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प्राक्कथन परमात्मा महावीर ने अर्थागमों के रूप में और गणधरों ने सुत्तागमों के रूप में शास्त्रों की प्ररूपणा को सूत्रबद्ध, लय-बद्ध और पद्य-बद्ध रूप में निरूपित किया है। इस प्रकार ग्यारह अंग और बारह उपांगों में निरयावलिका अष्टम अंग अन्तकृद्दशा का उपांग है । निरयावलिका श्रुत-स्कन्ध में पांच उपांग समाविष्ट हैं जो इस प्रकार हैं-[१] निरयावलि का या कल्पिका, [२] कल्पावंतसिका, [३] पुष्पिका, [४] पुष्प-चूलिका, और [५] वृष्णि-दशा।
१. निरयांवलिका-यह शब्द निरय और आवलिका दो शब्दों से बना है। निरय अर्थात् नरक, और आवलिका अर्थात् आवृत । इस पागम में बार-बार नरक में जाने वाले जीवों का विस्तृत वर्णन प्राप्त होने से इस आगम का नाम निरयावलिका प्रसिद्ध हया है। इसके साथ ही परमात्मा महावीर के परम भक्त, भावी तीर्थकर समत्वयोगी मगध-सम्राट श्रेणिक की आत्मा को भी कारागृह में बन्दी होना पड़ा, सौ-सौ कोड़ों की मार खानी पड़ी और अन्त में कणिक के हाथों में परशु को देखकर अपनी मृत्यु क र-घातकी पुत्र के हाथ से न हो. इसलिए काल-कूट विष मुद्रा चूसकर प्राणों का अन्त करके नरक में उत्पन्न होना पडा । पंचेन्द्रिय प्राणियों की हत्या, पदार्थों का और अपनी राणी का अत्यधिक ममत्व एवं राज्य के प्रति अतृप्त वासना होने से कणिक भी नरक में गया। इसके साथ-साथ इस निरयावलिका उपांग में सम्राट घेणिक के २६ पत्रों में से ११ राजकुमार भौतिकता को आग में महायुद्ध की बलिवेदी पर पहुंच कर विनाश के विकराल गाल में समा गये और नरक में उत्पन्न हुए।
इस उपांग में भौतिकवाद को अध्यात्मवाद के निकट लाने की चेष्टा की गई है । भौतिकवाद की पीड़ा ही अध्यात्मवाद की परिणति है. किन्तु भौतिकवाद ने सिर्फ शरीर को चुना और आत्मा को भुला दिया। भौतिकवाद को संस्कृति बाह्य संस्कृति के रूप में पनपती रही और अध्यात्मसंस्कृति आन्तरिक प्रकृति को बल देती रही। अध्यात्मवाद का अस्तित्व आत्मा के रूप में और भौतिकवाद का अस्तित्व शरीर के रूप में होने पर भी परमात्मा महावीर ने आत्मा और शरीर दोनों का मूल्यांकन किया है। उन्होंने जीने के लिए माध्यम शरीर को बताया है, किन्तु हम "शरीर ही आत्मा है," ऐसा भ्रम लिये बैठे हैं। फलत: आत्मा एक विशेष तत्व है ऐसा हमें पता न रहा। शरीर को हजारों बार संवारो फिर भी यह एक दिन धोखा ही देने वाला है, क्योंकि शरीर को खाना है. शरीर को पोना है, शरीर को आराम लेना है हम सब शरीर की रक्षा हेतु ही लड़ते हैं, युद्ध करते हैं। हमें ममत्व है शरीर का, हमें ममत्व है पदार्थों का और इसलिए कहीं प्रियता है तो कहों
[सत्रह