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________________ वर्ग-चतुर्थ ] ( २५७) [निरयावलिका छाया-ततः खलु सुभद्रा सार्थवाही तासामार्याणामन्ति के धर्म श्रुत्वा निशम्य हृष्टतुष्टा ता आर्यास्त्रिकृत्वा वन्दते नमस्यति वन्दित्वा नमस्यित्वा एवमवादीत्-श्रद्दधामि खलु आर्याः! निग्रन्थ प्रवचनं, प्रत्येमि खल, रोचयामि खलु आर्याः ! निर्ग्रन्थं प्रवचनम् एवमेतत्, तथ्यमेतत्, अवितथमेतत्, यावत् श्रावकधर्म प्रतिपद्ये। यथासुखं देवानुप्रिये ! मा प्रतिबन्धं कुरु । तत: खल सा सुभद्रा सार्थवाही तासामार्याणामन्तिके यावत् प्रतिपद्यते, प्रतिपद्य ता आर्याः वन्दते नमस्यति प्रतिविसर्जयति ।।६।। पदार्थान्वयः-तएणं-तत्पश्चात्, सुभद्दा सत्यवाही-सुभद्रा सार्थवाही, तासि-उन, अज्जाणं-आर्याओं के, अंतिए धम्म सोच्चा निसम्म-धर्म सुनती है और सुन कर, हठ्ठतुट्ठाबहुत प्रसन्न होती है, ताओ अज्जाओ-उन आर्याओं को, तिखुत्तो-तीन बार, वंदइ नमसइबन्दना नमस्कार करती है, वंदित्ता नमंसित्ता-वन्दन नमस्कार करने के बाद, एवं वयासी-इस प्रकार बोली, सद्दहामि ण अज्जाओ-हे आर्याओं में श्रद्धा करती हूं, निग्गंथ-निर्ग्रन्थ प्रवचन पर, पत्तियामि णं-प्रतीति करती हूं रोएमिणं-रुचि करती हूं, निग्गंथं पावयणं-निर्ग्रन्थ प्रवचन पर, एवमेयं-जैसे कहा है, . तहमेयं-वैसा ही सत्य है, अवितहमेयं-यह यथार्थ है, जाव-यावत् सावगधम्म पडिवज्जए-कि मैं श्राविका धर्म को ग्रहण करना चाहती हूं। अहार हं देवाणुप्पिए-हे देवानुप्रिये ! जैसे आप को सुख हो, मा पडिबंधं करेइ-प्रमाद मत करो, तएणं-तत्पश्चात्, सा सभद्दा सस्थवाही-वह सुभद्रा सार्थवाही, तासि अज्जाणंउन आर्यानों के, अतिए- समीप, जाव-यावत्, पडिवज्जइ-श्रावक धर्म को स्वीकार करती है, पडिवज्जित्ता-स्वीकार करके, तओ अज्जाओ-उन साध्वियों को, वंबइ नमसइ-वन्दन नमस्कार • करके, पडिविसज्जइ-वापिस लौट गई ।६।। मूलार्थ - तत्पश्चात् वह सुभद्रा सार्थवाही उन साध्वियों से केवली (अर्हत) धर्म सुनकर तथा विचार कर उन्हें वन्दना नमस्कार करती हुई इस प्रकार कहने लगी.हे साध्वियों ! मैं निर्ग्रन्थ-प्रवचन में श्रद्धा करती हूं, प्रतीति करती हूं, रुचि करती हूं; जैसा आपने कथन किया है वह (तत्थ है) वैसा ही है, सर्वथा सत्य है, इसमें बरा सा भी असत्य नहीं है, यावत् मैं श्राविका-धर्म को स्वीकार करना चाहती हूं। साध्वियों ने कहा:- जैसे आपकी आत्मा को सुख हो, वैसा करो, पर अच्छे कार्य में प्रमाद नहीं करना चाहिए। तत्पश्चात् वह सुभद्रा सार्थवाही उन आर्याओं (साध्वियों) के समीप श्रावक-धर्म ग्रहण करती है, यावत् ग्रहण करने के पश्चात् उन्हें
SR No.002208
Book TitleNirayavalika Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Swarnakantaji Maharaj
Publisher25th Mahavir Nirvan Shatabdi Sanyojika Samiti Punjab
Publication Year
Total Pages472
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, agam_nirayavalika, agam_kalpavatansika, agam_pushpika, agam_pushpachulika, & agam_vrushnidasha
File Size10 MB
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