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________________ अति । कूणिक को प्रियता थी अपनी रानी पद्मावती के प्रति और अप्रियता थी अपने भाई वेहल्ल प्रति । वेल्ल को अपने पिता श्रेणिक द्वारा हार और हाथी भेंट में मिले थे। राजा कूणिक हार हाथी छीन लेगा इसी भय से बेहल्ल कुमार हार और हाथो को लेकर अपने नाना चेटक के पास वैशाली चला गया । पदार्थों के ममत्व में पला हुआ मानव भाई को भाई नहीं समझता। वह तो भाई को ही नहीं सारी वैशाली को ही मरघट बनाने को तैयार था। असल में वह वैशाली का नाश नहीं चाहता था, न ही उसका मन वैशाली का नाश स्वीकार करता था, किन्तु नदी जब समुद्र की ओर दौड़ती है न जाने कितने पत्थरों का नाश कर देती है। जब दावाग्नि प्रज्वलित हो जाती है। तो न जाने कितने जंगल भस्म कर देती है, मानव की चेतना को रोकने वाली लाखों दीवारें खड़ी होती हैं और बर्बाद हो जाती हैं। मानव में सृजनात्मक शक्ति है उससे भी अधिक उसमें विध्वंस की सामर्थ्य है । काल कुमार कूणिक का सेनापति होकर अपनी विनाश की शक्ति का प्रतीक बना हुआ था, किन्तु उसी विनाश-शक्ति में कालकुमार का काल समाहित था । केवल काल ही नहीं, सुकाल कुमार आदि ग्यारह कुमार भी युद्ध भूमि में सो गये । राजा चेटक ने अमोघ शक्ति का प्रयोग किया और विनाशात्मक शक्ति को विध्वंस की शक्ति में रूपान्तरित कर दिया । उसी क्षण मानो कूणिक के अहं की ग्यारह दीवारें सदा के लिए ध्वस्त हो गई । अहं की खूंटी से बंधी हुई कूणिक की जीवन नौका कहां तक पहुंच पायेगी ? वह यही देखना चाहता था, अतः वह वहीं खड़ा था जहां से उसने यात्रा प्रारम्भ की थी। विजय श्री को पाने के लिए उसने बहुत श्रम किया, शस्त्रों के प्रहार पर प्रहार किये। समय भो बहुत लगा, किन्तु नाव जहाँ थी वहीं रही एक कदम भी आगे नहीं बढ़ पाई, क्योंकि अहं को खूंटो से बन्धा हुआ मानव कोल्हू के बैल की तरह घूमता हो रहता है। एक कदम भी आगे नहीं बढ़ पाता, ग्रहं की मंजिल पर चलने वालों के जीवन का सूर्योदय कभी नहीं हो पाता । उन्हें जीने का आनन्द कभी नहीं मिलता । उसी मंजिल पर खड़ा कूणिक स्वच्छ परिधानों के पीछे छिपे दोषों का भार वहन करने पर भी अपनी दुर्बलता का अनुमान कभी लगा नहीं सका। सारी सृष्टि पर विजय पाने पर भी अहं का क्षुद्र बिन्दु उसे परास्त करने में सफल होगा, उससे वह अनभिज्ञ था । पराक्रम अद्भुत और असाधारण होने पर भी प्रत्येक रहस्य का उद्घाटन ही अहं के प्रयोजन से होता था। अहं के प्रचण्ड विकराल रूप ने उसे चैन नहीं लेने दिया। ऐसे मानव का जन्म हुआ तो भी क्या ? मर गया तो भी क्या ? दोनों के बीच केवल कुछ कदमों का ही तो फासला है। यात्रा में निकले हुए कूणिक को राज्य का आनन्द नहीं, धन-संपत्ति और सुन्दरो का आनन्द नहीं, उसका प्रानन्द तो हार और हाथी में था, इसलिए उसका अहं जाग उठा था। इसीलिए युद्ध प्रारम्भ हो गया था। इसीलिए खून की नदियां बह रही थीं। लाखों ललनाओं का सिन्दूर पुंछ गया था। हजारों माताओं की गोदियां सूनी हो गई थीं। कहीं खून था, कहीं हड्डियां थीं, कहीं सिर पड़े थे, कहीं हाथ और पैर कटे पड़े थे । कहीं कटे [अठारह ]
SR No.002208
Book TitleNirayavalika Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Swarnakantaji Maharaj
Publisher25th Mahavir Nirvan Shatabdi Sanyojika Samiti Punjab
Publication Year
Total Pages472
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, agam_nirayavalika, agam_kalpavatansika, agam_pushpika, agam_pushpachulika, & agam_vrushnidasha
File Size10 MB
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