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निरयावलिका सूत्रम् ]
(२१)
[ वर्ग-प्रथम
ततः शक्रो बभाषे-"चेटकः श्रावक इत्यहं न तं प्रति प्रहरामि, नवरं भवन्तं संरक्षामि"। ततोऽसौ तद्रक्षार्थ वज्रप्रतिरूपकमभेद्यकवचं कृतवान्। चमरस्तु द्वौ सङ्ग्रामौ विकुक्तिवान् महाशिलाकण्टकं रथमशलं चेते तत्र महाशिलेव कम्मको जीवित-भेदकत्वान्महाशिलाकण्टकः। ततश्च यत्र तृगशूकादिनाऽयहतस्याश्वहस्त्यादेमहाशिलाकण्टकेनेवास्याहतस्य देदना जायते, स सङ्ग्रामो महाशिलाकण्टक एवोच्यते । 'रहमुसले' त्ति यत्र रथो मुशलेन युक्तः परिधावन् अतो रथमुशलः।
तथा जो सूत्र कर्ता ने "तिहि आससहस्सेहि तिहि मणयकोडोहिं गरुलवहे।" पद दिए हैं इस पर विचार किया जाता है कि सहस्रों का सम्बन्ध कोटि के साथ युक्तिपूर्वक संगत नहीं होता, अर्थात् तीन हजार घोड़े और तीन करोड़ मनुष्य, अतः कोटि शब्द कोई राजकीय संज्ञा विशेष प्रतीत होता है। जैसे कि स्थानाङ्ग-सूत्र में कथन किया गया है-साधु का ६ कोटि प्रत्याख्यान होता है । इस स्थान पर कोटि शब्द. एक कारिका का वाची है, अथवा कोड़ो २० का नाम भी है । आगमों में कोड़ी शब्द सीमा का वाचक भी माना गया है। इससे भली भान्ति सिद्ध हो जाता है कि इस स्थान पर कोटि शब्द सेना को किसी विशेष इकाई का नाम है, क्योंकि दोनों राजाओं की सर्व सेना देश के अर्थात् अंग देश और विदेह देश की सीमा पर स्थित है। ३३ करोड़ और ५७ करोड़ दोनों राजाओं की सेना थो। संग्राम का अन्तर केवल एक योजन प्रमाण है । इससे सिद्ध होता है कि कोटि शब्द से कोई संज्ञा विशेष जाननी चाहिए। आजकल सिख समाज में "सवा लाख" केवल एक व्यक्ति के लिये कहा जाता है, तत्व तो केवली-गम्य है।
उत्थानिका-अब सूत्रकार उक्त विषय में फिर कहते हैं
मूल-तए णं तीसे कालीए देवीए अन्नया कयाइ कुडुम्ब-जागरियं . ' जागरमाणीए अयमेयारूवे अज्झथिए (जाव०) समुप्पज्जित्था। एवं
खलु ममं पुत्ते कालकुमारे तिहिं दन्तिसहस्सेहि (जाव०) ओयार। से मन्ने कि जइस्सइ ? नो जइस्सइ ? जीविस्सइ ? नो जीविस्सइ ? पराजिणिस्सइ ? नो पराजिणिस्सइ ? काले ण कुमारे अहं जीवमाणं पासिज्जा ? ओहयमण० (जाव०) झियाइ ॥११॥
छाया-ततः खलु तस्याः काल्या देव्या अन्यदा कदाचित् कुटुम्ब - जागरिकां जाग्रत्या अयमेतद्रूपः आध्यात्मिकः यावद् समुदपद्यत । एवं खलु मम पुत्रः कालकुमारः त्रिभिर्दन्ति-सहस्र: यावत उपयातस्तन्मन्ये कि जेष्यति ? न जेष्यति ? जीविष्यति ? न जीविष्यति ? पराजेध्यते ? न पराजेष्यते ? कालं खलु कुमारमहं जीवन्तं द्रक्ष्यामि ? अपहतमनः-संकल्पा यावत् ध्यायति ॥११॥