूपम् अवग्रहं यावद् विहरन्ति । ततः खलु तासां सवतानामार्याणाम् एकः संघाटको बेभेले सन्निवेशे उच्चनीच० यावत् अटन् राष्ट्रकूटस्य गृहमनप्रविष्टाः । ततः खलु सा सोमा ब्राह्मणी ता आर्या एजमाना! पश्यति दृष्ट्वा हृष्टतुष्टा० शिप्रमेव ० आसनावभ्युत्तिष्ठति अभ्युत्थाय सप्ताष्टपदानि अनुगच्छति, अनुगत्य वन्वते नमस्यति Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरयावसिका] (२६०) [वर्ग-चतुर्थ विपुलेन अशनं० ४ प्रतिलम्भयति, प्रतिलम्भ्य एवमवादीत्-एवं खलु अहभार्याः ? राष्ट्रकुटेन सार्द्ध विपुलान् यावत् संवन्सरैः द्वात्रिंशद् दारकरूपान् प्रजाता। ततः खलु अहं तैर्बहुभिदार कैश्च यावद् डिम्भिकाभिश्च अप्पेककैः उत्तानशयकैः यावत् मूत्रद्भिः दूतिः यावद् नो शक्नोमि राष्ट्रकटेन सार्द्ध विपलान् भोगभोगान भजाना विहम, तदिच्छामि खल आर्याः! यमाकमति के धर्म' निशामरि तुम् । ततः खलु ता आर्याः सोमाय ब्राह्मण्य विचित्रं यावत् के वलि प्रज्ञप्तं धर्म परिकथयन्ति । ततः खलु सा सोमा ब्राह्मणी तासामार्याणामन्तिके धर्म श्रुत्वा निशम्य हृष्टतुष्टा० यावद् हृदया ता आर्या वन्दते नमस्यति, वन्दित्वा नमस्यित्वा एवमवादीत्-श्रद्दधामि खलु आर्याः निर्ग्रन्थं प्रवचनम्, इदमेतद् आर्याः ! यावत् यद् यथेदं यूयं वदथ, यद् नवरमार्याः : राष्ट्रकूटमापृच्छामि । तत: खलु अहं देव नप्रियाणामन्तिके मुण्डा यावत् प्रव्रजामि । यथासुखं देवानुप्रिये ! मा प्रतिबन्बम् । ततः खल सा सोम । ब्रह्मणी ता आर्या वन्दते नमस्यति, वन्दित्वा नमंस्थित्वा प्रतिविसर्जयति ॥२०॥ पदार्थान्वयः-तेणं कालेणं तेणं समएणं-उन्हीं दिनों उस समय, सुव्वयाओ नाम अज्जाओसवता विशेषण से प्रसिद्ध साध्वियां, इरियासमियाओ-ईर्या समिति के पालन-पूर्वक, बहुपरिवाराओ-बहत सी साध्वियों के साथ, पुवाणपब्वि-तीर्थकर निर्दिष्ट परम्परा से विचरती हई, जेणेव विभेले सनिवेसे-जहां विभेल नामक ग्राम होगा, तेणेव उवागच्छइ-वहीं पर पहुंचेगी, उवागच्छित्ता-और वहां पहुंचकर, महापडिरूवं-शास्त्र - प्रतिपादित साध्वो - आचरण के अनुरूप, ओग्गह-अवग्रह धारण कर. जाव विहरंति-उपाश्रय में ठहरेंगी और भिक्षा के लिये विभेल ग्राम के ऊंच-नीच घरों में जाएंगी। तएणं तासि सुम्वयाण अज्जाणं-एक बार उन सुब्रता प्रार्याओं का, एगे संघाडए-एक संघाड़ा (साध्वियों का एक समूह), विभले सन्निवेसेविभेल ग्राम में, उच्चनीय जाव अडमाणे-ऊंच-नीच (अमीर - गरीब) घरों में भिक्षा के लिये विचरती हुई, रट्ठकडस्स गिह अणुपविठे-राष्ट्रकूट के घर में भी प्रविष्ट होंगी। तएणं सा सोमा माहणी-तब सोमा ब्राह्मणी, तओ अज्जाओ एज्जमाणीओ-घर में आती हुई उन आर्याओं को, पासइ-देखेगी, पासित्ता हट्ठतुट्ठा-और देखकर प्रसन्न एवं सन्तुष्ट होगी, खिप्पामेब असणाओ-वह जल्दी ही अपने आसन से, अब्भुढेइ-उठ खड़ी होगी, अन्भुद्वित्ता-और उठ कर, सत्तठ्ठपयाइं अणुगच्छइ-सात-आठ कदम पीछे हटेगी, अणुगच्छित्ता-और पीछे हट कर, वंदइ नमसइ-वन्दना नमस्कार करेगो, (और), विउलेणं असणं ४ पडिलाभेइविपुल अशन (आहार) पान आदि से, पडिलाभेइ-उन्हें आहार-पानो का लाभ देगी, पडि. लाभित्ता-और लाभ देकर, एवं वयासी-इस प्रकार निवेदन करेगी, एवं खलु अहं अज्जागो-हे आर्याओं ! मैं निश्चित ही, रट्ठाडेणं सद्धि-अपने पति राष्ट्रकूट के साथ, विउलाई जाव–अनेक विध भोगों को भोगते हुए, संवच्छरे-संवच्छरे - प्रतिवर्ष, जगलं पयापि-दो बच्चों को जन्म देती हूं, सोलसाह संवच्छरेहि-इस प्रकार मैंने सोलह वर्षों में, बत्तीसं दारगरूचे पयाया-बत्तीस बच्चों को जन्म दिया है, तएणं अहं-- इस प्रकार मैं, तेहि बहहिं दाग्एहिउन बहुत से बच्चों के (जिनमें से) डिभियाहिं य-अल्पवयस्क बच्चों में से, अप्पेगइएहिं उत्ताण Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ग - चतुर्थ ( २६१ ) [ निरयावलिका - सिज्ज एहि — कुछ चित्त होकर सोए रहते हैं, मुत्तमाणेहि - मल-मूत्र त्यागते रहते हैं, जावउनके मलमूत्रादि से लिपटी, दुज्जाए हि-उन जन्म से ही दुख देनेवाले बच्चों के कारण, नो संचामि - मैं नहीं प्राप्त कर सकती, रट्ठकूडेण सद्धि - अपने पति राष्ट्रकूट के साथ, विउलाई भोग भोगाइ भुजमाणी - अनेक विध ( गृहस्थोपयोगी ) भोगों उपभोगों का सुख भोगते हुए, विहरितएए-जीवन-यापन का सुख । तं इच्छामि अज्जाओ - हे आर्याओं इसलिये मैं चाहती हूं कि, सोमाए माहणी - मुझ सोमा ब्राह्मणी के लिये विचित्तं जाव केवलिपण्णत्तं - वह सर्वथा अद्भुत ( अद्वितीय) एवं तीर्थङ्कर भगवान द्वारा प्ररूपित, धम्मं परिकहेइ-धर्म मुझे बतलायें । तएणं सासोमा माहणी - तदनन्तर व वह सोमा ब्राह्मणी, तासि अज्जाणं अतिए - उन साध्वियों के पास से. धम्मं सोच्चा निसम्म - धर्म-तत्व को सुनेगी और सुनकर हट्ठतुट्ठा - हर्षित होकर सन्तुष्ट होगी, जाव हियया - अपने हृदय से, ताओ अज्जाओ–उन आर्याओं को, वंदइ नमसइवन्दना नमस्कार करेगी, वंदित्ता नमसित्ता - और वन्दना नमस्कार करके, एवं वयासीइस प्रकार निवेदन करेगी, सद्दहामि णं अज्जाओ–हे आर्याओं ! मैं केवली प्ररूपित धर्म पर श्रद्धा करती हूं, निग्गंथं पावणं जाव अब्भट्ठेमि णं - मैं निर्ग्रन्थ प्रवचन का आदर करती हूं अज्जाओ जाब से जहेयं तब्भे वयह- हे आर्याओ ! जैसा आप कहेंगी मैं वैसा ही करूंगी, जं नवरं - क्योंकि वही सत्य है, अज्जाओ - हे आर्याओं, रट्ठेकूड आपुच्छामि मैं जाकर राष्ट्रकूट से पूछती हूं (आज्ञा लेती हूं), तएणं अहं - तब मैं, देवाणुप्पियाणं अन्तिए - आप देवानुप्रियाओं (साध्वियों) के पास आकर, मुण्डा जाव पन्त्रयामि - मुण्डित बनूंगी और प्रवज्या ग्रहण करूगी। अहासु देवापिए - हे देवानुप्रिये ! जैसे तुम्हें सुख हो (वैसा करो) मा पडिबंध - शुभ काम में तएणं सा सोमा माहणी - तदनन्तर वह सोमा ब्राह्मणी, ताओ वंदइ नमसइ - वन्दना नमस्कार करेगी, वंदित्ता नमसित्ता-वन्दना पडिविसज्जेइ – वापिस जाने के लिये विसर्जित करेगी ॥२०॥ प्रमाद नहीं करना चाहिये । अज्जाओ–उन श्रार्याओं को, नमस्कार करके (वह उन्हें), मूलार्थ — उन्हीं दिनों उस समय 'सुव्रता' नाम से प्रसिद्ध साध्वियां, ईर्या-समिति - के अनुरूप चलती हुई, बहुत सी साध्वियों के साथ भगवान द्वारा निर्दिष्ट साध्वी - आचरण के अनुरूप परम्परा से विचरती हुई जहां विभेल नामक ग्राम था वहीं पर पहुच जाती हैं । और वहां पहुंच कर शास्त्रप्रतिपादित साध्वी आचरण के अनुसार अवग्रह धारण कर उपाश्रय में ठहरती हैं। फिर भिक्षा के लिये विभेल ग्राम में ऊंच-नीच ( अमीर-गरीब ) घरों में जाती हैं। एक बार उन सुव्रता आर्याओं का एक संघाडा (समूह) विभेल ग्राम में अमीर-गरीब घरों में भिक्षार्थ विचरण करते हुए, राष्ट्रकूट के घर में प्रविष्ट होंगी । तब सोमा ब्राह्मणी घर में आती हुई उन साध्वियों को देखती है और देखते Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरयावलिका] (२९२) [वर्ग-चतुर्थ हो अत्यन्त प्रसन्न एवं सन्तुष्ट होती है । वह जल्दी ही अपने आसन से उठ खड़ी होती है और उठ कर सात आठ कदम पीछे हटती है, पीछे हटकर उन्हें वन्दना - नमस्कार करती है और उन्हें आहार-पानी आदि का लाभ देती हैं, लाभ देकर वह आर्याओं से इस प्रकार निवेदन करेगी - "हे आर्याओं ! मैं निश्चित ही अपने पति राष्ट्रकूट के साथ अनेक विध भोगों को भोगते हुए प्रतिवर्ष दो बच्चों को जन्म देती रही हूं, इस प्रकार मैंने सोलह वर्षों में बत्तीस बच्चों को जन्म दिया है । इस प्रकार मैं उन बहत से बच्चों के (जिन में से) कुछ चित्त होकर सोए रहते हैं; कुछ मलमूत्र त्यागते रहते हैं; उनके मूल-मूत्रादि से लिपटी उन जन्म से ही दुखदायी बच्चों के कारण अपने पति राष्ट्रकूट के साथ भोगोपभोगों का सुख भोगते हुए मैं अपने जीवन का सुख नहीं प्राप्त कर पाती । इसलिये हे आर्याओं ! मैं यह चाहती हूं कि मुझ सोमा ब्राह्मणी के लिये वह सर्वथा अद्वितीय तीर्थंकर भगवान द्वारा प्ररूपित धर्म बतलायें।" तदनन्तर वह सोमा ब्राह्मणी उन साध्वियों के पास से धर्म-तत्व की व्याख्या सुनेगी और सुनकर हर्षित एवं सन्तुष्ट हुए अपने हृदय से उन आर्याओं को बन्दना नमस्कार करेगी और वन्दना नमस्कार करके वह इस प्रकार निवेदन करेगी कि हे आर्याओं मैं केवली प्ररूपित धर्म पर श्रद्धा रखती हूं, निर्ग्रन्थ-प्रवचन का आदर करती हूं, आजसे जैसे आप कहेंगी मैं वैसा ही करूंगी, क्योंकि वही सत्य है । हे आर्याओं में जाकर राष्ट्रकूट से पूछती हूं (आज्ञा लेती हूं) आज्ञा लेकर तब मैं आपके सान्निध्य में आकर मुण्डित होकर प्रव्रज्या ग्रहण करूगी। (आर्याय उत्तर देंगी) हे देवानुप्रिये ! जैसे तुम्हें सुख हो (वैसा करो); शुभ काम में प्रमाद नहीं करना चाहिये । तदनन्तर वह सोमा ब्राह्मणी उन आर्याओं को वन्दना नमस्कार करेगी और वन्दना नमस्कार करके उन्हें वापिस लौटने के लिये विसर्जित करेगी ॥२१॥ टीका-इस सूत्र से यह संकेत प्राप्त होता है कि गृहस्थ के घर में जब भी साधु-साध्वियां आयें उन्हें वन्दना-नमस्कार कर आहार-पानी का लाभ अवश्य देना चाहिये। सोमा उस समय अत्यन्त खिन्न थी तब भी वह श्रद्धा-पूर्वक साध्वियों को आहार-पानी देकर पुण्यार्जन. करती। शुद्ध हृदय से श्रद्धा-पूर्वक आहार-पानी देने से गृहस्थ के हृदय में जो भी कामना होती है वह Page #371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ग-चतुर्थ ] ( २६३) [ निरयावलिका अबश्य पूर्ण हो जाती है। वह पूर्व जन्म में निदान नहीं करेगी कि यदि मेरा तप संयम सफल है तो मुझे भी बहुत सी सन्तति प्राप्त होनी चाहिये। केवल वह दसरों के बच्चों को देखकर खिन्न होग, जो उसके के हृदय की सन्तानेच्छा को प्रकट करेगी। अतः सोमा को बत्तीस बाल बच्चे प्राप्त हुए जिससे वह अधिक सन्तति होने के दुख से परिचित होकर "अधिक सन्तान दुःखदायी होती है" इस सत्य को समझ कर आर्याओं से पुनः प्रवजित होने के भाव प्रकट करेगी ॥२०॥ मूल-तएणं सा सोमा माहणी जेणेव रट्ठकूडे तेणेव उवागया करतल० एवं वयासी-एवं खलु मए देवाणुप्पिया! अज्जाणं अंतिए धम्मे निसंते, से वि य णं धम्मे इच्छिए जाव अभिरुचिए, तएणं अहं देवाणुप्पिया ! तुब्भेहिं अब्भणुन्ना सुब्वयाणं अज्जाणं जाव पच्वइत्तए। तएणं से रट्ठकूडे सोमां माहणीं एवं वयासी-मा णं तुमं देवाणुप्पिए ! इदाणिं मुंडा भवित्ता जाव पव्वयाहि । भुंजाहि ताव देवाणुप्पिए ! मए सद्धि विउलाई भोगभोगाई, ततो पच्छा भुत्तभोई सुव्वयाणं अज्जाणं अंतिए मुंडा जाव पव्वयाहि ॥२१॥ छाया-तता खलु सा सोमा ब्राह्मणी यत्रैव राष्ट्रकूटस्त्रत्रव उपागता करतल० एवमवादीत्एबं खलु मया देवानुप्रिया! आर्याणामन्तिके धर्मो निशान्त; (श्रुतः) सोऽपि च खलु धर्म इष्टो यावद अभिरुचितः, ततः खलु अहं देवानुप्रिय ! युष्माभिरभ्यनुज्ञाता सुव्रतानामार्याणां यावत् प्रवजितुम् । ततः खलु स राष्ट्रकूटः सोमा ब्राह्मणीमेवमवादोत्-मा खल देवानुप्रिये ! इदानीं मुण्डा भूत्वा यावत् प्रव्रज, भुङ क्ष्व तावद् देवानुप्रिये ! मया सार्द्ध विपुलान् भोगभोगान्, ततः पश्चाद् भुक्तभोगा सुव्रतानामार्याणामन्तिके मुण्डा यावत् प्रवज ॥२१॥ पदार्थान्वयः-तएणं सा सोमा माहणी-तत्पश्चात् वह सोमा ब्राह्मणी, जेणेव रतुकडेजहां पर राष्ट्र कूट होगा, तेणेव उवागया-वहीं पर आयेगी, करतल०-हाथ जोड़ कर, एवं वयासी-इस प्रकार बोलेगी, एवं खलु मए देवाणुप्पिया-हे देवानुप्रिय ! मैंने निश्चय ही, अज्जाणं अंतिए-आर्याओं के पास जाकर, धम्मे निमंते-धर्म का श्रवण किया है, से वि य गं धम्मे इच्छिए-उसी धर्म को मैं (ग्रहण) करना चाहती हूं (क्योंकि), जाव अभिरुचिए-वही धर्म मेरी रुचि के अनूकुल है, तएणं अहं देवाणुप्पिया-इसलिये हे देवानुप्रिय ! मैं, तुम्भेहि अन्भणन्नाया Page #372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरयावलिका) ।२६४) [वग-चतुथ आपकी अनुमति (आज्ञा) प्राप्त करके, सुव्वयाणं अज्जाणं-सुव्रता आर्याओं के, जाव पव्व इत्तए(पास जाकर) दीक्षा ग्रहण करना चाहती हूं, तएणं से रट्ठकूडे-तब यह सुनकर राष्ट्रकूट, सोमां माहणि-सोमा ब्राह्मणी से, एवं वयासो-इस प्रकार बोलेगा, मा णं तुम देवाणप्पिए-हे देवानुप्रिये ! इदाणि-अभी तुम, मडा भवित्ता-मुण्डित होकर, जाव पव्वयाहि-प्रव्रज्या मत ग्रहण करो, भुजाहि ताव देवाणुप्पिए-हे देवानुप्रिये, अभी तुम, मए सद्धि-मेरे साथ, विउलाई भोगभोगाई-अनेकविध भोगोपभोगों का (उपभोग करो), ततो पच्छा तत्पश्चात्, भत्तभोइ-मुक्तभोगिनी बन कर, सम्वयाणं अज्जाणं अंतिए-सुव्रता आर्याओं के पास जाकर, मुंडा जाव पव्वयाहि-मण्डित होकर प्रव्रज्या ग्रहण कर लेना ।।२१।। मूलार्थ- तत्पश्चात् (आर्याओं के चले जाने के बाद) जहां उसका पति राष्ट्रकूट . . होगा वह वहीं पर आयेगी और हाथ जोड़ कर इस प्रकार बोलेगो-हे देवानुप्रिय ! मैंने निश्चित ही आर्याओं के पास जाकर धर्म-तत्व का श्रवण किया है, उसी धर्म को मैं ग्रहण करना चाहती हूं; क्योंकि वही धर्म मेरी रुचि के अनुकूल है। इसलिये हे देवानुप्रिय ! मैं आपकी अनुमति (आज्ञा) प्राप्त करके, सुव्रता आर्याओं के पास जाकर दीक्षा ग्रहण करना चाहती हूं। यह सुनकर राष्ट्रकूट अपनी पत्नी सोमा ब्राह्मणी से इस प्रकार बोलेगा कि हे देवानुप्रिये ! अभी तुम मुण्डित होकर प्रव्रज्या मत ग्रहण करो, हे देवानुप्रिये ! अभी तुम मेरे साथ अनेकविध भोगोपभोगों के साधनों का उपभोग करो, तत्पश्चात् भुक्तभोगिनी बन कर सुव्रता आर्याओं के पास जाकर प्रवज्या ग्रहण कर लेना ॥२१॥ टोका–सांसारिक उलझनों और परेशानियों के कारण भी कभी-कभी मानव-मन में सांसारिक उदासीनता आ जाती है, तब मनुष्य सब कुछ छोड़ कर साधु-जीवन अपना लेना चाहता है। सोमा भी अधिक सन्तान रूप उलझन के कारण दीक्षित होना चाहती है, किसी दष्टि से शान्ति पाने के लिये इसे उचित भी माना जा सकता है। वैसे स्वाभाविक विरक्ति ही साधुत्व अपनाने का कारण हो यही उचित होता है। राष्ट्रकूट अब भी मोहासक्ति के कारण सोमा को साध्वी न बनने का परामर्श देता है, क्योंकि संसार में व्यक्ति स्व-सुख को ही प्रमुखता दिया करता है ।। २१ ॥ मूल-तएणं सा सोमा माहणी व्हाया जाव सरीरा चेडियाचक्क Page #373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ग-चतुर्थ ] (२९५) [निरयावलिशा वालपरिकिण्णा साओ गिहाओ पडिनिक्खमइ, पडि निक्खमित्ता विभेलं संनिवेसं मझमज्झेणं जेणेव सुव्वयाणं अज्जाणं उवस्सए तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता सुव्वयाओ अज्जाओ वंदइ नमसइ, पज्जुवासइ । तएणं ताओ सम्वयाओ अज्जाओ सोमाए माहणीए विचित्तं केवलिपण्णत्तं धम्म करिकहेइ, जहा जीवा वझंति । तएणं सा सोमा माहणी सुव्वयाणं अज्जाणं अंतिए जाव दुवालसविहं सावगधम्म पडिवज्जइ, पडिवज्जिता सव्वयाओ अज्जाओ वंदइ नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता जामेव दिसि पाउन्भया तामेव दिसं पडिगया। तएणं सा सोमा माहणी समणोवासिया जाया अभिगत० जाव अप्पाणं भावेमाणी विहरइ ॥२२॥ छाया-ततः खलु सा.सोमा ब्राह्मणी राष्ट्रकूटस्य एनमर्थ प्रतिशृणोति । ततः खलु सा सोमा ब्राह्मणी स्नाता यावत् सर्वालङ्कारभूषितशरीरा चेटिकाचक्रवालपरिकोर्णा स्वस्माद् गृहात् प्रतिनिष्कामति, प्रतिनिष्क्रम्य विभेलं सन्निवेश मध्यंमध्येनन् यत्रैव सुव्रतानामार्याणामुपाश्रयस्तत्रैव उपागच्छति उपागत्य सुव्रतां आर्या वन्दते नमस्यति पर्युपासते । तता: खलु साः सुव्रताः आर्या. सोमाय ब्राह्मण्ये विचित्रं केवलिप्रज्ञप्तं धर्म परिकथयन्ति, यथा जीवा बध्यन्ते । ततः खलु सा सोमा ब्राह्मणी सवतामामार्याणामन्तिके यावद् द्वादविधं श्रावकधर्म प्रतिपद्यते, प्रतिपद्य सुव्रतां आर्या वन्दते नमस्यति, वन्दित्वा नमस्यिन्वा यस्या एव दिशः प्रादुर्भूता तामेवदिशं प्रतिगता। ततः खलु सा सोमा ब्राह्मणी श्रमणोपासिका जाता अभिगत० यावत् आत्मानं भावयन्ती विहरति ॥२२॥ पदार्थान्वयः-तएणं सा सोमा माहणी-तत्पश्चात् (पति का परामर्श सुनने के अनन्तर) वह सोमा ब्राह्मणी, पहाया-स्नान करेगी और, जाव सरीरा-वस्त्राभूषणों से सुसज्जित होकर, चेडिया-चक्कवाल-परिकिण्णा-अपनी दासियों के समूह से घिरी हुई, साओ गिहाओ-अपने घर से, पडिनिक्खमइ–बाहर आयेगी, (और), पडिनिक्खमित्ता-बाहर आते ही, विभेलं संनिवेसं मझमज्झेणं-विभेल ग्राम के मध्य भाग से निकलती हुई, जेणेव सुब्धयाणं अज्जाणं उवस्सए-जहां पर सुव्रता आर्याओं का उपाश्रय होगा, तेणेव उवागच्छइ-वहीं पर पहुंचेगी और, उवागच्छित्तावहीं पहुंचकर, सुव्वयाओ अज्जाओ-सुव्रता साध्वियों को, वंदइ नमसइ-वन्दना नमस्कार करेगी, पज्जुवासइ-उनकी पर्युपासना (सेवा-भक्ति) करेगी, तएणं तओ सुन्वयाओ अज्जाओ-तदनन्तर वे सुव्रता आर्यायें, सोमाए माहणीए-सोमा ब्राह्मणी को, विचितं-विचित्र अर्थात् अश्रुत-पूर्व Page #374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरयावलिका] [वर्ग-चतुर्थ अद्वितीय, केवलिपण्णात्तं धम्म परिकहेइ-केवली-प्ररूपित धर्म कहेंगी, अर्थात् धर्म के ऐसे तत्त्व समझायेंगी, जहा जीवा वज्झंति-कि कैसे जीव कर्म-बन्धन में बधते हैं। तएणं सा सोमा माहणी-तत्पश्चात् वह सोमा ब्राह्मणी, सुब्वयाणं अज्जाणं अन्तिएसुव्रता आर्याओं के पास से (अर्थात् उनके मुख से), जाव दुवालसविहं सावगधम्म-बड़ी श्रद्धाभक्ति के साथ बारह प्रकार के श्रावक धर्म को पडिवज्जइ-स्वीकार करेगी और, पडिवज्तित्तास्वीकार करके, सुव्वयाओ अज्जाओ-उन सुव्रता साध्वियों को, वंद इ नमसइ-वन्दना नमस्कार करेगी तथा, वंदित्ता नमंसित्ता-वन्दना नमस्कार करके, जामेव दिसि पाउन्भूया -जिस दिशा (मार्ग) से आई थी, तामेव दिसं पडिगया-उसी दिशा में लौट जायेगी, तएणं सा सोमा माहणीतब से वह सोमा ब्राह्मणी, समणोवासिया जाया-श्रमणोपासिका बन गई, अभिगत०-सभी जीव-अजीव आदि तत्त्वों को जानकर, अप्पाणं भावेमाणो-अपनी आत्मा को धर्म में लगाती हुई, विहर-विचरण करेगी-धर्ममय जीवन व्यतीत करेगी ॥२२॥ मूलार्थ-तत्पश्चात् (पति का परामर्श सुनने के अनन्तर) वह सोमा ब्राह्मणी स्नान करेगी और वस्त्राभूषणों से सुसज्जित होकर अपनी दासियों के समूह से घिरी हुई अपने घर से बाहर निकलेगी और बाहर आते ही विभेल ग्राम के मध्य भाग से निकतती हुई जहां पर सुव्रता साध्वियों का उपाश्रय होगा वहीं पर पहुंचेगी और और वहां पहुंचकर उन सुव्रता साध्वियों को वन्दना-नमस्कार करेगी, उनकी पर्युपासना (सेवा-भक्ति) करेगी । तदनन्तर वे सुव्रता आर्यायें सोमा ब्राह्मणी को अद्वितीय अश्रुतपूर्व केबली-प्ररूपित धर्म के ऐसे तत्त्व समझायेंगी कि ये जीव कर्म-बन्धनों में कैसे बन्धते हैं ? ___ तत्पश्चात् वह सोमा ब्राह्मणी सुव्रता आर्याओं के पास से अर्थात् उनके मुख से बड़ी श्रद्धा - भक्ति के साथ बारह प्रकार के श्रावक-धर्म को स्वीकार करेगी और स्वीकार करके उन सुव्रता आर्याओं को वन्दना-नमस्कार करेगी और वन्दना नमस्कार करके जिस दिशा (मार्ग) से आई थी उसी मार्ग से वह अपने घर लौट जाएगी। __तदनन्तर वह सोमा ब्राह्मणी श्रमणोपासिका (श्राविका) बन गई और सभी जीव-अजीव आदि तत्त्वों को जान कर अपनी आत्मा को धर्म में लगाती हुई विचरण करेगी अर्थात् धर्ममय जीवन व्यतीत करेगी ॥ २२ ॥ Page #375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ग-ततीय ( २६७) [निरयावलिका - टीका-इस सूत्र द्वारा यह ज्ञान प्राप्त हो रहा है कि धर्म-श्रवण के लिये श्रद्धा-भक्ति-पूर्वक गुरुजनों के पास जाना चाहिये । स्त्रियों के लिये यह भी उचित है कि वे अपने पति के परामर्श के अनुसार ऐसे चलें जैसे सोमा अपने पति के परामर्श को मान कर साध्वी न बनकर श्राविका बनती है। श्रावक-श्राविकाओं को अपना जीवन धर्माचरण करते हुए व्यतीत करना चाहिये ।।२२।। मूल--तएणं ताओ सव्वयाओ अज्जाओ अण्णया कयाइं बिभेलाओ संनिवेसाओ पडिनिक्खमंति, पडिनिक्खमित्ता, बहिया जणवयविहारं विहरंति ॥२३॥ __ छायाः-ततः खलु ताः सुव्रता आर्या अन्यदा कदाचित् बेभेलात् संनिवेशात् प्रतिनिष्कामन्ति, प्रतिनिष्क्रम्य बाह्यं जनपद-विहारं विहरन्ति ॥२३॥ पदार्थान्बयः-तएणं ताओ सम्वयाओ अज्जाओ-सोमा को श्राविका धर्म समझाने के अनन्तर वे सुव्रता आर्यायें, अण्णया कयाई-साध्वी-मर्यादा के अनुरूप समय आने पर, बिभेलाओ संनिवेसाओ-बिभेल नामक ग्राम से, पडिनिक्खमंति–चल पड़ेगी और, पडिनिक्खमित्ता-वहां से चल कर, बहिया जणवयविहारं-अनेक जन पदों (प्रान्तों में), विहरंति-विहार करती रहेंगी॥२३॥ मूलार्थ- सोमा को श्राविका धर्म का उपदेश देने के अनन्तर सुव्रता आर्यायें साध्वी-मर्यादा के अनुरूप समय आने पर बिभेल नामक ग्राम से चल पड़ेंगी और वहां से चल कर अनेक जनपदों (प्रान्तों) में विहार करती रहेंगी ॥२३ । टोका-सूत्र का भाव स्पष्ट है, फिर भी इस सूत्र के द्वारा यह शिक्षा मिलती है कि साध्वियों को साध्वी-मर्यादा के अनुरूप दो मास से अधिक कहीं रहना कल्पता नहीं है, अतः उचित अवसर आते ही उन्हें विहार कर ही देना चाहिये ॥ २३ ॥ मूस-तएणं ताओ सुध्वयाओ अज्जाओ अन्नया कयाई पवाणुपुर्दिव जाव विहरइ । तएणं सा सोमा माहणी इमोसे कहाए लट्ठा समाणी Page #376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरयावसिका] (२६८) [वर्ग-तृतीय हठतटठा व्हाया तहेव निग्गया जाव वंदइ नमसइ, वंदित्ता नमसित्ता धम्म सोच्चा जाव नवरं रट्ठकूडं आपुच्छामि, तएणं पव्वयामि । अहासह। तएणं सा सोमा माहणी सव्वयं अज्जं वंदइ नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता सव्वयाणं अंतियाओ पडिनिक्खमइ, पडिनिक्समित्ता जेणेव सए गिहे जेणेव रट्ठकूडे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता करतल परिग्गहियं० तहेव आपुच्छइ जाव पव्वइत्तए । अहासुह देवाणुप्पिए ! मा पडिबंधं ॥२४॥ छाया-ततः खलु ताः सुव्रता आर्या अन्यदा कदाचित् पूर्वाना यावद् विहरन्ति । ततः खलु सा सोमा ब्राह्मणी अस्याः कथाया लब्धार्था सतो हृष्टतुष्टा० स्नाता तथैव निर्गता यावद् वन्दते नमस्यति, वन्दित्वा नमस्यित्वा धर्म श्रुत्वा यावद् नवरं राष्ट्रकूटमापच्छामि, तवा प्रव्रजामि यथासुखम् । ततः खल सा सोमा ब्राह्मणी सुव्रतामार्या वन्दते नमस्यति, वन्दित्वा नमस्यित्वा सुव्रतानामन्तिकात् प्रतिनिष्क्रम्य यत्र व स्वकं गृह यौव राष्ट्रकूटस्तत्रैवोपागच्छति, उपागत्य करतलपरिगृहीत. तथैव आपृच्छति यावत् प्रवजितुम् । यथासुखं देवानुप्रिये ! मा प्रतिबन्धम् ॥२४॥ पदार्थान्वयः-तएणं तओ सुव्वयामओ अज्जाओ-तदनन्तर वे सुव्रता आर्यायें, अन्नया कयाईफिर किसी समय, पुव्वाणुपुग्विं - क्रमशः ग्रामानुग्राम विहरण करते हुए, जाव विहरइ-उसी विभेल ग्राम में आयेंगी और वसति (ठहरने की आज्ञा लेकर उपाश्रय में तप-संयम से आत्मा को भावित करती हुई ठहरेंगी, तएणं सा सोमा माहणी-तदनन्तर वह ब्राह्मणी सोमा, इमीसे कहाए लद्धदा समाणी-उनके आगमन की सूचना प्राप्त करते ही, हट्टतुट्ठाण्याया-प्रसन्न एवं सन्तुष्ट होकर स्नान करेगी, तहेव निग्गया-पहले की तरह वस्त्रालंकारों से सजकर और अपनी दासियों के समूह से घिरी हुई घर से निकलेगी, जाव वंदइ नमसइ-और उपाश्रय में पहुंचकर आर्याओं को वन्दना नमस्कार करेगी, सेवा-भक्ति करेगी. वंदित्ता नमंसित्ता-वन्दना-नमस्कार करके, धम्म सोच्चा-वन्दना नमस्कार के अनन्तर उनके मुख से धर्म तत्व सुनकर, जाव नवरं-पहले की तरह आर्याओं से निवेदन करेगी कि मैं अपने पति, रटुकडं आपुच्छामि-राष्ट्रकूट से जाकर पूछती हूं (आज्ञा लेती हूं), तएणं-तत्पश्चात् लौट कर, पव्वयामि-दीक्षा ग्रहण करूंगी। आर्यायें कहेंगी-अहासुह-जैसे तुम्हारी आत्मा को सुख हो वैसा करो, तएणं सा सोमा माहणो-तदनन्तर वह सोमा ब्राह्मणी, सुव्वयं अज्ज-(उनमें से ज्येष्ठ) साध्वी को, वंदइ नमंसह-वन्दना नमस्कार करेगी और, वंवित्ता नमंसित्ता-वन्दना नमस्कार करके, सुव्बयाणं Page #377 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ग-तृतीय ( २९६ ) [निरयावलिका अंतियाओ-- उन सुव्रता प्रार्यानों के पास से, पडिनिक्खमइ, पडिनिक्खमित्ता-उपाश्रय से बाहर आएगी ओर बाहर आकर, जेणेव सए गिहे-जहां उसका अपना घर होगा, जेणेद रट्ठकडेऔर जहां पर राष्ट्र कट होगा, तेणेव उवागच्छइ-वहीं पर पहुंच जाती है और, उवागच्छित्ता करतल परिगहियं-वहां पहुंचकर अपने दोनों हाथ जोड़कर, तहेव-पहले की तरह ही, आपुच्छइ-राष्ट्रकूट से पूछेगी, जाव पव्व इत्तए-कि मैं प्रवज्या ग्रहण करना चाहती हूं (तब राष्ट्रकूट ने भी यही कहा), अहासहं देवाणुप्पिए !-देवानुप्रिये जैसे तुम्हारी आत्मा को सुख हो वैसा करो, मा पडिबंध-शुभ कार्य में विलम्ब मत करो ॥२४॥ मूलार्थ – तदनन्तर सुव्रता आर्यायें पुन: किसी समय क्रमशः ग्रामानुग्राम विहार करती हुई उसी बिभेलग्राम में आयेंगी और वसति (ठहरने) की आज्ञा लेकर उपाश्रय में तप-संयम द्वारा अपनी आत्मा को भावित करती हुई ठहरेंगी। तदनन्तर ब्राह्मणी सोमा उनके आगमन की सूचना प्राप्त होते हो प्रसन्न एवं सन्तुष्ट होकर स्नान करेगी, पहले की तरह वस्त्राभूषणों से सज कर एवं अपनी दासियों से घिरी हुई, अपने घर से निकलेगी और उपाश्रय में पहुंच कर आर्याओं को वन्दना नमस्कार करेगी और वन्दना-नमस्कार करके आर्याओं के मुख से धर्म सुनकर पहले की तरह आर्याओं से निवेदन करेगी कि मैं अपने पति राष्ट्रकूट से जाकर पूछती हूं (आज्ञा लेती हूं) तत्पश्चात् लौट कर मैं आपसे दीक्षा ग्रहण करूंगी। ___आर्याय पुनः सोमा से कहेंगी जैसे तुम्हारी आत्मा को सुख हो वैसा करो। तदनन्तर वह सोमा ब्राह्मणी (उनमें से ज्येष्ठ) साध्वी को वन्दना-नमस्कार करती हैं और वन्दना नमस्कार करके, उन सुव्रता आर्याओं के पास से (उठकर) उपाश्रय से बाहर आती है और बाहर आकर जहां उसका अपना घर होगा जहां पर उसका पति राष्ट्रकूट (बैठा) होगा वहीं पहुंच जाएगी, वहां पहुंच कर दोनों हाथ जोड़ कर पहले की तरह ही राष्ट्रकूट से वह पूछेगी कि मैं प्रव्रज्या ग्रहण करना चाहती हूं। राष्ट्रकूट भी उससे यही कहेगा कि) देवानुप्रिये ! जैसे तुम्हारी आत्मा को सुख हो वैसा ही करो, शुभ कार्य में विलम्ब मत करो ॥२४॥ टीका-प्रस्तुत सूत्र में सोमा आर्या के भविष्य का कथन करते हुए भगवान कहते हैं कि सोमा ब्राह्मणी के हृदय में साध्वियों के प्रति श्रद्धा जागृत होगी। वह साध्वियों का आगमन सुनते Page #378 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरयावलिका] (३००) [वर्ग-तृतीय ही श्रद्धा-भक्ति पूर्वक उपाश्रय में साध्वी-सान्निध्य में पहुंचेगी। यह प्रत्येक श्रावक-श्राविका का कर्तव्य है कि वह गुरुजनों का आगमन सुनते ही उनके दर्शनार्थ वहां पहुंच जायें। स्त्रियों को गृह त्याग कर साध्वी-जीवन अपनाने से पूर्व विवाहित होने पर अपने पति से आज्ञा अवश्य प्राप्त करनी चाहिये । पहली बार पूछने पर राष्ट्रकूट अपनी पत्नी सोमा को घर में ही रहने का परामर्श देता हैं किन्तु दूसरी बार पूछने पर उसने उसकी भावना का समर्थन करते हुए उसे प्रेरणा दी कि 'मा पडिबन्धं' शुभ कार्य में देरी मत करो। अपने किसी भी पारिवारिक जन को धर्म-मार्ग में से रोकना उचित नहीं होता प्रस्तुत सूत्र का यह संकेत मननीय है ।। २४ ।।। . मूल-तएणं से रट्ठकूडे विउलं असणं तहेव जाव पुत्वभवे सुभद्दा जाव अज्जा जाता, इरियासमिया जाव गुत्तबंभयारिणी। तएणं सा सोमा अज्जा सम्वयाणं अज्जाणं अंतिए सामाइयमाइयाई एक्कारस अंगाइं अहिज्जइ, अहिज्जित्ता बहूहिं छठ्ठट्ठम दसम दुवालस० जाव भावेमाणी बहूई वासाइं सामण्णपरियागं पाउणइ, पाउणित्ता मासियाए संलेहणाए सठ्ठि भत्ताइं अणसणाए छवित्ता आलोइयपडिक्कंता समाहि पत्ता कालमासे कालं किच्चा सक्कस्स देविदस्स देवरणो सामाणियदेवताए उववन्ना। तत्थणं अत्थेगइयाणं देवाणं दो सागरोवमाइं ठिई पण्णत्ता, तत्थ णं सोमस्स वि देवस्स दोसागरोवमाइं ठिई पण्णत्ता ॥२५॥ छाया-ततः खलु स राष्ट्रकूटो विपुलमशनं तथैव यावत् पूर्वभवे सुभद्रा यावद आर्यां जाता, इर्यासमिता यावद् गुप्तब्रह्मचारिणी । ततः खलु सा सोमा आर्या सुव्रतानामार्याणामन्ति के सामायिकादीनि एकादशाङ्गानि अधोते, अधीत्य बहुभिः षष्ठाष्टमदशमद्वादश० यावद् भावयन्ती बहूनि वर्षाणि धामण्यपर्यायं पालयति, पालयित्वा मासिक्या संलेखनया षष्ठि भक्तानि अनशनेन छित्त्वा आलोचित. प्रतिक्रान्ता समाधिप्राप्ता कालमासे कालं कृत्वा शक्रस्य देवेन्द्रस्य देवराजस्य सामानिकदेव तया उत्पद्यत । तत्र खलु अस्त्येककेषां देवानां द्विसागरोपमा स्थितिः प्रज्ञप्ता, तत्र खलु सोमस्यापि देवस्य द्विसागरोपमा स्थितिः प्रज्ञप्ता ।।२।। पदार्थान्वयः-तएणं से रटुकडे-तदनन्तर राष्ट्रकूट ने, विउलं असणं जाव-विपुल अशन, Page #379 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ग-तृतीय] (३०१) [निरयावलिशा पान, खाद्य स्वाद्य चारों प्रकार की भोजन-सामग्री बनवाकर जातीय बन्धुओं एवं मित्रों आदि को खिलाकर सन्तुष्ट करेगा, पुठवभवे सुभद्दा जाव अज्जा जाता-पूर्व जन्म में जैसे सुभद्रा आर्या बनी थी वैसे ही, सा सोमा अज्जा-वह सोमा भी आर्या बनेगी। (अब उसने) सुब्बयाणं अज्जाणं अतिए-सुव्रता आर्याओं के सान्निध्य में बैठ कर, सामाइय माइयाइ-सामायिक एवं, एक्कारस अंगाई-ग्यारह अंग शास्त्रों का, अहिज्जइ-अध्ययन करेगी, अहिज्जित्ता-अध्ययन करके, बाहिं छठ्ठट्ठम दसम-दुवालस० जाव–अनेक विध छठ, अष्टम, दशम, द्वादश आदि तप साधनाओं द्वारा, भावेपाणी-अपनी आत्मा को भावित करती हुई, बहहिं वासाई-बहुत वर्षों तक, सामण्ण परियागं-श्रामण्य पर्याय का, पाउणइ-पालन करेगी, पाउणित्ता-और पालन करके, मासियाए संलेहणाए–एक मास की संलेखना द्वारा, सटिठ भत्ताई अणसम्णए छेदित्ता-साठ दिनों के भोजन का अनशन द्वारा छेदन करके, आलोइयपडिक्कता समाहिपत्ता-अपने पाप स्थानों की आलोचना और प्रतिक्रमण करके, समाधि को प्राप्त कर, कालमासे कालं किच्चा-कालमास में काल करके, सक्कस्स देविदस्स देवरणो-देवराज देवेन्द्र शक की, सामाणिय देवत्ताए–सामानिक देवता के रूप में, उववन्ना-उत्पन्न होगी, तत्थणं-वहां सौधर्म देवलोक में, अत्थेगइयाणं देवाणं-कुछ एक देवों की, दोसागरोबमाइं-दो सागरोपम की स्थिति कही गई है, तत्थणं-वहां पर, सोमस्स वि देवस्स-सोम नामक देव की भी, बोसागरोवमाइं-दो सागरोपम की, ठिई पण्णत्ता-स्थिति कही गई है ।।२५।। मूलार्थ-तदनन्तर राष्ट्रकूट विपुल अशन, पान, खाद्य-स्वाद्य - चारों प्रकार की भोजन सामग्री बनवा कर जातीय बन्धुओं एवं मित्रों आदि को खिलाकर सन्तुष्ट करेगा पूर्व जन्म में जैसे सुभद्रा आर्या (साध्वी) बनी थी वैसे ही वह सोमा भी आर्या बन जायेगी। ___अब वह सुव्रता आर्याओं के सान्निध्य में बैठकर सामायिक एवं ग्यारह अंग शास्त्रों का अध्ययन करेगी और अध्ययन करके बहुत से छ? अष्टम दशम एवं द्वादश आदि के रूप में तप-साधनाओं के द्वारा अपनी आत्मा को भावित करती हुई बहुत वर्षों तक श्रामण्य-पर्याय का पालन करेगी और पालन करके एक मास की संलेखना द्वारा साठ दिनों के आहार का अनशन द्वारा छेदन करके अपने पाप-स्थानों की आलोचना और प्रतिक्रमण करके समाधि को प्राप्त हो कालमास में काल करके देवराज देवेन्द्र शक्र के सोम नामक सामानिक देव के रूप में उत्पन्न होगी। वहां Page #380 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरयावलिका] (३०२) [वर्ग-तृतीय सौधर्म देवलोक में कुछ देवों की दो सागरोपम की स्थिति कही गई है। वहां पर सोम नामक देव की भी दो सागरोपम की स्थिति कही गई है ।। २५ ॥ . टीका- राष्ट्रकूट अपनी पत्नी के साध्वी बनने से पूर्व अपने जाति-बन्धुओं एवं मित्रों आदि का अनेक विध भोजन सामग्री द्वारा आदर-सत्कार करेगा। जैन संस्कृति साध बनने वाले व्यक्ति से द्वारा सभी मोह-सम्बन्ध तोड़कर साक्षी रूप में समस्त जातीय बन्धुओं एवं मित्रों को आमन्त्रित करने का विधान करती। साध्वी के लिये प्रतिक्रमण आदि के अतिरिक्त शास्त्र-स्वाध्याय को भी आवश्यक एवं अनिवार्य बताया गया है। अन्त में संलेखना साधु-चर्या का अनिवार्य अंग है ।। २५ ॥ मूल--से णं भंते ! सोमे देवे ताओ देवलोगाओ आउक्खएणं जात्र चयं चइत्ता कहिं गच्छिहिइ ? कहिं उववज्जिहिइ ? गोयमा ! महाविदेहे वासे जाव अंतं काहिइ। एवं खलु जंबू ! समणेणं जाव संपत्तेणं चउत्थस्स अज्झयणस्स अयमठे पण्णत्ते ॥२६॥ छाया-सः खलु भवन्त | सोमो देवः तस्मात् देवकोकाद् आयुक्षयेण यावत् चयं च्युत्वा क्व गमिष्यति ? क्व उत्पत्स्यते ? गौतम ! महाविदेहे वर्षे यावद् अन्तं करिष्यति । एवं खल जम्बू । धमणेन यावत् सम्प्राप्तेन चतुर्थस्याध्ययनस्य अयमर्थः प्रज्ञप्तः ।।२६।। ॥ पुष्पितायां चतुर्थमध्ययनं समाप्तम् ॥ ४ ।। पदार्थान्वयः-(गौतम स्वामी जी पूछते हैं) से गं भन्ते ! भगवन् ! सोमेदेवे-वह सोम नामक देव, ताओ देव लोगाओ-उस सौधर्म देवलोक से, आउक्खएणं जाव-आयु-क्षय, भवक्षय और स्थिति क्षय हो जाने पर, चयं चइत्ता-वहां से च्यव कर, कहि गच्छिहिइ-कहां जायेगा, कहिं उववज्जिहिइ-कहां उत्पन्न होगा। (भगवान महावीर ने गौतम स्वामी जी को बतलाया)-गोयमा हे गौतम ! महाविदेहे . वासे–महाविदेह क्षेत्र में, जाव अतं काहिइ-सब दुःखों का अन्त करेगा, एवं खलु जम्बू !इस प्रकार हे जम्बू !, समणेणं जाव संपत्तेणं-मोक्षधाम में पहुंचने वाले श्रमण भगवान् महावीर Page #381 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ग-तृतीय] (३०३) [निरयावलिका ने, · चउत्थस्स अज्झयणस्स-इस शास्त्र के चौथे अध्ययन के, अयमढे पण्णत्ते-उपर्युक्त भाव निरूपित किए हैं ॥२६॥ मूलार्थ- श्री गौतम स्वामी जी पूछते हैं-भगवन् ! वह सोम नामक देव उस सौधर्म नामक देवलोक से आयु-क्षय, भव-क्षय, स्थिति-क्षय हो जाने पर वहां से च्यव कर कहां जाएगा और कहां उत्पन्न होगा? (भगवान महावीर स्वामी ने कहा)-हे गौतम ! वह महाविदेह क्षेत्र में जायेगा और सब दुखों का अन्त करेगा। .. हे जम्बू ! इस प्रकार श्रमण भगवान् महावीर ने इस शास्त्र के इस चतुर्थ अध्ययन के उपर्युक्त भाव निरूपित किए हैं। टीका-सभी भाव सर्वथा. स्पष्ट हैं। .. : ॥ पुष्पिता का चतुर्थ अध्ययन समाप्त ।। Page #382 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरयावलिका । QUEENICARLAR, KRUNN (३०४ ) [ वग - तृतीय पञ्चम अध्ययन मूल – जइणं भंते ! समणेण भगवया उवखेवओ० । एवं खलु जंबू ! तेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहे नामं नयरे गुणसिलए चेइए, सेणियराया, सामी समोसरिए, परिसा निग्गया तेणं कालेणं तेणं समएणं पुण्णभद्दे देवे सोहम्मे कप्पे पुण्णभद्दे विमाणे समाए सुहम्माए पुण्णभद्दंसि सोहासणंसि चउहिं सामाणियसाहस्सीहि जहा सूरियामो जावं बत्तीसविहं नट्टविहिं उवदंसित्ता जामेव दिसि पाउन्भूए तामेव दिसि पडिगए। कूडागारसाला ० पुव्वभवपुच्छा । एवं गोयमा ! तेणं काणं तेणं समएणं इहेव जम्बूदीवे दीवे भारहे वासे मणिवइया नामं नयरी होत्या रिद्ध०, चंदो 'राया ताराइण्णे चेइए । तत्थणं मणिवइयाए नयरीए पुण्णमद्दे नाम गाहावंई परिवसइ अड्ढे० । तेणं कालेणं तेणं समएणं थेरा भगवंतो जातिसंपण्णा जाव जीवियासमरणमय विप्यमुक्का बहुपरिवारा पुन्वाणुपुवि जाव समोसढा, परिसा निग्गया ॥ १॥ छाया - यदि खलु भवन्त ! श्रमणेन भगवता उत्क्षेपकः । एवं खलु जम्बू ! तस्मिन् काले तस्मिन् समये राजगृहं नगरं गुणशिलं चैत्यम्, श्र ेणिको राजा, स्वामी समवसृतः परिषद् निर्गता । तस्मिन् काले तस्मिन् समये पूर्णभद्रो देवः सौधर्मे कल्पे पूर्णभद्र विमाने सभायां सुधर्मायां पूर्णभद्रे सिंहासने चतुभिः सामानिकसहस्रैः यथा सूर्याभो यावद् द्वात्रिंशविधं नाट्य विधिमुपवयं दिशः प्रादुर्भूतस्तामेव दिशं प्रतिगतः, कूटागारशाला, पूर्व भवपूच्छा । एवं गौतम ! तस्मिन् काले तस्मिन् समये अत्रैव जम्बूद्वीपे द्वीपे भारते वर्षे मणिपादिका नाम नगरी अभवत् ऋद्धस्तिमित समुद्वा०, चन्द्रो राजा, ताराकीर्ण चैत्यम् । तत्र खलु मणिपदिकायां नगर्यां पूर्णभद्रो नाम गाथापतिः परिवसति, आढ्यः । तस्मिन् काले तस्मिन् समये स्थविरा भगवन्तो जातिसम्पन्नाः यावत् जीविताशामरणभयविप्रमुक्ता बहुश्रुता बहुपरिवारा पूर्वानुपूर्वी यावत् समवसृताः । परिषद् निर्गता ॥ १ ॥ Page #383 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ग-तृतीय] (३०५) [निरयावलिका - पदार्थान्वयः-जइणं भन्ते !--भगवन् यदि, समणेणं भगवया-श्रमण भगवान महावीर ने, उक्खेवो-पुष्पिता के चतुर्थ अध्ययन में पूर्वोक्त भावों का वर्णन किया है तो पञ्चम अध्ययन में किस विषय का निरूपण किया है ? एवं खल जम्बू ! (सुधर्मा स्वामी बोले)-हे जम्बू !, तेणं कालेणं तेणं समएणं-उस काल और उस समय में, रायगिहे नाम नयरे-राजगृह का नाम का एक नगर था, गुणसिलए चेइएउस नगर में गुणशील नाम का एक चैत्य (उद्यान) था, सेणिए राया-वहां पर श्रेणिक नाम का राजा था, सामी समोसरिए-श्रमण भगवान महावीर स्वामी नगर के उस चैत्य में पधारे, परिसा निग्गया- श्रमण भगवान के दर्शनों और उपदेश श्रवण के लिये जन-समूह नगर से बाहर निकलकर वहां गुणशील चेत्य में पहुंचा। तेणं कालेणं तेणं समएणं-(जम्बू) उस काल और उस समय में, पण्णभद्दे देवे- पूर्णभद्र नाम के देवता, सुहम्मे कप्पे-सौ धर्म कल्प के, पुण्णभद्दे विमाणे-पूर्णभद्र नामक विमान की, सुहम्माए सभाए-सुधर्मा नाम की सभा में, पुष्णभदंसि सीहासणंसि-पूर्णभद्र नामक सिंहासन पर, चहिं समाणिय साहस्सिहि-चार हजार सामानिक देवों के साथ बैठे हुए थे। जहा सूरियाभो–सूर्याभ देव के समान, .जांव बत्तीस विहं नट्टविहि-भगवान के समक्ष यावत् बत्तीस प्रकार की नाट्य-विधियां, उवदं सत्ता-प्रदर्शित करके, जामेव दिसि पाउब्भए-जिस दिशा से आकर वह प्रकट हुआ था, तामेव दिसि पडिगए-वह उसी दिशा (मार्ग) से लौट गया, कूडापारशाला० पृथ्वभवपच्छा-(जम्बू !) अब गौतम स्वामी जी ने पूर्णभद्र देव की ऋद्धि के विषय में प्रश्न किया कि वह नाट्य-विधि में प्रदर्शित वैभव कहां चला गया ? तब भगवान् महावीर ने पहले की तरह ही कूटागारशाला के उदाहरण द्वारा गौतम स्वामी जी को प्रतिबोधित किया। (तब गौतम स्वामी जी के हृदय में पूर्णभद्र देव के पूर्व जन्म के सम्बन्ध में जानने की इच्छा उत्पन्न हई, उनका समाधान करते हए भगवान ने कहा), एवं गोयमा! हे गौतम! लेण तेणं समएण-उस काल और उस समय में, इहेव जम्द दीवे-इसी जम्ब द्वीप के, भारदेवास-भरत क्षेत्र में, मणिवडया नामं नयरी होत्था-मणिपदिका नाम की एक नगरी थी, रिद्ध०-जो बड़ी-बड़ी अट्टालिकाओं वाले भवनों से युक्त शत्रु-भय से रहित एवं धन-धान्यादि से सम्पन्न थी, चंदो राया-वहां के राजा का नाम चन्द्र था, ताराइण्णो चेइए-उसी नगरी में ताराकीर्ण नाम का एक चैत्य (उद्यान) था, तत्थ णं मणिवइयाए नयरीए-उस मणिपदिका नाम की नगरी में, पुण्णभद्दे नाम गाहावई-पूर्ण भद्र नाम का एक गाथापति, परिवसइ-रहता था, अढे-जी अत्यन्त समृद्ध था। तेणं कालेणं तेणं समएणं-उसी काल में उस समय, थेरा भगवंतो-स्थविरपद-विभूषित एक मुनिराज पधारे जो, जातिसंपण्णा-जाति-सम्पन्न थे, जाव जीवियास-मरण-भयविप्पमक्कावे जीवन की इच्छा और मरने का भय दोनों से ही मुक्त थे, बहुस्सया-बहुश्रुत, बहुपरिवारा Page #384 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरयावलका ] (३०६ ) [ वर्ग-तृतीय विशाल मुनि समूह के साथ, पुव्वाणुपुव्वि, भगवान् महावीर की आज्ञा के अनुरूप विचरते हुए, जाव समोसढा - उसी नगरी में पधारे, परिसा निग्गया - जन-समुदाय रूप नागरिकों की टोलियां घरों से निकल कर वहां उनके दर्शनार्थ एवं उपदेश श्रवण के लिये पहुंचीं ॥ १ ॥ मूलार्थ – ( जम्बू स्वामी प्रश्न करते हैं) भगवन् ! यदि श्रमण भगवान् महावीर ने पुष्पिता के चतुर्थ अध्ययन में पूर्वोक्त भावों का वर्णन किया है तो पञ्चम अध्ययन में किस विषय का निरूपण किया है ? सुधर्मा स्वामी बोले- हे जम्बू ! उस काल और उस समय में राजगृह नाम का एक नगर था, उस नगर में गुणशील नाम का एक चैत्य था। वहां पर श्रेणिक नाम का राजा राज्य करता था। नगर के उसी चैत्य में भगवान् महावीर स्वामी पधारे; भगवान् के दर्शनों और उपदेश श्रवण के लिये, जन-समूह नगर से बाहर निकल कर उसी गुणशील चैत्य में पहुंचा । ( जम्बू !) उस काल और उस समय में सौधर्म कल्प लोक के पूर्णभद्र नामक विमान की सुधर्मा नाम से प्रसिद्ध सभा में पूर्णभद्र नामक सिंहासन पर पूर्णभद्र नाम का देव चार हजार सामानिक ( सेवा में उपस्थित रहने वाले) देवों के साथ बैठा हुआ था, वह देव सूर्याभ देव के समान भगवान् के समक्ष यावत् बत्तीस प्रकार की नाट्यविधियां प्रदर्शित करके जिस दिशा से आकर वहां प्रकट हुआ था; उसी दिशा (मार्ग) में लौट गया । तब गौतम स्वामी जी के हृदय में पूर्ण भद्र के पूर्व जन्म के सम्बन्ध मैं जानने की इच्छा उत्पन्न हुई। उनका समाधान करते हुए भगवान् ने कहा - हे गौतम ! उस काल और उस समय में इसी जम्बूद्वीप के भरतक्षेत्र में "मणिपदिका” नाम की एक नगरी थी जो विशाल अट्टालिकाओं वाले भवनों से युक्त थी, शत्रुओं के आतंक से मुक्त और धन-धान्यादि से सम्पन्न थी । वहां के राजा का नाम चन्द्र था और उस नगर में "ताराकीर्ण" नाम का एक उद्यान था । उस मणिपदिका नाम की नगरी में पूर्णभद्र नाम का एकगाथापति रहता था जो अत्यन्त समृद्ध था । उसी काल में उस समय स्थविर पद- विभूषित एक ऐसे मुनिराज वहां पधारे Page #385 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ग-तृतीय] (३०७) [निरयावलिका जो जाति-सम्पन्न थे (अच्छे कुल के थे) जो जीवन की इच्छा और मृत्यु का भय दोनों से मुक्त थे, बहुश्रुत थे और विशाल मुनि-समूह के साथ भगवान् महावीर की आज्ञा के अनुरूप विचरण कर रहे थे। वे उसी नगरी में पधारे । जन-समुदाय रूप नागरिकों की टोलियां घरों से निकल कर वहां उनके दर्शनार्थ एवं उपदेश-श्रवण के पहुंचीं ॥१॥ टीका-पूरा वर्णन अत्यन्त स्पष्ट है ।।१।। मूल--तएणं से पुण्णभद्दे गाहावइ इमीसे कहाए लद्धठे समाणे हठ्ठ० जाव पण्णत्तीए गंगदत्ते तहेव निग्गच्छइ, जाव निक्खंतो जाव गत्तबंभयारी। तएणं से पुण्णभट्टे अणगारे भगवंताणं अंतिए सामाइय-मादियाई एक्कारस अंगाई अहिज्जइ, अहिज्जित्ता बइंहिं चउत्थछट्ठट्ठम जाव भावित्ता बहूई वासाइं सामण्णपरियागं पाउणइ, पाउणित्ता मासियाए संलेहणाए सठि भत्ताई अणसणाए छेदित्ता आलोइयपडिक्कते समाहिपत्ते कालमासे कालं किच्चा सोहम्मे कप्पे पुण्णभद्दे विमाणे उववायसभाए देवसयणिज्जंसि जाव भाषामणपज्जत्तीए । . एवं खलु गोयमा ! पुण्णभद्देणं देवेणं सा दिव्वा देविड्ढी जाव अभिसमण्णागया। पुण्णभहस्स गं भेते ! देवस्स केवइयं कालं ठिई पण्णत्ता ? गोयमा ! दोसागरोवमा ठिई पण्णत्ता । पुण्णभद्दे णं भंते ! देवे ताओ देवलोगाओ जाव कहिं गच्छिहिइ ? कहिं उववज्जिहिइ ?गोयमा ! महाविदेहे वासे सिज्झिहिइ जाव अंतं काहिइ ? एवं खलु जंबू ! समणेणं भगवया जाव संपत्तेणं निक्खेवओ० ॥२॥ ॥ पंचमं अज्झयण समत्तं ॥५॥ Page #386 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरयावलिका) (३०८) [वर्ग-तृतीय छाया-ततः खलु सः पूर्णभद्रो गाथापतिः अस्याः कथाया लब्धार्थः सन् हृष्टतुष्टो० यावत् प्रज्ञप्त्यां गङ्गदत्तस्तथैव निर्गच्छति यावद् निष्क्रान्तो यावद् गुप्तब्रह्मचारी। ततः खलु स पूर्ण भद्रोऽनगारो भगवतामन्तिके सामायिकादीनि एकादशाङ्गानि अधीते, अधीत्य चतुर्थ षष्ठाष्टम० यावद् भावयित्वा बहूनि वर्षाणि श्रामण्यपर्यायं पालयति, पायित्वा मासिक्या सलेखनया षष्ठि भक्तानि अनशनेन छित्त्वा आलोचित-प्रतिकान्तः समाधि प्राप्तः कालमासे कालं कृत्वा सौधर्मे कल्पे पूर्णभद्रे विमाने उपपातसभायां देवशयनीये यावद् भाषामनःपर्याप्त्या। एवं खलु गौतम ! पूर्णभद्रेण देवेन सा दिव्या देवद्धिः यावद् अभिसमन्वागता । पूर्णभद्रस्य खलु भदन्त ! देवस्य कियन्तं कालं स्थितिः प्रज्ञप्ता ? गौतम ! द्विसागरोपमा स्थितिः प्रज्ञप्ता। पूर्णभद्रः खलु भवन्त ! देवस्तस्माद् देवलोकाद् यावत् क्व गमिष्यति ? क्व उत्पत्स्यते ? गौतम! महाविदेहे वर्षे सेत्स्यति यावदन्तं करिष्यति । एवं खलु जम्बू! श्रमणेन भगवता यावत् सम्प्राप्तेन निक्षपकः ।।२।। ॥ पञ्चममध्ययनं समाप्तम् ॥५॥ पदार्थान्वयः-तएणं से पुणभद्दे गाहावइ-तभी वह पूर्णभद्र नामक गाथापति, इमीसे कहाए लद्धढे समाणे-उनके आगमन सम्बन्धी समाचार के प्राप्त होते ही, हट्ट जाव पण्णत्तीए-अत्यन्त प्रसन्न हृदय से जैसे प्रज्ञप्ति (भगवती सूत्र) में, गंगदत्ते तहेव निगच्छइ-गंगदत्त घर-बार को त्याग कर मुनिराजों की शरण में पहुचा था वैसे ही वह भी, निक्खंतो—सब कुछ छोड़ कर उनके पास पहुंचा (और), जाव गुत्तबंभयारी-ईर्यासमिति आदि का पालन करते हुए गुप्त ब्रह्मचारी हो गया। तएणं से पुण्णभद्दे अणगारे-तदनन्तर (मुनि दीक्षा-ग्रहण कर) वह पूर्णभद्र मुनि, भगवंताणं तिए-उन स्थविर भगवन्तों के पास (रहते हए), सामाइयमादियाई एक्कारस अंगाई अहिज्जइ–सामायिक आदि ग्यारह अंग शास्त्रों का अध्ययन करता है, अहिज्जिता-और अध्ययन करके, बर्हि चउत्थ-छठ्ठट्ठम जाव-बहुत से चतुर्य, षष्ठ, अष्टम, आदि (रूप) तप द्वारा, भावित्ता-अपनी आत्मा को भावित करते हुए, बहूहि वासाई-अनेक वर्षों तक, सामग्णपरियागं-श्रामण्य-पर्याय (साधुत्व की साधना का उसने) पाउणइ-पालन किया, पाउणित्ताऔर पालन करके, मासियाए सलेहणाए-एक मास की संलेखना द्वारा, सठ्ठि भत्ताई अणसणाए छेदित्ता-साठ भक्तों को (दोपहर और सायं कालीन साठ बार के भोजन) का अनशन द्वारा छेदन करके, अर्थात् एक मास तक निरन्तर उपवास तपस्या करके, आलोइय-पडिक्कते-आलोचना और प्रतिक्रमण करते हुए, समाहिपत्ते-समाधिपूर्वक, कालमासे कालं किच्चा-मृत्यु का समय आने पर प्राणत्याग करके, सोहम्मे कप्पे-सौधर्म कल्प नामक देवलोक के, पुण्णभद्दे विमाणेपूर्णभद्र नामक विमान की, उववायसभाए-उपपात सभा में, देवसयणिज्जसि-देव शयनीय शय्या में देवरूप में उत्पन्न होकर , जाव भाषामण-पज्जत्तीए-आहार, शरीर भाषा-मत्रः पर्याप्ति रूप में पांचों पर्याप्तियों को प्राप्त कर पूर्ण देव बन गया। Page #387 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ग-तृतीय] (३०६) [निरयावलिका • एवं खलु गोयमा-हे गौतम इस प्रकार, पुण्णभद्देण देवेणं-उस पूर्णभद्र नामक देव को, सा दिव्या देविड्डी-वह दिव्य देव-समृद्धि, जाव अभिसमण्णागया-प्राप्त हो गई, पुण्णभद्दस्स गं भंते- गौतम स्वामी जी ने भगवान् महावीर से पुन: प्रश्न किया-) भगवन् ! (सौधर्म कल्पदेवलोक में), देवस्स-पूर्ण भद्रदेव को, केवइयं कालं ठिई पण्णता-कितने समय की स्थिति कही गई है ?, गोयमा!-(भगवान् महावीर ने कहा-), गोयम! हे गौतम !, दो सागरोवमा-दो सागरोपम की, ठिई पण्णत्ता-स्थिति कही गई है। (गौतम स्वामी ने पुनः प्रश्न किया-) पुब्वभद्दे णं भंते-भगवन् वह पूर्णभद्र, तओ देव लोगाओ--उस देवलोक से, जाव कहिं गच्छिहिइ-च्यवकर कहां जाएगा, कहिं उवबज्जिहिइकहां उत्पन्न होगा ? (भगवान महावीर ने उत्तर में कहा-) महाविदेहे वासे सिज्झिहिइ-वह महाविदेह क्षेत्र में जन्म लेकर सिद्ध होगा, जाव अंतं काहिइ-वह सब दुःखों का अन्त करेगा। एवं खलु जम्बू!-जम्बू ! इस प्रकार, समणेणं भगवया-श्रमण भगवान महावीर ने, जाव संपत्तेणं-जो मोक्षधाम को प्राप्त हो चुके हैं, उन्होंने, निक्खेवओ-पुष्पिता के पंचम अध्ययन का इस प्रकार प्रतिपादन किया है ॥२॥ मूलार्थ..-तभी वह पूर्णभद्र नामक गाथापति उनका आगमन सम्बन्धी समाचार प्राप्त होते ही अत्यन्त प्रसन्न हृदय से जैसे प्रज्ञप्ति (भगवती सूत्र) में गंगदत्त घर-बार को त्याग कर मुनि वृन्द की शरण में गया था, वैसे ही वह भी सब कुछ छोड़कर उनके पास पहुंचा और ईर्या-समिति आदि का पालन करते हुए गुप्त ब्रह्मचारी बन गया। मुनि दीक्षा-ग्रहण करने के अनन्तर वह पूर्णभद्र मुनि उन स्थविर भगवन्तों के पास (रहते हुए) सामायिक आदि ग्यारह अंग-शास्त्रों का अध्ययन करता है और अध्ययन करके बहुत से चतुर्थः षष्ठ, अष्टम आदि (रूप) तप द्वारा अपनी आत्मा को भावित करते हुए अनेक वर्षों तक श्रामण्य-पर्याय (साधुत्व की साधना) का उसने पालन किया, और पालन करके एक मास की संलेखना द्वारा साठ भक्तों को (दोपहर और सायंकालीन भोजन) के क्रम से साठ समयों के भोजन का अनशन द्वारा छेदन करके अर्थात् एक मास तक निरन्तर उपबास तपस्या करके आलोचना और प्रतिक्रमण करते हुए समाधि-पूर्वक मृत्यु का समय आने पर प्राण-त्याग करके सौधर्म कल्प .नामक देवलोक के पूर्णभद्र नामक विमान की उपपात सभा में देवशयनीय शय्या में Page #388 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरयावलिका] (३१०) [वर्ग-तृतीयः देवरूप में उत्पन्न होकर उसने भाषा-मन आदि पर्याप्तियों को ग्रहण किया और इस प्रकार वह सोमा ब्राह्मणी सोम नामक देव के रूप में वहां निवास करने लगी। . गौतम ! इस प्रकार उस पूर्णभद्र नाम के उस देव को, वह दिव्य देव-समृद्धि प्राप्त हो गई। (गौतम स्वामी ने पुनः प्रश्न किया-) भगवन् ! सौधर्म का नामक देवलोक में उस पूर्णभद्र देव की कितने समय की स्थिति कही गई है ? (भगवान महावीर ने कहा-)गौतम ! वहां पर उसकी स्थिति दो सांगरोपम की कही गई है। (गौतम स्वामी जी ने पुन: प्रश्न किया-) भगवन् ! पूर्ण भद्रदेव उस देवलोक से च्यव कर कहां जाएगा ? और कहां उत्पन्न होगा ? (भगवान महावीर ने उत्तर में कहा-) वह महाविदेह क्षेत्र में जन्म लेकर सिद्ध होगा और अपने जन्म-मरण आदि समस्त दुःखों का अन्त करेगा। इस प्रकार जम्बू ! मोक्ष-धाम को प्राप्त भगवान महावीर ने पुष्पिता के पंचम अध्ययन का वर्णन किया है ॥२॥ टीका-सभी प्रकरण सर्वथा स्पष्ट हैं। ॥ पञ्चम अध्ययन समाप्त ॥ Page #389 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ग-तृतीय ( ३११) [निरयावलिका तृतीय वर्ग : षष्ठ अध्ययन मूल-जइणं भंते ! समणेणं भगवया जाव संपत्तेणं उक्खेवओ०, एवं खलु जंबू ! तेणं कालेण तेणं समएणं रायगिहे नयरे, गणसिलए चेइए, सेणिए राया, सामी समोसरिए । तेणं कालेणं तेणं समएणं माणिभद्दे देवे सभाए सुहम्माए माणिभइंसि सोहासणंसि चउहि सामाणियसाहस्सोहिं जहा पुण्णभद्दो, तहेव आगमणं, नट्टविही। पुव्वभवपुच्छा, मणिवया नयरी, माणिमद्दे गाहावई, थेराणं अंतिए पन्वजा, एक्कारस अंगाई अहिज्जइ, बहूई वासाइं परियाओ, मासिया संलेहणा, सठ्ठि भत्ताई०, माणिभद्दे विमाणे उववाओ, दोसागरोवमा ठिई, महाविदेहे वासे सिज्झिहिइ । एवं खलु जंबू ! निक्खेवओ० ॥१॥ ॥ छठें अज्झयणं समत्तं ॥ छाया–यदि खलु भदन्त ! श्रमणेन भगवता यावत् सम्प्राप्तेन उत्क्षेपकः । एवं खन्नु जम्बू ! तस्मिन् काले तस्मिन् समये राजगृहं नगरं, गुणशीलं चैत्यं, श्रेणिको राजा, स्वामी समवस्तः । तस्मिन् काले तस्मिन् समये माणिभद्रो देवः सभायां सुधर्माया माणिभद्र सिंहासने चतुभिः सामानिकसहस्रर्यावत पूर्णभद्रस्तथैवाऽऽगमनं, नाटयविधिः, पूर्वभवपृच्छा, मणिपदा नगरी, माणिभद्रो गाथापतिः, स्थविराणामन्तिके प्रवज्या, एकादशाङ्गानि अधोते, बहूनि वर्षाणि पर्यायः, मासिको संलेखना, षष्ठि भक्तानि० माणिभद्र विमाने उपपातः द्विसागरोपमा स्थितिः, महाविदेहे वर्षे सेत्स्यति । एवं खलु जम्बू ! निक्षेपक:० ॥१॥ पदार्थान्वयः-(श्री गौतम स्वामी जी ने प्रश्न किया-) जइ णं भंते ! भगवन् ! यदि, भगवया जाव संपतेणं- मोक्षधाम में पहुंचे हुए भगवान् महावीर ने, उत्क्षेपक:-पंचम अध्ययन का पूर्वोक्त भाव बतलाया है तो फिर छठे अध्ययन में किस भाव एवं किस महान व्यक्तित्व के सम्बन्ध में वर्णन किया है ? सुधर्मा स्वामी कहते हैं कि हे जम्बू ! (भगवान् महावीर ने कहा-) तेणं कालेणं तेणं Page #390 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरयावलिका ] ( ३१२ ) [ वर्ग-तृतीय समए - उस काल में उस समय में, राय गिहे नयरे - राजगृह नाम का नगर था, गुणसिलए चेइए - जिसमें गुणशील नाम का एक चैत्य (उद्यान) था, सेजिए राया - वहां का राजा श्रेणिक था, सामी समोसरिए - भगवान महावीर वहां पधारे । तेणं कालेणं तेणं समएणं - उस काल एवं उस समय, माणिभद्दे देवे – मणिभद्र नामक एक देव था, सभाए सुहम्माए - सौधर्म कल्प की सुधर्मा सभा में माणिभद्देसि सीहासणंसि - माणिभद्र नामक सिंहासन पर चउहि सामणिय साहस्सोहि -चार हजार सामानिक देवों के साथ बैठे हुए थे, जहा पुण्णभद्दो- वह माणिभद्र देव पूर्ण भद्रदेव के तहेव आगमणं - समान भगवान महावीर के पास आए, नट्टविहि— (और) नाट्यविधि दिखाकर चले गए । पुष्व भव पुच्छा - श्री गौतम स्वामी जी ने भगवान् महावीर से पुग्वभव पुच्छा - माणि भद्र देव के पूर्व भव के विषय में पूछा, मणिवया नयरी - (भगवान् ने उत्तर दिया- गौतम बहुत समय पूर्व) एक मणिपदिका नाम की नगरी थी, माणिभद्दे गाहावई - ( वहां पर ) माणिभद्र नाम का एक गाथापति रहता था, थेराणं अंतिए पवज्जा - उसने स्थविर सन्तों के पास पहुंच कर प्रवज्या ग्रहण कर ली, एक्कारस अंगाई अहिज्जइ - उसने ग्यारह अंगों का अध्ययन किया, बहूहं वासाइं परियाओ- बहुत वर्षों तक माणिभद्र मुनि ने श्रमण-पर्याय का पालन किया, मासिया संलेहणा - ( और अन्त में) एक मास की संलेखना द्वारा, सद्व भत्ताई साठ भक्तों (साठ समय के भोजन) का उपवास द्वारा छेदन करके और पाप स्थानों की आलोचना प्रतिक्रमण करके के माणिभद्र नामक विमान को उपपात उबवाओ - जन्म लिया, दोसागरोवमा ठिई-वहां पर उसकी महाविदेहेवासे सिज्झिहिई - वह महाविदेह क्षेत्र में जन्म लेकर सिद्ध ( मृत्यु को प्राप्त कर), माणिभद्दे विमाणे - सौधर्म कल्प सभा में देव शयनीय शय्या पर दो सागरोपम की स्थिति होगी, हो सब दुःखों का अन्त करेगा । - एवं खलु जम्बू | - हे जम्बू इस प्रकार, निक्खेवओ - भगवान महावीर ने पुष्पिता के छटे अध्ययन के भावों का प्रतिपादन किया है ॥ १ ॥ मूलार्थ - (श्री गौतम स्वामी जी ने प्रश्न किया - ) भगवन् ! यदि अब मोक्षधाम में पहुंचे हुए भगवान् महावीर ने पुष्पिता के पंचम अध्ययन का पूर्वोक्त भाव बतलाया है तो फिर छठे अध्ययन में किस भाव एवं किस महान् व्यक्तित्व के सम्बन्ध में वर्णन किया है ? ( सुधर्मा स्वामी कहते हैं - हे जम्बू ! तव भगवान काल उस समय में राजगृह नाम का एक नगर था महावीर ने कहा था उस जिसमें गुणशील नामक एक Page #391 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ग-तृतीय] ( ३१३) [निरयावलिका (चैत्य) उद्यान था। वहां का राजा श्रेणिक था, भगवान् महावीर वहां पधारे। परिषद् आई और धर्म श्रवण कर चली गई। ____ उस काल एवं उस समय में एक माणिभद्र नाम का देव था जो सौधर्म कल्प की सुधर्मा नामक देव - सभा में माणिभद्र नामक सिंहासन पर चार हजार सामानिक देवों के साथ बैठा हुआ था। पूर्ण भद्र देव के समान वह माणिभद्र नामक देव भी भगवान् महावीर के पास आया और अपनी नाट्य-विधि प्रदर्शित कर चला गया। श्री गौतम स्वामी जी ने भगवान् महावीर से माणिभद्र देव के पूर्व भव के विषय में पूछा तो भगवान् ने उत्तर दिया कि-गौतम ! बहुत समय पूर्व एक मणिपादिका नाम की नगरी थी जिसमें वह माणिभद्र नाम का गाथापति रहता था। उसने स्थविर मुनिराजों के सान्निध्य में पहुंच कर प्रव्रज्या ग्रहण करली और ग्यारह अंगों का अध्ययन किया । बहुत वर्षों तक उसने श्रमण-पर्याय (साधुत्व-साधना) का पालन किया और अन्त में एक मास की संलेखना द्वारा साठ समय के भोजन का उपवासों द्वारा छेदन करके एवं पाप-स्थानों की आलोचना तथा प्रतिक्रमण करके (मृत्यु को प्राप्त कर) सौधर्म कल्प के माणिभद्र नामक विमान की उपपात सभा में देवशयनीय शय्या पर जन्म लिया। उसकी वहां दो सागरोपम की स्थिति होगी, वह महाविदेह क्षेत्र में जन्म लेकर सिद्ध बनेगा और जन्म-मरण सम्बन्धी सभी दुःखों का • अन्त करेगा। हे जम्बू ! इस प्रकार भगवान् महावीर ने पुष्पिता के छठे अध्ययन के भावों का प्रतिपादन किया है ॥१॥ ___मूल –एवं दत्ते ७ सिवे ८ बले अणाढिए १०, सव्वे जहा पुग्णभद्दे देवे सर्वसि दोसागरोवमाइं ठिई । विमाणा देवसरिसनामा । पुत्वभवे पत्ते चंदणाए, सिवे मिहिलाए बलो हत्थिणपुरनयरे, अणाढिए काकवीए, चेइयाइं जहा संगहणीए ॥२॥ ॥तइओ वग्गो सम्मत्तो॥ Page #392 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरयावलिका] (३१४) [वर्ग-तृतीय छाया-एवं दत्तः ७ शिवः ८ बल। ६ अनादृतः १०, सर्वे यथा पूर्णभद्रो देवः सर्वेषां द्विसागरोपमा स्थितिः, विमानानि देवसदृशनामानि, पूर्वभवे दत्तः चन्दनायाम्, शिवो मिथिलायां, बलो हस्तिनापुरे नगरे, अनादृतः काकन्द्यां, चैत्यानि जहा संग्रहण्यांम् ॥ २॥ ॥ इति पुष्पितायां सप्तमाष्ठमनवमवशमान्यध्ययनानि समाप्तानि ।। ७ । ८ । ६ । १०॥ ॥ तृतीयो वर्गः समाप्तः ॥ पदार्थान्वयः-एवं-इसी प्रकार, दत्त, शिव, बल और आनादृत आदि सभी देवों का वर्णन, जहा पुण्णभद्दे देवे-पूर्णभद्र देव के समान समझ लेना चाहिये, सम्वेसि दो सागरोवमाइं ठिईइन सबकी देवलोक में स्थिति दो सागरोपम की ही जाननी चाहिये, विमाना देव-सरिसनामाःविमानों के नाम इन देवों के नामों के समान समझने चाहिये। (इतना विशेष है कि), पुवभवे दत्ते चंदणाए-दत्त अपने पूर्व भव में चन्दना नगरी में, सिवे मिहिलाए-शिव मिथिला में, बलो हत्थिणपुर नयरे–बल हस्तिनापुर नामक नगर में, (और), अणाढिए काकंदीए-अनादृत काकन्दी नगरी में उत्पन्न हुए थे। चेइयाइं जहा संगहणीए-उद्यान संग्रहणी गाथा के अनुसार जानने चाहिये ॥२॥ मूलार्थ-जम्बू ! इसी प्रकार दत्त, शिव, बल और अनादृत इन सभी देवों का वर्णन पूर्व वणित पूर्णभद्र देव के समान समझना चाहिए। इनके सौधर्म कल्प में विमानों के नाम इन देवों के नामों के अनुसार ही जान लेने चाहिये । (इतना विशेष है कि) दत्त पूर्व जन्म में चन्दना नगरी में, शिव मिथिला में, बल हस्तिनापुर में और अनादृत काकन्दी में जन्मे थे। इस से सम्बन्धित उद्यानों के नाम संग्रहणी गाथा के अनुसार समझने चाहिए ॥२॥ टोका-वह संग्रहणी गाथा अब अनुपलब्ध है ॥२॥ ॥ तृतीय वर्ग समाप्त ॥ Page #393 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . An.... ...17 ..... ETANAS PLEARN PERSON areAS प ARH पुष्पचूलिका नामक चतुर्थ-वर्ग Page #394 --------------------------------------------------------------------------  Page #395 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अथ पुष्पचूलिकाख्यश्चतुर्थी वर्गः - मूल--जइणं भंते ! समणेणं भगवया उक्खेवओ० जाव दस अज्झयणा पण्णत्ता। तं जहा "सिरि:हिरि-धिइ-कित्तीओ, बुद्धी लच्छी य होइ बोधवा। इलादेवी सुरादेवी, रसदेवी गंधदेवी य॥ जइणं भंते ! समणेणं भगवया जाव संपत्तेणं उवंगाणं चउत्थस्स वग्गस्स पुष्फचूलाणं दस अज्झयणा पण्णत्ता, पढमस्स गं भंते ! उक्खेवओ। एवं खलु जंबू ! तेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहे नयरे, गुणसिलए चेइए, सेणिए राया, सामी समोसढे, परिसा निग्गया। तेणं कालेणं तेणं समएणं सिरि देवी सोहम्मे कप्पे सिरिडिसए विमाणे सभाए सुहम्माए सिरिसि सोहासणंसि चहि सामाणियसाहस्सेहि चहि सपरिवाराहि जहा बहुपुत्तिया जाव नट्टविहिं उवदंसित्ता पडिगया। नवरं [दारय] दारियावो नत्थि ॥१॥" छाया-यदि खलु भवन्त ! श्रमणेन भगवता उत्क्षेपको० यावद् दश अध्ययनानि प्रज्ञप्तानि । तन् यथा "श्री-हो-धी-कीर्तयो बुद्धिलक्ष्मीश्च भवति बोद्धव्या । इलादेवी सुरादेवी, रसदेवी गन्धदेवी च ॥ १ ॥" यदि खलु भदन्त ! भमणेन भगवता यावत् संप्राप्तेन उपाङ्गानां चतुर्थस्य वर्गस्य पुष्पचूलानां वसाऽध्ययनानि प्रज्ञप्तानि, प्रथमस्य खलु भवन्त ! उत्क्षेपकः०, एवं खलु गौतम ! तस्मिन् काले तस्मिन् वर्ग-चतुर्थ (३१७ ) [निरयावलिका Page #396 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरयावलिका] (३१८) [वर्ग-चतर्थ समये राजगृहं माम नगरं, गुणशिलं चैत्यं, श्रेणिको राजा, स्वामी समवसृतः, परिषद् निर्गता। तस्मिन् काले तस्मिन् समये श्रीदेवी सौधर्म कल्पे श्यवतंसके विमाने सभायां सुधर्मायां श्रियि सिंहासने चभिः सामानिकसहस्रः चतसृभिर्महत्तरिकाभिः सपरिवाराभिः यथा बहुपुत्रिका यावद् नाट्यविधि-मुपदर्य प्रतिगता। नवरं [ दारक ] दारिका न सन्ति ।।१।। पदार्थान्वयः-जइ णं भंते !-भगवन् यदि, समणेणं भगवया-भगवान् महावीर ने, उक्खेवओ जाव०-पुष्पिता नामक वा में दस अध्ययनों का वर्णन किया है तो तदनन्तर उन्होंने क्या फरमाया है ? (सुधर्मा स्वामी जी ने जम्बू स्वामी जी के प्रश्न का समाधान करते हुए कहा)-"वत्स जम्बू ! तदनन्तर भगवान् महावीर ने पुष्पचूलिका नामक चतुर्थ वर्ग का निरूपण किया है। इस वर्ग में, दस अज्झयणा पण्णत्ता-दस अध्ययन बतलाये हैं; तं जहा–वे जैसे सिरि-हिरि-धिइ-कीत्तीमओ, बुद्धी लच्छो य होइ बोधव्वा । इलादेवी सुरादेवी रसदेवी गंध देवी य ॥१॥ १ श्री, २ ह्री, ३ धी, ४ कीर्ति, ५ बुद्धि, ६ लक्ष्मी, ७ इलादेवी, ८ सुरादेवी, ६ रस देवी और १० गन्ध देवी__ (जम्बू ! भगवान् महावीर ने उपर्युक्त दस अध्ययनों का निरूपण किया है।) जइणं भन्ते !-भगवन् यदि, समणेणं भगवया जाव संपत्तेणं-मोक्ष धाम को प्राप्त होने वाले भगवान् महावीर ने, उवंगाणं-पुष्पचूलिका के चतुर्थ वर्ग में दस अध्ययनों का वर्णन किया है, तो पढमस्स गं भंते उक्खेवओ-तो इस वर्ग के प्रथम अध्ययन का क्या भाव फरमाया है ? एलं खलु जम्बू-श्री सुधर्मा स्वामी जी ने उत्तर दिया हे जम्बू !, तेणं कालेलं तेणं समएणं-उस काल एवं उस समय में, रायगिहे नयरे–राजगृह नाम का एक नगर था, गुणसिलए चेइए-उस नगर में गुण शिलक नामक एक चैत्य (उद्यान) था, सेणिए राया-उस नगर पर श्रेणिक नाम का राजा राज्य करता था, सामी समोसढे-भगवान् महावीर ग्रामानुग्राम विहार करते हुए वहाँ पधारे, परिसा निग्गया-उनके दर्शनों एवं उपदेश-श्रवण के लिये, श्रद्धालु नागरिकों की टोलियां वहां पहुंचने के लिये अपने-अपने घरों से निकलीं। तेणं काले तेणं समएणं-उसी काल एवं उसी समय में, सिरी देवी-श्री देवी, सोहम्मेकप्पे-सौधर्म नामक देवलोक के, सिरि - वडिसए विमाणे-श्री - अवतंसक विमान में, सभाए सुहम्माए-सुधर्मा नाम की सभा में, सिरिसि सोहासणंसि-श्री नामक सिंहासन पर, चाँह सामाणिय साहस्सेहि-चार हजार सामानिक देवों के साथ, चउहि महत्तरियाहिं सपरिवाराहितथा परिवार सहित चार हजार महत्तरिकाओं के साथ (बैठी हुई थी), जहा बहुपुत्तिया-जैसे वह Page #397 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ग-चतुर्थ ] (३१६) [निरयावलिका श्री देवी (पूर्व वणित) बहुपुत्रिका देवी के समान (प्रभु महावीर के पास प्राई) और, नट्टविहि उवदंसित्ता-नाट्य-विधि प्रदर्शित करके, पडिगया-वापिस देवलोक में ही लौट गई, नवरंइतना विशेष समझना चाहिये कि, (दारय) दारियाओ नस्थि-उसके साथ वैक्रिय शक्ति द्वारा उत्पन्न बालक बालिकायें नहीं थीं।।१।। मूलार्थ- भगवन् ! यदि भगवान् महावीर ने पुष्पिता नामक वर्ग में दस अध्ययनों का वर्णन किया है तो तदनन्तर उन्होंने क्या फरमाया है ? सुधर्मा स्वामी जी ने जम्बू जी के प्रश्न का समाधान करते हुए कहा वत्स जम्बू ! तदनन्तर भगवान महावीर ने पुष्पचूलिका नामक चतुर्थ वर्ग का निरूपण किया है, इस वर्ग में दस अध्ययन बतलाये हैं, जैसे कि -१. श्री, २. ह्री, ३. धी, ४. कीर्ति, ५. बुद्धि, ६. लक्ष्मी, ७. इलादेवी, ८. सुरादेवी. ९. रसदेवी और १० गन्धदेवी । जम्बू ! भगवान महावीर ने उपर्युक्त दस अध्ययनों का निरूपण किया है। ___(जम्बू जी ने पुनः जिज्ञासा प्रकट की-) भगवन ! मोक्ष-धाम को प्राप्त होने वाले भगवान् महावीर ने पुष्पचूलिका के चतुर्थ वर्ग में दस अध्ययनों का वर्णन किया है तो इस वर्ग के प्रथम अध्ययन का क्या भाव फरमाया है ? श्री सुधर्मा स्वामी जी ने उत्तर दिया हे जम्बू ! उस काल एवं उस समय में राजगृह नाम का एक नगर था, उस नगर में गुण शिलक नामक एक चैत्य (उद्यान) था, उस नगर पर श्रेणिक नाम का राजा राज्य करता था, भगवान् महावीर ग्रामानुग्राम विचरण करते हुए वहां पधारे । उनके दर्शनों एवं उपदेश-श्रवण के लिये श्रद्धालु नागरिकों की टोलियां वहां पहुंचने के लिये अपने अपने घरों से निकलीं। ____ उसी काल उसी समय श्री देवी सौधर्म नामक देवलोक के श्री-अवतंसक विमान में सुधर्मा नाम की सभा में श्री नामक सिंहासन पर चार हजार सामानिक देवों के साथ तथा परिवार सहित चार हजार महत्तरिकाओं के साथ (बैठी हुई थी), वह श्री (पूर्व वणित) बहुपुत्रिका देवी के समान (प्रभु महावीर के पास आई) और नाट्यविधि प्रर्दिशत करके; वापिस देवलोक में ही लौट गई । इतना विशेष समझना चाहिये कि उसके साथ वैक्रिय शक्ति द्वारा उत्पन्न बालक बालिकायें नहीं थीं ॥१॥ . टीका-समस्त विषय अत्यन्त स्पष्ट है ॥१॥ Page #398 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरयावलिका । ३२०) विग-चतुर्थ मूल--पुव्व भवपुच्छा । एवं खल गोयमा ! तेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहे नयरे गुणसिलए चेइए, जियसत्तू राया। तत्थं गं रायगिहे नयरे सुदंसणे नाम गाहावइ परिवसइ, अड्ढे । तस्स णं सुदंसणस्स गाहावइस्स धूया पियाए गाहावइणोए अत्तया भूया नामं दारिया होत्था, वुड्ढा वुड्ढकुमारी जुण्णां जुण्णकुमारी पडियपूयत्थणी वरगपरिवज्जिया यावि होत्था। तेणं कालेणं तेणं समएणं पासे अरहा परिसादाणीए जाव नवरयणिए, वण्णओ सो चेव, समोसरणं, परिसा निग्गया।.. तएणं सा भूया दारिया इमोसे कहाए लद्धा समाणी हट्ठतुट्ठा जेणेव अम्मापियरो तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता एवं वयासी-एवं खलु अम्मताओ ! पासे अरहा परिसादाणीए पुन्वाणपव्वि चरमाणे जाव देवगणपरिवुडे विहर इ, तं इज्छामि णं अम्मयाओ ! तुहिं अब्भण ण्णाया समाणी पासस्स अरहओ पुरिसादाणीयस्स पायवंदिया गमित्तए । अहासहं देवाणु प्पिया ! मा पडिबंधं ॥२॥ छाया-पूर्वभवपुच्छा। एवं खलु गौतम ! तस्मिन् काले तस्मिम् समये राजगृहं नगरं, गुणशिलं चैत्यं, जितशत्रू राजा । तत्र खलु राजगृहे नगरे सुदर्शनो नाम गाथापतिः परिवसति, आत्यः । तस्य खलु सुदर्शनस्य गाथापतेः प्रियाया गाथापतिकाया आत्मजा भूता नाम्नी दारिका-अभवत् बद्धा बृद्धकुमारी जीर्णा जीर्णकुमारी पतितपतस्तनी वरपरिवजिता चापि अभवत् । तस्मिन् काले तस्मिन् समये पावोऽर्हन् पुरुषादानीयो यावद् नवरत्निको वर्णकः स एव, समवसरणं, परिषद् निर्गता। ततः खलु सा भूता दारिका अस्याः कथाया लब्धार्था सती दृष्टतुष्टा० यत्रैव अम्बापितरौ तत्रैव उपागच्छति, उपागन्य एवमवादीत्-एवं खलु अम्बतातौ ! पार्योऽर्हन् पुरुषादानीयः पूर्वानुपुर्वी चरन् देवगणपरिवृतो विहरति, तद् इच्छामि खलु अम्बातातौ ! युवाभ्यामभ्यनुज्ञाता सती पार्श्वस्यार्हतः पुरुषादानीयस्य पादवन्दनाय गन्तुम्, यथासुखं देवानुप्रिये ! मा प्रतिबन्धम् ।।२।। ___ पदार्थान्वयः-एवं खल गोयमा!-(गौतम ने पुनः पूछा-भगवन् ! यह श्री देवी पूर्व जन्म' में कौन थी? तो गौतम स्वामी के प्रश्न का समाधान करते हुए भगवान् महावीर ने कहा-) हे गौतम ! तेणं कालेणं तेणं समएणं-उस काल एवं उस समय में, रायगिहे नयरे-राजगृह नामक Page #399 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ग-चतुर्थ ]. ( ३२१) [निरयावलिका एक नगर था, गण-सिलए चेडये-वहां गणशील नाम का एक (उद्यान) था, जियसत्त रायावहां पर जित शत्र नाम के राजा का राज्य था, तत्थ णं रायगिहे नयरे-उस राजगह नगर सदसणे नाम गाहावई परिवसइ-सुदर्शन नाम का एक गाथापति (व्यापारी वर्ग का प्रमुख) रहता था, अड्डे -जो कि धन-धान्यादि से अत्यन्त समृद्ध था। तस्स णं सुदंसणस्स गाहावइस्स धूया पियाए -उस सदर्शन नामक गाथापति की पत्नी का नाम प्रिया था, गाहावइणोए अत्तया भूया नाम दारिया-उन गाथा-पति की पत्नी प्रिया की अपनी ही कोख से उत्पन्न एक भूता नाम की, दारिया होत्था-पुत्री थी, वुड्डा वुड्डा कुमारी--जो कि बड़ी उमर की हो गई थी और वृद्धा स्त्रियों जैसी प्रतीत होती थी, जण्णा जण्णकुमारी-जीर्ण शरीर की होने के कारण, जीर्ण महिला सी प्रतीत होती थी, पडियपुयत्थणी-उसके स्तन (जीर्णता के कारण) लटक चुके थे किन्तु पुरुष-अस्पृष्ट होने के कारण पवित्र थे, .वरण - परिवज्जिया यावि होत्था-वह अभी तक वर-प्राप्ति से वञ्चित ही थी (अर्थात् कुंवारी ही थी)। तेणं कालेणं तेणं समएणं-(जम्बू) उसी काल और उसी समय में, पासे अरहा पुरिसादाणीएपुरुषों में श्रेष्ठ अरिहन्त प्रभु श्री पार्श्वनाथ जी, जाव नयरवणिए-जो नए (चमकदार) बर्ण वाले थे, सो चेव-वहां पहले जैसा ही, समोसरगं-उनका समवसरण लगा, परिसा निग्गयाउनके दर्शन कर प्रवचन सनने के लिये श्रद्धालु नागरिकों के समूह अपने-अपने घरों से निकल पड़े। . तएणं सा भूया दारिया-तदनन्तर वह भूता नाम की अत्यधिकवय वाली लड़की, इमीसे कहाए लदा समाणी-उनके आगमन की सचना प्राप्त होते ही, हट तटठाअत्यन्त प्रसन्न और सन्तुष्ट होकर, जेणेव अम्मापियरो-जहां पर उसके माता-पिता थे, तेणेवउवागच्छह-वहीं पर आ जाती है, (और), उवागच्छित्ता-वहां आकर, एवं वयासी-वह मातापिता ने इस प्रकार कहने लगी, एवं खल अम्मताओ-हे माता जी, पिता जी, पासे अरहा परिसादाणीए-मनुष्यों में श्रेष्ठ अरिहन्त प्रभु श्री पार्श्वनाथ जी, पुवाणुवि चरमाणे-ग्रामानुग्राम विचरण करते हुए, जाव देवगण परिवडे-देवताओं से घिरे हुए (जिनके चारों ओर देव सर्वदा रहते हैं), विहरइ-विहार करते हुए हमारे नगर में पधारे हैं, तं इच्छामि णं अम्मयाओइसलिये हे मां! मैं यह चाहती हूं कि, तब्भेहि अब्भणुण्णाया समाणी-आप से आज्ञा प्राप्त करके, पासम्म अपरओ परिसादाणीयस्स - नौ हाथ की अवगाहना के कारण परुषों में श्रेष्ठ अरिहन्त प्रभ श्री पार्श्वनाथ जी के, पाय वंदिया गमित्तए-चरण-वन्दन के लिये जाऊं, अहासहं देवाणप्पियाहे देवानुप्रिये ! जैसे तुम्हारी इच्छा हो वैसे करो, मा पडिबंध-शुभ काम में देरी उचित नहीं होती ॥२॥ मूलार्थ – (गौतम स्वामी जी ने पूछा) भगवन् ! यह श्रीदेवी पूर्व जन्म में कौन थी? तो गौतम स्वामी के प्रश्न का समाधान करते हुए भगवान महावीर ने कहा-) हे Page #400 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरयावलिका] ( ३२२) [वर्ग-चतुर्थ गौतम ! उस काल एवं उस समय में राजगृह नाम का एक नगर था, वहां गुणशील नाम का एक चैत्य (उद्यान) था, वहां पर जितशत्रु नाम के राजा का राज्य था उस राजगृह नगर में सुदर्शन नाम का एक गाथा-पति (व्यापारी वर्ग का प्रमुख) रहता था; जोकि धन-धान्य से अत्यन्त समृद्ध था, उस सुदर्शन नामक गाथापति की पत्नी का नाम प्रिया था, उस गाथा-पति की पत्नो प्रिया का अनो हो कोख से अत्यन्त एक भूता नाम की पुत्री थी, जो कि बड़ी उमर को हो गई थी और वृद्धा स्त्रियों जैसी प्रतीत होती थी, जीर्ण शरीर वाली, जीर्ण महिला सी प्रतीत होती थी, उसके स्तन (जीर्णता के कारण) लटक चुके थे किन्तु पुरुष-अस्पृष्ट होने के कारण पवित्र थे । वह अभी तक वर प्राप्ति से वञ्चित थी (अर्थात् कुवारी ही थी । (जम्बू) उसी काल और उसी समय में पुरुषों में श्रेष्ठ अरिहन्त प्रभु श्री पार्श्वनाथ जी; जो नए (चमकदार) वर्णवाले थे वहां पहले जैसा ही उनका समवसरण लगा, उनके दर्शन कर प्रवचन सुनने के लिये श्रद्धालु नागरिकों के समूह अपने-अपने घरों से निकल पड़े। तदनन्तर वह अत्यधिक वय वाली भूता नामकी लड़की, उनके आगमन को सूचना प्राप्त होते ही अत्यन्त प्रसन्न और सन्तुष्ट होकर जहां पर उनके माता-पिता थे वहीं पर आ जाती है (और) वहां आकर वह माता-पिता से इस प्रकार कहने लगो, हे माता जी, पिता जी ! मनुष्यों में श्रेष्ठ अरिहन्त प्रभु श्री पार्श्वनाथ जी, ग्रामानुग्राम विचरण करते हुए देवताओं से घिरे हुए (जिनके चारों ओर देव सर्वदा रहते हैं विहार करते हुए हमारे नगर में पधारे हैं इसलिये हे मां ! मैं यह चाहती हूं कि आपसे आज्ञा प्राप्त करके नौ हाथ की अवगाहना के कारण पुरुषों में श्रेष्ठ अरिहन्त प्रभु श्री पार्श्वनाथ जी की चरण-वन्दना के लिये मैं भी जाऊ। हे देवानुप्रिये ! जैसे तुम्हारी इच्छा हो वैसे करो शुभ काम में देरी उचित नहीं होती ।।२।। टीका-वह संग्रहणी गाथा अब अनुपलब्ध है ॥ २ ॥ Page #401 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ग - चतुर्थ ] (३२३) [निरयावलिका +++++++ ++ + . पूल --तए णं सा भूया दारिया ण्हाया० जाव सरीरा चेडीचक्कवालपरिकिण्णा साओ गिहाओ पडिनिक्खमइ, पडिनिक्खमित्ता जेणे व बाहिरिया उबट्ठाणसाला तेणे । उवागच्छइ, उवागच्छित्ता धम्मियं जाणप्पवरं दुरूहा । तएणं सा भूया दारिया नियपरिवार परिवुडा रायगिह नयरं मझंमज्झेण निग्गच्छइ निग्गच्छित्ता जेणेव गणसिलए चेइए तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता छत्तावीए तित्थकरातिसए. पासइ, र्धा मयाओ जाणप्पवराओ पच्चोरुहइ, पच्चोरुहित्ता चेडीचक्कवालपरिकिण्णा जेणेव पासे अरहा पुरिसादाणीए तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता तिक्खुत्तो जाव पज्जुवासइ । तएणं पासे अरहा पुरिसादाणीए भूयाए दारियाए तोसे महइ० धम्मकहा, धम्म सोच्चा णिसम्म हट्ठ० वंदइ, वंदित्ता एवं वयासी सद्दहामि णं भंते ! निग्गंथं पावयणं से जहे तं तुब्भे वदेह, जं. नवरं देवाणुप्पिया ! अम्मापियरो आपुच्छामि, तएणं अहं जाव पव्वइत्तए । अहासुहं देवाणुप्पिया ॥३॥ - छाया-ततः खलु सा भूता दारिका स्नाता यावत् सर्वालङ्कार-विभूषितशरीरा चेटीचक्रलपरिकीर्णा स्वस्माद गहात प्रतिनिष्कामति, प्रतिनिष्क्रम्य यौव बायोपस्थानशाला तत्रवोगगच्छति उपागत्य धामिकं यानप्रवरं दूरुढा । ततः खलु सा भूता दारिका निजपरिवार पन्विता राजगहं नगरं मध्यंमध्येन निर्गच्छति, निर्गत्य यत्रैव गुणशिल चैत्यं तत्रैवोपागच्छति, उपागाय छत्रादीन तीर्थङ्करातिशयान् पश्यति । धार्मिकात् यानप्रवरात् प्रत्यवरुह्य चेटीचक्रवालपरिकीर्णा यत्रव पा वोऽहन् पुरुषादानीयस्तत्रैवोपागच्छति, उपागत्य त्रिकृत्वो यावत् पयुपासते । तत: खल पावोऽर्हन् पुरुषादानीयो भूताय दारिकार्य तस्यै महातिमहत्यां० धर्मकथां । धर्म श्रुत्वा निशम्य हृष्ट तुष्टा० वन्दते, वन्दित्वा एयमवादीत-श्रद्दधामि खल भदन्त ! निर्ग्रन्थं प्रवचनं याबद अभ्यत्तिष्ठामि खल भदन्त! निर्ग्रन्थ प्रवचनम्, तद् यथैतद् यूयं वदथ यद् नवरं देवानुप्रिय! अम्बापितरौ आपृच्छामि । ततः खलु अहम् यावत् प्रवजितम् । यथासुखं देवानप्रिये ॥३॥ पदार्थान्बयः-तएणं सा भूया दारिया-तदनन्तर उस भूता नाम की कन्या ने, व्हायास्नान किया, जाव सरीरा-उसने अपने शरीर पर अच्छे वस्त्र एवं अलंकार धारण किए, वेडो चक्कवाल-परिकिण्णा-अपनी दासियों के समूह से घिरी हुई, साओ गिहाओ पडिनिक्खमई-- Page #402 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरयावलिका] ( ३२४) [वर्ग-चतर्थ अपने घर से बाहर निकली, पडिनिक्खमित्ता--(और) बाहर निकल कर, जेणेव बाहिरिया उवट्ठाणसाला- जहां पर बाहरी उपस्थानशाला (रथ-घोड़े आदि रखने और बांधने का स्थान) थी, तेणेव उवागच्छइ-वहीं पर आ जाती है, (और) उवागच्छित्ता-वहां आकर, धम्मियं जाणपवरं दुरूढा-अपने धर्म-कार्यों के लिये निश्चित श्रेष्ठ रथ पर बैठी। तएण सा भया दारिया-तदनन्तर वह भूता नाम वाली कन्या, नियपरिवार परिवुडा-अपनी दासियों एवं सहेलियों आदि रूप परिवार से घिरी हुई, रायगिहं नयरं-राजगृह नगर के, मज्झं मज्झेणं-बीचों-बीच के (मध्य मार्ग से), निगच्छई-निकलती है (और वह), निगच्छिता-निकल कर, जेणेव गुणसिलए चेइए-जहां गुणशील नामक चैत्य (उद्यान) था, तेणेव उवागच्छइ-वहीं पर आ पहुंचती है, उवागच्छित्ता-(और) वहां आकर, छत्तादीए तित्थकरातिसए-तीर्थङ्कर भगवान के छत्र आदि अतिशयों के, पासइ-दर्शन करती है, धम्मियाओ जाणप्पवराओ-अपने धर्म-कार्यों के लिये निश्चित श्रेष्ठ रथ से, पच्चोरुह इ-नीचे उतरती है (और), पच्चोरुहिता-नीचे उतर कर, चेडी चक्कवाल-परिकिण्णा-अपनी दासियों के समूह से घिरी हुई, जेणेव पासे अरहा परिसादाणीए-जहां पर पुरुष श्रेष्ठ अरिहन्त प्रभु पार्श्व विराजमान थे, तेणेव उवागच्छइ-वहीं पर आ जाती है, उवागच्छित्ता और वहां आकर, तिक्खुत्तो जाव पज्जवासइ और तीन बार प्रदक्षिणापूर्वक वन्दना नमस्कार करके उनकी उपासना करने लगती है। तएणं पासे अरहा परिसादाणीए-तदनन्तर पुरुष-श्रेष्ठ अरिहन्त प्रभु श्री पार्श्वनाथ जीने, भूयाए दारियाए-भूता कन्या को, तीसे महइ० धम्म कहा-उस महती धर्म सभा में ही धर्मकथा सुनाकर उसे प्रतिबोधित किया, धम्म सोच्चा णिसम्म-भूता दारिका उनके उपदेश को सुनकर एवं उसको हृदय में धारण कर, हट्ठ० वंदइ-प्रसन्न होकर उन्हें वन्दना करती है, वंदित्ता(और वन्दना करके), एवं वयासी-इस प्रकार निवेदन करने लगी, सद्दहामि णं भंते-भगवन् ! मैं आपके द्वारा प्ररूपित निर्ग्रन्थ वचनों पर श्रद्धा रखती हूं, जाव अब्भुठेमिणं भन्ते ! भगवन् ! मैं उस धर्माराधना के लिये प्रस्तुत हूं, निग्गथं पावयणं से जहे तुब्भे वदेह-जिस निर्ग्रन्थ-प्रवचन को आपने समाझया है, जं नवरं देवाणुप्पिया!-भगवन् ! मैं उसका यथावत् पालन करूंगी, अम्मा-पियरो आपुच्छामि-मैं पहले घर जाकर माता-पिता से पूछती हूं (अर्थात् आज्ञा लेती हूं, तएणं अहं जाव पव इत्तिए-तदनन्तर मैं आपकी शरण में आकर प्रवज्या ग्रहण करूंगी। (भगवान ने कहा)-अहासहं देवाणु प्पिया!-देवानुप्रिये ! जैसे तुम्हें सुख हो (वैसा करो।।३।। मूलार्थ- तदनन्तर वह भूता नाम की कन्या ने स्नान किया उसने अपने शरीर पर अच्छे वस्त्र एवं अलंकार धारण किए, वह अपनी दासियों के समूह से घिरी हुई अपने घर से बाहर निकली और बाहर निकल कर जहां पर बाहरी उपस्थानशाला (रथ-घोड़े आदि रखने और बांधने का स्थान) थी वहीं पर आ जाती है और वहां आकर Page #403 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ग-चतुर्थ] ( ३२५) [निरयावलिका ... • पने धर्मकार्यों के लिये निश्चित श्रेष्ठ रथ पर बैठी । तदनन्तर वह भूता नाम वाली कन्या अपनी दासियों एवं सहेलियों आदि रूप परिवार से घिरी हुई राजगृह नगर के बीचोंबीच के (मध्य मार्ग से) निकलती है (और वह) निकल कर गुणशील नामक चैत्य (उद्यान) था वहीं पर आ पहुंचतो है और वहां आकर तीर्थंकर भगवान के छत्र आदि अतिशयों के दर्शन करके अपने धर्मकार्यों के लिये निश्चित श्रेष्ठ रथ से नीचे उतरता है और नीचे उतर कर अपनी दासियों के समूह से घिरी हुई जहां पर पुरुषश्रेष्ठ अरिहन्त प्रभु पार्श्व विराजमान थे वहीं पर आ जातो है और वहां आकर तीन बार प्रदक्षिणा पूर्वक वन्दन नमस्कार करके उनकी उपासना करने लगी। तदनन्तर पुरुष-श्रेष्ठ अरिहन्त प्रभु श्री पार्श्वनाथ जी ने भूता कन्या को उस महती धर्म-सभा में ही धर्म - कथा सुनाकर प्रतिबोधित किया। भूता दारिका उनके उपदेश को सुनकर एवं उसको हृदय में धारण कर प्रसन्न होकर उन्हें वन्दना नमस्कार करके) इस प्रकार निवेदन करने लगी- भगवन् ! मैं आपके द्वारा प्ररूपित निर्ग्रन्थ वचनों पर श्रद्धा रखती हूं, भगवन् ! मैं उस धर्माराधना के लिये प्रस्तुत हूं जिस निर्ग्रन्थ-प्रवचन को आपने समझाया है। भगवन् ! मैं उसका यथावत् पालन करूंगी। मैं पहले घर जाकर माता-पिता से पूछती हूं (अर्थात् आज्ञा लेती हूं) तदनन्तर मैं आपकी शरण में आकर प्रवज्या ग्रहण करूंगी। (भगवान ने कहः-) देवानुप्रिये ! जैसे तुम्हें सुख हो वैसा करो ॥३॥ टोका-सर्व प्रकरण स्पष्ट है ॥३ । मूल--तएणं सा भूया दारिया तमेव धम्पियं जाणप्पवरं जाव दुरूहइ, दुरूहित्ता जेणेव रायगिहे नयरे तेणेव उवागया, रायगिहं नयरं मज्झं मज्झेण जेणेव सए गिहे तेणेव उवागया, रहाओ पच्चोरुहित्ता जेणेव अम्मापियरो तेणेव उवागया, करतल० जहा जमाली अपुच्छइ । अहासुहं देवाणुप्पिए ! तएणं से सुदंसणे गाहावई विउलं असणं ४ उवक्खडावेइ, Page #404 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरयावलिका) (३२६) विग-चतुर्थ जाव जिमियभु नुत्तरकाले सूईभूए निक्खमणमाणित्ता कोडुंबियपुरिसे सद्दावेइ, सद्दावित्ता एवं वयासी-खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया ! भूयादारियाए पुरिससहस्सवाहिणी सीयं उवट्ठवेह, उवट्ठवित्ता जाव पच्चप्पिणह । तएणं ते जाव पच्चप्पिणंति ॥४॥ छाया-ततः खलु सा भूता दारिका तदेव धार्मिक यान-प्रवरं यावद् दुरोहति, दुरुह्य यौव राजगह नगरं तत्रैवोपागता, राजगहं नगरं मध्यमध्येन यत्रव स्वं गहं तत्रैवोपागता, रथात् प्रत्यवाह्य यौव अम्बापितरौ तत्रैवोपागता, करतल. यथा जामालिः आपच्छति । यथासखं देवानप्रिये ! लतः स सुदर्शनो गाथापतिः विपुल पशनम् ४ उपस्कारयति, मित्रज्ञाति आमन्त्रयति, आमन्त्र्य यावत् ' जिमितभुक्त्युत्तरकाले शुचिभूतो निष्क्रमणमाज्ञाप्य कौटुम्बिक-पुरुषान् शब्दयति, शब्दयित्वा एवमवादीत्-क्षिप्रमेव भो देवानुप्रियाः ! भूतादारिकार्य पुरुषसहस्रवाहिनीं शिविकामुस्थापयत, उपस्थाप्य० प्रत्यर्पयत ! ततः खलु ते यावत् पत्यर्पयन्ति ।।४।। पदार्थान्वषः-तएणं सा भूया दारिया-तदनन्तर वह भूता नामक कन्या, तमेव धम्मियं जाणप्पवरं जाव दुरूहइ-अपने उसी धर्म-यात्राओं के लिये निश्चित श्रेष्ठ रथ पर चढ़ी, दुरूहित्ता(और) चढ़ कर, जेणेव रायगिहे नयरे-जहां राजगृह नगर था, तेणेव उवागया-वहीं पर आ गई, रायगिह नयरं मझ मज्झेण-राजगृह नगर के मध्य मार्ग से, जेणेव सए गिहे-जहां पर उसका अपना घर था, तेणेव उवागया-वह अपने उसी घर में आ पहुंची, रहाओ पच्चोरुहित्तारथ से उतर कर, जेणेव अम्पापियरो-जहां पर उसके माता-पिता थे तेणेव उवागया-वह वहीं पर आ गई, करतल०-वह हाथ जोड़कर, जहा जमाली पुच्छइ-जैसे जमाली ने अपने मातापिता से पूछा था वैसे ही वह अपने माता-पिता से पूछती है (आज्ञा देने को प्रार्थना करती है)। अहासहं देवाणुप्पिए-(तब उसके माता-पिता ने कहा-) देवानुप्रिये ! जैसे तुम्हारी आत्मा को सुख हो वैसा करो, तएणं से सुदंसणे गाहावई- तदनन्तर वह सुदर्शन गाथापति, विउलं असणं ४-बड़ी मात्रा में खाद्य, पेय आदि पदार्थ बनवाता है, मित्तनाई०-मित्रों एवं अपने जातीय बन्धुओं को बुलवाता है और सब को भोजन से सन्तुष्ट करता है. जाव जिमियभुक्त्युत्तरकाले - सबको भोजन कराने के बाद, सुईभए-पवित्र होकर, निक्खमणमाणित्ता-पुत्री को साध्वीजीवन अपनाने की आज्ञा देकर, कोडुबियपुरुसे-वह समस्त आज्ञाकारी अपने पारिवारिक दासों को, सद्दावेइ -बुलवाता है, सहावित्ता-और बुलवाकर, एवं वयासो-इस प्रकार कहता है, खिप्पामेव देवाणुप्पिया-देवानुप्रियो ! आप लोग शीघ्र ही, भूया दारियाए–मेरी पुत्री भूता के लिये, पुरिस-सहस्स-वाहिणीं-एक हजार पुरुषों के द्वारा उठाई जानेवाली, सोयं उक्वे ह Page #405 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ग-चलर्थ ] ( ३२७ ) [निरयावलिका एक शिविका तैयार करो, उवट्ठवित्ता जाव पच्च पिणह और तैयार करके मेरे पास ले आयो, तएणं ते जाव पच्चप्पिणंति-तदनन्तर दासों ने शिविका तैयार करके सुदर्शन गाथा-पति को लाकर अपित कर दी ।। ४॥ ___मूलार्थ-तदनन्तर वह भूता नामक कन्या अपने उसी धर्म-यात्राओं के लिये निश्चित श्रेष्ठ रथ पर चढ़ी और चढ़कर जहां राजगृह नगर था वहीं पर आ गई राजगृह नगर के मध्य मार्ग से जहां पर उसका अपना घर था, वह अपने उसो घर में आ पहुंची, रथ से उतर कर जहां पर उसके माता-पिता थे वह वहां पर आ गई वह हाथ जोड़ कर जैसे जमाली ने अपने माता-पिता से पूछा था वैसे ही वह अपने माता-पिता से पूछती है (आज्ञा देने की प्रार्थना करती है। . (तब उसके माता-पिता ने कहा-) देवानुप्रिये ! जैसे तुम्हारी आत्मा को सुख हो वैसा करो। तदनन्तर वह सुदर्शन गाथापति बड़ी मात्रा में खाद्य, पेय आदि पदार्थ बनधाता है। मित्रों एवं अपने जातीय बन्धुओं को बुलवाता है और सबको भोजन से सन्तुष्ट करता है सबको भोजन कराने के बाद पवित्र होकर पुत्री को साध्वी-जीवन अपनाने की आज्ञा देकर वह अपने समस्त आज्ञाकारी पारिवारिक दासों को बुलवाता है और बुलवाकर इस प्रकार कहता है- आप लोग शोघ्र ही मेरी पुत्री भूता के लिये एक हजार पुरुषों द्वारा उठाई जाने वाली एक शिविका तैयार करो और तैयार करके मेरे पास ले आओ, तदनन्तर दासों ने शिविका तैयार करके सुदर्शन गाथापति को लाकर अर्पित कर दी ॥४॥ टोका-सभी प्रकरण अत्यन्त स्पष्ट है ।।४।। मूल--तएणं से सुदंसंणे गाहावई भूयं दारियं व्हायं जाव विभूसियसरीरं पुरिससहस्सवाहिणि सीयं दुरुहइ, दुरूहित्ता मित्तनाइ० जाव रवेणं रायगिहं नयर मज्झं मज्झेण जेणेव गुणसिलए चेइए तेणेव उवागए, छत्ताईए तित्थयराइसए पासइ, पासित्ता सीयं ठावेइ, ठावित्ता भूयं Page #406 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरयावलिका] (३२८) [ वर्ग-चतुर्थ दारियं सीयाओ पच्चोरुहेइ । तएणं तं भूयं दारियं अम्मापियरो पुरओ काउं जेणेव पासे अरहा पुरिसादाणोए तेणेव उववाया, तिखुत्तो वदंति नमसंति, वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासो-एवं खलु देवागप्पिया। भूया दारिया अम्हं एगा ध्या इट्ठा०, एस णं देवाणुप्पिया ! संसारभउन्विग्गा भीया जाव देवाणुप्पियाणं अंतिए मुंडा जाव पव्वयइ । तं एयं णं देवाणुप्पिया ! सिस्सणिभिक्खं दलयामो, पडिच्छंतु णं देवाणुप्पिया ! सिस्सिणीभिक्खं । अहासहं देवाणुप्पिए । तएणं सा भूया दारिया पासेणं अरहया० एवं वुत्ता समाणी हट्ठतुट्ठा० उत्तरपुरस्थिमं सयमेव आभरणमल्लालंकारं ओम यइ, जहा देवाणंदा पुप्फचूलाणं अंतिए जाव गुत्तबं भयारिणी। छाया-ततः खलु सः सुदर्शनो गाथापतिः भतां दारिकां स्नातां यावद् विभूषितशरीरां पुरुषसहस्रवाहिनीं शिविकां दूरोहयति, दूरोह्य मित्रज्ञाति० यावद् रवेण राजगृहनगरं मध्यंमध्येन तत्रैव गुणशिलं चैत्यं तत्रैवोपागतः, छत्रादीन् तीर्थ करातिशयान् पश्यति, दृष्ट्वा शिविकां स्थापयित्वा भूतां दारिकां शिविकातः प्रत्यवरोहयति । ततः खलु तां भूतां दारिकामम्बापितरौ पुरतः कृत्वा यत्रैव पावो हन् पुरुषादानीयस्तत्रैवोपागतो, त्रि कृत्वो वन्देते नमस्यतः वन्दि वा नमस्यित्वा एवमवादिष्टाम् -एवं खलु देवानुप्रियाः | भूता दारिका अस्माकमेका दुहिता इष्टा० एषा खल देवानप्रिय संसारभयोद्विग्ना भीता यावद् देवानुप्रियाणामन्तिके मुण्डा यावत् प्रव्रजति, तद् एतां खल देवानुप्रियाः ! शिष्याभिक्षा दद्मः, प्रतिच्छन्तु खल देवानुप्रियाः ! शिष्याभिक्षाम् । यथासुखं देवानुप्रियाः! तत खलु सा भूता दारिका पानाहता० एवमुक्ता सती हृष्टा उत्तरपौरस्त्यां स्वयमेव आभरणमाल्यालङ्कारमवमञ्चति, यथा देवानन्दा पुष्पचलानामन्तिके यावद् गुप्तब्रह्मचारिणी ।।५।। पदार्थान्वयः-तएणं से सुबसणो गाहावई–तदनन्तर सुदर्शन गाथापति ने, भयां दारियं ण्यायं-स्नान करके आई हुई, जाव विभूसिया सरीरं-और वस्त्रालंकारों से विभूषित अपनी पुत्री भूता को, पुरिस-सहस्स-वाहिणि सीयं दुरूहइ-हजार पुरुषों द्वारा उठाई जानेवाली शिविका पर बिठलाया, दुरूहित्ता-और बिठला कर, मित्तनाइ० जाव रवेणं-तदतन्तर वह अपने मित्रों एवं जाति-बन्धुओं के साथ विविध वाद्ययन्त्रों की ध्वनियों से वातावरण को गुंजायमान करता हुआ, रायगिहं त्रयरं मझ मज्झेण-राजगृह नगर के बीचों-बीच से निकलते हुए राज-मार्ग से, जेणेव गुणसिलए चेइए-जहां पर गुणशील नामक उद्यान था, लेणेव उवागए-वहीं पर आ Page #407 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ग-चतुर्थ]. (३२६) निरयावलिका HAM पहुंचा, छत्ताइए तित्थयराइसए पासइ-(वहां पर सुदर्शन ने) तीर्थङ्कर भगवान के छत्रादि अतिशयों के दर्शन करते ही, सोयं ठावेइ -शिविका ठहरवाई, ठावित्ता-और ठहरवा कर, भूयं बारियं सोयाओ पच्चोरुहेइ-उसने अपनी पुत्री भूता को शिविका से नीचे उतारा। तएणं-नदनन्तर, तं भूपं दारियं-अपनी उस पुत्री भूता को, अम्मापियरो पुरओ काउंमाता-पिता ने अपने आगे किया और, जेणेव पासे अरहा पुरुसादाणीये-जहां पर पुरुष - श्रेष्ठ भगवान पार्श्वनाथ थे, तेणेव उवागया-वहीं पर आ गए, तिक्खुत्तो वंदति नमसति-(वहाँ पर आकर) उनकी प्रदक्षिणा करके वंदना नमस्कार करते हैं, वंदिता नमंसित्ता एवं वयासी-वन्दना नमस्कार करके सुदर्शन गाथापति ने इस प्रकार निवेदन किया, एवं खलु देवाणुप्पिया!--हे देवानुप्रिय भगवन् !, भूता दारिया अम्हं एगा धूता-यह भूता नाम की हमारी एक ही पुत्री है, इट्ठा०जो हमें अत्यन्त प्रिय है, एस णं देवाणप्पिया! हे देवानुप्रिय प्रभो! यह निश्चय ही, संसारभउविग्गा-सांसारिक भय से उद्विग्न होकर, भीया- अत्यन्त भयभीत हो गई है, जाव देवाणप्पिया णं आतिए-इसलिये यह आपके समीप, मडा जाव पवइए-मुण्डित होकर प्रवज्या ग्रहण करना चाहती है, तं एयं णं देवाणुप्पिया-इसलिये हे देवानुप्रिय प्रभो ! हम आपको यह. सिस्सिणिभिक्खं दलयामो-शिष्या रूप भिक्षा देते हैं, पडिच्छ न्तु ण देवाणुप्पिया-इसलिये आप इसे भिक्षा रूप में स्वीकार करें। (तब पार्श्व प्रभु बोले-) अहासुहं देवाणप्पिए०-हे देवानुप्रियों ! जैसे आप लोगों को आत्मा को सुख हो वैसा करें। तएणं सा भया दारिया-तदनन्तर वह भूता नाम की कन्या, पासेणं अरहया० एवं वुत्ता समाणी-अरिहन्त श्री पार्श्व प्रभु के ऐसा कहने पर, हट्ठतुहा०—अत्यन्त प्रसन्न एवं सन्तुष्ट होकर, उत्तरपुरस्थिम-उत्तर-पूर्व दिशाओं के बीच ईशान कोण में जाकर, सयमेव आभरणमल्लालंकारं-स्वयं ही (अपने हाथों से) वस्त्र-आभूषण आदि, ओमुयइ-उतार देती है, जहा देवानंदा पुष्फचूलाणं तिए-तदनन्तर देवानन्दा के समान आर्या पुष्पचूला के पास, जाव गुत्तबभयारिणी-प्रव्रज्या ग्रहण कर गुप्त ब्रह्मचारिणी बन जाती है ॥ ५॥ मूलार्थ- तदनन्तर सुदर्शन गाथापति ने स्नान करके आई हुई और वस्त्रालंकारों से विभूषित अपनी पुत्री भूता को हजार पुरुषों द्वारा उठाई जाने वाली शिविका पर बिठलाया और बिठना कर वह अपने मित्रों एवं जाति बन्धुओं के साथ विविध वाद्ययन्त्रों की ध्वनियों से वातावरण को गुंजायमान करता हुआ राजगृह वगर के बीचोंबीच से निकलते हुए राजमार्ग से जहां पर गुणशील नामक उद्यान था Page #408 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरयावलिका) (३३०) [वर्ग-चतुर्थ वहीं पर आ पहुंचा, (वहां पर सुदर्शन ने) तीर्थङ्कर भगवान के छत्रादि अतिशयों के दर्शन करते ही शिविका ठहरवाई और ठहरवा कर उसने अपनी पुत्री भूता को शिविका से नीचे उतारा । तदनन्तर अपनी उस पुत्री भूता को माता-पिता ने अपने आगे करके जहां पर पुरुष-श्रेष्ठ भगवान श्री पार्श्वनाथ जी थे वहां पर आ गए (वहां पर आकर) उनकी प्रदक्षिणा करके वन्दना नमस्कार करते हैं, वन्दना-नमस्कार करके सुदर्शन गाथापति ने इस प्रकार निवेदन किया-हे देवानुप्रिय भगवन् ! यह भूता नाम की हमारी एक ही पुत्री है, जो हमें अत्यन्त प्रिय है। हे देवानुप्रिय प्रभो! यह निश्चय ही सांसारिक भय से उद्विग्न होकर अत्यन्त भयभीत हो गई है, इसलिये यह आपके समीप मुण्डित होकर प्रव्रज्या ग्रहण करना चाहती है, इसलिये हे देवानप्रिय प्रभो ! हम आपको यह शिष्या रूप भिक्षा देते हैं; आप इसे भिक्षा रूप में स्वीकार करें । (तब पार्श्व प्रभु बोले) हे देवानु प्रियो ! जैसे आप लोगों की आत्मा को सुख हो वैसा करें। ___ तदनन्तर वह भूता नाम की कन्या अरिहन्त श्री पार्श्व प्रभु के ऐसा कहने पर अत्यन्त प्रसन्न एवं सन्तुष्ट होकर उत्तर-पूर्व दिशाओं के बीच ईशान कोण में जाकर स्वयं ही (अपने हाथों मे) वस्त्र-आभूषण आदि उतार देती है। तदनन्तर देवानन्दा के समान आर्या पुष्पचूला के पास प्रव्रज्या ग्रहण कर गुप्त ब्रह्मचारिणी बन जातो है ॥५॥ ___टीका-समस्त वर्णन अत्यन्त स्पष्ट है । यहां "गुप्त ब्रह्मचारिणी'' का अर्थ है आन्तरिक विकारों को त्याग कर मनो-गुप्ति, वचन-गुप्ति और काय-गुप्ति का पालन करते हुए-वासनाओं का सर्वथा त्याग करने वाला साधक)। शेष विषय स्पष्ट है ।। ५ । मूल-तएणं सा भूया अज्जा अण्णया कयाई सरीरबाओसिया जाया यावि होत्था, हत्थे धोवइ, पाये धोवइ एवं सीसं धोवइ, मुहं धोवइ, थणगंतराइं धोवइ, कक्खंतराइं धोवइ, गज्झंतराइं धोवइ, जत्थ जत्थ वि य णं ठाणं वा सिज्ज वा निसोहियं वा चेएइ, तत्थ तत्थ वि य मं पुत्वामेव Page #409 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ग-चतुर्थ] ( ३३१ ) [ निरयावलिका 1 पाणणं अब्भुक्खेइ । तओ पच्छा ठाणं वा सिज्जं वा निसोहियं वा चेएइ । तएणं ताओ पुप्फचूलाओ अज्जाओ भूयं अज्जं एवं वयासी अम्हे णं देवाप्पिए ! समणीओ निग्गंथोओ इरियासमियाओ जाव तारिणीओ, नो खलु कप्पइ अम्हं शरीरबाओसियाणं होत्तए, तमं च णं देवाणुप्पिए ! सरीरबाओसिया अभिक्खणं अभिक्खणं हत्थे धोवसि जाव निसोहियं चेएसि, गं तुमं देवाणुप्पिए ! एयरस ठाणस्स आलोएहि त्ति, सेसं जहा सुभद्दाए जाव पाडियक्कं उवस्सयं उवसंपज्जित्ता णं विहरइ । तरणं सा भूया अज्जा अणोहट्टिया अणिवारिया सच्छंदमई अभिक्खणं - अभिक्खणं हत्थे धोवइ जाव चेएइ ॥ ६ ॥ छाया - ततः खलु सा भूता आर्या अन्यदा कदाचित् शरीरवाकुशिका जाता चापि अभवत् । अभीक्ष्णभक्ष्णं हस्तौ धोवति, पादौ धोवति, एवं शीषं धोवति, मृखं धोवति स्तनान्तराणि कक्षान्तराणि गुह्यान्तराणि धोवति, यत्र यत्रापि च खल स्थानं वा शय्यां वा नैषेधिकों (स्वाध्यायभम) चेतयते (करोति) तत्र तत्रापि च खलु पूर्वमेव पानीयेन अभ्य्क्षति । ततः पश्चात् स्थानं वा शय्यां वा नषेधि कों वा चेतयते । ततः खलु ता पुष्पचूला आर्या भूतामार्या- मेवमवादिषुः - वयं खलु देवानुप्रिये ! श्रमण्यो निर्ग्रन्थ्य:, ईर्यासमिता यावद् गप्तब्रह्मचारिण्यः, नो खलु seed अमाकं शरीराकुशिका खलु भवितुम् त्वं च खलु देवानुप्रिये ! शरीरवाकुशिका अभीक्ष्णमभीक्ष्णं हस्तौ धोवसि यावद् नैषेषिक्कों चेतयसि, तत् खलु त्वं देवानुप्रिये ! एतस्य स्थानस्य आलोचयेति शेषं यथा सुभद्रायाः यावत् प्रत्येकमुपाश्रयमुपसंपद्य खलु विहरति । ततः खलु सा भूता आर्या अनपधट्टका अनिवारिता स्वच्छन्दमतिः अभीक्ष्णमभीक्ष्णं हस्तौ धोवति यावत् चेतयते । ततः खलु सा भूता आर्या बहूभि: चतुर्थ - षष्ठाष्टम० बहूनि वर्षाणि श्रामण्यपर्यायं पालयित्वा तस्य स्थानस्य अनालोचितप्रतिक्रान्ता कालमासे कालं कृत्वा सौधर्मे कल्पे श्री- अवतंसके विमाने उपपातसभायाँ देवशयनीये यावत् तदवगाहनया श्रीदेवी तत्रोपपन्ना पञ्चविधया पर्याप्तत्या भाषामनः पर्याप्त्या पर्याप्ता । ।। ६ ।। पदार्थान्वयः - तणं सा भूया अज्जा - तदनन्तर वह आर्या भूता, अण्णया कयाई - कुछ वर्षों के अनन्तर सरीरवाओसिया जाया - शरीर बकुशा - शारीरिक साज-सज्जा की प्रवृत्ति वाली, यावि होत्था - हो गई, हत्थे धोबइ-वह बार-बार हाथ धोने लगी, पाए धोवइ-पैर धोने · Page #410 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरयावलिका] (३३२) [वर्ग-चतुर्थ लगी, एवं सीसं धोवइ-इसी प्रकार अपना सिर धोने लगी, मुहं धोवई–मुख को धोने लगो, थणगंतराइं धोवई-अपने स्तनों के मध्य-भाग को धोने लगी, कक्खंतराइ धोवई-अपनी कांखें ध ने लगी, गुज्झतराई धोवई-गुप्तांगों के आस-पास के भागों को (बार-बार) धोने लगी-अर्थात् साधुवत्ति के विपरीत शारीरिक विभूषा में प्रवृत्त हो गई। जत्थ जत्थ वि ठाणं वा सिज्ज वा निसीहियं वा चेइए-वह जहां कहीं भी बैठने के लिये, सोने के लिये, स्वाध्याय के लिये कोई स्थान निश्चित करती, तत्थ तस्थ वि य णं पुवामेव पागएणं अभक्खेइ-उस उस स्था पर वह पहले ही पानी छिड़क लेती, तओ पच्छा-तत्पश्चात्, ठाण वा सिज्ज व निसाहियं व चेइए-उस बैठने के स्थान का, शयन करने के स्थान का, स्वध्याय-स्थान का प्रयोग करती थी। तएणं-तत्पश्चात् (अर्थात् उसके ऐसे आचरण को देखते हुए), पुप्फचूलाओ अज्जाओ. ( उसकी गुरुणी ) पुष्पचूला आर्या ने, भूयं अज्जं एवं वयासी-भूता आर्या को (प्रतिबोधित करते हुए) इस प्रकार कहा, अम्हे गं देवाणुप्पिए-हे देवानुप्रिये ! हम निश्चित ही, समणीओ-श्रमणी (साध्वी हैं), निग्गन्थीओ-निर्ग्रन्थी हैं, इरियासमियाओ-ईर्या समिति आदि पांचों समितियों का पालन करनेवाली हैं, जाव गुत्तबंभयारिणीओ-हम आन्तरिक विकारों को नियन्त्रित कर ब्रह्मचर्य व्रत धारण करनेवाली हैं, नो खलु कप्पइ अम्हं-इसलिये यह हमारे लिये सर्वथा त्याज्य है (कि हम), सरोरवाओसियाणं होत्तए-शारीरिक विभूषा-प्रिय बनें, तुमं च णं देवाणु प्पिए-हे देवानुप्रिये ! तुम तो, सरीरवाओसिया-शरीर-बकुशा (शारीरिक-विभूषा-प्रिय), (बनती जा रही हो), अभिक्खणं-अभिक्खणं-क्योंकि तुम बार-बार, हत्थे धोवसि जाव निसोहियं चेयसि-अपने हाथों पैरों और सिर आदि अगों को धोती रहती हो, सोने बैठने एवं स्वाध्याय करने के स्थान पर पानी छिड़कती हो, तंणं तमं देवाणप्पिए-इस प्रकार हे देवानुप्रिये, एयस्स ठाणस्स आलोएहि त्ति-आलोचना करो, किन्तु उसने अपनी गुरुणी पुष्पचूला की बात अनसुनी कर उसकी उपेक्षा कर दी, सेसं जहा सुभद्दाए जाव पाडियक्कं उवस्सयं उवसंपज्जित्ता णं बिहरइ(अपितु वह सुभद्रा आर्या के समान पृथक् उपाश्रय में अकेली ही चली गई और स्वतन्त्रता-पूर्वक साध्वाचार के विरुद्ध आचरण करती हुई विचरने लगी। तएणं सा भूया अज्जा-तदनन्तर वह आर्या भूता, अणोहट्टिया अणिवारिया-उसी पापा. चरण पर स्थिर रह कर बेरोक टोक, स्वच्छदमयी-सर्वथा स्वच्छन्द होकर, अभिक्खणं-अभिक्खणं -बारम्बार, हत्थे धोवइ जाव चेएइ-हाथ पैर आदि अंगों को धोती रही और बैठने आदि के स्थान पर जल छिड़कती रही ।।६।। मूलार्थ-तदनंनर वह आर्या भूता कुछ वर्षों के अनंतर शरीर-बकुशा-शारीरिक साज-सज्जा की प्रवृत्ति वाली हो गई, वह बार-बार हाथ धोने लगो, पैर धोने लगी, इसी प्रकार अपना सिर धोने लगी, मुख को धोने लगी, अपने स्तनों के मध्य भाग Page #411 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ग - चतुर्थ ] ( ३३३ ) [ निरयावलिका को धोने लगी, अपनी कांखें धोने लगी, गुप्तांगों के आसपास के भागों को ( बारबार) धोने लगी - अर्थात् साधु- वृत्ति के विपरीत शारीरिक विभूषा में प्रवृत्त हो गई । वह जहां कहीं भी बैठने के लिये, सोने के लिये, स्वाध्याय के लिये कोई स्थान निश्चित करती उस स्थान पर वह पहले ही पानी छिड़क लेती, तब उस बैठने के स्थान का, शयन करने के स्थान का स्वाध्याय-स्थान का प्रयोग करती थी । तत्पश्चात् (अर्थात् उसके ऐसे आचरण को देखते हुए ) ( उसकी गुरुणी) पुष्पचूला आर्या ने भूता आर्या को ( प्रतिबोधित करते हुए) इस प्रकार कहा - हे देवानु प्रिये ! हम निश्चित ही श्रमणी हैं ( साध्वी है ) निर्ग्रन्थी हैं; इर्या-समिति आदि पांचों समितियों का पालन करने वाली हैं, हम आन्तरिक विकारों को नियन्त्रित कर ब्रह्मचर्य व्रत धारण करने वाली हैं, इसलिये यह हमारे लिये सर्वथा त्याज्य है ( कि हम ) शारीरिक विभूषा प्रिय बनें । हे देवानुप्रिये ! तुम शरीर बकुशा ( शारीरिक- विभूषा- प्रिय) ( बनती जा रही हो ), क्योंकि तुम बार-बार अपने हाथों, पैरों और सिर आदि अंगों को धोती रहती हो, सोने बैठने एवं स्वाध्याय करने के स्थान पर पानी छिड़कती हो, इस प्रकार हे देवानुप्रिये, तुम इस पाप स्थान की ( इस पापयुक्त आचरण की ) आलोचना करो, किन्तु उसने अपनी गुरुणी पुष्पचूला की बात अनसुनी कर उसकी उपेक्षा कर दी ], [ वह पुमा आर्या के समान पृथक् उपाश्रय में अकेली ही चली गई और स्वतन्त्रता पूर्वक साध्वाचार के विरुद्ध आचरण करती हुई विचरने लगी । तदनन्तर वह आर्या भूता उसी पापाचरण पर स्थिर रह कर बेरोक टोक सर्वथा स्वच्छन्द होकर बारम्बार हाथ पैर आदि अंगों को धोती रही और बैठने आदि के स्थान पर जल छिड़कती रही ॥६॥ टीका - प्रस्तुत प्रकरण में भूता श्रार्या के माध्यम से साध्वाचार विरोधी क्रियाओं पर अच्छा प्रकाश डाला गया है || ६ || Page #412 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरयावलिका) (३३४) विग-चतुर्थ मूल--तएणं सा भूया अज्जा बहूहिं चउत्थछट्ठ० बहूई वासाइं सामण्णपरियागं पाउणित्ता तस्स ठासस्स अणालोइयपडिक्कंता कालमासे कालं किच्चा सोहम्मे कप्पे सिरिडिसए विमाणे उववायसभाए देवसयणिज्जंसि जावतोगाहणाए सिरीदेवित्ताए उववण्णा पंचविहाए पज्जत्तीए भासामणपज्जत्तीए पज्जत्ता। एवं खलु गोयमा। सिरोए देवीए एसा दिव्वा देविड्ढी लद्धा पत्ता। ठिई एगं पलिओवमं । सिरी णं भंते ! देवी जाव कहिं गच्छिहिइ ? महाविदेहे वासे सिज्झिहिइ । एवं खलु जंबू ! निक्खेवओ। एवं सेसाणं वि नवण्हं भाणियव्वं, सरिसनामा विमाणा, सोहम्मे कप्पे, पुन्वभवे नयर चेइयपियमाईणं अप्पणो य नामादी जहा संगहणी, सव्वा पासस्स अंतिए निक्खंता। ताओ पृष्फ लाणं सिस्सिणियाओ सरीरवाओसियाओ सव्वाओ अणंतरं चई चइत्ता महाविदेहे वासे सिज्झिहिइ ॥७॥ .. ॥ पुप्फचलिया णामं चउत्थवग्गो सम्मत्तो॥४॥ छाया-एवं खलु गौतम ! श्रिया देव्या एषा दिव्या देवऋद्धिलब्धा प्राप्ता, स्थितिरेक पल्योपमम् । श्रीः खलु भदन्त | देवी यावत् क्व गमिष्यति ? महाविदेहे वर्षे सेत्स्यति । एवं खलु जम्बू! निक्षेपकः । एवं शेषाणामपि नवानां भणितव्यं सदशनामानि विमानानि, सौधर्मे कल्पे, पूर्वभवे नगरचैत्यपित्रादीनाम् आत्मनश्च नामादिकयथा संगहण्याम्, सर्वाः पार्श्वस्यान्तिके निष्क्रान्ताः। ताः पुष्पचूलानां शिष्याः शरीरवाकृशिकाः सर्वा अमन्तरं चयं च्युत्वा महाविदेहे वर्षे सेन्स्यन्ति ।।७।। पदार्थान्बयः-तएणं सा भूया अज्जा-तदनन्तर वह भूता आर्या, बहूहि चउत्थ छट्ठ०अनेकविध चतुर्थ, षष्ठ अष्टभ द्वादश आदि व्रतोपवासों का आचरण करती हुई, बहूहि वासाई - अनेक वर्षों तक, सामण्ण परियागं पाउणित्ता-श्रामण्य पर्याय का पालन करती रही (किन्तु), तस्सठाणस्स अणालोइय पडिक्कता-उन पाप-स्थानों की आलोचना एवं प्रतिक्रमण किये बिना ही, काल- . मासे कालं किच्चा-मृत्यु समय आने पर प्राण त्याग कर, सोहम्मे कप्पे-सौधर्म कल्प नामक देवलोक में, सिरिडिसए विमाणे-श्री अवतंसक विमान में, उववाय समाए देव समयणिज्जंसि-उपपात Page #413 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ग - चतुर्थ | ( ३३५ ) सभा में देव शयनीय शय्या पर देव - अवगाहना के अनुरूप, श्री देवी के रूप में, उववण्णा - उत्पन्न हुई, (और) पंचविहाए पज्जतीए भासामण पज्जत्तीए पज्जत्ता - वह भाषा-मन आदि पांचों पर्याप्तियों से युक्त हो गई। एवं खलु गोयमा ! - इस प्रकार हे गौतम! देविड्डी लद्धा पत्ता - वह दिव्य देव-समृद्धि प्राप्त की, स्थिति एक पल्योपम की है। [निरयावलिका सिरीए देवीए - श्री देवी ने एसा दिव्वा ठिई एगं पलिओवमं – देवलोक में उसकी सिरीणं भन्ते ! देवी जाव कहि गच्छिहिइ - ( गौतम स्वामी पूछते हैं -) भगवन् ! वह श्री देवी देवा पूर्ण करके कहां जाकर उत्पन्न होगी ?, महाविदेहेवासे सिज्झिहिइ – वह महाविदेह क्षेत्र में उत्पन्न होकर सभी जन्म-मरणादि के दुःखों का अन्त करेगी । एवं खलु जम्बू ! - सुधर्मा स्वामी कहते हैं, निक्खेवओ-श्रमण भगवान महावीर ने पुष्पचूलिका के प्रथम अध्ययन के पूर्वोक्त भाव प्रकट किये थे, एवं सेसाणं वि नवहं भाणियव्वं - इसी प्रकार ह्री देवी आदि नवों आर्याओं के जीवनवृत्तादि को जान लेना चाहिये। इन नवों देवियों के सौधर्म कल्प में देव-विमानों के नाम इनके नाम के समान समझ लेने चाहिए, पुण्त्रभवे नयरं चेइय पिय माईणं अपणो य नामादि जहा संगहणीए – इन सबके पूर्व भव में नगर, उद्यान, माता-पिता आदि के नाम संग्रहणी गाथा के समान जान लेने चाहिये, सव्वा पासस्स अंतिए निक्खता - ये सभी गृहत्याग कर पार्श्व प्रभु के सान्निध्य में आर्या पुष्पचूला को शिष्यायें बनीं सरीरवाओ सियाओ - सभी शरीर - विभूषा प्रिय बनीं, सव्वाओ अनंतरं चयं चइता - और सभी महाविदेवासे - महाविदेह क्षेत्र में, सिज्झिहिइइ - सब दुःखों का अन्त कर देवलोक से च्यव कर, सिद्ध होंगी ||७|| || पुष्पचलिका नाम का चतुर्थ वर्ग समाप्त ॥ मूलार्थं — तदनन्तर वह भूता आर्या अनेक विध चतुर्थ, षष्ठ अष्टम द्वादश आदि व्रतोपवासों का आचरण करती हुई अनेक वर्षों तक श्रामण्य पर्याय का पालन करती रही ( किन्तु ) उन पाप-स्थानों की आलोचना एवं प्रतिक्रमण किये बिना ही मृत्यु समय आने पर मर कर सौधर्म कल्प नामक देवलोक के श्री अवतंसक विमान की उपपात सभा में देव शयनीय शय्या पर देव - अवगाहना के अनुरूप, श्री देवी के रूप में, उत्पन्न हुई (और) वह भाषा - मन आदि पांचों पर्याप्तियों से युक्त हो गई । इस प्रकार हे गौतम! श्री देवी ने वह दिव्य देव-समृद्धि प्राप्त की । देवलोक में . उसकी स्थिति एक पल्योपम की है । Page #414 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरयावलिका] (३३६ ) [वर्ग-चतथं. (गौतम स्वामी पूछते हैं-) भगवन् ! वह श्री देवी देवायु पूर्ण करके कहां जाकर उत्पन्न होगी ?, (श्री पार्श्व प्रभु ने बतलाया कि) वह महाविदेह क्षेत्र में उत्पन्न होकर सभी जन्म-मरणादि के दु:खों का अन्त करेगो। सुधर्मा स्वामी कहते हैं, श्रमण भगवान महावीर ने पुष्पचूलिका के प्रथम अध्ययन के पूर्वोक्त भाव प्रकट किये थे। इसी प्रकार ह्री देवी आदि नवों आर्याओं के जीवन वृत्तादि को जान लेना चाहिये। इन नवों देवियों के सौधर्म कल्प में देव विमानों के नाम इनके नामों के समान समझ लेने चाहिए । इन सब के पूर्व भव में नगर उद्यान, माता-पिता आदि के नाम संग्रहणी गाथा के समान जान लेने चाहिये । ये सभी गृहत्याग कर पार्श्व प्रभु के सान्निध्य में आर्या पुष्पचूला की शिष्यायें बनीं, सभी शरीर-विभूषा-प्रिय बनीं और सभी देवलोक से च्यव कर महाविदेह क्षेत्र में सब दुःखों का अन्त कर सिद्ध होंगी ।।७।। ॥ पुष्पचूलिका नामक चतुर्थ वर्ग समाप्त.॥ Page #415 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Vido ARTANAMA CALSO SA Meaning AMESO वृष्णिदशा : पंचम वर्ग Page #416 --------------------------------------------------------------------------  Page #417 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वृष्णिदशा : पंचम वर्ग मूल--जइणं भंते ! उक्खेवओ० उवंगाणं च उत्थस्स फुप्फचूलाणं अयमठे पण्णत्ते, पंचमस्स णं भंते ! वग्गस्स उवंगाणं वलिदसाणं भगवया जाव संपत्तेणं के अट्ठे पण्णत्ते ? एवं खलु जंबू । समणेणं भगवया महावीरेणं जाव दुवालस अज्झयणा पण्णत्ता, तं जहा"निसढे, मायनि, वह, वहे, पगता, जत्ती, दसरहे, दढरहे । य, महाधणू, सत्तधण, दसधण, नामे सबधण, य॥१॥ - छाया–यदि खल भवन्त ! उत्क्षेपकः, उपाङ्गानां चतुर्थस्य पुष्पचूलानामयमा प्रज्ञप्तः, पञ्चमस्य खलु भदन्त ! वर्गस्य उपाङ्गानां वृष्णिदशानां श्रमणेन भगवता यावत्संप्राप्तेन कोऽर्थः प्रज्ञप्तः ? एवं खलु जम्बू ! श्रमणेन भगवता महावीरेण यावद् द्वादशाध्ययनानि प्रज्ञप्तानि, तद् यथा १, निषधः, २. मायनी, ३. वह, ४. वहे, ५. पगता, ६. ज्योतिः, ७. दशरथः, ८. दृढरथरच, ६..महाधन्वा, १०. सप्तधन्वा, ११. दशधन्वा नाम १२. शतधन्वा च ॥ १॥ पदार्थान्वयः-(श्री जम्बू स्वामी जी पूछते हैं)-जह गं भन्ते!-भगवन् ! यदि, उक्लेवमो०भगवान महावीर ने, उवंगाणं चउत्थस्स पप्फचला-चतुर्थ उपांग पूष्पचला का, अयमटठे पणते यह अर्थ प्रतिपादित किया है, पंचमस्स गंभंते वग्गस्स-तो भगवन ! इस पांचवें वर्ग, उवंगाणं वहिसाणं-वदिशा नामक उपांग का, भगवया जाव संपत्तेणं-मोक्ष को प्राप्त श्रमण भगवान महावीर ने, के अटठेपण्णते-क्या अर्थ प्रतिपादित किया है। एवं खल जम्बू ! वत्स जम्बू !, समणेणं भगवया महावीरेणं-श्रमण भगवान महावीत्र ने, जाव दुवालस अज्जयणा पण्णता-इस पांचवें वृष्णिदशा नामक उपांग के बारह अध्ययन कहे हैं, तं जहा-जैसे कि वर्ग-पचम) (३३६) [निरयावलिका Page #418 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरयावलिका] (३४०) [वर्ग- पंचम निसढे, मायनी, वह, वहे, पमता, जुत्ती, दसरहे, दढरहे य । महाधणू, सत्तधणू, दसधणू, नामे सयधणु, य। १. निषध, २. मायनी, ३. वह, ४. वहा, ५. पमता, ६. ज्योति, ७. दशरथ, ८. दृढ रथ, ६. महाधन्वा, १०. सप्तधन्वा, ११. दशधन्वा और १२. शतधन्वा ये बारह नाम हैं। १ ।। मूलार्थ-भगवन् ! यदि भगवान महावीर ने चतुर्थ उपांग पुष्पचूला का यह अर्थ प्रतिपादित किया है, तो भगवन् ! इस पांचवें वर्ग वन्हिदशा नामक उपांग का मोक्ष को प्राप्त श्रमण भगवान महावीर ने क्या अर्थ अतिपादित किया है ? वत्स जम्बू ! श्रमण भगवान महावीर ने इस पांचवें वृष्णिदशा नामक उपांग के बारह अध्ययन कहे हैं जैसे कि - १. निषध, २. मायनी, ३, वह, ४. वहा, ५. पमता, ६. ज्योति, ७ दशरथ, ८. दृढ़रथ, ६. महाधन्वा; १०. सप्त धन्वा, ११. दशधन्वा और १२. शत धन्वा ये बारह नाम हैं ।।१॥ टोका-इस पांचवें वर्ग में बारह साधकों का विस्तृत वर्णन प्राप्त होता है। उक्त सूत्र के भाव __- सर्वथा स्पष्ट हैं। मूल-जइणं भंते ! समणेणं जाव दुवालस्स अज्झयणा पण्णत्ता, पढमस्स णं भंते ! उवक्खेवओ । एवं खलु जंबू ! तेणं कालेणं तेणं समएणं बारवई नाम नयरी होत्था, दुवालसजोयणायामा जाव पच्चक्खं देवलोयभूया पासादीया दरिसणिज्जा अभिरूवा पडिरूवा । तीसे णं बारवईए नयरीए बहिया उत्तरपुरस्थिमे दिसीमाए, एत्थ णं रेवए नाम पवए होत्था, तुंगे गगणतलमणुविहंतसिहरे नाणाविहरुक्खगच्छगुल्मलतावल्ली. परिगताभिरामे हंस-मिय-मयूर-कौंच-सारस-चक्कवाग-मयणसालाकोइल-कुलोववेए अणेग-तडकडगवियरओज्झरपवायपुब्भारसिहर पउरे । अच्छरगणदेवसंगचारणविज्जाहरमिहुणसंनिविन्ने निच्चच्छणए दसा. Page #419 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ग-पंचम / ملا ) निरयावलिका रवरवीरपुरिसतेलोक्कबलयगाणं सोमे सभए पियदंसणे सुरूवे पासाईए जाव पडिरूवे । तत्थ णं रेवयगस्स पव्वयस्स अदूरसामंते एत्थ णं नंदणवणे नामं उज्जाणे होत्था, सव्वोउयपुष्फ जाव दरिसणिज्जे । तत्थणं नंदणवणे उज्जाणे सुरप्पियस्स जक्खस्स जक्खाययणे होत्था चिराइए जाव बहुजणो आगम्म अच्चेइ सुरप्पियं जक्खाययणं । से णं सुरप्पिए जक्खाययणे एगेणं महया वणसंडेणं सुव्वओ समंत्ता संपरिक्खित्ते जहा पुण्णभद्दे जाव सिलावट्टए ॥२॥ छाया--यदि खलु भवन्त ! श्रमणेन यावद् द्वादशाध्ययनानि प्रज्ञप्तानि, प्रथमस्य खल भदन्त ! श्रमणेन यावद् द्वादशाध्ययनानि प्रज्ञप्तानि, प्रथमस्य खलु भदन्त ! उत्क्षेपकः। एवं खलु जम्बू । तस्मिन् काले तस्मिन् समये द्वारावती नाम्नो नगरी अभवत्, द्वादशयोजनायामा। यावत् प्रत्यक्ष देवलोकभूता प्रासादीया दर्शनीया अभिरूपा प्रतिरूपा। तस्याः खलु द्वारावत्याः नगर्या. बहिरुत्तरपौरस्त्ये दिग्भागे अन खलु रैवतो नाम पर्वतोऽभवत्, तुङ्गो गगनतलमनुलिहच्छिखरः नानाविधवृक्षगुच्छगुल्मलतावल्लीपरिगताभिरामः हंसमृगमयूरक्रौञ्चसारसचक्रवाकमदनशालाकोकिलकुलोपपेतः, अनेकतटकटविवरावभरप्रपातप्राग्भारशिखरप्रचुर: अप्सरोगणदेवसंघ-चारण - विद्याधरमिथनसन्निकीर्णः, नित्यक्षणकः, दशाहवरवोरपुरुषत्रैलोक्यबलवतां सोमा सभगः प्रियदर्शनः सुरूप. प्रासादीयो यावत प्रतिरूपः। तस्य खलु रैवतकस्य पर्वतस्य अदूरसामन्ते, अन खलु नन्दनवनं नाम उद्यानम् आसीत् सर्वऋतु पुष्प० यावद् दर्शनीयम् । तत खलु नन्दनवने उद्याने सुरप्रियस्य यक्षस्य यक्षायतनमासीत्, चिरातीतं, यावद् बहुजन आगम्य अर्चयन्ति सुरप्रियं यक्षायतनम् । ततः खलु सुरप्रियं यक्षायतनम् एकेन महता वनखण्डेन सर्वतः समन्तात् संपरिक्षिप्तम् यथा पूर्णभद्रो यावत् शिलापट्टकः ।।२॥ पदार्थान्वयः-जइणं भन्ते ! समणेणं जाव दुवालस अज्झयणा पण्णत्ता-भगवन ! यदि श्रमण भगवान महावीर ने वृष्णिदशा नाम के पांचवें उपांग के बारह अध्ययन बतलाये हैं तो, पढमस्स णं भन्ते ! उक्खेवओ-बारह अध्ययनों में से प्रथम अध्ययन में किस विषय का प्रतिपादन किया है ? (उत्तर में श्री सुधर्मा स्वामी जी कहते हैं) एवं खलु जम्ब!-हे जम्बू !, तेणं कालेणं तेणं समएणं-उस काल एवं उस समय में, बारवई नामं नयरी होत्था-द्वारका नाम की एक नगरी थी, दुवालस जोयणायामा–जो बारह योजन लम्बी थी, (और जो), जाव पच्चक्खं देवलोय भूया-जो प्रत्यक्ष ही देवलोक के समान, पासादीया-मन को प्रसन्न करनेवालो. दरिसणिज्जा–देखने योग्य, अभिरुवा-सुन्दर छटा वाली, पडिरूवा-अद्वितीय शिल्पकला से सुशोभित Page #420 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरयावलिका ] [ वर्ग - पंचम थी, तीसे णं वारवईए नयरी बहिया - उस द्वारिका नगरी के बाहर, उत्तरपुरस्थिमे दिसी भाएउत्तर पूर्व के कोण - ईशान कोण में, तत्थ णं रेवए नाम पव्वए होत्था - एक रैवतक नाम का पर्वत था, तुरंगे गगण-तल मणुविहंत सिहरे-जो कि बहुत ऊंचा था और उसके शिखर गगन चुम्बी थे, वि-रुक्ख गुच्छ गुल्मलता वल्ली - परिगताभिरामे - और नानाविध वृक्षों गुच्छों गुल्मों और लताओं एवं बेलों से घिर कर वह नगर बहुत ही सुन्दर प्रतीत हो रहा था, हंस-मिय-मयूर-क्रौंचसारस-चक्कबाग-मयणसाला - को इल- कुलोव वेए - तथा हंस मृग मयूर, क्रौञ्च (कुरर), सारस, चक्रवाक (चकवा), मदनशाला (मैना) और कोयल आदि, पक्षियों के समूह से सुशोभित था, अणेग-तटकडग- वियर ओज्झर पवाय पूभार सिहरपउरे - और उस पर्वत पर अनेक नदी नालों के सुन्दर तट कटक (वृक्षाच्छादित गोल भाग), झरने और जल प्रपात गुफायें और कुछ झुके हुए पर्वतशिखर आदि बहुत बड़ी संख्या में थे, अच्छरगण देव संग चारण-विज्जाहर मिहुण-संनिविन्नेउसी पर्वत पर अप्सरायें देवसमूह चारण जंघाचारण आदि विशिष्ट साधु और विद्याधरों के युगल आकर क्रीडायें कर रहे थे, निच्चच्छणए - और वहां नित्य नानाविध महोत्सव होते रहते थे, बसार वरवीर पुरिस- तेलोक्क बलवगाणं - दशार्हकुल के श्रेष्ठ वीरों एवं वलवानों का वह पर्वत, श्री भगवान नेमिनाथ जी की तपस्थली होने के कारण सब के लिए शुभकारी एवं शान्त स्थल था, पियदंसणे सुरूवे – वह नेत्रों के लिये आल्हादकारी, सुन्दर आकार-प्रकार वाला, पासईए जाव पडिरूवे – प्रसन्नता पूर्ण और दर्शकों के मन को आकृष्ट करनेवाला था । ( ३४२ ) तत्थ णं रेवयणस्स पव्वयस्स उस रैवतक पर्वत के, अदूरसामंते - बहुत निकट ही, तत्थ णं नन्दनवणे नाम - एक नन्दन वन नामक उज्जाणे होत्था – उद्यान था, (जिसमें ), सव्वोउपक- सभी ऋतुओं के पुष्प होने से, जाव दरसणिज्जे- वह अत्यन्त दर्शनीय था, तत्थ णं नंदणवणे उज्जाणे – उस नन्दनवन नामक उद्यान में, सुरप्पियस्स जक्खस्स नक्खाययणे होत्याएक सुरप्रिय नामक यक्ष का यक्षायतन था, चिराइए जाव- जो कि बहुत प्राचीन था, बहुजणी आगम्म अच्चेइ - वहां आकर अनेक लोग उसकी पूजा अर्चना किया करते थे, से णं सुरपिए जक्खाणे - वह सुरप्रिय यक्षायतन, एगे महया - एक बहुत बड़े, वनसंडे - वनखण्ड द्वारा समंत्ता संपरिक्खित्ते- चारों ओर घिरा हुआ था, जहा पुण्णभद्दे जाये सिलावट्टए - जैसे शिला-पट्ट से युक्त पूर्णभद्र उद्यान घिरा हुआ था || २ || मूलार्थ - भगवन् ! यदि श्रमण भगवान महावीर ने वृष्णिदशा नाम के पांचवें उपांग के बारह अध्ययन बतलाये हैं, तो उन बारह अध्ययनों में से प्रथम अध्ययन में किस विषय का वर्णन किया है ? उतर में श्री सुधर्मा स्वामी जी कहते हैं - हे जम्बू ! उस काल एवं उस समय में द्वारका नाम की एक नगरी थी, जो बारह योजन लम्बी थी, ( और जो ) प्रत्यक्ष Page #421 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ग-पंचम] (३४३) [निरयावलिका ही देवलोक के समान मन को प्रसन्न करने वाली देखने के योग्य सुन्दर छटा वाली अद्वितीय शिल्प-कला से सुशोभित थी। उस द्वारिका नगरी के बाहर उत्तर पूर्व के कोण-ईशान-कोण में एक रैवतक नाम का पर्वत था जो कि बहुत ऊंचा था और जिसके शिखर गगन-चुम्बी थे, वह नानाविध वृक्षों गुच्छों गुल्मों और लताओं एवं बेलों से घिर कर बहुत ही सुन्दर प्रतीत हो रहा था। तथा वह मृग; मयूर, क्रौञ्च (कुरर), सारस; चक्रवाक (चकवा), मदनशाला (मैना) और कोयल आदि पक्षियों के समूहों से सुशोभित था और उस पर्वत पर अनेक नदी - नालों के सुन्दर तट कटक (वृक्षाच्छादित गोल भाग) झरने, जल-प्रपात, गुफायें और कुछ झुके हुए पर्वत-शिखर आदि बहुत बड़ी संख्या में थे। उसी पर्वत पर अप्सरायें देव-समूह चारण जंघाचरण आदि विशिष्ट साधु और विद्याधरों के युगल आकर क्रीड़ायें किया करते थे और वहां नित्य नानाविध महोत्सव होते रहते थे। दशाह कुल के श्रेष्ठ वीरों एव बलवानों का वह पर्वत भगवान नेमिनाथ जी की तप-स्थली होने के कारण सबके लिये शुभकारी एवं शान्त स्थान था। वह नेत्रों के लिये आल्हादकारी, सुन्दर आकार-प्रकार वाला, प्रसन्नता पूर्ण और दर्शकों के मन को आकृष्ट करने वाला था। . उस रैवतक पर्वत के बहुत निकट हो एक नन्दन वन नामक उद्यान था, (जिस में) सभी ऋतुओं के पुष्प होने से वह अत्यन्त दर्शनीय प्रतीत होता था, उस नन्दन वन नामक उद्यान में एक सुरप्रिय नामक यक्ष का यक्षायतन था, जो कि बहुत प्राचीन था, वहां आकर अनेक लोग उसकी पूजा-अर्चना किया करते थे। सुरप्रिय यक्षायतन एक बहुत बड़े वन-खण्ड द्वार चारों ओर से घिरा हुआ था, जैसे शिला-पट्ट से युक्त पूर्णभद्र उद्यान घिरा हुआ था ॥२॥ टीका-कुछ विशिष्ट नामों के प्रसिद्ध नाम कोष्ठकों में दे दिये गए हैं ॥२॥ मूल--तत्य णं बारवईए नयरोए कण्हे नामं वासुदेवे राया होत्था जाव पसासेमाणे विहरइ। से गं तत्थ समुद्दविजयपामोक्खाणं दसण्हं दसाराणं, बलदेवपामोक्खाणं पंचण्हं महावीराणं, उग्गसेणपामोक्खाणं Page #422 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरयावलिका) (३४४) (वर्ग-पंचम सोलसण्हं रायसहस्साणं पज्जुण्णपामोक्खाणं अछुट्ठाणं कुमारकोडीणं सांबपामोक्खाणं सट्ठीए दुईद साहस्सोणं वीरसेणपामोक्खाणं एक्कवीसीए वीरसाहस्सीणं, महासेणपामोक्खाणं छप्पन्नाए बलवगसाहस्सोणं रुप्पिणियामोक्खाणं सोलसण्हं देवीसाहस्सोणं अणंगसेणापामोक्खाणं गणियासाहस्सोणं, अण्णेसि च बहूणं राईसर जाव सत्यवाहप्पभिईणं वेयड्ढगिरिसागर में रागस्स दाहिणड्ढभरहस्स आहेवच्चं जाव विहरइ ॥३॥ ___छाया-तत्र खलु द्वारावत्यां नगर्यां कृष्णो नाम वासुदेवो राजाऽभवत्, यावत् प्रशासन विहरति । स. खलु तत्र समुद्रविजयप्रमुखानां दशानां दशार्हाणां, बलदेवप्रमुखानां पञ्चानां महावीराणाम्, उग्रसेनप्रमुखानां षोडशानां राजसहस्राणां, प्रद्युम्नप्रमुखानाम् अध्युष्टानां (सार्द्धतृतीयानां) कुमारकोटोनर, शाम्बप्रमुखानां पण्णांः दुर्दान्तसहस्रानां, वीरसेनप्रमुखानामेकविंशत्याः वीरसहस्राणां, महासेनप्रमुखामां षट्पञ्चाशतो बलवत्सहस्राणां, रुक्मिणीप्रमुखानां षोडशानां देवीसाहस्रीणाम्, अनङ्गसेनाप्रमुखानामनेका गणिका सहस्रीणाम्, अन्येषां च बहूनां राजेश्वर० यावत् सार्थवाहप्रभृतोनां वैतादयगिरिसागरमर्यादस्स दक्षिणार्द्धभरतस्याधिपत्यं यावत् विहरति ।।३।। पदार्थान्वयः-तत्थ पंवारवईएनयरीए-उस द्वारका नगरी में. कण्हेनामं वासदेवे राया होत्था-वासुदेव श्री कृष्ण राजा थे, जाव पसासेमाणे विहरइ-जो कि शासन करते हुए वहां विचरते रहते थे, से णं तत्थ-वे वासुदेव श्री कृष्ण वहां पर, समुद्द-विजय-पामोक्खाणं दसण्हं दसाराणं-समुद्र विजय प्रमुख दस दशाहों के, बलदेव-पामोक्खाणं पंचण्हं महावीराणं-बल देव आदि पांच महान् वीरों के, उग्गसेणपामोक्खाणं सोलसण्हं रायसहस्साणं- उग्रसेन प्रमुख सोलह हजार राजाओं के, पज्जुण्णपामोक्खाणं अद्घटाणं कुमारकोडोणं-प्रद्य म्न प्रमुख साढे तीन करोड़ कुमारों के, सांबपामोक्खाणं सट्ठीए दुईदसाहस्सीणं-साम्ब प्रमुख साठ हजार दुर्दान्त शूरवीरों के, वीरसेणपामोक्खाणं, एक्कवीसीए वीरसाहस्सीणं-वीरसेन प्रमुख इक्कीस हजार वोरों के, महासेणपामोक्खाणं छप्पन्नाए बलवगसाहस्तीणं-महासेन प्रमुख छप्पन हजार बलशालियों के, रुप्पिणीपामोक्खाणं सोलसण्ह देवीसाहस्सीणं-रुक्मणी-प्रमुख सोलह हजार देवियों के (तथा), अणंगसेनापामोक्खाणं अणेगाणं गणियासाहस्सीणं-अनंगसेना प्रमुख अनेक हजार गणिकाओं के, अण्णेसि च बहूर्ण राईसर जाव सत्थवाहप्पभिईणं-(और) अनेक राजेश्वरों तलवरों माडम्बिकों सेनापतियों एवं सार्थवाहों आदि के (तथा), वेयडगिरि सागर मेरागस्स बाहिणड्डभरहस्स आहेवच्चं-वैताढ्य- . पर्वत एवं सागर से मर्यादित दक्षिणी अर्ध भरत के ऊपर आधिपत्य करते हुए, जाव विहरइ-वे विचर रहे थे ।।३।। Page #423 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ग - पंचम | मूलार्थ उस द्वारका नगरी के राजा थे, वासुदेव श्री कृष्ण जो कि शासन करते हुए वहां विचरते रहते थे । वे वासुदेव श्री कृष्ण वहां पर समुद्र विजय प्रमुख दस दशार्हो के, बलदेव प्रमुख पांच महान् बीरों के, उग्रसेन प्रमुख सोलह हजार राजाओं के, प्रद्यम्न आदि साढ़े तीन करोड़ कुमारों के साम्ब प्रमुख साठ हजार दुर्दान्त शूरवीरों के, वीरसेन प्रमुख इक्कीस हजार वीरों के, महासेन प्रमुख छप्पन हजार बलशालियों के; रुक्मणी प्रमुख सोलह हजार देवियों के (तथा) अनंग सेना प्रमुख अनेक हजार गणिकाओं के, (और) अनेक राजेश्वरों तलवरों माडम्बिकों सेनापतियों एवं सार्थवाहों आदि के. (तथा), वैताढ्यं पर्वत एवं सागर से मर्यादित दक्षिणी अर्ध भरत के ऊपर आधिपत्य करते हुए वे विचर रहे थे ॥३॥ टीका - द्वारकाधीश श्री कृष्ण के वैभव का इस सूत्र में विस्तृत वर्णन किया गया है ||३|| ( ३४५ ) [ निरयावलिका - मूल तत्थणं बारवईए नयरीए बलदेवे नामं राया होत्या, महया जाव रज्जं पसासेमाणे विहरइ । तस्स णं बलदेवस्स रण्णो रेवई नामं देवी होत्या, सोमाला० जाव विहरइ । तएणं सा रेवई देवी अण्णया काइ तंसि तारिसगंसि सयणिज्जंसि जाव सोहं सुमिणे पासित्ता जं पडिबुद्धा०, एवं सुमिण दंसणपरिकहणं, निसढे नामं कुमारे जाए जाव कलाओ जहा महाबले, पंनासओ दाओ, पण्णासरायकण्णगाणं एगदिवसेण पाणि गिण्हावे, नवरं निसढे नामं जाव उप्पिपासाएं विहरइ ॥ ४ ॥ छाया - तन खलु द्वारावत्यां नगर्यां बलदेवो नाम राजाऽभवत् महता यावद् राज्यं प्रशासद् विहरति । तस्य खलु बलवेवस्य राज्ञो रेवती नाम्नी देव्यभवत्, सुकुमारपाणिपादा यावद् विहरति । ततः खलु सा देवंती देवी अन्यदा कदाचित् तादृशे शयनीये यावत् सिंह स्वप्ने दृष्ट्वा खलु प्रतिबुद्धा एवं स्वप्नदर्शनपरिकथनं निषधो नाम कुमारो जातः, यावत् कला यथा महाबलस्य, पञ्चाशद् वायाः, पञ्चाशव्राजकन्यकानामेकविवसेन पाणि ग्राहयति, नवरं निषधो नाम यावद् उपरिप्रासादे विहरति ॥४॥ Page #424 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरयावलिका] (३४६) [वर्ग-पंचम - पदार्थान्वय'-तत्थ गं बारवईए नयरीए-उस द्वारका नगरी में, बलदेवे नामं राया होत्थाबलदेव नाम का राजा था, महया जाव रज्जं पसासेमाणे विहरइ-बलदेब महाबली थे, और राज्य पर शासन करते हए विचर रहे थे. तासगं वलदेवस्स रणो-उस राजा बलदेव की. रेवई नामं देवी होत्था-महारानी का नाम रेवती देवी था, सोमाला जाव विहरइ-वह अत्यन्त सुकुमार एवं सुन्दर, थी, अतः अपने राज्य में सुख-पूर्वक रह रही थी, तएणं सा रेवई देवी अण्णया कयाइं-तदनन्तर वह रेवती देवी एक बार, तसि तारिसगंसि सयणिज्जसि-रानियों के शयन करने के योग्य शय्या पर सोते हुए, जाव सीह सुमिणे पासित्ता गं-स्वप्न मैं सिंह को देखकर, पडिबुद्धा-वह जाग गई, एवं सुमिण सण-परिकहण-उसने उस स्वप्न का हाल बलदेव जो से कहा, निसढे नाम कुमारे-(समय आने पर) उसने एक बालक को जन्म दिया जिसका नाम निषध कुमार रक्खा, जाव कलाओ जहा महाबले-वह कुमार महाबल के समान वहत्तर कलाओं में प्रवीण हो गया था, पंनासओ दामओ-उसको पचास दहेज पिले, (क्योंकि), पण्णासराय-कण्णगाणं एक दिवसेणं पाणि गिण्हावेइ-उसने पचास राज्य कन्याओं का एक ही दिन में पाणिग्रहण किया था अर्थात् विवाह किया था, नवरं निसढे नामं जाव उत्पिपासाए विहरइ-वह निषध कुमार और उसकी रानियां ऊपर के राज-महल में सुखपूर्वक जीवन-यापन कर रहे थे॥४॥ मूलार्थ- उस द्वारका नगरी में बलदेव नाम का राजां था, बलदेव महाबली थे, और राज्य पर शासन करते हुए विचर रहे थे। उस राजा बलदेव की महारानी का नाम रेवती देवी था। वह अत्यन्त सुकुमार एवं सुन्दर थी, अतः अपने राज्य में सुखपूर्वक रह रही थी; तदनन्तर वह रेवती देवी एक बार राज-रानियों के शयन करने के योग्य शय्या पर सोते हुए स्वप्न में सिंह को देख कर जाग गई। उसने उस स्वप्न का हाल बलदेव जी से कहा-(समय आने पर) उसने एक बालक को जन्म दिया, जिसका नाम निषध कुमार रक्खा। वह बालक महाबल के समान बहत्तर कलाओं में प्रवीण हो गया था, उसको पचास दहेज मिले (क्योंकि) उसने पचास राज कन्याओं का एक ही दिन में पाणि-ग्रहण किया था, अर्थात् विवाह किया था; वह निषध कुमार और उसकी रानियां ऊपर के राज-महल में सुख-पूर्वक जीवन-यापन कर रहे थे ॥४॥ ___टोका-सभी भाव अपने आप में स्पष्ट हैं। बहु-विवाह प्रथा तत्कालीन राजामों में प्रचलित थी।४। Page #425 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ग-पंचम]. ( ३४७) [निरयावलिका मूल-तेणं कालेणं तेणं समएणं अरहा अग्ट्ठिनेमी आदिकरे दसधणई वण्णओ जाव समोसरिए, परिसा निग्ग। तएणं से कण्हे वासदेवे इमीसे कहाए लद्धठे समाणे हट्ठतुठे० कोडंबियपरिसे सद्दावेइ, सद्दावित्ता एवं वयासी-खिप्पामेव देवाणुप्पिया ! सभाए सुहम्माए सामुदाणियं भेरि तालेह । तएणं से कोडुबियपुरिसे जाव पडिसुणित्ता जेणेव सभाए सुहम्माए जेणेव सामुदाणिया भेरी तणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता तं सामुदाणियं रि महया महया सद्देणं तालेइ ॥५॥ छाया-तस्मिन् काले तस्मिन् समये अर्हन् अरिष्टनेमिः आदिकरो दशधनष्को वर्णकः यावत् समवसृतः, परिषत् निर्गता । ततः खलु सः कृष्णो वासुदेवोऽस्याः कथाया लब्धार्थः सन् हृष्टतुष्ट ० कौटुम्बिकपुरुषान् शब्दयति, शब्दयित्वा एवमवादोत्-शिप्रमेव देवानुप्रियाः ! सभायां सुधर्मायां तामुदानिकी मेरों ताडयत । ततः खलु ते कौटुम्बिकपुरुषा यावत् प्रतिश्रुत्य यत्रैव सभायां सुधर्मायां सामुदानिको भेरी तनवोपागच्छन्ति, उपागम्य तां सामवानिकी भेरी महता - महता शब्देन ताडयन्ति ||५॥ पदार्थान्वयः-तेणं कालेणं तेणं समएणं-उस काल उस समय में, अरहा अरिटुनेमोअरिहन्त प्रभु श्री अरिष्टनेमी जी जो कि, आदिकरे दसधणूइं वणो जाव समोसरिए-दस धनुष प्रमाण शरीरवाले थे और धर्म के आदि-कर थे अर्थात् जो इक्कीसवें तीर्थङ्कर श्री नमिनाथ के अनन्तर हजारों वर्षों के बाद धर्म का प्रवर्तन करने वाले थे, वे द्वारिका नगरी में पधारे। परिसा निग्गया-उनके दर्शनों एवं प्रवचनों के श्रवणार्थ नागरिकों के समूह अपने अपने घरों से निकले। तएणं से कण्हे वासुदेवे-तदनन्तर वासुदेव श्री कृष्ण, इमीसे कहाए लट्ठ समाणे-भगवान् अरिष्टनेमि जी के आगमन की सूचना प्राप्त होते ही, हठ्ठतुठे-अत्यन्त प्रसन्न होकर, को बियपुरिसे --अपने पारिवारिक सेवकों को, सहावेइ-बुलवाते हैं, सहावित्ता और बुलवा कर, एवं वयासी-उन्हें इस प्रकार आदेश दिया, खिप्पामेव देवाणुप्पिया! हे देवानुप्रियों ! आप लोग शीघ्र ही, सभाए सुहम्माए-सुधर्मा सभा में पहुंचकर, सामुदाणियरि–सामुदानिक भेरी (वह भेरी जिसके बजने पर सभी अपेक्षित जन एकत्रित हो जायें), तालेहि-बजाओ, तएणं से कोम्बिय पुरिसे-तदनन्तर वह सेवक वर्ग, वासुदेव श्री कृष्ण की आज्ञा सुनकर, जेणेव सभाए सुहम्माए-जहां पर सुधर्मा सभा थी और जहां, सामंदाणिया भेरी–सामुदानिक भेरी थी, तेणेव उवागच्छति-वहीं पर आते हैं, उवागछित्ता-और वहां पहुंच कर, सामुदाणियं भरि-सामु Page #426 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरयावलिका] ( ३४८) [वर्ग-पंचम दानिक भेरी को, महया-महया सद्देणं- बहुत ऊंचे-ऊचे स्वर से, तालेइ-बजाते हैं ।।५।। मूलार्थ- उस समय उस काल में अरिहन्त प्रभु श्री अरिष्ट नैमी जी जो कि दस धनुष प्रमाण शरीर वाले थे और धर्म के आदि कर थे अर्थात् जो इक्कीसवें तीर्थंकर श्री नमिनाथ जो के अनन्तर हजारों वर्षों के बाद धर्म का प्रवर्तन करने वाले थे वे द्वारिका नगरी में पधारे । उनके दर्शनों एवं प्रवचनों के श्रवणार्थ नागरिकों के समूह अपने-अपने घरों से निकले। ___ तदनन्तर वासुदेव श्रीकृष्ण, भगवान अरिष्ट नेमि जी के आगमन की सूचना प्राप्त होते ही अत्यन्त प्रसन्न होकर, अपने पारिवारिक सेवकों को बुलवाते हैं और बुलवा कर उन्हें इस प्रकार आदेश देते हैं कि- "हे देवानुप्रियों ! आप लोग शीघ्र ही, सुधर्मा सभा में पहुंच कर सामुदानिक भेरी (वह भेरी जिसके बजने पर सभी अपेक्षित जन एकत्रित हो जायें) बजाओ । तदनन्तर वह सेवक वर्ग वासुदेव श्री कृष्ण की आज्ञा सुनकर जहां सुधर्मा सभा थी और जहां सामुदानिक भेरी थी वहीं पर आते हैं और वहां पहुंच कर सामुदानिक भेरी को बहुत ऊंचे-ऊचे स्वर से बजाते हैं ॥५॥ टीका-समस्त प्रकरण सरल है ॥५॥ मूल-तएणं तीसे सामुदाणियाए भेरीए महया-महया सद्देण तालि याए समाणीए समुद्दविजयपामोक्खा दस दसारा देवीओ उण भाणियव्वाओ जाव अणंगसेणापामोक्खा अणेगा गणियासहस्सा, अन्ने य बहवे राईसर जाव सत्थवाहप्पभिईओ व्हाया जाव पायच्छित्ता सव्वालंकारविभूसिया जहा विभवइड्ढिसक्कारसमुदएणं, अप्पेगइया हयगया जाव परिसवग्गरापरिक्खित्ता० जेणेव कण्हे वासदेवे तेणेव उवागच्छन्ति उवागच्छित्ता करतल० कण्हं वासुदेवं जएणं विजएणं वद्धावेति। तएणं से कण्हे वासुदेवे कोडुबियपुरिसे एवं वयासी-खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया! आभिसेक्कं हस्थिरयणं कप्पेह, हयगयरहपवरजाव पच्चप्पिणंति । Page #427 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ग-पंचम] ___ (३४६) [निरयावलिका - तएणं से कण्हे वासुदेवे मज्जणघरे जाव दुरूढे, अट्ठट्ठमंगलगा, जहा कूणिए, सेयवरचामरहिं उद्धयमाणेहि उद्धयमाणेहिं समुद्दविजयपामोक्खेहि दसारेहिं जाव सत्यवाहप्पभिहिं सद्धि संपरिवुडे सव्विड्ढीए जाव रवेणं बारवईनयरी मज्झं-मज्झेणं, सेसं जहा कणिओ जाव पज्जुवासइ ॥६॥ छाया-ततः खलु तस्यां समुदानिक्यां भेर्या महता महता शब्देन ताडितायां सत्यां समुद्रविजयप्रमुखा दश दशार्हाः, देव्यः पुनर्भणितव्याः, यावद् अनङ्गसेनाप्रमुखानि अनेकानि गणिकासहस्राणि, अन्ये च बहवो राजेश्वर यावत् सार्थवाहप्रभृतयः स्नाता: यावत् कृतप्रायश्चित्ताः सर्वालंकारविभूषिताः यथाविभवऋद्धिस कारसमुदयेन अप्येकके हयगता यावत् पुरुषवागुरापरिक्षिप्ता यत्रैव कृष्णो वासुदेवस्तत्रैवोपागच्छन्ति, उपागत्य करतल० कृष्णं वासुदेवं जयेन विजयेन वर्द्धयन्ति । ततः खलु कृष्णो वासुदेवः कौटुम्बिकपुरुषानेवमवावीत्-क्षिप्रमेव भो देवानुप्रियाः! आभिषेक्यं हस्तिरत्नं कल्पयध्वम्, हय-गज-रथ प्रवरान् यावत् प्रत्यर्पयन्ति । ततः खलु स कृष्णो वासुदेवो मज्जनगृहे यावद् दुरूढः अष्टाष्टमङ्गलकानि, यथा कूणिकः, श्वेतवरचामररुद्धयमाणः उद्धयमाणः समुद्रविजयप्रमुखैः दशभिर्दशाहवित् सार्थवाहप्रतिभिः सार्ध संपरिवतः सर्वऋद्धया यावत् रवेण यावत् द्वारावतीनगरीमध्यमध्येन शेषं यथा कुणिको यावत् पर्युपासते ।।६।। पदार्थान्वयः-तएणं तीसे सामुदाणियाए भेरीए-उस सामुदानिक भेरी के, . महया-महया सट्टेणं-जोर-जोर की ध्वनियों में, तालियाए समाणीए-बजाए जाने पर, समुद्दविजय पामोक्खा दस दसारा-समुद्र विजय प्रमुख दस दशाह क्षत्रिय, देवीओ भाणियवाओ-जो रुक्मणी आदि देवियाँ भी बतलाई गई हैं (और), जाव अणंगसेणापामोक्खा अणेगा गणिया सहस्सा-और अनंग सेना प्रमुख अनेक सहस्र गणिकायें, अन्ने य बहवे राईसर जाव सस्थवाहप्पाभइयो-राजेश्वर एवं सार्थवाह आदि, हाया जाव पायच्छित्ता-स्नानादि करके तथा प्रायश्चित्त अर्थात् मांगलिक कार्य करके, सव्वालंकारविभूसिया-सभी प्रकार के अलंकारों से विभूषित होकर, जहा विभव-इड्डी-सक्कार समदएणं-अपनी-अपनी समद्धि सत्कार एवं अभ्युदय सूचक वैभव के साथ, अप्पेगइया हयगय या-अनेक घोडों पर और अनेक हाथियों पर सवार होकर, जाव परिस वग्गरापरिक्खिताअपने-अपने दासों को साथ लेकर, जेणेव कण्हे वासदेवे-जहां पर वासुदेक श्री कृष्ण थे, तेणेव उवागच्छंति,-वहीं पर पहुंच जाते हैं, उवागच्छित्ता-और वहां पहुंचकर, करतल०-दोनों Page #428 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरयावलिका) (३५०) [वर्ग-पंचम हाथ जोड़कर. कण्ह वासुदेवं-वासुदेव श्री कृष्ण को, जएणं विजएण वद्धाति-जय - विजय शब्दों से उनको वर्धापन देते हैं-उनका अभिनन्दन करते हैं। तएणं से कण्हे वासुदेवे-तदनन्तर वासुदेव श्री कृष्ण ने, कोड बियपुरिसे एवं वयासीअपने पारिवारिक एवं निजी दासों को यह आज्ञा दी, खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया! हे देवानुप्रियों! तम शीघ्र ही, आभिसेक्कं हत्थिरयणं कप्पेड़-आभिषेक्य हस्तीरत्न को सजाकर तैयार करो, हयगयरहपवरजाव - तथा हाथी घोड़ों और पदातियों से युक्त यावत् चतुरंगिणी सेना को तैयार करके, पच्चप्पिणंति--मुझे आकर सूचित करो। तएणं से कण्हे वासुदेवे-तदनन्तर वासुदेव श्री कृष्ण ने, मज्जणधरे जाव दुरुढे-स्नानघर में प्रवेश कर (और वहां स्नान करके तदनन्तर वस्त्रालंकारों आदि से सुसज्जित होकर) वे हाथी पर सवार हो गए, अठ्ठट्ठ मंगलगा-आठ मांगलिक द्रव्य उनके आगे - आगे चले, जहा कृणिए-राजा कूणिक के समान, सेयवर चामरेहि-श्रेष्ठतम चवर उन पर, उद्धयमाणेहिउदयमाणेहि-डुलाए जाने लगे, समुद्दविजयपामोखैहि वसहि दसारेहि - समुद्र विजय आदि दस दशाह क्षत्रिय, जाव सत्थवाहप्पभिहि सद्धि-सार्थवाहों आदि के साथ, संपरिवुडे सम्विड्ढीए जाव रवेणं-सर्वविध राजसी समृद्धियों और विविध वाद्यों के मधुर एवं उच्च स्वरों के साथ बारवई नार मज्झं मझेणं-द्वारका नगरी के बीचों-बीच मध्यमार्ग से निकले और रैवतक पर्वत पर पहुंच कर भगवान् श्री अरिष्टनेमि जी की, सेसं जहा कृणिो जाव पज्जवासह-शेष सब वर्णन कूणिक के समान समझते हुए श्री कृष्ण द्वारा भगवान् की पर्युपासना आदि कार्य समझ लेने चाहिये ॥६॥ मूलार्थ-जोर-जोर की ध्वनियों वाली उस सामुदानिक भेरी के बजाए जाने पर, समुद्र विजय प्रमुख दशाह क्षत्रिय जो रुक्मणी आदि देवियां पोछे बत लाई गई हैं और अनेक सहस्र गणिकायें राजेश्वर एवं सार्थवाह आदि स्नानादि करके तथा प्रायश्चित्त अर्थात् मांगलिक कार्य करके सभी प्रकार के अलंकारों से विभूषित होकर अपनी-अपनी समृद्धि सत्कार एवं अभ्युदय सूचक वैभव के साथ अनेक घोड़ों पर और अनेक हाथियों पर सवार होकर अपने-अपने दासों को साथ लेकर जहां पर वासुदेव श्री कृष्ण थे वहीं पर पहुंच जाते हैं और वहां पहुंच कर दोनों हाथ जोड़कर वासुदेव श्री कृष्ण को, जय विजय शब्दों से वर्धापन देते हैं - उनका अभिनन्दन करते हैं। तदनन्तर वासुदेव श्री कृष्ण ने अपने पारिवारिक एवं निजी दासों को. यह आज्ञा दी। हे देवानुप्रियों ! तुम शीध्र ही आभिषेक्य हस्तिरत्न को सजा कर तैयार Page #429 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ग - पंचम ] ( ३५१ ) [ निरयावलिका - करो, तथा हाथी घोड़ों और पदातियों से युक्त यावत् चतुरंगिणी सेना को तैयार कर के मुझे आकर सूचित करो । तदनन्तर वासुदेव श्रीकृष्ण ने स्नान घर में प्रवेश कर ( और वहां स्नान करके तदनन्तर वस्त्रालंकारों आदि से सुसज्जित होकर ) वे वहां आकर हाथी पर सवार हो गए । आठ मांगलिक द्रव्य उनके आगे-आगे चले और राजा कूणिक के समान श्रेष्ठतम चत्रर उन पर डुलाए जाने लगे । समुद्र विजय आदि दस दशार्ह क्षत्रिय सार्थवाहों आदि के साथ सर्वविध राजसी समृद्धियों और विविध वाद्यों के मधुर एवं उच्च स्वरों के साथ वे द्वारिका नगरी के बीचों-बीच मध्य मार्ग से निकले और रैवतक पर्वत पर पहुंच कर भगवान श्री अरिष्टनेमि जी को वन्दना नमस्कार किया, शेष सब वर्णन कूणिक के समान समझते हुए श्री कृष्ण द्वारा भगवान की पर्युपासना मादि कार्य समझ लेने चाहिये । ६ ।। मूल -- तणं तस्स निसढस्स कुमारस्स उपि पासायबरगयस्स तं महया जणसद्दं च जहा जमाली जाव धम्मं सोच्चा निसम्म वंदइ नमसइ वंदित्ता नमसित्ता एवं वयासी सद्दहामि णं भंते ! निग्गंथं पावयणं जहा चित्तो जाव सावगधम्मं पडिवज्जइ, पडिवज्जित्ता पडिगए ॥७॥ छाया - ततः खलु तस्य निषधस्य कुमारस्योपरिप्रासादवरगतस्य तं महाजनशब्द च यथा जमालिर्यावद् धर्म श्रुत्वा निशम्य वन्वते नमस्यति, वन्दित्वा नमस्थित्वा एवमवादीत् - श्रद्दधामि खलु भवन्त ! निर्ग्रन्थं प्रवचनं यथा चित्तो० यावत् धावकधर्म प्रतिपद्यते प्रतिपद्य प्रतिगतः ||७|| पदार्थान्वयः -- त एणं तस्स निसढस्य कुमारस्स -तब उस निषध कुमार ने, उपि पासाय वरगयस्स - अपने सुन्दर महल के उपर बैठे हुए, तं महया जण सद्द— जनता द्वारा किये जा रहे उस महान् शोर को सुना, जहा जमाली जाव धम्मं सोच्चा निसम्म - तो वह भी जमाली के समान राज्यवैभव के साथ (भगवान् श्री अरिष्टनेमि जी के पावन सान्निध्य में पहुंचा और भगवान से धर्मतत्व सुनकर उसने उसे हृदयंगम कर लिया तब उसने भगवान् श्री अरिष्टनेमि जी को, बंबइ नमसद्द - वन्दना नमस्कार किया, (और), वंदिता नमसित्ता - वन्दना नमस्कार करके, एवं वयासी को Page #430 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरयावलिका] (३५२) [वर्ग-पंचम इस प्रकार निवेदन किया, सहामि णं भन्ते ! निग्गथं पावयणं-भगवन् ! मैं निर्ग्रन्थ प्रवचन पर श्रद्धा करता हूं, जहा चित्तो सावगधम्म पडिवज्जइ-चित्त नामक सारथी के समान उसने श्रावक धर्म स्वीकार किया, पडिवज्जित्ता पडिगए-और स्वीकार करके वह अपने राज - महल में लौट गया ॥७॥ - मूलार्थ- तब उस निषध कुमार ने अपने महल के ऊपर बैठे हुए जनता द्वारा किये जा रहे उस महान् शोर को सुना तो वह भी जमाली के समान राज्य-वैभव के साथ (भगवान् श्री अरिष्टनेमि जी के पावन सान्निध्य में पहुंचा और भगवान से धर्मतत्व को सुनकर उसने उसे हृदयंगम कर लिया, तब उसने भगवान् श्री अरिष्टनेमि जी को वन्दना-नमस्कार किया और वन्दना नमस्कार करके इस प्रकार निवेदन किया. . भगवन् ! मैं निर्ग्रन्थ प्रवचन पर श्रद्धा करता हूं, चित्त नामक सारथी के समान उसने श्रावक धर्म स्वीकार किया, और स्वीकार करके वह अपने राज-महल में लौट गया॥७॥ ... टीका-प्रस्तुत सूत्र में श्रमण भगवान गहावीर ने निषध कुमार के वैभव पूर्ण जीवन का वर्णन बड़े सुन्दर ढंग से किया है। निषध कुमार कैसे भगवान श्री अरिष्टनेमि जी के दर्शन करने जाता है उसका वर्णन भगवती सूत्र में वणित जमाली के प्रकरण की तरह जान लेना चाहिए । निषध कुमार ने भगवान अरिष्टनेमि के उपदेश से प्रभावित हो कर श्रावक-व्रत चित्त श्रावक की तरह धारण किये ।।७।। मूल--तेणं कालेणं तेणं समएणं अरहओ अरिट्ठनेमिस्स अंतेवासी वरदत्ते नाम अणगारे उराले जाव विहरइ। तएणं से वरदत्ते अणगारे निसढं कुमारं पासइ, पासित्ता जायसड्ढे जाव पज्जुवासमाणे एवं वयासो-अहो णं भंते ! निसढे कुमारे इठे इट्ठरूवे कंते कंतरूवे एवं पिए० मणुन्नए० मणामे मणामस्वे सोमे सोमरूवे पियदंसणे सुरूवे । निसढेणं भंते ! कुमारणं अयमेयारूवे माणुसइड्ढी किण्णा लद्धा किण्णा पत्ता ? पच्छा जहा सूरियाभस्स, एवं खलु वरदत्ता ! तेणं कालेणं तेणं समएणं इहेव जंबूद्दोवे दीवे मारहे वासे रोहीडए नाम नयरे होत्या, Page #431 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ग-पंचम ) (३५३ ) [निरयावलिका रिद्धिस्थिमियसमिद्धे०, मेहवन्ने उज्जाणे मणिदत्तस्स जक्खस्स जक्खाययणे । तत्थ णं रोहीडए नयरे महब्बले नामं राया, पउमावई नामं देवी, अन्नया कयाई तंसि तारिसगंसि सयणिज्जसि सोहं समिणे, एवं जम्मणं भाणियव्वं, जहा महब्बलस्स, नवरं वीरंगओ नामं, बत्तीसओ दाओ, बत्तीसाए रायवरकन्नगाणं पाणि जाव उवगिज्जमाणे उवगिज्जमाणे पाउसवरिसारत्तसरयहेमंतवसन्तगिम्हपज्जंते छप्पि उऊ जहाविभवेणं भुंजमाणे भुंजमाणे कालं गालेमाणे इट्ठ सद्दे जाव विहरइ ॥८॥ ___ छाया-तस्मिन् काले तस्मिन् समयेऽर्हतोऽरिष्टनेमेरन्तेवासी वरदत्तो नाम अनगार: उदारो यावद् विहरति । ततः स वरदत्तोऽनगारो निषध कुमारं पश्यति, दृष्ट्वा जातबद्धो यावत् पर्युपासीन: एवमवादीत्-अहो ! खलु भदन्त ! निषधः कुमारः इष्टः इष्टरूपः, कान्तः कान्तरूपः, एवं प्रियो० मनोज्ञो० मनोऽमो मनोऽमरूप. सोमः. सोमरूपः प्रियदर्शनः सुरूपः । निषधेन भदन्त ! कुमारेण अयमेतद्रूपा मानुषऋद्धिः कथं लब्धा ? कथं प्राप्ता ? पृच्छा यथा सूर्याभस्य ।। ___ एवं खलु वरदत्त ! तस्मिन् काले तस्मिन् समये इहैव जम्बूद्वीपे द्वीपे भारते वर्षे रोहितकं नाम नगरमासीत्, ऋद्धस्तिमितसमद्धम्० मेघवर्णमुद्यान, मणिदत्तस्य यक्षस्य यक्षायतनम् । तत्र खलु रोहितके नगरे महाबलो नाम राजा, पद्मावती नाम देवी, अन्यदा कदाचिद् तस्मिन् तादृशे शयनीये सिंह स्वप्ने०, एवं जन्म भणितव्यं, यथा महाबलस्य, नवरं वीरंगतो नाम, द्वात्रिंशद् दायाः, द्वात्रिंशतो राजकन्यकानां पाणि यावद् उपगीयमानः उपगीयमानः प्रावृड्वर्षा रात्रशरद्धेमन्तग्रोहमवसन्तान् षडपि ऋतन् यथाविभवेन भुञ्जानः इष्टान् शब्दान् यावद् विरहति ।।८।। पदार्थान्वयः-तेणं कालेणं तेणं समएणं- उस काल और उस समय में, अरहओ अरिटुनेमिस्स अंतेवासी वरदत्ते नाम अनगारे-अरिहन्त भगवान श्री अरिष्टनेमीजी के प्रधान शिष्य वरदत्त नामक मुनीश्वर, उराले जाव विहरइ-जो अत्यन्त उदार प्रकृति के थे वे विचरण कर रहे थे, तएणं से वरदत्ते नामं अणगारे निसढं कुमारं पास इ-उस वरदत्त नामक मुनीश्वर ने निषध कुमार को देखा, पासित्ता जायसव जाव पज्जवासमाणे-और उन्हें देख कर उनके हृदय में श्रद्धा जागृत हुई, यावत् उन्होंने भगवान् की पर्युपासना करते हुए, एवं वयासी-इस प्रकार निवेदन किया, अहो गं भन्ते!-हे भगवन् !, निसढे कुमारे इठे इट्ठरूवे-यह निषध कुमार इष्ट है (इसे सभी चाहते हैं। क्योंकि इसे मनचाहा रूप प्राप्त हुआ है, कन्ते कन्तरूवे - सुन्दर है और इसे सुन्दर रूप प्राप्त हुआ है, एवं पिये पियस्वे-यह सबको प्रिय है, क्योंकि इसे सर्वजन प्रिय रूप प्राप्त Page #432 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरयावलिका) (३५४) [वर्ग-पंचम हआ है, मणन्ने मणामे मणामरूवे--यह सबको अच्छा लगाने वाला है, इसका रूप अत्यन्त मनोज्ञ है, सोमे सोमरूवे - यह सौम्य है इसे सौम्य रूप प्राप्त हुआ है, पियदंसणे सुरूवे—यह प्रिय-दर्शन एवं सरूप है। निसढेणं भन्ते ! कमारेणं-भगवन् इस निषध कुमार ने, अयमेयारूवे माणदइड्रोइसे इस प्रकार की मानवीय समृद्धि, किण्णा लद्धा, किण्णा पत्ता- कैसे उपलब्ध हुई है ! और कसे प्राप्त हुई है ?, पुच्छा जहा सरियाभस्स-सूर्याभदेव के विषय में श्री गौतम स्वामी जा की तरह (व र दत्त मुनिराज ने) श्री अरिष्टनेमी जी से प्रश्न किया। एवं खलु वरदत्ता!-(भगवान श्री अरिष्टनेमि जी ने वरदत्त मुनि के प्रश्न का समाधान करते हुए कहा) वत्स वरदत्त !, तेणं कालेण तेणं समएणं-उस काल और उस समय में, इहेव जम्बद्दीवे दीवे यहीं पर जम्बूद्वीप नामक द्वीप में, भारहे वासे-भरत क्षेत्र में, सोडा नाम नयरे होत्था-रोहितक नाम का एक नगर था, रिद्धिस्थिमियसमिद्धे०-जो कि धन-4 4.1द से अत्यन्त समृद्ध था, मेहवन्ने उज्जाणे-वहां पर मेघवणं नाम का एक उद्यान शा, भ.दत्तस्स जक्खस्स जक्खाययणे-उस उद्यान में मणिदत्त नामक एक यक्ष का यक्षायतन (यक्ष-मन्दिर) था, तत्थ णं रोहीडए नयरे महब्बले नाम राया-उस रोहितक नगर में महाबल नाम का एक राजा राज्य करता था, पउमावई नामं देवी-उसकी पद्मावती नाम की पटरानी थी, अन्नया कयाई तसि लारिसगंसि सयणिज्जंसि सीहं सुमिणे-एक रात उसने राजरानी के योग्य शय्या पर शयन करते हुए स्वप्न में एक सिंह देखा, एवं जम्मणं भाणियन्वं जहा महब्बलस्स-उसके जन्म आदि का वर्णन महाबल के समान ही समझना चाहिये । नवर वीरंगओ नाम-इतना विशेष है कि उस बालक का नाम वीरंगत (वीरांगद) रखा गया, बत्तीसओ दाओ बत्तीसाए रायवरकन्नगाणं पाणि जाव उबगिज्जमाणे-उवगिज्जमाणे-महाबल कुमार का (विवाह योग्य होने पर) बत्तीस कन्याओं के साथ विवाह हुआ और उसे बत्तीस-बत्तीस प्रकार के दहेज प्राप्त हुए। उसके राज-महलों के ऊपर गायक उसके गुणों का गुण-गान करते रहते थे, पाउस वरिसारत्तसरयहेमंतवसन्तगिम्हपज्जते छप्पि उऊ जहाविभवेणं भुजमाणे-भुजमाणे-वह ग्रीष्म वर्षा आदि छहों ऋतुओं सम्बन्धी मनचाहे मानवीय भोगों का, गालेमाणे इठ्ठ सद्दे जाव विहर इ-और उपभोग करते हुए अपना सुखमय जीवन व्यतीत कर रहा था ॥८॥ मूलार्थ - उस काल और उस समय में अरिहन्त भगवान श्री अरिष्टनेमी जी के प्रधान शिष्य वरदत्त नामक मुनीश्वर जो अत्यन्त उदार प्रकृति के थे, वे विचरण कर रहे थे। उस वरदत्त नामक मुनीश्वर ने जब निषध कुमार को देखा और उन्हें देख कर उनके हृदय में श्रद्धा जागृत हुई, यावत् उन्होंने भगवान की पर्युपासना करते हुए इस प्रकार निवेदन किया-"भगवन् ! यह निषध कुमार इष्ट है (इसे सभी चाहते हैं), Page #433 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ग-पंचम] (३५५) [निरयावलिका क्योंकि इसे मनचाहा रूप प्राप्त हुआ है, सुन्दर है और इसे सुन्दर रूप प्राप्त हुआ है, यह सबको प्रिय है, क्योंकि इसे सर्वजन प्रिय रूप प्राप्त हुआ है, यह सबको अच्छा लगने वाला है, इसका रूप अत्यन्त मनोरम है, यह सौम्य है इसे सौम्य रूप प्राप्त हुआ है, यह प्रिय-दर्शन एवं सुरूप है । भगवन् ! इस निषध कुमार को इस प्रकार की मानवीय समृद्धि कैसे प्राप्त हुई है ? सूर्याभदेव के विषय में श्री गौतम स्वामी जी की तरह (वरदत्त मुनिराज ने) श्री भगवान् श्री अरिष्टनेमी जी से प्रश्न किया। (भगवान श्री अरिष्टनेमि जी ने वरदत्त मुनि के प्रश्न का समाधान करते हुए कहा-) वत्स वरदत्त ! उस काल और उस समय में यहीं पर जम्बू द्वीप नामक द्वीप में भरत क्षेत्र में रोहितक नाम का एक नगर था, जो कि धन-धान्यादि से अत्यन्त समृद्ध था। वहां पर मेघवर्ण नाम का एक उद्यान था। उस उद्यान में मणिदत्त नामक एक यक्ष का यक्षायतन (यक्ष-मन्दिर) था, उस रोहितक नगर में महाबल नाम का एक राजा राज्य करता था, उसकी पद्मावती नाम की पटरानी थी, एक रात उस रानी ने अपनी राजरानी के योग्य शय्या पर शयन करते हुए स्वप्न में सिंह देखा, उसके जन्म आदि का वर्णन महाबल के समान ही समझना चाहिये, इतना विशेष है कि उस बालक का नाम वीरंगत रखा गया। वीरंगत कुमार का (विवाह योग्य होने पर) बत्तीस कन्याओं के साथ विवाह हुआ और उसे बत्तीस-बत्तीस प्रकार के दहेज प्राप्त हुए, उसके राज-महलों के ऊपर गायक उसके गुणों का गुणगान करते रहते थे, वह ग्रीष्म वर्षा आदि छहों ऋतुओं सम्बन्धी मनचाहे मानवीय भोगों का उपभोग करते हुए अपना सुखमय जीवन व्यतीत कर रहा था ॥८॥ टोका-निषध कुमार के रूप लावण्य को देख कर भगवान अरिष्टनेमि के गणधर वरदत्त मुनि ने निषध कुमार के पूर्व भब का परिचय पूछा-भगवान ने कहा कि पूर्व भव में रोहितक नगर में महाबल नामक राजा था, उसकी रानी पद्मावती थी। उस रानी ने सिंह का स्वप्न देखा। उनके यहां वीरंगत (वीरांगद) नाम का कुमार उत्पन्न हुना। उसका यौवन अवस्था में ३२ राजकन्याओं के साथ तत्कालीन बहु-पल्ली प्रथा के अनुसार विवाह हुमा ।।८।। Page #434 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरयावलिका] ( ३५६) [वर्ग-पंचम मूल- -तेणं कालेणं तेणं समएणं सिद्धत्था नाम आयरिया जाई. संपन्ना जहा केसी नवरं बहुस्सुया बहुपरिवारा जेणेव रोहीडिए नयरे जेणेव मेहन्ने उज्जाणे जेणेव भणि दत्तस्स जक्खस्स जक्खाययणे तेणेव उवागया, अहापडिरूवं जाव विहरंति, परिसा निग्गया ॥६॥ छाया-तस्मिन् काले तस्मिन् समये सिद्धार्थो नाम आचार्याः जातिसम्पन्नाः यथा केशी, नवरं बहुश्रुता बहुपरिवारा यत्नव रोहितकं नगरं यत्रैव मेघवर्णमुद्यानं यत्रैव मणिदत्तस्य यक्षस्य यक्षायतनं तंत्रवोपागतः, यथाप्रतिरूपं यावद विहरति परिषद् निर्गता ॥६॥ पदार्थान्वयः-तेणं कालेणं तेणं समएणं-उस काल एवं उसी समय में, सिद्धत्था नाम आयरिया जाइ संपन्ना-उच्च जातीय सिद्धार्थ नाम के आचार्य जहा केसी-जो कि मनिराज केशी के समान ही थे, नवरं बहुस्सया बहुपरिवारा-इतना विशेष है कि वे बहुश्रुतए वं विशाल शिष्यपरिवार वाले थे, जेणेव रोहीडए नयरे-उसी रोहितक नाम के नगर में, मेहन्ने उज्जाणे-मेघ वर्ण नामक उद्यान में, जेणेव मणिदत्तस्स जक्खस्स जक्खाययणे-जहां पर मणिदत्त नामक यक्ष का यक्षायतन था, तेणेव उवागया-वहीं पर आ गए, अहापडिरूवं जाव विहरंति-और उद्यानपालक से आज्ञा लेकर वे वहीं पर विचरने लगे। परिसा निग्गया-दर्शनार्थ एवं प्रवचन-श्रवणार्थ श्रद्धालु नागरिकों की टोलियां उनका पावन सान्निध्य प्राप्त करने के लिये घरों से निकल पड़ीं ।।। मूलार्थ-(वरदत्त !) उस काल एवं उसी समय में उच्च जातीय सिद्धार्थ नाम के आचार्य जो कि मुनिराज केशी के समान थे, इतना विशेष है कि वे बहुश्रुत एवं विशाल शिष्य-परिवार वाले थे, उसी रोहितक नाम के नगर में मेघवर्ण नामक उद्यान में जहां पर मणिदत्त नामक के यक्ष का यक्षायतन था वहीं पर आ गए और उद्यानपालक से आज्ञा लेकर वे वहीं पर विचरने लगे। दर्शनार्थ एवं प्रवचन-श्रवणार्थ श्रद्धालु नागरिकों की टोलियां उनका पावन सान्निध्य प्राप्त करने के लिये घरों से निकल पड़ी॥९॥ टोका-प्रस्तुत सूत्र में रोहितक नगरी में आचार्य सिद्धार्थ के पधारने का वर्णन किया गया Page #435 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ग - पंचम ] ( ३५७ ) [ निरयावलक है । वे आचार्य, भगवान पार्श्वनाथ के शिष्य केशी की तरह बहुश्रुत एवं विशाल शिष्य परिवार वाले थे । उनका आगमन नगर के मेघवर्ण उद्यान में हुआ। जैन साधु को बिना आज्ञा लिए किसी स्थान पर ठहरना निषिद्ध है । इसीलिए आचार्य श्री सिद्धार्थ उद्यान पालक की आज्ञा लेकर ही वहां ठहरते हैं ।॥ मूल - तएणं तस्स वीरंगतस्स कुमारस्स उप्पि पासायवरगतस्स महया जणसद्दं च जहा जमाली निग्गओ धम्मं सोच्चा जं नवरं देवाणुपिया ! अम्मापियरो आपुच्छामि, जहा जमाली तहेव निक्खतो जाव अणगारे जाए जाव गुत्तबंभयारी । तए णं से वीरंगए अणगारे सिद्धत्थाणं आयरियाणं अंतिए सामाइयमाइयाई एक्कारसअंगाई अहिज्जइ, अहिज्जित्ता बहूई जाव चउत्य जाव अप्पाणं भावेमाणे बहुपडिपुण्णाइं पणयालीसवासाई सामन्नपरियायं पाउणित्ता, दोमासियाए संलेहणाए अत्ताणं सित्ता, सवीस भत्तसयं अणसणाए छेदित्ता, आलोइयपडिक्कते समाहिपत्ते कालमासे कालं किच्चा बंभलोए कप्पे मणोरमे विमाणे देवत्ताए उववन्ने । तत्थणं अत्येगइयाणं देवाणं दस सागरोवमा ठिई पण्णत्ता । तत्थणं वीरंगस्स देवस्स वि दस सागरोवमा ठिई पण्णत्ता । से णं वीरंगए देव ताओ देवलगाओ आउक्खएणं जाव अनंतरं चयं चइत्ता इहेव बारवईए नयरीए बलदेवस्स रन्नो रेवईए देवीए कुच्छिसि पुत्तत्ताए उववन्ने । तणं सा रेवई देवी तंसि तारिसगंसि सयणिज्जंसि सुमिणदंसणं जाव aft पासायवर गए विहरइ । तं एवं खलु वरदत्त ! निसढेणं कुमारेणं अयमेयाख्वा ओराला मणुयइड्डी लद्धा - ३ । पभू णं भंते । निसढे कुमारे देवाणुप्पियाणं अंतिए जाव पव्वइत्तए ? हंता पभू । से एवं भंते ! इय बरदत्ते अणगारे जाव अप्पाणं भावेमाणे विहरइ ॥ १० ॥ Page #436 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरयावलिका] (३५८) [वर्ग-पंचम . - -- छाया-ततः खलु तस्य वीरंगतस्य कुमारस्य उपरिप्रासादवरगतस्य तं महाजनशब्दं च, यथा जमालिनिर्गतो धर्म श्रुत्वा यद् नवरं देवानुप्रियाः ? अम्बापितरौ आपृच्छामि यथा जमालिस्तथैव निष्क्रान्तो, यावद् अनगारो जातो यावद् गुप्तब्रह्मचारी। ततः खलु सः वीरंगतोऽनगारः सिद्धार्थनामाचार्याणामन्तिके सामायिकादीनि एकादशाङ्गानि अधीत्य बहूनि यावत् चतुर्थ० यावत् आत्मानं भावयन् बहुप्रतिपूर्णानि पञ्चचत्वारिंशद् वर्षाणि श्रामण्यपर्याय पालयित्वा द्वमासिक्या संलेखनया आत्मानं जोषित्वा सविशति भक्तशतमनशनेन छित्त्वा आलोचितप्रतिकान्तः समाधिप्राप्त. कालमासे कालं कृत्वा ब्रह्मलोके कल्पे मनोरमे विमाने देवतया उपपन्नः । तत्र खल अस्त्येकेषां देवामां दशसागरोपमा स्थितिः प्रज्ञप्ता। तत्र खलु वीरंगतस्य देवस्यापि दशसागरोपमा स्थिति प्रज्ञप्ता । स खलु वीर्रगतो देवस्तस्माद् देवलोकात् आयु-क्षयेण यावद् अनन्तरं चयं च्युत्वा इहैव द्वाराव यां नगर्या बलदेवस्य राज्ञो रेवत्या देव्याः कुक्षौ पुवतयोपपन्नः । ततः खलु सा रेवती देवो तस्मिन् तादृशे शयनोये स्वप्न- . वर्शनं यावद् उपरि प्रासादवरगतो विहरति । तदेवं खलु वरदत्त ! निषधेन कुमारेण इयमेतद्र पा उदारा मनुष्य ऋद्धिलब्धा ३। प्रभो खलु भदन्त ! निषधः कुमारो देवानुप्रियाणामन्तिके यावत् प्रवजितुम् ? हन्त प्रभुः, स एवं भदन्त ! २ इति वरदत्तोऽनगारो यावदात्मानं भावयन् विहरति ।।१०।। पदार्थान्वयः-तएणं तस्स वीरंगतस्स कुमारस्स-तदनन्तर उस वीरंगत कुमार ने, उप्पि पासाय-वरगतस्स-अपने राजमहल के ऊपर ही बैठे हुए, महया जणसइंच-जनता के महान् जय-घोषों आदि के शब्दों को सुना, जहा जमाली निग्गओ, धम्म सोच्चा णं नवरं-जमाली के समान वह वीरंगत कुमार भी प्राचार्य श्री सिद्धार्थ जी के दर्शनार्थ गया और उनसे धर्मोपदेश सुन कर, उन्हें वन्दना-नमस्कार कर निवेदन करने लगा, देवाणप्पिया! अम्मापियरो आपुच्छामिभगवन् ! मैं माता-पिता से पूछ कर आता हूं, जहा जमाली तहेव-जैसे जमाली प्रवजित हुआ था वैसे ही, निक्खंतो जाव अणगारे जाए-वह भी घर बार छोड़ कर और माता-पिता की अज्ञा लेकर उनके साथ आचार्य देव के पास आया और प्रवजित होकर अणगार (साधु), नाव गृत्तबंभयारी-और गुप्त ब्रह्मचारी बन गया, सिद्धस्थाणं आयरियाण तिए-और सिद्धार्थ आचार्य श्री के पावन सान्निध्य में रह कर, समाइयमाइयाइं इक्कारस अंगाई अहिज्जइ-वह सामायिक आदि ग्यारह अंग शास्त्रों का अध्ययन करता है, महिजित्ता-(और) अध्ययन करके बहिं जाव चउत्थ जाव अप्पाणं भावेमाणे-और अनेक वर्षों तक, चौला अठाई. दस बारह आदि व्रतों के द्वारा अपनी आत्मा को भावित करते हुए, बहुपरिपुण्णाई-परिपूर्ण, पणयालीस वासाईपैंतालीस वर्षों तक, सामण्ण परियागं पाउणिशा-श्रामण्य (साधुत्व) पर्याय का पालन करके, दोमासिए संलेहणाए-दो महीनों की संलेखना द्वारा, अत्ताणं झूसिता-अपनी आत्मा को शुद्ध करके. सीसं भास-एक सौ बीस भोजनों का, अणसणाए छहशा-अनशन (उपवास) तपस्या . द्वारा छेदन करके, आलोइयपडिक्कते-आलोचना एवं प्रतिक्रमण पूर्वक, समाहिपत्ते-समाधि पूर्वक, कालमासे कालं किच्चा-मृत्यु समय आने पर प्राणों का त्याग कर, बम्भलोए कप्पे-ब्रह्मलोक Page #437 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ग-पंचम] (३५९) (निरयावलिका नामक लोक के, मनोरमे विमाणे-मनोरम नाम के विमान में, देवताए उवागन्ने-देवता के रूप में उत्पन्न ह', तत्थ णं अत्थंगइयाणं देवाण-अनेक देवों की, दस सागरोनमाई ठिई पण्णत्तादस सागरोपम की स्थिति कही गई है, तत्थ णं नोरंगतस्स देवस्स गि-वहां पर वीरंगत नाम के देव की, भी दस सागरोन । ठिई पण्णत्ता-दस सागरोपम की स्थिति हुई। से णं वीरंगए देवे -जम्बू ! वह वीरंगत देव, ताओ देन लोगाओ-उस ब्रह्मलोक नामक देवलोक से, आउक्खए णं-देव-आयु के पूर्ण होने पर, जान अनन्तरं चय चइत्ता-वहां से च्यवन करके, बारमईए नयरीए-द्वारका नाम की नगरी में. बलदेवस्य रन्मो-राजा बलदेव को, रेनईए देवीए-महारानी रेवती की, कुच्छिसि-कोख से, पुत्तताए उननन्ने-पुत्र के रूप में उत्पन्न हुआ है, तएणं सा रेगती देवी-(उसकी उत्पत्ति से पूर्व) वह रेवती देवी, तंसि तारिसगं से सयणिज्जसि-राजरानी के योग्य सुखद शय्या पर (सोती हुई), सुमिणदसणं-स्वप्न में सिंह को देखती है, जान उप्पि पासायगर गए मिहरइ-यथा समय बालक का जन्म हुआ, क्रमशः उसने यौवन अवस्था प्राप्त की और बत्तीस राज-कन्याओं स उसका विवाह हुआ, तदनन्तर वह एक उत्तम राज-पहल के ऊपर रहने लगा और सुखद जीवन व्यतीत करता रहा। एनं खल वारदत्ता ! निसढेणं कुमारेणं-हे वरदत्त ! इस प्रकार उस निषध कुमार ने, अयमेयारूना ओराला मण य-इड्ढी लद्धा- इस प्रकार की अत्युत्तम मानवीय जीवन के योग्य समृद्धियां प्राप्त की थीं। पभू णं भते-(वरदत्त मुनि ने पुनः प्रश्न किया-) भगवन ! निसढे कमारे देवाण प्पियाणं अंतिए जान० पन्नाइत्तए-वह निषध कुमार क्या आप देवानुप्रिय के पास यावत् प्रवजित होने के लिये समर्थ है योग्य ? हं पभू-भगवान ने कहा-हां वरदत्त वह समर्थ है प्रवजित होगा ही से एवं भन्ते | इय वरदत्ते अणगारे जाग अप्पाणं भावेमाणे विहरइ-भगवन् ! (आप जो कहते हैं वह सत्य ही है) ऐसा कह कर वरदत्त अनगार अपनी आत्मा को तप-संयम से भावित करते हुए विचरने लगे॥१०।। मूलार्थ - तदनन्तर उस वीरंगत कुमार (वीरांगद) ने अपने राजमहल के ऊपर ही बैठे हुएजनता के महान् जयघोषों आदि के शब्दों को सुना, जमाली के समान वह वीरंगत कुमार भी आचार्य श्री के दर्शनार्थ गया और उनसे धर्मोपदेश सुनकर उन्हें वन्दना नमस्कार कर निवेदन करने लगा, भगवन् ! मैं माता-पिता से पूछ कर आता हूं, जैसे जमाली प्रवजित हुआ था वैसे ही वह भी घर-बार छोड़कर और माता-पिता की आज्ञा लेकर उनके साथ आचार्य देव के पास आया और प्रवजित होकर अणगार (साधु) और गुप्त ब्रह्मचारी बन गया तथा सिद्धार्थ आचार्य श्री के पावन सान्निध्य में रहकर वह सामायिक आदि ग्यारह अंग शास्त्रों का अध्ययन करता है (और) अध्ययन करके अनेक Page #438 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरयावलिका] (३६०) [वर्ग-पंचम वर्षों तक चौला उठाई, दस बारह आदि व्रतों के द्वारा अपनी आत्मा को भावित करते हुए पैंतालीस वर्षों तक श्रामण्य (साधुत्व) पर्याय का पालन करके दो महीनों की संलेखना द्वारा अपनी आत्मा को शुद्ध करके एक सौ बीस भोजनों का अनशन (उपवास) तपस्या द्वारा छेदन करके आलोचना एवं प्रतिक्रमण एवं समाधि-पूर्वक मृत्यु समय आने पर प्राण त्याग कर ब्रह्मलोक नामक देवलोक में मनोरम नाम के विमान मैं देवता के रूप में उत्पन्न हुआ। वहां अनेक देवों की दस सागरोपम की स्थिति कही गई है, अत: वहां पर वीरंगत नाम के देव की स्थिति दस भी सागरोपम की हुई। जम्बू ! वह वीरंगत देव उस ब्रह्मलोक नामक देवलोक से, देव-आय के पूर्ण होने पर वहां से च्यवन करके द्वारका नाम की नगरी में राजा बलदेव की महारानी रेवती देवी की कोख से पुत्र के रूप में उत्पन्न हुआ है (उसकी उत्पत्ति से पूर्व) वह रेवती देवी राजरानी के योग्य सुखद शय्या पर (सोती हुई) स्वप्न में सिंह को देखती है और यथासमय बालक का जन्म हुआ, कमश: उसने यौवन अवस्था प्राप्त की और बत्तीस राज-कन्याओं के साथ से उसका विवाह हुआ । तदनन्तर वह (एक उत्तम राजमहल के ऊपर रहने लगा) और सुखद जीवन व्यतीत करता रहा । हे वरदत्त ! इस प्रकार उस निषध कुमार ने इस प्रकार की अत्युत्तम मानवीय जीवन के योग्य समृद्धियां प्राप्त की थीं। (वरदत्त मुनि ने पुनः प्रश्न किया) भगवन् ! वह निषध कुमार क्या आप देवानुपिय के पास यावत् प्रवजित होने के लिये समर्थ है ? योग्य है ? भगवान ने कहा - हां वरदत्त । वह समर्थ है (प्रव्रजित होगा ही), भगवन् ! (आप कहते हैं वह सत्य ही है। ऐसा कह कर वरदत्त अनगार अपनी आत्मा को तप-संयम से भावित करते हुए विचरने लगे॥१०॥ टीका-प्रस्तुत प्रकरण में वीरंगत कुमार द्वारा धर्म उपदेश के श्रवणार्थ जा रही भीड़ के शोर वर्णन है, जिससे उस नगरी के लोगों की धर्म-प्रवृत्ति का पता चलता है । वोरंगत कुमार भी आचार्य श्री के उपदेश से साधु बन जाता है। साधु बनकर शास्त्रों का स्वाध्याय करता है । पैंतालीस वर्षों तक म पालन कर अन्तिम समय में दो मास की संलेखना द्वारा काल-धर्म को प्राप्त करता है। फिर देव रूप में जन्म लेता है । देव आयुष्य को पूरा कर राजा वलदेव की रानी रेवती के यहां पुत्र के रूप में उत्पन्न होता है ॥१०॥ Page #439 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ग-पंचम] (३६१) [निरयावलिका - मूल --तएणं अरहा अरिठ्ठनेमी अण्णया कयाइं वारवईओ नयरीओ जाव बहिया जणवयविहारं विहरइ । निसढे कुमारे समणोवासए जाए अभिगयजीवाजीवे जाव विहरइ। तएणं से निसढे कुमारे अण्णया कयाई जेणेव पोसहसाला तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता जाव दब्भसंथारोवगए विहर इ । तएणं निसढस्स कुमारस्स पवरत्तावरत्त० धम्मजागरियं जागरमाणस्स इमेयारूवे अज्झिथिए० धन्ना ण ते गामागर जाव संनिवेसा जत्थणं अरहा अरिठ्ठनेमी विहरइ। धन्ना णं ते राईसर जाव सत्थवाहप्पभईओ जेणं अरिमि वंदंति नमसंति जाव पज्जुवासंति, जइ णं अरहा अरिट्ठनेमी पुवाणुपवि० नंदणवणे विह रेज्जा तएणं अहं अरहं अरिट्ठनेमि वंदिज्जा जाव पज्जुवासिज्जा। तएणं अरहा अरिट्ठनेमो निसढस्स कुमारस्स अयमेयारूवं अज्झत्थियं जाव वियाणित्ता अट्ठारसहि समणसहस्सेहिं जाव नंदणवणे उज्जाणे समोसढे । परिसा निग्गया। ... तएणं निसढे कुमारे इमोसे कहाए लद्धठे समाणे हट्ठ चाउग्घंटेणं आसरहेणं निग्गए, जहा जमाली, जाव अम्मापियरो आपुच्छित्ता पव्वइए, अणगारे जाए जाव० गुत्तबंभयारी । तएणं से निसढे अणगारे अरहतो अरिठ्ठनेमिस्स तहारूवाणं थेराणं अंतिए सामाइयमायाई एक्कारस अंगाई अहिज्जइ अहिज्जित्ता बहूइं चउत्थछट्ठ जाव विचित्तेहिं तवोकम्मेहि अप्पाणं भावेमाणे बहुपडिपुण्णाई नव वासाइं सामण्णपरियागं पाउणइ, बायालीसं भत्ताई अणसणाए छेदेइ, आलोइयपडिक्कंते सामाहिपत्ते अणुपुत्वीए कालगए ॥११॥ , छाया-तता खलु अर्हन् अरिष्टनेमिरन्यदा कदाचित् द्वारावत्यां नगर्या यावत् बहिर्जनपदविहारं विहरति । निषधः कुमारः श्रमणोपासको जातः, अभिगतजीवाजीवो यावद् विहरति । ततः Page #440 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरयावलिका] (३६२) [वर्ग-पंचम खल स निधः कुपारः अन्यदा कदाचित् यत्रैव पौषधशाला तवैवोपागच्छति, उपागत्य यावद् दर्भसंस्तारोपगतो विहरति । ततः खलु तस्य निषधस्य कुमारस्य पूर्वरात्रापररात्रकाले धर्मजागरिकां जाग्रतोऽयमेतद्र पः आध्यात्मिकः- धन्याः खलु ते गामार यावत् सन्निवेशाः, यत्र खल अर्हन अरिष्टनेपिहिरति, धन्याः खल ते राजेश्वर यावत सार्थवाहप्रभतिकाः, ये खल अरिष्टनेमि वन्दन्ते नमस्यन्ति यावत्० पर्युपासते, यदि खलु अर्हन् अरिष्टनेमिः पूर्वानुपूर्वी० नन्दनवने विहरेत् ततः खलु अहमहन्तमरिष्टनेमि वन्देय नमस्येयं यावत् पर्युपास य । ततः खलु अहन् अरिष्टनेमिः निषधस्य कुमारस्य इममेतद्र पमाध्यात्मिकं यावद् विज्ञाय अष्टादशभिः श्रमणसहस्रयावद् नन्दनवने उद्याने समवसृत , परिषद् निर्गता । ततः खलु निषधः कुमारः अस्या कथाया लब्धाथः सन् हृष्ट० चातुघण्टेन अश्वरथेन यावद् निर्गतः यया जमालिः यावद् अम्बापितरौ अपृच्छय प्रवजितः, अनगारो जातो यावद् गुप्तब्रह्मचारी। ततः खलु स निषधोऽनगार. अहंतोरिष्टनेमेस्तथारूपाणां स्थविराणामन्तिके सामायिकादीनि एकादशाङ्गानि अधोते, अधीय बहूनि चतुर्थ षष्ठ यावद् तपःकर्मभिरात्मानं भावयन् बहुप्रतिपूर्णानि नव वर्षाणि श्रामण्यपर्यायं पालयति, चत्वारिंशद् भक्तानि अनशनन छिनत्ति, आलोचितप्रतिक्रान्त: समाधिप्राप्तः आनपूा कालगतः ।।११।। पदार्थान्वयः-तएण अरहा अरिटूनेमी-तदनन्तर किसी समय अरिहन्त प्रभु श्री अरिष्टनेमी जी, अण्णया कयाइं-एक बार. वारवईओ नयरीओ जाव बहिया-द्वारका नगरी से बाहर, जणवयविहारं विहरइ-अनेक प्रदेशों में विचरण करने लगे। निसढे कुमारे समणावासए जाएनिषध कुमार श्रमणोपासक बन कर, अभिगयजीवावीवे- जीव-अजीव आदि तत्त्वों को जान कर, जाव विहरई-विचरते रहते थे, सएण से निसढे कुमारे-तदनन्तर श्रमणोपासक निषध कुमार, अण्णया कयाई-एक समय, जेणेव पोसहसाला-जहां पर पौषधशाला थी, तेणेव उवागच्छइ-वहीं पर आता है, उवागच्छित्ता-और वहां प्राकर, जव दम्भसंथारोवगए विहरइ-कुशा के आसन पर बैठकर (धर्मध्यान करते हुए) समय व्यतीत करने लगे, तएणं निसढस्स कुमारस्स-तदनन्तर निषध कुमार, पुवरत्तावरत्त० धम्म-जागग्यिं जागरमाणस्स-रात्रि के अन्तिम प्रहर में धर्मजागरण करके जागते हुए, इमेयारूवे अज्झस्थिए-इस प्रकार का धार्मिक संकल्प (उसके मन में) उत्पन्न हुआ कि, धन्ना णं ते गामागर जाव संनिवेसा-वे ग्रामों, आकरों एवं संनिवेशों के निवासी धन्य हैं, जत्थणं अरहा अरिट्ठनेमी विहर इ- जहां पर अरिहन्त प्रभु अरिष्टनेमी विचरण कर रहे हैं, धन्ना ण ते राईसर जाव सत्थवाहप्पभईओ जे णं अरिठ्ठनेमि वंदति नमसंति-धन्य हैं वे राजा ईश्वर एवं सार्थवाह आदि जो भगवान् श्री अरिष्टनेमी जी को वन्दना नमस्कार करते हैं, जाव पज्जुवासंति-और उनकी सेवा-भक्ति करते हैं, जइ गं अरहा अरिठ्ठनेमी पुव्वाणपुवि० नंदणवंणे विहरेज्जा-यदि अरिहन्त प्रभु अरिष्टनेमी जी ग्रामानुग्राम विहरण करते हुए द्वारका नगरी के नन्दन वन में आकर विहरण करें, तएणं अहं अरहं अरिठ्नेमि वंविज्जा जाव पज्जुवासिज्जा-तब Page #441 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ग - पंचम ] मैं भी भगवान श्री अरिष्टनेमी जी को नमस्कार कर उनकी सेवा करूं, तरणं अरहा अरिट्ठमी- तदनन्तर अरिहन्त प्रभु श्री अरिष्टनेमी जी, निसदस्स कुमारस्स अयमेयारूवं अज्झत्थियं जाव वियाणित्ता - उस निषध कुमार के अन्तःकरण में उठे आध्यात्मिक भाव को जा कर, अट्ठारसह समणसहस्सेहि- अठारह हजार श्रमणों के साथ, जाव नंदनवणे उज्जाणे समोसढेउस नन्दन वन उद्यान में पधारे, परिसा निग्गया - श्रद्धालु श्रावक उनके दर्शनों एवं प्रवचनों को सुनने के लिये अपने-अपने घरों से निकल पड़े । ( ३६३ ) ( निरयावल का तणं निसढे कुमारे इमीसे कहाए लद्धट्ठे समाणे - निषध कुमार भगवान के आगमन की सूचना प्राप्त करते ही, हट्ठ० - अत्यन्त प्रसन्न हो गए, चाउरघण्टेणं आस रहेणं निग्गए - (और) बे भी) चार घण्टों वाले अश्व रथ पर चढ़कर भगवान सान्निध्य में पहुंचने के लिये महल से निकल पड़े, जहा जमाली-ठीक वैसे ही जैसे जमाली घर से निकले जाव अम्मापियरो पुच्छिता - और वे भी माता-पिता से पूछ कर ( उनकी आज्ञा लेकर ), गए, अणगारे जाए जाव गुत्तबभयारो - और वे गुप्त ब्रह्मचारी बन गए । थे, पव्व इए - प्रव्रजित हो तणं - तदनन्तर से निसढे अणगारे - वे अणगार निषेध कुमार, अरहतो अरिट्ठनेपिस्य तहारूवाणं थेराणं अतिए - अर्हत श्री अरिष्टने मी जी के तथा रूप स्थविरों के पास, सामाइयमाइया एक्कारस अंगाई अहिज्जइ - ( रहते हुए उनसे ) सामायिक आदि ग्यारह अंग शास्त्रों का अध्ययन करते हैं, (और), अहिज्जित्ता - अध्ययन करके, बहूई चउत्थछट्ठ जाव विचित्रोहि तवोकम्मेहि अप्पाणं भावेमाणे- बहुत प्रकार के चतुर्थ भक्त षष्ठ भक्त आदि विचित्र (अद्वितीय) तप रूप कर्मों द्वारा अपनी आत्मा को भावित करते हुए, बहपडिपुण्णाइं नव वासाई - परिपूर्ण नौ वर्षों तक, सामण्णपरियागं पाउणइ - श्रामण्य ( साधुत्व ) पर्याय का पालन करते हैं, (श्रौर अब वे ), बायालीस भत्ताइं अणसणाए छेदेइ - बयालीस भक्तों (भोजनों) का उपवास तपस्या द्वारा छेदन कर देते हैं, आलोइयपडिक्कते - पापस्थानों की आलोचना एवं प्रतिक्रमण करते हैं, (और) समाहिपत्ते - समाधि पूर्वक, आणुपुच्चीए कालगए - क्रमशः मृत्यु को प्राप्त हुए ||११| मूलार्थ तदनन्तर किसी समय अरिहन्त प्रभु श्री अरिष्टनेमी जी एक बार द्वारका नगरी से बाहर अनेक प्रदेशों में विचरण करने लगे उस समय निषध कुमार श्रमणोपासक बन कर जीव-अजीव आदि तत्त्वों को जान कर विचरते रहते थे। तदनन्तर श्रमणोपासक निषध कुमार एक समय जहां पर पौषधशाला थी, वहीं पर आते हैं और वहां आकर कुश के आसन पर बैठकर ( धर्म - ध्यान करते हुए) समय व्यतीत करने लगे । तदनन्तर निषेध कुमार के मन में रात्रि के अन्तिम प्रहर में धर्म- जागरण करके जागते हुए इस प्रकार का धार्मिक संकल्प उत्पन्न हुआ, कि वे ग्रामों, आकरों एवं संनिवेशों Page #442 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरयावलिका । (३६४ ) | वर्ग- पंचम के निवासी धन्य हैं जहां पर अरिहन्त प्रभु श्री अरिष्टनेमी विचरण करते हैं धन्य है वे राजा ईश्वर एवं सार्थवाह आदि, जो भगवान श्री अरिष्टनेमी जी को वन्दनानमस्कार करते हैं और उनको सेवा-भक्ति करते हैं । यदि अरिहंत प्रभु अष्टमी जी ग्रामानुग्राम विहरण करते हुए द्वारका नगरी के नन्दन वन में आकर विहरण करें, तब मैं भी भगवान श्री अरिष्टनेमी जी को नमस्कार कर उनकी सेवा करूं । तदनन्तर अरिहंत प्रभु श्री अरिष्टनेमी जी उस निषध कुमार के अन्तःकरण में उठे आध्यात्मिक भाव को जान कर अठारह हजार श्रमणों के साथ उस नन्दन वन उद्यान में पधारे, श्रद्धालु श्रावक उनके दर्शनों एवं प्रवचनों को सुनने के लिये अपने-अपने .. घरों से निकल पड़े | निषेध कुमार भगवान के आगमन की सूचना प्राप्त करते ही प्रसन्न हो गए, ( और वे भी ) चार घण्टों वाले अश्व रथं पर चढ़ कर भगवान के सान्निध्य पहुंचने के लिये महल से निकल पड़े, ठीक वैसे हो जैसे जमाली घर से निकले थे, और वे भी माता-पिता से पूछ कर (उनकी आज्ञा लेकर ) प्रव्रजित हो गए और वे गुप्त ब्रह्मचारो बन गए । तदनन्तर वे अणगार निषध कुमार अहंत श्री अरिष्टनेमी जी के तथारूप स्थविरों के पास (रहते हुए उनसे ) सामायिक आदि ग्यारह अंग शास्त्रों का अध्ययन करते हैं (और) अध्ययन करके बहुत प्रकार के चतुर्थ भक्त, षष्ठ भक्त आदि विचित्र (अद्वितीय) तप-रूप कर्मों द्वारा अपनी आत्मा को भावित करते हुए परिपूर्ण नौ वर्षों तक श्रामण्य-[साधुत्व] पर्याय का पालन करते हैं [ और अब वे ] बयालीस भक्तों [भोजनों] का उपवास तपस्या द्वारा छेदन कर देते हैं, पाप स्थानों की आलोचना एवं प्रतिक्रमण करते हैं, और वे समाधि-पूर्वक क्रमशः मृत्यु को प्राप्त हुए ॥। ११॥ मूल--तएण से वरदत्ते अणगारे निसढं अणगारं कालगतं जाणित्ता जेणेव अरहा अरिट्ठनेमी तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता जाव एवं arrer एवं खलु देवाप्पियाणं अंतेवासी निसढे नामं अणगारे पंगइ Page #443 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ग - पंचम् ] ( ३६५ ) [ निरयावलिका भंहए जात्र विणीए से णं भंते! निसढे अणगारे कालमासे कालं किच्चा कहि गए ? कहि उववन्ने ? वरदत्ताइ ! अरहा अरिट्ठनेमी वरदत्तं अणगारं एवं वयासी - एवं खलु वरदत्ता । ममं अंतेवासी निसढे नाम अणगारे पगइ भद्दे जाव विणीए ममं तहारूवाणं थेराणं अंतिए सामाइयमाइयाई एक्कारम अंगाई अहिज्जित्ता बहुपडिपुण्णाई नववासाइं सामण्णपरियागं पाउणित्ता बायालीसं भत्ताइं अणसणाए छेदेत्ता आलोइयपडिक्कते सामाहिपत्ते कालमासे कालं किच्चा उड्डं चदिमसूरियगहनक्खत्ततारारूवाणं सोहम्मोसाणं जाव अच्चते तिष्णिय अट्ठारसुत्तरे गेविज्जविमाणावाससए वोहवयित्ता सव्वट्ठसिद्ध विमाणे देवत्ताए उववण्णं । तत्थ णं देवाणं तेत्तीसं सागरोवमा ठिई पण्णत्ता । तत्थ णं निसढस्स वि देवस्स तेत्तीस सागरोवमाइ ठिई पण्णत्ता ॥ १२॥ - छाया - ततः खलु स वरदत्तोऽनगारो निषधमनगारं कालगतं ज्ञात्वा यत्रेव अर्हन् अरिष्टमिस्तत्रैवोपागच्छति, उपागत्य यावद् एवमवादीत् - एवं खल देवानुप्रियाणामन्तेवासी निषधो नाम अनगारः प्रकृतिभद्रको यावद् विनीतः । स खल भदन्त ! निषधोऽनगारः कालमासे कालं कृत्वा क्व गतः ? क्व उपपन्नः ? वरदत्त ! इति अर्हन् अरिष्टनेमि वरदत्तमनगारमेववादीत् - एवं खलु वरदत्त ! ममान्तेवासी निषधो नाम अनगारः प्रकृतिभद्रो यावद् विनीतो मम तथारूपाणां स्थविराणामन्तिके सामायिकादीनि एकादशाङ्गानि अधीत्य बहुप्रतिपूर्णानि नव वर्षाणि श्रामण्यपर्यायं पालयित्वा द्विचत्वारिंशद् भक्तानि अनशनेन छित्वा आलोचितप्रतिक्रान्तः समाधिप्राप्तः कालमासे कालं कृत्वा ऊर्ध्व चन्द्र-सूर्य ग्रह-नक्षत्र - तारारूपाणां सौधर्मेशान० यावद् अच्युतं त्रीणि च अष्टादशोत्तराणि गैवेयकविमानावासशतानि व्यतिवर्त्य सर्वार्थसिद्धविमाने देवत्वेनोपपन्नः । तत्र खलु देवानां वयस्त्रशत् सागरोपमा स्थितिः प्रज्ञप्ता । तत्र खलु निषधस्यापि देवस्य वयस्वशत् सागरोपमानि स्थिति । प्रज्ञप्ता ।।१२।। पदार्थान्वयः - तएण से वरदत्ते अनगारे - तदनन्तर अनगार वरदत्त, निसढं अणगारं कालगतं जाणता - निषध अनगार को कालगत हुआ जानकर, जेणेव अरहा अरिनेमी - जहाँ पर अर्हत् भगवान् अरिष्टनेमी विराजमान थे, तेणेव उवागच्छइ वहीं पर आते हैं, उवागच्छित्ता - वहां Page #444 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरयावलिका] (३६६ ) [वर्ग-पंचम आकर, जाव एवं वयासी-हाथ जोड़कर इस प्रकार निवेदन किया, एवं खलु देवाणुप्पियाणं अतेवासी निसढे नाम अणगारे-भगवन् ! आपके प्रिय शिष्य निषध अनगार, पगइमद्दए-जो कि प्रकृति से अत्यन्त भद्र थे, जाव विणीए-और जो अत्यन्त विनीत थे, से णं भन्ते.! निसधे अणगारे-भगवन वे निषध अनगार, कालमासे कालं किच्चा कहिं गए-वे कालमास में काल करके कहां गए?, कहिं उववन्ने -कहां उत्पन्न हुए हैं ?, वरदत्तइ ! अरहा अरिठ्ठनेमी वरदत्तं अणगारं एवं वयासी एवं खलु वरदत्त-भगवान् अरिष्टनेमी जी ने "वरदत्त" यह सम्बोधन कर उससे कहा-आयुष्मन् वरदत्त, ममं अंतेवासी निसढे माम अणगारे पगइभद्दे-प्रकृति से भद्र मेरे प्रिय शिष्य निषध कुमार, जाव विण ए-जो कि अत्यन्त विनीत थे, ममं तहा रूवाणं थेराणं अन्तिए-मेरे तथारूप स्थविर सन्तों के, सामाइय माइयाइ एक्कारस अंगाई अहिज्जित्ता-सामायिक आदि ग्यारह अंगों का अध्ययन करके, बहुपडिपुण्णाई-प्रतिपूर्ण, नववासाई-नौ वर्षों तक, सामण्णपरियागं पाउणित्ता बायालीसं पाउणित्ता-श्रामण्य पर्याय (साधुत्व) पालन करके, बायालीसं .. भताई अणसणाए छेदेत्ता-बयालीस भक्तों (प्रातः-सायं के भोजनों) का उपवास व्रत द्वारा छेदन करके, आलोइय पडिक्कते-पाप स्थानों की आलोचना एवं प्रतिक्रमण करते हुए, समाहिपत्तेसमाधि पूर्वक, कालमासे कालं किच्चा-मृत्यु का समय आने पर प्राणों को त्याग कर, उड्ढं चंदिम-सरिय-गह-नक्खत्त तारारूवाणं-ऊर्ध्व लोक में चन्द्र-सूर्य ग्रह नक्षत्र एवं तारा रूप ज्योतिष्क देव विमानों, सोहम्मीसाणं जाव अच्चुते - सौधर्म ईशान आदि अच्युत देवलोकों का, तिणि य अट्ठारसुत्तरे गेविज्जविमाणावासए वीहवयित्ता-तथा तीन सौ अठारह अवेयक विमानों का अतिक्रमण करके, सट्ठ-सिद्ध-विमाणे-सर्वार्थ-सिद्ध विमान में, देवत्ताए उबवणे-देवता के रूप में उत्पन्न हुआ है, तत्थ णं देवाणं तेत्तीस सागरोवमा ठिई पण्णत्ता-वहां पर उत्पन्न देवों की तेंतीस सागरोपम की स्थिति कही गई है, (अतः निषध देव की भी वहां पर तेंतीस सागरोपम की स्थिति है)॥१२॥ मूलार्थ- तदनन्तर वरदत्त अनगार, निषध अनगार को कालगत हुआ जान कर जहाँ पर अर्हत् भगवान अरिष्टनेमी विराजमान थे, वहीं पर आते हैं. वहां आकर (उन्होंने) हाथ जोड़ कर इस प्रकार निवेदन किया-भगवन् ! आपके प्रिय शिष्य निषध अनगार जो कि प्रकृति से अत्यन्त भद्र थे और जो अत्यन्त विनीत थे । भगवन वे निषध अनगार काल मास में काल करके कहां गए हैं ? कहां उत्पन्न हुए हैं ? भगवान् अरिष्टनेमी जी ने "वरदत्त" यह सम्बोधन कर उससे कहा-प्रकृति से भद्र मेरे प्रिय शिष्य निषध कुमार जो कि अत्यन्त विनीत थे, मेरे तथारूप स्थविर सन्तों से सामायिक आदि ग्यारह . अंगों का अध्ययन करके नौ वर्षों तक शमण्य - पर्याय (साधुत्व) का पालन करके Page #445 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ग-पंचम ) (३६७) [निरयावलिका बयालीस भक्तों (प्रात:-सायं के भोजनों) का उपवास व्रत द्वारा छेदन करके पाप-स्थानों को आलोचना एवं प्रतिक्रमण करते हुए, समाधि-पूर्वक मृत्यु का समय आने पर प्राणों को त्याग कर ऊर्ध्व लोक में चन्द्र-सूर्य-ग्रह-नक्षत्र एवं तारा रूप ज्योतिष्क देव विमानों सौधर्म ईशान आदि अच्यत देवलोकों तथा तीन सौ अठारह बेयक विमानों का अतिक्रमण करके सर्वार्थ सिद्ध विमान में देवता के रूप में उत्पन्न हुआ है। वहां पर उत्पन्न देवों की तेंतीस सागरोपम की स्थिति कही गई है (अतः निषध देव की भा वहां पर तेंतीस सागरोपम की स्थिति है)। १२।। ____टीका-निषध कुमार अनेक वर्षों तक श्रावक-धर्म का पालन करता है फिर माता-पिता की आज्ञा से भगवान अरिष्टनेमि से प्रवज्या ग्रहण करता है । अन्तिम समय में समाधि-मरण धारण करता है। भगवान अरिष्टनेमि उसके सर्वार्थ सिद्ध नमक देव-लोक में पैदा होने को भविष्य-वाणी करते हैं, जहां उनकी आयु ३३ सागरोपम है ।।१२।। .. मूल-से गं भंते ! निसढे देवे ताओ देवलोगाओ आउक्खएणं भवक्खएणं ठिइक्खएणं अणंतरं चयं चइत्ता कहिं गच्छिहिइ ? कहिं उववज्जिहि ? वरदत्ता ! इहेव जंबूद्दीवे दो महाविदेहे वासे उन्नाए नयरे 'विसुद्धपिइवंसे रायकुले पुत्तत्ताए पच्चायाहिइ, तएण से उम्मुक्कबालभावे विण्णयपरिणय मित्ते जोवणगमणुप्पत्ते तहारूवाणं थेराणं अंतिए केवलबोहिं बज्झिहिइ, बुज्झित्ता अगाराओ अणगारियं पव्वज्जि हिइ । से णं तत्थ अणगारे भविस्सइ इरियासमिए जाव गुत्तबंभयारी। से णं तत्थ बहुइं चउत्थ-छट्ठट्ठम-दसम दुवालसहि मासद्ध मासखमणेहि विचितेहिं तवोकम्मेहि अप्पाणं भावमाणे बहूई वासाइं सामण्णपरियागं पाउणिस्सइ, पाउणित्ता मासियाए संलेहणाए अत्ताणं झूसिहिइ, झूसित्ता सठि भताई अणसणाए छेदिहिइ । जस्सट्टाए कोरइ णग्गभावे मुंडभावे अण्हाणए जाव अदंतवणए अच्छत्तए अणीवाहणए फलहसेज्जा कट्ठ Page #446 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरयावलिका ] ( ३६८) [वर्ग-पंचम सेज्जा केसलोए बंभचेरवासे परघरपवे से पिंडवाओ लद्धावल द्धे उच्चावया य गामकंटया अहियासिज्जइ, तमट्ठ आराहिइ, आराहित्ता, चरिमेहिं उस्सासनिस्सासेहि सिज्झिहिइ बुज्झिहिइ जाव सव्वदुक्खाणं अंतं काहिइ। __ एवं खलु जंबू ! समणेणं भगवया महावीरेणं जाव सपत्तेणं जाव निक्खेवओ ॥१३॥ पढम अज्झयणं समत्तं ॥१॥ छाया-स खलु भदन्त ! निषधो देवस्तस्माद् देवलोकाद् आयु-क्षयेण भवभयेण स्थितिक्षयेण अनन्तरं चयं च्यत्वा क्व गमिष्यति ? क्व उपपत्स्यते ? वरदत्त ! इहैव जम्बूद्वीपे द्वीपे महाविदेहे वर्षे उन्नाते नगरे विशद्धपितवंशे राजकुले पुत्रतया प्रत्यायास्यति । ततः खलु स उन्मुक्तबालभावः विज्ञातपरिणतमात्रः यौवनक्रममनप्राप्तः तथारूपाणां स्थविराणामन्तिके केवलबोधि बद्ध्वा अगाराद् अनगारतां प्रवजिष्यति । स खलु तत्राऽनगारो भविष्यति, ईर्यापमितो यावद् गुप्तब्रह्मचारी। स खल तत्र बहूनि चतुर्थषष्ठाष्टम-दशमद्वादशैर्मासार्द्धमासक्षपणैः विचित्रैः तपःकर्मभिरात्मानं भावयन् बहूनि वर्षाणि श्रामण्यपर्यायं पालयिष्यति, पालयित्वा मासिक्या संलेखनया आत्मानं जोषयिष्यति, जोषयि वा षष्ठि भक्तानि अनशनेन छेत्स्यति । यस्यार्थः क्रियते नग्नभावो, मुण्डभावो, अस्नानको, यावद् अदन्तवर्णकः, अच्छत्रकः, अनुपानत्कः, फलकशय्या, काष्ठशय्या, केशलोचो ब्रह्मचर्यवास., परगृहप्रवेशः, पिण्डपातः, लग्धापलब्धः, उच्चावचाश्च ग्रामकण्टका अध्यास्यन्ते, तमर्थमाराधयिष्यति, आराध्य चरमैरुच्छ्वासः -नि:श्वासः सेत्स्यति भोसेत्स्यति, यावत् सर्वदुःखानामन्तं करिष्यति । एवं खलु जम्बू ! श्रमणेन भगवता महावीरेण यावत्संप्राप्तेन यावत् निक्षेपकः ।।१३।। . || प्रथममध्ययनं समाप्तम् ।। १॥ पदार्थान्वयः-से णं भन्ते निसढे देवे-तदनन्तर अनगार वरदत्त ने पुन: प्रश्न किया कि भगवन!, निसढे देवे ताओ देवलोगाओ-वह निषध देव उस देवलोक में, आउक्खएणं भवक्खएणं डिक्खएणं-निषध देव आय-क्षय, भव-क्षय और स्थिति-क्षय होने के पश्चात, अणंतरं चयं च इत्ता कहिं गच्छिहिइ ?-वहां से च्यवन करके कहां जाएगा?, कहिं उववज्जिहिइ-कहां उत्पन्न होगा। वरदत्त-(भगवान अरिष्टनेमि जी ने कहा-) वरदत्त !, इहेव जम्बूद्दीवे दोवे महाविदेहेवासे उन्नाए नयरे-वह इसी जम्बूद्वीप नामक द्वीप के विदेहक्षेत्र के उन्नति (उन्नाक) नामक नगर में, विसुद्धपिइवंसे-विशुद्ध-पितृ-वंश में, रायकुले पुत्ताए पच्चायाहिइ–एक राज कुल में पुत्र के रूप में लौटेगा (उत्पन्न होगा), तएणं से उम्मुक्कबालभावे-तब वह बाल्यवस्था बीत जाने Page #447 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ग - चतुर्थ ] पर, विण्णय- परिणमित्रो - समझदार होकर, जोव्वणगमणुपपत्ते - युवावस्था को प्राप्त होकर तहारूवाणं थेराणं अन्तिए - तथा रूप स्थविरों द्वारा, केवलबोहि बुज्झिहिह - केवल बोधि अर्थात् सम्यक् ज्ञान का ज्ञाता बनेगा, बुज्झित्ता - ज्ञान प्राप्त करके, अगाराओ अणगारयं पव्वज्जहिगृहस्थ जीवन को छोड़कर अनगार जीवन स्वीकार करेगा, से णं तत्थ अणगारे भविस्सइ - जब वह अनगार बन जाएगा तो, इरियासमिए जाव गुत्तबंभयारी - ईर्यासमिति आदि का पालन करते हुए पूर्ण ब्रह्मचारी बन जाएगा, से ण तत्थ बहूइं चउत्थ छट्ठट्ठम-दसमवदालसेहि- -तब वह वहां पर चतुर्थ, षष्ठम, दशम द्वादश आदि उपवासों द्वारा मासद्धमासख मह - मासार्थं एवं मासखमण रूप, विचितहि तवो कम्मेहि-विचित्र (अद्वितीय) तपस्याओं द्वारा, अप्पानं भावेमाणेअपनी आत्मा को भावित करते हुए, बहूई वासाई -बहुत वर्षों तक, सामण्ण-परियाग पाउस्सिइ - श्रमण - पर्याय का पालन करेगा, पाउणित्ता मासियाए संलेहणाए अत्ताणं - श्रमण-पर्याय का पालन करके वह एक मास की संलेखना द्वारा अपनी आत्मा को शुद्ध करेगा, झूसिहिइ झूसित्ता सठि भत्ताइं अणसणाए छेदिहिइ - अपनी आत्म-शुद्धि करके ( साठ समयों के ) भोजनों का उपवास तपस्या द्वारा छेदन करेगा, जस्सट्ठाए कीरइ - वह जिस मोक्ष रूप प्रयोजन की सिद्धि के लिये अनगार साधु, जग्गभावे - नग्न भाव (नग्नता), मुंडभावे - द्रव्य भाव से मुण्डित होगा, अण्हाणए - स्नान न करना, जाव अदंतवणाए - अंगुली अथवा दातुन आदि सेदान्तों को साफ करना, अच्छराए - छत्र धारण न करना, अणोवाहणए – जूते चप्पल आदि का त्याग करना, फलहसेज्जा-पाट पर सोना, कट्ठसेज्जा - काष्ठ-तृण आदि पर शयन करना, केसलोए - केशलोच, बंभचेरवासे - ब्रह्मचर्य व्रत का पूर्ण रूप से पालन करना, परधरपवेसे- दूसरों के घरों में भिक्षार्थ प्रवेश करना, पिंडवाओ - यथा प्राप्त भिक्षा से निर्वाह करना, लद्धावलद्धेलाभ-लाभ में समता रखना, उच्चावया य गामकंटया अहिया सिज्जइ - ऊंच नीच अर्थात् अच्छे या. बुरे शब्दों द्वारा होनेवाले ग्राम कंटकों अर्थात् अनजान ग्रामीणों के द्वारा दिये जानेवाले कष्टों को सहन करना, तमट्ठे आराहिइ - इत्यादि नियमों की आराधना करेगा, आराहित्ता - आराधना करके, चरिमेहि उस्सास - निस्सासहि- अन्तिम श्वास-प्रश्वासों में अर्थात् जीवन के अन्तिम क्षणों में वह, सिज्झिहिइ बुज्झिहिइ - सिद्ध-बुद्ध हो जाएगा, जाव सव्वक्खाणं अतं काहिइ-जीवनमरण सम्बन्धी सभी दुःखों का वह अन्त कर देगा । ( ३६ ) [ निरयावलिका - एवं खलु जम्बू - ( सुधर्मा स्वामी कहते हैं) वत्स जम्बू !, समणेण भगवया महावीरेणंश्रमण भगवान महावीर स्वामी जी ने, जव संपत्तेणं - जो मुक्त हो चुके हैं उन्होंने, जाव निक्लेव ओ० - वृष्णिदशा नामक इस प्रथम अध्ययन का उपर्युक्त भाव फरमाया है || १३|| मूलार्थ - तदनन्तर अनगार वरदत्त ने पुन: प्रश्न किया कि भगवन् ! वह निषेध देव उस देवलोक से आयुक्षय, भवक्षय और स्थिति-क्षय होने के पश्चात् Page #448 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरयावलिका) (३७०) [वर्ग-पंचम वहां से च्यवन करके कहां जाएगा? कहां उत्पन्न होगा ? (भगवान अरिष्टनेमि जी ने कहा-) वह इसी जम्बूद्वीप नामक द्वीप के महाविदेह क्षेत्र के उन्नात (उन्नाक) नामक नगर में विशुद्ध पितृ-वश में एक राज-कुल में पुत्र के रूप में लौटेगा (उत्पन्न होगा), तब वह बाल्यावस्था बीत जाने पर समझदार होकर युवावस्था को प्राप्त होकर तथा रूप स्थविरों द्वारा केवल-बोधि अर्थात् सम्यक् ज्ञान का ज्ञाता बनेगा । ज्ञान प्राप्त करके गृहस्थ जीवन को छोड़ कर यह अनगार जीवन स्वीकार करेगा, जब वह अनगार बन जायेगा तो ईर्या-समिति आदि का पालन करते हुए पूर्ण ब्रह्मचारी बन जाएगा। तब वह वहां पर चतुर्थ षष्ठम, दशम, द्वादश आदि उपवासों द्वारा मासार्ध एवं मासखमण रूप विचित्र (अद्वितीय) तपस्याओं द्वारा अपनी आत्मा को भावित करते हुए बहुत वर्षों तक श्रमण-पर्याय का पालन करेगा, श्रमणपर्याय का पालन करके वह एक मास की संलेखना द्वारा अपनी आत्मा को शुद्ध करेगा, अपनी आत्म-शुद्धि करके (साठ समयों के) भोजनों का उपवास तपस्या द्वारा छेदन करेगा, जिस मोक्ष रूप प्रयोजन की सिद्धि के लिये अनगार साधु नग्न • भाव (नग्नता) द्रव्य भाव से मुण्डित होना, स्नान न करना, अंगुली अथवा दातुन आदि से दान्तों को साफ करना, छत्र धारण न करना, जूते चप्पल आदि का त्याग करना, पाट पर सोना, काष्ठ-तृण आदि पर शयन करना, केशलोच, ब्रह्मचर्य व्रत का पूर्ण रूप से पालन करना; दूसरों के घरों में भिक्षार्थ प्रवेश करना, तथा प्राप्त भिक्षा मात्र से निर्वाह करना, लाभ-अलाभ में समता रखना, ऊच नीच अर्थात् अच्छे या बुरे शब्दों द्वारा होने वाले ग्राम-कंटकों अर्थात् अनजान ग्रामीणों के द्वारा दिये जानेवाले कष्टों को सहन करना इत्यादि नियमों की आराधना करेगा, आराधना करके अन्तिम श्वास-प्रश्वासों में अर्थात् जीबन के अन्तिम क्षणों में वह सिद्ध-बुद्ध हो जाएगा, और जीवन-मरण सम्बन्धी सभी दु:खों का अन्त कर देगा। __(सुधर्मा स्वामी कहते हैं-) वत्स जम्बू ! श्रमण भगवान महावीर स्वामी जी ने जो मुक्त हो चुके हैं. उन्होंने वृष्णिदशा नामक इस प्रथम अध्ययन का उपर्युक्त भाव फरमाया है ॥१३॥ Page #449 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ग-पंचम (३७१) [निरयावलिका मूल-एवं सेसा वि एक्कारस अज्झयणा नेयव्वा संगहणीमणुसारेण, अहोणमइरित्त एक्कारसस वि । तिबेमि ॥१४॥ ॥बारस अज्झयणा समत्ता ॥ ॥ वह्निदसा नामं पंचमो वग्गो समत्तो ॥ ५॥ ॥ निरयावलिका सुयक्खंधो समत्तो ॥ ॥समत्ताणि उवंगाणि ॥ १४ ॥ छाया-एवं शेषाण्यपि एकावशाध्ययनानि ज्ञेयानि संग्रहण्यनुसारेण, अहीनाऽतिरिक्तम् एकादशस्वपि । इति ब्रवीमि ।। ३ ।। ॥ द्वादशाध्ययनानि समाप्तानि ॥ १४ ॥ ॥ वृष्णिदशानामा पञ्चमोवर्गः समाप्तः ॥ ५॥ ॥निरयावलिकाश्रुतस्कन्धः समाप्तः ।। ॥समाप्तानि उपाङ्गानि ।। पदार्थान्वयः-एवं सेसा वि एक्कारस अज्झयणा नेयम्वा-इसी प्रकार शेष ग्यारह अध्ययनों का भी, संगहणी अणुसारेण-संग्रहणी गाथा के अनुसार, महोणमइरित्त-न्यूनाधिक भाव से रहित, एक्कारससु वि । तिबेमि-शेष ग्यारह अध्ययनों का वर्णन भी जानना चाहिए, जम्बू । जैसा मैंने भगवान से सुना है वही कहा है। ॥ वह्निदशा नामक पंचम वर्ग समाप्त ।। मूलार्थ- इसी प्रकार शेष ग्यारह अध्ययनों का भी संग्रहणी गाथा के अनुसार न्यूनाधिक भाव से रहित शेष ग्यारह अध्ययनों का वर्णन भी जानना चाहिए । जम्बू ! जैसा मैंने भगवान से सुना वैसा ही मैंने कहा है ॥१४॥ मूल-निरयावलिया-उवंगे णं एगो सयक्खंधो, पंच वग्गा, पंचसु Page #450 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरयावलिका) (३७२) । वर्ग-पंचम दिवसेसु उद्दिस्संति, तत्थ चउस वग्गेसु दस दस उद्देसगा, पचमवग्गे बारस उद्देसगा ॥१५॥ ॥ निरयावलियांसुत्तं समत्तं ॥ छाया-निरयावलिकोपाङ्गे खल एकः श्रुतस्कन्धः, पञ्च वर्गाः, पञ्चसु दिवसेसु उद्दिश्यन्ते, तन चतुषु वर्गेषु दश दश उद्देशकाः, पञ्मवर्गे द्वादशोद्देशकाः ।।१५।। ॥ इति निरयावलिकासूत्रं समाप्तम् ।। पदार्थान्वयः-निरवलिया उवंगे णं-निरयावलिका नामक उपाङ्ग में, एगो सुयक्खंधोएक ही श्रुतस्कन्ध है, पंच वग्गो-पांच वर्ग हैं, पंचसु दिवसेसु उहिस्संति-इसका पांच दिनों में निरूपण किया जाता है, तत्थ चउस वग्गेस-यहां पहले चार वर्गों में, दस दस उद्देसग्गा-दसदस उद्देशक हैं, पंचमवग्गे बारस उद्देसगा-पांचवें वर्ग में बारह उद्देशक हैं ॥१५॥ मूलार्थ - निरयावलिका नामक उपाङ्ग में एक ही श्रुतस्कन्ध है, पांच वर्ग हैं, इसका पांच दिनों में निरूपण किया जाता है यहां पहले चार वर्गों में दस-दस उद्देशक हैं, पांचवें वर्ग में बारह उद्देशक हैं ॥१५॥ टोका-प्रस्तुत सूत्र में भगवान अरिष्टनेमि जी द्वारा महाविदेह क्षेत्र से निषध कुमार द्वारा दीक्षा ग्रहण कर मोक्ष जाने का वर्णन है । शेष अध्ययनों का अर्थ निषध कुमार की तरह समझना चाहिए। संग्रहणी गाथा उपलब्ध नहीं है। ॥ निरयावलिका सूत्र समाप्त ॥ Page #451 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीचन्द्रसूरिविरचिता श्री निरयावलिका-सूत्रवृत्तिः पार्श्वनाथं नमस्कृत्य प्रायोऽन्य ग्रन्थवीक्षिता। . निरयावलिश्रुतस्कंध-व्याख्या काचित्प्रकाश्यते ॥ तत्र निरयावलिकाख्योपाङ्गग्रन्थस्यार्थतो महावीरनिर्गतवचनमभिधित्सुदराचार्यः सुधर्मस्वामी सूत्रकार: 'ते णं काले णं' इत्यादिग्रन्थं तावदाह-अत्र 'ण' वाक्यालङ्कारार्थः । तस्मिन् कालेऽवसपिण्याश्चतुर्थभागलक्षणे तस्मिन् समये-तद्विशेषरूपे यस्मिन् तन्नगरं राजगृहाख्यं राजा च श्रेणिकाख्यः सुधर्म (श्रीवर्धमान) स्वामी च 'हेत्थ' त्ति अभवत्-आसीदित्यर्थः । अवसर्पिणीत्वात्कालस्य वर्णक ग्रन्थवणितविभूतियुक्तमिदानीं नास्ति । 'रिस्थिमियसमिद्ध' भवनादिभिवृद्धिमुपगतं, भयवजितत्वेन स्थिरं, समृद्धं-धनधान्यादियुक्तं, ततः पदत्रयस्य कर्मधारयः । “पमुइयजणजाणवयं" प्रमुदिता: प्रमोदकारणवस्तूनां सद्भावात् जना नगरवास्तव्यलोकाः जानपदाश्च-जनपदभवास्त त्रायाता: सन्तो यस्मिन् तत्तु प्रमुदितजनजानपदम् । "उत्ताणनयणपेच्छणिज्ज" सौभाग्यातिशयात् उत्तानः अनिमिषैः नयनैः 'लोचनः प्रेक्षणीयं यत्तत्तथा। "पासाइयं" चित्तप्रसत्तिकारि । “दरि. सणिज्ज" यत् पश्यच्चक्षुः श्रमं न गच्छति । 'अभिरूपं' मनोज्ञरूपम् "पडिरूवं" द्रष्टारं द्रष्टारं प्रतिरूपं यस्य तत्तथेति। तस्मिन् "उत्तरपुरिच्छिमे दिसीभाए गुणसिलए नाम चेइए होत्था" चैत्यं व्यन्तरायतनम् । 'वण्णओ' त्ति चैत्यवर्णको वाच्यः-"चिराईए पुव्वपुरिसपन्नत्ते" चिर:-चिरकालः आदिः-निवेशो यस्य तत् चिरादिकम्, अत एव पूर्वपुरुषः- अतीतनरैः प्रज्ञप्तम्-उपादेयतया ,प्रकाशितं पूर्वपुरुषप्रज्ञप्तम् । 'सच्छत्ते सज्झए सघंटे सपडागे कयवेयहीए" कृतवितदिक-रचितवेदिकं 'लाउल्लोइयमहिए" लाइयंयभूमेश्छगणादिना उपलेपनम्, उल्लोइयं-कुडयमालानां से टिकादिभिः समृष्टीकरणं, ततस्ताभ्यां महितमिव महितं पूजितं यत्तत्तथेति । तत्र च गुणशिलकचैत्ये अशोकवरपादप:-समस्ति । "तस्य णं हेढा खंधासन्ने, एत्य ण महं एगे पुढविसिलापट्टए पचत्ते, विखंभायामसूप्पमाणे आईणगरुयबूरनवणीयतूफासे" निरयालिका-सूत्रवृत्ति . Page #452 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरयावलिका-सूत्रवृत्ति आजिनक-चर्म मयं वस्त्रं,- रुतं -प्रतीतं, बूरो-वनस्पतिविशेषः, नवनीतं - म्रक्षणं, तूल म्-अक्तूलं तद्वत् स्पर्शो यस्य स तथा कोऽर्थः ? कोमलस्मशंयुक्त । पासा.ए जाव पडिरूवे'त्ति । ते णं काले णं इत्यादि, 'जाइसंपन्ने' उत्तममातृकपक्षयुक्त इति बोद्धव्यम्, अन्यथा मातृकपक्षसंपन्नत्वं पुरुषमात्रस्यापि स्यात् इति नास्योत्कर्षः कश्चिदुक्तो भवेत्, उत्कर्षाभिधानार्थ चास्य विशेषणललामोपादानं चिकोषितमिति। एवं “कुलसंपन्ने," नवरं कुलं पैतृकः पक्षः । 'बलसपन्ने" बलं-संहनन विशेष समुत्थः प्राणः । जहा केसि' त्ति केसि (शि) वर्णको वाच्यः, स य "विणयसंपन्ने" लाघवं द्रव्यतोऽल्पोपधित्वं भावतो गौरव त्रयत्यागः एभिः संपन्नो यः स तथा। "ओयंसो" आजो-मानसोऽवष्टम्भः तद्वान ओजस्वी, तेजःशरीरप्रभा तद्वान् तेजस्वी, वयो-वचनं सौभाग्यायु पेतं यस्यास्तीति वचस्वो, “जयंसी' यशस्वीख्यातिमान्, इह विशेषण चतुष्टयेऽपि अनुस्वारः प्राकृततत्वात् । “जियकोहमाणमायालोभे" नवरं क्रोधादिजयः उदय-प्राप्तक्रोधादिविफलीकरणतोऽव सेयः । 'जीवियासामरणभय विप्पमुक्के' जीवितस्यप्राणधारणस्य आशा-वाञ्छा मरणाच्च यद्भयं ताभ्यां विप्रमुक्तो जीविताशामरणभयविप्रमुक्तः तदुभयोपेक्षक इत्यर्थः। 'तवप्पहाणे' तपसा प्रधान:-उत्तम: शेषमुनिजनापेक्षया तपो वा प्रधानं यस्य तःप्रधानः । एवं गुणप्रधानोऽपि, नवरं गुणा:-संयमगुणाः । 'करणचरणप्पहाण' चारित्रप्रधानः । निग्गहप्पहाणे' निग्रहो-अनाचार-प्रवृत्तेनिषेधनम् । 'घोरबभचेरवासी' घोरं च तत् ब्रह्मचर्य च अल्पसत्वैर्दुःखेन यदनुचर्यते तस्मिन् घोरब्रह्मचर्यवासी। 'उच्छृढ सरीरे' 'उच्छुढ़' ति उज्झितमिव उज्झितं शरीरं तत्सत्कारं प्रति नि:स्पृहत्वात् (येन) स तथा। 'चोद्दसपुव्वी चउनाणोपमए' चतुर्ज्ञानोपयोगत:केवलवर्जज्ञानयुक्तः। केसि (शि) गणधरो मतिश्रुतावधिज्ञान त्रयोपेत इति दृश्यम् । आचार्यः सुधर्मा पञ्चभिरनगारशतैः साधू-सह संपरिवृतः समन्तात्परिकलितः पूर्वानुा न पश्चानुपूर्व्या चेत्यर्थः क्रमेणेति हृदयं चरन्-संचरन् एतदेवाह-“गामाणुगाम दुइज्जमाणे' त्ति ग्रामान ग्रामश्च विवक्षितग्रामादनन्तरग्रामो ग्रामानुग्रामं तत् द्रवन्- गच्छन् – एकस्माद् ग्रामादनन्तरग्राम मनुल्लङ्घयन्नित्यर्थः, अनेनाप्रतिबद्धं विहारमाह । तत्राप्यौत्सुक्याभावमाह-'सुहंसुहेणं विहरंमाणे' सुखंसुखेन-शरीरखेदाभावेन संयमाऽऽवाधाभावेन च विहरन् ग्रामादिषु वा तिष्ठन् । 'जेणेव' त्ति यस्मिन्नेव देशे राजगृहं नगरं यस्मिन्नेव प्रदेशे गुणशिलकं चैत्यं तस्मिन्नेव प्रदेशे उपागत्य यथाप्रतिरूपं यथोचितं मुनिजनस्य अवग्रहम् आवासम् अवगृह्य - अनुज्ञापनापूर्वकं गृहीत्वा संयमेन तपसा चात्मानं भावयन्विहरति-आस्ते स्म । . परिसा निग्गय'त्ति परिषत्-श्रेणिकराजादिको लोकः निर्गता-निसृता सुधर्मस्वामिवन्दनार्थम् । धर्मश्रवणानन्तरं “जामेव दिसि पाभूआ तामेव दिसि पडिगय" त्ति यस्या: दिशः सकाशात् प्रादुर्भूता-आगतेत्यर्थः तामेव दिशं प्रतिगता इति । तस्मिन् काले तस्मिन् समये आर्षसुधर्मणोऽन्तेवासी आर्यजम्बूनामाऽनगारः काश्यपगोत्रेण 'सत्तुस्सेहे' सप्तहस्तोच्छ्रयः, 'समचउ Page #453 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरयावलिका-सूत्रवत्ति [३ रंससंठाणसंठिए' यावत्करणादिकं दृश्यं 'वज्जररिसहनारायणसंघयणे कणगपुलगनिघसपम्हगोरे' कनकस्य-सवर्णस्य 'पुलग' त्ति यः पुलको-लवः तस्य यो निकष:-कषपट्टरेखाक्षणः तथा 'पम्हेति' पद्मगर्भः तद्वत् यो गौरः सा तथा, वृद्धव्याख्या तु-कन कस्य न लोहादेयः पुलक:-मारो वर्णातिशय: तत्प्रधानो यो निकषो-रेखा तस्य यत् पक्ष्म-बहुलत्व तद्वद्यो गौर: स कनकपुलकनिकषपद्मगौरः । तथा 'उग्गतवे' उग्रम् अप्रधृष्य तपोऽस्येति कृत्वा । 'तत्ततवे' तप्तं-तापितं तपो येन स तप्त तपाः एवं तेन तपस्तप्तं येन कर्माणि संताप्य तेन तपसा स्वात्माऽपि तपोरूप: संतापित इति । तथा दीप्तं तपो यस्य स दीप्ततपाः, दीप्तं तु हुताशन इव ज्वलत्तेजाः कर्मवनदाहकत्वात् । 'उराले' उदार:-प्रधान! 'घोरे' घोर-निघूण परीषहेन्द्रियकषायाख्यानां रिपूणां विनाशे कर्तव्ये । तथा 'घोरव्वए' घोराणिअन्य८ रनुचराणि व्रतानि यस्य स तथा धोरैस्तपोभिस्तपस्वी घोरतपस्वी । “संखित्त विउलतेयलेस्से" संक्षिप्त-शरीरान्तनिलीना विपुला-अनेकयोजनप्रमाणक्षेत्राश्रितवस्तुदहनसमर्था तेजोलेश्या विशिष्टतपोजन्यलब्धिविशेष प्रभावा तेजोलेश्या (यस्य सः) एवं गुणविशिष्टो जम्बूस्वामी भगवान् आर्यसुधर्मणः स्थविरस्य “अदूरसामंते त्ति दूरं-विप्रकर्षः सामन्तं समीपम्, उभयोरभावोऽदूरसामन्तं (तस्मिन्) नातिदूरे नातिसमीपे उचिते देशे स्थित इत्यर्थः । कथं ? उड् ढंजाणू शुद्धपृथिव्यासनवर्जनात् प्रौपग्रहिकनिषद्याभादाच्च उत्कटुकासनः सन्नपदिश्यते ऊर्खे जानुनी यस्य स ऊवंजानुः, अधःशिरो अधोमुख: नोर्ध्व तिर्यग्वा निक्षिप्त-दृष्टि;, किंतु नियतम् भागनियमितदृष्टिरिति भावना। यावत्करणात् “झाणकोट्ठोवगए" ध्यानमेव कोष्ठो ध्यानकोष्ठस्तमुपगतो ध्यानकोष्ठोपगतः, यथा हि कोष्ठ के धान्यं प्रक्षिप्तमविप्रकीर्ण भवति एवं स भगवान् धर्मध्यानकोष्ठमनुप्रविश्य इन्द्रियमनास्यधिकृत्य संवृतात्मा भवतीति भावः । संवरेण तपसा ध्यानेन आत्मानं भावयन्-वासयन् विहरति -तिष्ठति । 'तए णं से' इत्यादि, तत इत्यानन्तर्ये तस्माद् ध्यानादनन्तरं, णं इति वाक्यालङ्कारे, स आर्यजम्बूनामा उत्तिष्ठतीति संबन्धः, किम्भूतः सन्नित्याह-'जायसड्ढे' इत्यादि जाता प्रवृत्ता श्रद्धा-इच्छा यस्य प्रष्टुः स जातश्रद्धः, यद्वा जाता श्रद्धा इच्छा वक्ष्यमाणवस्तुतत्त्वपरिज्ञानं प्रति यस्य स जातश्रद्धः, तथा जातः संशयोऽस्येति जातसंशयः, तथाजात कुतूहल:-जातोत्सुक्य इत्यर्थः विश्वस्यापि वस्तुव्यतिकरस्याङ्गषु कोऽन्योऽर्थो भगवतऽभिहितो भविष्यति कथं च तमहमवभोत्स्ये ? इति 'उठाए उ?'इ' उत्थानमुत्था-उर्ध्व वर्तनं तया उत्तिष्ठति, उत्थाय च 'मज्जसुहम्मं थेरं तिक्खुत्तो आयाहिणं पयाहिणं करेइ' त्ति त्रिःकृत्वा-त्रीन् वारान् आदक्षिणप्रदक्षिणा-दक्षिणपाश्र्वादारभ्य परिभ्रमणता (पुनः) दक्षिणपार्श्वप्राप्तिः आदक्षिणप्रदक्षिणा तां करोति-विदधाति, कृत्वा च वन्दते-वाचा स्तोति, नमस्यति-कायेन प्रणमति, 'नच्चासन्ने नाइदूरे' उचिते देशे इत्यर्थः। 'सुस्सूसमाणे' श्रोतुमिच्छन् । 'नमंसमाणे' नमस्यन्-प्रणमन् । अभिमुखं 'पंजलिउडे' कृतप्राञ्जलिः। विनयेन उक्तलक्षणेन 'पज्जुवासमाणे' पर्युपासनां विदधान एवं इति वक्ष्यमाणप्रकारं वदासि' ति प्रवादीत् । . भगवता उपाङ्गानां पञ्च वर्गाः प्रज्ञप्ताः, वर्गो ऽध्ययनसमुदायः, तद्यथेत्यादिना पञ्च वर्गान् दर्शयति "निरयावलियाओ कप्पडिसयाओ पुफियाओ फुप्फचलियानो वण्हिदसाओ" त्ति Page #454 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [निरयावलिका सूत्रवृत्ति प्रथमवर्गो दशाध्ययनात्मकः प्रज्ञप्तः, अध्ययनदशक मेवाह – 'काले सुकाले' इत्यादिना, मातृनामभिस्तदपत्यानां पुत्राणां नामानि यथा काल्या अयमिति काल: कुमार:, एवं सुकाल्याः महाकाल्या: कृष्ण।याः सुकृष्णायाः महाकृष्णायाः वीर कृष्णायाः रामकृष्णायाः पितृसेनकृष्णाया: महासेनकृष्णायाः अपत्यमित्येवं पुत्रनाम वाच्यम् । इह काल्याअपत्यमित्याद्यर्थे प्रत्ययो नोत्पाद्य काल्यादिशब्देष्वपत्येऽर्थे एयण् प्राप्त्या काल सुकालादिनासिद्धेः । १. एवं च द्यः कालः, २. तदनु सुकाल:, ३. महाकाल: ४. कृष्ण:, ५. सुकृष्णः ६. महाकृष्ण, ७. वीरकृष्णः ८. रामकृष्ण, ६. पितृसे न कृष्ण, १०. महासेनकृष्ण दशमः । इत्येवं दशाध्ययनानि तिरयावलिकानामके प्रथमे वर्गे इति । ४ ] 'एवं खलु जंबू ते णं काले ण' मित्यादि, 'इहेव' त्ति इहैव देशतः प्रत्यक्षासन्नेन पुनरसङ्ख्ये - यात्वाज्जम्बूद्वीपानाम यत्रेति भाव: । भारते वर्षे क्षेत्रे चम्पा एषा नगरी अभूत् । रिद्धेत्यनेन (रिद्धत्थिमियसमिद्धे' इत्यादि दृश्यं व्याख्या तु प्राग्वत् । तत्रोत्तरपूर्व दिग्भागे पूर्ण भद्रनामकं चैत्यं व्यन्तरायतनम् । कुणिए नाम राये त्ति कूणिकनामा श्रेणिकराजपुत्रो राजा 'होत्थ' त्ति अभवत् । तद्वर्णको महाहिमवंतमहंत मलय मंदरम हिंदसारेत्यादि पसंतडिबडमरं रज्जं पसाहेमाणे विहरइ" इत्येतदन्तः, तत्र महाहिमवानिव महान् शेषराजापेक्षया तथा मलयः - पर्वतविशेषो मन्दरो मेरुः महेन्द्रः शक्रादिदेवराजः, तद्वत्सारः - प्रधानो यः स तथा प्रशान्तानि डिम्बानि विघ्नः डमराणि च-राजकुमारादिकृता विड्वरा यस्मिस्तत्तथा (राज्य) प्रसाधयन् पालयन् विहरति आस्ते स्म । कूणिकदेव्याः पद्मावतीनाम्या वर्णको यथा 'सोमाला जाव विहरई' यावत्करणादेवं दृश्यम् "सुकुमालपाणिपाय अहीण पंचिदियसरीरा" अहीनानि अन्यूनानि लक्षणतः स्वरूपतो वा पञ्चापीन्द्रियाणि यस्मिंस्तत्तथाविधं शरीरं यस्था सा तथा । "लक्खण वंजणगुणोववेया" लक्षणानि स्वस्तिकचक्रादीनि व्यञ्जनानि मषितिलकादीनि तेषां यो गुणः - प्रशस्तता तेन उपपेता युक्ता या सा तथा, उप अप इताइतिशब्दत्रयस्य स्थाने शकन्ध्वादिदर्शनात् उपपेतेति स्यात् । “माणुम्माण पमाणपडिपुन्नसुजायसव्वंग सुंदरंगी" तंत्र मानंजलद्रोणप्रमाणता, कथं ? जलस्यातिभृते कुण्डे पुरुषे निवेशिते यज्जलं निःसरति तत्तर्हि द्रोणमानं भवति, तदा स पुरुषो मानप्राप्त उच्यते, तथा उन्मानम् - अर्धभारप्रमाणता, कथं ? तुलारोपितः पुरुषो यद्यवं भारं तुलयति सदा स तन्मानप्राप्त उच्यते, प्रमाणं तु स्वाङ गुलेनाष्टोत्तरशतोच्छ्रायिता, ततश्च मानोन्मानप्रमाणैः प्रतिपूर्णानि अन्यूनानि सुजातानि सर्वाणि अङ्गानि शिरःप्रभृतानि यस्मिस्तत् तथाविधं सुन्दरम् अङ्गं शरीरं यस्याः सा तथा । "ससिसोमाकारकंत पियदंसणा ' ' शशिवत्सौम्याकारं कान्तं च- कमनीयम् अतएव प्रियं द्रष्टृणां दर्शनं रूपं यस्याः सा तथा । अतएव सुरूपा स्वरूपतः सा पद्मावती देवी 'कुणिएण सद्धि उरालाई भोग भोगाई भुंजेमाणी विहरइ' भोगभोगान् अतिशयवद्भोगान् । 'तत्थ णं' इत्यादि । 'सोमालपाणिपाया' इत्यादि पूर्ववद्वाच्यम् । अस्यच्च " कोमुइरयणिवर विमलपडिपुन सोमवयणा" कोमुदीरजनीकरवत् कार्तिकीचन्द्र इव विमलं प्रतिपूर्ण सौम्यं च वदनं यस्याः सा तथा । 'कुंडलुल्लि हियगंडलेहा' कुण्डलाभ्यामुल्लिखिता घृष्टा गण्डलेखा - कपोल Page #455 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरयावलिका-सूत्रवृत्तिः ] विरचितमृगमदादिरेखा यस्याः सा तथा। 'सिंगारागार चारुवेसा' शृङ्गारस्य-रसविशेषस्य अगारमिव अगारं तथा चारु: वेषो-नेपथ्यं यस्याः सा तथा तत: कर्मधारयः। "काली नामं देवी" श्रेणिकस्यभार्या कुणिकस्य राज्ञश्चुल्लजननी-लघमाताऽभवत् । सा च काली "सेणियस्स रन्नो इट्ठा" वल्लभा कान्ता काम्यत्वात् 'पिया' सदा प्रेम विषयत्वात् ‘मण न्ना' सुन्दरत्वात 'नामधिज्जा' प्रशस्तनामधेयवतीत्यर्थः नाम वा धार्य-हृदि धरणीयं यस्याः मा तथा. 'वेसासिया' विश्वसनीयत्वात्, 'सम्मया' तत्कृतकार्यस्य संमतत्वात्, 'बहुमता' बहुशो बहुभ्यो वाऽन्येभ्यः सकाशात् बहुमता बहुमानपात्रं वा, 'अणुमया' प्रियकरणस्यापि पश्चान्मताऽनुमता। भंडकरंडकसमाणा' आ भरण करण्डकसमाना उपादेयत्वात् सुरक्षितत्वाच्च । 'तेल्न केला. इव सुसंगोविया' तेलकेला सौराष्ट्रप्रसिद्धो मृण्मयस्तैलस्य भाजनविशेष., स च भङ्गभयात् लोचनभयाच्च सुष्ठ संगोप्यते, एवं साऽपि तथोच्यते । 'चेलापेडा इव सुसंपरिग्गहिया' वस्त्रमञ्जूषेवेत्यर्थः ।। 'सा काली देवी सेजिएण रन्ना सद्धि विउ लाई भोग भोगाइं भुंजमाणा विहरई' । कालनामा च तत्पुत्रः 'सोमालपाणिपाए' इत्यादि प्रामुक्तवर्णकोपेतो काच्यः, यावत् 'पासाइए दरिसणिज्जे अभिरुवे पडिरूवे' इति पर्यन्त. । सेणियस्स रज्जे दुवे रयणा अठा रसबंको हारो १, सेयणगे हत्थीए २ । तत्थ किर सेणियस्स. रन्नो जावइयं रज्जस्स मुल्लं तावइयं देवदिन्नहारस्स सेयणगस्स य गंधहत्थिस्स । तत्थ हारस्स उप्पत्तीपथावे कहिज्जिस्मइ । कूणियस्स य एत्थेव उप्पत्ती वित्थरेण भणिस्सइ, तत्कार्येण कालीदीनां मरणसंभवात् आरम्भसङ ग्रामतो नरकयोग्यकोपचयविधानात् । नवरं कूणिकस्तदा कालादिदशकुमारान्वितश्चम्पायां राज्य चकार । सर्वेऽपि च ते दोगुन्दुगदेवा इव कामभोगपरायणास्रविशाख्या देवाः फुट्टमाणेहि मुइंगमत्थएहि वरतरुणिसप्पिणिहिएहिं बत्तीसइपत्तनिबद्धेहिं नाडएहिं उवगिज्जमाणा भोगभोगाई भुंजमाणा विहरति । हल्लविहल्लनामाणो कुणियस्स चिल्लणादेवीअंगजाया दो भायरा अन्नेऽवि अस्थि । अहुणा हास्स्स उप्पत्ती भन्नइ -इत्थ सक्को सेणियस्स भगवंतं पइ निच्चलभत्तिस्स पसंसं करेइ। तओ सेडयस्स जीवदेवो तब्भत्तिरंजिओ सेणियस्स तुट्ठो संतो अट्ठारसबंक हारं देइ, दोन्नि य पट्टगोलके देइ । सेणिएणं सो हारो चेल्लगाए दिनो पिय त्ति काउं, वट्टदुगं सुनंदाए अभय मंतिजणणीए । ताए रुट्टाए कि अहं चैडरूवं ति काऊन अच्छो. डिया भग्गा तत्थ एगम्मि कुंडल जुयलं एगम्मि वत्थजयलं तुट्टाए गहियाणि । अन्नया अभओ सामि पुच्छइ–'को अपच्छिमो रायरिसि' त्ति । सामिणा उद्दायिणो वागरिओ, अओ परं बढमउडा न पव्वयंति । ताहे अभएण रज्ज दिज्जमाणं न इच्छियं ति पच्छा सेणिओ चितेइ 'कोणियस्त द्विजिहि' त्ति हल्लस्स हत्थी दिन्नो सेयणगो विहल्लस्स देवदिन्नो हारो अभएण वि पनयंतेण सुनंदाए खोमजयलं कुंडलजुयलं च हल्लविहल्लाणं दिन्नाणि । महया विहवेण अभनो नियजमणीसमेओ पव्वइओ। सेणियस्स चेलणादेवी मंगसमुन्भूया तिन्नि पुत्ता कूणिमो हल्लविहल्ला य । कुणियस्स उप्पत्ती एत्थेव भणिस्सइ । कालीमहाकालीपमुहदेवीणं अन्नासि तणया सेषिकस्य बहवे पुत्ता कालपमुहा संति । अभयम्मि गहियव्वए अन्नया कोणिओ कालाइहिं दसहि कुमारहिं समे मंतेइ-'सेणियं सेच्छाविग्धकारयं बंधिता एक्कारसभाए रज्ज करेमोति । तेहिं पडिस्सुवं । सेणिको Page #456 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [निरयावलिका-सूत्रवृत्तिः बद्धो । पुम्वन्हे अवरन्हे य कससयं दवावेइ सेणियस्स कूणिओ पुव्वभवे वेरियत्तणेण । चेल्लणाए कयाइं भोय न देइ भत्तं वारिय पाणियं न देइ। ताहे चेल्लणा कह वि कुम्मासे बालेहिं बंधित्ता सयवारं सुरं पवेसेइ । सा किर धोव्वइ सयवारे सुरा पाणियं सव्वं होइ। तोए पहावेण सो वेयणं न वेएइ । अन्नया तस्स पउमावईदेवीए पुत्तो एवं पिओ अत्थि । मायाए सो भणिओ-“दुरात्मन् ! तव अंगुली किमिए वमंती पिया मुहे काऊण अत्थियारो, इयरहा तुम रोयंतो चेव चिट्ठसु"। ताहे चित्तं मणागुवसंतं जायं । मए पिया एवं वसण पाविओ। तस्स अधिई जाया । भुजंतओ चेव उट्ठाय परसृहत्थगओ, अन्ने भणंति लोहदंडं गहाय, 'नियलाणि भंजामि' ति पहाविओ। रक्खवाल गो नेहेण भणइ–एसो सो पावो लोहदंडं परसुं वा गहाय एइ' त्ति। सेणिएणं चितियं—'न नज्जइ केण कमारेण मारेहि ?' । तओ तलपुडग विसं खइयं । जाव एइ ताव मओ। सुट्ट्यरं अधिई जाया। ताहे मयकिच्चं काऊण घरमागओ रज्जधुरामुक्कतत्तीओ त चेव चितंतो अच्छइ । एवं कालेण विसोगो जाओ । पुणरवि सयणआसणाईए पिइसतिए दळूण अधिई होई । तओ रायगिहाओ निग्गंतु चंपं रायहाणि करेइ । एवं चंपाए कूणिओ राया रज्जं करेई नियगभायपमुहसयणसंजोगप्रो । इह निरय वलियासुयक्खंधे कूणिकवक्तव्यता आदावुत्क्षिप्ता। तत्साहाय्य करणप्रवृत्तानां कालादीनां कुमाराणां दशानामपि सङ ग्रामे रथमुशलाख्ये प्रभूतजनक्षय करणेन. नरकयोग्यकर्मोपार्जनसंपादनानरकगामितया 'निरयाउ' त्ति प्रथमाध्ययनस्य कालादिकुमारवक्तव्यताप्रतिबद्धस्य एतन्नाम । अथ रथमुशलाख्यसङग्रामस्योत्पत्तौ कि निबन्धनम् । अत्रोच्यते-एवं किलायं सामः संजात:-चम्पायां कूणिको राजा राज्यं चकार । तस्य चानुजौ हलविहल्लाभिधानो भ्रातरी पितृदत्तसेचनकाभिधाने गन्धहस्तिनि समारूढो दिव्य कुण्डलदिव्यवसनदिव्यहार विभूषितो विलसन्तो दृष्ट्वा पद्यावत्यभिधाना कूणिकराजस्य भार्या कदाचिदन्तिनोऽपहाराय तं कूणिकराज प्रेरितवती"कर्णविषलग्नकृतोऽतोऽयमेव कुमारो राजा तत्त्वतः, न त्वं, यस्येदृशा विलासा:" । प्रज्ञाप्यमानाऽपि सा न कञ्चिदस्यार्थस्योपरमति । तत्प्रेरितकूणिक राजेन तो याचिती। तो च तद्भयाद्वैशाल्यां नगयाँ स्वकीयमातामहस्य चेटकाभिधानस्य राज्ञोऽन्तिके सहस्तिको सान्त:पुरपरिवारितौ गतवन्तौ। कणिकेन च दूतप्रेषणेन तो याचितौ । न च तेन प्रेषितौ, कूणिकस्य तयोश्च तुल्यमातृकत्वात्। ततः कणिकेन भणितं – 'यदि न प्रेषयसि तदा युद्धसज्जो भव' । तेनापि भणितम्-'एष सज्जोऽस्मि'। तता कूणिकेन सह कालादयो दश स्वीया भिन्नमातृका भ्रातरो राजानश्चेटकेन सह सामाय याताः । तत्रैकैकस्य त्रीणि त्रीणि हस्तिनां सहस्राणि, एवं रथानामश्वानां च, मनुष्याणां च प्रत्येक तिस्रस्तिनः कोट्यः । कूणिकस्याप्येवमेव । तत्र एकादशभागोकृत राज्यस्य कूणिकस्य कालादिभिः सह निजेन एकादशांशेन सङ्ग्रामे काल उपगतः । एतमर्थ वक्तुमाहु-'तए णं से काले' इत्यादिना । एनं च व्यतिकरं ज्ञात्वा चेटकेनाप्यष्टादश गणराजानो मेलिताः, तेषां चेटकस्य च प्रत्येकमेवमेव हस्त्यादिबलपरिमाणं, ततो युद्ध संपलग्नम् । चेटकराजस्य तु प्रतिपन्नव्रतत्वेन दिनमध्ये एकमेव शरं : मुञ्चति अमोघबाणश्च सः । तत्र च कणिकसैन्ये गरुडध्यूहः चेटकसैन्ये (च) सागरव्यूहों विरचिंतः। Page #457 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [७ निरयावल का सूत्रवृत्ति ] १. ततश्च कूणिकस्य कालो दण्डनायको निजबलान्वितो युध्यमानस्तावदन्तो यावच्चेटकः, ततस्तेन एकशरनिर्घातेनासौ निपातितः । २. भग्नं च कूणिकबलं । गते च द्वे अपि बले निजानिजमावासस्थानम् । द्वितीयेऽह्नि सुकालो नाम दण्डनायको निजबलान्वितो युद्धमानस्तावद् गतो यावच्चेटकः एवं सोऽप्येकशरेण निपातितः । ३. एवं तृतीयेऽह्नि महाकाल:, सोऽप्येवम् । ४. चतुर्थेऽह्नि कृष्णकुमारस्तथैव, ५. पञ्चमे सुकृष्ण, ६. षष्ठं महाकृष्ण, ७ सप्तमे वीरकृष्णः, ८. अष्टमे रामकृष्णः, ६. नवमे पितृसेनकृष्ण, १० दशमे पितृमहासेनकृष्णः चेटकेनैकैकशरेण निपातितः । एवं दशसु दिवसेषु चेटकेन विनाशिता दशापि कालादयः । एकादशे तु दिवसे चेटकजयार्थ देवताराधनाय कुणिकोऽष्टमभक्तं प्रजग्राह । ततः शक्रचमरावागतौ । ततः शक्रो बभाषे –“चेटक: श्रावक इत्यहं न तं प्रति प्रहरामि, नवरं, भवन्त संरक्षामि" । ततोऽसौ तद्रक्षार्थ वज्रपतिरूपकमभेद्यकवचं कृतवान् । चमरस्तु द्वौ सङ्ग्रामो विकुवितवान् महाशिलाकण्टकं रथमुशलं चेति । तत्र महाशिलेव कण्टको जीवितमेदकत्वान्महाशिला कण्टकः । ततश्च यत्र तृणशूकादिनाऽप्यभिहतस्याश्व हस्त्यादेर्म हा शिला कण्टकेनेवास्याहतस्य वेदना जायते स सङ - ग्रामो महाशिलाकण्टक एवोच्यते । 'रहमुसले' त्ति यत्र रथो मुशलेन युक्तः परिधावन् महाजनक्षयं कृतवान् अतो रथमुशलः । 'ओयाए' त्ति उपयातः - संप्राप्तः । 'कि जइस्सइ' त्ति जयश्लाघां प्राप्स्यति । पराजेष्यते— अभिभविष्यति परसैन्यं परानभिभविष्यति उत नेति कालनामानं पुत्रं जीवन्तं द्रक्ष्याम्यहं न वेत्येवम् उपहतो मनःसंकल्पो युक्तायुक्त विवेचनं यस्याः सा उपहतमनःसंकल्पा । यावत्करणात् "करयलपल्हथियमही अट्टज्झाणोवगया श्रोमंथियवयणनयणक मला" ओमंथियं - अधोमुखीकृतं वदनं च नयनकमले च यथा सा तथा । 'दीणविवन्नवयणा' दीनस्येव विवर्णं वदनं यस्याः सा तथा । 'झियाइ' त्ति आर्तध्यानं ध्यायति, 'मणोमाणसिएणं दुक्खेणं अभिभूया' मनसि जातं मानसिकं मनस्येव यद्वर्तते मानसिकं दुःखं वचनेनाप्रकाशितत्वात् तन्मनो - मानसिकं तेन अबहिर्वर्तिनाऽभिभूता । 'ते णं काले णं' इत्यादिं । 'अयमेयारूवेत्ति प्रयमेतद्रूपो वक्ष्यमाणरूपः 'अज्झत्थिए' त्ति आध्यात्मिकः - आत्मविषयः चिन्तित: - स्मरणरूपः प्रार्थितः लब्धुमाशंसितः, मनोगत: - मनस्येव वर्तते यो न बहिः प्रकाशितः संकल्पो – विकल्पः समुत्पन्नः - प्रादुर्भूतः । तमेवाह - 'एवमि' त्यादि । यावत्करणात् । 2 “पुव्वाणुपुव्विं चरमाणे गामाणुगामं दुइज्जमाने इहमागए इह संपत्ते इह समोसढे, इहेव चंपाए नयरीए पुन्नभद्दे चेइए अहापडिरूवं उग्गहं उग्गिहित्ता संजमेणं तवसा अप्पाण भावेमाणे विहरइ" । 'तं महाफलं खलु' भो देवाणुप्पिया ? 'तहारूवाणं' अरहंताणं, भगवंताणं नाम गोवस्स विसवणयाए, किमंग पुण अभिगमणवंदणन मंसणपडिपुच्छणपज्जुवासणाए ? एगस्स वि आरियस्स मिस्स वयणस्स सवणयाए, किमंग पुणे 'विउलस्स अट्ठस्स गहणयाए' 'गच्छामि णं अहं 'समणं' भगवं महावीरं वंदामि नमसामि सक्कारेमि सम्माणेमि कल्लाणं मंगलं देवयं. वे इयं परुजुवासा मि Page #458 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - ८ निरयावलिका-सूत्रवृत्ति एवं नो पेच्चभवे हियाएसुहाए खमाए निस्सेयसाए आणुगामियत्ताए भविस्स इ 'इमं च णं एयारूवं वागरणं पुच्छिस्सामि त्ति कटु एवं संपेहेइ' संप्रेक्षते -पर्या नोनयति । सुगमम् । नवरं इहमागए' त्ति चम्पायां, 'इह संपत्ते' त्ति पूर्णभद्रे चैत्ये, 'इह समोमढे' त्ति साधूचितावग्रहे. एतदेवाह-इहेव चंपाए इत्यादि । 'अहापडिरूवं' त्ति यथाप्रतिरूपम् उचितमित्यर्थः । 'तं' इति तस्मात्, 'महाफलं' ति महत्फलमायत्या भवतीति गम्यं । 'तहारूबाणति तत्प्रकारस्वभावानां-महाफलजन ननस्वभावानाभित्यर्थः । 'नामगोयस्स' ति नाम्ना यादृच्छि कस्याभिधानस्य, गोत्रस्य-गुणनिष्पन्नस्य 'सवणयाए' त्ति श्रवणेन, 'किमंग पुण' ति किंपुनरिति पूर्वोक्तार्थस्य विशेषद्योतनार्थम् अङ्गेत्यामन्त्रणे यद्वा परिपूर्ण एवायं शब्दो विशेषणार्थ अभिगमनं, वन्दनं-स्तुतिः, नमनं-प्रणमनं, प्रति पृच्छनंशरीराविवार्ताप्रश्न, पर्युपासनं-सेवा, तद्भावस्तत्ता तया, एकस्थापि आर्यस्य आर्यप्रणेतृकत्वात्, धार्मिकस्य धर्मप्रतिबद्धत्वात्, वन्दामि–बन्दामि - वन्दे, स्तोमि, नमस्यामि-प्रणमामि, सत्कारमामि-आदरं करोमि वस्त्राद्यर्चनं वा, सन्मानयामि उचितप्रतिपत्येति-कल्याणं कल्याणहेतुं, मगलं दुरितोपशमनहेतुं, देवं चैत्यमिव चैत्यं, पर्युपासयामि-सेवे, एतत् नोऽस्माकं, प्रेत्यभवे-जन्मान्तरे, हिताय पथ्यान्नवत्, शर्मणे, क्षमाय-सङ्गतत्वाय, निःश्रेयसाय -- मोक्षाय, आनुगामिकत्वाय-भवपरम्परासु सानुबन्धसुखाय, भविष्यति, इति कृत्वा-इतिहेतोः, संप्रेक्षते पर्यालोचयति संप्रेक्ष्य वमवादीत् शीघ्रमेव 'भो देवाणप्पिया' । धर्माय नियुक्तं धार्मिक, यानप्रवरं, चाउग्घंट आसरहं' ति चतस्रो घण्टा: पृष्टतोऽग्रतः पार्वतश्च लम्बमाना यस्य स चतुर्षण्टः, अश्वयुक्तो रथोऽश्वरथस्तमश्वरथं, युक्तमेवाश्वादिभिः, उपस्थापयत-प्रगुणीकुरुत, प्रगुणीकृत्य मम समर्पयत । 'हाय' ति कृतमज्जना, स्नानान्तरं 'कयबलिकम्म' त्ति स्वगृहे देवतानां कृतबलिकर्मा, 'कयको उमंगलपायच्छित्त' त्ति कृतानि कौतुकमङ्घलान्येव प्रायश्चित्त नीव. दुःस्वप्नादिव्यपोहायावायकर्तव्यत्वात प्रायश्चित्तानि यमासा तथा । तत्र कौतुकानि-मषीपृण्डादोनि मंगलादीनि सिद्धार्थदत्यक्षतर्वाङकुरादीनि, 'सुद्धप्पावेस्साई वत्थाई परिहिया' 'अप्पमहग्घाभरणालंकियसरीरा' (इति) सुगमम् । बहूति खुज्जाहिं जावे' त्यादि, तत्र कब्जिकाभिः–वक्रजङ धाभिः, चिलातीभिः-अनार्यदेशोत्पन्नाभिः, वामनाभि-हस्वशरीराभिः, वटभाभिः-मडहकोष्ठाभिः, बर्बरीभिः-बर्बरीभिः-बर्बरदेशसंभवाभिः, बकुशिकाभिः यौनकाभिः पण्हकाभिः इसिनिकाभिः वासिनिकाभि: लासिकाभिः लकृसिकाभिः द्रविडीभिः सिंहलीभिः प्रारबीभिः पक्वणीभिः बहुलीभिः मुसण्डीभिः शरीभिः भमसीभिः नानासाशि:-बहुविधानार्यदेशोत्पन्नाभिरित्यर्थ । विशस्वीपदेशामा म्यानमकी विदेश मा परिमालिकाभिः, 'इंगियबितियपत्थिपक्यिाणिवाहि ताणतेन-मपनादिदावोमेन चिन्तितं न परेण हन्दि स्थापितं प्राथितं च विबामन्ति वास्ताबासमा रकबेके मन्ने महिलामालिस्बना तबहीतो देषा यकाभिस्ता Page #459 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरयावलिका-सूत्रवृत्तिः । स्तथा ताभिः । निपुणनामधेयकुशला यास्तास्तथा ताभिः अत एव विनीताभिः युक्तेति गम्यते, तथा चेटिकाचक्र वालेन अर्थात् स्वदेश संभवेन वृन्देन परिक्षिप्ता या सा तथा। 'उवट्ठाणसाला' उपवेशनमण्डपः । 'दुरुहइ' आरोहति । यत्रैव श्रमणो भगवान् तत्रैवोपागता-संप्राप्ता, तदनु महावीर त्रि.कृत्वो वन्दते -स्तुत्या, नमस्यति-प्रणमति, स्थिता चैव ऊर्ध्वस्थानेन, कृताञ्जलिपुटा अभिसंमुखा सती पर्युपासते । धर्मकथाश्रवणानन्तरं 'त्रिःकृत्वो' वन्दयित्वा (वन्दित्वा) एवमवादीत् - 'ए व खलु भंते' इत्यादि सुगमम् । ____ अत्र कालीदेव्याः पुत्रः कालनामा कुमारो हस्तितुरगर थपदातिरूपनिजसैन्यपरिवृत: कूणिकराजनियक्तश्चेटकराजेन सह रथमशलं सङ ग्रामयन् सुभटेश्चेट कसत्कर्यदस्य कृतं तदाह-'हयमहियपवरवीर घाइयनिवडियचिंधज्झयपडागे' (हत.) सैन्यस्य हतत्वात्. मथितो मानस्य मन्थनात्, प्रवरवीराः-सुभटा घातिता:--विनाशिता यस्य, तथा निपातिताश्चिह्नध्वजा:-गरुडादिचिह्नयुक्तां: केतवः पताकाश्च यस्य स तथा, ततः पदचतुष्टयस्य कर्मधारयः । अत एव 'निरालोयाओ दिसाओ करेमाणे' त्ति निर्गतालोका दिश: कुर्वन् चेटकराजः (स्य) 'संपक्खं सपडिदिसि' ति सपक्षंसमानपाव समानवामेतरपार्वतया, सप्रतिदिक-समानप्रतिदिक्तयाऽत्यर्थमभिमुख इत्यर्थः अभिमुखागमने हि परस्परस्य समाविव दक्षिणवामपाश्वों भवतः, एवं विदिशावपीति । इत्येवं स कालः चेटकराजस्य रथेन प्रतिरथं 'हव्वं' शीघ्रम् आसन्न-संमुखोनम् आगच्छन्तं दृष्ट्वा चेटकराजः तं प्रति आसुरुत्ते'रु? कुविए चंडिक्किए 'मिसिमिसेमाणे' त्ति, तत्र प्राशु-शोघ्र रुष्ट:-क्रोधेन विमोहितो यः स पाशुरुष्टः, आसुरं वा आसुरसत्कं कोपेन दारुणत्वात् उक्त-भणितं यस्य स आसुरोक्त: रुष्टो-रोषवान् ‘कुविए' त्ति मनसा कोपवान्, चण्डिक्किये-दारुणीभूत: 'मिसिमिसेसाणे' त्ति क्रोधज्वालया ज्वलन् तिवलियं भिउहि निडाले साहटु त्ति त्रिवलिकां भृकुटिं-लोचनविकारविशेषं ललाटे संहृत्य-विधाय धनुः परामृशति, वाण परामृशति, विशाखस्थानेन तिष्ठति, 'आयय कण्णायतं' ति आकर्णान्तं बाणमाकृष्य 'एगाहच्चं' ति एकयैवाहत्या आहननं प्रहारो यत्र जीवितव्यपरोपणे तदेकाहत्यं यथा भवति एवं, कथमित्याह - कुडाहच्च' कुटस्येव-पाषाणमयमहामारणयन्त्रस्येव आहत्या आहननं यत्र तत्कुटाहत्यं । 'भगवतोक्तेयं व्याख्या'। _ 'अप्फुण्णा समाणी' व्याप्ता सती । शेषं सुगमं यावत् ‘सोल्लेहि य' ति पक्वः 'तलिएहि' ति स्नेहेन पक्वैः, 'भज्जिएहि' भष्ट्र: 'पसन्नं च' द्राक्षादिद्रव्यजन्यो मनःप्रसत्तिहेतु: 'आसाएमाणोओ' त्ति ईषत्स्वादयन्त्यो बहु च त्यजन्त्य इक्षुखण्डादेरिव, 'परिभाएमाणोओ' सर्वमुपभुजानाः (परस्परं ददन्त्यः) 'सुक्क' त्ति शुष्केव शुष्कामा रुधिरक्षयात्, ‘भुक्ख' त्ति भोजनाकरण तो बुभुक्षितेव, 'निम्मंसा' मांमोपचग्राभावत:, 'ओलुग्ग' त्ति अव रुग्णा-भग्नमनोवृत्तिः, 'ओलुग्गस गेरा' भग्नदेहा, निस्तेजागतकान्तिः दीना विमनोवदना, पाण्डकिय मुखी-पाण्डुरीभूतवदना, 'ओमंथिय' त्ति अधोमुखीकृतं, उपहतमनःसङ्कल्पा-गतयुक्तायुक्तविवेचना 'करयल० कट्टु' त्ति 'करयलपरिग्गहियं दसनह सिरसावत्तं मत्थए अंजलि कट्ट सेणियं रायं एवं वयासी, स्पष्टम् । एनमर्थ नाद्रियते--अत्रार्थे प्रादरं न कुरुते, न. परिजानीते-नाभ्युपयच्छति, कृतमौना तिष्ठति । .. Page #460 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०] [निरयावलिका-सूत्रवृत्ति +++ +++: 'धन्नाओ णं कयलक्खणाओ णं सुलद्धे णं तासि जम्म जीवियफले' 'अविणिज्जमाणं सि' ति अपूर्यमाणे 'जत्तिहामि' त्ति यतिष्ये, 'इट्ठाहिं' इट्टाहीत्यादीनां व्याख्या प्रागिहैवोक्ता । 'उवदाणसाला' आस्थानमण्डपः । 'ठिइं वां स्थानां 'अविदमाणे' अलभमानः। अंतगमनंपारगमनं तत्संपादने । 'सूणाम्रो' घातस्थानात् । 'बत्थिपुडगं' उदरान्तर्वर्ती प्रदेशः। अत्पकप्पियं' आत्मसमीपस्थम् सपक्षं–समानपार्श्व समव मेतरपार्वतया । सप्रतिदिक्-समानप्रतिदिक्तया अत्यर्थमभिमुख इत्यर्थः, अभिमुखावस्थानेन हि परस्परस्य समावेव दक्षिणवामपाश्र्वे भवतः एवं विदिशावपि । 'अयमेयारूवे अब्भत्थिए चितिए पत्थिए मणोगए संकप्पे समुप्पज्जित्था'। सातनं पातनं गालनं विध्वंसनमिति कर्तु संप्रधारयति, उदारान्तर्वतिनीः औषधैः सातनम् -उदराद्वहिःकरणं, पातनं-गालनं रुधिरादितया कृत्वा, विध्वंसनं सर्वगर्भपरिशाटनेन, न च शाटनाद्यवस्था अस्य भवन्ति । 'संता तंता परितंता' इत्येकार्याः खेदवाचका एते ध्वनयः । अट्टवसट्टदुहट्टा' (आर्त्तवशआर्तध्यानवशतामृता-गता दुःखार्ता च या सा)। उच्चाभिराक्रोशनाभिः आक्रोशो निर्भर्त्सना उद्धर्षणा (एते समानार्थाः)। 'लज्जिया विलिया विड्डा' (एतेऽपि समानार्थाः)। स्थितिपतितां-कलक्रमायातं नुत्रजन्मानुष्ठानम्। ___ 'अंतराणि य' अवसरान्, छिद्राणि-अल्पपरिवारादीनि, विरहो-विजनत्वम् । तुष्टि: उत्सवः हर्षः आनन्दः प्रमोदार्थाः एते शब्दाः। 'मम घातेउकामेणं' धातयितुकामः णं वाक्यालङ्कारे मां श्रेणिको राजा घातनं मारणं वन्धनं निच्छुभणं' एते पराभयसूचका ध्वनयः । निष्प्राण:-निर्गतप्राणः निश्चेष्ट: जीवितविप्रजढः प्राणापहारसूचकाः एते। अवतीर्णोभूमौ पतितः । 'अप्फुणे' व्याप्तः सन् । 'रोयेमाणे ति रुदन् 'कंदमाणे' वैक्लवं कुर्वन् 'सोयमाणे शोकं कुर्वन् 'विलवमाणे' विलापान् कुर्वन् 'नीहरणं' ति परोक्षस्य य निर्गमादिकार्यम् । 'मणोमाणसिएणं' ति मनसि जातं मानसिकं मनस्येव यद्धर्तते वचनेनाप्रकाशिनत्वात् तत् मनोमानसिकं तेन अबहिर्वतिना अभिभूतः । 'अते उरपरियाल संपरिबुडे'। 'चंपं नगरि मझमज्झेणं' इत्यादि वाच्यम् 'अक्खिवि उकामेणं' ति स्वीकर्तुकामेन, एतदेव स्पष्टयति-'गिहिउकामेणं' इत्यादिना । 'तं जाव ताव न उद्दालेइ ताव ममं कूणिए राया' इत्यादि सुगमम् । 'प्रज्जगं' ति मातामहम् । 'संपेहेति' पर्यालोचयति । 'अतराणि' छिद्राणि प्रतिजाप्रत्-परिभावयन् विचरतिआस्ते। 'अंतर' प्रविरलमनुष्यादिकम् । 'असंविदितेणं' ति असंप्रति (असं विदितेन)। हन्वं ति शीघ्रम् । जहाचित्तो' त्ति राजप्रश्नीये द्वितीयोमाङ्ग यथा श्वेतम्बीनगर्याश्चित्रो नाम दूतः प्रदेशि Page #461 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरयावलिका-सूत्रवृत्ति ] [११ गजः प्रेषितः श्रावस्त्यां नगर्या जितशत्रुसमीपे स्वगृहानिर्गत्य गतः तथाऽयमपि । कोणकनामामा राजा यथा एवं विहल्लकुमारोऽपि । 'चाउग्घंट' ति चतस्रो घण्टाश्चतसृष्वपि दिक्षु अवलम्विता यस्य स चतुर्घण्टो रथः । 'सुमेहिं वसहीहिं पाय रासेहि' ति प्रातराशः आदित्योदयादावाद्यप्रहरद्वयसमयवर्ती भोजनकाल: निवासश्च-निवसनभूभागः तौ द्वावपि सुखहेतुको न पीडाकारिणी ताम्यां संप्राप्ती नगर्या दृष्टश्चेटककोणिकराज: 'जय विजएणं वद्धावित्ता एव' दूतो यदवादीत्तदर्शयति–एवं खलु सामी' त्यादिना । 'अलोवेमाण' त्ति एवं परंपरागतां प्रीतिमलोपयन्तः । जहा पढम' ति रज्जस्स य जणवयस्स य अद्धं कोणियराया जइ वेहल्लस्स देइ तोऽहं सेयणगं अट्ठारसवंकं च हारं कूणियस्स पच्चप्पिणामि च कुमारं पेसेमि, न अन्नहा । तदनु द्वितीयदूतस्य समीपे एनमर्थ श्रुत्वा कोणिक राज 'प्रासुरुत्ते' इत्येतावद्रप (ताकोप) वशसंपन्नः। यदसो तृतीयदुतप्रेषणे न कारयति मानयति च तदाह-एव वयासी' त्यादिना हस्तिहारसमर्पणकुमारप्रेषणस्वरूपम् यदि न करोषि तदा युद्धसज्जो भवेति दूतप्राह इमेणं कारणेणं ति तुल्यताऽत्र कसंबन्धेन । दूतद्वयं कोणिकराजप्रेषितं निषेधितं, तृतीयदूतस्तु असत्कारितोऽपद्वारेण निष्काषितः । ततो यात्रां सङ् ग्रामयात्रां गृहीतुमुद्यता वयमिति, 'तए णं से कूणिए राया' कालादीन् प्रति भणितवान् । .. तेऽपि च दशापि तद्वयोविनयेन प्रतिशृण्वन्ति । 'एवं वयासि' त्ति एवमवादीत्तान्प्रतिगच्छत यूयं स्वराज्येषु निजनिजसामग्रया संनह्य समागन्तव्यं मम समीपे । __ तदनु कूणिकोऽभिषेकाह हस्ति रत्नं निजमनुष्यरूपस्थापयति-प्रगुणीकारयति, प्रतिकल्पयते त्ति पाठे सन्नाहवन्तं कुरुतेत्याज्ञां प्रयच्छति । 'तओ दूय' त्ति त्रयो दूताः कोणिकेन प्रेक्षिताः । . 'मंगतिएहि' त्ति हस्तपाशितैः फलकादिभिः, 'तोहिं' ति इषुधिभिः, 'सजीवेहि' ति सप्रत्यञ्च: धनुभिः नृत्यद्भिः कबन्धः वारैश्च हस्तच्युतः भीमं रौद्रम् । शेषं सर्व सुगमम् ॥ ॥ इति निरयावलिकाख्योपाङ्गव्याख्या॥ Page #462 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२ ] [रालिका सूत्रवृत्तिः कप्पवडिंसिया ॥ २ ॥ श्रेणिकनृप्तॄणां कालमहाकालाद्यङ्गजानां क्रमेण व्रतपर्यायाभिधायिका । दोहं च पञ्च इत्यादिगाथा, अस्या अर्थ: - दससु मध्ये द्वयोराद्ययोः कालसुकालसत्कयोः पुत्रयोव्रतपर्यायः पञ्च वर्षाणि, त्रयाणां चत्वारि, त्रयाणां त्रीणि द्वयोर्द्वे द्वे वर्षे व्रतपयायः । तत्राद्यस्य यः पुत्रः पद्मनामा स कामान् परित्यज्य भगवतो महावीरस्य समीपे गृहीतव्रत एकादशाङ्गधारी भूत्वाऽत्युग्रं बहुचतुर्थषष्ठाष्टमादिकं तपःकर्म कृत्वाऽतीव शरीरेण कृशीभूतश्चिन्ता कृतवान् - यावदस्ति मे बलवीर्यादिशक्तिस्तावद्भगवन्तमनुज्ञया मम पादपोपगमन कतु श्रेय इति तथैवासी समनुतिष्ठति, ततोऽसौ पञ्चवर्षव्रतपालनपरो मासिक्या संलेखनया कालगत: सौर्धम देवत्वेनोत्पन्नोद्विसागरोपमस्थिति कस्ततश्च्युत्वा महाविदेह उत्पद्य सेत्स्यते (ति) इति कल्पावतंसंकोत्पन्नस्य प्रथममध्ययनम् । एवं सुकालसत्कमहापद्मदेव्याः पुत्रस्य महापद्मस्यापीयमेव वक्तव्यता स भगवत्समीपे गृहीत - व्रतः पञ्चवर्ष व्रतपर्यायपालनपर एकादशाङ्गधारी चतुर्थषष्ठाष्टमादिबहुतपःकर्म कृत्वा ईशानकल्पे देव: समुत्पन्नो द्विसागरोपमस्थितिकः सोऽपि ततऽच्युतो महाविदेहे सेत्स्यतीति द्वितीयमध्ययनम् । तृतीये महाकालसत्कयुवक्तव्यता, चतुर्थे कृष्णकुमारसत्कपुत्रस्य पञ्चमे सुकृष्ण सत्कपुत्रस्य वक्तव्यता इत्येवं त्रयोऽप्येते वर्षचतुष्टयव्रतपर्यायपरिपालनपरा अभवन् । एवं तृतीयो महाकालाङ्गजश्चतुर्वर्षव्रतपर्यायः सनत्कुमारे उत्कृष्ट स्थितिको देवोभूत्वा सप्तसागरोपमाण्यायुरनुपालय ततऽच्युतो महाविदेहे सेत्स्यतीति तृतीयमध्ययनम् । चतुर्थे कृष्णकुमारात्मजश्चतुर्वर्षव्रतपर्यायः माहेन्द्रकल्पे देवो भूत्वा सप्तसागरोपमाण्यायुरनुपाल्य ततश्च्युतो महाविदेहे सेत्स्यतीति चतुर्थमध्ययनम् । पञ्चमः सुकृष्णसत्कपुत्रो वर्षचतुष्टय व्रतपर्यायं परिपाल्य ब्रह्मलोके पंत्रमकल्पे दश सागरानुत्कृष्टमायुरनुपाल्य ततऽच्युतो महाविदेहे सेत्स्यतीति पञ्चममध्ययनम् । षष्ठाध्ययने महाकृष्ण सत्कपुत्रस्य वक्तव्यता, सप्तमे वीर कृष्ण सत्कपुत्रस्य अष्टमे रामकृष्णसत्क्रपुत्रस्य वक्तव्यता । तत्र त्रयोऽप्येते वर्ष त्रयव्रतपर्यायपरिपालनपरा अभवन् । एवं च मह'कृष्णाङ्गजो वर्षत्रयपर्यायात्लान्तककल्पे षष्ठं उत्पद्य चतुर्दश सागरो माप्युत्कृष्ट स्थिति कमायुरनुपालय ततऽच्युतां महा विदेहे से त्यतीति षष्ठमव्ययनम् । वीरकृष्णाङ्गजः सप्तमः वर्षत्रयव्रतपर्यायं परिपाल्य महाशुक्र सप्तमे कल्पे समुत्पद्य सप्तदशसागराण्यायुरनुपालय ततऽच्युतो विदेहे सेत्स्यनीति सप्तममध्ययनम् । रामकृष्णाङ्गजोऽष्टमो वर्षत्रयं व्रतपर्यायं परिपाल्य सहस्रारेऽष्टमे कल्पेऽष्टादशसागराण्यायुग्नु पाल्य ततऽच्युओ विदेहे सेत्स्यतीति अष्टममध्ययनम् । Page #463 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरयावलिका:सूत्रवृत्ति ] [१३ पितृसेनकृष्णाङ्गजो नवमो वर्षद्वयव्रतपर्यायपरिपालनम् कृत्वा प्राणतदेवलोके दशमे उत्पद्य एकोनविंशतिसागरोपमाण्यानुपाल्य ततऽयुतो विदेहे सेत्स्यतीति नवमध्ययनम् । महासेन कृष्णाङ्गजश्च दशमो वर्षद्वयव्रतपर्यायपालनपरोऽनशनादिविधिनाऽच्यते द्वादशे देवलोके समुत्पद्य द्वाविंशतिनागरोपमाण्यायुरनुपाल्य ततऽच्युतो महाविदेहे सेत्स्यतीति दशममध्ययनम् । इत्येवं कल्पावतंसक देवप्रतिबद्धग्रन्थपद्धतिः कल्पावतंसकदेवप्रतिबद्ध ग्रन्थपद्धतिः कल्पावतंसिकेत्युच्यते । ता एताः परिसमाप्ता: द्वितीयवर्गश्च । पुफिया ॥३॥ अथ तृतीयवर्गोऽपि दशाध्ययनात्मक: 'निक्खेवमओ' त्ति निगमनवाक्यं यथा 'एवं खलु जंबू समणेण भगवया महावीरेणं आईगरेणं इत्यादि जाव सिद्धिगइनामधेयं ठाणं संपाविउकामेणं तइयवग्गे वग्ग (पढमप्रज्झ) यणस्स पुप्फियाभिहाणस्स अयम? पन्नत्ते' एवमुत्तरेष्वध्ययनेषु सूरशुक्रबहुपुत्रिकादिषु निगमनं वाच्यं तत्तदभिलापेन । ___'केवलकप्पं' ति केवल:-परिपूर्णः स चासो कल्पश्च केवलकल्पः-स्वकार्यकरणसमर्थः केवल कल्पः तं स्वगुणेन सम्पूर्णमित्यर्थः । 'कूडागारसालादिळंतो' ति कस्मिश्चिदुत्सवे कस्मिश्चिनगरे बहिर्भागप्रदेशे महती देशिकलोकवसनयोग्या शाला-गृहविशेषः समस्ति । तत्रोत्सवे रममाणस्य लोकस्य मेघवृष्टिर्भवितुमारब्धा, ततस्तदुभयेन अस्तबहुजनस्तस्यां शालायां प्रविष्टः, एवमयमपि • 'देवविरचितो लोकः प्रचुरः स्वकार्य नाटयकरणं तत्संहृत्यानन्तरं स्वकीयं देवशरीरमेवानुप्रविष्ट: इत्ययं शालादृष्टान्तार्थः । 'अड्ढे जाव' त्ति अड्डे दित्ते वित्त विच्छिन्नविउल भवणसयणासणजोणवाहणाइन्ने बहुधणबहुजायस्वे आओगपओगसंपउत्ते विच्छड्डियपउरभत्तपाणे बहुदासीदासगोमहिसगवेलगप्पभूए इति यावच्छब्दसंगृहीतम् | 'जहा आणंदो' त्ति उपासकदशाङ्गोक्तः श्रावक आनन्दनामा, स च बहूणं ईसरतलवरमाडंबियकोडुबियनगरनिगमसे द्विसत्थवाह ण बहुमु कज्जेसु य का ण य मते सु य कुटुंबेसु य निच्छिएसु य ववहारेसु य आपुच्छणिज्जे पडिपुच्छणज्जे सव्वकज्जवट्टावए सयस्स वि य कुडुवस्स मेढीभूए होत्था। 'पुरीसादःणीय' ति पर दीयो पु षादा ीय. । नवहस्नोच्छप-नवहस्तोच्च:अटुतीसाए अज्जियासहस्सेहिं संपरिबुडे इति यावत्करणात् दृश्यम् । हवतुट्ठचित्तमाणदिए इत्यादि वाच्यम् । देवाणुप्पियाणं अंतिए पव्वयामि। यथा गङ्गदत्तो भगवत्यङ्गोक्तः, स हि किंपाकफलोवमं मुणिय विसयसोक्खं जल बुब्बु यसमाणं कुसग्गबिंदुचञ्चलं जीवियं च नाऊणमधुवं चइत्ता हिरण्णे विपुलधणकणगरयण -णि मोत्तिय संख सिलप्पवाल रत्तग्यणमा- इयं 'विच्छड इत्ता दाणं दाइयाणं परिभाइत्ता आगाराओ अणगारिय पव्व इओ जहा तहा अंगई वि Page #464 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४] निरयावलिका-सूत्रवृत्ति गिहनायगो परिच्चइय सव्वं पव्वइओ याओ य पंचसमियो तिगुत्तो अममो अकिंचणो गत्तिदिओ गुत्तबंभयारी इत्येवं यावच्छब्दात् दृश्यम् ।। ___ चउत्थछट्टट्ठमदसम दुवाल समारद्धमासखबणेहि अप्पाणं भावेमाणे बहुइं वासाइं सामनपरित्यागं पाउणइ । 'विराहिय सामन्ने'त्ति श्रामण्यं व्रतं, तद्विराधना चात्र न मूलगुणविषया, कि तत्तरगुणविषया, उत्तरगण'इत्र पिण्डविशुध्ध्यादयः. तत्र कदाचित् द्विचत्वारिंशद्दोषविर्शद्धाहारस्य ग्रहणं न कृतं कारणं विनाऽपि बलग्लानादिकारणेऽशुद्धपि गृह्णन दोषवानिति, पिण्डस्याशुद्धतादी विराधितश्रमणता ईर्यादिसमित्यादिशोधनेऽनादरः कृतः अभिग्रहाश्च गृहीताः, कदाचिद् भग्ना भवन्तीति शण्ठयादिसन्निधिपरिभोगमङ्गक्षालनपादक्षालनादि च कृतवानित्यादिप्रकारेण सम्यगपालने व्रतविराधनेति, सा च नालोचिता गुरुसमीपे इत्यनालोचित।तिचारो मृत्वा कृतानशनोऽपि ज्योतिष्केन्द्र चन्द्ररूपतयोत्पन्न: । 'निक्खेवओ' त्ति निगमनं, तच्च प्रागुपदर्शितमेव । तच्चे अज्झयणे शुक्रवक्तव्यताऽभी धियते'उक्खेवओ' त्ति उत्क्षेपः-प्रारम्भबाक्यं, यथा-जइ णं भंते ! समणेणं जाव सपत्तेणं दोच्चस्स अज्झयणस्स पुफियाणं अयमठे पन्नत्त; तच्चस्स णं अज्झयणस्स भंते। पुप्फियाणं समणेणं जाव संपत्तेणं के अट्ठे पन्नत्ते ? एवं खलु जंबू ? तेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहे नयरे इत्यादि । 'तहेवागओ' त्ति रायगिहे सामिसमीवे । रिउव्वेय जाव' इति ऋग्वेदयजुर्वेदसामवेदाथर्वणवेदानाम् इतिहासपञ्चमानाम् इतिहासः -पुराणं निघण्टुषष्ठानाम् निर्घण्टको नाम कोशः साङ्गोपाङ्गानाम् अङ्गानि-शिक्षादीनि उपाङ्गानि-तदुक्तप्रपञ्चनपराः प्रबन्धाः, सरहस्यानाम्-एदम्पर्ययुक्तानां धारकः-प्रवर्तक: वारक: अशुद्धपाठनिषेधकः पारगः-पारगामि षडङ्गवित्. षष्ठितन्त्रविशारदः षष्ठितन्त्रं-कापिलीयशास्त्रं षडङ्ग वेदकत्वमेव व्यनक्ति, संख्याने-गणितस्कन्धे शिक्षाकल्पे - शिक्षायामक्षरस्वरूपनिरूपके शास्त्रे कल्पे-तथाविधसमाचार प्रतिपादके व्याकरण-शब्दलक्षणे छन्दसि-गद्यपद्यवचनलणनिरुक्तप्रतिपादके ज्योतिषामयने- ज्योतिःशास्त्रे अन्येषु च ब्राह्मणकेषु शास्त्रेषु सुपरिनिष्ठितः सोमिलनामा ब्राह्मणः स च पार्वजिनागमं श्रुत्वा कुतूहलवशाज्जिनसमीपं गतः सन् 'इमाई च णं' इति इमान् एतद्रूपान् 'अट्ठाई' त्ति अर्थान् अर्यमानत्वादधिगम्यानत्यर्थः । 'हेऊई' ति हेतून् अन्तर्वतिन्यास्तदीयज्ञानसंपदो गमकान्, 'पसिणाई ति यात्रायापनीयादीन् प्रश्नान् पृच्छहमानत्वात्, 'कारणाइ' ति कारणानि-विवक्षितार्थ निश्चयजनकानि व्याकरणानि-प्रत्युत्तरतया व्याक्रियमाणत्व देषामिति, 'पुच्छिस्सामि' त्ति प्रश्नयिष्ये इति कृत्वा निर्गतः । 'खंडियविहुणो' त्ति छात्र रहितः, गत्वा च भगवत्समीप एवमवादीत-'जत्ता ते भंते ? जवणिज्जं च ते?' इति प्रश्न: तथा सरिसवया मासा कुलत्था एते भोजएण एगे भवं दुवे भवं इति च एतेषां च यात्रादिपदानामागमिकगम्भीरार्थत्वे । भगवति तदर्थपरिज्ञानमसंभावयताऽपभ्राजनार्थम् प्रश्न: कृत इति 'सरिसवय' त्ति एकत्र सदृशवयम्। अन्यत्र सर्षपा:-सिद्धार्थकाः, 'मास' त्ति एकत्र माषो-दशार्धगुज्जामानः सुवर्णादिविषयः अन्यत्र Page #465 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरयावलिका-सूत्रवृत्तिः । माषा: धान्यविशेषः उडद इति लोके रूढः, 'कुलत्थ' त्ति एकत्र कुले निष्ठन्ति इति कुलत्था:, अन्यत्र कुलस्था:-धान्यविशेषः । सरिसवयादिपदप्रश्नश्च छलग्रहणेनोपहासार्थ कृत: इति, 'एगे भवं' ति एको भवान् इत्येकत्वाभ्युपगमे आत्मनः कृते भगवता श्रोत्रादिविज्ञानानमवयवानां चात्मनोऽनेकश उपलब्ध्या एकत्वं दूषयिष्यामिति बुद्ध्या पर्यनुयोगो द्विजेन कृत: यावच्छब्दात् दुवे भवं' ति गृह्यते वो भवान् इति च द्वित्वाभ्युपगमेऽहमे फत्वविशिष्टस्यार्थस्य द्वित्वविरोधेन द्वित्वं दूषयिष्यामीति बुद्ध्या पर्यनुयोगो विहितः अत्र भ वान् स्याद्वादपक्षं निखिलदोषगोचरातिक्रान्तमवलम्ब्योत्तरमदायि (मदात्)- एकोऽप्यहं, कथं ? द्रव्यार्थतया जीवद्रव्यस्यैकत्वात् न तु प्रदेशार्थतया (प्रदेशार्थतया) द्य नेकत्वात्, ममेत्यवादीनामेकत्वोपलंभो न बाधकः, ज्ञानदर्शनार्थतया कदाचित् द्वित्वमपि न विरुद्धवित्यत उक्तं द्वावप्यहं, किं चैकस्यापि स्वभावभेदेनानेकधात्वं दृश्यते, तथा हि–एको हि देवदत्तादिपुरुष एकदैव तत्तदपेक्षया पितृत्वपुत्रत्वभ्रातृत्वमातुलत्वभागिनेयत्वादीननेकान् स्वभावान् लभते। तहा अक्खए अव्वए निचे अवटिए प्राय'त्ति यथा जीवद्रव्यस्यैकत्वादेकस्तथा प्रदेशार्थतयासंख्येयप्रदेशतामाश्रित्याक्षयः, सर्वथा प्रदेशानां क्षयाभावात् , तथाऽव्ययः क्रियतामपि व्ययत्वाभावात्, असंख्येयप्रदेशता हि न कदाचनाप्यपति । अतो व्यवस्थित्वान्नित्यताऽभ्युपगमेऽपि न कश्चिदोषः, इत्येवं भगवताऽभिहिते तेनापृष्टेऽप्यात्मस्वरूपे तद्बोधार्थ, व्यवच्छिन्नसंशयः संजातसम्यक्त्व: "दुवालसविहं सावगधम्म पडिवज्जित्ता सट्ठाणमुवगओ सोमिलमाहणो।' .. "असाहुदंसणेणं" ति असाधवः-कुदर्शनिनो भागवततापसादयः, तद्दर्शनेन साधूनां चसुश्रमणा-नामदर्शनेन तत्र तेषां देशान्तरविहरणेनादर्शनतः अत एवोपर्युपासनतस्तदभावात्, अतो मिथ्यात्वपुद्गलास्तस्य प्रवर्धमानतां गताः, सम्यक्त्वपुद्गलाश्चापचीयमानास्त एवैभिः कारण. मिथ्यात्वं गतः। तदुक्तम्- “मइमेया पुवोग्गाहसंसग्गीए य अभिनिवेसेणं । चउहा खलु मिच्छत्तं साहूणंऽदसणेणऽहवा। अतो अत्र असाहुदंसणेणं इत्युक्तम् । “अज्झत्थिए जाव" त्ति आध्यात्मिकः-आत्मविषयः चिन्ततः स्मरणरूप : प्रार्थित:-लघुमाशंसित: मनोगतो-मनस्येव वर्तते यो न बहिः प्रकाशितः सङ्कल्पोविकल्पः समुत्पन्न:-प्रादुर्भूतः, तमेवाह-एवमित्यादि 'वयाई चिण्णाई' व्रतानि नियमास्ते च शौचसंतोषतप:स्वाध्यायादीनां प्रणिधानानि वेदाध्ययनादि कृत च, ततो ममेदानीं लौकिकधर्मस्थानचरणयारामारोपणं कर्तुं श्रेय: तेन वृक्षारोपणमिति, अत एवाह-'अंबाराम य इत्यादि। कल्लं पाउप्पभायाए रयणीए जलंते सरिए इत्यादि वाच्यम् । "मित्तनाइनिय गसम्बन्धि परियणं पि य आमंतित्ता विउलेणं असणापाणखाइमसाइमेणं भोयावित्ता समाणित्ता - इति अत्र मित्राणि सुहृदः ज्ञातयः समानजातयः निजका:-पितृव्यादयः संबन्धिन:-श्वसुरपुत्रादयः परिजनोदासीदासादि: तमामंत्र्य विपुलेन भोजनादिना भोजयित्वा सत्कारयित्वा वस्त्रादिभिः संमानयित्वा गुणोत्कीर्तनत: ज्येष्ठपुत्रं कुटुम्बे स्थापयित्वाऽधिपतित्वेम गृहीतलोटकहाहाद्य पकरणाः । 'वाणपत्थ' त्ति वने भवा वानी प्रस्थानं प्रस्था-अवस्थितिः वानी प्रस्था येषां ते वानप्रस्थाः अथवा 'ब्रह्मचारी Page #466 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [निरयावलिका-सूत्रवृत्ति गृहस्थश्च, वानप्रस्थो यतिस्तथा । इति चत्वारो लोकप्रतोता प्राश्रमा एतेषां च तृतीयाश्रमवतिनो वानप्रस्था: 'होत्ति य' त्ति अग्निहोत्रिका: 'पोत्तिय' त्ति वस्त्रधारिणः, कोत्तिया जन्नई सढ्डई धालई हुबउट्ठा दंतुक्खलिया उम्मज्जगा सम्मज्जगा निम्मज्जगा संपक्खालगा दक्खिणकुलगा उत्तरकुलगा संखधम्मा कुलधम्मा मियलुद्धया हत्थितावसा उद्दडगा दिस।पोक्खिणो वकवासिणो बिलवासिणो जलवासिणो रुक्खमूलिया अंबुभक्खिणो वायुभक्खिणो सेवा भक्खिणो मूलाहारा कंदाहारा तयाहारा पताहारा पुप्फाहारा फलाहारा बीयाहारा परिसडियकंदमूलतयपत्तप्फफलाहारा जलाभिसेयक ढिणगाय आयावणेहिं पंचग्गीयावेहि इंगालसोल्लियं कंदुसोल्लियं । तत्र 'कोत्तिय' ति भूमिशायिनः, 'जन्नई' त्ति यज्ञयाजिनः, 'सड्ढइ' त्ति श्राद्धाः 'घालई' त्ति गृहीतभाण्डा: 'हुबउट्ठ' त्ति हूंडि काश्रमणा:, 'दतुक्खलिय' त्ति फलभोजिन: 'उम्मज्जग' त्ति. उन्मज्जनमात्रेण ये स्नान्ति 'सम्मज्जग' त्ति उन्मज्जनस्यैवासकृत्करणेन ये स्नान्ति 'निम्मज्जग' त्ति स्नानार्थम् ये निमग्ना एवं क्षणं तिष्ठिन्ति, 'संपखालग' त्ति मृत्तकाघर्षणपूर्वकं येऽङ्ग क्षालयन्ति, 'दविखणकुलग' त्ति यर्गङ्गादक्षिण कुल एव वस्तव्यं, 'उत्तरकुलग' ति उक्तविपरीताः, 'सङ्खधम्म' त्ति शङ्खध्मात्वा ये जेमन्ति यद्यन्यः कोऽपि नागच्छति, 'कुलधमग' त्ति ये कुले स्थित्वा शब्दं कृत्वा भुजते, 'मियलुद्धय' त्ति प्रतीता एव, ‘हत्थितावस' त्ति ये हस्तिनं मारयित्वा तेनैव बहुकालं भोजनतो यापयन्ति, 'उदंडग ति ऊर्ध्वकृतदण्डा ये संचरन्ति, दिसापोविखणो' त्ति उदकेन दिशः प्रोक्ष्य ये फलपुष्पादि समुच्चिन्वति, 'वक्कवासिणो' त्ति वल्कलवाससः, विलवासिणी' त्ति व्यक्तम्, पाठान्तरे 'वेलवासिणो' त्ति समुद्रवेलावासिनः 'जलवासिणो' त्ति ये जलनिषण्णा एवासते, शेषाः प्रतीताः नवरं, 'जलाभिसे यकढिणगाय' त्ति ये स्नात्वा न भुञ्जते स्नात्वा स्नात्वा पाण्डुरोभूतगात्रा इति वृद्धाः क्वचित् ‘जलाभिसेयकढिणगायभूय' त्ति दृश्यते तत्र जलाभिषेककठिनगात्रभूताः प्राप्ता ये ते तथा, 'इंगालसोल्लियं ति अङ्गाररिव पक्वम्, 'कंदुसोल्लियं' त्ति कन्दपक्वमिवेति । 'दिसाचक्कवालएणं तवोकम्मेणं' ति एकत्र पारणके पूर्वस्यां दिशि यानि फलादीनि तान्याहृत्य भुङ्क्ते, द्वितीये तु दक्षिणस्यामित्येवं दिकचक्रवालेन तत्र तपःकर्मणि पारणककरण तत्तपःकर्म दिकचक्रवालमुच्यते तेन तप.कर्मणेति। ___ 'वागलवत्थनियत्थे' त्ति वल्कलं-वल्क: तम्येद वाल्कलं तद्वस्त्रं निवसितं येन सा वाल्कलवस्त्रनिव सतः । 'उडए' त्ति उटज:-तापसाश्रमगहम । किढिण' त्ति वंशमयस्तापसभाजनविशेष: ततश्च तयाः सांकायिक-भारोहनयन्त्रं किढिण पांक यिम । 'महाराय' ति लोकपाल: । 'पत्थाणे पत्थियं' प्रस्थाने परलोकसाधनमार्गे प्रस्थितं-प्रवृत्तं फलाद्याहरणार्थ, गमने वा प्रवृत्तम् । सोमिलद्विजऋषिम् । 'दब्भे य'त्ति समूलान् कुसेय' दर्भानेव निमलान । पत्तामोड च' त्ति तरुशाखामो. टितपत्राणि । 'समिहाउ' त्ति, समिधः कष्ठिकाः, 'वेइ वड्ढे ई' त्ति वेदिकां देवार्च स्थानं वधनीबहुकारिका तां प्रयुक्ते इति-वर्धयति-प्रमार्जयतीत्यथः । 'उवलेवणसमज्जणं' (ति) जलेन संमार्जनं वा शोधनम् । 'दब्भकलसहत्थ गए' त्ति दर्भाश्च क नशश्व हस्ते गता यस्य स तया, 'दभ. कलसा हत्थगए त्ति क्वचित्पाठः तत्र दर्भेण सहगतो यः कलशक: स हस्तगतो यस्य स तथा । 'जल Page #467 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरयावलिका-सत्रवत्ति [१७ मज्जणं' ति जलेन बहिःशुद्धि मात्रम् । 'जलकीड' ति देहशुद्धावपि जलेनाभिरतिम् । 'जलाभिसेयं' ति जलक्षालनम् । 'आयन्ते' त्ति जलस्पर्शात् चोक्खे' त्ति अशुचिद्रव्यापगमात् किमुक्तं भवति ? । 'परमसूइभूए' त्ति 'देवपिउकयकज्जे' ति देवानां पितृणां च कृतं कार्य जलाञ्जलिदानं येन स तथा। 'सरएण अरणि महेइ' त्ति शरकेण - निमन्थ काष्ठेन अरणि - निर्मन्थनीयकाष्ठं मथ्नाति-धर्षयति । अग्गिस्स दाहिणे इत्यादि सार्धश्लोकः तद्यथा शब्दवर्ज', तत्र च 'सत्तंगाइं समादहे' त्ति सप्तङ्गानि समादधाति-सन्निधापयाति सकथं १ वल्कलं २ स्थानं ३ शय्याभाण्डं ४ कमण्डलुं ५ दण्डदारु तथात्मान मिति । तत्र सकथं-तत्समयप्रसिद्ध उपकरण विशेष: स्थानं ज्योतिःस्थानम पात्र स्थानं वा, शय्याभाण्डं-शय्योपकरणं, कमण्डलु-कुण्डिका दण्डदारु-दण्डकः, आत्मा प्रतीतः । 'चरु साहेइ' त्ति चरु:-भाजनविशेषः तत्र पच्यमानं द्रव्यमपि चरुरेव तं चरु बलि मित्यर्थः साधयतिरन्धयति । 'बलि वईस्सदेवं करेइ' त्ति बलिना वैश्वानरं पूजयतीत्यर्थः । 'अतिहिपूर्य करेइ' त्ति अतिथे:-आगन्तुकस्य पूजां करोतोति 'जाव गहा' कडुच्छ पतं बियभायणं गहाय दिसापोक्खियतावसत्तए पव्वइए प्रजितेऽपि षष्ठादितपःकरणेन दिश: प्रेक्षितत्वादिविधि च कृत्वा पारणादिकमाचरितवान् । इदानीं च इदं मम श्रेयः कर्तु, तदेवाह 'जाव जलंते सूरिए' दृष्टान् आभाषितान् आपृच्छय, बहूनि सत्वशतानि समनुमान्य संभाष्य गृहीतनिजभाण्डोपकरणस्योत्तरदिगभिमुखं गन्तुं मम युज्यते इति संप्रेक्ष्यते चेतसि, 'कट्ठमुद्दाए मुहं बंधइत्ता' यथा काष्ठं काष्ठमयः पुत्तलको न भाषते एवं सोऽपि मौनावलम्बी जातः यद्वा मुखरन्ध्राच्छादकं काष्ठखण्डमुभयपार्श्वच्छिद्रद्वयप्रेषितदवरकान्वितं मुखबन्धनं काष्ठमुद्रा तया मुखं बध्नाति । जलस्थलादीनि सुगमानि, एतेषु स्थानेषु स्खलितस्य प्रतिपतितस्य वा न तत उत्थातु मम कल्पते । महाप्रस्थान पदं ति मरणकालभावि कर्तु ततः प्रस्थित:-कतु मारब्धः। 'पुव्वावरण्हकालसमयंसि' ति पाश्चात्यापराहकालसमयः दिनस्य चतुर्थप्रहरलक्षणः । पुवारत्तावरत्तकालसमयंसि त्ति पूर्वरात्रो-रात्रैः पूर्वभागः, अपररातो-रात्रः पश्चिमभागः तल्लक्षणो यः कालसमय:कालरूपसमय: स तथा तत्र रात्रिमध्याह्न (मध्यारात्रे) इत्यर्थ: । अन्तिक-समीपं, प्रादुर्भूतः । इत ऊर्व सर्व निगदसिद्धं जाव निक्खेवओ त्ति । नवरं विरातिसम्यक्त्वः । अनालोचिताप्रतीकान्तः । शुक्रग्रहदेवतया उत्पन्नः। बहुपुत्तियाध्ययने 'उक्खेवओ' त्ति उत्क्षेप: प्रारम्भवाक्यं यथा--जइ णं भंते समणेणं सिद्धिगइनामधेयं ठाणं संपाविउकामेणं तच्चवग्गस्स पुफियाणं तइयज्झयणस्स अयम? पन्नत्ते, चउत्थस्स णं अज्झयणस्स पुफियाणं के अट्ठ पण्णते? " एतन्स 'दिव्वा देविड्ढी पुच्छ' त्ति, किण्हं लद्धा-केन हेतुनोपाजिता ? किण्णा पत्ता-केन हेतुना प्राप्ता उपाजिता सती प्राप्तिमुपगता? किण्णा 'भिसमण्णागय त्ति प्राप्तापि सतो केन हेतुनाऽऽभिमुख्येन सांगत्येन च उपार्जनस्य च पश्चाद्धोग्यतामुपगतेति ?। एवं पृष्टे सत्याह एवं खलु' इत्यादि । वाणारस्यां भद्रनामा सार्थवाहोऽभूत् । 'अड्ढे' इत्यादि अड्ढे दित्ते वित्ते विच्छिण्णविउलभवणसयणासणजाणवाहणाइण्णे बहुधणजाइआययणआओगपओगसंपत्ते विच्छड्डियपउर Page #468 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ निरयावलिका-सत्रवृत्तिः + M भत्तपाणे बहुदासीदासगोमहिसगवेलकप्पभूए बहुजणस्स अपरिभूए. सुगमान्येतानि । नवरं आढ्य.. ऋद्धया परिपूर्णः, दृप्तः-दपवान्, वित्तो ---विख्यातः । भद्रसाथवाहस्य भार्या सुभद्रा सुकुमाला। वंझ' त्ति अपत्य फलापेक्षया निष्फला, 'अवियाउरि' त्ति प्रसवानन्तरमपत्यमरणेनापि फल तो वन्ध्या भवति अत उच्यते - अविया उरि'त्ति अविजननशीलाऽपत्यानाम्, अत एवाह-जानुकूर्प गणामेव माता-जननी जानकपरमाता, एतान्येव शरीराशभतानि तस्याः स्तनो स्पशन्ति नापत्यमित्यथ अथवा जानुकूर्पराण्येवमात्रा परप्राणादिसाहाय्यसमर्थः उत्सङ्गनिवेशनीयो वा परिकरो यस्याः न पुत्रलक्षणः स जानुकूपरमात्रः । इमेयारूवे' ति इहैवं दृश्य "अयमेयारूवे अज्जत्थिए चितए पत्थिए मणोगए संकप्पे समुप्पज्जित्था' तत्राय एतद्रूप: आध्यात्मिक:-प्रात्माश्रितः चिन्तितः-स्मरणरूप: मनोगतो-मनोविकाररूप: संकल्पो-विकल्पः समुत्पन्न: । 'धन्नाओ णं ताओ' इत्यादि धन्याघनमर्हन्ति लप्स्यन्ते वा यास्ता धन्या: इति यासामित्यपेक्षया, अम्बा:-स्त्रियः पुण्या:-पवित्रा: कृतपुण्या:-कृतसुकृताः कृतार्थाः - कृतप्रयोजना: कृतलक्षणा:-सफलीकृतलक्षणा:। सुलद्धे ण तासि अम्मगाणं मणय जम्मजीवियफले' सृलब्धं च तासां मनुजजन्मजीवितफल च। 'जासि' त्ति यासां मन्ये इति वितर्कार्थो निपातः । निजकुक्षिसंभूतानि डिम्मरूपाणीत्यर्थः स्तनदुग्धे लुब्धानि यानि तानि तथा। मधुराः समुल्लापा येषां तानि तथा। मन्मन म्-अव्यक्तमीषल्ललितं प्रजल्पितं येषां तानि तथा । स्तनमूलात् कक्षादेशभागमभिसरन्ति मुग्ध कानि-अव्यक्तविज्ञानानि भवन्ति। पण्हयन्ति-दुग्धं पिबन्ति । पुनरपि कोमलकमलोपमाभ्यां हस्ताभ्यां गृहीत्वा उत्सड़े निवेशितानि सन्ति । ददति समुल्लापकान्, पुनः पुनः मञ्जुलप्रभणितान् मञ्जुलं-मधुरं प्रभणितं-भणितिर्येषु ते तथा तान्, इह सुमधुरानित्यभिधाय यन्मजुलप्रभणितानीत्युक्तं तत्पुनरुक्तमपि न दुष्टं संभ्रमणितत्वादस्येति । 'एत्तो' त्ति विभक्तिपरिणामादेषाम्-उक्तविशेषणवतां डिम्भानां मध्य देकतरमपि-अन्यतरविशेषणमपि डिम्भं न प्राप्ता इत्युपहतमनःसङ्कल्पा भूमिगतदृष्टिका करतलपर्यस्तितमुखी ध्यायति । अथानन्तरं यत्संपन्नं तदाह- तेण कालेणं' मित्यादि। गृहेषु समुदानं-भिक्षाटनं गृहसमुदान भक्षं, सन्निमित्तमटनम् । साध्वीसंघाटको भद्रसार्थवाहगृहमनुप्रविष्टः । तद्भार्या चेतसि चिन्तितवती (एवं वयासो) यथा-विपुलान्-समृद्धान् भोगान् भोगभोगान्-अतिशयवतः शब्दादीन् उपभुजाना विहरामि-तिष्ठामि केवलं तथापि डिम्भादिकं न प्रजन्ये-न जनितवती अहं, केवलं ता एव स्त्रियो धन्या यासां पुत्रादि संपद्यत इति खेदपरायणा 'हवति' (ऽहं वर्ते)। तत्रार्थे यूयं किमपि जानीध्वे न वेति ? यद्विषये परिज्ञानं संभावयति तदेव विद्यामन्त्रप्रयोगादिकं वक्तुभाह । केवलिप्रज्ञप्तधर्मश्च – “जीवदयसच्चवयणं, परधणपरिवज्जणं सुसीलं च । खंती पंचिंदियनिग्गहो य धम्मस्स मूलाइं । इत्यादिकः । 'एवमेय'ति एवमेतदिति साध्वीवचने प्रत्या (त्यया) विष्करणम् । एतदेव स्फुटयति'तहमेयं भंते ! तथैवैतद्यथा भगवत्यः प्रतिपादयन्ति यदेता यं वदथ तथै वैतत् । 'अवितहमेयं' ति सत्यमेतदित्यर्थः 'असंदिद्धमेयं ति संदेहवजितमेतत् । एतान्येकार्थान्यत्यादरप्रदर्शनायोक्तानि सत्योऽ. यमर्थो यडू यं वदथ इत्युक्त्वा वदन्ते-वाग्भिः स्तौति, नमस्यति कायेन प्रणमति वंदित्ता नमंसित्ता सावगधम्म पडिवज्जइ देवगुरुधर्मप्रतिपत्ति कुरुते । Page #469 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरयावलिका-सूत्रवृत्तिः ] [१६ यथासुखं देवानुप्रिये ! अत्रार्थे मा प्रतिबन्धं-प्रतिघातरूपं प्रमादं मा कृथाः । 'आघवणाहि' त्ति आख्यापनाभिश्च सामान्यतः प्रतिपादनः। 'पण्णवणाहि य' त्ति प्रज्ञापनाभिश्च-विशेषतः कथनैः । सण्णवणाहि य' त्ति संज्ञापनाभिश्च संबोधनाभिः 'विण्णवणाहि य' त्ति विज्ञापनाभिश्च -विज्ञप्तिकाभिश्च सप्रणयप्रार्थनैः । चकारा समुच्चयार्थाः । 'आघवित्तए' त्ति आख्यातुं व प्रज्ञापयितुं वा संज्ञापयितुं वा विज्ञापयितुं वा न शक्नोतीति प्रक्रमः सुभद्रां भार्यां व्रतग्रहणानिषेधयितु 'ताहे' इति तदा 'अकामए चेव' अनिच्छन्नेव सार्थवाहो निष्क्रमणं-व्रतग्रहणोत्सवं अनुमनितवान् (अनुमतवान्) इति ! किंबहुना ? मुंडा भवित्ता अगाराओ अणगारियं पव्वइ त्ति । इत ऊर्व सुगमम् । ___'जाव पाडियक्कं उवस्सय' ति सुव्रताथिकोपाश्रयात् पृथक् विभिन्नमपाश्रयं प्रतिपद्य विचरतिप्रास्ते । 'अज्जाहि अणोहट्टिय' त्ति यो बलाद्धस्तादी गृहीत्वा प्रवर्तमानं निवारयति सोऽपघट्टिका तदभावादनपघट्टिका, अनिवारिता-निषेधकरहिता, अतएव स्वच्छन्दमतिका। ज्ञानादीनां पार्वे तिष्टतीति पावस्था इत्यादि सुप्रतीतम् । 'उवत्थाणियं करेइ' त्ति उपस्थानं-प्रत्यासत्तिगमनं तत्र प्रेक्षणककरणाय यदा विधत्ते । 'दिव्वं देविड्ढ'त्ति देवद्धिः-परिवारादिसंपत्, देवधु ति:-शरीराभरणादीनां दीप्तियोगः, देवानुभाग:-अद्भुत-वैक्रियशरीरादिशक्तियोगः, तदेतत्सर्व दर्शयति-। 'विनयपरिणयमेत्त'ति विज्ञका परिणतमात्रोपभोगेषु मत एव यौवनोद्रममनुप्राप्ता। 'रूवेण व'त्ति रूपम् -आकृतिः यौवनंतारुण्यं लावण्यं चेह स्पृहणीयता चकारात् गुणग्रहः गुणाश्च मृदुत्वौदार्यादयः, एतैरुत्कृष्टा-उत्कर्षवती शेषस्त्रीभ्यः, अत एव उत्कृष्टमनोहरशरीरा चापि भविष्यति । 'विनयपरिणयमित्तं पडिकुविएणं सुक्केणं'ति प्रतिकूजितं-प्रतिभाषितं यत् शुक्ल द्रव्यं तेन कृत्वा प्रभूतमपि वाञ्छितं देयद्रव्यं दत्त्वा प्रभूताभरणादिभूषितं कृत्वाऽनुकूलेन विनयेन प्रियभाषणतया भवद्योग्येयमित्यादिना 'इट्टा' वल्लभा' 'कंता' कमनीयत्वात् 'प्रिया' तदा प्रेमविषयत्वात् 'मणुण्णा' सुंदरत्वात् एवं 'संयमा अणुमया' इत्यादि दृश्यम् । आभरणकरण्डकसमानोपादेयत्वादिना। तैलकेला सौराष्ट्रप्रसिद्धी मृन्मयस्तैलस्य भाजनविशेषः, स च भङ्गभयाल्लोठनभयाच्च सुष्ठु संगोप्यते एवं साऽपि तथोच्यते । 'चेलपेडा इवे'ति वस्त्रमजषेवेत्यर्थः । 'रयणकरंडग' इति इन्द्रनीलादिरत्नाश्रयः सुसंरक्षितः सुसंगोपितश्च क्रियते। 'जयलगं' दारकदारिकादिरूपं प्रजनितवती। पुत्रकै: पुत्रिकाभिश्च वर्षदशकादिप्रमाणतः कुमारकुमारिकादिव्यपदेशभाक्त्वं डिम्भडिम्भिकाश्च लघुतरतया प्रोच्यन्ते । अप्येके केचन 'परंगणेहिं' ति नृत्यद्भिः । 'परक्कममाणेहि ति उल्ललयद्भिः । पक्खोलणएहिं'ति प्रस्खद्भिः । हसद्भिः, रुषद्भिः 'उक्कूवमाणेहिंति बृहच्छब्दैः पूत्कुर्वद्भिः। पुठवड (दुब्बल)त्ति दुर्बला । 'पुष्वरत्ताबरत्तकालसमयंसि' त्ति पूर्वरात्रश्चासावपररात्रश्चेति पूर्वरात्रापररात्रः स एव कालसमयः कालविशेषस्तस्मिन् रात्रे पश्चिमे भाग इत्यर्थः प्रयमेतद्रूपः आध्यात्मिक:-आत्माश्रितः, चिन्तितः स्मरणरूपः प्रार्थित:अभिलाषरूपः मनोविकाररूपः संकल्पो-विकल्पः समुत्पन्नः। इह ग्रन्थे प्रथमवर्गो दशाध्ययनात्मकः, सिमावलिकास्यनामकः । द्वितीयवर्गों द्रशाध्ययनास्मकः, तत्र च कल्पावतंसिका इत्यास्या मध्ययनानाम् तृतीयोऽपि दशाध्ययनात्मकः, पुष्पिका Page #470 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०] [निरथावलिका सूत्रवृत्ति शब्दाभिधेयानि च तान्यध्ययनानि, तत्राद्य े चन्द्रज्योतिष्येन्द्रवक्तव्यता १। द्वितीयाध्ययने सूर्यवक्तव्यता २ । तृतीये शुक्रमहाग्रहवक्तव्यता ३ । चतुर्थाध्ययने बहुपुत्रिकादेवी वक्तव्यता ४ । पञ्चमे - ऽध्ययने पूर्णभद्रवक्तव्यता ५ । षष्ठे माणिभद्रदेवक्तव्यता ६ । सप्तमे प्राग्भविकचन्दनानगर्यो दत्तनामकदेवस्य द्विसागरोपमस्थितिकस्य वक्तव्यता ७ । अष्टमे शिवगृहपति (ते) मिथिलावास्तव्यस्य देवत्वेनोत्पन्नस्य द्विसागरोपमस्थितिकस्य वक्तव्यता ८ | नवमे हस्तिनापुरवास्तव्यस्य द्विसागरोपमायुष्कतयोत्पन्नस्य देवस्य बलनामकस्य वक्तव्यता है । दशमाध्ययनेऽणाढियगृहपतेः काकन्दीनगरीवास्तव्यस्य द्विसागरोपमायुष्कतयोत्पन्नस्य देवस्य वक्तव्यता १० । इति तृतीय वर्गाध्ययनानि । पुप्फचुला ॥ ४ ॥ चतुर्थ वर्गोऽपि दशाध्ययनात्मक: श्री - ह्रीधृतिकीर्तिबुद्धिलक्ष्मी इलादेवी सुरादेवी रसदेवीगन्धदेवी तिवक्तव्यताप्रतिबद्धाध्ययननामकः । तत्र श्रीदेवी सौधर्संकल्पोत्पन्ना भगवतो महावीरस्य नाट्यविधि दारकविकुर्वणया प्रदश्यं स्वस्थानं जगाम । प्राग्भवे राजगृहे सुदर्शनगृहपतेः प्रियाया भार्याया अङ्गजा भूतानाम्नी अभवत् न केनापि परिणीता । पतितपुतस्तनी जाता । वर ( ग पक्खे ज्जिया) परिवज्जिया' वर पितृप्रखेदिता भर्त्राऽपरिणीताऽभूत् । सुगमं सर्व यावच्चतुर्थं वर्ग समाप्तिः । वहिनदसा ॥ ५ ॥ पञ्चमवगं वह्रिदशाभिधाने द्वादशाध्ययनानि प्रज्ञप्तानि निसढे इत्यादीनि । प्रायः सर्वोऽपि सुगमः पञ्चमवर्गः नवरं चिराईए' त्ति चिर:- चिरकाल आदिनिवेशो यस्य तच्चिरादिकम् । महया हिमवंत मलय मंदरम हिंदसारे' इत्यादि दश्यम्, तत्र महाहिमवदादयः पर्वतास्तद्वत्सारः प्रधानो यः । नगर निगमसिट्टि सेणा व इसत्थवाहपभितिओ जिणं भगवंतं वंदइ । तदनु नन्दनवने उद्याने भगवान् समवसृतः । 'बायालीस भत्ताई' ति दिनानि २१ परिहत्यानशनया । 'निसढे ताओ देवलोगाओ आउक्रुए 'ति आयुर्दलिक निर्जरणेन, 'भवक्रएणं'ति देवभव निबन्धनभूतकर्मणां गत्यादीनां निर्जरणेन, स्थितिक्षयेण - आयु: कर्मणः स्थिते वेदनेन, 'अनंतरं चयं चइत्त'त्ति देवभवसम्बन्धिनं चयं - शरीरं त्यक्त्वा यद्वा च्यवनं कृत्वा क्व यास्यति ? गतोऽपि क्वोत्वस्त्यते ? 'सिज्झिहिइ' सेत्स्यति निष्ठितार्थतया, भोत्स्यते केवलालोकेन, मोक्ष्यते सकल कमर्शः, परिनिर्वास्यति स्वस्थो भविष्यति सकलकर्मकृतविकारविरहितया, तात्पर्यार्थमाह सर्व दु:खानामन्तं करिष्यति । इति श्रीचन्द्रसूरिविरचितं निरयावलिकाश्रुतस्कन्धविवरण समाप्तमिति । श्रीरस्तु ॥ ग्रन्थाग्रम् ६०० ।। भूल सुधार - पृष्ठ दस "आशीर्वचन" युवाचार्य श्री शिव मुनि जी महाराज ने जहां लाईन नं० ५ में द्वितीय के स्थान पर "तृतीय" पढ़ा जाए। द्वितीय उपांङ्ग में राजा श्रेणिक के पोत्रों का वर्णन है इस प्रकार पढ़ा जाए । Page #471 --------------------------------------------------------------------------  Page #472 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरयावलिका सूत्र श्रमण-संस्कृति के उन्नायक महंताण, णमोर तो सिद्धाण, तेउवझायाणं, णमोअरि रसत्वसाहणं मोआइरिया णमोलोरा SWATNNNN 3-5ISHES VPONVINDAVAINTANINTEN AVAVA BHATANTRA अहिंसा परमोधर्म यतीधर्मस्ततो जय। चौबीसवें तीर्थङ्कर भगवान महावीर