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________________ वर्ग-चतुर्थ ] ( २५६) [निरयावलिका * श्रमणोपासिका बन कर, जाव-यावत्, विहर इ-विचरण करने लगी, तएणं-तत्पश्चात्, तोसे सभद्दाए समणोवासियाए- उस सुभद्रा श्रमणोपासिका को, अण्णया कयाइ-अन्न किसी समय, पुवरत्तावरत्तकालसमए-मध्य रात्रि में, कुडुबजागरियं जागरमाणीए समाणीए- कुटुम्ब जागरण करते हुए, अयमेयारूवे अज्झस्थिए-इस प्रकार के विचार उत्पन्न हुए, जाव-यावत्, संकप्पे समुपज्जित्था-संकल्प उत्पन्न हुआ, एवं खल-निश्चय ही, अहं-मैं, भद्देणं सत्थवाहेणं सद्धिभद्र सार्थवाह के साथ विउलाई भोगभोगाई-विपुल भाग-उअभाग भोगतो हुई, जावयावत, विहरामि-विचर रही हैं, नो चेव णं अहं दारगं वदारियं व पयामि-मेरे यहां कोई भी बालक व बालिका का जन्म नहीं हुआ, तसेयं खल-इसलिए मुझे उचित है कि, ममं कल्लं पाउप्पभायाए-कल दिन होते ही, जाव-यावत जलते-सर्योदय के समय, भस्स-भद्र सार्थवाह को, आपूच्छित्ता- पूछ कर, सव्वयाणं अज्जाणं-सव्रता आर्या के, अंतिए-समीप, अज्मा भवित्ता अगाराओ--आर्या बनकर अनगार होने के हेतु, जाव पव्वइत्तए-याव प्रवज्या ग्रहण करूं, एवं सपेहेइ संपेहित्ता-इस प्रकार विचार किया और विचार करके, जेणेव भद्दे सत्यवाहेजहां भद्र सार्थवाह था, तेणेव उवागया-वह वहां आई, करतल जाब-हाथ जोड़ कर यावत्, एवं वयासी-इस प्रकार कहने लगो, एवं खल-इस प्रकार निश्चय ही, अहं देवाण प्पिया-हे देवानप्रिय मुझे, तुहिं सद्धि-तुम्हारे साथ, बहूई वासाई-बहुत वर्षों से, विउलाइ भोग भोगभोगाई भुजमाणी नाव-विपुल भोग भोगती हुई यावत्, विहरामि-रह रही हूं, नो चेव णं दारगं वा दारियं वा पयामि-मेरे वहां कोई बालक या बालिका का जन्म नहीं हआ, तं-इसलिए, इच्छामि -मेरी इच्छा है, देवाणप्पिया- हे देवानप्रिय, तह-आप से, अभणण्णाया समाणी-आज्ञा पाकर, सुव्वयाण: अज्जाणं जाव पच्वइत्तए-सुव्रता आर्य के पास प्रवज्या ग्रहण कर लूं ॥७॥ मूलार्य-तत्पश्चात् उस सुभद्रा श्रमणोपासिका को किसी दिन अर्ध-रात्रि के समय कुटुम्ब जागरण करते हुए इस प्रकार आध्यात्मिक संकल्प पैदा हुआ कि (मुझे इस प्रकार भद्र सार्थवाह के साथ विपुल भोगोपभोग भोगते काफी समय व्यतीत हो गया है, फिर भी मेरे कोई लड़का व लड़की उत्पन्न नहीं हुआ, इसलिए मुझे यही उचित है कि प्रातः सूर्योदय होते ही कल मैं भद्र सार्थवाह की आज्ञा लेकर साध्वी सुव्रता के समीप जाकर आर्या (साध्वी) बन जाऊं, अर्थात् दीक्षा अंगीकार कर लूं। - इस प्रकार विचार करके प्रातः ही, जहां भद्र सार्थबाह था वहां आई और दोनों हाथ जोड़ कर इस प्रकार विनय करने लगी-हे देवानुप्रिय ! आपके साथ विपुल भोग भोगते हुए, मुझे लम्बा समय व्यतीत हो गया है, फिर भी मेरे यहां एक भी बालक या वालिका उत्पन्न नहीं हुआ। हे देवानुप्रिय ! मेरी इच्छा है कि आपकी आज्ञा लेकर
SR No.002208
Book TitleNirayavalika Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Swarnakantaji Maharaj
Publisher25th Mahavir Nirvan Shatabdi Sanyojika Samiti Punjab
Publication Year
Total Pages472
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, agam_nirayavalika, agam_kalpavatansika, agam_pushpika, agam_pushpachulika, & agam_vrushnidasha
File Size10 MB
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