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________________ निरयावलिका] (८३) [वर्ग प्रथम • प्रियाः ! वयं श्रेणिकस्य राज्ञो व्याघातेन नो शक्नुमः स्वयमेव राजश्रियं कर्वन्तः पालयन्तो विहर्तुम्, तच्छ यो देवानुप्रियाः ! अस्माकं श्रेणिक राजानं निगडबन्धनं कृत्वा राज्यं च राष्ट्र च बलं च वाहनं च कोशं च कोष्ठागारं च जनपदं च एकादशभागान् विभज्य स्वयमेव राज्यश्रियं कुर्वाणानां पालयतां यावद् विहर्तुम् ॥४॥ पदार्थान्वयः-तएणं-तदन्तर, से कणिए कुमारे--उस कूणिक कुमार ने, सेणियस्स रन्नो-- राजा श्रेणिक की, अन्तरं वा-कोई भी आन्तरिक कमजोरी, जाव मम्म वा-एवं किसी भी मार्मिक बात को, अलभमाणे-न मिलने पर, अन्नया कयाइ-किसी अन्य दिन, कालादीए दस कुमारे-काल कुमार आदि दस राजकुमारों (अपने भाइयों को), नियघरे- अपने निजी स्थान पर, सद्दावेइ-बुलवाया, सद्दावित्ता एवं वयासी- और बुलाकर उनसे कहा, एवं खलु देवाणप्पियाहे देवानुप्रियो ! इस प्रकार, अम्हे-हम लोग, सेणियस्स रनो-राजा श्रेणिक को, वाघाएणंरुकावटों और वाधाओं के कारण, नो संचाएमो-हम कभी भी प्राप्त करने में समर्थ नहीं हो सकते, सयमेव राजसिरि-स्वयं राज्य-वैभव का उपभोग करते हुए, पालेमाणा-प्रजा का पालनपोषण करते हुए, विहरित्तए-जीवन-यापन करने में, त सेयं देवाणुप्पिया- इस लिये हे देवानुप्रियो ! हमारे लिये यही श्रेयस्कर होगा कि, अम्हं-हम लोग, सेणियं रायं-राजा श्रेणिक को, निलय-बंधणं करेत्ता-हथकड़ियों एवं बेड़ियों से बांधकर (जेल में डाल दें और फिर), रज्जं च रटुंच बलं च वाहणं च कोसं च कोट्ठागारं च जयवणं च-अपने राज्य अपने इस राष्ट्र, बल, वाहन, कोष, भण्डार और जनपदों को, एक्कारसभाए-ग्यारह भागों में, विरिचित्ता- बांट कर, सयमेव - हम स्वयं, रज्जसिरि-राज्य वैभव का उपभोग, करेमाणा णं-करते हुए, जाव विहरितए-अपना-अपना सुखी जीवन व्यतीत करें। मूलार्थ -तदनन्तर उस कूणिक कुमार ने राजा श्रेणिक की किसी भी आन्तरिक कमजोरी एवं उसकी किसी भी मार्मिक बात के प्राप्त न होने पर, किसी दिन उचित अवसर देखकर अपने काल कुमार आदि दसों भाइयों को अपने निजी महल में बुलवाया और उनसे बोला-हे देवानुप्रियो ! इस प्रकार हम लोग स्वयं राज्य का उपभोग करने में कभी सफल नहीं हो सकते जब तक कि राजा श्रेणिक द्वारा खड़ी की गई रुकावटें और वाधायें विद्यमान हैं। इसलिये हमारे लिये यही श्रेयस्कर होगा कि हम लोग राजा श्रेणिक को हथकड़ियों एवं बेड़ियों से जकड़ कर (कारागार में डाल दें), और हम स्वयं राज्य-वैभव का उपभोग करते हुए जीवन-यापन करें। राज्य, राष्ट्र, बल (सेना), वाहन (हाथी. घोड़े, रथ आदि), कोष, धान्य-भण्डारों और जनपदों को
SR No.002208
Book TitleNirayavalika Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Swarnakantaji Maharaj
Publisher25th Mahavir Nirvan Shatabdi Sanyojika Samiti Punjab
Publication Year
Total Pages472
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, agam_nirayavalika, agam_kalpavatansika, agam_pushpika, agam_pushpachulika, & agam_vrushnidasha
File Size10 MB
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