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मेरे सांसारिक पिता श्री खजान चन्द्र जी जैन का इन कार्यों में सहयोग बना रहता था। मैं तब से आचार्य श्री के चरणों में समर्पित थी। मेरा भी आगमसम्पादन का संकल्प, संयम लेने पर दृढ़तर होता गया। प्रागम-स्वाध्याय तो साधुजीवन का प्रथम कर्तव्य है। साधु की रात्रिचर्या को भगवान ने चार भागों में बांटा है-१. स्वाध्याय २. ध्यान ३. निद्रा एवं ४. स्वाध्याय । प्रकट है कि जैन धर्म में स्वाध्याय का विशेष महत्व है। भगवान महावीर ने स्पष्ट कहा है-"स्वाध्याय अन्तरंग तप है। भूत, वर्तमान व भविष्य में इसके समान न कोई तप था, न है, न होगा।' स्वाध्याय तप की पूर्ति के लिये साहित्य का निर्माण होता है ।
हां! तो मेरी इस भावना को साकार रूप दिया आचार्य भगवान के शिष्य पूज्य गुरुदेव श्री रत्न मुनि जी महाराज ने । रवीन्द्र जैन और पुरुषोत्तम जैन मेरी भावना लेकर जब पूज्यगुरुदेव के पास गये तो उन्होंने मुस्कराहट से अपने गुरुदेव की हाथों की लिखी पांच कापियां इन्हें सम्भाल दों। साथ में यह भी कहा--"आगम में मेरा कोई उल्लेख न हो।' धन्य है ऐसी महान् आत्मा सम्पादक-मण्डल का कण-कण श्री रत्न मुनि जी महाराज का ऋणी है और ऋणो रहेगा। उन्होंने अपने गुरुदेव की अमूल्य निधि हम अनजानों के हाथों में सुपुर्द कर दी। हम सभी अनुभव-होन थे पर गरुदेव के आशीर्वाद एवं साधना का बल था कि आज वह रचना प्रकाशित हो सकी है
श्री रत्न मुनि जी महाराज ने हमारी लेखनो की भावनाओं को रोक दिया है। उनका नामोल्लेख न करना रूप आज्ञा भी हमारे लिये आशीर्वाद से कम नहीं है। श्री रल मुनि जो महाराज ऐसे सन्त हैं जो निस्पृह सन्त वीतरागता के अनुपम उदाहरण हैं। हमारे कार्य ने हमें मजब किया कि हम अपने उपकारी हापुरुष का वर्णन मात्र इस सम्पादकीय में अवश्य कर दें। भगवान कब कहते हैं हमारा नाम लिया जाय, पर नाम लेना ही भक्त के जीवन का आधार रहा है। वतुतः वे आत्म-कुल-कमल-दिवाकर हैं, मैं उनके चरणों में स्वयं सविधि चरण वन्दना करती हुई क्षमा चाहती हूं।
किसी भी कार्य की सिद्धि के लिए कोई न कोई निमित्त तो होता ही है, अगर निमित्त अपने शिष्य हों तो इससे बड़ा अहोभाग्य क्या हो सकता है ? कार्य सरल हो जाता है। इस भागीरथ कार्य में मुझे जिन लोगों ने साथ दिया उनमें से एक मेरी पौत्री शिष्या साध्वी स्मृति जी हैं। जो नवदीक्षित एवं डबल एम. ए. हैं । शासनदेव की कृपा से इसो वर्ष वे कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय की संस्कृत एम. ए. में सर्व प्रथम रही हैं। मैं इस बालिका की प्रतिभा को स्वीकार करती हूं, क्योंकि उसने मुझे परीक्षा के साथ-साथ आगम-सम्पादन के कार्य में भी सहयोग दिया है। स्मृति जी मेरे आशीर्वादों की पात्र हैं।
मेरी सहयोगिनी मेरी शिष्या साध्वी सुधा जी, साध्वी किरण जी एवं साध्वी वीर कान्ता जी, एवं साध्वी राजकुमारो जी आदि अनेक साध्वियों ने इस कार्य में मुझे सहयोग दिया है। अन्य शिष्याओं ने भी मेरा हर प्रकार से ध्यान रखा है, अत: वे सब मेरे आशीर्वादों की पात्र हैं।
मैं अपना आभार जैन समाज के प्रसिद्ध विद्वान पंडित श्री तिलकधर जी शास्त्री जो कि स्वयं आचार्य श्री के अनन्य भक्त हैं उनका आभार प्रकट करती हूं, जिन्होंने अपने स्वास्थ्य की
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