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________________ निरयावलिका सूत्रम् ] [ वर्ग-प्रथम * के देशवासियों में उसकी कीति बखानी जाती थी और बहुत से लोग वहां मनौती पूर्ण होने पर मनोतियां देने आया करते थे। वे उसे अर्चनीय, वंदनीय, नमस्करणीय, कल्याणकारक, मंगलरूप एवं दिव्य मान कर विशेष रूप से उपासनीय मानते थे। विशेष पर्व-त्यौहारों पर हजारों प्रकार की पूजाउपासना वहां की जाती थी। बहुत से लोग वहां आकर जय-जयकार करते हुए उसकी पूजा-अर्चना करते थे। वनखण्ड-वह गुणशिलक चैत्य चारों ओर से एक वनखण्ड से घिरा हुआ था। वृक्षों की सघनता से वह काली आभावाला, शीतल आभावाला, एवं सलौनी आभावाला दिखता था। वहां के सघन एवं विशाल वृक्षों की शाखाओं-प्रशाखाओं के परस्पर गुंथ जाने से ऐसा रमणीक दिखता था मानो सघन मेघ घटाएं घिरी हुई हों। ___ अशोक वृक्ष-उस वनखण्ड के बीचों-बीच एक विशाल एवं रमणीय अशोक वृक्ष था। वह उत्तम मूल, कंद, स्कन्ध, शाखाओं, प्रशाखाओं, प्रवालों, पत्तों, पुष्पों और फलों से सम्पन्न था । उसका सुघड़ और विशाल तना इतना विशाल था कि अनेक मनुष्यों द्वारा भुजाएं फैलाए जाने पर भी धरा नहीं जा सकता था। उसके पत्ते एक दूसरे से सटे हए, अधामख और निर्दोष थे। नवोन पतों, कोमल किसलयों आदि से उसका शिखर भाग सुशोभित था। तोता, मैना, तोतर, बटेर, कोयल, मयूर आदि पक्षियों के कलरव से गूंजता रहता था। वहां मधु-लोलुप भ्रमर-समूह मस्ती में गुनगुनाते रहते थे। उसके आस-पास में अन्यान्य वृक्ष, लताकुंज, मंडप आदि शोभायमान थे। वह अतोव तृप्तिप्रद विपुन सुगंध को फैला रहा था। अतिविशाल परिधिवाला होने से उस के नी वे अनेक रथ, डोलियां, पालकियां आदि ठहर सकती थीं। पृथ्वीशिलापट्टक-उस अशोक वृक्ष के नीचे स्कन्ध से सटा हुआ एक पृथ्वीशिलापट्टक रक्खा था। उसका वर्ण काला था और उसकी प्रभा अंजन, मेघमाला, नील कमल, केश-राशि, खंजन पक्षी, भैंसे के सींग के गर्भभाग, जामुन के फल अथवा अलसी के फूल जैसी थी। वह अत्यन्त चिकना था । वह अष्टकोण था और दर्पण के समान सम, सुरम्य एवं चमकदार था। उस पर ईहामृग, भेड़िया, वृषभ, अश्व, मगर, विहग (पक्षी), व्याल (सर्प), किन्नर, रुरु (हिरण विशेष) शरभ, कुंजर, वनलता, पद्मलता आदि के चित्र उकेरे हुए थे। उसका स्पर्श मृगछाला, रुई, मक्खन और अर्कतूल (आक की रुई) आदि के समान सुकोमल था। इस प्रकार का वह शिलापट्टक मनोरम, दर्शनोय मोहक और अतीव मनोहर था। ____ "तेणं कालेणं तेणं समएणं" ये दोनों ही पद सप्तमी के अर्थ में तृतीयान्त दिए गए हैं तथा यदि 'ण' वाक्यालङ्कार अर्थ में लिया जाए और मागधी का एकारान्त शब्द माना जाए तो फिर उस एकारान्त को छेद कर केवल "ते" शब्द का सप्तमी के अर्थ में प्रयोग होता है, अर्थात् "तस्मिन् काले तस्मिन् समये" इन शब्दों के द्वारा वह विशेष समय ग्रहण करना चाहिये।
SR No.002208
Book TitleNirayavalika Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Swarnakantaji Maharaj
Publisher25th Mahavir Nirvan Shatabdi Sanyojika Samiti Punjab
Publication Year
Total Pages472
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, agam_nirayavalika, agam_kalpavatansika, agam_pushpika, agam_pushpachulika, & agam_vrushnidasha
File Size10 MB
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