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निरयावलिका)
(१८५)
[वर्ग-ततीय
वहां ईशान कोण में कोष्ठक नामक चैत्य था, तत्थर्ण सावत्थीए नयरोए-उस श्रावस्ती नगरी में, अंगई नाम गाहावई होत्था-एक अंगति नामक गाथापति था, अड्डे जाव अपरिभए-वह ऋद्धिवान यावत अपरिभूत था, तएणं से गाहावई-तत्पश्चात वह गाथापति, सावत्थीए नयरीए-श्रावस्ती नगरी में, बरणं नयरनिगम-बहत नगर निगमों में यावत, जहा आनंदो-जैसे आनन्द था ॥२॥
मूलार्थ - (आर्य जम्बू प्रश्न करते हैं। हे भगवन् ! श्रमण भगवान महावीर यावत् मोक्ष को संप्राप्त ने पुष्पिका नामक वर्ग के यदि १० अध्ययनों का प्रतिपादन किया है । तो हे भगवन् ! श्रमण भगवान यावत् मोक्ष संप्राप्त ने पुष्पिका के प्रथम अध्ययन का क्या अर्थ प्रतिपादन किया है ?
(उत्तर में आर्य सुधर्मा स्वामी कहते हैं) हे जंबू ! निश्चय ही उस काल, उस समय में राजगृह नामक नगर था उस नगर में गणशील नामक एक चैत्य था । श्रेणिक नामक राजा वहां राज्य करता था। उस काल और उस समय श्रमण भगवान महावीर उस राजगृह नगर के गुण शील चैत्य नाम के उद्यान में पधारे । परिषद दर्शन करने आई अर्थात् परिषद ने भगवान की पर्युपासना की।
उस काल, उस समय में चन्द्र ज्योतिष्केन्द्र, ज्योतिष्क देवों का राजा था, जो चार हजार सामानिक देवों से संपरिवृत (घिरा) हुआ, सुधर्मा सभा में, चन्द्रावतंसक नामक विमान पर, चन्द्र नामक सिंहासन पर बैठा हुआ यावत् विचरता था। वह . अपने विपुल अवधि-ज्ञान की शक्ति से समस्त जम्बू द्वीप को देखता है, देखकर श्रमण भगवान महावीर को देखते ही जैसे सूर्याभ देव ने किया था, उस प्रकार आभियोगिक देवों को बुलाता है । वे आभियोगिक देव सुरेन्द्र के गमन करने योग्य विमान की विकुर्वणा कर, चन्द्र देव की आज्ञा का पालन कर, उसको (चन्द्र देव को) सूचित करते हैं। फिर पदातिसेनानायक देव ने सुस्वर घंटों को बनाया और विमान की विकुर्वणा की। इतना विशेष है कि उस (चन्द्र) का विमान हजार योजन विस्तार वाला, साढ़े ६२ योजन ऊंचा था। महेन्द्र ध्वजा २५ योजन ऊंची थी। शेष जैसे सूर्याभदेव का वर्णन है, वैसे ही इस (चन्द्र) का है यावत् नाट्य-विधि की। उसे दिखाकर वापिस देवलोक लौट गया।
हे भगवन् ! (इस वर्णन के अनन्तर) भगवान गौतम ने श्रमण भगवान् महावीर