SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 100
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ [ निरावलिका सूत्रम् - पदार्थान्वयः - तए णं - तत्पश्चात्, तीसे उस कालीए देवीए - काली देवी के, अन्नया कमाइ — अन्य समय में एक बार, कुटुम्ब जागरिथं – कुटुम्ब की जागरिक अर्थात् कुटुम्ब सम्बन्धी विचार, अयमेवारूवे इस प्रकार के, अज्झत्थि - आध्यात्मिक विचार, जाव - यावत् समुप्पज्जित्था - उत्पन्न हुए, एवं खलु - निश्चय ही इस प्रकार, ममं - मेरा, पुत्ते कालकुमारे – पुत्र काल कुमार, तिहि दन्ति सहर सेहि- तीन हजार हाथी लेकर जाब- यावत्, ओयाए - (संग्राम - भूमि में) पहुंचा है, से - वह काल कुमार, मन्ने - मैं सोचती हूं, कि जइस्सइ - क्या जीतेगा ? नो जइस्सइ - नहीं जीतेगा? जीविस्सइ - जीवित रहेगा ?, नो जीविस्सइ - जीवित नहीं रहेगा ?, पराजिणिस्सइ - शत्रु को पराजित करेगा ?, नो परजिस्सइ - या पराजित नहीं करेगा ?, काले णं कुमारे - काल कुमार को, अहं - मैं, जीवमाणं - जीवित अवस्था में, पासिज्जा क्या देख सकूंगी ?, ओहयमण - उपहत मन होकर अर्थात् उदास होकर, जाव - यावत्, झियाइ - आर्त-ध्यान करने लगी ।। ११ ।। बर्ग - प्रथम ] ( २२ ) मूलार्थ-- तत् पश्चात् उस काली देवी के ( हृदय में) एक समय कुटुम्ब का विचार करती हुई के इस प्रकार के आध्यात्मिक (मानसिक) विचार उत्पन्न हुए। इस प्रकार निश्चय ही मेरा पुत्र काल कुमार तीन हजार हाथियों के साथ यावत संग्राम में गया है, मैं सोचती हूं कि क्या वह जीतेगा या नहीं जीतेगा ? क्या वह जीवित रहेगा, या जीवित नहीं रहेगा ? क्या वह हार जाएगा. या जीत जाएगा ? क्या मैं काल कुमार को जोते हुए को देख पाऊंगी, इस प्रकार के विचारों से वह अहत मन अर्थात् उदास होकर यावत् आर्तध्यान करने लगी । टीका - इस सूत्र में काली देवी के विषय में वर्णन किया गया है। एक समय की बात है कि काली देवी के हृदय में अर्द्धरात्रि के समय अपने कुटुम्ब के सम्बन्ध में विचार करते हुए ये संकल्प उत्पन्न हुए कि ये बात ठीक निश्चय है कि मेरा पुत्र काल कुमार ३ सहस्र हस्तो ३ सहस्र अश्व और ३ सहस्र रथ और ३ कोटि मनुष्यों के साथ रथ-मूसल नाम वाले संग्राम में गया है। यह मैं नहीं जान पा रही हूं कि क्या वह जोतेगा या नहीं ? जीवित रहेगा या नहीं ? वैरी को पराजित कर देगा या नहीं । काल कुमार को मैं जीवित अवस्था में देखूंगी या नहीं ? इस प्रकार के विचारों से उसका मन उपहत अर्थात् उदास हो गया और वह अपने दोनों हाथ कपोलों पर रख कर आर्तध्यान में डूबी अधोमुखी होकर भूमि की ओर देखने लगी। उसका कमल सा मुख और नयन विकसित न रह सके । - जैसे दीन व्यक्ति का मुख होता है, उसी प्रकार मानसिक दुख के कारण से उसका मुख भी दीन हो गया कारण कि अन्तरंग की वेदना से उस का शरीर तेज-हीन सा हो गया था । इसलिए सूत्रकर्ता ने 'जोहमण जाव शियाई' यह पाठ दिया है इस के विषय में वृत्तिकार लिखते हैं
SR No.002208
Book TitleNirayavalika Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Swarnakantaji Maharaj
Publisher25th Mahavir Nirvan Shatabdi Sanyojika Samiti Punjab
Publication Year
Total Pages472
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, agam_nirayavalika, agam_kalpavatansika, agam_pushpika, agam_pushpachulika, & agam_vrushnidasha
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy