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निरधावलिका ।
( १२१ )
[ वर्ग - प्रथम
पदार्थान्वयः –तएणं – तत्पश्चात् से चेडए राया - वह राजा चेटक, तं दूयं एवं वयासीउस दूत को इस प्रकार बोला, जह चेव णं देवाणुप्पिया- जंसे हे देवानुप्रिय ! निश्चय ही, कूणिए राया सेणियस्स रन्नो पुत्ते कोणिक राजा श्रेणिक का पुत्र है, चेल्लणाए देवीए अत्तए - चलन देवी का आत्मज है, जहा पढमं जैसे पहले कहा जा चुका है, जाव - यावत्, वेहल्लं च कुमारं पेसेमि - मैं वेहल्ल कुमार को भेज दूंगा, तं दूयं सक्कारेइ संमाणेइ - उस दूत का सम्मान सत्कार करता है, पडिविसज्जेइ - और उसे विसर्जित करता है ||७० ।।
मूलार्थ - तत्पश्चात् वह राजा चेटक उस दूत को इस प्रकार कहने लगा देवानुप्रिय ! निश्चय ही राजा कोणिक श्रेणिक राजा का पुत्र और चेलना देवी का आत्मज है, जैसे पहले कहा जा चुका है ( उसी प्रकार राजा चेटक ने दूत को उत्तर दिया) यावत् वेहल्ल कुमार को भेजता हूं आदि। वह उस दूत का सत्कार-सम्मान करता है इसके बाद दूत को विदा करता है || ७०||
टीका - प्रस्तुत सूत्र में राजा श्रेणिक का दूत वैशाली सम्राट् चेटक को जो संदेश देता है उसी का उत्तर चेटक राजा दूत को देता है। यह उत्तर वही है जो उसने प्रथम दूत को दिया था । वह यह कि अगर कोणिक राजा सेचनक गंधहस्ती व अठारह लड़ी वाला हार चाहता और वेहल्ल कुमार की वापसी चाहता है तो अपना आधा राज्य प्रदान करे तभी उसे ये दोनों वस्तुएं प्राप्त हो • सकती हैं ||७० ||
उत्थानिका—दूत ने आकर राजा कोणिक से जो निवेदन किया अब सूत्रकार इसी विषय में कहते हैंमूल-लएणं से दूए जाव कूणियस्स रन्नो वद्धावित्ता एवं वयासीचेडए राया आणवेइ - जह चेव णं देवाणुप्पिया ! कूणिए राया सेणियस्स रन्नो पुत्ते चेल्लाए देवीए अत्तए जाव वेहल्लं कुमारं पेसेमि, तं न देइ सामी ! चेडए राया सेयणगं गंधहत्थि अट्ठारसबंकं च हारं वेहलं कुमारं नो पेसेइ ॥७१॥
छाया - ततः खलु स दूतो यावत् कूणिकंय राजानं वर्धयित्वा एवमवादीत् - चेटको राज्ञा आज्ञापयति-यथा चैव खलु देवानुप्रिय ! कूणिको राजा श्रेणिकस्य राज्ञः पुत्रः चेल्लनाया देव्या आत्मज यावद् वेहल्लं कुमारं प्रेषयामि, तन्न ददाति खलु स्वामिन् ! चेटको राजा सेचनकं गन्धहस्तिनम् 'अष्टादश व च हार, वेल्लं कुमारं नो प्रोषयति ॥ ७१ ॥