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निरयावलिका)
(१८७)
[वर्ग-तृतीय
केवलकप्पति केवलः-परिपूर्णः स चासो कल्पश्च केवल कल्प:-स्वकार्यकरण समर्थः केवल जेल्पः तं स्वगुणेन संपूर्णमित्यर्थः ।
गौतम का ऐसा प्रश्न सुनकर भगवान ने कहा - हे गौतम ! उस काल उस समय में श्रावस्ती नाम को नगरी थो । उन नगरो में कोष्ठक नामक चैत्य था। उस श्रावस्ती नगरी में प्रगति नामक एक गाथापति था। वह गाथापति बहुत बड़ो ऋद्धि आदि से युक्त था, कीर्ति से उज्ज्वल था। उसके पास बहुत से घर, शैय्या, आसन, गाड़ो, घोड़े आदि थे और वह बहुत सा धन तथा बहुत सोना चांदी आदि का लेन-देन करता था। उसके घर में खाने के बाद बहत सा अन्न-पान प्रादि खाने पीने का सामान रहता था जो अनाथ-गरीब मनुष्यों को व पशु पक्षियों को दिया जाता था। उसके यहां दास-दासियां बहुत सी थीं और बहुत से गाय, भैंसें, भड़ें थीं, तथा वह अपरिभूत-प्रभावशाली था। "
'आख्य, दीप्त, और अपरिभूत' इन तीन विशेषणों से अंगति गाथापति के लिये दीपक का दृष्टान्त दिया जाता है, वह इस प्रकार है-जैसे दीपक, तेल, बत्ती और शिखा (लौ) से युक्त होकर वायु-रहित स्थान में सुरक्षित रहकर प्रकाशित होता है, वैसे ही अंगति गाथापति भी तेल और बत्ती के समान पाढ्य तथा अर्थात् ऋद्धि से, शिखा की जगह उदारता गंभीरता आदि से और दीप्ति से युक्त होकर, वायु-रहित स्थान के समान मर्यादा का पालन आदि रूप सदाचार से तथा पराभवरहितपन से संयुक्त होकर तेजस्विता धारण करता था । अतः आड्यता दीप्ति और अपरिभूतता, इन तीनों में रहनेवाला हेतुताऽवच्छेदक धर्म एक हो है, इस कारण तृणारणिमणि-न्याय से प्रत्यक्ष, अनुमान और आगम शब्दों में प्रमाणता के समान प्रत्येक (सिर्फ आध्यता, सिर्फ दीप्ति, या सिर्फ अपरिभूतता) को हेतु नहीं मानना चाहिए।
जिस प्रकार प्रानन्द गाथापति धन-धान्य आदि से युक्त वाणिज्य ग्राम में निवास करता था। उसी प्रकार अङ्गति गाथापति भी श्रावस्ती नगरो में निवास करता था। आनन्द का वर्णन श्री उपासक दशांगसूत्र के प्रथम अध्याय में देखना चाहिए ।
___ वह अङ्गति गाथापति राजा ईश्वर यावत् सार्थवाही के द्वारा बहुत से कार्यों में, कारणों (उपायों) में मन्त्र (सलाह) में, कुटुम्बों में, गु ह्यों में, रहस्यों में, निश्चयों में और व्यवहारों में एक बार पूछा जाता था और वह अपने कुटुम्ब का भो मेधि, प्रमाण, आधार आलम्बन चक्षु, मेघीभूत यावत् समस्त कार्यों को बढ़ाने वाला था। यावत् शब्द से राजा, ईश्वर, तलवार, माण्डविक, कौटुम्बिक, इभ्य, श्रेष्ठी सेनापति और सार्थवाह का ग्रहण होता है। माण्डलिक नरेश को राजा, और ऐश्वर्य वालों को ईश्वर कहते हैं। राजा संतुष्ट होकर जिन्हें पट्टवन्ध देता है, वे राजा के समान पट्टबन्ध से विभूषित लोग तलवर कहलाते हैं। जो वस्तो छिन्न भिन्न हो उसे मण्डव और उसके अधिकारी को माण्डविक कहते हैं। 'माहबिय' को छाया यदि 'माडम्बिक' की जाय तो माडम्बिक का अर्थ 'पांच सौ गांवों का स्वामी' होता है। अथया ढाई ढाई कोस की दूरी पर जो अलग गांव वसे हो, उनके स्वामी को 'माडम्बिक' कहते हैं। जो कटुम्ब का पालन पोषण करते हैं,