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________________ वर्ग - तृतीय ] [ निरयावलिका एवं खलु गौतम । तस्मिन् काले तस्मिन् समये 'धावस्तिः' नाम नगरी आसीत्, कोष्ठकं चैत्यम् । तत्र खलु श्रावस्त्यां नगर्याम् अङ्गति नामा गायापतिरासीत् आढ्यो यावदपरिभूतः । ततः खलु सः अङ्गतिर्गाथापतिः श्रावस्त्यां नगर्यां बहूनां नगर निगम० यथा आनन्दः ॥ १ ॥ ( १८४ ) पदार्थावयः - जइ णं भंते - यदि हे भगवन, समणेणं जाव संपत्तेणं - श्रमण भगवान यावत् मोक्ष संप्राप्तने, पुल्फियाणं दस अज्झयणा पन्नत्ता - पुष्पिका के दश अध्ययन प्रतिपादन किये हैं, पढमस्स णं भंते - तो हे भगवन प्रथम, अज्झयणस्स पुष्कियाणं - अध्ययन पुष्पिका के समणेणं जाव संपत्ते - श्रमण भगवान् यावत् मोक्ष को संप्राप्त ने, के अट्ठ पन्नत्ते - क्या अर्थ प्रतिपादन किया है ? एवं खलु जम्बू - इस प्रकार निश्चय ही हे जम्बू, तेणं कालेणं तेणं समएणं- उस काल उसे समय में, रायगिहे नाम नथरे - राजगृह नामक नगर था, गुणसिलए चेइए-गुणशील नामक चैत्य था, सेणिए राया- श्रेणिक राजा था, तेणं कालेणं, तेणं समएणं--उस काल उस समय में, सामी समोसढे - (भगवान महावोर) स्वामी गुणशील चैत्य में पधारे, परिसा निग्गया - परिषद् दर्शनार्थ आई, तेणं कालेणं तेणं समएणं - उस काल उस समय में चंदे जोइसिदे - शन्द्र ज्योतिषी देवों का इन्द्र, जोइसराया - ज्योति राजा था, चंदवडसए विमाणे सभाए सुहम्माए - चन्द्रावतंसक विमान की सोधर्म सभा में चंदसि सोहास मंसि- चन्द्र नामक सिंहासन पर चह सामाणियसाहस्तीह जाव विहरइ-चार हजार सामानिक देवों से संपरिवृत ( घिरा हुआ) विचरता है, इमं च णं hamari जंबुद्दीवं दीवं - उस समय सम्पूर्ण जम्बू द्वीप को, विउलेणं ओहिणा आभोए माणे आभोएमाणे पासइ पासित्ता - विपुल प्रधान अवधि ज्ञान के उपयोग से देखता है और देखकर, समणं भगवं महावीरं - :- श्रमण भगवान महावीर को देखकर, जहा सूरियाभे-जैसे सूर्याभदेव ने किया था, यावत् अभिओगे देवे सद्दावित्ता - आभियोगिक (सेवक ) देवों को बुला कर जाव सुरिदाभिगमन-जोग्गं करेता तमाणत्तियं पच्चपिणइ - यावत् सुरेन्द्र के जाने योग्य विमान की रचना कर, उसकी आज्ञा का पालन किया अर्थात् चन्द्र देव को सूचित किया कि विमान तैयार है, सुसरा घंटा जाव विव्वणासुस्वर घंटे यावत् सब की विकुर्वणा कर, उनको बताया, नवरं जाण विमाणं, जोयणसहस्स वित्थिष्णं - इतना विशेष है उसका विमान एक हजार योजन चोड़ा, अद्धत्ते वट्ठि जोयणसमूसियं - मोर ६२३ योजन ऊंचा था, महदज्झओ पणवीसं जोयणमूसिओ - महेन्द्र ध्वजा २५ योजन ऊंची, सेसं जहा सरियाभस्स जाव आगओ - शेष सूर्याभ देव के समान यावत् आ गया, नट्टविहि तहेव पडिगओ - उसी तरह नाट्य विधि (नाटक) दिखाकर वापिस स्वस्थान पर चला गया, भंते त्ति भगवं गोयमेहे भगवन् ! भगवान गौतम जो ने, समणं भगवं महवीरं पुच्छा - श्रमण भगवान महावीर से पूछा यावत् प्रश्न किया, कूडागारसाला सरीरं अणु पविट्ठा - कूटागारशाला की तरह वह देव के शरीर ही अनुप्रविष्ट हो गई, पुण्यभवो - गौतम स्वामी ने चन्द्रमा का पूर्व भव भगवान से पूछा, भगवान ने उत्तर दिया, एवं खलु गोयमा - इस प्रकार हे गौतम, तेणं कालेणं तेणं समएणं - उस काल उस समय में, सावत्थी नाम नयरी होत्था - श्रावस्ती नामक की नगरी थी, कोटुए चेहए
SR No.002208
Book TitleNirayavalika Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Swarnakantaji Maharaj
Publisher25th Mahavir Nirvan Shatabdi Sanyojika Samiti Punjab
Publication Year
Total Pages472
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, agam_nirayavalika, agam_kalpavatansika, agam_pushpika, agam_pushpachulika, & agam_vrushnidasha
File Size10 MB
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