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________________ वर्ग - तृतीय ] ( १८६ ) से प्रश्न किया "हे भगवन् ! वह रचना कहां गई" भगवान महावीर ने उत्तर दिया "कूटागार शाला के समान ही देव के शरीर में प्रविष्ट हो गई ।" गणधर गौतम ने चन्द्र का पूर्व भव पूछा। भगवान ने उत्तर दिया - हे गौतम! उस काल, उस समय में श्रावस्ती नाम की नगरी थी। वहां एक कोष्ठ नाम का चंत्य था वहां अंगति नामक गाथापति रहता था । जो धन धान्य से यावत् पराभव से रहित था वह अंत गाथापति श्रावस्ती नगरी में बहुत नगर निगमों में यावत् आनन्द की तरह समृद्धियों से युक्त था ॥ २॥ - [ निरयावलिका टीका - प्रस्तुत सूत्र पुष्पिकानामक वर्ग के १० अध्ययनों में से प्रथम का अर्थ आर्य जम्बू की जिज्ञासा का समाधान करते हुए आर्य सुधर्मा सुना रहे हैं। उस काल उस समय राजगृही नगरी में श्रमण भगवान महावीर ग्रामानुग्राम धर्म प्रचार करते हुए पधारे । गुणशील चंत्य में राजा श्रेणिक व समस्त नागरिक प्रभु का धर्म उपदेश सुनने, दशन वन्दन करने आये। उसी सभा में ज्योतिष देवों का इन्द्र चन्द्रमा अपने चन्द्र सिंहासन पर बैठा अवधिज्ञान के उपयोग से ये सब देखता है । अपने चार हजार सामानिक देवों से घिरा, सुधर्मा सभा के चन्द्रावतंसक विमान में बैठा, अपने आधीन सेवक देवों को बुलाता है, उन्हें सुरेन्द्र के गमन योग्य विमान को विकुर्वणा करने का आदेश देता है सेवक देव एक हजार विस्तार व ६ २३ योजन ऊंचा विमान तैयार करते हैं और फिर देवों ने सुस्वर घंटा बजा कर अन्य देवों को सूचित किया । १६००० आत्म-रक्षक देवों को विकर्वणा कर आज्ञा पूरी करके चन्द्रदेव को सूचित करते हैं । चन्द्र देव अपने समस्त परिवार, देव परिवार व समस्त ऋद्धियों का प्रदर्शन करता हुआ, भगवान महावीर का प्रणाम करने आ रहा है । उसके आगे २५ योजन ऊंचो महेन्द्र ध्वजा चल रही है । चन्द्र देव भगवान के सामने सूर्याभदेव की तरह नाटक विधि का प्रदर्शन करता है और धर्म-उपदेश सुनने के पश्चात् चला जाता है । चन्द्रमा के चले जाने के पश्चात् गणधर गौतम प्रश्न करते हैं कि हे भगवन ! इस देव ने अपनी ऋद्धिको विस्तृत करके दिखाया, अब यह ऋद्धि कहां चली गई ? फिर शरीर में कैसे प्रविष्ट हो गई ?" भगवान महावीर ने उत्तर में कूटाकार शाला का दृष्टांत देकर स्पष्ट किया जैसे किसी उत्सव में फैला जनसमूह वृष्टि के भय से किसी विशाल घर में प्रवेश करता हैं उसी प्रकार चन्द्रदेव ने अपनी वैक्रिय शक्ति से देवताओं की रचना कर नाटक दिखाया और फिर उसको समेट कर अपने ही देव-शरीर में प्रविष्ट कर लिया । केवलकप्पं का भाव है अपना कार्य करने में समर्थ, अर्थात् स्व गुण सम्पूर्ण । वृत्तिकार मी इस प्रकार लिखते हैं
SR No.002208
Book TitleNirayavalika Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Swarnakantaji Maharaj
Publisher25th Mahavir Nirvan Shatabdi Sanyojika Samiti Punjab
Publication Year
Total Pages472
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, agam_nirayavalika, agam_kalpavatansika, agam_pushpika, agam_pushpachulika, & agam_vrushnidasha
File Size10 MB
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