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वर्ग-तृतीय ]
(२१८)
[ निरयावलिका
चोक्खे-शब्द से अशुचि द्रव्य दूर करना है । अतिथि-पूजा से आगन्तुओं का प्रादर सत्कार है।
पत्तामोडं-अर्थात् तरुशाखा मोडित पत्राणि । शब्द से वनस्पति अथवा वृक्ष की शाखा के पत्तों का तोड़ना जानना चाहिये।
सक्य-यह संन्यासियों का एक विशेष उपकरण जानना चाहिये। शय्या-भाण्ड-शब्द से शय्या उपकरण जानने चाहिये।
उत्थानिका-अब सूत्रकार द्वितीय षष्ठक्षपण के विषय में कहते हैं
मूल--तए णं से सोमिले महाणरिसी दोच्चंसि छठ्ठख मणपारणगंसि तं चेव सव्वं भाणियन्व, जाव आहारं आहारेइ, नवरं इमं नाणांदाहिणाए दिसाए जमे महाराया पत्थाणे पत्थियं अभिरक्खउ सोमिलं माहणरिसिं जाणि य तत्थ कंदाणि य जाव अणुजाणउ त्ति कटु दाहिणं दिसि पसरइ । एवं पच्चत्थिमे वरुणे महाराया जाव पच्चत्थिमं दिसि पसरइ। उत्तरेणं वेसमणे महाराया जाव उत्तरं दिसि पसरइ। पुत्वविसागमेणं चत्तारि बिदिसाओ भाणियवाओ जाव आहारं आहारेइ॥१०
छाया-ततः खलु स सोमिलो ब्राह्मणऋषिद्वितीये षष्ठक्षपणपारणके तदेव सर्व भणितव्यं यावद् आहारमाहारयति । नवर मिद नानात्वम्-दक्षिणस्यां दिशि यमो महाराजः प्रस्थाने प्रस्थितमभिरक्षतु सोमिलं ब्रह्मर्षि, ये च तत्र कन्दाश्च यावत् अनुजानातु, इति कृत्वा दक्षिणां दिशं प्रसरति । एवं पश्चिमे खलु वरुणो महाराजो यावत् पश्चिमां दिशं प्रसरति । उत्तरे खलु वैश्रमणो महाराजो यावद् उत्तरां टिशं प्रसरति । पूर्वदिग्गमेन चतस्रो विदिशो भणियव्या यावद् आहारमाहारयति ॥१०॥
पदार्थान्वयः-तएणं-तत्पश्चात्, सोमिले माहण रिसी-सोमिल नामक ब्रह्मर्षि, वोच्चंसि छद्रुखमण पारणंसि-दूसरे षष्ठ क्षपण के पारणे में, तं चेव सव्वंभाणियर्व-पहले के समान सब कहना चाहिये, जाव०-यावत्, आहारं आहारेइ-आहार ग्रहण किया, मवरं इमं नाणत्तंइतना विशेष है, दाहिणाए बिसाए-दक्षिण दिशा के, जमे महाराया-महाराज यम से, पत्थाणे पत्थियं-प्रस्थान मार्ग में चलते हुए (प्रार्थना करता है कि वे), अभिरक्खउ-रक्षा करें, सोमिलं माहणरिसि-सोमिल ब्रह्मर्षि की, जाणि य तत्थ कंदाणि-जो वहां कन्द प्रादि हैं;