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वर्ग-तृतीय]
( १८८)
। निरयावलिका
या जिनके द्वारा बहुत से कुटुम्बों का पालन होता है, उन्हें 'कौटुम्बिक' कहते हैं। इस का अर्थ है हाथी और हाथी के बराबर द्रव्य जिसके पास हो उसे 'इभ्य' कहते हैं । जघन्य मध्यम और उत्कृष्ट के भेद से इभ्य तीन प्रकार के हैं। जो हाथी के बराबर मणि, मुक्ता, प्रवाल (मूंगा) सोना, चांदी आदि द्रव्य-राशि के स्वामी हो वे जघन्य इभ्य हैं । जो हाथी के बराबर हीरा और माणिक को राशि के स्वामी हों वे माध्यम इभ्य हैं । जो हाथी के बराबर केवल होरों की राशि के स्वामी हो वे उत्कृष्ट इभ्य हैं । लक्ष्मी की जिस पर पूरी-पूरी कृपा हो और उस कृपाकोर के कारण जिनके लाखों के खजाने हों. तथा सिर पर उन्हीं को सूचित करने वाले चान्दी का विलक्षण पट्ट शोभायमान हो रहा हो, जो नगर के प्रधान व्यापारी हों, उन्हें श्रेष्ठी कहते हैं।
___ चतुरङ्गी सेना के स्वामी को सेनापति कहते हैं । जो गणिम, धरिम, मेय और परिछेद्य रूप खरीदने बेचने के योग्य वस्तुओं को लेकर नफा के लिये देशान्तर जाने वाले को साथ ले जाते हैं, योग (नयी वस्तु को प्राप्ति) और क्षेम (प्राप्त वस्तु को रक्षा) के द्वारा उनका पालन कहते हैं, गरीबों की भलाई के लिये उन्हें पूंजी देकर व्यापार द्वारा धनवान बनाते हैं उन्हें सार्थवाह कहते हैं । एक, दो, तीन, चार आदि संख्या के हिसाब से जिनका लेन देन होता है, 'गणित' कहते हैं, जैसे-नारियल, सुपारी, केला आदि । तराजू पर तोलकर जिसका लेन-देन हो, उसे 'धरिम' कहते हैं, जैसे धान, जौ, नमक, शक्कर आदि । सरावा छोटे-छोटे वर्तन आदि से नाप कर जिसका लेनदेन होना है, उसे मेय कहते हैं, जैसे-दूध, घी, तेल आदि। सामने कसौटो आदि पर परीक्षा कर के जिसका लेन देन होता है, उसे परिच्छेद्य कहते हैं। जैसे मणि, मोती, मूंग, गहना प्रादि ।
वह मङ्गति गाथापति, इन राजा; ईश्वर आदि के द्वारा बहुत से कार्यों में कार्य को सिद्ध करने के उपायों में, कर्तव्य को निश्चित करने के गप्त विचारों में, बान्धवों में, लज्जा के कारण गुप्त रखे जाने वाले विषयों में, एकान्त में होने वाले कार्यों में, पूर्ण निश्चयों में, व्यवहार के लिये पूछे जाने योग्य कार्यों में, अथवा बान्धवों द्वारा किये गये लोकाचार से विरुद्ध कार्यों के प्रायश्चित्तों (दंडों) में, अर्थात् उल्लिखित सब मामलों में एक बार और बार-बार पूछा जाता था-इन सब बातों में राजा आदि समस्त बड़े-बड़े आदमी अङ्गति की सम्मति लेते थे।
इन सब विशेषणों से सूत्रकार ने यह प्रकट किया है कि अंगति गाथापति को सभी लोग मानते थे, वह अत्यन्त विश्वासपात्र था विशाल बुद्धिशाली था और सबको उचित सम्मति देता था।
धान, जौ, गेहूं आदि की दायं करने (आटा-दाने-निकालने) के लिये गढ़ा खोदकर एक लकड़ी या बांस का स्तम्भ गाडा जाता है। उसके चारों बोर एक पंक्ति में लांक (धान) को कुचलने के लिये बैल घूमते हैं उस स्तम्भ को मेधि-मेढी कहते हैं । बैल आदि उस समय उसी पर निर्भर रहते हैं। यदि वह स्तम्भ न हो तो कोई बैल कहीं चला जाय, कोई कहीं सब व्यवस्था भङ्ग हो जाय । गाथापति अङ्गति अपने कुटुम्ब की मेधि-मेढो के समान थे, अर्थात् कुटुम्ब उन्हीं के सहारे था । वही उसके व्यवस्थापक थे । मूल-पाठ में 'वि' (अपि) शब्द है, उसका तात्पर्य यह है