SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 25
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ चिन्ता न करते हुए सम्पादक-मण्डल में सम्मिलित होकर इस कार्य को सरल कर दिया । आप आत्म रश्मि मासिक पत्रिका के सम्पादक हैं कवि हैं, संस्कृत, प्राकृत के विद्वान् हैं। स्व० उपाध्याय श्रमण पंजाब प्रवर्तक श्रमण श्री फूलचन्द्र जी महाराज के सम्पादन में छपे स्थानांग सूत्र के प्रकाशन सहयोगी रह चुके हैं । श्री श्रमण जी द्वारा लिखित अन्य अनेक ग्रन्थों के भी आप सम्पादक हैं। इस समय आगमों का केवल हिन्दी सार आपके ही सम्पादत्व में छप रहा है । इसके अतिरिक्त आप अच्छे कवि हैं, चिन्तक हैं, समाज-सेवक हैं । मैं इन्हें साधुवाद देती हुई मंगल-कामना करती हूं कि वे इसी प्रकार जिन-शासन की सेवा करते रहें। अब दो नाम और हैं रवीन्द्र जैन व पुरुषोत्तम जैन। ये मेरे लघु शिष्य हैं। जैन-धर्म, साहित्य, एकता को समर्पित इनका जीवन मेरे दिशा-निर्देशन में चलता है। काम पच्चीसवीं महावीर निर्वाण शताब्दी का हो, इण्टरनेशनल पार्वती जैन अवार्ड का हो या भाषण-माला का। हमारे ये दोनों प्रतिनिधि हमारी हर आज्ञा को शिरोधार्य करते हैं। पिछले २५ वर्षों से ये पंजाबी में जैन साहित्य का निर्माण मेरी प्रेरणा से कर रहे हैं । संसार में बहुत कम लोग हैं जो इन जैसा स्वार्थ रहित जीवन जी सकें। ___ दोनों बन्धु एक दूसरे के पूरक हैं, धर्म-भ्राता हैं, श्रावक-शिरोमणि हैं, प्रागमों के ज्ञाता हैं। इन्होंने अपने हाथों से श्री उत्तराध्ययन मूत्र, श्री उपासक दशांग सूत्र, श्री सूत्र कृतांग सूत्र का पंजाबी अनुवाद करके समिति द्वारा छपवा चुके हैं। श्रमण सूत्र और निरयावलिका का पंजाबी अनुवाद भी कर चुके हैं। इस सूत्र के अधिकांश भाग का सम्पादन, प्रस्तावना कार्य इन दोनों ने मिल कर किया है। यह वर्ष इन दोनों के साहित्यिक जीवन का २५वां वर्ष है। आज तक ये प्रकाशित व अप्रकाशित लगभग चालीस रचनायें लिख चुके हैं। इनकी अनेक पुस्तकों के द्वितीय edition भी छप चके हैं। एक पुस्तक भगवान महावीर का तो इतना अभिनन्दन हुआ कि यह पंजाबी विश्वविद्यालय पटियाला के B.A. प्रथम वर्ष के पाठ्यक्रम में लगी हुई है। प्रस्तुत आगम के यह सम्पादक ही नहीं प्रबन्ध सम्पादक भी हैं। भारत के तत्कालीन राष्ट्रपति ज्ञानी जैल सिंह जी ने २७ फरवरी १९८७ को इन दोनों के शोध ग्रंथ पुरातन पंजाब में जैन-धर्म का विमोचन राष्ट्रपति भवन में किया था और दोनों को राष्ट्रपति ने 'श्रमणोपासक" पद से विभूषित किया था। उनका सम्मान केवल उनका ही नहीं, समस्त जैन समाज का सम्मान है। इस पागम में सभी का सहयोग एक सा है। पर मुख्य सम्पादिका होने के नाते मेरा कर्तव्य है कि मैं सम्पादक-मण्डल का साध्वी मर्यादा में रहकर उनके कार्य के लिए आशीर्वाद दूं । - मैं उन द्रव्य सहायकों के लिये भी मंगलकामनायें करती हूं, जिन्होंने द्रव्य-दान द्वारा प्रकाशन कार्य एवं श्री-संघ की प्रभावना की है। मैं उन समस्त आचार्यों, उपाध्यायों, साधुओं, साध्वियों, श्रावक-श्राविकाओं का आभार प्रकट करतो हूं जिन्होंने हमें प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से किसी भी प्रकार का सहयोग दिया है। [पन्द्रह]
SR No.002208
Book TitleNirayavalika Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Swarnakantaji Maharaj
Publisher25th Mahavir Nirvan Shatabdi Sanyojika Samiti Punjab
Publication Year
Total Pages472
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, agam_nirayavalika, agam_kalpavatansika, agam_pushpika, agam_pushpachulika, & agam_vrushnidasha
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy