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________________ निरयावलिका] (२६०) [वर्ग-चतुर्थ मैं सुव्रता आर्या के चरणों में दीक्षा अंगीकार करूं ॥७॥ टोका-सुभद्रा यह सोचने लगी कि संसार के भोग भोगते हुए लम्बा समय गुजर चुका है मेरे कोई सन्तान उत्पन्न नहीं हुई, मैं कल प्रात: ही अपने पति से आज्ञा लेकर साध्वी सुव्रता जी के पास पाँच महाव्रतों को धारण करूंगी। अगली सुबह वह अपने पति के पास आई, उसने पति को नमस्कार किया फिर अपने मनोगत भाव इस प्रकार प्रकट किये-हे देवानुप्रिय ! मुझे आपके साथ विपुल भोग उपभोग भोगते लम्बा समय व्यतीत हो गया है किन्तु मेरे यहां एक भी बालक व बालिका उत्पन्न नहीं हुई। इसलिये मैं आपकी आज्ञ से साध्वी बनना चाहती हूं। सुभद्र सेठ ने अपनी पत्नी को बहुत तर्क, वितर्क, प्रलोभनों द्वारा सांसारिक सुखों का वास्ता दिया, पर सुभद्रा अपने निश्चय पर अडिग रही। लम्बी वार्तालाप के बाद भद्र सेठ को आज्ञा न चाहते हुए भी आज्ञा देनी पड़ी। प्रस्तुत सूत्र में सुभद्रा सेठानी की गुण ग्राहता, विनम्रता, शालीनता, एवं शिष्टाचार का दिग्दर्शन कराया गया है। साथ में उसकी दीक्षा का कारण उसका वांझपन है जिससे दु:खी होकर एक माता होने के नाते उसे सारे सुख वेकार लगते हैं ।।६।। ___ इस सूत्र से यह सिद्ध होता है कि धर्म सुनने से साभ हो सकता है। धर्म (धार्मिक विचार) सुनकर जीव निर्ग्रन्थ-प्रवचन के प्रति श्रद्धावान हो जाता है। कहा भी है जीवदया सच्चवयणं परधणवज्जणं सुसोलं य खंतिय पंचिदिय निग्गहा य धम्मस्स मूलाई । अर्थात्-जीवदया, सत्य वचन, पराएधन का त्याग ब्रह्मचर्य, परिग्रह त्याग, क्षमा व पंचेन्द्रिय निग्रह ही धर्म का मूल है । ये धर्म-प्राप्ति के श्रद्धा-वाचक शब्द हैं। ' एव मेयं, तहमेयं, अवितहमेय, असंघिद्धमेयं--अर्थात् जो आप (साध्वियों) ने कहा है वह यथार्थ है, सत्य है, शंका रहित है, पूर्ण तथ्य है। धम्म सोच्चा निसम्म-धर्म को सुनकर हर्ष हुआ अर्थात् धर्म सुन कर विचार उत्पन्न होता है। .. पति-पत्नी के परस्पर वार्तालाप में "देवाणुप्पिया" शब्द का प्रयोग किया गया है। यह शब्द प्रत्येक व्यक्ति द्वारा ग्रहण करने योग्य है। "देवानुप्रिय" शब्द जैन शास्त्रों में सामान्य जन से लेकर तीर्थङ्कर तक प्रयुक्त हुआ है ॥७॥ ___मूल--तएणं से भद्दे सत्थवाहे सुभई सत्यवाही एवं वयासी-मा णं तुमं देवाणुप्पिए ! इवाणि मुंडा जाव पव्वयाहि, भुजाहि ताव देवाणुप्पिए ! मए सद्धि विउलाई भोगभोगई, ततो पच्छा भत्तभोइ सुव्वयाणं अज्जाणं जाव पव्वयाहि । तएणं सुभद्दा सत्यवाही भद्दस्स० एययट्ठ नो आढाइ नो परिजाणइ दोच्चं पि तच्चपि भद्दा सत्थवाही एवं
SR No.002208
Book TitleNirayavalika Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Swarnakantaji Maharaj
Publisher25th Mahavir Nirvan Shatabdi Sanyojika Samiti Punjab
Publication Year
Total Pages472
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, agam_nirayavalika, agam_kalpavatansika, agam_pushpika, agam_pushpachulika, & agam_vrushnidasha
File Size10 MB
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