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बर्ग-प्रथम]
( १२०)
[निरयावलिका
आप राज्य-कुल परम्परा को अक्षुण्ण रखते हुए सेचनक गन्धहस्ती व अठारह लड़ियों वाला हार राजा कोणिक को वापिस लौटा दो और वेहल्ल कुमार को भी वापिस भेज दो।
तत्पश्चात् वह दूत राजा कूणिक को पूर्ववत् नमस्कार करके चला गया और वैशाली पहुंच कर राजा चेटक को हाथ जोड़ कर वधाई देता हुआ इस प्रकार बोलानिश्चय ही हे स्वामी ! राजा कृणिक आपसे निवेदन करता है कि जो भी राज्य के रत्न पदार्थ होते हैं वे राजा के ही होते हैं, अत: आप सेचनक गन्धहस्ती, अष्टादश वक्र हार और वेहल्ल कुमार को राजा कोणिक के पास भेज दो ॥६६॥
टीका-प्रस्तुत सूत्र में राजा कोणिक द्वारा दूसरी बार दूत भेजने का वर्णन है जिसमें पुन: सेचनक गंधहस्ती अठारह लड़ियों वाला हार व वेहल्ल कुमार की वापसी की मांग दोहराई गई है। साथ में राजा कोणिक ने यह तर्क प्रस्तुत किया है कि जो रत्न किसी भी राजा के राज्य में पैदा होले हैं उनका स्वामी राजा ही होता है। राजा श्रेणिक के राज्यकाल में ये दो रत्न उत्पन्न हुए थे। राजा श्रेणिक के परिवार से सम्बन्धित होने के कारण इन.वस्तुओं पर राज - कुल का ही अधिकार है। इस परम्परा का पालन करते हुए आपको ज्यादा आग्रह नहीं करना चाहिये । राजा कूणिक ने अपने मगध साम्राज्य के ग्यारह भाग किये थे। इन दोनों वस्तुओं के भाग नहीं हो सकते थे, अत ये वस्तुएं राजा कूणिक को वापिस लौटा देनी चाहिए। इसके साथ ही वेहल्ल कुमार को भी वापिस लौटाया जाए । वृत्तिकार ने इस विषय को स्पष्ट करते हुए कहा है -
रायकुल-परम्परागयं ठिइयं अलोवेमाणे त्ति-एवं परम्परामलोपयन्तः अर्थात् राज-कुल की परम्परागत स्थिति को लोप नहीं करना चाहिये।
राज-कुल की परम्परामों का पालन करना प्रत्येक राजा का प्रथम कर्तव्य है ।।६६।।
मूल-तएणं से चेडए राया तं दूयं एवं वयासी-जह चेव णं देवाणुप्पिया ! कूणिए राया सेणियस्स रन्नो पुत्ते, चेल्लणाए देवीए अत्तए जहा पढमं जाव वेहल्लं च कुमारं पेसेमि, तं दूयं सक्कारेइ संमाणेइ पडिविसज्जेइ ॥७॥
छाया-ततः खलु स चेटको राजा तं दूतमेवमवावीत् -यथा चैव खलु देवानुप्रिय ! कूणिको राजाणिकस्य राज्ञः पुनः चेल्लनाया देव्या आत्मजः, यथा प्रथमं यावद् वेहल्लं च कुमारं प्रेषयामि । तं दूतं सत्करोति सम्मानयति प्रतिविसर्जयति ।।७।।