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________________ एक अन्तिम प्रार्थना पाठक वर्ग से है कि हम कोई सर्वज्ञ नहीं कि हमसे कोई त्रुटि न रहे त्रुटि रहना स्वाभाविक है, पर कोई त्रुटि हम से किसी भी तरह की प्रकाशन, सम्पादन में रह गई हो तो समस्त श्री-संघ से सम्पादक-मण्डल की ओर से मैं क्षमा चाहती हूं। श्री- संघ महान है, हमें एवं हमारी त्रुटियों को भुलाकर इस रचना की उपयोगिता पर ध्यान देना चाहिये । प्रस्तुत संस्करण ____आज तक निरयावलिका के जितने अनुवाद प्रकाशित हो चुके हैं उनकी अपेक्षा यह अनुवाद सब से विस्तृत है, क्योंकि श्रमण-संघ के प्रथम पट्टधर आचार्य श्री आत्माराम जी महाराज हिन्दी भाषा के प्रथम टीकाकार माने जाते हैं। उनकी भाषा सरल है जिसे मुनि वर्ग तो क्या हिन्दी जानने वाला सामान्य साधक भी समझ सकता है । इस अनुवाद में हम ने अनेक आगम प्रतियों से शुद्ध पाठ देख कर उद्धृत किये हैं। दो हस्तलिखित प्रतियों की सहायता भी ली गई है, क्योंकि आगमों में अनेक स्थानों पर जाव-पूर्ति हस्तलिखित प्रतियों से देखी जाती है । मूल प्रति संशोधन में आचार्य श्री तुलसी, श्री पुष्फ भिक्खू, श्री रत्नलाल डोशी, पूज्य श्री घासीराम जी और एक अंग्रेजी अनुवाद पुस्तक की सहायता से शुद्ध किया है । इस प्रति की विशेषता यह है कि इस में मूल पाठ के साथ संस्कृत छाया, पदार्थान्वय, मूलार्थ, हिन्दी टीका सम्मिलित हैं। सम्पादन के समय अनेक स्थानों पर सरलता के लिये हमें कभी कहीं शब्द परिवर्तन के लिए भी वाध्य होना पड़ा है, तदर्थ हमें देवलोकवासी आचार्यदेव क्षमा करेंगे ऐसी पूर्ण आशा है। आचार्य श्री ने कई स्थानों में अच्छा स्पष्टीकरण किया है जैसे 'कोटि' शब्द की व्याख्या उन्होंने करोड़ न करके संख्या विशेष कह दिया है और शास्त्र में चेलना के मांसाहार की प्रवृत्तियों का भी स्पष्टीकरण किया है। कई जगह उन्होंने उत्थानिका के माध्यम से वह बात भी कह दी है जिससे शास्त्र में हर सूत्र का अर्थ स्पष्ट हो सके। विशिष्ट धन्यवाद। इस सूत्र में प्रस्तावना हमारे शिष्य रवीन्द्र जैन व पुरुषोत्तम जैन ने लिखी है। इस पुस्तक पर अपना मन्तव्य भेजने के लिये फ्रांस की डा० नलिनी बलवीर एवं साध्वी डा० श्री मुक्ति प्रभा जी महाराज (एम. ए. पी-एच-डी.) को साधुवाद भेजती हूं। इस लेखिका ने सुन्दर शब्दों में इस रचना का अभिनन्दन किया है। समर्पण: ___अन्त में मैं साध्वी स्वर्ण अपने सम्पादक-मण्डल सहित यह रचना श्रमण भगवान महावीर के पाट पर विराजित इस सूत्र के अनुवादक, व्याख्याकार प्रथम पट्टधर श्री आत्माराम जी महाराज के कर कमलों में सादर समर्पित कर रही हैं। जैन स्थानक, अम्बाला शहर उपप्रतिनी साध्वी स्वर्णकान्ता ३१ दिसम्बर १९९३ [ सोलह]
SR No.002208
Book TitleNirayavalika Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Swarnakantaji Maharaj
Publisher25th Mahavir Nirvan Shatabdi Sanyojika Samiti Punjab
Publication Year
Total Pages472
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, agam_nirayavalika, agam_kalpavatansika, agam_pushpika, agam_pushpachulika, & agam_vrushnidasha
File Size10 MB
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