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निरयावलिका ]
[ वर्ग - चतुर्थ
बालक-बालिकाओं के प्रति मूच्छित भाव से आसक्त हो गई । वह बालकों को बाहर से, भिक्षा रूप में लाये हुए उबटन आदि लगाकर प्रसुक जल से स्नान कराने लगी । वह अलता, अजन; वर्णक, चूर्णक खिलौनों व खाद्य पदार्थों खीर और पुष्पों की गृहस्थों के घरों में गवेषणा करती है, करने के पश्चात् बहुत से लोगों के बालक बालिकाओं, कुमार; कुमारियों, डिम्भो; लोटे बच्चे बच्चियों में से किसी हाथ पांव दबाती है, किसी के उबटन लगाती है इसी तरह किसी बालक बालिका को प्रासुक जल से स्नान कराती है किसी बालक के पांव पर रंग चढ़ाती है; किसी बालक के होंठ रंगता है, किसी बालक की आंख में अंजन डालता है, किसा बालक को इषुक बाण के आकार का तिलक लगाती है किसी किसी बालक के मस्तक पर तिलक लगाती है । किसी बालक को खेलने के लिए गुड़िया देती है; किसी बालक को बालकों की पक्ति
बिलाती है; किसी बालक को चन्दन आदि सुगन्धित द्रव्यों का लेप करती है; किसी बालक को चूर्णक का लेप करती है, किसी बालक को खेलने के लिए खिलौने देती है, किसी बालक को खाद्य पदार्थ (खाजा) देती है क़िसी बालक को खाने के सिए खीर देती है; किसी बालक पर फूल फेंकती है, किसी बालक को अपने दोनों पांवों पर बिठलाती है, किसी बालक को जंघाओं पर बिठलाती है, किसी बालक को उदर स्थल पर, किसी को गोद में ग्रहण करतो है, किसी बालक को कटि प्रदेश से ग्रहण करती है, किसी बालक को पीट पर बिठलाती है, किसी बालक को छाती पर बिठलाती है, किसी बालक को कन्धे पर बिठलाती है, किसी बालक को सिर पर बिठलाती है किसी बालक को दोनों हाथों से पकड़ कर गीत गाती है. वह किसी बालक बालक के लिये लोरियां गाती है इस प्रकार वह ( सुभद्रा आर्या ) अपनी पुत्रपिपासा, पुत्री - पिपासा, पौत्र-पोत्री पिपासा, एनं दोहते दोहतियों की प्यास का प्रत्यक्ष अनुभव करती हुई जीवन यापन करने लयी है ॥ १२ ॥
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टीका - प्रस्तुत सूत्र में बताया गया है कि सुभद्रा आर्या ने पंच महाव्रत ग्रहण कर साध्वी जीवन अंगीकार तो कर लिया, पर उसकी माता बनने की अभिलाषा फिर भी जीवित रही। वह किसी भी तरह अपने मन को वीतराग प्ररूपित धर्म की ओर न लगा सकी। ममता के वश वह अभ्य लोगों के बच्चे व बच्चियों को माता जैसा लाड़ दुलार देने लगी। वह गृहस्थों के बच्चों में सभी सांसारिक नाते रिश्ते देखने लगी। इस तरह सुभद्रा भाव दृष्टि से उन बच्चों पर आसक्त हो गई ।