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[ निरयावलिका सूत्रम्
वर्ग - प्रथम ]
नगर का जानना चाहिए, किन्तु सूत्रकार ने नगर के स्वरूप का वर्णन अत्यन्त संक्षेप में किया है । काल शब्द से अवसर्पिणी काल के चतुर्थ भाग को समझना चाहिये और " तस्मिन् समये " शब्द से वह विशेष समय जानना चाहिये, जैसे कि उस समय मगध प्रान्त में राजगृह नाम का एक प्रसिद्ध नगर था, जिस पर श्रेणिक नाम के राजा का राज्य था, वहां श्री श्रमण भगवान महावीर स्वामी विराजमान थे, इत्यादि विषय जानने चाहिये ।
(२)
मूल पाठ में 'रिद्ध' पद देकर विषय को पूर्ण किया गया है, किन्तु कुछ हस्त लिखित प्रतियों में "रिद्धित्थिमिव समिद्धे" इस प्रकार का पाठ प्राप्त होता है, जिसका भाव यह है कि वह नगर भवनादि से युक्त भय रहित और धन-धान्यादि से परिपूर्ण था । कुछ हस्तलिखित प्रतियों गुणशैलक पद से पूर्व तत्थणं' पद दिया गया है और कुछ हस्तलिखित प्रतियों में यह समग्र पाठ निम्न प्रकार से प्राप्त होता है - तेणं कालेनं तेणं समएणं रायगिहे नामं नयरे होत्था, रिद्धिस्थिमियसमय नाम नगरे बहिया उत्तर पुरस्थिमे दिसोभाए तत्थणं गुणसिलए नाम चेइए होत्था ।" इसका भाव यह है कि उस समय राजगृह नाम का एक नगर था, वह नगर अत्यन्त समृद्ध था, उस राजगृह नगर के बाहर उत्तर-पश्चिम भाग में एक गुण शैलक नाम का चेन्य था ।
'aura • पद से औपपातिक सूत्र में जो नगरी का वर्णन किया गया है वह सब यहां पर समझ लेना चाहिये और साथ ही गुणशैल नामक चैत्य का वर्णन भो जान लेना चाहिये। जैसे कि- "वण्णओ' त्ति चैत्यवर्णको वाच्यः” ।
राजगृह नगर - यह नगर भवनादि वैभव से सम्पन्न सुशासित, सुरक्षित एवं धन-धान्य से समृद्ध था। वहां नगर-जन और जानपद प्रमोद के प्रचुर साधन होने से प्रमुदित रहते थे । निकटवर्ती कृषि भूमि अतीव रमणीय थी। उसके चारों और आस-पास ग्राम बसे हुए थे । सुन्दर स्थापत्य कला से सुशोभित चैत्यों और पण्य-तरुणियों के सन्निवेशों का वहां बाहुल्य था । तस्करों आदि का अभाव होने से वह नगर क्षेम रूप सुख-शांतिमय था । सुभिक्ष होने से भिक्षुओं को वहां सुगमता से भिक्षा मिल जाती थी । वह नट-नर्तक आदि मनोरंजन करने वालों से व्याप्त - सेवित था और उद्यानों आदि की अधिकता से नन्दनवन सा प्रतीत होता था। सुरक्षा की दृष्टि से वह नगर खात, परिखा एवं प्राकार से परिवेष्टित था। नगर में श्रृंगाटक- सिंघाड़े जसे आकर वाले त्रिकोणाकार चौराहे तथा राजमार्ग बने हुए थे। वह नगर अपनी सुन्दरता से दर्शनीय, मनोरम और मनोहर था ।
गुणशिलक चैत्य - वह चैत्य नगर के बाहर ईशान कोण में था । यह चैत्य अत्यन्त प्राचीन एवं विख्यात था। भेंट के रूप में प्रचुर धन-सम्पत्ति उसे प्राप्त होती थी। वह जनसमूह द्वारा प्रशंसित था । छत्र, ध्वजा, घंटा, पताका आदि से परिमंडित था । उसका आंगन लिपा-पुता था और दीवालों पर लम्बी-लम्बी मालाएं लटकी रहती थीं। वहां स्थान-स्थान पर गोरोचन, चंदन आदि के थापे लगे हुए थे। काले अगर आदि की धूप की मघमघाती महक से वहां का वातावरण गंध-वर्तिका जैसा प्रतीत होता था और नट, नर्तक, भोजक मागध चारण आदि यशोगायकों से व्याप्त रहता था। दूर-दूर तक