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________________ निरयावलिका सूत्रम् ] (९) [वर्ग-प्रथम हैं-जैसे कि-१. निरयावलिका, २. कल्यावतंसिका, ३, पुष्पिका; ४. पुष्पचूलिका, ५. वृष्णिदशा ॥ ५॥ टीका-इस सूत्र में उपर्युक्त सूत्र के विषय का ही वर्णन किया गया है, जैसे कि जब आर्य जम्बू स्वामी के मन में श्रद्धा-पूर्वक कुछ पूछने की जिज्ञासा उत्पन्न हुई, तब वे उठ कर आर्य सुधर्मा स्वामी के पास जाकर विनय और भक्ति पूर्वक पर्युपासना करते हुए हाथ जोड़ कर पूछने लगे कि"भगवन् ! श्रमण भगवान महावीर स्वामी जो कि अब निर्वाण पद को प्राप्त कर चुके हैं, उन्होंने उपाङ्गों के विषय में क्या वर्णन किया है ?" इसके उत्तर में भगवान् सुधर्मा स्वामी कहने लगे कि- "हे जम्बू ! श्रमण भगवान महावीर स्वामी जो मोक्ष को प्राप्त कर चुके हैं, उन्होंने उपाङ्गों के पांच वर्ग कथन किये हैं, जैसे कि-१, निरयावलिका, २. कल्पावतंसिका, ३. पुष्पिका, ४. पुष्पचूलिका और ५. वृष्णिदशा । _ ये पांच वर्ग उपाङ्गों के कथन किए गए हैं, किन्तु इस स्थान पर यह उल्लेख नहीं किया गया कि प्रत्येक अङ्ग के भिन्न-भिन्न उपाङ्ग हैं । यद्यपि चूर्णी आदि ग्रन्थों में प्रत्येक अङ्ग के साथ प्रत्येक उपाङ्ग का वर्णन किया गया है. जैसे कि आचाराङ्ग का उपाङ्ग औपपातिक सूत्र है इत्यादि । किन्तु अङ्ग नामक उत्कालिक सूत्रों के संकेत नन्दी आदि आगमों में भी उपलब्ध होते हैं। छेद और मूल सूत्र आदि संज्ञायें आगमों में नहीं हैं, इससे प्रतीत होता है कि ये दोनों संज्ञाएं अर्वाचीन हैं। प्रस्तुत सूत्र के अतिरिक्त उपाङ्ग संज्ञा का कहीं पर भी उल्लेख देखने को प्राप्त नहीं हुआ। यह तो भली भांति सिद्ध होता है कि अङ्गों के उपाङ्ग होते ही हैं, अतः श्रुत रूपी पुरुष के १२ अंग और १२ ही उपाङ्ग-युक्ति सिद्ध हैं। ये उपाङ्ग पांच वर्गों के नामों से सुप्रसिद्ध हैं। आचार्य हेमचन्द्र . . जी भी अपने अभिधानचिन्तामणि कोष में लिखते हैं । जैसे कि-- आचारानं सूत्रकृतं स्थानाङ्ग समवाययुक् । पञ्चमं भगवत्यङ्गं ज्ञाताधर्मकथाऽपि च ॥ १५७ ॥ उपासकान्तकृदनुत्तरोपपातिकास्तथा । प्रश्नव्याकरणं चैव विपाकश्रुतमेव च ॥ १५८ ॥ इत्येकादश सोपाङ्गान्यङ्गानि। (देवकाण्ड, द्वितीय) इत्येकादश प्रवचनपुरुषस्य अङ्गानीवाऽङ्गानि सहोपाङ्गरोपपातिकादिभिर्वर्तन्ते सोपाङ्गानि ॥ उक्त सूत्र में जो सुधर्मा स्वामी और जम्ब स्वामी का संक्षिप्त वर्णन किया गया है, यह समग्र पाठ "व्याख्या प्रज्ञप्ति सूत्र" के प्रथम उद्देशक में प्राप्त होता है, उस सूत्र के प्रथम शतक के प्रथम उद्देशक में गौतम स्वामी विषयक वर्णन किया गया है। वह समग्र पाठ उक्त पाठ से सम्बन्ध रखता है, केवल नाम मात्र का ही अन्तर है।
SR No.002208
Book TitleNirayavalika Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Swarnakantaji Maharaj
Publisher25th Mahavir Nirvan Shatabdi Sanyojika Samiti Punjab
Publication Year
Total Pages472
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, agam_nirayavalika, agam_kalpavatansika, agam_pushpika, agam_pushpachulika, & agam_vrushnidasha
File Size10 MB
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