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________________ आप जिस समय शास्त्रों का मनन करते थे, उस समय ज्ञान-धारा में गहरी डुबकी लगाकर अनुप्रेक्षा के माध्यम से आगमधरों के गहन आशय को तुरन्त पकड़ लेते थे। आपका प्रत्येक विचार स्वतन्त्र नहीं आगम- सम्मत ही होता था। नम्रता एवं सहिष्णुता के आप मूर्त रूप थे, क्योंकि अभिमान और ममत्व आपसे सर्वदा दूर ही रहते थे। आचार्यत्व और विद्वत्ता का न अभिमान और न ही शरीर का कोई ममत्व ही। आपकी नम्रता नव-दीक्षित साधु को भी सम्बोधित करते हुए उसके नाम के साथ आदरार्थ 'जी' का प्रयोग अवश्य किया करते थे। भयंकर से भयंकर वेदना में भी उनकी दिन-चर्या और रात्रिचर्या का क्रम मुनित्व की सीमा का अतिक्रमण कभी नहीं कर पाता था। आप स्वयं प्रसन्न रहते थे और निकट में रहने वालों को भी प्रसन्न ही रखते थे। कटुता, कुटिलता और कठोरता न उनके मन में थी, न वाणी में और न ही व्यवहार में । स्वाध्याय-निष्ठा ____ स्वाध्याय उनके जीवन का विशेष अंग था, अध्ययन और अध्यापन ही उनके जीवन के उद्देश्य थे, इसीलिये आप आडम्बरों तथा जन-सम्पर्क से दूर ही रहने का प्रयास करते थे। स्वाध्याय के साथ समाधि, ध्यान और योगाभ्यास उनकी जीवनचर्या के अभिन्न अंग बन गये थे। उनकी लेखनी ने बीस आगमों की ऐसो हिन्दी टीकायें लिखों जो सर्वजनोपयोगी हैं । आगमों पर तो उनको इतनो दृढ़ पकड़ हो चुकी थी कि अन्तिम अवस्था में नेत्र-ज्योति के . मन्द पड़ जाने पर भी ग्रन्थ का वही पृष्ठ निकाल देते थे जिस पर वह विषय अंकित होता था। सम्वत् १९८६ के वर्ष में आपने दस ही दिनों में दिगम्बर सम्प्रदाय के मान्य ग्रन्थ "तत्वार्थसूत्र" के मूल पाठों के उद्धरण देकर यह सिद्ध कर दिया था कि तत्वार्थ-सूत्र उमा स्वाती जी ने आगमों से ही उद्धृत किया है । उसका मूलाधार आगम-साहित्य ही है। यह रहस्य सदियों से अज्ञात ही रहा था सर्व प्रथम आचार्य श्री जी की लेखनी ने ही उसे उद्घाटित किया। इस ग्रन्थ की महत्ता को ऐसा कोई जैन विद्वान नहीं है जिसने उसे स्वीकार न किया हो, वैसे तो उनकी लेखनी ने लगभम ६० ग्रन्थों का निर्माण किया था। ऐसे महापुरुष को जालन्धर प्रांत की राहों नामक नगरी की भूमि ने जन्म दिया था, सम्वत् १९३६ के भाद्रपद मास की शुक्ल पक्ष की द्वादशी के दिन । पिता श्री मनसा राम जी चोपड़ा एवं माता स्वनाम-धन्या परमेश्वरी देवी ने इस नवजात कुल-दीपक का नाम "आत्माराम" रखा था, क्योंकि उनकी आत्मा ने अन्तर्जगत में ही रमण करना था। सन्तों की ज्ञानाराधना के ये अनुभूत स्वर भी कभी-कभी सुनने में आ जाते हैं कि. आचार्य देव की आत्मा अनेक भवों से सन्तत्व की समाराधना करती आ रही थी । अतः इस जन्म में भी [दो]
SR No.002208
Book TitleNirayavalika Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Swarnakantaji Maharaj
Publisher25th Mahavir Nirvan Shatabdi Sanyojika Samiti Punjab
Publication Year
Total Pages472
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, agam_nirayavalika, agam_kalpavatansika, agam_pushpika, agam_pushpachulika, & agam_vrushnidasha
File Size10 MB
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