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________________ निरयावसिका] (२७२) (वर्ग-चतुर्थ पदार्थान्वयः-तएणं-तत्पश्चात्, ताओ सुचयाओ अज्जाओ-उस सुव्रता आर्या ने, सुभद्दे अज्ज-सुभद्रा आर्या को, एवं वयासी-इस प्रकार कहा, देवाण प्पिए-हे देवानुप्रिये ! अम्हे गं-हम, समणीओ निग्गंथीओ-श्रमणियां निर्ग्रन्थनियां हैं, इरियासमियाओ जाव गुत्तवंभयारिणीओ-इर्या समिति से युक्त गुप्तब्रह्मचारिणो हैं, अम्हे -हमें. जातककम्म करित्तए-बच्चों के पालन-पोषण व खिलाने का कार्य, नो खलु-बिल्कुल नहीं, कप्पइ-कल्पता, तुम च णऔर तुम, देवाणुप्पिए-हे देवानुप्रिये, बहुजणस्स चेडरूवेसु-बहुत लोगों के बच्चों में, मुच्छिया जाव अज्झोववन्ना-मूच्छित याबत् आसक्त हो और, अब्भगणं जाव नत्तिपिवासं व-अभ्यगन आदि क्रिया करती हुई पुत्र पुत्रियों, दोहते दोहतियों, पौत्र पौत्रियों की इच्छा का यावत्, पच्चणुब्भववाणी विहरसि-प्रत्यक्ष अनुभव करती हुई विचर रहो हो, तं णं-अतः, तुम-तुम्हें, देवाणुप्पिया-हे देवानुप्रिये ! एयस्स ठाणस्स-उस दोष युक्त स्थान की, आलोएहि-आलोचना करो, जाव-यात्, पायच्छित्तं-प्रायश्चित्त करो, पडिवज्जाहि-ग्रहण करो, तएणं-तत्पश्चात्. सा सुभद्दा मज्जा-उस सुभद्रा आर्या ने, सुब्बयाणं अज्जाणं-सुब्रता आर्या के एयम्लैं-इस अर्थ बात.का, नो आढाइ, नो परिजाणइ - कोई आदर सम्मान नहीं किया और न ही कोई महत्त्व दिया, अणाढायमाणी अपरिजाणमाणी विहर इ- इस गुरुणी की शिक्षा का आदर न करती हुई न उसे अच्छा समझती हुई विचरने लगती है ।।१३।। मूलार्थ- तत्पश्चात् वह सुव्रता आर्या, सुभद्रा आर्या के प्रति इस प्रकार कहने लगी-हे देवानुप्रिये ! हम श्रमणी हैं निर्ग्रन्थनी हैं, इर्या-समिति से युक्त यावत् ब्रह्मचारिणी हैं। हम लोगों को इस प्रकार लोगों के बच्चों को खिलाना आदि कार्य करने नहीं कल्पते। तुम लोगों के बच्चों में मूछित भाव यावत् अत्यंत आसक्त बन कर उनकी अभ्यंगन आदि क्रियाएं करती हो, प्रत्यक्ष से पुत्र आदि की प्यास अनुभव करती हुई विचर रही हो, अत: हे देवानुप्रिये ! तुम इस दोष-युक्त स्थान की आलोचना करो यावत् प्रायश्चित्त ग्रहण करो। ऐसा सुनकर सुभद्रा आर्या ने सुव्रता आर्या के कथन का न तो कोई आदर किया न हो उसे अच्छा समझा। इस प्रकार आदरसत्कार न करती हुई और न अच्छा समझती हुई विचरने लगी ॥१३ । टीक-प्रस्सुत सूत्र में आर्या सुव्रता ने अपनी शिष्या सुभद्रा को अपना कर्तव्य पहचानने की शिक्षा दी है, कि हम जैन साध्वियां हैं, रागद्वेष से दूर हैं, गुप्त ब्रह्मचारिणी हैं, हम लोगों को बच्चों के इस प्रकार के जातक-कर्म करने शोभा नहीं देते । इस प्रकार का मूर्छा भाव आत्मा के लिये घातक है, तुम्हें इस कृत्य की आलोचना करके प्रायश्चित्त ग्रहण करना चाहिए। वास्तव में यह
SR No.002208
Book TitleNirayavalika Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Swarnakantaji Maharaj
Publisher25th Mahavir Nirvan Shatabdi Sanyojika Samiti Punjab
Publication Year
Total Pages472
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, agam_nirayavalika, agam_kalpavatansika, agam_pushpika, agam_pushpachulika, & agam_vrushnidasha
File Size10 MB
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