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वर्ग-चतुर्थ ]
(२६६)
[निरयावलिशा
• पदार्थान्वय:---तएणं-- तत्पश्चात् सा सुभद्दा अज्जा-उस सुभद्रा आर्या को, अन्नया कयाइ--अन्य किसी समय, बहुजणस्स- बहुत लोगों के, चेडरूवे-बालकों पर, समुच्छिया मूर्छा -आसक्ति भाव वाली, जाव-यावत्, अज्झोववण्णा-अतीव आसक्त हो गई. बालकों के निमित्त, अभंगणं च-मालिश के लिये तेल आदि, उव्वट्टणं च-उद्धर्तन, फासुयपाणं च–प्रासुक जल, अलत्तगं च-अल तक, कंकणाणि य-कंगन, अंजणं च-अंजन, वण्णगं च-चन्दन आदि, चण्णगं च-चूर्णक, खेल्लगाणि य-खिलौने, खज्जल्लगाणि य–खाद्य पदार्थ खाजा आदि, खीरं च-क्षीर, पुष्पाणि यपुष्पों का, गवेसइ-गृहस्थों के घरों से गंवेषणा करती है और, गवेसित्ता-गंवेषणा करके, बहुजणस्स दारए वा-बहुत लोगों के बालकों को, दारिया व बालिकाओं को, कुमारे य-कुमारों को, कुमारियाए य -कुमारियों को, डिभए य-छोटे बच्चों, डिभियाओ य-बच्चियों, अप्पेगइयाओ-उन में से किसी को, अब्भगेइ-हाथ - पांव दबातो है, अप्पेगइयाओ उन्वट्ट इकिसी के बटना मलता है, एवं इस प्रकार, अप्पेगइयाओ फासुयपाणएणं-किसी को प्रासुक जल से, व्हावेइ-स्नान कराती है, अप्पेगइयाणं पाए रयइ-किसी के पैरों पर रंग चढ़ाती है, अप्पेगइयाणं उ8 रयइ-किसी के ओष्ठ रंगती है, अप्पेगइयाणं अच्छीणि अजेइ-किसी की आंखों में अञ्जन लगाती है, अप्येगइयाणं उसुए करेइ-किसी के मस्तक पर बाण के आकार का तिलक लगाती है, अप्पेगइयाणं तिलए करेइ-किसी के माथे पर तिलक लगाती है, अप्पेगइयाओ दिगिदलए करेइ-किसी को हिंडोले में बिठलाती है, अप्पेगइयाणं पंतियाओ करेइ-किन्हीं को पंक्ति में बैठाती है, अप्पेगइयाइं छिज्जाइं करेइ-किसी को अलग-अलग बिठलाती है, अप्पेगइय वन्नएणं समालभइ-किसी को वर्णक विशेष प्रकार के चन्दन का लेप करती है, अप्पेगइया चुन्नएणं समालभइ-किसी को चूर्ण का लेप करती है, अप्पेगइयाणं खेल्लणगाई दलयइकिसी को खिलौने गुड़िया आदि देती है. अप्पेगइयाणं खज्जल्लगाइं दलयइ-किसी को खाजा आदि खाद्य पदार्थ देती है, अप्पेगइयाओ खोरभोयणं भुजावेइ-किसी को खीर का भोजन कराती है, अप्पेगइयाणं पृष्फाई ओमुयइ-किसी पर फूल फैकती है, अप्पेगइयाश्दो पाएस ठवेइ-किसी को अपने दोनों पांवों पर बिठलाती है, अप्पेगइसाओ जंघासु करे इ-किसी को अपनी जंघाओं पर बिठलाती है, एवं-इस प्रकार, ऊरुसु-गोडे पर, उच्छंगे-गोद में, कढीए-कटि पर, पिट्ट-पीठ पर, उरसि-छाती पर, खंधे-कन्धे पर, सीसे य–सिर पर बिठलाती है। करतलपुडेणं-दोनों हाथों से, गहाय-उठा कर, हलउलेमाणी-हलउलेमाणी-हुल राती हुई, आगायमाणी-आगायमाणी-बार-बार गाती है, परिगायमाणी-परिगायमाणी-ऊंचेस्वर से गाती हैलोरियां देती है, पुत्तपिवासं च-अपनी पुत्र की प्यास को, ध्यपिवासं च-पुत्री की पिपासा को, नत्तयपिवासं च-दोहते की इच्छा को एवं, नत्तिपिवासं च-दोहती की प्यास को, पच्चगुब्भवमाणी-प्रत्यक्ष अनुभव करती हुई, विहरइ-विचरण करने लगी ॥१२॥
मूलार्थ तत्पश्चात् वह सुभद्रा आर्या (साध्वी), किसी अन्य समय, बहुत लोगों के