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टीकाकार की लेखनी से
आत्मा के विकास के लिये श्रुत-ज्ञान अत्यन्त उपयोगी है। श्रुत-ज्ञान के द्वारा ही आत्मा स्व-कल्याण करने में समर्थ हो सकता है, यदि श्रुत-ज्ञान का अभाव हो तो आत्मा अपने कर्तव्य से पतित हो जाता है।
श्रुत-ज्ञान के दो रूप हैं-द्रव्य-श्रुत और भाव-श्रुत। आज दोनों ही श्रुत विद्यमान हैं। अनुयोग द्वार सूत्र में पत्र और पुस्तकों के अक्षर-विन्यास को द्रव्य-श्रुत कहा गया है और आत्म ज्ञान के रूप में श्रुत को भाव-श्रु त कहा जाता है। ये दोनों श्रुत लौकिक और लोकोत्तर धर्म-मार्ग के साधन हैं।
प्रस्तुत प्रकरण में भाव-श्रुत ही अभीष्ट है । भाव श्रु त के भी दो रूप हैं-अंग-प्रविष्ट और अनंग-प्रविष्ट (अंग बाह्म) गणधर देवों द्वारा रचित श्रुत अंग-प्रविष्ट कहलाता है और शेष श्रुत अंग-बाह्य के रूप में प्रसिद्ध हैं । अंग शास्त्रों के आधार पर निर्मितं श्रु त को उपांग भी कहते हैं। जो संख्या में बारह हैं। जिनके नाम इस प्रकार हैं - १. उववाइय (प्रौपपातिक) २. रायपसेणियं (राजप्रश्नीयम्) ३. जीवाभिगम ४. पण्णवणा (प्रज्ञापना) ५. सूरपण्णत्ति (सर्य-प्रज्ञप्ति) ६. जम्बू द्वीपपण्णत्ति (जम्बू द्वीप-प्रज्ञप्ति) ७. चंद पण्णत्ति (चन्द्र-प्रज्ञप्ति) ८. निरयावलियाओ (निरयावलिका) ६. कप्पवडिसियाओ (कल्पावंतसिका १०. पुप्फियाओ (पुष्पिका) ११. पुप्फ चूलाओ (पुष्प चूलिका) और १२. वहिदसाओ (वृष्णिदशा)।
__नन्दी सूत्र में अंग प्रविष्ट और अनंग-प्रविष्ट श्रुत का वर्णन करते हुए वृत्तिकार ने समस्त आगमों का श्रुत-पुरुष के रूप में वर्णन प्रस्तुत करते हुए लिखा है कि
___ यत्पुनरेतस्यैव द्वादशाङ्गात्मकस्य श्रुतपुरुषस्य व्यतिरेकेण स्थितमङ्गबाह्यत्वेन व्यवस्थित तबनङ्ग-प्रविष्टम् । अथवा यद्गणधरदेव कृतं तदङ्ग प्रविष्टम्, मूलभूतमित्यर्थः ।
___ गणधरदेवा हि मूलभूतमाचारादिकं धुतमुपरचयन्ति तेषामेव सर्गोत्कृष्ट श्रुतत्म-निध-सम्पन्नतया सवचयितुमीशत्गात् ।...'यापुनः श्रुतस्थगिरस्तदेकदेशमुपजीव्य विरचितं तबनङ्ग-प्रविष्टं ।
- उपर्युक्त समस्त विवरण का भाव यही है कि गणधर देवों द्वारा सूत्रबद्ध किया गया आगम साहित्य अङ्ग प्रविष्ट है और अन्य श्रुत-स्थविरों द्वारा आगमों के आधार पर विरचित- समस्त शास्त्रीय साहित्य अङ्ग-बाह्य अथवा अनङ्ग-प्रविष्ट साहित्य कहलाता है।
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